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Full text of "Kavyalankara Of Rudrata With Hindi Vyakhya Satyadev Choudhary 1965"

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ङुट्रट-प्रणोत 
कात्यारुकार्‌ 


[अंुप्रभाऽऽख्य-हिन्वीव्याख्या-सहित |] 


हिन्दीन्येरिका््ग 
डं० सत्येव चोधर 


शास्त्री, एम. ए. (संस्कृतः हिन्दी), पो-एच. डी. 
भराध्यापक : इन्स्टीयुयूट श्राफ पोर्ट जुट स्टडीज; दिल्ली यूनिवर्सिटी, दिस्ली 


हिन्दी-अनुसघान-परिषद्‌ दिल्छो विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त 
वासुदेव प्रकाठन दिल्ली 


दारा भरकाक्षित 


प्रकाशक : 
वासुदेव प्रकाष्ान 
माडल टाउन, दिल्ली-& 


पयम्‌ संस्करण ¦ .१६६१५ 
प्रतिर्यो को संख्या ; १००० 
पुष्ट-संख्या- : 5-~-४८६--४५६-- ५१२ 


। + 
किक 


सर्वाधिष्यरप्रकाषकाधन सुरक्षित 


मूल्य : २१ खपये 


मरकः ~ । । 
कुमार जारषट प्रप्र, दिल्ली (पृष्ठ १ से धन तक) 
नवीन प्रेत, दिल्ली (जेग्रन्य) ˆ ` ` “ 


अन्य है 1 'हिन्दी-अनुसंधान-परिषद्‌' हिन्दी-विभाग, दिल्ली विर्व वद्याख्य की सस्था है 
जिसकी स्थापना अक्तूबर, सन्‌ १९५२ मे हुई थी । परिपद्‌ के मुख्यत. दो उदेश्य ह 
हिन्दी-वाड्मय-विषयक गवेषणार्मक अनुशीलन तथा उसके फरस्वरूप प्राप्त साहित्य 
क्रा प्रकाडन । | 
अव तक परिषद्‌ की ओर से अनेक महतत्वपूणं ग्रन्थो का प्रकाशन हो चूका \ 
- परकारित ग्रन्थ तीन प्रकार के है--एक तो वे जिनमे प्राचीन काव्यशास्त्रीय ग्रन्थो का 
-हिन्दी-रूपान्तर विस्तृत आलोचनात्मक भूमिका के साथ प्रस्तुत किया गथा है; दुसुरे 
चे जिन पर दिल्ली विदवविद्याख्य की ओर से पी-एच. डी. उपाधि प्रदान की गयी है 
-जौर तीसरे एेसे है जिनका अनुसन्धान के साथ--उसके सिद्धान्त ओर व्यवहार दोनो 
-यक्षो के साथ--प्रत्यक्ष सम्बन्ध है । 
पथम वग के अन्तगंत प्रकारित ग्रन्थ दै--(१) हिन्दी काव्यार्कारसूत्र, 
-(२) हिन्व वक्रोक्तिजीवित, (३) अरस्तू कां काग्यशास्त्, (४) हिन्दी कान्यादल्ं, 
(५) अन्तिपुराण का काव्यशास्त्रीय भाग, (हिन्दी-रूपान्तर), (६) पाइचात्य कानव्य- 
शास्त्र की परस्परा, (७) होरेस कृत "कान्यकखा, (८) हिन्दी अभिनवभारती, (६) 
हिन्दी काव्यप्रकाश, (१०) हिन्दी नाद्यदपंण, (११) सौन्दयंतत्त्व ओौर कान्यसिद्धान्त, 
{ १२) हिन्दी भक्तिरसामृतसिन्धु । 
द्वितीय वं के अन्तगतं प्रकारित ग्रन्थ है--(१) मध्यकालीन हिन्दी कव- 
यित्रिर्याँ, (२) हिन्दी नाटक : उद्‌भव ओौर विकास (३) सूफीमत गौर हिन्दी साहित्य, 
(४) अपश्च श साहित्य, (५) राघावत्कभसम्प्रदाय : सिद्धान्त ओर साहित्य, (६) सुर 
की काव्यकला, (७) हिन्दी मे अ्रमरगीतकाव्य ओौर उसकी परम्परा, (८) मंधिलीश्षरण 
गुप्त : कवि ओौर भारतीय संस्कृति के आख्याता, (£) हिन्दी रीति-परम्परा के प्रमुख 
-आचायं, (१०) मतिराम : कवि ओर आचार्य, (११) आधुनिक हिन्दी-कवियो के 
कान्यसिद्धान्त, (१२) ब्रजभाषा के छष्णकानव्य मे माधुयं भक्ति, (१३) प्रेमचन्द-परवं 
दिन्दी-उपन्यास, (१४) हिन्दी मे नीतिकान्य का विकास, (१५) आधुनिक हिन्दी- 


1 


मराठी मेँ काव्यशास्त्रीय अध्ययन, (१६) आधुनिक हिन्दी-काव्य कौ रूपविचाएु 
(१७) गुरुमुखी छ्पि मे हिन्दी-काग्य ! 

तीसरे व अन्तर्गत तीन ग्रन्थों का प्रकाशन हो दका है। 

(१) अनुसन्धान का स्वरूप, (२) हिन्दी के स्वीकृत शोधप्रवन्व, (३) अनु-- 
सन्धान की प्रक्रिया | 

प्रस्तुत ग्रन्थ रुद्रट.प्रणीत "काल्याठकार" प्रथम वग का शवां प्रकारन है । 
सद्रट नवम रती के कृती-आचार्य है थर इनका यह्‌ ग्रन्थ एक ओर ध्वनिपूवेवर्ती अरंकार- 
ग्रन्थो तथा दूसरी ओर व्वन्यालोक' के वीच योजक श्छंलला के रूप मे विधमानं है ! 
एसे महत्वपुणं ग्रन्थ की यह प्रथम हिन्दी-व्याख्या है, जो काव्यश्चास्त्र के अधिकारी 
विद्धान्‌ डो< सरस्यदेव चौधरी दपर की र्यी रै 

परिषद्‌ की प्रकारान-योजना को कार्यान्वित करनेमे हमे हिन्दी की अनेक 
प्रसिद्ध प्रकाशन-सस्थाओ का सक्रिय सहयोग प्राप्त होता रहा है । उन सभी के प्रति 
हम परिषद्‌ की ओर से कृतक्ञता-ज्ञापन करते है । । 


हिन्दी विभागः ० मगेन्द्र 
दिल्ली विंश्वंवि्यालय - ` अध्यत्त 
दिल्ली । हिन्दी श्रवुसन्धान-परिषिद्‌ 


सम्मान्यवर 
प° दीनानाथ शमां शास्त्री सारस्वतः, विद्यावागीश 
को 
जिनके श्रीचरणों मे वेठकर यने कान्यशास्त्र का अध्ययन किया, 
तथा 
„ दिवंगत 
आचाय विश्वेश्वर 
। को 
जिन्होने मनेक काव्यज्ञास्त्रीय ग्रन्थों की हिन्दी-व्याख्याएं 
प्रस्तुत कर इस दिशा मेँ अभिनव मागं प्रशस्त किया । 


--सत्यदेव चौधरी 


थस्मिन्तशेषविदयास्थाना्थविभूतयः प्रकाशन्ते । 
संहत्थ, ख साहित्यप्रका् एताहशो भवति ५ 
--भोजराज 
यदवक्रं वचः शास्त्रे लोके च वच एव तत्‌ । 
वक्र' यदर्थवादादो तस्य काम्यसिति स्मृतिः) 
--भोजराज 
निरस्तररसोद्गारगभेसन्द्भनिर्भराः । 
गिरः कवीनां जीवन्ति न कथासात्रमाश्नित्ताः ५ 
--रुन्तक 
नाकदित्वमघर्षाय पतये दण्डनाय वा \ 
कुकवित्वं पुनः साक्लान्मतिमाहुमंनीषिरणः \1 
४ -भामह्‌ 
यस्तुष्टे वुष्टिमायाति शोके शोकमुपेति च । 
देन्थे दीनत्व मभ्येति स नाटय प्रेक्षकः स्मरतः ॥ 
- , -भोजराज 
येषां काव्यानु्लीलनाभ्यासवराद्‌ विश दीभूते मनोमुकरे वणेनीय- 
तन्मयीभवनयोग्यता ते हुद्यसंचादभाजः सहदयाः । 
--अभिनवगुप्त 
इतरपापफलानि यथेच्छया, वितर तानि सहे चतुरानन । 
भ्ररसिकेषु कवित्वनिवेदनं, किरसि मा लिख मा लिख मा लिख \ 


(अज्ञात) 


भूमिका 


® जोतनवृत्त 
® काव्यालंकार : सामान्य परिचय 
अलंकार-प्रकरण (८), रस तथा नायकनायिकाभेद- 
रकरण (£), दोष-प्रकेरण (१७); अन्य काव्यतत्त्व (१६) 
० उदाह्रण-भागं ती 
® प्रतिपादन-दोरी 
® विभिन्न काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ओर रस्द्रट 
® रद्रट का मह्त्‌ 
@ रद्रट गौर रद्रभट्‌ 
® कान्यालकारके टीकाकार्‌ 


पृष्ठ 


२२ 
२६ 
९८ 
३१ 
[=-2.1 
4. 


ममनः काव्यतत्त्वस्य क्रियमाणं विमरनम्‌ 1 
सर्वथा स्याच्छिरोधार्यं मम तुष्टिप्रदं परम्‌ ॥ . 


. भूमिका 


संस्कत के काव्यहास्त्रीय ग्रन्थों मे इद्रट-प्रणीत कान्याककार यद्यपि भरत, 
भामह, दण्डी, वामन, आनन्दवधंन; कन्तक, मम्मट, विश्वनाथ तथा जगन्नाथ के म्र््थो 
के समान अत्यन्त प्रख्यात नही है, किन्तु उधर घ्वनिपूरववर्तीं आचार्यो गौर इधर ध्वनि- 
प्रवतंक मानन्दवद्धंन के म्रन्थो के बीच एक अनिवायं कंडी के रूप मे विद्यमान यह्‌ ग्रन्थ 
अपना विशिष्ठ महत्त्व रखता है । 

पिके 'छगभग पन्द्रह वर्षो मेँ स्वर्गीय आचायं विदवेदवर तथा कतिपय अन्य 
-विद्धानो ने संस्कृत के अनेक महत््वपुणं काव्यशास्त्रीय रन्यो की हिन्दी-व्याख्याए प्रस्तुत 
की, जिनसे हिन्दी-जनगत्‌ “मे काव्यशास्त्र के अध्येताभो के क्िषए मूल पाठ को समक्षने का 
छार उन्मुक्त हौ गया । पूर्वापिर-प्रसगो से यथावत्‌ अभिज्ञता प्राप्त करने के उपरान्त 
परम्परागत अनेक .कान्यज्लास््ीय मान्यताभो को स्वच्छ एव विदद रूपमे हूदयंगम 
करने करा तथा उन्हँ पु्ंतः-अधवा रतः स्वीकृत भथत्रा अस्वीकृत करने क्रा माग भी 
प्रस्त हो-गया। जिज्ञासु अध्येताओो को भपेक्षाकृत अधिक सामग्री उपलन्ध होने लगी 
तथा कतिपय त्रूतन धारणाओं -एव मान्यताओ को प्रस्तुत करने की सम्भावनाएं भी 
"बह गईं । इन,सवब का सुपरिणाम-यह-हुञा गहै कि इन व्याख्यामो के द्वारा अब काव्यगास्र 
के्रति अधिक अभिरुचि जागृत होनेल्गी है । -प्रस्तुत ग्रन्थ की दहिन्दी-व्याख्या मी 
"इसी शखला मे एकर विन्न भ्यास है 1 


जीवन-वृत्त 


रुद्रटः १, के जी वन-वृत्त के सम्बन्ध मे"विरेष सामग्री उपलब्ध नही होती । उद्‌भट, 
मम्मट आदि कदमीरी आचार्यो के नाम के अनुरूप रद्रट नाम -भी -डस -तथ्यकी ओर 
सकेत करता है कि यह मी सम्भवतः कदमीर-निवासी होगे, किन्तु इस सम्बन्धमें 
निख्चयपूवेक कु भी -नही क्रहा .जा सकता 1 प्रस्तुत ग्रन्थ के टीकाकार नमिसाधुने 
पचम अघ्याय के शचित्रकाव्य-प्रकरण' मे यह सकेत किया है कि शुद्रट का एक अन्य 
नाम शतानच्द भी था । वह्‌ -सामवेद-पाटी थे । उनके पिता का नाम भट्ट वामूक 


१. ख््रट मौर सद्र के सम्बन्ध मे देखिए भूमिका का अन्तिम .माग । 


र्‌ 


था 1१ इन्होनि अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में गणेश गौर गौरी की वन्दना की है गीर अन्त 
मे भवानी, मुरारि ओर गणेश की ।* इनमे गणेश ओौर गौरी (भवानी) की स्तुति से 
यह अनुमान र्गा केना कदाचित्‌ असंगत न होगा किं रुद्रट शंव थे । किन्तु फिर भी इनं 
स्तुति-परक पदयो के बर पर इस सम्बन्ध में निदचयपूरव॑क कुछ नही कहा जा सक्ता ह । 

किसी रचना में अनूस्यूत विचारो के आधार पर यदि रचनाकार की प्रकृति 
का अनुमान लगा लेने की प्रक्रिया को समनोवंज्ञानिक रूप से उचित एवं यथाथ समना 
जाए तो इस दृष्टि से निम्नोक्त दो पदयो को उद्धुत करना वांछनीयं रहेगा जो कि 


रद्रट ने निषिद्ध प्रसगो का निदेश करते हुए जिद है । इनसे प्रतीत होता है कि खद्रट 
कितने स्पष्टवादी थे- 


दारिद्रच्याधिजराक्लीतोष्णादयुूवानि दुःखानि । 
बीभत्सं च विदध्यादन्यन्न न भारताटर्बत्‌।। 
वषष्वन्येष॒ यत्तो मणिकनकमयो मही {हृतं सुलमपु । 
विगताधिन्याधिजरदन्धा लक्षायुषो लोकाः ।3 १६।४०.४१ 


निस्सन्देह इन पदयो सेरद्रटकी अपने युग के प्रति सजगता तथा भाव्रुक्तासे 
दूर हटकर अन्य कवियो के असमान भारत की वास्तविक दरा वणित्तकरनेकी 
सचेतन जागरूकता लक्षित होती है । इन पद्यो से पूर्ववर्ती दौ पदयो (१६१३७३८) को 
देखने से तो यहं स्थिति भौर भी स्पष्ट हो जाती है कि मनुष्यो द्वारा कुलपवंत, समुद्र, 
सप्तद्वीप जादि का रघन वणित नही करना चाहिए ओर देवताओ के पास विमान मादि 
होने का वणेन भी किया जा सकता है।' इन चाये पद्य से एेसा प्रतीत होतादहैकि 
जंसे कोई ददाम शती का व्यनित नही, अपितु आज काही व्यक्ति प्राचीन प्रसिद्ध 
यख्यानों को केवर कथानक-मात्र समङ्जता हुभा उन्हे उसी र्पमेदही वाणत करने 
ओौर भारत की अधुनातम अवस्था का चित्रण वास्तविक स्पमेदही करते का परामश 
दे रहा हो) अस्तु! 

समय--रएद्रट का समय क्या था, इस सम्बन्ध मे पर्याप्त सामग्री प्रस्तुतकी जा 


१. उतानन्दापरास्येन सद्‌टवामुकसुनुना । 


साधितं सद्रटेनेद सामाजा धीमता हितस्‌ ।।५।१४। (टिप्ण) 
२. काव्यारक!र \१।१; १६।४२ 1 


इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ के उदाहरण-माग सें भी अनेक देवतां की स्तुति 


की गयी है । देष्वए्‌ ५।६ ६,१२,१८,२१, ७।३६,२३७ । 
३. देखए ए० ४२६, 


दे 


सकती है । सुद्रट ने इस ग्रन्थ मे ५ शब्दालंकार ओौर ५७ अर्थाकंकारो अर्थात्‌ कुक ६ 
अलकारों का निरूपण किया है 1 अर्थालकारोमें से चार अक्कार दो-दो वार वणित 
हए है । १ इन अल्कारो को कम कर देने पर अर्थाकंकारों की संख्या ५३ रहं जाती 
दै। इनमे से केवर २६ अक्कार दही एेसे है, जो इनसे पूरवंवर्तीं आचार्यो- भरतः. 
भामह, दण्डी, उद्रमट, वामन द्वारा भ्रस्तुत किये जा डके थे । शेष २७ अककार सवं- 
प्रथम इन्दी के ग्रन्थ मे ही उपकन्च होते हँ । इनकी आाविष्कृति का श्रेय शुदरट को दियाः 
जाए या किसी अन्य अप्रख्यात आचार्यं अथवा आचायंवगं को, इस सम्बन्ध मे निश्चय 
पूवेक कुछ नही कहा जा सकता, किन्तु इससे यह तो स्पष्ट ही है कि शुदरट उक्त पचो 
नाचार्यो के परवर्ती थे । 

. इसी तथ्य की पुष्टि वक्रोक्ति" नामक अलूकारसे भी होती है, जिसे शट्रटने 
सर्वप्रथमं एक शव्दाककार के रूप मे प्रस्तुत करते हुए इसके दो भेद निदिष्ट कयि -- 
दकेषवक्रोक्त्ि ओौर काकुवक्रोवित, गौर जिसे आगे चरूकर परवर्ती मम्मट एवं विद्वनाथ 
जसे मम॑ज्ञ एवं प्रख्यात आचार्यो ने इसी रूपमे ही अपना लिया ।> उधर श््रटसे 
पू्व॑वर्ती आचार्यो ने भी वक्रोक्ति का उल्केख किया था, किन्तु किसी एक विशिष्ट 
अलकारके रूप मे नही, अपितु एक सामान्य कान्यतत्व के रूप में । भामहने इसे 
गकरकार (काव्यत्वं) का एक सामान्य जाधार स्वीकार किया तो दण्डी ने इसे अल- 
कार का-कान्यदोभाकर घमं का*--पर्यायवाची माना 1& इनके अतिरिक्त वामन नेः 
वक्रोक्ति को सवंप्र थम अर्थाचकार के रूप मे प्रस्तुत किया ।७ 

इन सनको, विरोषतः भामह की, वक्रोकिति-सम्बल्धी धारणा से प्रेरणा प्राप्त कर 


[+ ~^ 
) 


देखिए सभिका-माग पृष्ठ ₹ 
कान्याङकार २। १४, १७ 
२३. कार भ्र० ६।७८ सा० द० १०।६ 

यहां यह उतल्लेखनीय है कि राजज्ञेखर ने सुदरट-सम्मत (काकु-वक्रोदित' को 

स्वीकार नही किया । (का० मी° ७म अध्याय) 
४. (क) चक्ताभिेयशब्दोषितरिष्टा वाचामलंकृति. ! का० ञ० १।६ 

(ख) वाचां वक्रार्थश्ब्दोक्तिरलंकाराय कल्पते । वही, ५।६६३ 

(ग) हेतु. सृक्ष्मोऽय केश्षक्च नालं कारतया मतः । 

समुदायाभिधानस्य वक्रोक्त्यनमिधाचत ॥ 

‰* काव्यशोभाकरान्‌ धर्मान्‌ अकंकारानु प्रचक्षते । का० अ० २।१। 


दुष. सर्वासु पुष्णाति प्रायो वक्नोषितषु धियम्‌ । का० आ० २।३६३ । 
७. का० सुर वृ० ४।३।८६. 


६ 


ई? 


र 


स्टद्रट के परवर्ती आचार्य कुन्तक ने तो हंसे व्यापक रूप प्रदान किया, किन्तु .रुदरट"ने 
चसे एक दाब्दारंकारके रूप मे ही प्रस्तुत किया ओर शायद इनके वाद ईसीं अर्छकार के 
ङी उदाहरणस्वरूप रत्नाकर ने “वक्रोक््िपचाशिका' नमक एक काव्यग्रन्थ की सचना 
की ! निष्कषं यहु कि रुद्रट "वक्रोक्ति नामक कान्य-तत्तव के आघार पर भी भामह, 
दण्डी एवं वामन के परवर्ती ठहरते दै, -क्योकिं रद्रट से पूवं वक्रोक्ति अभी एक व्यापक 
"एवं सवंसामान्य काव्यतत्त्वं कौ प्रतिपादिका थी, इसे संकुचित एवं चिरिष्ट रूप रुद्रट 
ष्या दी मिला! अस्तु । 

वामन को भामह गौर दण्डी से परवर्ती माना जाता है । इनका समय पवी शती 
का उत्तराद्धं स्वीकारकिया गया है । जसा कि हमने ऊपर देखा रुद्रट वामन से परवर्ती 
हु, अतः शद्रट का समय पवी राती के वाद का मनना चाहिए--यह्‌ इनके समय कौ 
-उन्चवतम सीमा है । अर्थात्‌, इससे पहर इनके अस्तित्व का प्रन हौ उपस्थित नही 


च्धोता । 
५ ४ न ह 
रुद्रट के समय~निर्धरिण के प्रसंग मे कतिपय अन्य तथ्य भी उच्केख्य है-- 


शिुपाख्वध के टीकाकार वल्लभदेव ने इस ग्रन्थ की टीका में यह सकेत 
क्रिया है कि उन्होने द्रटप्र णीत एक अख्कार-ग्रन्थ की भी टीका प्रस्तुत की हे, तथा 
दैल्श के अनुसार उक्त टीका मे उद्धृत अनेक पद्य (जिनके साथ किसी केचि अथवा 
चायं का नामोत्कंख नही किया गया) एेसे है, जो वस्तुत शद्रट के काव्यारुकार से 
-गृहीत है । ° इसके अतिर्क्ति उद्मट-प्रणीत काब्याकंकार क टीकाकार अ्रतिहारेन्दुराज 
ने भी सद्रट की केम-से-कम तीन कारिकां एव उदाहूरण उद्धृतं किये है 1* वृह्कभदेव 
सौर प्रतिहारेन्दुराज दोनो का समय दरम शती का पूर्वाद्धं माना जाता है, अतः 
सद्रट के समय की यही निम्नतम सीमा स्वीकृत की जानी चाहिए, अर्थात्‌ इसके वादं 
उनका जीवनकाल नही समञ्लना चाहिए । 
इस प्रकार उक्त दोनो सीमागो--ठ्वी दती का उत्तराद्धं ओर १०बवी रती 
का पूर्वाद्धं--को देखते हुए सद्रट का समय नवम शती का मध्यभाग मानना चाहिए । 
किन्तु यही एक शका उत्पन्न होती .है कि आनन्दवदधन ने जो कि र्द्रट का समकारीन 
माना जाता है, न तो इनके किसी सिद्धान्त का उल्छेख किया है गौर न उनके ग्रन्थ 
काव्याल्कार से कोई कारिका या उदाहरण प्रस्तुत किया है, इसका कारण क्या 
_ हौ सकता है ? इसका एक ता सम्भव कारण यह्‌ है कि उन्होने र्द्रटके इस ग्रन्थको 
१. क्षिदयुपाल्वध (काली संस्कृत सीरीज्‌, सन्‌ १६२६) ४.२,६,२८--टीका-माय । 
२. काव्यालंकार २,४४,४८;०८,२६,२३७,९.६.१०,२३३,१२,५५,१३,४० । 
२. कालव्याल कार ७।३५,३६; १२1४ 
का० सा० ° (टीका-प्रतिहारेन्डुराज) पु० ४६,५७ 1 


4 


नही देखा होगा 1 शायद उन्हे यह उपल्न्धदही न. हृजा हो 1 दूसरा कारणं यहं कि 
उन्होने इसे अपने ध्वनि-सिद्धान्त से किचित्‌ अकग-सा पाकर अथवा रद्रट की कुछ-एकं 
घारणागों से असहमत होते हुए इसे उद्धत करने की भवद्यकता न समन्नी हौ । किन्तु 
दूसरा कारण मनस्तोषक प्रतीत नही होता, क्योकि आनन्दवद्धंन जसा ममंविदु एवं 
भवर आचायं रुद्रट की विरोधी धारणाय को उद्धृत करने के उपरान्त उनका खण्डन 
अर्वश करता, विक्ेषत उसः स्थित्ति मे जवकि उन्होने अनेकं पूवंवर्ती मान्यता्ों का 
खण्डन किया है, तथा अनेक ग्रन्थो एव ग्रन्थकारो को उद्धृत किया है; जबकि उन्हें 
अपने ग्रन्थ की वृत्ति मे देसे प्रसंगो को उद्धुत करने का पर्याप्त अवसर भी प्राप्त था; 
ओर जवकिं सुद्रट कां काव्यारुकार कोई सामान्य कोटि का ग्रन्थ भीनहीहै कि जिसे 
उद्धृत करने की उन्होने कोई आवश्यकता न समज्ञी हो । अस्तु ! उपर्युक्त पहला; 
कारणदही मान्यै कि उन्होनिदइस ग्रन्थ को किसी कारण से नही देखा होगा 1 


कान्यालंकार : सामान्य परिचय 


काग्यारुकारमे १६ अध्याय है, जिनमे करल ७३४ पद्य ह । १२वे अध्याय केः 
४० वे' पद्य के उपरान्त १४ पञ्च प्रक्षिप्त माने जाते है, यदि उनको भी सम्मिकिति किख 
जाए तो यह पद्य-सख्या ७४८ हौ जाती है ! इनमे ४६५ कारिकाएं है, जौर शेष २५३. 
उदाहरण ह । 
इस ग्रन्थ के प्रसिद्ध टीकाकार नमिसाधु के उत्ल्खानुसार यह ग्रन्थ तीन सह 
श्टोक-प्रमाणो से पिण्डित है--एक इलोक मे ३२ अक्षर होते है- 
सटलन्रयसन्युनं ग्रन्थोऽयं पिण्डितोऽखिलः । 
दाजिशदक्षरदलोकप्रमाणेन सुनिश्चितम्‌ ॥ 
इसका आशय यह्‌ है कि इस ग्रन्थ मे कुलं २००० >८ ३२६६००० से कम अक्षर 
नही ह । उपर्युक्त ७४८ पदयो मे से प्रत्येक पद्य मे यदि ४० अक्षरो का माध्य स्वीकार 
किया जाए तो कुर अक्षर-सख्या २९९२० होनी चाहिए 1 यदि यह्‌ माध्य अधिक-से- 
अधिक ५० अक्षरो कामी स्वीकार किया जाए तो अक्षर-सख्या ३७४०० होनी 
नादिए । किन्तु ६६००० अक्षरों की गणना को पूरा करने के चिए नमिसाधु के टीका- 
भाग को भौ सम्मिलित कर छिया जाए तो निस्सन्देहं यह सख्या लगभग ठीक प्रतीत 
होती है । इस अनुमान की पृष्ट "निणंयसागर बम्बरई' दवारा मृदित कान्यार्कार से भी 
हो जाती है, जिसकी पृष्ठसख्या १७५ है । प्रत्येक पृष्ठ पर रगभग ३० पव्तिर्या है ४ 
प्रत्येक पक्ति मे अक्षरो का माध्य १८-१६ स्वीकार कर केने पर कूर अक्षर-सख्या 


१. कान्याचकार--ग्रन्यसमात्ति-सुचकत टिप्पण 


रगभग ६६००० हौ जाती है 1 अस्तु । 
प्रथम अध्यायमे २२ पद्य है! इसमे मंगकाचरण, गणेश एवं गौरी के स्तवनं 
के उपरान्त कान्यप्रयोजन ओर कान्यहेतु का निरूपण किया गया है भौर इसके बाद 
कविमहिमा की चर्चा की गयी हे। 
द्वितीय अध्याय मे ३२ पद्य है । इसमे कान्यलक्षण का सकेत करने के उपरान्त 
ङाब्द के पाँच भेदो का निदंश है। इसके बाद वृत्ति के आधार पर तीन रीतियोंकीं 
चर्वी है 1 फिर वाक्य पर सम्यक्‌ प्रकाश डाला गया है ओौर अन्तमे वक्रोक्ति ओर 
अनुप्रास नामक शब्दारुकारो का निरूपण ह । 
तृतीय, चतुथं, पचम अध्यायो मे क्रमाः ५६९ गौर ३३ पद्य है 1 इनमें क्रमशः 
यमक, ररेष ओर चित्र नामक शब्दालकारो का निरूपण है । 
षण्ठ अध्याय मे ४७ पद्य हैँ । इसमे दोष-प्रकरण निरूपित हुआ है । 
सप्तम अध्यायमे १११ पद्य है। इसमे अथं का ठक्षण ओौर वाचके शब्दके 
भेदो का स्वरूप निदिष्टु करने के उपरान्त अथक्कारो का वर्गकिरण प्रस्तुत किया गया 
2 ओर इसके वाद वास्तव-गत २३ अल्कारो के क्षण एव उदाहरण द्यि गये है । 
जष्टमं एव नवम अध्यायो मे क्रमदा. ११० ओर ५५ पद्य है । इनमे क्रमश. ओौपम्यगत 
२१ अलंकारो भौर अतिनयगत १२ अक्कारी का निरूपण है। दशम अध्याय मे २६ 
"पद्य है, जिनमे अथरकेष के दस भेदो के जक्षणोदाहुरण प्रस्तुत किये गये है । 
एकाददा अध्याय मे & अथं-दोषो का निरूपणदहै जो ३६ पद्योमे समाप्त 
हज है । 
द्रादश से केकर पचदश अध्यायो मे क्रमदा ४७, १७,३२ गौर २१ पद्य है! 
इनमे से प्रथम तीन अध्यायो मे श्छरगार रस तथा उसके अन्तगत नायक-नायिका-भेद का 
निरूपण क्रिया गया है ओर पनद्रहवं अध्याय मे श्युगारेतर नौ रसो का-इनमे शान्त 
रस के मतिरिक्त प्रेयान्‌ रस भी सम्मिकिति है । 
पोडक अध्याय मे ४२ पद्य है । इसमे विभिन्न काव्यभेदो-महाकान्य, महा- 
कथा, आख्यायिका, कघुकाव्य आदि की सामान्य चर्चा है, भौर अन्त मे भवानी, मुरारि 
ओर गणश्च का स्तवनं किया गया है । 
इस प्रकार इस श्रन्थ मे प्राय. समी प्रचलित काव्यागो को स्थान मिला है। 
कछ्ेवर की दृष्टि से ग्रन्थ का वहुभाग गक्कारोको समर्पित हुआरहै। र्यसे छेकर 
प्म तकतथाज्मसरे छेकर १०म तके कुरु सात अध्यायो मे अरुकारो की चर्चा 
है । इन अव्यायो मे कु ४१४ पद्य हँ । इनमे से २ेय अध्याय के १२ प्य गौर ७म 
भव्याय के ८ पद्य, कुर २० पद्य, अकंकारेतर विषयो से सम्बद्ध है । ४१४पद्योमेस 
ये २० प्च निक्राल देने पर देप ३६४ पदयो मे अककारो का प्रतिपादन हुमा है । म्रन्थ 


७ 


मे कुरु ७४८ प्य, है; अर्थात्‌ ग्रन्थ के लगभग आधे माग मे अक्कारो का निरूपण है । 
स्वयं काव्यारुकारः नाम ही, जसा कि नमिसाधुने भी संकेत किया है, इस,तथ्य 
का द्योतक है कि इसमे.अलकारों की चर्वा सर्वाधिक होनी चाहिए । ` 
अककार-प्रकरण के उपरान्त कलेवर की हृष्टि से दुसरा स्थान रस-प्रकरण का 
है ! इसी के अन्तगंत नायक-नायिका-भेद प्रसग भी सम्मिक्िति है । यह्‌ समग्र प्रकरण 
९२ से १५बे तक चार अध्यायो मे निरूपित हुमा है, जिनमे कुल १२३ पद्य हे । 
इस हष्टि से तीसरा स्थान दोष-प्रकरण का है, जिसे ६2 गौर ११बे अध्याय मे प्रस्तुत 
किया गया है.। इसमे कुर ८२ पद्य टहै। इस प्रकार कुक ७४८ पद्यमेसे ४०२ 
१२३-{-८३ ६०८ पदयो को निकार देने पर शेष १४० पद्य रहते है । इनमे से 
मगलाचरण एव अन्तिम स्तवन-विषयक २ पयो को छोडकर शेष १३७ पदयो मे कान्य- 
स्वरूप, काव्यप्रयोजन, काग्यहेतु, कविमदिमा, शन्द-प्रकार, वृत्ति एव रीति, वाक्यभेद, 
अथं, वाचक शब्द, महाकाव्य, महाकथा, भाख्यायिका, ुषुकान्य, अन्य कान्यरूप, काव्य 
मे निषिद्ध प्रसग--इन १६ विषयो को यद्यपि संक्षिप्तं चर्चाकी गयीहैतो भी पाठक 
उनके स्वरूप से यथाभीष्ट रूपमे परिचित ही जातादहै। 
कान्य के परम्परागत दस अग स्वीकार किये जाते है। उनका नामोटलेख 
इस प्रकार किया जा सकता है-कान्यस्वरूप (काव्यलक्षण, काव्यहेतु, कान्यप्रयोर्जन) 
राब्दशक्ति, ध्वनि, - गुणी मूतव्यग्य, रस, नायक-नायिका-भेद, दोष, गुण, रीति 
ओर अखकार ! इनमे से दाब्द-रच्ति, ध्वनि, गुणीभूतव्यग्य ओौर गुणका निरूपणं 
दस ग्रन्थ मे नही मिक्ता । इसमे रान्द, वाचक शब्द तथा वाक्य की चर्चा अवद्य की 
गयी है, पर इससे शब्दशक्ति-प्रकरण पर किचित्‌ प्रकाश नही पड़त-- यह तंक कि 
अभिधा हक्ति का भी सकेत नही मिलता 1 यद्यपि ध्वनि-तततव बीजरूपमे रशद्रटसे 
लगभग तीन इती पूवं भामह के समयसे ही विद्यमान था--भामह्‌ के अतिरिक्त 
दण्डी ओर उदुभट के ग्रन्थो मे भी इसके सकेत मिल जाते है,> इधर स्वय सद्रट.सम्मत 
भाव अलकार का प्रथम प्रकार गुणीभूतव्यद्खय काव्य मानाजा सकता है गौर द्वितीय 
भ्रकार ध्वनिकान्य 3--निस्सदेह्‌ ये दोनो प्रकार ध्वनि मौर गणीभूतव्यग्य के ही समाना- 


१. तत्र काव्याङकारा वक्रोक्तिवास्तवादथोऽस्य ग्रन्थस्य प्राधान्यतोऽमिषेया. । 
अमिघेयन्ययदेेन हि जास्त व्यपदिज्ञन्ति स्म पुरवेकवयः 1 यथा कुमार- 
संभवः कान्यमिति । --कान्यालकार १।२ {टिप्पण) 

२. देखिए मारतीय काव्याम्‌ पृष्ठ ५७ ॥ 

२. देखिए प० २१३-२१४ ! `: ष 


- 


न्तर है" किन्तु फिर भी इनै दोनों को दसत ग्रन्थमे स्पष्टत्तः एक विवेच्यः कान्यागके 
रूप मे स्थान नही मिला । कारण स्पष्ट हैकियेः दोनो काव्यांग.अभी स्थिरुनही हुए 
ये--आनन्दवदंन का “ध्वन्यालोक, चाहेःकारण कुछ भी हो, अभी सद्रटकेदाथोमेनही 
पहुचा था । 

इस ्रन्थमे गुण को स्थान न मिलना न केवल आद्चयंजनक हैः अपितु खट 
कता है ! इनसे पूवं यह्‌ काव्याग मरत, भामह, दण्डी ओर वामन द्वारा सम्यक्‌ रूपसे 
निरूपितः हो इका था 1 भामह ने केवल तीन गुण स्वीकार कियिथे मौर देष तीनो 
आचार्यो.ने दस, वन्तु रुद्रट ने इनमे से किसी आघार को स्वीकार नही क्रिया यदिः 
वे चाहते तो' भरत के समान दस गणो का, अथवा भामह के समनं तीन गुणोका 
प्रतिपादनं स्वतन्त्र रूप से करते, अथवा दण्डी या वामनमेसे किसी एकं के अनुकरण 
मे रीति-प्रकर्ण के ही अन्तगतं दस गुणो को समाविष्ट कर देते । पर एेसा प्रतीत होत 
है, जसा करि हम आगे भी देखेगे, कि शट्रट अपने से पूवंवर्ती इन प्रख्यात आचार्यो मे 
साक्षात्‌ रूप से किसीसे भी प्रभावित नही है, अन्यथा उन जसा संग्रहकर्ता आचार्यं 
"गुण" जं से महत्त्वपुणं काव्याग की चर्चा अवद्य करता । अस्तु ! 


श्र्लेकार-प्रकरय 


सद्रट-प्रस्तुत चब्दाुकारो मे वक्रोक्ति अकार, जंसा किं ऊपर निदि कर आये 
है, सर्वप्रथम शन्दाक्कार के रूप में प्रस्तुत हुभा है । (देखिये मूर ग्रन्थ पृष्ठ ३७-४१) 
यमक, ररेप तथा चिच्र ' अलंकारो के भेदोपभेदों का उल्केख यद्यपि सद्रट से पूवं भामंह 
तथा दण्डीं द्वारा प्रतिपादित किया जा इका था, किन्तु ईन्होनि इनके नवीन उपभेदों 
का समावेश किया तथा सभी भेदो को पहर कौ अपेक्षा कहीं अधिक व्यवस्थित, 
विशद तथा स्पष्ट ङ्प मे प्रस्तुत किया 1 प्रतिपादन-्ंङी के अतिरिक्त उदाहरणो की 
दृष्टस भी ये प्रसग सवप्रथम स्पष्ट रीतिमे निरूपित हृं है भीर परवर्ती माचार्यो मे 
भोजराज तथा विदवनाथ के ग्रन्थो मे जो एतद्विषयक स्वच्छता है, उसमे रुटका 
सीक्षातु मथवा प्रकारान्तर से योगदान स्वीकार किया जा सकता है । 
रुद्रट ने ५७ अर्थाङकारों का निरूपण किया है, इनमे से केव २६ अल्कार 
एसे है" जो भरत, भामह, दण्डी ओर उदुभट द्वारा पूर्वतः निरूपित हो चके ये) क्या 
शेष ३१ अकारो की आविष्छृति का श्रेय रुद्रट को मिलना चाहिए ? निस्सन्देह इतना 
विकार एव मौलिक कृतित्व सामान्यतः एक व्यक्ति द्वारा प्रायः सम्भव नही है। इस 


१. देखिए संस्कृत साहित्य का इतिहास [माग २] सेठ कन्हैया पोहार पृष्ठं ६४ 


&. 


स्थिति मे. केवर एक विकल्प शेष रह जाता'है कि रुद्रट किसी एेसे आचार्यवशं की 
शताब्दिथो से प्रवाहित" विचारघारा से प्रभावितं रही देगा जो इन प्रख्यात आचार्यो 
से नितान्तं अरग रहकर काव्यशास्त्रीय विषयो पर विचारविमश्चे करता चला आया 
होगा । रुद्रटः द्वारा प्रस्तुत अर्थाकारो का वर्गकिरण ही इस मान्यता का एक अन्यः 
पोषकं प्रमाण है । इनसे पूर्वैवर्ती आवचार्योके ग्रन्थो मेतो इस प्रकारके वर्गकिरणके 
साक्षात्‌ अथवा असाक्षात्‌ सकेतं तकं नही मिर्ते 1" हा, उक्त सभी नवीन अल्कारोको तथा 
वर्गकिरण को एक ग्रन्थ के माघ्यम्‌ से सवंप्रथम काव्यशास्त्रीय जगत्‌ के समक्ष प्रस्तुत 
करते का श्रेयः ति.सन्देह श्रट कोहीदियाजा सकतारहै, जो कि अपने-आपमेः एक 
महत्त्वपूर्ण, स्तुत्य एवं उपदेय प्रयास है, तथा कान्यास्न के अध्येता के किए अनि 
वायतः अध्येतन्यःविषय है-यद्यपि यह वर्गीकरण पूर्णत. मान्य नही है । रद्रट-प्रस्तुतः 
अनेक-अकुकारं तो आगे चलकर अनेक आचार्यो हारा अधिकाडतः इसी रूपमे ही अपनाये 
गए; किन्तु इनका व॒र्गक्रिरण परवर्ती आचर्यो द्वारा प्रचालिति एव प्रसारित नही हुआ । 
अर्थाङकार को चार वर्गो मे विभक्त किया गया है--वास्तव, ओपम्य, अति- 
शय ओर इरेष । वास्तवमूलक अल्कारो की सख्या २३ है, भौपम्यमूलक अल्कारो 
की २१, अतिदाय-मूरक अलकारो की १२ गौर ररेषमूलक केवर १ ही अरूकार 
गिनाया गया है--श्छेष 1२ इस प्रकार यद्यपि कुर ५७ अर्थाक्कारो को. इस ग्रन्थ मे स्थान 
मिला है,> तथापि इनमे से निम्नोक्त चार अल्कार दो-दी वर्गो-मे रखे गये है--जेसे 
उत्तर गौर समुच्चय अर्कार वास्तवगत भी है गौर भओपम्यगरत भी, उत््क्षा ओौपम्यगत 
भी है गौर अतिकयगत भी, तथा विषम वास्तवगत भी है ओर अतिद्ययंगत भी । 2 किन्तुः 
इन चार अरकारो-केः लक्षणों एव उदाहरणो से स्पष्टत ज्ञात होता है किये अपने- 
` अपने वशं मे भिन्न-भिन्न ही है 1 उदाहरणार्थ, 'वास्तवगत उत्तर अलकार भौपम्यगत 
¦ उत्तर गल्कार से भिन्न है। मतः उद्रट द्वारां निरूपित अर्थाल्कारो की सख्या ५७ ही 
माननी चाहिए, इनसे चार कम करके ५३ नही, । 
एस-प्रक्य 
सद्रट का रस-प्रकरण भी अनेकं हष्ट्यों से अपनी विशिष्टता रखता है ।. 
नि.सन्देह भरत इनसे करई दाताब्दी पूवं रस का प्रतिपादन करच्ुकेथे, किन्तु रुद्रटः 

१. देखिए पृष्ठ १६६-१६९७ 

२. देखिए पृष्ठ २००,२४४,२९१,३१० । 

३. दलेष अलंकार के दस भेद गिनाए गये हु (देखिए-पृष्ठ ३१०), कम्बु उक्त 
५७. संख्या मे ये भेद सम्मिलित नहीं है, यद्यपि इनमे से कु मेद आगे ' चलकर 
+ ` स्वतन्त्र अलंकार बन गये । 

: ४. देखिए पृष्ठ २००,२४४.२६१ । ह 


| 


१० 


-का यह्‌ प्रकरण भरत के एतदू-विषयक प्रकरण से विषय-सामग्री की दृष्टि से मौर इसकी 
अपेक्षा केही अधिक प्रतिपादन-रंली की दृष्टि से पर्याप्त भिन्न है । इनं दोनो आचार्यो 
के इन प्रकरणो को एक साय देखे तो यह्‌ विभिन्नता ओौर भी अधिकस्पष्टरूप से 
-लक्षिते होती है । 
पहठे विपय-सामग्री को रीजिए । भरत के नाटयशास्त मे रस-विषयक विवे- 
चेन छठे ओर सातवे अध्याय मे हुमा है--छठं मघ्यायमे रस कां विवेचन है ओौर 
-सातवे अध्याय मे भाव का इन दोनो अध्यायो मे करमशः रस गौर भाव के स्वरूप का 
तथा इनके पारस्परिक सम्बन्व का निदेश किया गया है । आणो रसो का परिचय देते हृए 
मरत ने प्रत्येक रस“के स्थायिभाव, विभाव, अनुभाव, व्यभिचारिभाव गौर सात्त्विक 
भावो का नामोल्छेख कियाहै) रसोंके वर्णो गौर देवताओं से अवगत कराया है तथा 
स्सोकेभेदोकी चर्चाकीदहै1 इन सभी प्रसंगो का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- 
भरतने मूर रूपसे चार रस माने है--श्वुंगार, रौद्र, वीर ओर बीभत्स । 
फिर इनसे क्रमश. हास्य, करुण, अदुशुत्त ओर भयानक रसो की उत्पत्ति मानी है । 
(ना० शा० ६।३९-४१) ! विभिन्न रसोके जो भेद भरत ने प्रस्तुत कयि है (ना० रा०. 
६।४य वृत्ति, ६।७७-८३), उनमें से आगे चरकर कुछ तो प्रचरित रहे ओौर कुछ 
-अप्रचलितं हो गये- 
प्रचङ्ति भेद--(१) श्णगारके सम्भोग भौर विप्रलम्भ नामकदो भेद। 
(२) हास्य के स्मित, विहसितत आदि छ. भेद ! (२) वीर के दानवीर, घ्म॑वीर ओर 
मयुद्धवीर ये तीन भेद 1 
अप्रचक्ति भेद-(१) श्छङ्खार के वाइनेपथ्यक्रियात्मक- तीन भेद ! (२) 
हास्य के आत्मस्थ आर परस्थ दो भेदं । (३) हास्य ओौर रौद्र के अग-नेपथ्य-वाक्या- 
त्मके--तीन-तीन भेद (४) करुण के धर्मोपघातज, अपचयोद्‌भव ओौर शोककृत--तीनं 
भेद । (५) भयानक के स्वभावजः, सत्वसमृत्थ गौर कतक तीम भेद, तथा व्याज- 
अपराघ-व्रास गत अन्य तीन भेद । (६) बीमत्स के क्षोभज, शुद्ध ओौर 'उद्रेगी--तीन 
-भद । (७) अदुभ्ेत कै दिव्य ओर आनन्दज--दो भेद । 
भरत ने रस-प्रकरण मे भावो की सस्या ४६ गिनायी है--= स्थायिभाव, ३३ 
व्यभिचारिमाव जौर = सात्विक भाव । (ना० शा० ७।६ वृत्ति} ! आठ स्थायिभावो 
के अनुद्रु रसो की सख्या भी इनके मत मे आठटहै ( ना० ज्ञा० ६।१५-१७ ) 
शन्त रस का उत्कल इस ग्रन्थमे नही है । स्थायिभाव ही अन्य शेष ४१ भावो 
सयुक्त होकर रसत्व को प्राप्त करता है, अत स्थायिभाव गौर अन्य भावोमे कैसा ही 


पारस्परिक [क्रमसः मुख्य-गौण | सम्बन्व है जंसा कि राजा गौर उसके सहचरो भं होता 
ड 1 (ना० शा० ७1७ वृत्ति, पृष्ठ ८१) । 


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५ १,. ॥ 
# %& ५७८ / \) | 

भरत के केथनाचूसार | । लुत अथं है--ऋवयः (1, ` सावाः। 
¶कि भावयन्ति ? उच्यते-वा तोन कम्पय ६ वयन्वरिईति भावाः 
(ना० शा० ७ म अ०) अर्थात्‌ जो वानि आगिर्वग्पथा प्ररि अभिनयो के द्वारा 
सामाजिक के हृदय मे जो काव्यार्थो का भावन दरर््ममन) कराते है, वे भाव काते 
है । रस ओर भाव के पारस्परिक सम्बन्धके विषयमे भरत का कथनरह करि इनमे 
एक-दूसरे के प्रति कारण-कार्य सम्बन्ध है-- भावों से विभिन्न रसो कौ उत्पत्ति होती है 1 
इस उत्पत्ति के किए भावो को अभिनय का आश्रय लना पड़ता है ओर तभी भरत के 
रन्दो मे कह सकते है-- 

न भावहीनोऽस्ति रसो न भावो रसर्वजितः । 

परस्परकृता सिदिस्तयोरभिनये भवेत्‌ ॥ ना० ज्ा० ६।३६ 


भरत के कथनानूसार विभाव, अनुभाव, व्यभिचारिभावो के सथयोगसेरसकी 
निष्पत्ति होती रै--विभावानुमावव्यमिचारिसंयोगाद्‌ रसनिष्पत्तिः ॥ ओर इस 
सिद्धान्त-कथन की व्याख्या मे उनका कहना है कि नाना भावो से उपहित स्थायिभाव 
दी रसत्व को प्राप्त करते है--“>< > >< एवं नानाभावोपहिता जपि स्थायिनो 
मावा रसत्वमप्नुनन्ति ।' (ना० श्ा० पृष्ठ ७१) । चिभावादि के सयोग से उत्पन्न रस 
को एक कौकिक उदाहरण द्वारा समञ्नाते हृए वे कहते है कि जिस प्रकार ससारमे 
नाना प्रकार के व्यजनो, मिष्टान्नो ओर रासायनिक द्रव्यो का पारस्परिक सयोग 
इर्षत्पादकं षड्रसास्वाद को उत्पन्न करता है उसी प्रकार विभावादिका सयोग रस 
को उत्पन्न करता है । स्थायिभावो का यह्‌ आस्वाद तभी सम्भव है जवये नाना प्रकार 
के भावो के नाटकीय अभिनय से प्रकट किये गये हो भौर वाचिक, आंगिक तथा साच्तविके 
अभिनयो से सयुक्त हो । (ना० शा० पृष्ठ ७१) । 
>< >< >< ˆ 
भरत-विवेचित उपर्युक्त सामग्री के दिग्द्चंन से रुद्रट-प्रसतुत रस-भरसग ,का 
तुरनात्मक अध्ययन सुकर हो सकेगा । रद्रट ने पहर दस रस गिनाये है--आठ भरत- 
सम्मत तथा दो अन्य रस शान्त ओौर प्रेयान्‌ 1 फिर श्ृद्खार रस का निरूपण किया 
गया है जिसके अन्तगंत नायक-नायिका-भेद प्रसग भी सम्मिकित है । पुन. सम्भोग 
श्ृद्धार के प्रसग मे कतिपय कामशास्त्ीय चर्चाभौ का उल्लेख किया गया है । विप्र 
खम्भ श्यद्खार के अन्तयंत इसके चारभेदो का निरूपण किया गया है । प्रसगवशात्‌ 
काम की दग दरामो की चर्चाकी गयी है । मान-विमोचन कराने के अनेक उपायोका 
उल्केख किया गया है 1 पन. श्य ङ्घाराभास पर किचित्‌ प्रकाश डाखा गया है ओर फिर 
श्ुद्धार से सम्बद्ध ॒रीतियो का निदेश किया गया है । इसके उपरान्त शेष रसोकी 1 


„ , १२ 
सामान्य चर्वाकी गयीदहि भौरट्न रसौंके साथ भी रीति-त्रयोग का उत्क किया 
गयां है। । 
इन दोनों भाचार्यो के उक्त प्रसंगो को देखने से एक स्थितितो यह्‌ मानीजा 
सकती दै किं भरत-विवैचित रस-सामग्री के यथावदंयक एवं सुकर प्रसंगो को जिनामु- 
जनो के अच्ययनार्थं एकत्र संजो दिया गयादहै, गौर दूसरी स््थित्ति यह्‌ किरश्द्रटके 
सम्मुख भरत-प्रणीत ग्रन्थ है ही नही । भरत गौर शुद्रट के वीच रस्र-विपयकं जो प्रसंग 
धीरे-धीरे अधिक प्रचलितः होते गये ओर सामान्य अव्येतागों के च्एि पर्याप्त समत्र 
जाने के कारण ओर भी अधिक प्रचारपा गये उन्हीका संकखन खद्रटने कियारहु। 
इस दृष्टि से भरत का रुद्रट पर साक्षात्‌ प्रभाव न होकर असाक्षात्‌-वहूत दूर का ही- 
प्रभाव मानना चाहिए 1 हमे दूसरी स्थिति मान्य प्रतीत होती है । यदि स्द्रट के सम्मूख 
भरत का श्रन्थ होता तो वे अन्य अनेक आवत्यक प्रसंगोका समावेश इस ग्रन्यमे 
करते । रस-निप्पत्ति-विपयक मूत्र तो अनिवयंतः उद्धरणीय था । इसके अतिरिक्त सद्रट 
हारा शान्त ओर प्रेयान्‌ नामक दो अन्य रसो का समविणभी इसी तथ्यको ही सूचित 
करता दै 1 नाटयवास्त्र के अननुरूपं नयक-नायिक्रा-मेद प्रसंग का श्यृद्धार स्सके 
अन्तगंत निरूपण करना भी इसी ओर इंगित करता द॑ 1 
प्रतिपादनी की दृष्टि से देखे तो यह्‌ स्थिति भौर भी अविक मान्य प्रतीत 
होती ह । दोनों ग्रन्थो की विपय-सामग्री के नियोजन एव कृ म-वद्धता मे तो अन्तर है 
ही, साथदही क्ललीमे भी अन्तर है--्खी से हमारा तात्पयं केवर यह्‌ नहीदहैकि 
भरतनेपद्यके साथ-साथगद्यकाभी प्रयोग किया है-यदि र्द्रट चाहतेतो उनके 
 अनुकरणमे रस जैसे गम्भीर विषय को सुव्यवस्थित रूप देने के उदंश्यसेगद्यकाभी 
आवार ग्रहण करते } शी से हमारा तात्पर्य इनके वाक्य-विन्याससे भीरहै। इद्रटपर्‌ 
मरतकीर्डधीका किसी रूपमे प्रभाव स्वीकृत नही किया जा सकता 1 भरत का वावय- 
विन्यास मुगम एवं सरल है, सद्रट का संकुल एवं मुघटित है । उदाहरणाथं, शद्धारेतर 
रसो को ङीजिएु । रुद्रटः अपने वक्तव्य को वस चार पक्तियोमें समाप्त करदेनेके किए 
सचेष्ट टं (प्रेयान्‌ इसका अपवाद हँ । इसका निरूपण छ. पक्तियो मे है), किन्तु भरत 
इस्त वन्वन से विमूक्तर्ह। अस्तु ! निप्कपंत र्द्रट पर भरत का साक्षात्‌ प्रभाव 
स्वीढरत नही करना चाहिए । 
>< >< >< | 
स्दरटके ग्रन्थे प्रतीत होताहै कि अव रसके प्रत्ति समादरभाव कहीं 
अविक वड चखा था । इनसे पूर्वं भरतने रस को नाटक कै अनिवार्यं घर्मकेलू्पमे 
स्वीकार क्रिया था तथा कतिपय काव्यतरस्वो--अक्कार, गुण, दोप- के रससंश्रयत्न 


त 1 ध 9 


ई 

पर भी उन्होने प्रकाश डाला था।# इनके उपरान्त अङूकारवादी आचार्यो- भामहः 
दण्डी ओर उदृभट नै यद्यपि रस, "माव आदि को रसवद्‌ भादि मरुंकार नाम -से जभि- 
हित किया, तंथापि उन्होने अपने दृष्टिकोण से इसे समुचित समादर भी प्रदान किया 
भामह भौर दण्डी ने-इसे महाकाव्य -के किए “एक आवर्यक-तत्त्व' के रूप मे स्वीकृत 
किया ।* भामह के कथनानुसार कट ओषधि के समान कोई शास्त्रचर्चा भी रस 
के सयोग से मधुवत्‌ "बन जाती है उ दण्डी का माधुर्यं गुण “रसवत्‌ ही है, तथा इसकी 
यट रसवत्ता मधुपो के समान सहृदय को प्रमत्त वना देती है 1* दण्डी के (माधुर्य' 
गुण का एक मेद वस्तुगत .माधुयं कहाता है, जिसका अपर नाम अग्राम्यता है । दण्डी 
के शब्दों मे यही अग्राम्यता कान्य मे "रस" के सेचन के किए सर्वाधिक शक्तिशाली 
अकार है ।* 

इधर दद्रट ने अलकारवादी आचार्यो के अननुरूप "रस को रसवद्‌ अलकार के 
अन्तर्गत समाविष्ट न कर स्वतन्त्र रूपसे ही वणित किया है । भामह भौर दण्डी के 
समान इन्होने भी रस को महाकाव्य के लिए आवर्यक तत्व माना है । प्रथम बार 
इन्हनि 'ही दर्भौ, पांचा नामक रीतियो ओर मधुरा, रक्ता वृत्तियो क्रे रसानुद्रुर 
प्रयोग का निदेश किया है, शगार रस का प्राधान्य स्वीकार किया हैऽ तथा कवि 


षष कमषयरिष्षरीषषीषयगीिषरीौरीषिणमीीषि णिज, 


१. (क) एतद्‌ रसेषु भावेषु स्वंकर्मक्रियायु च । 


सर्वोपदेशजननं नाटयमेतद्‌ भविष्यति ॥ नाट्यशास्त्र ११११० 
(ख) बहुरसकृतमार्गं सन्धिसन्धानसयुतम्‌ । | 
मवति जगति भोग्यं नारकं प्रक्षकाणाम्‌ ।॥ वही १७।११३ 
२. (क) युक्तं लोकस्वभावेन रसैश्च सकः पृथक्‌ । का० अ० १।२१ 
(ख) अलकृतमसक्षिप्तं रसभावनिरन्तरम्‌। का० द° ११८ 
२३. स्वाडुकान्यरसोन्मिश्वं दास्त्रमप्युपयुंजते । 
'प्रथमालोढडमधवः पिबन्ति कटु भेषजम्‌ ॥ का० अ० ५।३ 
४. -मघुरं रसद वाचि वस्तुन्यपि रसस्थितिः । 
येन माद्यन्ति वीमन्तो मधुनेव ,मधुत्रताः ॥ का० द० -१।५१ 
५ कामं सर्वोऽप्यलकारो रसमयं निषिन्चतु । 
तयाप्यग्राम्यतवनं भारं 'वहूति भूयसा 11 का०द० १।९० 
६. का० अ० १६।१,१५ (पृष्ठ ४१८ ४१६) 
७. वही -१४।३७ (पृ० ४०६) ध 
८. वही १४२३८ पुर (४०६) 1 


^ 
+ 


द 1 


को रस के किए भ्रयत्नशीर रहने का आदेदा दिया है ५ 
इन प्रसंगो मे से महाकाव्य मे रसप्रयोग के प्रसंग को छोडकर देष सभी 
प्रसंग एेसे है जो अरुकारवादी आचार्यो को दृष्टि मे रखते हुए नितान्त सूतन ह । यह 
सव इस वात का सूचक है कि सद्रट अलंकारवादी आचार्यो से प्रभावित न होकर किसी 
अन्य अप्रख्यात आचायेवगंसे ही प्रभावित था। 
दस प्रकार हमने देखा कि रस-प्रकरण के प्रतिपादन में स्द्रट अपने पूवेवर्ती 
आचार्यो मेसेनतो भरत के अनुक्ता ह ओौर न अलंकारवादी आचार्यो के । इनके 
अतिरिक्त इस दिशा मे उनके छ्िए रीत्तिवादी वामनसेतो प्रभावित होने काप्रक्नही 
उपस्थित नही होता । 
>< >< >€ 
रुद्रट के रस-प्रकरण के अन्तगंत तीन प्रसंग विशेष रूप से उत्केखनीय है- 
(१) प्रेयान्‌ रस का निरूपण, (२) श्छंगार रस की उत्कृष्टता, (३) नायक-नायिका-भेद । 
१. प्रेयान्‌ रस- 
सद्रट से पुवं यद्यपि इस रस की कल्पना नही हई थी तो भी प्रेयः (प्रेयस्वत्‌) 
अककार के रूप मे इसके स्रोत अवद्य विद्यमान थे । रद्रट-सम्मत इस काव्यतत्त्वं को 
हम रस के स्थान पर "भाव' की सज्ञादेने केपक्षमे है 1 (विस्तृत विवेचन के किए 
देखिए १५।१९) 
२. श्युद्धार रसस- 
रुद्रट के अनुसार श्युगार रस अन्य रसोकी अपेक्षा इसी कारण प्रघानहैकि 
इससे वारु से वृद्ध-पयन्त सभी मानव प्रभावित होते है 1 (१४1३८) । 
सुद्रट मे पूवं भरतने भी श्युगार रस की उच्कृष्टता के सम्बन्ध मे निम्नोक्त 
कथन प्रस्तुत किया था-- 
यत्किचित्लोके शुचि मेध्यं दज्ञनीयं वा तच्छ गारेणाचुमीयते । 
ना० सा० ६।४५ (वृत्ति) 
किन्तु यह्‌ कथन एक प्रकार का भावुकतापूवं उद्गार सात्र है, इससे अभीष्ट प्रसगकी 
न तो काव्यशास्त्रीय हृष्टि से पुष्टि होती है ओर न व्यावहारिक दृष्टि से 1 सद्रट-प्रस्तृत 
उक्त कथन श्यगार्‌ रस की प्रवमनता का निस्सन्देहं एक कारण अवन्य है ओर व्याव- 
हारिक कारण तो वस्तुत. यही एक है ही, तथा क्गभग इसी कारण को ही रखरटके 


परवर्ती आचार्यो मेँ से हेमचन्द्र, विद्याधर, रामचन्द्र-गुणचन्द्र आदिने भी प्रस्तुत किया 
है कि- | 


त कामस्य सकलजातिच्ुलमतयाऽत्यन्तपरिचतत्वेन - सर्वान्‌ प्रति हता 
१. ग्० अ० १२।२ (प° ३६०) । 


1 
# 
४ 
॥ 
४ 
1 
1 


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। 
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२ 
५ 


११ 


फिर भी शास्त्रीय दृष्टि से कई कारण प्रस्तुत क्ियिजा सकतेथे, जिनको कि 
परवर्ती आचार्यौ मे से सर्वप्रथम भोजराज ने प्रस्तुत किया ओर शायद उन्ही के उप्‌- 
रान्त अग्निपुराणकार ने 1 पर इन दोनो आचार्यो की एतदूविषयक धारणाएं गम्भीर, 
मनो्व्ञानिक एवं सूक्ष्म होती हुई भी किसी वंविशेष से प्रभावित होने के कारण 
सर्वाशतः मनस्तोषक नही है ।२ इधर इनके बाद विद्वनाथ ने इस रस की सर्वाधिक 
व्यापकता का जो निभ्नोक्त कारण प्रस्तुत किया है, वह॒ शास्त्रीयं भी है भौर नितान्त 
ग्राह्य भी । उनके कथनानुसार केवल यही एक रस है जिसमे उग्रता, मरण ओर 
मारस्य को छोडकर शेष सभी संचारिभावो, तथा जुगरप्सा को छोडकर शेष सभी 
संचारिभावत्वापन्न स्थायिभावो का समय अथवा परिस्थिति के अनुसार सम्बन्ध रहता 
है 1* वस्तुतः देखा जाए तौ उग्रता, मरण, आक्स्य ओर जुगुप्साकाभी श्यगार रस 
के साथ किंसी-न-किंसी रूप मे सम्बन्ध स्थापितदहोदही जाता है चारदानयतो सभी 
सचारिभावो का श्युगार रस से सम्बन्ध स्वीकार करते है ।* किन्तु केवर स्थायी ओर 
संचारिभाव ही क्यो, अनुभाव ओौर सात्विक भावो की सर्वाधिक स्थिति भी श्युगार 
रस के दोनो भेदो-सयोग ओौर विप्रलम्भ-के साथी सम्भवदहै। 

इसी प्रसग मे विरवनाथ-प्रसतुत उक्त कारण के अतिरिक्तं निम्नोक्त कतिपय 
उन्य कारण भी प्रस्तुत किये जा सकते है-- 

--विप्ररम्भ श्छगार के पूवंराग, मान, प्रवास, करुण ओर शापहैतुक- ये पाच 
भेद, कामं की चक्ष प्रौति' आदि बारह तथा “अभिराष' जादि अन्य द॑ अवस्थां ५, 
आम्बनविभाव के अन्तगंत नायक-नायिका, सखी, दूती आदि का विस्तरत भेद-निरूपण 

तथा नायिका के भाव, हाव, हेलादि स्वज अल्कार-ये सभी प्रसंग श्युगार रस 

कीं व्यापकता के साथ-साथ इस रस की सर्वोककृष्टता भी घोषित करते है । 

-इवर समी रसो मे केवर यही एकं रस है जिसमे आर्म्बन के दोनोपक्षो- 
विषय ओर आश्वय-- कौ वचेष्टाएं एक दूसरे को उदीप्त करती है । दूसरे शब्दो मे, 


१. काम (रति) सकलनातिसुलम तथा अत्यन्त परिचित होने के कारण सवके 
लिए मनोहर है, अतः सबसे पुवं [काम से सम्बद्ध] श्युगार रक्त का वर्णन करना 
अपेक्षित है । का० अनु० पृ ८१, एकावखी पृऽ ९६, नाटूयदपंण पृ० १६३ 

२. विशेष विवेचन के लिए देचिषए "काव्यशास्त्रीय निचन्धः : श्युःगार का रसराजत्व 
(प° ११७-१२७) । | 

३. त्यवत्वौग्रयसरणालस्यजगुप्खाव्यभिचारिणः। सा० द० ३।१८६ 

४. समग्रवर्णनाधार श्डुगारोवृद्धिमश्नुते । मा०-प्रा० पुर ६१ 

४. देखिए भ्र० ₹० भऽ, पृ० १९६४; सा० द° ३।१६९० 


१६ 


अन्य रसो के आलम्बन-युगरू परस्पर शत्रू" अथवा 'उकसीन' है; ` परः केवल इसी 
रस के ही आलम्बन परस्पर चनिष्ठ “मित्रै! र 
'" ओर फिर, समय-समय'पर विभिन्न आचार्यो हारा स्वीकृत सौहादं, भक्ति 
आदि तथाकथित रसो का भी शगार रस की व्यापकता मे अन्तर्भाव हो सकता है 1 
-- कृ विद्वान्‌ इस आचार पर भी शगार र को सर्वोक्कृष्ट घोषित करना 
चाहेगे कि सभी रस इसी मे प्रसूत है, किन्तु इस धारणा की पुष्टि के किए अत्यधिक 
खीचतान से काम केना पडेगा ओौर बधिक से अधिक हम यही सिद्ध कर, पाएगेाकि 
इससे सभी रस सम्बन्धित यवेश्य है--कुछ रस भित्र रूप में ओर कु अमित्र स्प मे, 
पर वे इससे प्रसूत नही है । 
रुद्रट यदि श्यगार रस की उक्कृष्टता के प्रसंग मे उक्त व्यावहारिक कारण के 
अतिरिक्त कतिपय शास्त्रीय कारण भी प्रस्तुत कर देते तो उनका यह्‌ भसगःकदही अधिक 
पृष्ट होता । फिर भी इस सम्बन्य मे व्यावहारिक 'कारण प्रस्तुत करने का स्वप्रथम 
श्रेय इन्हीको ही देना चाहिए । 
२. नायक-नायिका-सेद-- 
शुद्रट का यहु प्रकरण इतना सुव्यवस्थित दै कि शताष्दियो पयन्त'इसी भेद- 
योजना को ही मूक रूप मे यपनाया यया । यहा तक कि विक्वनाय एव भानुमिश्र जसे 
परवर्ती आचार्यो के ्रन्थो मे मी अधिकतर स्थलो पर सद्रटकेहहीदसी प्रकरणका 
अनुकरण एवं अनुमोदन किया गया प्रतीत होता है । किन्तु -इस सुव्यवस्था का सारा 
श्रेय सद्रट को नही दिया जा सकता । भरत ओौर रुद्रट के वीच रगभग एकं सहस्र वषं 
के सुदीघं कार मे काल-कवकलित अनेकं ग्रन्थो मे इस प्रसंग की चर्चा हुई होगी, जिसका 
विकसित एवं परिष्कृत रूप सद्रट के ग्रन्थ मे स्थान पा गया) जो हो, आजतक कीखोजो 
के अनुसार काव्यारंकार ही प्रथम काव्यरास्त है, जिसके नायक-नायिका-भेद-प्रकरण को 
मूर रूप मे अपनाकर समय-समय पर उसमे परिवद्धंन एवं परिष्करण होता रहा । 
प्रक्षिप्त मंश्ञ--रद्रट के इसी प्रकरण मे उत्किखितत १४ कारिकाएं [१२।४०- 
१ से १४] प्रक्षिप्त मानी जाती है! इस पाठायमे -सर्वप्रथम अवस्था के अनुसार 
नायिका के अचीनपतिका मादिं आठ प्रकारो की चर्चा की गयी है, १ पुनः उत्तम आदिं 


१. इन आट प्रकारां में छठे रकार फा नाभ दिया तो गथा है प्रगल्मा, किन्तु लक्षण 
स्तुत फिया गया है विप्रलन्धा का हमारे चिचार में ' विप्रलब्धा पाठ ही उप- 
युषत है, वयोक्रि एक तो सद्रट से पूर्ववत भरत ने जीर परवर्ती आाचार्यो- मोज- 
राज, चिहवनाय आदि ने भी इसी नाम का उल्लेख किया है, गीर दुसरे, धरगत्मा 
नामक नायिका-मेद मुग्धा मौर मघ्याफे साय ही उत्किदित किया जाता 


१७ 


तीन भेदो के नामोल्छेख के उपरान्त मूर पाठ ओौर प्रक्षिप्त पाठ में उत्किखित भेदो के 
परस्पर-सयोजन द्वारा नायिका के ३८४ भेदो का सकेत किया गया है, ओर अन्तमं 
अगम्या नारियो का नाम गिनाया गया दहै । हमारा विचार भी यही है कि यह पाठ 
प्रक्षिप्त है, क्योकि इसी पाठा के उपरान्त ४१ से ४६ तककी मुर पाठकीं 
कारिकाओ मे अभिसारिका, खण्डिता, स्वाधीनपतिका ओर प्रोषितपतिका नामकं जिन 
नायिकाओो की चर्चा है, वे वही है जिन्हे उक्त आठ नायिका मे पहर भी स्थान मिल 
चका है, ओौर इन्हे दूसरी बार उर्किखित करने का कोई कारण समञ्च मे नहीं भता । 
अव इन्हे इस रूप मे प्रस्तूत किया गया है कि यह्‌ स्पष्टतः रक्षित हो जाता 
है किं इनका निरूपण-प्रकार भी भिन्न है ओर इनका निरूपणकर्ता भी भिन्न व्यक्ति है । 
वस्तुतः कारिका स० ४० भौर ४१ मे इस प्रकार की सगतिदहै कि इन दोनो के बीच 
का [प्रक्षिप्त ] पाठ इनके वीच व्यवघान-सा उपस्थित करता है तो आखिर इस पाठको 
प्रक्षिप्त करने का कारणक्याहो सक्ता है ? इसका कारण यह्‌ प्रतीत होता है कि 
-रुद्रट-प्रणीत काव्यारकार का कोई विदान्‌ लिपिकार भरत-प्रस्तुत नायिका के उक्त 
आठभेदो को, जो लिपिकार के समय मे प्रख्यात हो इके होगे, सम्मिकित करने के 
लोभ का सवरण नही कर सका । अस्तु 1 


दोष-ग्रकरर 
इस ग्रन्थ मे दोषो का निरूपण अक्ग-अक्ग स्थलों पर किया गया है--षष्ठ 
अध्याय मे पहर ६ पदगत दोषो का मौर अगे चरूकर ३ वाक्यगतं दोषों का, तथा 
प्एकादक अध्याय मे पहर & अर्थगत दोषो ° का ओौर फिर ४ उपमा-दोषों का । इन्ही 
अ्रसगो मे दोष किन स्थितियोमे दोष नही रहते, इस पर भी सक्षिप्त प्रकाश डला 
गयाहै 1२ इस प्रकार इन दोषों की कुल सख्या २२ हई । इसके अतिरिक्त एक 
स्थल पर आदशं वाक्यकी विशिष्टतां निर्दिष्ट करने के किए जिन वाक्य-गुणों 
की गणना की गयी है, उनके वंपरीत्य से सम्भव निम्नोक्तं ६ दोषो की परिकल्पना 
की जा सकती है--न्यूनपदता, अधिकपदता, अवाचकता, अपक्रमता, अपुष्टा्थंता 
गौर अचारुपदता ।> इस प्रकार रुद्रट-प्रतिपादित दोषों की सख्या २५ मानीजा 
सकती है, जिनकी सुची इस प्रकार है-- 
(जिसे इस प्रक्षिप्तं श से पहल ही निर्दिष्ट किया गया है), स्वाधीनपतिका आदि 
आठ नायिकाभो के साथ नहीं । 
१. पृष्ठ १५६-१७०., १७७-१७६., ३३८-३५८ । 
२. धुष्ठ १७१, १७२, १७९, १८१ 1 
२३. पृष्ठ २५। 


शद 


(क) पददोष-असमथं, अप्रतीति, विसन्धि, विपरीत-कत्पना, ग्राम्यता 


गौर देद्य । (६) 
(ख) वाक्यदोपे-संकीणं, गभित, गताथं ओर अनलकार (४) 
(ग) अथंदोंप-अपहेतु, अध्रततीत, निरागम, वाघयन्‌) असम्बद्ध, रम्य, 

विरस, तद्ान्‌ गौर अत्तिमात्र 1 (६) 


(घ) गुणो के वैपरीत्य से सम्भव अथवा पदवाक्यगत दोष-च्युनपदता, 
अधिकपदता, अवाचक्रता, अपक्रमता, अयुष्टाथंता भौर अचारुषदता । (६) 
इनसे पूवं भरत, भामह, दण्डी गौर वामन "दोष' पर प्रकार डाल दके थे। 
इन आचार्यो द्वारा प्रतिपादित दोषोकेनमो१सेतो यह्‌ स्पष्टतः कषित हदोतादहैकि 
इनमे से कुछ दोष पूवं -निर्धारित हो वके थे ओर कुछ स््रटकेदहीग्रन्थमे स्वेप्रथम 
उपरूव्व होते है यह्‌ भल्ग प्रश्न है कि इन दोनों प्रकारके दोषोमेंसे कुछ दोष 
प्रकारान्तर अथवा असाक्षात्‌ रूप से निरूपित हो चूके हो; अथवा कुर दोष एक-दुसरे 
मे अन्तर्भूत हौ सक्ते हो, अथवा किन्दी मे केवर परस्पर अभिघान में ही अन्तर हो, 
स्वरूप मे अन्तर न हो । उक्त दोनो प्रकार के दोषों की सूची इस प्रकार है- 


पूव-निरूपित दोष- 

विसन्वि-भरत, भामह, ओर वामन दारा, 

अवाचकता गौर अपक्रमता--भामह्‌ दारा, 

अप्रतीत ओर अग्रास्यता--वामनं द्वारा । 

इनके अतिरिक्त रुद्रट-प्रस्तुतत विपरीत-कल्पना गौर अपहैतु को भामह-प्रस्तुत 
कल्पना-पृष्ट ओौर हेतुहीन के साथ किचिद्‌ नाम-साम्य के आघार पर परस्पर-सम्बद्ध 
किया जा सकता दहै। 

रुद्रट ने चार उपमा-दोपो- सामान्य शब्दभेद, वंपम्य, असम्भव ओर यप्रसिद्धि 
का भी निरूपण किया है, जिनके सम्बन्ध मे नमिसाघु की टिप्पणी है कि भामहु-सम्मत 
सात उपमा-दोपो का अन्तर्भाव इन्हीचारोमे हो सकता है। 


(देखिए-- पृष्ठ ३४७-३४०८ ) 


फेवल रद्रट-प्रस्तुत दोष-- 

ससमर्थ, देन्य, सकीणं, गर्भित, गताथं, निरागम, वाघयन्‌, असम्बद्ध, विरस,. 
तद्वान्‌, सतिमाच्र, न्यून, भविकपदता, गपुष्टा्थंता गौर अचारुपदता । 

इन नवीन दोषो को सर्व्रयम प्रतिपादित करने काश्रेयतो शद्रटकोमिकेगा 
ही, साथदही जिस रूप से इन्होने सर्वप्रथम सभी दोषो को पद, वाक्य तथा अर्थगत 


[रौ 


१. देखिए "जारतीय कान्यांगः पृष्ठ १८६-१८८ 


॥ 1 [4 


१९ 


रूप मे वर्गङित्त एव व्यवस्थित किया है ओर जिस सम्यग्‌ रूप से इनके लक्षण एवं 
उदाहरण प्र्तुत किये है, इसका श्रेय भौ इन्हे ही भिरेमा । परिणामतः इन्दी का दोष- 
प्रकरण भी परवर्ती आचार्यो द्वारा स्रोत्त-स्वरूप प्रयुक्त होता रहा ह । 


न्य कान्य-तत्व 

जैसा कि पहर निर्दिष्ट कर आथे दहै, कञ्वरकी दृष्टि से अर्कारः रस एकं 
नायक-नायिका-भेद ओौर दोप के उपरान्त काव्यलक्षण, कान्यप्रयोजन, काव्यहेतु 
आदि १६ कान्य-तत्त्वो १ की चर्चा उल्छेखनीय है-- 

१. काव्यलक्षण--ननु शब्दार्थो काव्यम्‌" रुद्रट के इस कथन को यदि काव्य- 
लक्षण स्वीकार कर र तो यह्‌ कथन अति शिथिर है। इससे काव्य का वास्तविक रूष 
अवगत नही होता । शब्द ओर अथं अपने समन्वित रूपमे तोन केवर काव्य के क्ष्‌ 
अपेक्षित है अपितु शास्त्र एव वार्ताके किए भी अपेक्षित है। अतः यह लक्षण अति- 
व्याप्ति दोषसे दूषित है। वस्तुत रद्रट को ननु शब्दाथौ काव्यम" दारा कान्यस्वरूषु 
अथवा कान्यलक्षण प्रस्तुत करना अभीष्टथाभी नही। वे तो शब्द ओौर अथं कष्ट 
स्वरूप प्रतिपादित करना चाहते थे गौर इसी की भूुमिका-स्वरूप उन्होने उक्त वाक्य 
कहा था--स्वय ननु' शब्द से यही तथ्य स्पष्टत. लक्षित होता है। अस्तु ! ओर 
इसी तथ्य कौ पुष्टि इस ग्रन्थ के विषय-क्मसे भीहो जातीदहै। म्रन्थ के द्वितीय 
अध्याय मे ननु शब्दाथौ काव्यम्‌" कथम के उपरान्त शब्दके प्रकारोका निद्च है, 
पुनः शब्दं से सम्बद्ध वृत्ति, रीति ओौर वाक्यकी चर्चा है, फिर इसी अघ्याय 
तथा तृतीय, चतुथं एवं पचम अध्याय मे शब्दाखकारो का निरूपण है ओौर्‌ 
षष्ठ अध्याय मे पदगत तथा वाक्यगत दोषो का! सप्तम अध्याय मे अथं कष्ट 
लक्षण तथा वाक्याथं की चर्चा के उपरान्त अर्थारुकारोका निरूपण प्रारम्भे 
जाता है, जो ददम अध्याय मे जाकर समाप्त होता है। अ्रन्थ-प्रणेता अब भी अपन 
क्रम-निरवंहण करने के उदृदय से एकादश अध्याय मे अ्थंदोषो का निरूपण करतष 
हे । यदि वह्‌ चाहता तो दोप-प्रकरण को एक साथ निरूपित करता, किन्तु शब्दा- 
ककारो के बाद शब्ददोष ओर फिर अर्थालकारोके बाद अर्थदोष का निरूपण 
इसी तथ्य का ही द्योतक ह किं शब्दाथौ कान्यम्‌" यह्‌ कथन काव्यलक्षण का सूचकन्ह 
होकर मूर्त. काय्य के एक सामान्य स्वरूप का सूचक है भौर इसके वाद ग्रन्थ-प्रणेत्रष 
पहर शब्द ओर फिर अर्थं के आधार पर विभिन्न कान्य-तत््वो का निरूपण प्रारम् 
कर देता दहै) 


१. देखिए भूनमिका-भाग पृष्ठ ७ 


+ १. 


० 


अ 


[२,३] काव्यरैतु भौर काच्यप्रयोजन--ठनमे से काव्येतु-प्रसंग का तों शरद ने 
यथावत्‌ निरूपण क्या दै, किन्तु काव्यप्रयोजन का निष्पण करना वस्तुतः उनका 
उदक्य नदी शरा! रस-निरूपण की भृमिका-स्वस्प दही इसका वर्णन दो स्थो. पर 


हमा है--पदरी वारं ग्रन्थारम्म मे (देिषए पृष्ट ५), गौरं दूप्ररी वार प्रस्षगवश (देखिए 
पष्ठ ३६०} । ग्र्थारम्भ मे यदि रद्रट का प्रमुख उदेत्य काव्यप्रयोजन निदि करना 
रहा भी हो, विन्तु दूसरे स्थल पर तोते प्रकारान्तर से कान्य-मदहिमा का निर्दे कर 
रहे ई । उनका यह्‌ प्रकरण न सुसम्बद्ध है गीर न गम्मीर-- 
ननु काव्येन क्रियते सरसानामवगमदचतुवरगे । 
4 >< > 
तस्मात्‌ तत्कतः व्यं यल्नेन महीयसा रसु क्तम्‌ । १२।१,२ 

जीर इसके वाद रस-प्रकरण भारम्भ दहो जाता है। 

हा, कान्यहेतु-प्रसग अपेक्षाछृत अविक मुसम्बदढ, प्रीढ एवं गम्भीर दै । दाविति, 
व्युत्पत्ति भीर अभ्यास नामक काव्यहैतु तो शद्रट मे पहर भी निरूपित हौ चुके थे, 
किन्तु शति की जो परिभाषा सद्रटने प्रस्तुत कीरै, वसी न तौ उनसे पूव प्रस्तुत हुई 
थी ओर न उनके वाद हुई है-- 

मनसि सदा घुसमाधिनि विस्फुग्णमनेकधाऽभिषेपस्य । 
लक्रिल्टानि पदानि च विमान्ति यस्यामसी श्रावितः ॥\१।१५ 

पारचात्य दृष्टि से जिन काव्यप्ररणा-ततच्वो का प्राय उल्लेख भिया जतिा दै, उनका 
समन्वित ख्प कुछ इस प्रकार वनता है : जगत्‌ की नानाविव घटनाभों के अनुभव से 
हमारे मन पर जो प्रभाव पडते है उनको-दूसरे गब्दो मे, बात्म भीर्‌ यनाम के संघर्षं 
से उत्पन्न प्रभावो को-अभिन्यक्त करने की तीत्र अभिकापा काव्यकीप्रेरणादहै, 
गौर यह्‌ का्यगत भभिन्यवितत सामान्य कोटिकीन होकर मन्दर गन्दोमे होती दै। 
सव सद्रट के राब्दरो को देखिए्--अ्मिषेयस्य अनेकवा विस्फुरणम्‌ यस्याम्‌ असौ 


वक्ति ˆ--काच्यप्रणयन-प्रत्निभा उमे कटूते दै जिसम व्यं चिपय क्रा--जगत्‌ की घटनाथों 


का--नानाविवस्पमे विस्फरण अर्थात्‌ अभिव्यक्ति की जात्ती है, मौर यह्‌ यभि- 
व्यवित शरुसमाचिनि मनस्सि' सृक्षमाचिस्थ मन मे--एकाग्र चित्त मे [माघुनिक 
छव्दावली मे कटे तो कवि के “भात्म'म] दोतीदहै, तत्रा देसी अभिव्यवितिमे 
अक्िकष्टानि पद्रानि विमान्ति' अक्िप्ट [सन्दर एव चिपयानुखूप] पद सुगोभित 
होते ई। 

निस्सन्देह एम स्यन्ठो को देग्वकर्‌ कुछ इस प्रकार के निप्कर्पं निकाच्ना नितान्त 
श्रमपूर्णं एव अववेजानिक ही द कि आवृनिक पाव्चास्य चिन्तको एव मनीपियो ने मार्‌- 
तीव यास्नमे प्रमावित्त दाकर अपने चिचार प्रस्तुत किये ह, किन्तु यह्‌ तो मानना पदेगा 


२१ 


कि मानव-मन के पेक्य कै कारण ही इस प्रकार की समान धारणां सम्भव हौ जात्ती 
है । सुद्रट के काब्यहेतु-प्रसगमे प्रतिभा के सहज ओर उत्पाद्य नासकदो भेदभी 
सर्वेप्र म यही निरिष्ट हुए है, जिन्हे परवर्ती आचार्यो मे से हेमचन्द्र ने उल्लिखित 
किया है । [देखिए पृष्ठ ११-१६] 
[४] कवि-महिमा--यह्‌ प्रसग भी अति सामल्यकोटिकादहै। 
[देखिए पृष्ठ १६ 
[ ५, ६, ७, ८ {शन्व, वृत्ति, रीति तथा वाक््य--ये सभी परस्पर-सम्बद्ध प्रसग 
है, जिनकी चर्चा द्वितीय अध्यायके पूर्वाद्धमे की गयी है मूलत. यहाँ सद्रट का ध्येय 
शब्द की परिचिति प्रस्तुत करना है, जिसकी श्रतिज्ञा' उन्दने ननु शब्दाथौ कान्यम्‌" 
केखूपमेकीथी। सार्थक वणेसमूह्‌ को शब्द कहते है । शाब्द के चार प्रकार है- 
नाम, आख्यात, उपसगं ओर निपात 1 कुर मनीषी रपाचवां प्रकार भी मानते है-- 
कमेप्रवचनीय ! [देखिए पृष्ठ २१ से २३] नाम (सज्ञा, विदेषण ओर सवेनाम-- 
विशेषतः संज्ञा ओौर विशेषण शब्दो ) की वृत्ति दो प्रकारकी होती है-समासवती ओर 
असमासवती, ओर समास के तारत्तम्यके आधार पर रीतिर्याँ चार प्रकार की होती 
ह--वदर्भी, पांचाखी, जाटीया ओर गौडीया । सन्यपेक्ष वृत्ति वाक शाब्दो का समूह्‌ वाक्य 
कहाता है तथा वाक्य अनेक गुणो से सम्पन्न होना चाहिए 1 (२८) वाक्यो मे सौन्दयं- 
विधायक पदो का प्रयोग होना चाहिए 1! (२।६-१०) वाक्य गद्यवद्ध गौर छन्दोबद्ध 
होता है तथा इसका प्रयोग प्राकृत, सस्कृत आदि छ भाषाभो मे होता है । (२।११-१२) 
[ ९, १०] अथं ओर वाचक शन्द- ये दोनो प्रसग भी परस्पर-सम्बद्ध होने 
के कारण एक साथ निरूपित हुए है । अथं अभिघावान्‌ होता है । इसका वाचके कोई 
न कोई सब्द होता है । वाचक शब्द चार प्रकार का है--द्रन्य, गुण, क्रिया गौर 
जाति । [इनके विशेष विवरण के लए देखिए ७1१-८] वाचक रशाब्द कासा 
व्यवस्थित स्वरूप-निदेश भी काव्यशास्त्रीय श्रन्थो मे स्वेप्रथम इसी ग्रन्थ मे प्रस्तुत 
हभ है ¦ 
[११] महाकान्य-महाकान्य का स्वरूप इस ग्रन्थ मे सर्वाधिक विशदं एव स्वच्छ 
रूपमे प्रस्तुत हुआ है । इसमे ग्रन्थकार का लक्ष्य राजसम्बन्धी कथानक के विवरण प्रस्तुत 
करने का अधिक रहा है--युद्ध-प्रयाण, स्कन्धावारो की स्थापना, मन्तरिपरिपद्‌, सामूहिक 
सगीत, मद्यपान आदि । दसी प्रसग मे निम्नोक्त पद्य उल्केखनीय है- 
योन्यं प्रातरिति प्रवन्धमधुपीति निशि कलत्त्रेभ्य. । 
स्ववधं विश्ङमानान्‌ संदल्ान्‌ दापयेत्‌ सुभटान्‌ 1 १६।१७ 
[ १२, १३, १४] सहाकथा, आख्यायिका, कधघुकाव्य--इन तीनो प्रसगो के 
स्वरूप-निर्दश मे भी यथेष्ट सामग्री प्रस्तुत की गयी है । (देखिए १६।२०-३५) 


९१९ 


[१५] अन्य काव्यरूप--रुद्रट ने महाकान्य, कथा, आख्यायिका मौर छधु- 
काव्य के अतिरिक्त निम्नोक्त अन्य चार काव्यरूपो का उल्छेख-मात्र किया है- 
कर्णक, प्रशस्ति, कुलक ओौर नाटक, इन पर विलि प्रका नहो डाला । (देखिए १६।३६) 

इसी प्रसग मे काव्यं तद्वहूभाप विचित्रमन्यत्र चाभिहितम्‌! पक्ति व्याख्या- 
पेक्ष है । नभिसाघुने इसे नाटक का विरेषण मानते हए कहा है कि नाटक नामक 
काव्य वहुभाषा-सम्पनन होता है तथा [सन्वि-सन्ध्यग से संयुक्त होने के कारण] विचित्र 
होता है । किन्तु हमे एेसा प्रतीत होता दहै कि इद्रट का तात्पयं उपर्युक्त चार काव्य 
रूपो के अतिरिक्तदोअन्यर्पो से भमी है-वहुमापासयुक्त कान्य ओर विचित्र 
कान्य, जिसमे अनेक काव्यरूपो का सम्मिश्रण हो । उक्त पवित मे कान्य" शब्द नाटक 
के क्एि भी प्रयुक्त हो सकतादै, क्योकि नाटक भी काव्यकादही एक रूपै, किन्तु 
ङस अथं की अपेक्षा हमे अधिक समुचित अथं यही प्रतीत होता है कि काव्य को वहु- 
आषम्‌' ओौर "विचित्रम्‌" का विशेष्य मानकर ये दो अन्य काव्यरूप स्वीकृत किये जाए । 
अस्तु | 

(१६) काव्यं मे निषिद्ध प्रसंग-यह्‌ स्थ श््रट की अपने युग कै प्रति 
सङ्गता एव चेतनता प्रकट करता है । [देखिए भरूमिका-माग पृष्ठ २] 


अदाह्र्यु-चाय 


इस ग्रन्थ के उदाह्रण-भाग का प्रणयन श्रन्थकारने स्वयं कियारै, अथवा 
इन्हे किन्ही अप्रख्यात कान्यनास्त्रीय ग्रन्थो से अथवा विभिन्न काव्यग्रन्थो से संकलित 
व्किया है, अथवा किसी मौखिक परम्परासे इन्हे ख्या है-यद्यपि इस सम्बन्वमे 
नि्दिचत रूपसे कुछ नही कहा जा सकता, फिर भी सम्भावना यही की जा सकतीं 
हे किं.उपयु क्त चारो स्रोत ही प्रयुक्त हुए है, ओर शायद स्वप्रणीत उदाहरण सरूया 
ये .वहुत अधिक होगे ¦! इस दृष्टि से इनके उपरान्त मौखिक-परम्परां से प्राप्त उदा- 
रणो को स्थान देना चाहिए, फिर काव्यशास्त्रीय ग्रन्थो से प्राप्तं तथा अन्ततः कान्य- 
स्न्थो से प्राप्तं उदाहरणं को । अस्तु ! 
उदाह्रण-भाग का सम्यक्‌ अध्ययन करने से यहु तथ्य स्पष्ट रू्पसे ङुक्षित 
सोता है किं ग्रन्यकार का उदर्य लक्षण-पक्ष की पुष्टि करना है--उसने इस प्रकार के 
-सुनियोजित उदाहरण प्रस्तुत किये हँ जो स्वसम्बद्ध विभिन्न कान्यतत्त्वो के स्वल्प का 
सवो कराने मे नितान्त समथं हँ । जसा कि इस ग्रन्थ कौ हिन्दी-व्याख्या के अन्त- 
गेत समन्वय-भाग से स्पष्ट हो जाएगा 1 वस्तुतः काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ के प्रणेता के रूप 
म रद्रट की सफकरता भी इसी तथ्य मे निहित है कि वह उदाहरणो के माध्यम से पारक 
न्को विभिन्न काव्यतत्त्वो के स्वरूप से अवगत करा दे) इसके लिए उसे अति श्म 


॥ 8 कि 


९२ 


करना पड़ा होगा--विदेपत. यमक, अनुप्रास, शब्दशरेष, चरित्र, विरोधाभास, अथं- 
दरेष जंसे अरुकारो के उदाहरण-निमणि अथवा सकरन करने मे, क्योकि इनमे कवि- 
कल्पना की इतनी आवश्यकता नही रहती जितनी कि कचि-कौरा की । 
इसी प्रकार विभिन्न दोषो के उदाहरणो का निर्माण करना भी सरल कायं 
नहीं है, क्योकि जानवूञ्लकर अशुद्ध प्रयोग करना मन पर अनावश्यक वोञ्च डाक्ता है । 
दोषो के उदाहरणो को विभिन्न काव्यग्रन्थो से संकलित करना तो अपेक्षाक्रेत भौर भी 
अधिक दुष्कर है, क्योकि दोषहष्टि के साथ किसी ग्रन्थ के अध्ययन के च्एि अचु 
द्वारता एव असहानुभूति-जसी अव्राञ्छनीय एव कान्यास्वाद-विघात्तक भावनाओं का 
जाननूञ्चकर प्रश्रय केना जावक्यक हो जात्ता है--दूसरे चन्दो मे, सहूदयता को किसी- 
न-किसी रूप मे कुण्ठित एवं स विद्ध करना पडता है 1 रद्रट-परस्तुत दोषो के प्रायः सभी 
उदाहरण सुघटित एव सटीक ह-निस्सन्देह ग्रन्थकार को इनके प्रणयन एव संकलनं 
के लिएभी पर्याप्त प्रयास करना पडा होगा 1 अककार गौर दोष प्रकरणों के अतिरिक्त 
इस श्रन्थ में निरूपित तीसरा कान्यतत्त्व है--रस तथा इसी मे अन्तर्भूत नायक-नायिका- 
भेद । रुद्रट ने इन दोनो काव्यतत्त्वो के विभिन्न भेदोपभेदों के उदाहरण प्रस्तूत 
ही क्यि। इस अभावं के तीन कारण सम्भव हो सकते है--एक यह किं इन उदा- 
हरणो से भ्रन्थके कलेवरम वृद्धि हो जाती- विशेषतः नायक-नायिकाओ के विभिन्नं 
भेदोपभेदो के उदाहरण देने से। दुसरा कारण यह किं ग्रन्थकार को किसी प्रख्यात 
एवं अप्रख्यात काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ से इनके सुसम्बद्ध एव सुसगत उद्राहरण नही मिक । 
तीसरा कारण यह्‌ किं ग्रन्थकारका लक्ष्य एक भरंकार-विषयक ग्रन्थका निर्मा 
करना था, न कि रस-विषयक ग्रन्थ का । कारण जो भी हो, रुद्रट यदि नायक-नायिका- 
भेद के न सही, ऽछगार आदिं दसो रसो के-- विशेषतः प्रेयान्‌ रस के जिसका सर्वप्रथम 
उत्रुख उन्दी के म्रन्थ मे मिक्ता है--उदाहरण प्रस्तुत कर देते तो ग्रन्थ का सहत 
कही गौर अधिके बढ जाता--किंसी अककारःग्रन्थ मे यदि दोष-प्रकरण का विस्तृत 
एव विदेषत्" सोदाहरण प्रतिपादन किया जा सकताहै तो रस्प्रकरण मेँ उदाहरणं 
की प्रस्तुति तो गौर भी अधिक वाज्छनीय थी । 
सुद्रट-प्रस्तुत उदाहरण लक्षण-लक्ष्य-समन्वय की दृष्टि से निस्सन्देहं सुगसिति 
एव सूघटित ह, किन्त्‌ शायद यही इनका गुण निम्नोक्त॒ अवगुण का कारण भी बन 
गया है कि काव्य-सौन्वयंकी दृष्टिसे वे उतने प्रशसनीय नही बन पाये इनका 
अनुभूति-पक्ष प्राय. चिथिक है । पाठक किसी कान्यतत्त्व के विभिन्नं घटकोको तो 
इनमेपा क्ता है, पर वे उसके हृदय को आकृष्ट नही कर पाते । इसी कारण हमारा 
अनुमान है कि अधिकतर उदाहरण विभिन्नं कान्यम्रन्थो से सक्ति नत किये जाकर 
स्वर्निरमित ही प्रस्तृत किये गये हैँ} यदि यह परिकल्पना सत्यदहै तो र्द्रट सफ़ल 


41 


जाचायं तो थे, पर सफल कवि नही थे । अन्यथा उपर्षा, सृष््म जसे अलकारोके 
उदाहरणो मे भी जहा काव्यचमत्कार-प्रदर्भन का अवकाण रहता दै, शद्रट केवर इतिवृत्त 
काही उपन्यास करके रह गये है । (देखिए पृष्ठ १५०, २३८) 
प्रायः उदाहरणं के विपय निम्नोक्त है--नायिका का पचित्रण, नायके एव 
नायिका के संयोग तथा वियोग के चित्र, विभिन्न देवता्गो, वि्ञेपतः शिव, पावती 
की स्तुत्तिर, राजा की स्तुति, किसी राजा द्वारा श्रदत्त दान >, वसन्त एव शरद्‌ ऋतुभो 
का वर्णन अथवा ऋतुभों का उदहीपन-रूप में वर्णन५, नीति*, कविप्रशसाः आदि । 
इन विपयों से सम्बन्धित अधिकतर पद्य परम्पराथुक्त एव काव्यरूढ़ है 1 वस्तुत. विरो 
(विरोधाभास), परिसंख्या, एकावदी, विभावना, विशेषोक्ति, तदृगुण जैसे अलंकारो में 
तो प्रायः दसी प्रकार की क्ष॑रगि सुरूचिपूणं सहुदयो के छिए अवाञ्छनीय रहती है ! फिर 
भी कतिपय उदाहरण कवित्वपुणं है, जिनमें कल्पनाजन्य सौन्दयं निहित है-- 
--राजभवन की नीरी मणियोंके वने हुए फश्च पर जव चन्द्रमा की किरणं 
पडती है तो एेसा लगता है, जसे पत्ते उग अयेहो भौरतारों का प्रतिविम्ब पडने 
से वहां फल लगे दिखायी देते हं । &1१३ 
--वहुत धने कूक्रूम राग से अरण यह्‌ [प्रातःकारीन | सन्ध्या [रवि-रथ की | 
पताका के समन सोभित हो रही है, ओर [मानौ] उदयाचल की भोटमे चपि सूयं 
की समीपता सूचित कररहीदहै। ५८1३७ 
-आपके शासन मे मनेक यन्नो के घुएं से व्याप्त दिलाभों को देखकर हंस 
घर्षागमन की आका से व्याकूक हो रहेहै। ८।८८ 
मदिरा के मदे कुर-कुछ ला गौर भ्रमरसभूह के समान काले वालो की 
वेणी वाखा यह्‌ तरुणी का मुख है--एेसा सभी जोग कहते दै, किन्तु मेरा विचार है कि 
यह चन्द्रमा है, गीर भभी-अभी उदय होने से कुर-कू् छा है, तथा उदयगिरि पर 
स्थितं राचरि के कुटिल अन्वकार ने इसे सम्भवतः पीर से पकड रखा है । ८।७०.७१ 
१. (क) ४।१९ ७।१४, २२; ८।६, =, १०, १६, १८, २० 
(ख) ७।३३, ५७ 
(ग) ६।१०; ७।१६. ५५, ६० 
२. 1६-९, १२० १८, २१, ७।३६, ३७ 
द. ५।३०, ६।३०, ३१, ३७, ७।२८, ४३, ४६, ५०, ७५, २।२७ 
४. (क) २।३०; २३।१४; ७।२५ 
(ख) ७।२६, ६०; ८।६२ 
‰, ७।७६; ८।२०, ८1२३ 
६।६ 


४ ६ न 


१.1 [11 [1 १, १ ` | । । ) ऋषि जनी 


3. 


--क्या यह चन्द्रबिम्ब है? यदिह तो इसमे कल्क क्यो नही † क्या यह्‌ 
मुख है ? यदि यह मुख है तो इसकी इतनी प्रभा कंसे ? फिर यहं क्या हो सकता हं ! 
हे सुन्दरि ! महर की छत पर तुम्हारे सारे शयीर के छिप जाने के कारण केवल तुम्हारे 
मुख को देखकर पथिक लोग दस प्रकार सन्देह कर रहे हँ । ८।६०-६१ 


--तिरछी दष्ट के कारण स्वभावत. चचल ओर सरस उस कामिनी के नेत्र 
युगल मे अनुराग रहने पर भी उसे कौन जान सकता है । ७।१०७ 


--जहाँ पर रात्रि मे महामणिरयाँ कज्जल गौर वत्ती के विना ही युरत-समय 
का दीपकं होती है, ओर वस्त्र-विहीन वधु द्वारा [मणियो के ऊपर] डाखी हुड पष्प- 
मारा से भी उनका प्रका मन्द नही पडता । ६।५३ 

वस, कु इतने ही इने-गिने उदाहरण कवि की कलत्पना-शर्वित के निर्देशक 
ह--अधिकतर उदाहरण परम्पराग्रुक्त अथवा कान्यरूढिसम्पन्न हैँ । उदाहरणायं-- 


-- तुम कुछ खिन्न से दिखायी पडते हो, अवद्य ही कान्ता के चरणो पर सिर 
रस्तकर आये हो, अन्यथा तुम्हारे माथे पर यह्‌ मेहदी का तिक कंते र्गा † ७५७ 


-सुन्दरी के चन्द्रमा की कला के समान कोमङ अगो कोभरतातो दहै नव- 
ौवन मौर काम बढता है विरही नवयुवको के हूदय मे ! ६१४६ 


--अभिसारिकाएं निमेल शुक्छ वस्त्र पहनने के कारण गहरी चाँदनीमे 
जकक्षित होकर नि शंक रूप से अपने प्रेमियो के धरो में द्रूत्तवेग से प्रवेश कर रहीदहै। 
९।२३ 


--है हस, मेरी भ्रियाको मृङज्ञे वापसदेदो। उपेत्ूनेदही राया है-क्या 
यह्‌ वात असत्य है ? यह्‌ तेरी गति उसकीहीदहै। यह तेरी अति मधुरवाणीमी 
उसीकीहीदहै। ११२३ 

 --आपके अपराधो के साथ ही उसका सन्ताप बढता जा रहा है ओर तुम्हारे 
स्वेह के साथ-दी-साथ वह वेचारी भी क्षीण होती जा रही है । ७।१६ 

--हे राजन्‌ ! कैरी शत्रृमो के [हाथ-पैरो मे पडी] श्खराभौ के शब्द से आप 
निद्रात्याग करते है ओर इसी शब्द से चारण रोगौ द्वारा किया हुमा करक (प्रभात- 
वैखा का स्तुतिगान) भी दवं मया है । ७।४३ 

--यह चम्पक दृक्ष का शिखर पप्पसमूह के व्याजसे कामानि के समान 
ॐचे चढकर वियोगियो को जाये की इच्छासे देख रहा है 1 ०८।३३ 


---मृगलावक के समान चचलनयना उस युवती ने अपने विम कपोरु पर 
तिखक क्या वनाया, मेरे मन पर अपने शरीर का चित्र वना डाला ।६।१० 


+ 


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| „^ > 


२९ 


--वर्पा ऋतु आने पर पानी से लवाखुव भरे हए तालाव में मानो हस के ` 


वियोग से सतप्त होकर कमलिनी ने तुरन्त जल मेप्रवेग कर लिया है । ६१५ 


चन्द्रमा तो क्षीण होकर भी फिर वृद्धिको प्राप्त करकेता दहै, किन्तु ग्या 


हुआ यौवन फिर वापस नही माता । इसलिए हे सुन्दरि ! [अव] प्रसन्न हो [कर मान 
जाओ ] ७।६० 


यर यदि किन्ही-किन्ही उदाहरणं मे परम्परागत वर्णनक्ष्ी के साथ-साय 
कल्पना का मिश्रणदहैभीतोवे सुवृद्ध पाठ्क के किए सुरुचि के स्थान पर कूटचिके 
ही कही अधिक उत्पादक है। उदाहरणाथं- 

---हे राजन्‌ ! आपकी राचरुस्त्रियो का जसू कामुक व्यक्ति की भाति क्या- 
क्या नही करता 1 पहर तो वह्‌ उनके चन्द्रविस्व के समान निमंर कपोलो का चुम्बनं 
करता है । फिर आगे बढता हु उनके स्थर कूचो का ताडन करता है । तत्पर्चात्‌ उनके 
-गक्ते र्गता है । इस प्रकार आनन्दानुभव मे वाधा न डाकरते हुए वहू उनके जघन आदिं 
कां स्पत करतादहै। १०।२६ 


ओर वसे, इस प्रकारकेपद्योकी भी कमी नही है जो सर्वथा काव्यचमत्कार- 
दीन रै । उदाहरणाथ- 

हे मित्र! तुम क्यासोचरहेहयो? तुम्हें कहु रहा ह । इधर देखो, इधर । 
अरे तुम क्यो नही देखते हौ ? हे मित्र । इन एसी सुन्दर स्त्रियो को देखो । ६।३५ 

निष्कषंतः इस ग्रन्थ का उदाह्रणपक्न शास्त्रीय दष्ट से जितना अधिकांडत. 
सुपुष्ट दै, कान्यत्व की दृष्टि से उतना ही रिथिक है । फिर भी, यदि कतिपय परवर्ती 
प्रख्यात आाचार्यो-मम्मट, धनञ्जय, रय्यक मौर विइवनाथ--द्वारा इनके उदाहरणो को 
उदुधृत किया गया है तो इसका कारण शास्त्रीय पृष्टताही है1* पसे उदाहरणो की 
सख्या कम-ते-कम ६० है गौर ये सभी सर्वप्रथम रद्रट द्वारा ही प्रस्तुत किये गये ह । 
इस ्रन्य के २५३ उदाह्रणो मे से ६० उदाहरणो का विर्वनाय-प्यन्त उद्धृत होते 
रहना इनकी शास्त्रीय परिपक्वता के अतिरिक्त प्रकारान्तर से दस ग्रन्थ की ख्यातिका 
भी सूचकं है । 


म्रतिपादन-येली 


प्रतिपादन-कंटी की दृष्टि से सस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ तीन रूपो मे विभक्त 
किये जाते है--पद्यात्मक ची, सूत्रवृत्ति शरी ओर कारिकावृत्ति दौटी । 

(क) पद्यात्मक दाली--सस्कृत के कुछ आचार्यो ने केव पद्यात्मक शली को 
१. देखिए परि रिष्टः ४ 


[ मं १ ११०७.६५ 


१ 


४; ४ 


[१ [ज 1 1 [की 


| 


२७ 


अपनाया है 1 उदाहरणाधं भरत, भामह, दण्डी, उद्भट, वागमट प्रथम, जयदेव, अप्पय्य- 
-दीक्षित आदि के नाम उल्लेखनीय है । इनमे से भरत ने कुछ स्थो पर ग्यका भी 
आश्रय ल्या है। 

(ख) सूत्रवृत्ति शी--वामन ओर रय्यक के शास्तौय सिद्धान्त सूत्रबद्ध हैः 
ओर सूत्रो की वृत्ति गद्यात्मक है । उदाहरणो के किए इन दोनो नेपद्यका आश्य 
जिया है । इनसे भिरती-जुरुती शी भानुमिश्च, जगन्नाश्, अकवरशाह्‌ आदि की है । 

(ग) कारिकावृनि शंखी --आनन्दवरद्ंन, कन्तक, मम्मट, विद्वनाथ आदिने 
-करिकावृत्ति शंखी को अपनाया है । इनके प्रमुख शास्त्रीय सिद्धान्त कारिकाबद्ध ह । 
उनको व्याख्यात्मक विवेचना गद्यबद्ध बृत्ति मे है ओर उदाहरण पद्यात्मक है । 

रुद्रट का यह ग्रन्थ पद्यात्मक शली मे छिखा गया है! प्रायः सभी लक्षण भौर 
उदाहरण परथक्‌-पृथक्‌ पदयो मे है, कही-कही, विशेपतः दोषप्रकरण मे, एक ही पद्य में 
लक्षण एवे उदाहरण प्रस्तुत किये गये है । उदाहूरणाथं देखिए--एकादश् अध्याय । प्रायः 
सभी अध्यायो के अन्तिम पद्य मे उस अध्याय का उपसहार प्रस्तुत क्रिया गया है ।५ 

शास्तीय पक्ष को प्रस्तुत करने की आदशं शंटी यहद कि उसे सरक एव 
सुबोघ रूप मे प्रस्तुत किया जाए । इस ग्रन्थ के शास्त्रीय पक्ष की प्रतिपादन-दैरी अति 
दुरूह तो नही दै किन्तु स्वंत्र एेसी सुबोध भी नही है कि पढते ही समञ्मे आ जाए । 
अनेकं स्थलों मे नभिसाधु की टिप्पणी की सहायता के विना अर्थावनोध मेँ कल्निता 
उत्पन्न हो जाती है । उदाहरणाथ--१।११, ११४, ११५, ४1१, ४३२, ६।१२; 
६।३४, ७।८, ७। १९, ७५१, ८1२३२, 51४७, ८1५७, ८1 €७, = १०५। 

दस दुर्वोधता का मूख कारण यह्‌ है कि रुद्रटः अपने प्रतिपाद्य को छन्दोबद्ध 
करते समय शब्दों को यथाभीष्ट गणो" की सुधटता के अनुसार रखते चर जाते है मौर 
इस वात की चिन्ता नही करते किं परस्पर सम्बद्ध शब्द यथासम्भव एक साथ आ जाएं] 
यदि एेसा होता तो विषय सर वनं जाता! उदाहरण के किए निम्नोक्त करिकर 
देिए--८।३२, ४७, १०५ । कही-कही उन्होने एक ही पद्य मे अनेक धटकों को 
संजो देने के उदेश्य से विषय को दुरूह्‌ भी बना क्या है! उदाहरणार्थं मान" का 
लक्षण लीजिपए-- 

मानः सः नायके थं चिकारमायाति नायिका सेर्ष्या 1 
उदक्य नायिकान्तरसंबन्धसमुदमवं दोषस्‌ ।॥ १५५१५ 
साहित्यदपंण इस हष्टि से निस्सन्देहे एक सफल ग्रन्थ है । उपयु क्त सभी पद्यौ मे निरूपित 


¦ १. देखिए २, ३, ४, ५, ११, १२, १३, १४, १५, १६ अध्यायो के अन्तिम पद । 


(९ 


काव्यतत्वो की तुलना साहित्यदर्पण मे प्रतिपादित इन्दी तत्वोसे करने पर्‌ इस 
कथन की पृष्टि दहो जाती दै । किन्तु रेस स्थल वहूत अधिक नही दै । समग्रस्पमे ग्रन्थ 
की प्रतिपादन-्खी ग्रन्थकार के उपयुक्त राव्दचयन एव प्रीढ विवेचनक्षमता को प्रकट 
करती दटै। 


विभिन्न काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त श्रीर्‌ रृद्रट 


अन्ततः विचारणीय प्र्न यह है कि रद्रटको विभिन्न कान्यसिद्धान्तोमे से 
किसके साथ सम्बद्ध किया जाए । उन्हे प्रायः अक्कारवादी माना जातादहै। इस 
मान्यता की पृष्टि्मे एक ही प्रमुख तके दिया जा सकता है कि उन्होने अलकारोका 
वर्णन अपेक्षाकृत अधिक मनोयोग के साथ कियादहै। उनके श्रन्थ का छगभग आधा 
भाग अक्कार को समपित है।१ उन्होने अपने समय तक सर्वाधिक अल्कारोका 
निरूपण किया है। वै अनेक नवीनं अक्कारो को प्रकागमे कये ह । उन्होने अनेक्र 
ककारो कै भेदोपभेदो को व्यवस्थित रूप दिया है तथा सवसे वढकर तथ्य यहदहैकि 
उन्होने अकंकारो का वर्गकिरण सवेप्रथम प्रस्तुत किया है । किन्तु उवर भामह, दण्डी 
ओर उदूभट-इन तीनो आचार्या को निम्नाक्त दो आधारो पर अरुकारवादी कदा 
जाता है- 
१. भामह ने अकार को काव्य का अनिवायं तत्व मानाहै:न कान्तमपि 
निभ्रुं षं चिभाति वनित्तामरुखम्‌ 1 
२. उक्त सभी थाचायं काव्य कै सभी उपादेय शंगो को किरी-न-किसी रूपमे 
अरुकारमे अन्तर्भूत करते है। उदाह्‌रणाथं-अरुकार-सम्प्रदाय के अनुसार अनूप्रास्न, उपमा 
आदितो अटंकार ह ही, रस, भाव, रसाभास, भावाभास, भाग्यान्ति आदि भी रसवत्‌, 
प्रेथस्व्त्‌, ऊर्जस्वी, समाहित भादि अलकारदी है। दूसरे गब्दो मे, रस्सच्वनिवादी जिन्हे 
'अन्कार्य' (अलकारो दवारा अलकरणीय ) मानते ह उन्हे यहां अल्कार' कहा गया है । इसी 
प्रकार गुण भीर्‌ व्वनि कौ भी प्रकागन्तर से अकुकार' मे अन्तर्भूत किया गया है-- 
यदा तक कि नाय्य-सन्वियो, नाटूसन््यगो, रसश्रृ्तियो, रसवृत्त्यगो तथा शभूपणः' आदि 
लक्षणों को भी "अकारः नाम देने को स्पष्ट उत्केख किया गया है । 
अव यदि इन दोनों माधारो के साथ सद्रट-विपथक उक्त आधारो कीं तुरना 
की जाए, जिनके व पर उन्हे अलकारवादी मान सकते है, तो ये अत्यन्त यपुष्ट, तक~ ` 
हीन एव चिवि सिद्ध होते है 1 यछकारो का निरूपण करना, उनका व्यवस्थित वर्गी- 
करण प्रस्तृत करना, उन्हे अन्य काव्यागों की अपेक्षा प्रन्थ का अधिक कटेवर सर्मवित 
करना आद्िद्मनतथ्यकाद्योतकनदीदे किर्द्रट मी भामह, दण्डी गौर उद्भट के समान 
१. देखिए ूमिका-माग पृष्ठं ७ 


१९ 


अलकार्‌ को कान्य का स्वस्व स्वीकार करते थे, विदेषतः उस स्थितिमे जब कि 
उन्होने न तो इस प्रकार के कथन प्रस्तुत किये है जौर न कही यह्‌ सकेत किया दहै कि 
किसी अलक्रार मे रस आदि जसे महनीय कान्यतत्व सभाविष्ट कयि जा सक्ते है- हाः 
रुद्रट-प्रस्तुत भावं अलकार के दोनों प्रकार मम्मट-सम्मत गुणीभूतन्यग्य ओर ध्वनि के 
आसपास माने जा सकते है--दोनो आचार्यो दारा प्रस्तुत उदाहरण कगभग एक से है 1 
किन्तु केवर एक आनुषगिक एव अनायास सकेत-मात से यह्‌ सिद्ध करने का प्रयास 
केरना कि रद्रट ने ध्वनिं ओर गुणी भूतन्यग्य जसे महत्त्वपुणं काव्यतत्त्वो को अर्कारः मे 
अन्तर्भूत किया है, भतः वे मलकारवादी थे, भारी भूर होगी--विरोषत उस स्थिति मे 
जव किं उन्होने भामह, दण्डी, एवं उद्भट के समान रस का अन्तर्भाव रसवद्‌ अरकार मे 
न कर रस का विवेचन एक स्वतन्त्र कान्यतत्त्वके रूप मे प्रस्तुत किया है । उन्होने दस 
रसो का स्वरूप प्रस्तुत किया है। शगार रस को भपने हष्टिकोण से सर्वो्कष्ट रस स्वीकार 
किया है! इस रस के आङम्बन-विभाव के रूप मे नायक-नायिका-भेद का निरूपण किया 
ड, तथा रस को महाकाव्य के लिए एक आवदयक तत्त्व माना है-ये सभी तथ्य उन्हे 
अल्कारवादी आचायं स्वीकार करने मे साधक नही दहै 
तो क्या रुद्रट रसवादी आचायंथे ? हमारा चिचारदरहै किवे रसवादी भी 
नही थे । कारण अनेक है--रस का यथासम्भव विस्तृत निरूपण करना, रसके प्रत्त 
समादरभाव रखते हुए कवि को सरसं काव्य की रचनाका अदेश देना-ये सभी 
असंग इस तथ्य के दयोत्तक नही है कि रद्रट रसवादी आचा्थं थे 1 उन्होने अपने ग्रन्थ 
मे रस-प्रकरण के अन्तगंत न तो विभाव, अनुभाव तथा सचारिभावो का नामोल्केख 
एव स्वरूपनिदंश किया है, न विभिन रसो के स्वरूपनिदेश मे इनकी सम्बद्धता दिखायी 
है । इतना ही नही, इनके ग्रन्थ मे विभाव, अनुभाव, सचारिभाव जँसे शब्दो का प्रयोग 
तक नही हुजा है--भरत का रसनिष्पत्ति-विषयक सूत्र तक उद्धृत नही किया गया । 
परन्तु ये सभी प्रसग यदि सुद्रटके ्रन्थ मे सविस्तर वणित कयि जतेतोभी इन्हे 
रसवादी आचायं स्वीकार न किया जाता । वस्तुत. रसवादी आचाय उन्हे स्वीकृत 
करना चाहिए जो रस के प्रेति समादर-भाव प्रकट करने के अतिरिक्त निम्नोक्त दो 
आधारो को साक्षात्‌ रूप से अथवा प्रकारान्तर से स्वीकृत करते है-- 
१. रसवादी आचाय रस के साथ अय काव्पतत्वो--अलकार, गुण, रीति 
जादि को सम्बद्ध करते हृए इन्हे रस के पोपक रूप मे स्वीकार करते है 1 पररिणामत , 
इन कृव्यतत्तवो का लक्षण रसके ही आघार पर प्रस्तुतं करते है, उतना ही क्यो, दोप 
का लक्षण भी रक्षके ही अपकर्ष" पर निर्धारित करते है-जहाँ दोष रस का अपकषंक 
दै, वही वह दोप है, अन्यथा दोष नही है । आनन्दवर्धन, मम्मट, विर्वनाथ भादि 


३० 


जाचा्यं इसी घारणा के पोषक हँ 19 


२. (क) रसवादी आचायं वै स्वीकार किये जाते है जो यद्यपि आनन्दवद्धेन के 
अनुकरण मे रस को व्यग्य पर आश्रित मानकर उक्षे असलक्ष्यक्रमग्यग्य नामक ध्वनि 
का पर्याय स्वीकारकरतेहै, तोभीवेरसकोदही काव्य की आत्मारूपमे स्वीकृत 
करते है } विर्वनाथ एव उनके अनुकर्ता पसे ही आचायं है ) 

(ख) इनके अतिरिक्त एेसे आचार्यं भी है, जो आनन्दवद्धेन के अनुकरतां तो 
नही है, पर रस को काव्य की आत्मा मानते हँ । उदाहरणा्थं--अग्निपुराणकार एसे 
आचायं हँ जिन्होने ध्वनितत्त्व का उल्छेख नही किया, अथवा महिमभटु एेसे आचायं 
है जिन्होने ध्वनितत्व का अपनी हृष्टि से खण्डन किया है ।२ अतः इन जंसे माचार्यो 
के मतमेरस को घ्वनि का एक भेद मानने का प्रकतं ही उत्पन्न नही होता-फिर 
भी इन्टोने रस को कान्य की आत्मा मानादहै 13 

उक्त दोनो धारणाओं का ही मिका-जुखा परिणाम यह हभ कि रसवादी 
आचार्यौ ने, दूसरे शब्दो मे, रस को काव्य की आत्मा स्वीकृत करने वारे आचार्यो ने, 
"कान्यपुरुष-रूपक' के प्रसगमे रस को काव्य की आत्मा घोषित करते हए अन्य 
काव्यतत्त्वौ को इस रूप मे प्रस्तुत किया कि वे रस-रूप केन्द्र पर ही अवस्थित रहकर 
अपना स्वरूप एव अस्तित्व बनाये रह्‌ सकते हँ । राजशेखर ओर विश्वनाथ के कथनं 

„ स प्रसग मे उल्ल्लनीय है, ओर विद्वनाथने तो संवप्रथम अपना काव्यलक्षण भी 
१. (क) उपक्रुवन्ति त सन्त' येऽङ्हारेण जातुचित्‌ । 
हारादिवदरकारास्तेऽचुप्रासोपमादय. ।1 का० प्र° ८1६७ 
(ख) ये रसस्यद्धिनो धर्माः शौर्यादय इवाऽऽत्मनः । 
उत्कषहेतवस्ते स्युरचरस्थितयो गुणाः ॥ का० प्र ° ८।६६ 
(ग) पदसंघटना रीतिरद्खसंस्थाविशेषचत्‌ । 
उपकर्नी रसादीनाम्‌ >< > > 1 सा० द° ६।१ 
(ध) रसापकरषंकाः दोषाः । सा० द० ७।१ 
२. सहिमिमट ने ध्वनि का अन्तर्म अनुमान में करने का प्रयास कियाद) 
३. (क) वार्वंदश्ध्यप्रघानेऽपि रस्त एवात्र जीवितम्‌ । (अग्निपुराण) 
, (ख) कान्यस्या्मनि संगिनि >< >< >< रसादिरूपे न कस्यचिद्‌ विमतिः ¢ 


(सा० द० प्रथमं परिच्छेद से उद्धुत) 
४, (क) काव्यमीमांसा (वि० राष्ट्माषा परिषद्‌) पृऽ १३-१४ 


(ख) काच्यस्य शब्दाथौ शरीरम्‌, रसादिश्चात्मा गुणा शौर्यादिवत्‌, दोषाः 
काणत्वादिवत्‌, रीतयोऽवयवसंस्थानवतुः श्रलंकाराः कटककुण्डल ादिवद्‌ इति 
(सा० द० म परि०) 


६१ 


इसी मान्धता के आधार पर प्रस्तुत किया--वा्वयं रतार्मकं काव्यम्‌ । 

किन्तु खट किसी भी हृष्टि से रसवादी आचायं सिद्ध नही हते । कान्य-पठनं 
का क्या प्रयोजन है--इसी प्रसंग मे उन्हीने "सरस" व्यक्तियों के विषयमे कदा है किवे 
तोकन्यकेद्रारा ही चतुवंगं [घर्मं, अथं, काम ओर मोक्ष] का ज्ञान दीघ्र एवं सर 
खूपसे प्राप्त कर कते है--तयोकि एेसे व्यक्ति [अष्यात्मवादी व्यक्तयो के असमन | 
नीरस शास्त्रो से भयभीत होते है) अत कविजनों को अति प्रयत्नपू्वंक रसयुक्रत काव्य 
क्म रचना करती चाहिए, अन्यथाये भी शास्र के समान उद्रेगजनक ही होगे । 
(१२।१,२) वस, इतनी पृष्ठभूमि प्रस्तुत करने क उपरान्त उन्होने दस रसो का स्वरूप 
प्रस्तुत करना प्रारम्भ कर दिया दै 1 उनके इस प्रसंग मे उक्त तीनो आधारोमेसे 
किसी आधार पर साक्षात्‌ मथवा प्रकारान्तर से प्रकार नही डाला गया--केवल एकं 
संकेत अवरस्य भिल्ता है कि प्रेयान्‌, करण, भयानक ओौर अद्भुत रसोमेंतो वेदर्भी 
ओर पांचाखी रीतियों का यथावत्‌ प्रयोग करना चादिए ओौर रौद्र रस मे छाटिया भौर 
गौडीया का । किन्तु यह्‌ सकेत भी आनूुपगिक दही है! यदि इसे रूट की मान्यताही 
मनच्यि जाएत भी इतने मात्र से उन्हे रसवादी आचायं मानना समुचित 
नही है । अस्तु 1 

इसके अतिरिक्त वे रीतिवादी, ध्वनिवादी तथा वेक्रोकितिवदी भाचायं भी नही 
है, क्योकि उन पर ध्वनि एव वक्रोक्ति सिद्धान्तो के प्रभाव पड़ने का प्रजन ही उपस्थित 
नहो होता--इनके प्रवतंक आचाय आनन्दवद्धंन तथा कुन्तक इनसे परवर्नी है ! रीति- 
वादी आचायं वामन निस्सन्देह इनसे पूर्वं विद्यमान थे, किन्तु इनके ग्रन्थ पर उनका 
साक्षात अथवा असाक्षात्‌ कोई प्रभाव लक्षित नही होता । 

निष्कषंत", छन्हे कान्यशास्वे के उपयु क्त प्रख्यात पांच सिद्धान्तोमेसेकिसी 
भी सिद्धान्त के साथ सम्बद्ध नही किया जा सकता} वे वस्तुत अपने समय के एक 
संफरे सग्रहकर्ता आचायं है 1 


भह्तत्व 

रद्रटके ग्रन्थ के सम्यक्‌ अध्ययनं से यह स्पष्टत लक्षित होताहैकि 
यचि वे अपने से पूर्ववर्ती किसी भी प्रख्यात कान्याचायंसे साक्षा पसे प्रभातित 
नही है--न भरत से; न भामह, दण्डी तथा उद्भट से, ओरन वामनसे। फिरभी 
उन्हे किन्ही काव्याचार्यो से प्रभावित स्वीकृतं करना ही पड़गा--क्योकि एक व्यित 
दवारा इतनी धिक नवीन साम्नी प्रस्तुत करना--विरेषतः अलकारःप्रकरण मे-- 
नित्तान्त असम्भव प्रतीत होता है, ओौर विशेत उस स्थि मे जव कि काव्यशास्त्रीय 
सिद्धान्तो के निर्माण के विषय मे यह्‌ कथन स्वाभाविक एव नितान्त मान्य है कि 


21 


रुदरट रर रद्र (रद्रभ्ट) 

"कान्यालकारः' के प्रणेता रद्रट को ओौर शगारतिरुक के प्रणेता रुदर (र्रभटू) 
को अनेक विद्धान्‌ चिरकाक तक एक ही व्यक्ति समश्चते रदे, किन्तु पूनः अनेक विदानो 
ने इन्हे अकुग-अलग व्यक्ति स्वीकार कर च्या 14 प्रथम वं के विद्वान्‌ है--पिशेल, 
वेवर, फट ओौर बल्हर, ओौर द्वितीय वं के विद्वान्‌ है--पीटरसन, दुर्गाप्रसाद, 
के. पी. त्रिवेदी * ओौर जंकोवी । 

>< >< >< 

इन दोनो को एक व्यक्ति समञ्चन का प्रवान कारण यह्‌ है कि इनके नामो मे 
रायः साम्य है । परिणामतः उक्त पारचात्य विद्वानों से पूवं भारतीय विद्वानों ने य्यपि 
इन्हे एक व्यक्ति तो नही समञ्च छया था, पर सद्रट के कतिपय पद्य रुद्र अथवा रद्रभट् 
के ही समञ्च छ्ि गये । उदाहरणा्थं--राङ्खंघरपद्धति में सुद्रट के "एकाकिनो यद- 
चला'ˆ**उ को “रद्र नाम के साथ सम्बद्ध किया गया है, गौर “मलयानिल *** को 
सद्रभट के नामं के साथ । इतना ही नही, कदमीरी पाण्डुक्पि* मेँ उपकुव्व शगार 
तिरक" के अन्तमेंरुद्रके स्थान पर सद्रट लिखा मिक्ता दहै) 

>< >< >< 

इन दोनो व्यक्तियो को एक व्यक्ति समञ्चने का दूसरा कारण यह हौ सक्र्त 
हैकिरद्रट के ग्रन्थ कानाम है कान्यालकार ओर रद्रभद्रु के ग्रन्थ का नाम यद्यपि 
तो भ्णगारतिलकः, किन्तु वे इस ग्रन्थ के तीनो अघ्यायों के अन्त मे पुष्पिका के अन्तगतं 

इसे “पुगारतिरुक' के स्थान पर “्गारतिककाभिधानकाव्यारंकार' कहते हँ ।७ इससे 
१. इस भरसंग के लिखने में निभ्नोक्त ग्रन्थों की सी सहायता ्डी गयी है-- 
(क) स्टडीज इन दि हिस्टरी आफ़ संस्छृत-पोएटिक्स (एस. के. डे) खण्ड १, २ 
(ख) ए हिस्टरी आफ जठंकार किट्रेचर (पौ. वी. काने) 
(ग) सव्रट^स्‌ श्यूःगारतिलक (डं० आर. पिश्ञेल) 
२. देखिए एकावली" का भूमिका-माग । 
का० अ० ७४१, ज्ञा १० ३७७३ 
४ का० अ० २।३०५) ज्ला० पृऽ ३७८८ 
[हां श्ा० परः मे इलोक-संख्या ५७५ ओर ३४७३ रु्रट के साथ सम्बद्ध किये 


गये ह ओर इ्लोक-संख्या २५६७, ३५६८, २५७६, ३६७५ आर ३७४४ रद्र 
के साथ,जोकिटठोक है 1] 


४. यह्‌ लिपि श्लारदा लिपिदहै। 
& देखिए र मारतिलक (पिशेल-संस्करण) पृष्ठ ८६, पा० टि० १, पंपिति ५। 
७. देखिए-चही, धुष्ठ ४३, ६२, ८६1 


( 


2३५ 


यह्‌ सन्देह हो सकता है कि यह ग्रन्थ कान्याछंकार का एक प्रभाग है, ओर इस 
धारणा की पुष्टि इस तथ्यसरेहो जाती है कि रस-प्रकरण ओर उसके अन्तगंत नायक- 
नायिका-मेद-प्रसग को, जो “्पुगारतिलक' मेँ अति विस्तार के साथ सोदाह्रण निरूपित 
इया है काव्यारंकार' मे अति संक्षेप मे इसलिए निरूपित किया गया है कि इसे भानो 
चे जपने उक्त ग्रन्थ भे. शर्तिपादित्न कर के हैँ मथवा करने का विचार रखते है । यदि 
यहाँ काव्यालकार' शाब्द ःतात्पयं कोई ग्रन्थ-विशेष न केकर इसे साहित्यविध्या, 
'साहित्यशास्, कान्यशास्त्र' आदिं का पर्याय मानलङतोइसदष्टि से भीये दोनों 
अन्थ एक-दूसरे के पुरक मने जा सक्ते हु । 
इतना ही नही, अनेक एेसे पद्य है जो थोडे-बहुत अन्तर के साथ दोनो ग्रन्थों 
मे पाये जाते ह । उदाहरणार्थं, “यगारतिकक' मे प्रस्तुत रसमहत्ता-्रदशंक निम्नोक्त 
कथन कौ तुलना "कान्यालंकार' १२।२ से कीजिए- 
तस्माद्‌ यत्नेन कतंग्यं कान्य रसनिरन्तरम्‌ । 
अन््रथा रसविद्ुगोष्ठचां तत्स्याद्‌ उद्र गदायकम्‌ ।। श्रगारतिलक १।८ 
यही स्थिति -गारतिककं मे प्रस्तृत "विरस" नामकं काव्यदोष के निम्नोक्त स्वरूप की 
भी है, जो काव्यारुंकार (११।१४) के प्रायः अनुरूप है-- 
प्रबन्धे नीयते यत्र रस एको निरन्तरम्‌ । 
महतीं धद्धिमिच्छन्ति विरसं तच्च केचन ॥!१ श्णुंगारत्तिलक ३।७६ 
इसी प्रकार सामान्या नायिका के स्वरूप को भी दोनो आचार्यो ते कगभग एक समन 
वणित किया है-- 
रद्रट--सर्वाद्धना तु वेद्या सस्यगसो क्िप्सते धनं कामात्‌ । 
निगु णगुणिनीस्तस्यान देष्यो न त्रियः कचित्‌ ॥ का० अ० १२।३९ 
सद्रमदु-सानान्यवनिता वेया सा वित्तं परमिच्छति। 
निगु णोऽपिनविदरषो न रागः स्थाद्‌ गुणिन्यपि 1) श्छुगारतिरुक १।१२० 
>< >< 4 
मागे चकर इन दोनों को विभिन्न व्यवित्त समञ्चने वाके विद्धानो ने, विश्ञेषतः 
जकोवी ने, जो तकं प्रस्तुत कथि, उनका सार इस प्रकार है-- , 
१. काव्यारुकार के दोनो टीकाकारो नमिसाघु जौर वल्कभ ते इसके कर्ता 


१. विरस दोष का एक अन्य रूप भी दोनों श्रन्थों मे लगमग समन ही है- 
(क) विहाय जननीमृत्युश्चोकं मुग्धे भया सह्‌ ! 
यौवनं मानय स्पष्टमित्यादि विरसं मतम्‌ ॥ श्यु० ति० ३।७४ 
(ख) कान्याकार ११।१२ 


॥ 


२५ 


॥॥ 


इनक उत्पत्ति नही होती, अपितु इनका विकास होतादहै। रुद्रट द्वारा निरूपित एवं 
प्रतिपादित दूतन अलंकारो एवं अलंकार-वर्गो का--विक्षेषतः नूतन अरूकारो का- 
विकास मानना चाहिए । इस हृष्टि से श्रट उस अप्रल्यात आचायं-वगं का प्रतिनिधित्व 
करते है, जो उक्त भरत आदि पचो आचार्यो से साक्षात्‌ रूप से अप्रभावित रहकर 
काव्यसिद्धान्तो का प्रतिपादन कर रहे ये 1, पहला महत्त्व तो शद्रट का यही है) 
९५८ का दुसरा महत्त्व यह है किं इनके ग्रन्थ के अवलोकन से कुछ इस प्रकार 
के आभास मिरु जाते है कि अव अरंकारवादी एवं रीतिवादी सिद्धान्त-परम्परा समाप्त 
दौ उकी है तथा किसी एेसे सिद्धान्त कां परतिस्फुटन होने जा रहाहैजोकाव्य का 
नाह्यपरक तत्त्व न होकर आन्तरिक तत्त्व है- हमारा सकेत घ्वनि-सिद्धान्त की ओर 
ईै। इस ष्टि से रद्रट एक ओर यल्कारवादी तथा रीतिवादी आचार्यं ओर दूसरी 
ओर व्वनिवादौ आचाय आनन्दवर्धन के बीच एक भ्पुखा का काय करते है । वसे, 
उदुभट, सुद्र भौर आनन्दवद्धैन का आविर्माविकाक एक ही रतान्दी मे--नवम शताब्दी 
मे--माना जाता है । उद्‌भट अल्कारवाद के समर्थक आचायं ह, आनन्दवर्धन च्वनि- 
वाद के गौर रद्रट इनं दोनो की मण्यवर्ती श्युखला का कायं करते है- किन्तु यह्‌ तो 
संयोग मात्रही है । वर्यविपयकीदृष्टिसेतो रद्रट मध्यवर्ती आचायं होने के नाते 
अपना विशिष्ट महत्व रखते ही है । 
रद्रटं का तीसरा महत्त्व यह्‌ है कि कान्य्ास्वीय ग्रन्थो मे यदि भरतं करे 
नाय्यदास् को काव्यविघान का ग्रन्थ न मानकर नारयविधान काही ग्रन्थ मानेतो 
₹व्ट का ग्रन्थ प्रथम सग्रहु-ग्रन्थ' है मौर सम्रहु-गन्थोमे यह विशिष्टता अनिवायतः 
दीनी चाहिए कि वे किसी एक सिद्धान्त के प्रतिपादक एव परिपोषक न हो । एक सग्रह 
अरन्य ठोने के नाते यदि यह ग्रन्थ किसी एक सिद्धान्त से प्रभावित अथवा उसका प्रतिपादक 
नही दे तो यही इसकी विश्षिष्टता है । यो, सग्रहु-न्थो का निनी विशिष्ट महत्व यह 
टोतादैकिवेएककोपका कायं करते द । यह ग्रन्थ तो इस हृष्टि से गौर भी अधिक 
मदत्वपूणं है कि इसमे अपने समय तक के कान्यज्ास्नीय सिद्धान्तो का व्यवस्थित, 
नुनियोजित एवं स्वस्थ संग्रह प्रस्तृत करिया गया है 1 
--सदरट का चौथा जर अन्तिम महत्व निम्नोक्त तथ्यो मे निहित है-- 
^ इत मान्यता कौ पुष्टि इस तथ्यं से मली माति हो जाती है कि अग्निपुराणकार 
गोर नोजरान कीनी यहु स्थित्तिहै! वे मी अपने ग्रन्थों मे परत्तिपादित वर्ण्य. 
विषय को इष्टि से जयने ते पूवेवर्ती प्रयात जाचा्या को परम्परा भे संयुक्त नहीं 
किये जा सकते, वर्योकि ये उनसे प्रभावित भरतीत नहीं होते 1 विदरदगोष्यों में 
जो भी फाव्यशास्त्रीय सिद्धान्त चित एवं विचेचित होते दोग, उन्हीं का संकलन 
६नके ग्रन्यो मे उपदव्थ होता है । 


२३ 


(क) यद्यपि यह अर्कारवादी युग के चार्थं थे,तो भी भरत के उपरान्त 
स्तर का स्वतन्ते निरूपण इतके प्रन्थ मे उपक्न्ब है । 


(स) प्रेयान्‌ रस की सर्वप्रथम चर्चा इन्होने की है । 

(ग) सर्वप्रथम इन्होने नायकनायिका-मेद-प्रकरण को रस-प्रकरण के जन्त- 
ग॑त निरूपित करके प्रकारान्तर से इसे गुंगार रस का ही एक प्रसग निर्दिष्ट किया ह, 
क्योकि वस्तुत. नायक गौर नायिका, तथा सखी, दूती आदि ये सभी ग्पगार रसः के 
विभाव ही है । आगे चरुकर यही व्यवस्था अनेक आचार्यो ने अपनायी, जिनमें से भोज 
मौर विक्वनाथ के नाम विरोष रूप से उल्लेख्य है । 


(घ) इन्दोने नायकनायिका-भेद का विस्तृत निरूपण किया है 1 नायिका के 
भ्सिद्ध तीन भेदो--स्वकीया, परकीया ओौर सामान्या का उल्लेख भी स्वभरथम इन्टीं 
के ग्रन्य में मिक्ता है । 

(ङ) इनके ग्रन्थ में निरूपित ५३ अल्कारो मे से २७ अल्कार सर्व्॑रथमः 
इनके प्रस्थ मे उपलब्ध है । 


(च) "वक्रोक्ति" को एक राब्दालकारके र्प मे सर्वप्रथम इन्होने निरूपिक्त 
किया है, 


(छ) अकारो का वर्गीकरण भी सर्ेप्रथम इन्होने प्रस्तुत किया है 1 


(ज) इनके उदाहरणों मे यद्यपि काव्य-चमत्कार का प्राय. अभावही दहै, 
तथापि ये पूवी अरकार-्रन्थों के उदाहरणो की अपेक्षा संख्या की हष्टिखे तो 
सर्वाधिक है ही, साथ ही सर्वाधिक व्यवस्थित एवं सुघटित रूप मे भी सर्वप्रथम प्रस्तुत 
हए ह । यह ठीक है कि परवर्ती आचार्यो नेः अधिकांचतः इन्दी उदाहरणो को उदुचृत्त 
नही किया, तथापि इसी प्रकारके उदाहरणो के किए हयार अवदय उन्मुक्त होः 
गया 1 


(क्ष) इस ग्रन्थ की अन्यतम विशिष्टता है प्रतिपादित विषयो का सुनियोजित्त 
कम । शब्दाथौ काव्यमुः को लक्ष्य मे रखकर परे शब्दगत कान्य-ततत्वो की चर्चाः 
के गयी है, फिर अथंगत काव्य-तत्वो की । यद्यपि. यह्‌ व्यवस्था परवती आचार्यौ के 
भी मपनायी तो भी शुद्रटके युग तक यह्‌ अभूतपूवं एव आदश्चं थी । 


निष्कषतः खद्रट उधर ध्वनिपूर्ववतीं लौर इधर ध्वनिवादी मानन्दवरद्धन एवं 
उनके अनुथायिथो कषे बीच एक भनिवायं कड़ी के रूप मे विद्यमान एक सफल संग्रहुकर्ताः 
चायं है । 


३४ 


रुद्रट ओर रद्र सद्रमड) | 
'कान्यालंकारः के प्रणेता रद्रट को ओर श्ंगारतिरुक के प्रणेता सद्र (र्द्रभटट | 
को अनेक विद्वान्‌ चिरकाल तक एक ही व्यक्ति समञ्जते रहे, किन्तु पुनः अनेक विद्वानों 
ने इन्हे अलग-मलग व्यक्ति स्वीकार कर छया 1१ प्रथम वं के विद्धान्‌ है--पिशेल, 
वेवर, आफ़ेट ओर बरल्हर, भौर द्वितीय वगं के विद्वानु है--पीटरसन, दुर्गाप्रसाद, 
के. पी. त्रिवेदी ओर जंकोनी । 
>< >< >< 
इन दोनो को एक व्यक्ति समञ्चने का प्रधान कारण यह्‌ है किं इनके नामो मे 
प्रायः साम्य है । परिणामतः उक्त पाश्चात्य विद्वानों से पूवं भारतीय विद्वानों ने यद्यपि 
इन्हे एक व्यक्ति तो नही समञ्च छया था, पर सद्रट के कतिपय पद्य रद्र अथवा रद्रभदट्र 
के ही समञ्च ल्य गये । उदाहरणाथं--शाद्धघरपद्धति में खद्रट के “एकाकिनो यद- 
चला-.”उ को ^रद्र' नाम के साथ सम्बद्ध किया गया है, गौर (मलयानिलः ˆ” * को 
रुद्रभटु के नाम के साथ । इतना ही नही, कर्मीरी पाण्डुलिपि मे उपलन्ध शग्गार- 
तिककः के अन्तमे सद्र के स्थान पर सद्रट छा भिरताहै। 
>< >< >< 
इन दोनो व्यक्तियों को एक व्यक्ति समञ्ने का दूसरा कारण यह्‌ हो सक्ता 
हैकिरुद्रट केः ग्रन्थ का नाम है कान्याककार ओौर रश्द्रभदु के ग्रन्थ का नाम यद्पिदै 
तो श्णगारतिरुक६, किन्तु वे इस ग्रन्थ के तीनो अध्यायो के अन्त मे पुष्पिका के अन्तगंत 
इसे “श्ुंगारतिरूक' के स्थान पर “़गारतिरकाभिधानकाग्याखेकार' कहते है ।७ इससे 
१. इस प्रसंग के कछ्िखने मे निम्नोक्त ग्रन्थों फी सी सहायता नी गयी है-- 
(क) स्टडीज इन दि हिस्वी माफ़ संस्ृत-पोएरिक्स (एस. के. ड) खण्ड १, २ 
(ख) ए हिस्टरी आफ अकार लिटरेचर (पी. वी. काने) | 
(ग) खद्रट'स्‌ श्टृगारतिलक (डं आर. पिश्ञेल) 
२. देखिए एकावली" का भूमिका-माग । 
का० अ० ७४१, शा० प० ३७७३ 
य काण अऽ २।३०, ज्ा० पण ३७८८ 
[ही शश्ा० पर" मे इलोक-संख्या ५७५ ओर ३४७३ रद्रर के साथ सम्बद्ध कयि 


गये है भौर श्लोकसंख्या ३५६७, ३५६०८, २५७६, ३६७५ ओर २७५४ रर 
फे साय, जोकि ठीक है] 


५. यह्‌ लिपि शारदा लिपि) 
६. देखिए “छ गारतिलक (पिन्ञेल-संस्करण ) पष्ठ ८द, पा० टि० १, पमिति ५। 
७. देखिए- वही, पृष्ठ ४३, ६२, ८६। 


| 


३१ 


यह्‌ सन्देह हौ सकता है कि यह्‌ ्रन्थ काव्यारुकार का एक प्रभाग है, ओर इस 
धारणा की पुष्टि इस तथ्यसे हो जाती है कि रस-प्रकरण ओौर उसके अन्तगेत नायक- 
नायिका-मेद-प्रसग को, जो “युंगारतिकक" मे अति विस्तार के साथ सोदाहरण निरूपित 
इआ है "कान्याकंकार' मे अति संक्षेप मे इसलिए निरूपित किया गया है कि इसे मानो 
वे अपने उक्त ग्रन्थ मेःशर्तिपाड्ति कर छके है अथवा करने का विचार रखते हैँ । यदि 
यहा काग्यारकार' शब्द षैः तात्पयं कोई म्रन्थ-विरेष न केकर इसे 'सादहित्यविद्यया 
“साहित्यशास्र, "काव्यशास्त्र' मादि का पर्याय मान रुंतोइसष्टि से भीये दोनों 
श्रन्थ एक-दूसरे के पुरक माने जा सक्ते है । 
इतना ही नही, अनेक एेसे पद्य है जो थोडे-बहूत अन्तर के साथ दोनो ग्रन्थों 
भे पराये जाते हैँ । उदाहरणाय, “पंगारतिलक' मे प्रस्तुत रसमहत्ता-परदशंक निम्नोक्त 
कथन कौ तृलना कान्याककार' १२।२ से कीजिए- 
तस्माद्र यत्नेन केत्तन्यं कात्य रसनिरन्तरम्‌ 1 
अन्यथा रसविदुगोष्ठचां तत्स्याद्‌ उद्र गदायकम्‌ ।। शगारतिलक १।८ 
यही स्थिति शएगारतिलक मे प्रस्तृत॒“विरस' नामक काव्यदोष के निम्नोक्त स्वरूप की 
भी है, जो काव्यारुकार (११।१४) के प्राय" अनुरूप है- 
प्रबन्धे नीयते यत्र रस एको निरन्तरम्‌ । 
महतीं वृद्धि मिच्छन्ति विरसं तच्च केचनं 11१ शगारतिलक ३।७६ 
इसी प्रकार सामान्या नायिका के स्वरूप को भी दोनो आचार्यो ने लगभग एक समान 
वर्णितं किया है- 
रद्रट--सर्वाद्धना तु वेश्या सम्यगसो लिप्सते घनं कामात्‌ । 
निगु णगरुणिनोस्तस्या न देष्यो न ध्रियः कर्चित्‌ ॥ का० अ० १२।३९ 
सद्रभटु--सामान्यवनिता वेश्या सा वित्तं परमिच्छति। 
निगु णोऽपिनविद्रषो न रागः स्याद गुणिन्यपि ॥ श्ृगारतिकक १।१२० 
>< >< 4 
आगे चलकर इन दोनो को विभिन्न व्यक्ति समक्षने वाके विद्वानों ने, विलेषतः 
जकोनी ने, जो तकं प्रस्तृत किये, उनका सार इस प्रकार है-- 
१. काव्याककार के दोनो टीकाकारो नमिसाधु गौर वल्कभ ने इसके कर्ता 


१. विरसं दोष का एक अन्य रूप भी दोनों ग्रन्थो मे लगभग समान ही है-- 
(क) विहाय जननीभत्युश्लोकं मुग्धे सया सह । 4 
यौवनं मानय स्पष्टमित्यादि विरसं मतम्‌ ॥ भ्यु"० ति० ३।७५ 
(ख) काव्यालंकार ११।१२ 


$ 
नन ट 


३६ 


को खद्रट नाम से अभिहित किया है१, गौर इधर इसके विपरीत “गारतिरकः केः 
रेखक ने ग्रन्थ के अन्त मे इकेष के माच्यम से स्वयं अपना नाम ख किखा है 1 

२. रुद्र ने जपने ग्रन्थक जन्तमे शिव की स्तुति की है, किन्तु रद्रटने 
गणेदा के अतिरिक्त मवानी बौर मुरारी की---दइससे यह अभिव्यक्त होता हैकिये 
दोनो विभिन्न सम्प्रदायावरम्बी थे । 

२ रद्रट का उदेश्य एक अरुंकार-विषयक ग्रन्थ का निर्माण करनाथा मौर 
सद्रभटु का रस-विपयक ग्रन्थ का । रद्रटने अंरुकार के अतिरिक्त अन्य कारव्यागोकाभी 
निरूपण किया, जिन्तु सद्र ने केवर रस गौर उससे सम्बन्वित नायकनायिका-भेद को 
ही स्थान दिया । 

४. (क) रद्रट ने प्रख्यात नौ रसो के अतिरिक्त प्रेयान्‌ रसको भी अपने 
ग्रन्थ में स्थान दियार, किन्तुर्द्रनेकेवलनौरसोंको। 

(ख) रद्रट ने सामान्या (वेश्या) नायिका का केवरु एक ही पद्य मे चरुता- 
सा उल्छेख-माच किया है, किन्तु शुद्रभटु ने इसका विस्तृत निरूपण किया है 1: 

(ग) रुद्रटने संचारिभावों का नाम-निरदेश नही किया, किन्तु सद्रभटरने किया हं 1: 

(घ) रद्रट ने काम की दस दशागो--अभिराष, चिन्ता आदिं का केवल 
नामोल्केल् किया है, उनका स्वरूप-निदेश नही किया, किन्तु रुद्रमट ने उनके लक्षण 
एवं उदाहरण प्रस्तृत किये है 1 

(ड) रद्रट ने भवस्था के आघार पर नायिका के चारभेदो का उल्लेख किया 
दै, किन्तु सद्रभद्र ने गाठ मभेदो का।° 

५. सद्रटने अनुप्रास अकंकार के अन्तर्गतं उद्‌मट के अनुकरणमे मधुराः 
प्रौढा आदि पाच वरत्तियो का निरूपण किया, किन्तु शुद्र ने केव कक्िकी, आरभटी 
सात्वती ओर भारती नामकं चार रस-वृत्तियो का 15 

>< >< >< 


१. देए "कान्यालकार' पर नमिसाघु की मारभ्मिक ओर गन्तिम टिप्पणी । 


२-३. त्रिएुरनवादेव गतागल्लासमूुमां समस्तविद्चुधनुताम्‌ 1 
भ्ुःगारतिलकविधिन। पुनरपि शद्रः प्रसादयति ॥ श्डु० ति० दाच्भर 

` काव्यालकार १५।१७-१६। 

का० ज० १२।३६. श्य० ति० १।१२०-१३० 

श्ु° ति० १।११-१४ 

का० उण १४४८, ५, श्डु ° ति° २।७-३० 

का० ० २।१६-३१, श्य ति० ३।५२-७३ 
` का० अ० १२४१, श्ड० ति० १।१३१,१३२ 


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२७ 


रुद्रट गौर रुद्रमट को एक व्यक्ति मानने वालों की ओरसे उक्ततर्कोमेसे 
अधिकतर तर्को का खण्डन बड़ी सरकुता से एक ही आधार पर किया जा सकताहै कि 
एक ही व्यक्तिने दो ग्रन्थ इस रूप मे प्रस्तुत किये जो एक-दूसरे के पूरक ह । उदाहरणाय, 
अनुप्रास अलकार मे मधुरा आदि वृत्तियो का निरूपण करना वाञ्छनीय था तो रस-प्रसग 
के अन्तर्गत कंरिकी आदि वृत्तियों का, ओौर इसमे कोई विरोध भी नही है । परवर्ती 
आचार्यो के ग्रन्थो मे भी यही प्रतरृत्ति देखी जा सक्ती है 1 इसी प्रकार सचारिभावो, 
काम की दस अवस्थाओं का एके ग्रन्थ में नामोल्केख मात्र ओर दूसरे मे स्वरूप-निर्दल 
भी इसी धारणाकी पुष्टि करता है! अपने एकं ग्रन्थमेनौरसों को स्थान देना 
मौर दूसरे ग्रन्थ मे एक अन्य रस कोभी स्थान देना भ्रन्थकार के विचार-विकास का 
ही योतक है । इसके अतिरिक्त यह स्वीकार करना भी शास्व-सम्मत एव मनस्तोषक 
नही है कि रद्रटने अख्कारवाद का समर्थकं होने के नाते अपने ग्रन्थ मे प्रमुख रूपसे 
अकूकारो का निरूपण किया ओर रुद्रभट्ं ने रसवाद का समर्थक होने के नतेरसोका 
निरूपण किया, क्योकि ये दोनो आचायं अकार अथवा रस नामक कान्यतत्त्वो के निरू- 
"पके मात्रर्है, क्योकिनतो रुद्रट, जसा कि ऊपर निर्दिष्ट कियाजा चुका है,* भामह 
जादि के समान अकंकारवादी ह, ओर न सुद्रमदट्‌ परवर्ती आचार्यो-भोजराज, विरवनाथ 
आदि के समान रसवादी 1 अतः एक व्यक्ति दारा इन दोनो प्रकारो के संग्रहु-ग्रन्थोका 
प्रणयन स्वीकार करना नितान्त सम्भव है। 
इसके अतिरिक्त इन दोनो को इस आधार पर भी भिन्ते-भिन्न व्यर्वित स्वीकार 
-केरना समुचित प्रतीत नही होता कि इन्होने अपने-मपने ग्रन्थो मे अकग-अकग देवतां 
की स्तृति की है । वस्तृत. एक ही कवि, जब तक कि वह्‌ किसी विशिष्ट सम्प्रदायका 
कटर पक्षपाती न हो, अनेक देवतामो की भी स्तृति कर सकता है, विरेषत्त. अपन 
विभिन्न ग्रन्थो के मगखाचरणकेरूपमे। 
>< >< >< 
किन्त फिर भी, हम इन दोनो को एक व्यक्ति स्वीकार नही करते, ओर इस 
धारणा का प्रमुख कारण यह्‌दहैकिरुद्रभटु ररट की अपेक्षा कही अधिक सफर कविं 
द । उसकी कत्पना-शक्ति उर्वरा है, ओर उसका बिम्ब-विधान विरद एव उज्ज्वङ है । 
` इस दृष्टि से रुद्रट के किसी पक्षपाती की ओर से यह्‌ कहा जा सकता है कि नायक- 
नायिका-भेद के उदाहरणो मे कवित्व का जितना अवकाश रुद्रेभटु को प्राप्त था, उतना 
अरुकारो के उदाहुरणोमे रुद्रट को प्राप्तम था। किन्तु रुद्रट को ज्हा-जहां एेसे 
अवसर मिरे भी है--जेसे उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि के प्रसग मे- वहां भी उन्होने 
कत्पना-शक्ति का परिचय नही दिया । उदाह्रणो के प्रस्तूत करने मे उनका एकमात्र 
१. वेखिए पृष्ठ २८-३१ 


२८ 


उदेश्य है शास्त्रीय पक्ष की पुष्टि, अर्थात्‌ रक्षण के अनुरूप उदाहरण (लक्ष्य) का निर्माण ? 
लगभग यही स्थिति उनके कारिका-भाग की प्रतिपादन-क्ञंटी कीभी है। रद्रभटू 
का लक्षण-पक्ष रुद्रट की अपेक्षा सरल ओौर सुबोघ है।1 यद्यपि विषय की विशाकता, 
व्यापकता, गम्भीरता एव प्रौदृता की दृष्टि से इन दोनो मे कोर तुलना नही है--रद्रट 
रद्रभट की अपेक्षा इस दृष्टि से करई गुना बढकर है । हाँ, रुद्रमटु का नायक-नायिका- 
भेद प्रकरण अपेक्षत अत्यधिक विस्तृत एव व्यवस्थित है, किन्तु कुरु मिलाकर शुदरट 
सद्रभदुः की अपेक्षा कही अधिक सफर आचायं है, ओर इधर सद्र मटर सुद्रट कौ अपेक्षा 
कहीं अधिक सफर कवि है । जंकोनी महोदय नेभी इस तथ्य की ओर स्पष्ट सकेत 
किया ह 14 

इन दोनो को एक व्यक्ति मानने का एक कारण यह्‌ प्रस्तुत किया गया था कि 
इन दोनो ग्रन्थों मे कतिपय पद्य जगमग एक समान हैँ । उदाहरणाथं, रसमहत्त्व- 
सूचक पद्य ओर विरस दोष तथा सामान्या नायिका के स्वरूप-नि्देशक पद्य ।२ किन्तु 
यदि इन सभी पद्यो की परस्पर तुलना की जाए तो स्पष्टतः रक्षित होता है किं एक 
व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति की रचना को सम्मुख रखकर उसे अपने शब्दो मे ढा दिया 
है । यदि इन दोनो व्यक्तियों को एकं व्यक्ति मान जिया जाए तो फिर उसे भपनीही 
पूव -निमित कारिकाओ अथवा उदाह्रणो को अन्य रूप मे ढालने की आवश्यकता क्यो 
पडती ? अस्तु । 

निष्कषेतं रद्रट ओर रद्रभट ये दोनो सिन्त-भिन्न व्यक्ति है । 
कान्यालंकार्‌ के टीकाकार 

सद्रट-प्रणीत काव्याङंकार के तीन टीकाकारः माने जाते है-- वल्लभदेव, नमि- 
साघु गौर आशाधर 1 इनमे से नमिसाघु की टीका उपरून्ब है । इन तीनो टीकाकारो 
का परिचय इस प्रकार है-- 

१. वह्लमदेव-शिशुपारुवघ के टीकाकार वल्लभदेव ने इस ग्रन्थ के ४२१ 
तथा ६,२८ पयो की टीका मे> यह्‌ सकेत किया है कि उन्होनि रुद्रट के ग्रन्थ की टीका 


_ अस्तुत की थी, किन्तु यह टीका अद्यावधि अनुपकन्ध है । वतल्कभदेव के कथनानुसार उनका 


1. ((ह्पला्ा8 शुणएतवाऽ 95 87 काहणठ ॥त्वनालः ग 065, प्णणाल एरण्ताद, 
३८ 15 0651 धा गाक्षा०्‌ ०, ० $, 35 9 चशकः ग 15 
59570, {116 (०णा०प लत. --1860छिं 

[ प्राऽज$ 2 8805६ 20665 : $, 1, 8. ८. 12८1 

२. देखिए पृष्ठ ३५ 

३. पर्याप्त भयास करने पर नो शिश्युपाल्वध" का यह्‌ संस्करण हमे उपलम्ध नहीं 
हुमा 1 


२९ 


अपना उपनाम परामा्थंचिह्व था, ओौर उनके पिता का नाम राजानक आनन्ददेवे था । 
उन्होनि काक्दास, माध, मयूर ओर रत्नाकर के ग्रन्थों की टीकाएं प्रस्तुत की थी । एेसा 
प्रतीत होता है कि वे कदमीर-निवासी थे, गौर दशमं शती के पूर्वाद्धं मे विद्यमानं थे ।१ 

२. नमिसाघु--षद्रट-प्रणीत कान्यालकार पर नमिसाधु की टीका मूलपाठ केः 
साथ प्रकारित रूप मे उपलब्धं है।* इस टीका (टिप्पण) के अन्त मे नमिसाधु ने 
उपना परिचय भी प्रस्तुत किया है 1 (देखिए पृष्ठ ४२६-४३०) इसमे उन्होने अपने- 
आपको श्री शाकिमद्र के चरण-कमलो का भ्रमर बताया है । इस कथन के आधार पर 
हम नमिसाधु को इस हृष्टि से उनका शिष्य भी मान सक्ते है । शाकिभद्रजी धारापद्र 
नामक पुरी के "गच्छ' अर्थात्‌ जैन साघुसम्प्रदाय के तिरुक-स्वरूप ये 1 यह्‌ पुरी कहाँ थी, 
इस सम्बन्ध मे निद्चयपु्वंक कुछ भी नही कहा जा सकता । कान्यारकार के सम्पादको-- 
श्री दु्गप्रसाद तथा श्री वासुदेव शर्मा ने ग्रन्थ के आरम्भ मे नमिसाघु को श्वेताम्बर जन 
पण्डित माना है, 

नमिसाधु ने इस टीका की समाप्ति विक्रमी-सवत्‌ ११२५ के वर्षकिार्मेकी 

थी । (देखिये पृष्ठ ४३०) उक्त सम्पादक मंहोदयोने ल्खिादहै कि राजकीय संग्रह 
मे सुरक्षित तारुपत्र पर लिखित टिप्पण-पुस्तक मे (११७६ पाठ मिरता है, किन्तु इन्दी 
सम्पादको ते इस पाठ मे छन्दोभद्ध स्वीकार करते हुए ॒प्रकारान्तर से यह्‌ सकेत किया 
है कि सवत्‌ ११७६ न स्वीकार कर सवत्‌ ११२५ (सन्‌ १०६६) स्वीकार करना 
चाहिए--राजकीय संग्रहान्तर्व तिनि तालपत्तरखिखिते टिप्पणपुस्तके तु "षट्सप्ततिसंयुक्तं- 
रेकादशसमाशतंः' इति पाठो वतते, अत्र घु छन्योमद्धः स्फुट एव । जो हो, नमिसाधु 
का समय ईस्वी की ११बवी ङती स्वीकार करना चाहिए 1 

किसी टीका मे यथासम्भवे निम्नोक्त तीन गुण अपेक्षित है--(१) मू पाठ 
कोसरलरूपसे समज्ञा दिया जाए । (२) यदि उसमे कही अभावहो तो उसे पूरा 
किया जाए \ यह्‌ तभी सम्भव होता है जब टीकाकार को वेण्यंविषय का पर्याप्त ज्ञान 
हो 1 (३) मूर रेखक के दृष्टिकोण का समर्थेन किया जाए, अथवा उसके प्रति कहीं 
वैमत्य प्रदशंन करना होतो वह तकंसगत रूप मे कर दिया जाए ! 

(१) नमिसाधुके टिप्पण मे मूकं पाठ को समन्ञाया अवद्य गया है, किन्तु 
प्रायः सरल रूप मे नही 1 इसका एकमात्र कारणं यह्‌ है कि उन्होने विग्रह एव पर्याय- 
वाची इाब्द प्रस्तुत करने वाली टीका-पद्धति को अपनाया है, जिससे किसी कारका 
अथवा उदाहरण का समग्र कथ्य पाठक के समक्ष समन्वित रूप मे उपस्थित न होकर 
खण्ड उपस्थित होता है, जिससे त्वरित अर्थाचबोध मे वाधा होती है 1 फिर भी, इस 
१. विशेष विवरण के लिए देखिए सस्कृत पोएटिक्सछ खण्ड १ (एस. के. डे) । 

२. निणयक्तापर प्रेस, काव्यमाला-२ 1 


2. 


टीकाके कारण मूक पाठ को समक्षे गर्याप्त सहायता मिती है--विक्लेपतः 
अनुप्रास, यमक, इकेप, चित्र, ब्थजेप गादि अलंकारो के उदाहरणं के समने मे यह 
टीका अनिवायंत. पठनीय है । निष्कपंतः नमिसाधु स्वयं तो इस ग्रन्थ के पद-पद से 
श्ररिचित ह, पर उनकी टिप्पणपद्धति सुगम नही दै । 
{२) नमिसाघु को ग्रन्य के वर्ण्यविपय का पर्याप्त ज्ञान है! यही कारणटैकि 
"वह्‌ स्थान-स्थान पर ग्रन्थकर्ता के किसी सिद्धान्त की पुष्टिम अनेक उद्धरण तथा 
किसी काव्याद्ध के भेदो एवं उपभेदों के उदाहरण एवं प्रत्युदाहरण प्रस्तुत करते नव 
गये ह, उदाहरणार्थं निम्नोक्त स्थर देखिए- 
२/६, ७, ८ । 
३।१ 1 
४/४, ७, १३ । 
६/७) ८, १३५ २४ ३३५ ३८, ४०, ४५, ४६, ४७ । 
७।५, ७, १०, २०, २२० ३०, २३, ५६, ७२, ७२, ८३, ६१ 
८/१, ५, १०, २५, २६, २८, २३१, ३२, 2७, ४२, ५६, ६४ ठय ॥ 
१०/२६ । 
११/६, १०, २४, ३५, ३६। 
१२/३५ ४, ४४। 
१४/१ । 
१५/१1 
इन श्रभी स्थलो के अवलोकेन से स्पष्ट दै (देखिए परिचि : ३, प° ४४६- 
४६) कि नमिसाघु ने काखिदास के अत्तिरिक्त माघ, भारवि, मतृ हरि, यूद्रके, भव- 
अवि भादि के काव्यग्रन्थो करा भी सम्यम्‌ अध्ययन किया था गौर कान्यनास्वर मे उसकी ` 
अभिरुचि का भी सम्भवतः यही कारण है 1 
(३) नमिसावुने श्ट्रटके सम्बन्व मे कटी यहु उत्लिखित नही किया कि 
दह्‌ अखुक्ारवादी अववा रसवादीथे। इस प्रकारके उल्कछेखाभाव का बायंद एक 
कारणतो यह्‌ दहकिस्वेयं ठ्रट ने अपने ग्रन्यमेकिसीषशू्प मे इस ओर सरके नही 
क्रिया । दूसरा कारण यह्‌ कि नमिमाधघु गायद स्वयं मी इम दिना मे विदेप सतक नही 
ये कि वह्‌ मूल ग्रन्थकार को किसी सम्प्रदाय-विननेप से सम्बद्ध करदे । 
नमिसावु वस्तुतः माच टीकाकार है-- वहु सदा खद्रटका स्षम्थंन करता दहै । 
विय्य के सम्यग्‌ अववोव के छिएु उसी विषय से सम्बद्ध यन्य उद्धरण एव उदाह्रण 
१. च्लेष अकार के टीक्ना नाग (४।११-२१) से विदित्त होता ह कि नमिसाधु संस्कृत 
के अतिरिक्त भ्राकृत मोर अपश्च सषामोके विभिन्न प्रकासे में मी निष्णात ये। 


४१ 
\ 


अथवा प्रव्युदाहरण जुटाता चका जाता है ओर वस्तुतः किसी टीकाकारकी इसी 
स्थितिमे ही यथार्थता निहित है । 

नमिसाघु का इस सम्बन्ध मे योगदान यह है कि इनके टिप्पणके निना यह्‌ 
ग्रन्थ केही अविक दुर्बोध समज्ञा जाता । इस दृष्टि से तो यह टीका अति उपादेय ही, 
साथ ही वण्येविषय को कही अधिके विज्लद रूप भी मिलाहै। 

२३. आश्षाघर-पीटेरसन के कथनानुसार रद्रट के ग्रन्थ के एक अन्य टीका- 
कार है आशाघर, जो कि जेनाचायं थे । वह्‌ सन्‌ १२४० तक जीवित रहे 1५ 

>< >< >< 

इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि तयार करने मे मुङ्ञो अपने स्नेहास्पद मित्र ठकरुर 
ओमूप्रकाच जी से पर्याप्त सहायता भिरी है--यमक, इरेष ओौर विशेषतः चित्र अल- 
कारो का उदाहरण-भाग तो उनकी सक्रिय सहायता के चिना मेरे लिए नितान्त 
दुगंम था । मै उनके प्रति अति कृतज्ञ हँ । रेखक की एक दुर्ब॑खुता यह भी होती है कि 
वह अपनी कृति को किसी सुपात्र व्यविति को सुनाकर आदवस्त हो जानां चाहता है । 
इस सम्पूणं भूमिका-भाग को अपने आदरास्पद मित्र पं० कृष्णदकर जी रुक् को सुनाने 
से मुञ्चे सम्बल मिखा । यै उनके प्रति भी कृतज्ञ ह । 

कान्यरास्् का प्रारम्भिके अध्ययनं मैने रगभग २६-२७ वषं पूवं श्रद्धेय पं० 
दीनानाथ शर्मा शास्त्री सारस्वत के श्रीचवरणोमे बेलकर क्ियाथा, तथा पिछली 
दशाब्दी मे स्व०° आचायं विश्वेद्वर के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के हिन्दी-भाष्य के अध्ययन 
से मुञ्जे इस ग्रन्थ की हिन्दी-न्याख्या प्रस्तुत करने की प्रेरणा भिखी--अतः यह ग्रन्थ 
मैने इन्ही दोनो को सर्मपित कर दिया है। इधर डं° नगे ओर डं वी. राघवनं 
के प्राय. सभी कान्यशास्त्रीय प्रन्थो के अध्ययन से इस शास्त्र के प्रति मेरी रुचि ओर 
अधिक बढी है भौर नवीन दिशां मिरी है--मै इन दोनो के प्रति भी अत्यन्त समादर 
के साथ हादिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं । 

प्रस्तुत ग्रन्थ की हिन्दी-व्याख्या का नाम “असुप्रभा' है । "अयु" मेरी पचवर्पीया 
पत्री है। उसी के नाम पर इस व्याख्या का यह्‌ नाम रखा गया है । 
एफ ११/१२, मोडल टाउन, 


दिल्ली-& -सत्यदेव चौधरी 
५-२-१९६५ 


[1 


१, विशेष विवरण के लिए देखिए सस्छृत पोएटिक्स, खण्ड १, पृष्ठ ६६-१०१। 


विषय-सुची 


अयन जघ्याय १.१७ 


१. मंगलाचरण (२), २. काव्यप्रयोजन (४), ३. कान्यहेतु (११); 
४. कविमहिमा (१६) । 


दितीय अध्थाय १७-४८ 


१. कान्यलक्षण (१८) २. शब्द के प्रकार (२१); ३. वृत्ति एवं रीति 
(२३), ४. वाक्य--वाक्य का लक्षण, वाक्य के गुण (२५), वाक्यके 
भेद (३३); ५. शब्दारुकार-भेद (३५), वक्रोन्िति (३७); अनुप्रास 
(४१) 
सृतीय अध्याय ४६-८३ 

राब्दारुकार-यमक : यमक का लक्षण (४८), यमक-विषयक सामान्य 
चर्चा (४९-५४) यमक के भेद-मुख (५४), सदश (५५), आवृत्ति 
(५५), गभं (५६), सन्दष्टक (५७), पृच्छ (५८), पक्ति (५८), 
पादावृत्ति के दो अभ्य भेद (६०), परिवृत्ति (६०), युग्मक (६१), 
अरद्धावृत्ति : समुद्गक (६२), महायमक (६३), एकदेशज (६५), 
आद्यन्तयमक (७०), अद्धवृत्ति (७०), पाद-समुदुगक (७१), अन्तरित 
पाद-समुद्गक (७२), वक्त (७४), लिखा (७५), मारा (७५), मध्य 
(७६), आद्यन्त (७७), माला (७७), जादिमघ्य (८०), आद्यन्त 
(८०), मध्यान्त (८१), अनियत देश तथा अवयव यमक (८१), उप- 
संहार (८३) 1 


चतुथं अध्याय ८४-११८ 
राब्दालंकार--इरूष . इरेष का लक्षण (८४), ररषविषयकं सामान्य 
चर्चा (८४-८६) इरेष के भेद : वणं (७६), पद (८६), लग (६१), 
भाषा (९३), प्रकृति (१०४), प्रत्यय (१०१५), विभक्ति ओर वचन 
(१०६), श्रेष तथा उपमा एव समुच्चय (१०६); रकष तथा अन्य 
अरकार (११३-११८), उपसहार (११८) । 


घ 


लौकिक रस : काव्य रस (३६५), श्छंगार रस (३६६), नायक-नायिका- 
भेद (३६६), एतदुविषयक सामान्य चर्चा (३६६-३७८) , नायक ओर 
उसके चार भेद (३७६), नमंसचिव (३८०), नायिका (३८१), नायिका- 
भेद--जत्मीया (३८१), परकीया (३८४), वेद्यां (३८५), अष्ट 
नायिकाएं (३८६), अन्य भेद (३८८), अगम्या नारियाँ (३८९), अन्य 
भेद (३८६), उपसंहार (३९१) 1 


जरयोदश्च अध्याय ३६२-३९६ 
१. सभोग भगार का स्वरूप (३९२), २. स्त्रियो की दशां एव चेष्टां 
(३६२), ३. नवोढाओं का स्वरूप (३९४), ४. नायक को रिक्षा 
(३९५), ५. उपसंहार (३९६६) । 


चतुदंड अध्याय ३६७-४०६ 
१. विप्रलम्भ शगार के भेद (३६७), क. अनुराग (३६७), ख. मान । 


पञ््चदका अध्याय ४०७-४१७ 


वीर रस (४०७), करुण रस (४०८), बीभत्स रस (४०८), भयानक 
रस (४०८), अद्भ्रूत रस (४०९), हास्य रस (४०६), रौद्र रस 
(४१०), शान्त रस (४१०), प्रेयान्‌ रस तथा एतदूविषयक सामान्य 
चर्चा (४११-४१७), श्णूगारेतर रस मे रीति-प्रयोग (४१७), रस- 
महिमा (४१७) । 


घोडल्ञ मध्याय ८४ १८-४३० 
चतुवगं-फलदायक काव्य की उपादेयता (४१८), प्रवन्ध काव्यके भेद 
(४१८), महाकान्य (४२०), महाकथा (४२३), माख्यायिका (४२४), 
तीन प्रबन्धो मे सामान्य प्रसग (४२६), रघु कान्य (४२६), अनुत्पा्य 
प्रवन्यो मे उक्त सक्षणो का निपेघ (४२७), अन्य काव्य-मेद (४२७), 
कतिपय निपिद्ध प्रसंग (४२८); ग्रस्यसमाप्ति-सूचक स्तवन (४२९), 
नमिसाधु का स्वपरिचय (४२६) । 


रुद्रट-प्रणीतः 
काव्याठकार. 
| श्रशुप्रमा"ऽऽख्य-हिन्दीव्याख्या-सहितः 


ख 
पचम भध्याय ११६-१५१ 


दाव्दारुकार--चित्र : चित्रविपयक सामान्य चर्चा (११६), चित्र का लक्षण 
(१२०), चक्रवन्य ( १२१), खद्धवन्ध (१२२), मूसरुवन्य ( १२४), घनुवन्ध 

(१२४), शरवन्व (१२६), शूलवन्व (१२८), शवितवन्व (१३०) 
हल्वन्व (१३१), चक्रवन्व (१३२), तुरगपदवन्व (१३४) गजपदवन्व 

(१३५), अर्धंश्रमवनव (१३८), मुरजबन्ध (१३६), सवंतोभद्रवन्व 
( १४०), पद्मवन्व (१४२), मावाच्युतक, विन्दुच्युतक, प्रहेकिका, 
कारकगूढ, क्रियागरूढ गौरं प्रश्नोत्तर ( १४५-१५०), उपसंहार (१५१) । 


चच्ठ अध्याय १५२-१८२१ 


दोप--दोपविपयक सामान्य चर्चा (१५२), दोप-प्रस्तावना (१५४), पद- 
गत दोप--असमर्यं (१५६); अप्रतीत (१६०), विसन्वि (१६२); 
विपरीतकल्पना (१६४), ग्राम्य (१६५), देव्य (१७०), भविकपदता दोप 
की अतिव्याप्ति (१७१), पुनद्वत दोष की अदोषता (१७२), असगति 
दोप की अदोपत्ता (१७५), वक्यदोप-संकीणं (१७७), गमित 
(१७८), गतार्थं (१७६), मध्यम वाक्य कौ उपादेयता (१८०), सभी 
म्रकारकेदोपो का अभाव (१८१) । 


सप्तम अध्याय १८३-२४२ 
ज्यं का लक्षणं ओर वाचकं गव्द के भेद (१८२), वाचक-बन्द-विपयकं 
सामान्य नर्चा (१८३), द्रव्य (१८५), गण {१८८}, क्रिया (१८६). 
यानि (१६१), वाचक रन्दो का वथावत्‌ प्रयोग (१६४८), परम्परा-पृष्ट 
विपरीन वणन भी मान्यं (१६५), लकारो का वर्गकिरण--इस सम्यन्व 
मे ऋम्मन्य नर्क (१६६), कस्तिविं (१६६), वास्तवगत अखकार-- 
नदन्ति {२०६१}, नमुन्यय (२०३), जाति (२०८), ययासत्य {२११}, 
भावं (२१३), पर्यव (२१५), विषम (२१७), अनुमान (२२१); 
दन {२०४}; परितर्‌ (२२६), परितत्ति (२२६), परिसस्या 

(२२६), पनु ०), कमारष्यमान्य (२३१), व्यतिरेक (२६३२), 

^न्मान्य {२३५}, उर (२३६), मार (२३७), गृष्म (रच्द), कधं 

स्तु, मृदम्‌ एद ठ विधयक्त तामानय चरन (२४०), सवसर 

, मिष्न {२८२}, दुवारी (२४३) 1 


ग 


जष्टम अध्याय २४४-२६०५ 


मौपम्य (२४४); भओौपम्यगत अरुकार--उपमा (२४५), उतरक्षा 
(२५८), रूपक (२६१), अपहनुति (२७०), संशय (२७१), समासोक्ति 
(२७५), मत (२७६), उत्तर (२७७), अन्योविति (२७८), प्रतीप 
(२७८), अर्थान्तरन्यास (२७६), उभयन्यास (२०८२), भ्रान्तिमान्‌ 
(२८२), आक्षेप (२६३), प्रत्यनीक (२८४), हष्टान्त (२८५), पूं 
(२८६), सहोक्ति (२८६), समुज्वय (२८८), साम्य (२८६), स्मरण 
(२९०) । 


नेवम अध्याय २६ १-९०९ 
मतिश्चय (२६१), अतिकयगत अलकार--पूवं (२९२), विशेष (२६२), 
उत्परक्षा (२६४), विभावना (२९६), तद्गुण (२९८), अधिक (२९६६), 
विरोध (३०१), विषम (३०५), असंगति (३०६), पिहित (३०७), 
व्याघात (३०८), अहेतु (३०८) 1 


दशम अष्याय ३ १०.३३१ 
अर्थररेष (३१०), ररेषविषयक सामान्य चर्चा (३१०-३१५), इरेष के 
भेद (३१५), अविशेष ररेष (३२२), विरोधश्केष (३२३), अधिके 
दकष (३२४), वक्ररकष (३२५), व्याजश्रेष (३२६), उक्तिररूष 
(३२७), असम्भवर्रष (३२८), अवयवररेव (३२९), तत्त्वदकेष 
(३३०), विरोघाभासदरेष (३३१), अलकारो की परस्परसकी्णंता 
(३२३२) । 


एकादशे मध्याय ३ ३७-३५६ 
अ्थंदोष--अपहेतु (३३८), जप्रतीत (३३८), निरागम (३३९), 
वाघयनु (३३९), असम्बद्धं (३४०), ग्राम्य (३४१), विरस (३४३), 
तद्वान्‌ (३४४), अतिमात्र (३४५), उपमा-दोष- एतदुविषयक सामान्य 
चर्चा (३२७-३५३), सामान्य शब्द-भेद (३५३), वैषम्य (३५५), 
जसम्भव (३५६), अप्रसिद्धि (३५८), उपसंहार (३५८) । 


ह्रादश्च अध्याय ३६०.३६१ 
काव्य का प्रयोजन (३६०), काव्यमे रस की अनिवार्यता (३६०), 
एतद्‌विषयक सामान्य चर्चा (३६१-३६४), रसो का नाम (३६४), 


[म 1 


| 9) ॥ गः भः कषक गवि ति 8, 1 १ 
न~ 1 


घ 


खौकिक रस : काव्य रस (३६५), गार रस (३६६), नायक-नायिका- 
भेद (३६६), एतदूविषयक सामान्य चर्चा (३६६-३७८), नायक भौर 
उसके चार भेद (३७६), नम॑ंसचिव (३८०), नायिका (३८१), नायिका- 
भेद-आत्मीया (३८१), परकीया (३८४), वेश्या (३८५), अष्ट 
नायिकाएँ (३८६), अन्य भेद (३८८), अगम्या नारियाँ (३८९), अन्य 
भेद (३८६), उपसहार (३६१) । 


जयोदश्च अध्याय ३६२.-३६९६ 
१. सभोग शगार का स्वरूप (३९२), २. स्त्रियो की दशां एवं चेष्टाएे 
(३९२), ३. नवोढाओ का स्वरूप (३९४), ४. नायक को रिक्षा 
(३९५), ५. उपसंहार (३६६) । 


चतुदश अध्याय ३६७-४०६ 
१. विप्रलम्भ गार के भेद (३६७), क. अनुराग (३९७), ख. मान । 


पञ्चदन्ञ अध्याय ४०७-४१७ 
वीर रस (४०७), करुण रस (४०८), बीमत्स रस (४०८), भयानक 
रस (४०८), अदरम्रुत रस (४०९), हास्य रस (४०६), रौद्र रस 
(४१०), शान्त रस (४१०), प्रेयान्‌ रस तथा एतद्‌विषयक सामान्य 
चर्चा (४११-४१७), श्युगारेतर रस मे रीति-प्रयोग (४१७), रस- 
महिमा (४१७) । 


षोड अध्याय ४१८४१३० 
चतुवेगं-फलदायकं कान्य की उपादेयता (४१८), भ्रवन्ध काव्य के भेद 
(४१८) , महाकाव्य (४२०), महाकथा (४२३), माख्यायिका (४२४), 
तीन भरवन्धो मे सामान्य प्रसग (४२६), घु कान्य (४२६), अनुत्पा्य 
प्रबन्धो में उक्त लक्षणो का निषेव (४२७), अन्य कानव्य-मेद (४२७); 
कतिपय निषिद्ध प्रसंग (४२८), अ्न्थसमाप्ति-सुचक स्तवन (४२६), 
नमिसाधु का स्वपरिचय (४२९) 1 


रुद्रट-प्रणौतः 
कात्याठलकार. 
[ श्रचुप्रभा'ऽऽल्य-हिन्दीव्याख्या-सहितः | 


[+ 0 9) 


श्रीरुद्रटम्रीतः 
कभन्यालङ्खारः 
नमिसाधुकृतदिष्पणसमेतः 
“प्रशुभ्रभा'ऽऽ6्य-हिन्दीविवृतिसमन्वितस्च 


प्रथमोऽध्यायः 


(१) 
निःशेषापि त्रिलोकी विनयपरतया सनमन्ती पुरस्ताद्‌ । 
यस्यांघिद्न्द्सक्तांगुलिविमलनखादशंसंक्रान्तदेहा ॥ 
निर्भीतिस्थानलीना भयदभवमहारातिभीत्येव भाति । 
श्रीमान्नाभेयदेवः स भवत्तु भवतां शमंणे कमंभक्तः ॥ 


(२) 
पर्वंमहामतिविरचितवृत्त्यनुसारेण किमपि रचयामि । 
संक्िप्ततरं श्द्रटकान्यालंकारटिप्पणकम्‌ । 


इह शास््रकारः शिष्टसथितिपालमा्थमिष्नेन शास््रसमाप्तयर्थव्च म्रथममेवं 
तावद्‌ गणुनायकस्य स्तुतिमाह- 


निध्याय विश्वैकयुर' परेशम्‌, विस्ताटिनानाविधचास्वेषम्‌ । 
भत्यूहजातस्य निवारणेम्पुः कारुण्यधाम्नः करुणां समीहे ॥२१॥ 

चित्तं समाधाय परास्य खेदम्‌, येऽनारतम्‌. निष्ठितमानसत्वात्‌ । 

भ्रा कारायन्‌ कान्यनिगूढतसरम्‌) तान्द्दधयाऽऽचायवरान्नतोऽस्मि ॥२॥ 
ओीरुद्रटः कान्यविदां समाजे प्रोयान्‌ परः कान्यरदस्यवेन्ता । 

काव्यस्य सर्वाद्गनिरूप्ौर्यो लेभे यशो श्चायविनेचकस्य ॥२॥ 

विदन्सुदे तेन कतिः प्रणीता राराजते मूर्तिमतीव कीर्तिः 

दिन्दी-गिरा तां विवरीतमिच्छुः “अंश्प्रमा" ऽख्या विवृति तनोमि ॥४॥ 


4 


कि , । ~ 9 | च व ह 


२ काव्यालङ्कारः [कारिका १ 


ग्रविरलविगलन्मदजलकपोलपालीनिलीन मधुपकरलः । 
उद्धिन्ननवरमशरुश्रे खि र्व गणाधिपो जयति ।\१॥ 


गणाधिपो विनायको जयति सव्कि्षेण वतते । कीदशः । अरविरलं धनं 
विगलच तन्मदजल दानाम्बु ययोस्ते, अ्रविरलविगलन्मदजले च ॑ते कपोलपाल्यौ च 
प्रशास्तकपोलौ च । पालीब्दस्य समासे केरापाशवत्परश्ंसाथंत्वात्‌ । तयोनिलीनं रिलष्टं 
मधुपकुलं श्रमरगणो यस्य सोऽविरलचिगलन्मदजलकपोलपालीनिलीनमधुपकुलः । भतः 


उत्मरेक्षते-उद्िन्नोद्गता नवा नूतना र्मश्रुश्रेशिमु खरोमसस्थानविशेषो यस्य स उद्भिन्न 
नवश्मभरुश्रेरिः स इव ॥ 


कान्यक्ास्त्रीय ग्रन्थो मे (काव्यालंकार' ग्रन्थ श्रनेके कारणो से श्रपना विशेष 
महत्त्व रखता है । पहला कारण यह है कि इसके रचयिता रुदरट ने पूवंवर्ती कान्यशास्त्रीय 
वादों -भ्रलकारवाद श्रौर रीतिवाद-से परिचित होते हृए तटस्थ भाव से इस ग्रन्थका 
प्रणयन किथारहै। दूसरा कारण यह किं यह्‌ ग्रन्थ श्रपने प्रकार का पहला सग्रह-प्रन्थ 
है जिसमे विभिन्न कान्यशास्तीय अगोको इस दष्टिसे एकत्रित किया गयाहैकि 
एक जिज्ञासु भ्रष्येत्ता को यथावत्‌ सामग्री मिल सके । कान्य-स्वरूप, शब्दभेद, शन्दा- 
ल ्भार, भ्र्थाल द्खार, रस, नायक-नायिका-भेद, दोष, गुण, रीति श्रौर प्रबन्धकानव्य-ये 
इस ग्रन्थ के प्रमुख विषय है । तीसरा कारण यह कि इस भ्रस्य की स्थिति ध्वनि- 


पूरवेवर्ती शरीर घ्वनि-परवर्ती काव्यशास्त्रीय ग्रन्थो के वीचकीहै, श्रत: इसका श्रपना 
एतिहासिक महत्व भी है| 


हस यन्थ भँ सोलह चष्यायहै | प्रथम च्रष्याय मेँ मंगलाचरण के 
उपरान्त निम्नोक्त तीन विपर्यो का निरूपर करिया गया है-[] काम्य-प्रयोजन, 
[२] काव्य-हेतु चोर [२] कवि-महिमा। ` 
यरल्ाच््य 

संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थकार ग्रन्थारम्भ से पूवं सभ्यजनोचित ग्यवहार के परि- 
पालन के लिए तथा ग्रन्थकी नितिषघ्ने समाप्ति के लिए श्रपने इष्ट देवता की स्तुति 
करते थे । उन्दी के ग्रनुरूप प्रस्तुत ग्रन्थ-लेखक रखरट ने भी गरीय तथा पार्वती की 
स्तुति निम्न सू मेप्रस्तुतकीहै; 

उसं गरेडा की जय हौ जिसके गंडस्यलो से निरन्तर मदजल बह रहा है, उन 


[गंडस्यलो ] पर चठी हूर श्रमरपेषित एसे. प्रतीत हो रही है मानो यह नयी मु 
निकल श्रायी है !?। 


पार्वती फे चरणकमल-युगल को, जो सकल संसार के एकमात्र क्षरण है 


व = 
५ ननौ नन 9 
1 
५ 


कारिका २] प्रथमोऽध्यायः ३ 


-एवमभीष्टदेवतां स्तुलाऽधुना वाडमयन्यापिमिवानीनमरछति पुरः तरं श्रेष्टजन- 
्रवृत्तयेऽभिधेयादि कविवन्रुराह- 


सकल जगदेकशरणं प्रणम्य च रणाम्बुजदयं गौर्याः । 

काव्यालंका रोऽयं ग्रन्थः क्रिथते यथायुक्रिति ।॥।२॥। 

सकलजगदेकशरण निखिलविदवादितीयशरण्यम्‌, प्रणम्य नमस्कृत्य, चरणाम्बुज- 
दयमधिकमलयुगम्‌, गौर्या उमायाः, काव्यस्य कवेमवि कमे वा कान्य तस्यालंकारो 
भूषणं कान्यालंकार", भ्रयमेष, ग्रन्थ. शास्त्रम्‌, क्रियते विधीयते । बुद्धया निष्पन्नमिव 
ग्रन्थं गृहीत्वेदमा परामृदयत्ययमिति । तत्र काव्यालक्रारा वक्रोक्तिवास्तवादयोऽस्य भ्रन्यस्य 
प्राधान्यतोऽभिषेयाः । प्रभिषेयन्यपदेशेन हि शास्त्र व्यपदिशन्ति स्म पूवंकवयः । यथा 


नमस्कार करके दस "काव्यालङ्कारः नामक भ्रन्य की युक्तिपूवेक रचना क 


जाती है ।२।. ` 

ग्रन्थारम्भ से पूवे किसी देवता की स्तुति पारिभाषिकं शब्दावली मे मंगल 
कहलाती है । मंगल के सभ्वन्ध मे ^न्यायसिद्धान्तमुक्तावली' (कारिकावली) नामक 
म्ख्यातु न्थ कं कर्ता श्री विद्वनाथ पंचानन भटूाचायं नै उक्त प्र॑थ के भ्रारम्भमें 
कतिपय धारणाए प्रस्तुत की है, जिनका सार इस प्रकार दहै : 

ग्रन्थारम्भे से पूवं मंगलपाठ करना एक प्रकार का शिष्टाचार है तथा इससे 
लाभम यह है कि इससे प्रन्य-निमणि की श्रवधिमे विघ्नो का विघात होता रहता है, 
ग्रौर फलत ग्रन्थ की समाप्तिं निविष्नहो जातीदहै। इस प्रसंगमे वादी के माध्यम 
से उन्होने दी सभवे शकाए उठायी है--पहली शंका यह्‌ कि एेसे ग्रन्थो की भी नि्िघ्न 
समाप्ति देखी जाती है जिनकं श्रारम्भ मे मगल-पाठ नही किया गया, मरौर दूसरी शका 
यह कि कदम्बरी-जंसा ग्रन्थ भी विद्यमान दहै, जिसमे मंगल-पाठ कयि जाने पर 
भी उसकी समाप्ति निविघ्न नही हुई । वादी की पहली शका के उत्तर मे श्वी विश्व- 
नाथ का कहना है कि ग्रन्य-समाप्तिही इसतथ्यका प्रमाण है.कि ग्रन्थकार ने इस 
जन्म मे न सही तो पिद्धले जन्म भ्रथवा जन्मो मे कभी मंगल-गान श्रवर्य किया होगा 1 
दूसरी शंका के उत्तर मे उनका कथन है कि ग्रन्थ की श्रसमाप्ति ग्रथवा विष्नसहित 
समाप्ति इस्रतथ्यका प्रमाणहै कि (मगल की अ्रपेञा विघ्न प्रधिक वलवान्‌ रहा 
होगा । निष्कषं यह कि ग्रन्थ की निविन्न समाप्ति के लिए मगल-गान भ्रावद्यक है । 

किन्तु भ्राज कां बुद्धिवादी मानव विद्वनाथ की उक्त धारणा से कहँ तक सम्मत 
होगा यह्‌ कहना करिन है । वहं यद्यपि ग्रन्थ की निघ्न समाप्ति के लिए मगल-पाठ को 
प्रस्वीकार करता है, भ्रौर इस तरह प्रकारान्तरं से किसी श्रहर्य राक्ति को इसक्ता कारण 


र काव्यालङ्कारः [कारिका २ 


कुमारसंभवः काव्यमिति । दोषा रस्चेह प्रासद्धिकाः, न तु प्रधानाः । सम्बन्धस्तुपायो - 

पेयलक्षणो नाम्नेवोक्तः । नहि तेन विनाऽस्यालंकाराः प्रतिपाचा भवन्ति । ननु दण्डि- 
मेधाविरुद्र-भामहादिकृतानि सन्त्येवालंकारशास्त्रारि, तक्किमथंमिदं पुनरिति पौनरक्त्य- 
दोषं क्रियाविशेषणेन निरस्यन्नाह - यथायुक्तीति 4 शेषेष्वलकारेषु च या या ॒युक्तियंथा- 
युक्ति, युक्तिमनतिक्रम्य वा क्रियते । एतदुक्तं भवति -प्रन्यैरलंकारकारंनं तथा ुक्ति- 
युक्तानि सक्रमाणि वा लक्षयानुसारीरि वा हृदयावजं कानि वाऽलंकारदास्त्राणि कृतानि 
न तथा मया । भ्रपितु यथारुचीति न पौनस्वेत्यदोषावसरः ॥ 


नहीं मानता, तथापि इसके लिए मन को संनुलित रखने पर भ्रवश्य बल देता है । श्रौर.यदि 
मन को संतुलित एवं एकाग्र रखने की क्षमता का प्रदाता भगवान्‌ को ही मान लिया ज्राए 
तो हम निस्संकोच रूप से कह सकते है किं भ्राज का बुद्धिवादी ग्रन्यकारं ग्रन्थ के प्रारम्भ 
मे संगल-गान न करके भी श्रपने भावी विघ्नो के विनाश्चके लिए इस सम्बन्धं में 
भ्रस्तं तकं स्वयं सतक बना रह कर प्रकारन्तर से भगवान पर ही भ्राधारित 
रहता ह 1 
म्राचीन परिपाटी के भ्रनुसार ग्रन्यारम्भ मे मंगलाचरण के उपरान्त ग्रन्थ के 
वरण्यं-विषय के प्रयोजन, हतु तथा लक्षण परं प्रकाश डाला जता है। ये चारों विषय 
'्ननुवन्ध-चतुष्टय" कहाते ह । यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ का वण्यं-विषथ कव्यशचास्त्र है, काव्य 
नहीं, फिर भी स भी काव्याचार्यो ने काव्यशास्त्र के प्रयोजन भ्रादि की चर्चा न करके काव्य 
केही प्रयोजन श्रादिकी चर्चा कीदहै। इसका कारण वताते हुए साहित्यदपंणकार 
विर्वनाथ (१ १वी शती ई०) ने कहा है कि काग्यलास्र भी वस्तुतः काव्य काही 
श्रद्ध होता है, श्रत. काव्य के प्रयोजन [श्रादि] के समान इसके भी प्रयोजन होते हैँ । 
श्रतः काव्य के ही प्रयोजनों पर प्रकाश डाला जाता है--श्रस्य श्रन्यस्य काव्यांगतया 
काव्यफर्तरेव फलवत्वमिति कान्यफलान्याह । (सा० द° प्रथम परिच्छेद पृष्ठं ७), 
किन्तु हमारे विचार मे कान्यशास्त्र का व्यावहारिकं पक्षतो निस्सकोच रूप से 
काव्यका श्रंग स्वीकृत कियानजा सकतादहै, किन्तु इसका संद्धान्तिक पक्ष नही । 
उदाहरणार्थं, कालिदास श्रयवा तुलसी के ग्रन्थो पर समालोचनाएं तो ्रधिकांडा सीमा 
तक काय्य का भ्रंग है, किन्तु 'नास्यशास्व', "काव्यालंकार', "काव्यप्रकाश", “साहित्य- 
दपंरा',कविप्रिया','रसमीमांसा भ्रादि ग्रन्थ कान्य के भ्रंग नही ह कारण स्पष्टटै कि 
कान्यसमालोचनाग्रों का सम्बन्ध श्रधिकांशतः हृदय के साथ रहता है, श्रौर नाय्यास्वः 
काव्यालंकार श्रादि ग्रन्थो का श्रधिकांशतः मस्तिष्क के साय । 
४. (क) कान्यशास्त्र का प्रयोजन ४ 
सुद्रट ने सवंप्रयम श्रपने प्रन्य का प्रयोजन निदिष्ट करते दए कहा है कि-- " - 


॥ 
8 


ॐ +> 
ए > ४१ 


कारिका ई-४] | प्रयमौऽप्यायः ५ 


म्रन्थस्याभिषेयसम्बन्पौ व्याख्यायेदानीं प्रयोजनं विषनुराह- 
ग्रस्य हि पौर्वापियं पर्यालोच्याचिरेण निपुखस्य । 
कान्यमलंकतु मलं कतुं सदारा मतिर्भवति ॥२॥। 
ग्रस्य काव्यालकारस्य । हिशब्दो यस्मादथं । यस्मात्पौर्वापयं हैतुहैतुमडावम्‌ । 
हेतुरेष न्थः । हैतुमन्तोऽलकार. । हेतुकाय॑योश्च पौर्वापर्यं सिद्धमेव । श्रथवाऽऽचन्तोदित- 
्रन्थार्थं पयलिच्यावगुत्य, श्रचिरेण शीघ्रमेव, निपुरस्य प्रवीणस्य, काव्यं कवि भावम्‌, 
भ्रलंकतु मलंकारसमन्वितं विधातुम्‌, श्रलमत्यथ॑म्‌, कतु . कवेः, उदारा स्फारा, योग्या 
वा मतिर्भवति बुद्धिर्जायते 1 तस्मात्सप्रयोजनमिदमलंकारकरणमिति ॥। 
प्रथ कान्यकरशुस्येव ताबक्ति अयोजनमित्याह- 
ज्वलदुज्ज्वलवीवघ्रसरः सरसं कुव्रन्महाकविः काम्यम्‌ । 
स्फुटमाकल्पमनत्पं प्रतनोति यराः परस्यापि ।४॥। 


ज्वलन्देदीप्यमानोऽलंकारयोगाव्‌, उज्ज्वलो निर्मलो दोषाभावात्‌, वाचा भिरां 
प्रसर. प्रबन्धो यस्य स ज्वलदुज्ज्यलववक्प्रसरः। सरस सश द्खारादिकम्‌, कूवन्स्चयन्‌, 
काव्य कवे क्म, यत - एवैवगुणस्तत एव महाकविवृंहत्काव्यकर्ता, स्फुट प्रकटम्‌, 
प्राकल्पं युगान्तस्थायि, भ्रनल्पमस्तोकम्‌ । जगद्वधापीत्यथं । प्रतनोति विस्तारयति, यशः 
कीत्तिम्‌, परस्य कान्यनायकस्य सबन्धि 1 श्रपिदाब्दोऽत्र विस्मये । चित्रमिदं यत्कति 
स्वल्पायुरप्येवं विधं यरास्तनोति-। श्राद्मनोऽपीति-तु व्याख्याने - स्फारस्फुरदगुरुमहिमा 
(१।२१) इत्या्नथं कं स्यात्‌, गतार्थत्वात्‌ 1। 


इस श्रन्थ को श्राद्योपन्ते सम्यग्‌ सूप से पदृकर निपुरा बने हुए कवि की मति 
काव्य को [विभिन्न काव्यांगों से] सुश्लोभितं करने मेँ समर्थं तथा उदार बन 
जाती है \३। । 
. , काव्यशास्त्रीय ग्रन्थो के भ्रध्ययन से कवि काव्य के विभिन्न भ्रंगो से.निस्स.देह 
सुपरिचित हो जाता है ओर दस ज्ञान के बल पर वह्‌ श्रपने काव्य फो परिष्कृत. रूप 
मे-मौ प्रस्तुत करता है, किन्तु. इसक्रा यह श्रसिश्रय - कदापि नही है - कि-कोई व्यक्ति 
कग्यनिर्मारि-प्रतिभा. के बिना ही. केवल -कराग्ययास्ीय ग्रन्थो के ्रष्ययनमात्र से 
काव्य-निर्माण करने मे समर्थं हो जताहै।.-~ --. --.- ---~ ~ 
[ख्‌] काठ्य का प्रयोजन ॥ 

सक्‌ उपरान्त काव्यप्रयोञ्नो की चर्चा क्रते हुए ग्रन्थकार कते ह किं~- - ~ 

सालंकारता के कारण] देदीप्यमान तथा [दोषाभाव के कार] निर्मल 


ये 


६ काव्यालङ्कारः [कारिका ५-७ 


ननु देवश्रहमगदिकं कारयित्वा स्वयमेव नायकः स्वयशो विस्तारयिष्यतिः 
किं कवेस्तदर्थं कान्यकररोनेतयाशक्याह 
तत्का रितसुरसदनप्रभृतिनि नष्टे तथाहि कालेन । 


न भवेन्नाम पि ततो यदिन स्युः सुकवयो राज्ञाम्‌ ॥ ५॥ 

तत्कारितसुरसदनप्रभृतिनीत्यत्र तच्छव्देनोत्तरत्र रानामित्येतत्पदोपात्ता. कन्य 
नायका परामृश्यन्ते । तत. काव्यनायकविधापितदेवगृहादौ कालपर्ययेण नष्टे नाशं गते 
सति । तथा हीति हिशब्दो यस्मादयं, तयाराव्द उपप्रदर्शाने । न भवेन्न स्यात्‌, नामा- 
प्यभिधानमपि । भ्रास्तां तावदन्वय इति । तत सुरसदनादिनाघाद्धेतोः, यदि राजा 
नायकानां सुकवयो न स्यु. 1 तच्वरितकथाप्रबन्धकर्तार इति । रजामिति काव्यनायको- 
पलक्षणम्‌ ।। 

त्रथ यदि नाम राज्ञां यशस्तस्तन्ति तथापि कि तेषां यत्ते काव्यकृतौ 
म्रवतंन्त इत्याह- 

इत्थं स्थास्तु गरीयो विम नमलं सक्ललोककमनीयम्‌ । 

यो यस्य यशस्तनूते तेन कथं तस्य नोपकृतम्‌ ।६। 

इत्यं ^स्फुटमाकलत्पमनल्पम्‌' (१।४) इत्यनेन प्रकारेण, स्थास्नु स्थिरतरम्‌, गरीय 
प्रभूतम्‌, वोषाभावाच विमल र्‌, भ्रलमत्ययं म्‌, सकललोककमनीय सकलजनकान्तम्‌" य 
कविर्यस्य राजादेंशस्तनुते तेन कथ तस्य नोपक्रृतम्‌ । सवंथोपकङृत भवतीत्यथ: ।। 

ननु यदि कविना परस्योपकतम्‌, ततोऽपि क तस्येत्याह- 

श्रन्योपकारकरणं धर्माय महीयसे च भवतीति । 


प्र.धगपरमाथनि।मविवादो वादिनामत्र ।७॥ 
गतार्थ" न वरम्‌ । चकारोऽन्योपकारकरण चेत्यत्र योज्यः| 


रचना करने वाला महाकवि सरस कान्य की रचना करता ह्या श्रपने चिश्शद यक्ष को 
तो युगान्तपयन्त प्रत्यक्ष रूपसे फलाता ही है, सायही काव्यके नायकके.यक 
को भी फलाता हि \४। 

यदि उन राजा श्रादि नायकों के चरित फो प्रबन्धरूप मे लिने वाले सुकवि 


न होते, तो उन [राजाश्रो ] एारा बनाये गये इन्दर-प्रासाद-तुल्य महलों के कालवज्ञ नष्ट 
हो जाने पर इनका नाम तक शेष न रहता ।५। 


इस प्रकार जो कवि जिस नायक के चिरस्थायी, महत्वपूर्णा, निर्मल 
स्वेजन्रिय एवं प्रत्यधिक यश्च का विस्तार करता टै वह निस्सदेह उस न यक का 


६ 
कारिका ८-१5 ` प्रथमोऽध्यौरयैः ७. 
एवं धर्म एवं कवेः कान्यकरखे प्रोजनमिच्यभिधायाऽथेकराममोक्षहेतुलमष्याह- 
ग्रथमनर्थोपशमं शमसममथवा मतं यदेवास्य । 
.; विरचितरचिरपुरस्तुतिरखिलं लमते तदेव कविः \15॥1 
` श्रथंमिति । भ्र्यो धनम्‌, श्ननर्थोपशमो विपदभावः, चं सुखम्‌, भ्रसममसाधा- 
णम्‌ ! इह लोके कामज परत्र तु पारम्पर्येण मोकजम्‌ ! श्रथवा किमेभिनंहुभिरुक्तं येदेवा- 
ऽस्य केवे. संमत तदेवाप्नोतीति । कीटः } विरचितसदलकारदैवतास्तुति. ॥ 
किमत्र प्रमाणमिति वेत्तदाह- 
नुवा तथाहि दुर्गा केचित्तोणा दुस्तरां विपदम्‌ । 
भ्रपरे रोगविमुक्ति वरमन्ये लेभिरेऽभिमत्तम्‌ ॥६॥ 
| सुत्वेति ¦ त्रथाहीत्युदाहरणोपदशने । दुगग्रहण देचतोपलक्षणायंम्‌ । तथाहि 


केचिदनिरुद्वादयः शश्रुवदयादिका विपद्‌ तीर्णा. । केचिद्रीरदेवादयो नीरुजत्वं प्रापुः । 


अपरे शधरुष्नप्रमृतयोऽभिसतं वरं लन्धवन्त. । एवमन्येऽप्युदाहरसत्वेन तथाविधा मेया 
इति ॥ 


ह केचिद्धिकमादित्यादिजनितं कविजनसत्करं श्रुत्वाऽधुनातचन्‌पेभ्य- 
॥ सथानव्लोक्य गेरयेयुयथा ` नपेभ्यः सकाशान्न किंचित्फलं तथा देवताभ्यौ.ऽपि 
५  ताश््रतं न काव्येन रिचित्पलं भविष्यती त्याशत्याह-- 
ग्रासाद्यते स्म सद्यः स्तुतिभिर्येभ्योऽभि वाच्छितं कविभिः । 
भ्रयापि त एव सुरा यदि नाम नराधिपा श्रन्थ ॥१०॥ 


। स्फुटाथं न चरम्‌ ) यदि नामेति नामसब्द. पर शब्दार्थे । यदि परं त्रपा: । 
` भन्ये देवास्तु त एवेति ॥ 


एणी 


तै उपकार करता है श्रर परमाथं-तत्व को जानने चाले सभो वादी [ बुद्धिमान्‌ जन ] इसं 
४ विषय मे एकं मत ह कि इसरे का उपकार करना महान्‌ घमं है ।६, ७! 
। सुन्दर देच-स्तुति की रचना करने वाला कवि धन, विषपत्ति-विनश्ञ,्रसाधारर 
१, पुख तथा समस्त श्रभीष्टं कामन को प्राप्तं कर लेता है । उदाहररस्वरूप कतिपय 
[भ्रनिरढ प्रादि कवि] दर्यां की स्तुति करके [शत्रु की श्रधीनतारूप ] श्रपार विपत्ति 
तेषार हो शये! करई [वीरदेव्‌ श्रादि ] कवि रोग-मुक्त हो गये, तथा इस प्रकारः श्रथ 
कदं कवियों ने भ्रषना श्रभीष्ठ [वर] प्राप्तं कर लिया ।५,६ 


0 


न+ काध्यालद्कारः [कारिकाः १९.६३ ` 


{ , । 


कान्यकर से प्रयोजनाममेयतामाह-- 


कियदथवा वच्मि थतो गखणुणमणिसागरस्य कान्यस्य 

कः खलु निचिलं ; कलयत्य्नंमलघ्ुयशोनिदानस्यं ।।११॥ 

कियदिति । कियदथवा भण्यते + यत्तो यथा सागरे मणीनामानन्त्यमेवं काव्य 
गुणानामपीति तात्पयंम्‌ । ललुनिश्चये । 


एकं प्रयोजनानन्त्ये सति छत्यमाह-- 
तदिति पुरुषाथंसिद्धि साधुविधास्यद्धिरविकरलां कुराल; 


ग्रधिगतस्कलजेयेः के्तंन्यं कान्प्रममलमलम ।।१२॥ 

तदिति । तस्मात्पुरषा्थंसिद्धि पूर्णा चिकीषु भिः काव्यं कतंव्यम्‌ । कोहर । 
ग्रधिगतसकेसज्ञेयः । न " त्वनीहशामपि कन्यकरण संभवतीत्याह--श्रलममलम्‌ । 
सनिमलकरणेऽन्येषामसामथ्यंमित्यमिप्रायः ॥ 


ननु ज्ञातसकलज्ेयस्य तत्त्वादेव पुर्षार्थसिदधिभविष्यति, ङि कान्यकरखे 
नेत्याह-- 
फलमिदमेव हि विदुषां शुचिपदवाक्यप्रमाणशास्त्रेभ्यः 


__. यत्संस्कारो वाचां वाच्च युचारुकाव्यफलाः ।१२॥ _ ___ यत्संस्कारो वाचां वाचश्च सुचारुकाव्यफलाः 1} १३॥ ` 


यद्यपि ध्रा रजाश्रों में परिवर्तनश्रा गया है, पर देवतातो`श्रव भी वैसे 
ही हैः जिनकी स्तुति द्वारा कवि भ्रपनी भनोवाञ््छित कामना धुं कर लिया 
करते थे ।१०। 
श्रयवा कहां तक वर्णन करे, क्योकि भ्रसंख्य मि वाले समुद्र की भांति 
महान्‌ यश्ञ फे कारण इस काव्य-संसार के श्ननन्त गुरणें की गरना करने में कौन समथं 
हो सकता है ।११। 
इसलिए पुरुषार्थं (धमे, श्रथं काम श्रौर मोक्ष) की परां श्रौर विशद सिद्धि चाहने 
बाले तथा निपुरणए एवं सम्पण - पदार्थो के ज्ञाता कवियों को ही निर्दोष काव्य की रचना 
मे प्रवत्त होना चाहिए १२॥ | ।ओ 
क्योकि ज्ञानी पुरूषो फे ज्ञान का यही फल है कि पिस्तुत व्याकरण, 
तकशास्त्र श्रादि ग्रन्थोकेदह्ारा वाणीका संस्कार हो, श्रौर उस वाणी का फल है 
सुन्दर कान्य ।१३। 
उपयु क्त पदयो मे रद्रट-सम्मत कान्य-प्योजनो का निप्कषं यह है कि काव्य- ,. 
निर्माण द्वारा (१) कवि श्रपने यदा को फलाता है, (२) वह चरित-नायक के यश को 


- कारिका १४] | काव्यालद्धारः । ६ 


फलमिति । हि यस्माजानताभिदमेव ज्ञानफल यच्छुचिपदवाक्यप्रमाणशास्त्रेभ्यो 
विशदव्याकरणतकंग्रन्थेभ्यः सकाशात्संस्कारो वाचाम्‌ । ननु वाक्सस्कारस्यापि कि 
फलभित्याह--वाचंइचं सुचारुकान्यफलाः । च समुचये । सुन्दरकाव्यकरणमेव वाक्‌- 
संस्कारस्य फलमित्यथंः 1 

यथा च काव्यं चार्‌ भवति, यथा च चारु क्तु ' ज्नायते तथाह- 

तस्यासारनिरासात्सारग्रहणच्च चास्णः करणो । 


त्रितयमिदंः -व्य्रियते चाक्तिव्यु त्पत्तिरभ्यासः ॥१४॥ 

तस्येति ! तस्य काव्यस्यासारनिरासादसमर्थादिवक्ष्यमारदोषत्यागात्‌, तथा 
सारग्रहणादरक्रोक्तिवास्तवादययलकारयोगाद्ेतोः, चारत्वगुणोपेतस्य करणे त्रितयमिद 
शक्तिग्युत्पत्त्यभ्यासलक्षण व्याप्रियते । तस्य तत्र व्यापार इत्यथः । तथा च दण्डी-- 


फलाता हैः. (३) वह धन, भ्रसाधारण सुख तथा समस्त ्रभीष्ट कामना को प्राप्त 
करता है, (४) देवताग्रो कं स्वुतिपरक काव्य द्वारा उसे रोगोसे मुक्ति मिल जाती 
है, (५) उसे श्रभीष्टवर कीप्राप्तिहो जाती दहै तथा (६) इसकं द्वारा उसे सहज 
रूप से चतुवंगं--घमे, भ्रथ, काम ग्रौर मोक्ष--की प्राप्ति हो जाती है । इन प्रयोजनो 
मे से भ्रन्तिम प्रयोजन का सम्बन्ध कवि श्रौर सहृदय दोनो के साथ है, तथा-शेष का 
सम्बन्ध केवल कवि के साथ ¦ 
रुद्रट से पूवं काव्य-प्रयोजनो का. उल्लेख भरत, भामह श्रौर वामन ने किय; 
था 1 भरत के कथनानूसार नास्य (काव्य) धमं, यद श्रौर भ्रायु का साधक, हितकाराक 
बुद्धि का वद्धंक तथा लोकोपदेरक होता है । 
धर्यं यज्ञस्यमयुष्यं हितं बुद्धिविवर्दनम्‌ । 
लोकोपदेदाजननं नाटथमेतव्‌ भविष्यति ॥। ना० श्रा० १।११२-११३६. 
भासह के कथनानुसार उत्तम कान्य की रचना धमे,व्रथ, कास भौर मोक्षरूप चारो 
पुरुषार्थो तथा समस्त- कलाश्रो मे निपुणता को, श्रौर प्रीति (श्रानन्द) तथा कीति 
को उत्पन्न करती है- 
धर्मथकाममोक्षेषु - वचक्षण्यं, कलासु, च । ( 
करोति कीति पीति च साधुकाव्यनिवन्धनम्‌ ॥ काव्धालङ्धूार १।२ 
तया वामन के अनुसार काव्य क्रा प्रयोजन है प्रीति तथां कीति की प्राप्ति 
कायं सद्‌ रृष्टाहृष्टार्थ.भीतिकी्तिहेवुरवात्‌ । का० सु०-वु० १।१।४ 
उपयुक्त प्रसोजन-सूबियो से स्पष्ट है कि रद्रट ने वमे, भ्रथं, काम, मोक्ष 


१० कान्यालङ्कारः [कारिका १४ 


नैसगिकी च प्रतिभा श्रूतं च वहू निर्मलम्‌ । 
श्रनन्दश्च!भियोगोऽस्या कारणं क्यस्तपदः ॥ 
तत्र ॒शवत्या शब्दार्थौ मनसि संनिधीयते । तयोः सारासारग्रहणनिरासौ 
वयुत्पस्या त्रियते । श्रम्यासेन शक्तेरत्कषं भ्राधीयत इति शक्त्यादिव्यापारः । श्रसार- 
निरासात्ारग्रहणादिति च पदद्वयोपादानमूुभययोगेन च।रुत्वमिति ख्यापनाथंम्‌ । 


रूप '्चतुवेगं' की फलभ्राप्ति नामक प्रयोजन भामह से ग्रहण किया है, वश्राप्ति' 
भामह श्रौर वामन से, रौर शेष निम्नोक्त भरयोजन इन्ोनि नूतन रूप मे प्रस्तुत क्रिये हँ 
चरितनायक का गौरवयान, श्ननथं का उपशम, विपत्ति का निवारण, रोग से विमृक्ति 
तथा देवता द्वारा भ्रभिमत वरकौ प्राप्ति । 


इन प्रयोजनों मे से श्रथंप्राप्ति, यश.प्राप्ति, चरितनायक का गौरवगान रेस 
प्रयोजन है जिनपर किसी प्रकार का विवाद नही किया जा सकता । कान्यसजंन द्वारा 
“घमे-पराप्ति' प्रयोजन व्याख्यपिक्ष है । (चमं ` से तास्पयं यदि "धार्यंते इति धर्मः: श्र्थान 
' [शुभ] कतंग्य का पालन' है तो यह्‌ कन्यका साक्षातु प्रयोजन न होकर श्रसाक्षात्‌ 
प्रयोजन है । कतंग्य वस्तुतः उस कमं का नामहै जिसेहम दृ्षरोको प्रेरणा अथवा 
उपदेश द्वारा करते है, तथा दूषय के उप्कारके लिये करते है। त्रिन्तु कान्यस्तजेन 
प्रन्तःमेरणा से प्रभूतदहोने के कारण नतो दूसरों की प्रेरणा श्रथवा उपदेश की श्रपेक्षा 
रता है श्रौर न इसके द्वारा दूसरो का उपक्रार करना कवि का प्रमुख उदहश्य होता , 
है । प्रौर यदि "धमं" से तात्य शपुण्यफल-प्राम्ति' लियाजाएतो इसे श्राज के बुद्धिवादी 
युग का मानव स्वीकृत नदी करेगा । ठीक यही स्थिति इन प्रयोजनो की भी है-मोक्ष- 
प्राप्ति, भ्रनथं, विपत्ति, रोग श्रादि से विमुक्ति तथा किसी देवता द्वारा भ्रभिमतत वर 
की प्राप्ति । रोष रहता है एक प्रयोजन "काम" रूप फल की प्राप्ति] रद्रट ते उक्त 
प्रयोजनो मे श्रात्मानन्द-प्राप्ति' को [म्रथवा भामह भ्रौर वामन के शब्दो मे श्रीति"] 
ग्रथवा मम्मट के शब्दो मे [सद्य.परनिश्र ति को] स्पष्ट शब्दो मे स्थान नही मिला ! ह, 
चतु्वेगं कै श्रन्तगंत "काम" दाब्द से यदि मानवीग्र रागात्मकर भावों की इच्छापूति रूप 
भ्र्िप्राय लियाजाए तो इसे 'सद्य.परनिवृ ति का पर्याय मान लिया जा सकता है। 
फिर भी एसे विशिष्ट प्रयोजन को स्थान न मिलना श्रवर्य खटकता है । फिर भी, जैसा 
किं हम भ्रागे देखेगे, रस जंसे प्रमुल कान्थाग का भ्रत्यन्त मनोयोग के साय निरूपण 
करने वलि रद्रट को यह प्रयोजन श्र भीष्ट श्रवद्य रहा होगा । 


खट के उपरान्त काव्य-प्रयोजन का निरूपण करने वालों मे कन्तक 
विश्वनाथ, भ्रनिनपुराणकार, भोज श्रौर मम्मट का नाम उल्लेख्य है । मम्मट ने रपे 


कारिका १५-१६ | प्रथमोऽध्यायः ११ 


` . तत्राप्यसारस्य प्रागुपन्यासस्तन्निवासस्य प्राधान्यस्य नार्थः ¦ सकलालंकारयुक्तमपिहि 
कानव्यमेकेनापि दोषेण दुष्येत, भ्रलंकृत वध्रुवदनं काशोनेव चक्षुषा । उक्त च- 
दण्डिना -- 
तदल्पमपि नोपेक्ष्यं काव्ये दृष्टं कथचन । 
स्थाद्रपुः सुन्दरमपि हिवन एकेन दुर्भगम्‌ ॥ 
रथ शाभ्तिखरूपमाह-- 
मनसि सदा सुसमाधिनि विस्फुरणमनेकधाभिधेयस्य । 
प्रविलष्टानि पदानि च विभान्ति यस्यामसो शक्तिः ॥१५॥ 
मनसीति । भ्रसौ शक्रितयस्यामवििप्ते चेतसि सदनिकप्रकारस्य वाक्याथस्य 
विस्फुरणम्‌ । यस्णं च।किलिष्टानि मित्येवं प्रतिपादनसमर्थानि पदानि प्रतिभान्ति । 
यटशादु दयंगसौ नानाविधौ शब्दार्थौ प्रतिभासेते सा शक्तिरित्यथंः ।। 
रस्या एव मेदानाह- 
प्रतिभेस्यपंररुदिता सहजोत्पा्या च सा द्विधा भवति । 
पु सा सह जातत्वादनयोस्तु ज्यायसी सहजा ॥१६॥ 


 धुरववर्ती भ्राचार्यो से सहायता लेकर स्वसम्मत प्रयोजन-सूची निम्नरूप मे 
प्रस्तुत की- 

कान्ययशसेऽथंङ्ृते ग्यवहारव्दि शिवेतरक्षतये । 
६ सद्यः परनिवु तये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥! का० प्र 
ग्र्थातु कान्य के निम्नोक्त प्रयोजन ै--यश प्राप्ति, धनप्राप्ति, ग्यवहार-ज्ञानं, 
केष्ट-निवारण, तरित परम श्रानन्दं भ्र्थात्‌ रसास्वाद की प्राप्ति तथा कान्ता-सम्मित 


( सुगम रूप से } उपदेश की प्राप्ति } इन प्रयोजनों मे से प्रमुख प्रयोजन है रसा- 
स्वाद की प्राप्ति ्रौर इसके उपरान्त दुसरा स्थान उपदेरा-प्राप्ति का है। 


२. कान्यहेतु 
काव्य के प्रसार (दोषों) के स्याग तथा सारभूत तत्तव (कान्य-बोभाकारक 
भ्रलंकार श्रादि) के ग्रहण द्वारा सुन्दर काव्य के निर्मा के लिएु शक्ति, व्युत्पत्ति ्रौर 
-भ्रभ्यास इन तीनों (हेतुश्रो) की श्रावकष्यकता रहती ई । १४। 
दाविति उसे कहते हँ जिसके होने पर स्वस्थ चित्त में निरन्तर श्रनेक, प्रकार के 


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१२ कान्यालद्धुारः [ कारिका १७.१९ 


प्रतिभेति । एषां च शव्त्तिरपरंदंण्डिमृख्यैः प्रतिभत्युक्ता । सा च द्विधा भवति । 
कृथम्‌ । सहजोत्पा्या चेति । तयोदच मध्यात्सहजा ज्यायसी प्रसस्यतरा । पुसा सहो- 
त्पन्नत्वात्‌ ॥ 
य॒दि नाम पु'सा सद्टेयन्ना किमित्येतावता ज्याय्ीत्याह- 
स्वस्यासौ संस्कारे परमपरं मृगयते यतौ हतुम्‌ | 
उत्पाद्या तु कथंचिदब्युत्पत्त्या जन्थते परया ॥ १७ ॥ 
स्वस्येति । श्रसौ सहजा शवित्तः स्वस्य"टपन नंस्कार उत्कपं एव परं केवलम्‌ । 
त्रवि्यमानः परोऽन्यो यस्मादसावपरोऽम्यासस्त यततो मृगयतेऽन्वेषयति नोत्पत्तावतो 
ज्यायसी । उत्पत्तौ तु सहजातत्वमेन हेतुः । उप्पा्या तु ब्धुक्सत्या परयानन्तरया कर्थ 
चिन्महता कष्टेन जन्यते 1 श्रतो न ज्यायसी सा ॥ 
इदानी व्युतन्तिसवरूपमाह्- 
दंदोव्याकरणकलालोकर्थितिपदपदाथविज्ञानात्‌ ! 
युक्तायुक्तविवेको व्युत्पत्तिरियं समासेन ।।१८॥ 
छन्द इति | छन्दो जयदेवादि, व्याकरणं पारिन्यादि, कला नुत्थादिविषयभरता- 


: दिप्रणीतन्लास्त्राणि, लोकाः स्वःप्रभृतयस्तेषु चराचरादिस्वरूपनियमः स्थितिः, पदानि 


नाममालापटिताः पर्यािक्षव्दराः, पदायं स्तेपामेव पदानामभिषेयार्थविषयप्रवृत्तिनयत्यम्‌ । 
एतेषां पण्णां छन्दःप्रभृतीनां विनानादििरिन्टावगमाद्धेतोर्यो युक्तायुक्तविवेक उचितानु- 


प्रभिवेयो (वाक्यार्थो) की स्फू (जार्गातति शभ्रयवा उत्पत्ति) होती है, तथा श्र्विलष्ट 
छ्यति शीघ्र ही श्रथ-प्रतिपादन में समर्थं पद प्रस्फुरित होते ह ।१५। 
| दसी श्रादित को (दण्डि्रमु) प्रालंकारिको मे अतिभा फा है । बह सहजा श्रौर 
उत्पाया भेद से दो प्रकार की है) व्यक्ति के साशं ही उत्पन्न होने के फारण इन दोनों 
मे सहजा श्रेऽठ ह ।१६। 
सहजा शावित श्रपना उत्कषं स्वयं धारण करने वाली ्टोती है, क्योकि यहु भ्रन्य 
हेतुं (शित से इत्र व्युत्पति श्रौर भ्रभ्यास) का -श्रन्वेषण [स्वतः] कर लेती है । 
भ्रीर उत्पाद्या तो वाद मे होने वाली ब्थुरपति से वड्‌ फष्ट वारा प्राप्त होती है । १७1 
छन्द, व्याफरख, कला, लोकस्थयिति, पदं तया पदार्थो के विक्ञेव ज्ञान से उचित 
एवं श्रनुचित का सम्यक्‌ परित्तान--संक्षेष मे यही व्युत्पत्ति [की परिभाषा] है । किन्तु 
स्तुतः "सनेक्ञता' हौ व्युत्पत्ति फी विस्तृत परिभाषा है, क्योकि इस जगत्‌ मे कोई 


१ 


कारिका १६-२० | ` भ्रथमोऽघ्यायः १३ 


चितखपरिज्ानम्‌। यथातरेदं छन्द उवितमनुचितं वेत्यादि सवेषु द्रष्टव्यम्‌ ! ब्युत्पत्तिरि- 
यम्‌ । समासेन संभेपेण ॥ - | 


तदहि विस्तरग्युलत्तोवित रूपमित्याह-- | 
विस्तरतस्तु किमन्यत्तत इहं वाच्यं न वावकें लोके । 
न॒ भवति यत्का््यागं सर्वज्ञत्वं ततोऽन्य॑षा ॥१६९॥ 


विस्तरत इति 1 व्युत्पत्ति संबन्धिनो विस्तारात्किमन्यद्विद्यते यदन्त.पाति न मवति । 
कुत इत्याह--पस्मादिह्‌ लोके न ॒तद्राच्यमभिषेयमस्ति, न॒ वाचक. शब्दो विते 
यत्काव्याङ्ख' काव्योपकरणं न भवतीति । ततो हेतोरेषान्था भिस्तृता व्युत्पत्ति. । तत. 
संक्षेपादढा सकाशात्‌ ! भन्येति द्वितीया । स्वे्ञत्वमेव विस्तीर्णा ब्युत्पत्तिरित्यथं. । उक्त 
न्तु 
नस शब्दो न तद्टाक्यं न स न्यायो न सा कलः । 
जायते यन्न काव्याद्खमहो भारो भहान्कतेः ॥ 
प्रम्यासो लोकप्रसिद्ध एव ॥ 


केवलं तस्य स्थाननिमं कतु माह-- 
-म्रधिगतसकलज्ञोयः सुकवेः सुजनस्य संनिधो नियतम्‌ । 
नक्तंदिनमयस्येदभियुक्तः शक्तिमान्काग्यम्‌ -॥२०॥ 


, भ्रधिगतेति 1 वाक्याथ; सुगमः । म्र ब्राहु-ननु यच्धिगतसकलज्ञेय. शवितिमांश्च 
तत्कि भजनस्य क्वेः संनिधानेऽम्यस्यति । सत्यम्‌ । छन्दोव्याकरणादिविपयलक्षणा- 
तिरिक्तमन्यदपि ज्ञेयं जानाति । यन्महूकविलक्ष्येषु इश्यते । सुजनत्वाच्च निम॑त्सरो 
भूत्वा सवेमसौ दशयति । तथाहि । छन्दसि पिद्धल जयदरेवायनुक्तान्यपि वृत्तानि सुकवि 
काम्येषु हदयन्ते बहुशः । यथा मावस्य-- 

छृतसकलजगद्टिबोधो विध्रुतास्धक्ारोदय क्षपितकुमुदतारकश्ची योगं नयनकाभिनः । 

गुरुतरगुणदहोनादभ्युपेतव्ल्पदोषः कृती तव वरद करोतु सुप्रातमङ्खामयं ॥ 
तथा भारवेः- 

हह दुरधिगमः किचिदेवागपैः सततमसुतरं व्ए़यन्त्यन्तरम्‌ । 
भ्रमुमतिविपिनें -वेद रिरव्यपपियं पुरुषमिव परं पद्य योनिः. परम्‌ ॥ 


भी ेसा वाच्य तथा वाचक नहीं है जो [किसी न क्रिसी रूप में] काव्य फा जंग ननेन 
भता हो ॥१८,१६। 


१५४ क.ग्यालद्छुारः , [ कारिका -१६-२० 


एवमन्येषामपि सन्ति । तथा व्याकरसो ववंष्टि--ग्रजर्घाः-सस्ति- दद्रष्टि- 
ई -त्सं ति-जि ह्वायकयिपति-श्रडिडिपतीत्येवमादी नि पदानि न प्रयोज्यानि । कान्यस्य 
माधुयेलालित्यविनाच्रसद्धात्‌ । तथा क्षपि-मिलि-प्रथि-वचि-क्लीवग्रभृत्तयो धातवो धातु- 
गरेषु पिता च्रपि । सदश्च परस्म॑पदं प्रयोगदगनास्प्रयोक्तन्यम्‌ 1 प्दविपयं च यथा 
प&्मशन्दोऽन्निरोमस्वभिधानेषु पठितोऽन्यत्ापि हृक्यते । यथा माधस्य-- 
निसगं चिन्नोज्ज्वलसुक्ष्मपक्ष्मणः 1 इति । - 
एवमन्यदपि क्रनादिविपये द्रष्टव्यम्‌ । यत्मुजनकविसंनिधानाञ्जेयम्‌ । 


सम्पूणं पदार्थो के ज्ञाता श्रौर शक्तिमान्‌ भी कवि को सुजन (सहश्य) एवं 
सुकवि के पादवं में श्रर्थात्‌ उनको संगति में रहकर रात-दिन स्वेदा कान्य क! भ्रभ्यस 
करना चाहिये ।२०। 


उपयु क्त सात पदयो मे खरट ने काव्यहेतुप्रौं पर प्रकाश डाला है । इनके 
कथनानुसार शक्ति, व्युत्पत्ति श्रौर श्रभ्यास से गीन काव्यहेतु हँ । इनसे पूवं दण्डी रौर 
वामन ने इनका उल्लेख करिया है । दण्डी के अनुसार नैसर्गिकी प्रतिभा, निर्मल 
दास्वनान भ्रौर म्रमन्द प्रभियोगं ये तीन कानव्यहेतु है- 


नसगिकी च प्रतिभा श्रुतं च वहूनि्मलम्‌ । 
प्रमन्वदचाभियोगोऽस्याः कारणं कान्यसम्पदः °\ काव्याद! १।१०३ 


वामन के श्रनुसार भी हेत तीन है--लोक भ्र्थात्‌ लोकन्यवहारन्नान, विद्या 
मर्था विभिन्न लास्वनान श्रौर प्रकी । प्रकीणं के श्रन्तगंत इन्होमे इन छः हितुश्रो 
को परिगणित किया है-लक्षयन्नत्न ( भ्रन्य काव्यो का अनुगीलन ); श्रभियोग 
( भ्रभ्यास ), ब्ृदधसेवा ( गुरुजन श्रादि-की सेवा दवारा भिक्षा-प्राप्ति ), श्रवेक्षण 
(उपयुक्त शब्दों का न्यास ग्रौर श्रनपयुक्त शब्दो का श्रपसारण } ^प्रतिभान ( प्रतिमा } 
ग्रौर ग्रवधानं ( चित्त की एकाग्रता )- 


(क) लोको चिद्या प्रकीर्ण्ञ्च का्व्यांमानि। 

(ख) लक्षयन्ञत्वमभियोगो वु सेनाध्वेक्षणएा प्रतिभानमवधानं च प्रकीएाम्‌ । 
का० सु° वृ० १।३।१०-११ 
सद्रट -सम्मत श्युत्पत्ति' के भ्रन्तगत दण्डि-सम्मत निर्मल शास्व-ज्ञान, वामन- 
सम्मत लोक, विद्या, लक्ष्यत्व श्रीरे भ्रवेक्षण का समावेश हो जाता है, श्रौर इनके 
'त्रभ्यास' कैः अरन्तगत दण्डी तथा दामन-सम्मत श्रभियोग का तथा वामन-सम्मतचरद्ध 
सेवा का 1 वामन-्रस्तुत श्रवधान' भी भ्रपनी विचिष्ट महत्ता रखता दै, पर यह्‌ 
काव्यकादहेतु न होकर निपुणता भ्रौर श्रम्यासकादहेतु है! भ्रवधान साधन है श्रौर 


कारक! २१ | प्रथमोऽ्यारयः १५ 


नियत्तमित्यतेन सकविसंनिधान .एवाभ्यासः कायं इति नियम इति । नक्तदिनमित्यनेन 
तु यदैव पट्वी बुद्धिः क्षएद्च भवति तदैवाम्यस्येत्‌, न पुनयया केरिचडुक्तमु "परवाद्रात्र 
एव' इति तु कवे. कान्यकरणेऽत्यन्तादराधाना्थंम्‌ ॥ 
पुनः कान्यस्य ्रयोजनान्तरमाह-- 
स्फारस्फुरदुरुमहिमा हिमधवलं सकललोककमनीयम्‌ । 
कत्पान्तस्थायि यशः, प्राप्नोत्ति महाकविः काव्यात्‌ ॥२१॥ 


स्फार इति । स्फारो दृढः, स्फुरञ्जनमन.सु प्रसरन्‌, श्रत एवोरविस्तीरणो महिमा 
यस्य कवे. स । तथा यशः कीदृशम्‌ । हिमिधवलमित्यादि सुगमम्‌ । 


ये दोनो साध्य है । श्रत: इसे स्वतन्त्र हेतु न मानकर इसका अन्तमेवि निपुणता श्रौर 
म्रभ्यास दोनों मे किया जाना सहज सभव है । 


भ्रगे चलकर श्द्रट के उपरान्तशट्रटके ही समान कन्तक ने भी तीन 
कान्पहेतु स्वीकृत विये--शक्ति, व्युत्पत्ति श्रौर श्रम्यास ( वक्रोक्तिजीवितं १।२४ 
वृत्ति ), तथा मम्मट ने भी इन्दी तीनों को स्प्रीकार करते हृए व्युत्पत्ति को निपुणता 
नम दिया : 
दाक्तिनिपुराता लोक काध्याशास्नाधवेक्षरात्‌ । 
काव्यज्ञरिक्षयाभ्यास इति हितुस्तदुद भवे ॥ कल्य प्रकाश 1१३. 


| उपयुक्त सूची से स्पष्ट है किं खट के पश्चात्‌ खट -सम्मत काव्थ-हेतु 
ही थोड़-बहुत परिवतेन के साथ स्वीकृत कर लिये गये । 


उपयुक्त तीन हेतुश्रोमे से शक्ति ८( प्रतिभा) अनिवायंहैतुदहै तथा चेष 
दो काव्य हेतु है । शक्तिके श्रभाव मे सफल काव्य की निमिति श्रसंभव है। केवल 
्ृत्पत्त श्रीर ्रम्यास के श्राघार पर निमित कान्य तुकवन्दी श्रौर कलाकारिता 
का सूचक मात्र होगा तथा चमत्कारहीन ही होगा । इधर इसके त्रि परीत श्युत्यत्ति " 
। काव्य तथा शास्त्र ्रादि के ज्ञान ] के भ्रमाव मे भी प्रनेक भरिक्षित एव प्रामीरा 
शक्तिः कै ही बल पर सुन्दर प्राम्य गीतो का निर्माण कर लेते है, तथा 
प्रम्थासकेश्रभावमे मी शक्तिके ही बल पर वाल्मीकरिका “मा निषाद प्रतिष्ठां 
प्वमगमः* ^ भ्रादि रलोक कान्य-चमत्कार का उक्छृष्ट उदाहरण माना जातादहै ! हा 
शक्ति के साथ यदि व्णरतपत्ति श्रीर्‌ भ्यास दोनो का समावेश हो जाएतो श्रत्यंत 
भयस्कर है श्रौर इन तीनो का समावेश इतना संदिलब्ट बन जाए करि ये तीनो मभ्मट 
के षब्दो मे तीनदहतु न पुकारे जाकर एक हेतु ही कहा जाए हेवर्मतु हेतव 


१६ काव्यालद्धारः [ कारिका २२ 
ननु कान्यादेवंविधयशोभको प्रमाखुाभावाहं वश्रहारिकमेव ` कारयितन्यमि- 
त्येतन्निरस्यनृहष्टान्तपुरःतरं कान्यकरशे यत्नोपदेशमाह- 
ग्रमरसदनादिभ्यो भूता न कीततिरनश्वरी 
भवति यदसौ संवरद्धापि प्रणयति तलक्षये । 
तदलममलं कतु कान्यं यतेत समाहितो 
जगति सकले व्धासादीनां विलोभ्य परं यशः ।२२॥ 


॥ 


सद्रट-सम्मत प्रतिभा के दो भेदो सहजा श्रौर उत्पाद्या मे से सहजा" भेद ॑को -श्रस्वी 
कृत करने का प्रदन ही उपस्थित नही होता । उलाद्या शक्ति को उन्होने ग्युत्पत्ति 
से उत्पन्न माना है । इस कथन से उनका यह तात्पयं लिया जा सकता है किं ब्युतत्ति 
से दाविति का परिष्कार एवं सस्कार होता है । दूसरे शब्दों मे, शक्ति भ्रनिवायं हेतु 
है श्रौर ब्धुत्पत्ति उसका परिवद्धंक हेतु है । श्रतः यह काभ्य-हेतु हीदटै, न-कि शक्ति 
फे समान अरनिवायं हेतु । वस्तुत. श्द्रट ने उत्या्या शक्ति को स्वीकार करके इस 
प्रसग को सुनाने कगे अ्रपेक्षा उलभाया भ्रधिक है । संभवतः यही कारण है कि 
भ्रागामी भ्राचार्यो ने इन दोनो भेदो को स्वीकार नही किया । 


२. कवि-महिमिा 


[कान्य के निर्माण से] एक सहाकति की सुदृढ महिमा - [सहृदय पाठ के] 
सनों में ्रसरित हो जाती है, तथा वह्‌ कवि हिम के समान श्वेत तथा संभी लोकों मे 
सुन्दर प्रतीत होनेव ले एवं कल्प फौ सभाप्ति-पयन्त स्थायी रहनेवाले यश्च को प्राप्त कर 
लेता है ।२१। 

खद्रट से पूवं कवि-महिमा के सबन्ध मे भामह का निम्न कथन उल्लेखनीय हैः- 

(क) उपेयुषमपि दिवं सन्िवन्धविधाथिनाम्‌ । 

भ्रास्त एव निरातङ्कः कान्ते काव्यमयं चपुः \ 
(ख) रुणद्धि रोदसी चास्य ` ताव . की्तिरनदवरी । . 
तावत्‌ किलाभ्यमध्यस्ते सुकृती बेवुधं पदम्‌ ।। का० श्र० १।६.७ 
म्र्थातु (क) यद्यपि उत्तम क्यके प्रणेतास्वगं को चले गए रहै, तथापि- 
उनका कान्यके रूप में सन्दर शरीर (इस लोकमे अरव भी) निरातक, निर्भीक, भ्रनद्वर्‌ - 
रूपमे विद्यमान है) 


(ख) जव तकं कवि की अ्ननरवर कीति श्राकृल् श्रौर पृथ्वी कोः -प्राच्छादित 
कयि है, तव तक वह्‌ पुण्यवान देवपदं प्रर श्रासीन है । 


क चज आपत 


कारिका १ |] ह्ितीयोऽध्यायः १७ 
भ्रमर इति । सुयमम्‌ । तस्मास्स्थि्षमेतत्कवेः कान्यकरणादेव षरं थो भवतीति । उक्तं च- 
यतः क्षणध्वसिनि संभवेऽस्मिन्काव्यावेतेऽन्यत्क्षयमेति सवम्‌ । 
श्रतो महद्ियक्षसे स्थिराय प्रवतितः काव्यकथाप्रसङ्धः ॥ 
इति श्रीण््रटक्ते काव्यरासद्धारे नमिसाधुविरचितर्टिप्परासमेतः प्रथमोऽध्यायः समाप्तः । 


्नयययापयफसयन्या यानव कि 


द्वितीयोऽध्यायः 
शासनस्य काव्यकर॒स्य च प्रयो जनमाख्यायेदानीं काव्यलक्षणं पष्टः सन्नाह-- 
ननुं शब्दार्थो काव्यं शब्दस्तत्र. थवाननेकविधः । 
वीनां समुदायः स च भिन्नः पंचधा भवति ॥ १॥ 


नन्विति । ननु शब्दः पृष्टप्रतिवचने । यथा शपि त्व कटं करिष्यसि । ननु भोः 
केरोमि' दतरि । शाब्दञ्चर्थंश्च तौ कान्यमुच्यते । कवेः कर्माभिप्रायो वेति शब्दां. । क्वे. 
काव्योपयोगिनोः शब्दाथंयोरन्योन्याग्यभिच।रादेकतरो गादानेनेव द्वितीये लब्धे द्वितीयो. 
पादानं कन्ये द्यस्यापि प्राधान्यख्यापना्थंम्‌ । श्रन्यथा हि शब्दार्थयोरेकतरोपादाने- 
ऽन्यतरस्याल कारेवि रहितमपि दोषेदच युक्तमपि कान्य साधु स्यात्‌ । श्रदयोपादानेन 


श्रमरसदनों (देवगृहो, मन्दिर) के निर्माण से निर्माणकर्ता कोजो यश्च प्राप्त 
होता है वह नक््वर होता है, श्रौर यदि वहु यश फलभी जाता हैतो उन मन्दिरों 
प्रादिके नाह होने पर नष्टहो जाताहै। श्रतः इस सपण संसार में [भहाभारत 
भ्रादि के कर्ता] व्यास श्रादिके परम यल् को देख कर कवि को एकाग्रचित्त होकर 
ग्रदोष काव्य के निर्माण में प्रयत्नशील रहना चाहिए ।२२ 


दति “श्र शुप्रभा^ऽऽख्य-हिन्दीष्याख्याया भ्रथमोऽध्यायः समाप्तः । 


नकि 


दहितीयं श्रध्यायः 
ईस अध्याय म निम्नोक्त तिष्यो पर प्रकाश डाला गया हें - 
[7] कान्यलक्षरा [२] शब्द के प्रकार [२] वृत्ति [9] वाक्य [५] शब्दालंकार 
वकीक्ति ओर श्रनुप्रास | 


१८ -काच्योालद्ुैरः [कारकः १ 


तूल्यकक्लतथा शब्दार्थौ द्वावपि कान्यंतवेनाङ्गीकृतौ भवत. । दयमेतत्समुदितमेव कव्य 
भवतीति तात्पयेम्‌ । शब्दार्थौ काव्यमिस्युक्तम्‌, श्रथ शन्दः किमुच्यत इत्याह - शब्द 
स्तत्राथंवाननेकविधो , वर्णानां समुदाय इति । तत्रेति शव्दाथ योमंध्यातु । शन्दोऽधंवान्‌ । 
साभिधेयोऽनेकविधोऽ्थवानिति स्वरूपविशेषणमात्रम्‌ । यथा । कीटश्च. शक्र । वखरी 
सह्नाक्च इति । न तु व्यवच्छेदकम्‌ । कान्यलघणाख्यानेनैव निर्थंकस्य निरस्तत्वात्‌ । 
कीशः शब्द. । वर्णानामकारादीनां समुदायः । वर्खणानामित्ति बहुवचनमतन्नम्‌ । तेनेक- 
वर्णो द्विवणंद्च शव्दः सिद्धो भवति । सोऽपि संभवतः कियद्भेद इत्याह - भ्रनेकविधः। 
तद्यथा । करटिचिद्व्यकतैकार्थावयव" यथा धट इति । ग्रत हि,घकारादयो वर्णा ग्यक्ता 
प्रकटा. सभूय कुम्भास्यमेकम "माहुः । कदिविदुव्यक्तपूथगथवियवः । यथा एति पचतीति 
वा । श्र हि एकारादयो वर्णा व्यक्ता. पृथगर्थान्चं । तथापि हि.धातुना क्रियाभिधीयते 
प्रत्ययेन तु कर्ता । कर्चिदव्यकतैकार्थावयवे.' । 'यथासंपदादिर्वत्‌ क्किपि कृते-.प्रवन ऊ. 
इति पदम ।श्रत्र त्व्रारवकारौ कतादेशौ क्षीस्नीरवदरैकीभूतावंवंनेक्रियामिकमेवाथंमाहतु । 


शदरट ने पाच शब्दालंकार गिनाये है ।. उपयुक्त "वक्रोक्ति श्रौर श्रनुप्रास के 
अतिरिक्त शेष तीन ग्रलंकारो--यमक, श्लेष तथा चिर का निरूपणा करमर" ३य, थथं 
ग्रौर ५मश्रघ्यायोमे कियागयादहे) ' | 
* क्यलक्षय ` 
शब्द श्रोर श्रथं कासयोग काव्य कहाताहै। 

„ “ननु शब्दार्थो काव्धम्‌--्र्णात शव्द श्रौरि प्रथं ( इन दोनों करा खयोग 
काव्यः कहाता है । ठद्रट-सम्मत यह कंन्यलक्षण भामह-सम्मत शब्दाथौ सहितौ 
काव्यम्‌" पर श्राधारित है, जिसका श्रभिप्राय है कि इव्द ग्रौर श्रं के संहित-भारव 
को काव्य कहते है । यपि ये दोनों काव्यलक्षेण व्पास्यपेक्ष है, सुगम शौर सुबोधं 
नही है, किन्तु फिर भी कान्यलक्षण के संदर्भ मे शब्द, श्रथ श्रौर इनके परस्पर 
सयोग की महत्छपूणं स्थिति पर प्रकाश डालते है । वस्तुत. भाषाके ही प्रसग मे शव्द 
रौर श्रथं का पारस्परिक सयोग एक श्रनिवायं तत्तव है । महाभाष्यकार पतंजलि का 
"सिद्धे शनब्दथंसस्बन्धे' [म० भां०] इसी तत्तव का सूचकं है । म्रथंहीन शब्द को कान्य 
नामसेतो क्या साधारण "वार्ता नामसेभी ग्रभिहित नही क्रिया जा सकता । इसी 
भकार श्रयं कौ सत्ता भी शव्द के भ्रभाव मे नितान्त श्रसंभव्‌ है ! जव तक कोई भ्र्थं शब्द 
का परिवेश्ष-वारण' ही कर लेता. तव तक्रं उसे . (भाव - अथवा - 'विचारः‡की सनां 
सिलती-हैः श्र कौ नही-। (भाव श्थेवा{"विंचोर' शब्दे के माध्यम से ही, दूसरे शब्दो 


9 6 


म, जवं वे श्रं" की संज्ञा धारण कर लेते है, तभी श्रभिव्यनिति-क्षमता-को श्र प्त्‌.कर 


कारिङरा-१ ] द्वितीयोऽध्यायः. ~- १ 


किवदव्फक्तपयगयविग्रन- । यथा शठः - इति क्रियापदम्‌ भ्रव- हि -श्राक्ारकारौ पुवं- 
वदेकी भूतौ सकारदच कृतादेशत्वादव्यक्तीभूतः पृथगर्थश्तर । यत्त कारं श्रागतिक्रियामाह, 
सकारो युष्मदर्थं कर्तारमेकस्वं चेति चतुभेदत्वादनेकविधत्वम्‌ .1 यदि वा द्रग्यजाति- 
क्रियागएवाचित्वेन चातुिष्प्रम्‌ । भन्ये तु वक्ष्माणषरक्रोक्श्या्यलकारभेदेन शब्दस्यानेक- 
मिधत्रमाहु । यदि पुन. पञ्चबे्युत्त रपदावेक्षयानेक विधत्वमुष्यते तदा पञ्चेत्यनथेक 
स्थात्‌ । श्रनेन॑वोक्ताथंत्वादिप्ति त चैवरूप शब्द केचितमाशिन्यादय सुप्तिडिस्तरूपतया 
द्विभ श्माहु केचिःच्चतुर्धे ति 1 तद्द्रय निरसितुमाह--स च भिन्नः पचवा भवतीत्ति। स॒ 
चेति चक्रार. पुनरथ । -ततरचायमथं । स -पुतवंणंसमुदायात्मक शब्दौ भिन्नो भेदेन 
2प्रवस्थापित -सन्‌ पञ्चघु भवति । ते पुन प्रकारा नामाख्यातनिपातोपसगकमंप्रवचनीयः 
लश्रशा -पुरो-भद्खचन्तरेण वक्ष्यन्ते ।। 


सक्ते है, भ्रन्यथा नही । यहं अ्रभिन्यवित्त कभी साधारण वार्ता-माच्र कहाती है श्रौर 
कभी काव्य, श्रौर इसका प्राधारदहै वक्ता श्रथवा लेखक की श्रमिनव्यक्ति-कला श्रौर 
कल्पना का तारतम्य । निष्कषंत. सामान्य लोकभाषा भ्रौर कान्य दोनो के लिए शब्द 
ग्रौर श्रथं का सयोग ग्रनिवायं है 1 इस संयोग के विना इन दोनो का श्रित ही 
सम्भव नही है । द्रट-सम्मत्त उक्त काव्यलक्षणं इस सयोगमात्र करा सकेत करता है | 
रद्रट के भ्रतिरिक्त वामन, कुन्तक श्रौर मम्मटने भी काग्य-स्वरूप के प्रसगमे 
"शब्दार्थौ" का प्रयोग किया- | 
. त्रासन --काव्यज्ञब्दोऽयं गुखालंकारसंस्कृतयोः शब्दाथयोवेतंते ! भक्त्या तु शब्दार्थं 
। मान्नवचनोऽज्र गृह्यते 1 का०-सु० व° १।१।३ 
- - कुन्तक--शग्दायौ सहितौ वक्रकतिव्यापारशालिनि । 
-बन्धे व्यवस्थितौ क्राव्यं तद्‌ विदाह्भादकारिणि ।॥ व० जी०१।७ 
मम्मर- तददोषौ कब्दायौ सयुखावनलंकृती पुनः क्वापि । का० भ्र० १म, उ० 
. काव्यज्ञास्त्रीय ग्रथो मे कान्य-पुरुष-रूपक की चर्चा राजशेखर की "कान्य 
मीमासा' में सम्भवतः सवंप्रथम उपलब्ध होती है । उसमे “शब्दार्थं को कान्य का 
शरीर मानागयाहै। ({ का० मी° इय भ्र०, पृष्ठ १४) इनके उपरान्त इस रूपक को 
तिङ्वनाथ ने निम्नोक्त रूप मे प्रचलित किया 
काव्यस्य शबव्वाथौ शरोरम्‌ , रसादिश्चात्मा, शुराः शौर्यादिवत्‌, दोषा 
कारत्कादिवत्‌, रीततयोऽचयवसंस्थानवत्‌ , श्रलंकारः -कटककुण्डलादिवत्‌ 
ति 2 -सा० -द० १म परि०। 
`~ -इंस प्रकार काव्यके स्वरूप-निर्धरिण के प्रसंग मे शब्दार्थौ" का प्रयोग 


बे 


२० काव्थालद्धुरिः [ काकि) 


प्रथ ये चतुर्धत्याहस्तेषामन्याप्तिदोषं म्रचिकटयिषुराह- 
तामाख्यात्तनिपाता उपसर्गारचेति संमतं येषाम्‌ । 


तत्रोक्ता न भवेयुस्ते कर्म॑प्रवचनीयास्तु ।२॥ 


नामेति । वस्तुवाचि पदं नाम । क्रियाप्रधानं तिङन्तमास्यतिम्‌ । नामाख्यातयोः 
सपुच्चया्यधंप्रस्यातिनिमित्तं निपाताः । क्रियाविरशेषप्रतिनिवन्धनमुपसर्गा. । च शब्द 
एवार्थे । इति परिसमप्तौ । एत एव चत्वारः श्ब्दत्रिधा इति येषां सम्यडः मतं तत्र 
येषु नामादिषु मध्ये तंम्राविरदपरभृतिभिः कमेप्रवचनीया नोक्ता भवेयुः । तुरवधारणे 
भिन्नक्रमः 1 समप्तभीसंभवनेनेव संग्रहिता भवन्तीति सभावयामि । यतस्तं स्पसमगेष्व- 
स्तवि: कृतः ख चयुक्तः । विद्यते हि उपसगम्यो नामादीनाभिव करम॑प्रवचनीयानामपि 


किसी न क्रिसी रूप में श्रनेके प्रश्यात श्राचार्यो हारा क्रिया जाता रहा है। किन्तु 
कतिपय एसे प्राचायं भी दँ जिन्होने श्रयं" को ससम्मान स्वीकृत करते हए भी शन्द 
भ्रथवा पदावली श्रथवा वाक्य को कान्यलक्चण-प्रसंण में अ्रपेक्षाकृत श्रधिक महत्व 
दिया । उदाहरणाय दण्डी, विश्वनाथ भ्रौर जगन्नाथ के निम्नोक्त कथन लीजिए- 
दण्डी --शरीर तावद्‌ इष्टार्थन्यवच्छछिन्ना पदावली । का० द° १।१० 
चिद्वनाथ-- वाक्यं रसात्मकं कव्यम्‌ ! सा० द०, १म परि० 
जगरनाय--रमणीयाथंप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्‌ । र० ग० श्म श्रानन 


जगन्नाथ ने इसी प्रसग मे प्रस्तुत एक शास्त्रार्थं मे प्रतिपादित कियाद कि “शब्द' को 
ही काव्य कहना चाहिये न कि शब्दां को फितु वम्तुतः श्रकै “शव्ड' को कान्य 
कहना समृचित नदी है । शब्द श्नौर प्रथं का सहित-भाव ही "काव्य" नाम से श्रभिहित 
होने योग्य है कन्तक के शब्दो में यह्‌ सहित-भाव तमी संभव है जव वे समान 
सौन्दयं को धारणा करके एक-दूपरे के भित्र रूप मे एक-दूसरे की शोभा वदति है । 
इन दोनों के सहित-भाव की सिद्धिके लियेरेसे शब्दो का प्रयोग होना चाहिए जौ 
यथेष्ट भ्रथं को -न इससे न्धून प्रौर न इससे भ्रधिकं श्रयं को-प्रकट कर सकं 


समसर्वेगुणौ सन्तौ सुहदावेव संगतौ । 

परस्परस्य शोभायं काब्दार्थो भवतो यथा 
साहित्यमनयोः शोभाक्ञालितां प्रति काष्यस्तौ । 

श्रन्यु नाऽनतिरिक्तसवमन्योहारिण्यवस्यिति; \ व° जी० १०२६ 


वस्तुतः हसी सहित-भाव को लक्ष्य में रखकर काव्य का पर्याय साहित्य" भाना 
भाता है-दहितेन सहितं साहित्यम्‌ 1 साहितस्य भावः साहित्यम्‌" । इसी श्राधार पर राज- 


कारिका २ ] द्वितीयोऽध्यायः २१ 


पयर्यापारभेदः । तथाहि-- वृभ्रमभिवि्योतते विच्‌ इति विचुदुवृक्षयोलक्ष्यलक्षण- 
संबन्धोऽभिना चोत्यते । उपसर्गेण तु क्रियाविरेषार्थाभिव्यक्तिरेव क्रियते । तथा कायं- 
भेदोऽपि तैषां हश्यते । यथा षत्वणत्वादिकायंस्थोपसर्गा एव निमित्तम्‌ । दिवे चनादिक- 
स्यतु क्म॑प्रवचनीया एवेति ' तथा प्रयोगोऽप्युसर्गाणां नियत एव प्राग्धातोः, न 
तु करम॑प्रवचनीयानामिति कथमिवोपसगेप्वेषामन्तमवि । नन्वन्ययानि स्वरादीनि 
भेदान्तरं विद्यत इत्ति कथं षोढा नं स्यादित्ययुक्तम्‌ । स्व्ररादीनां स्पर्गादिमत्वभूता्थं- 
वाचकत्वेन नामस्वेवान्तर्भविात्‌ । यदि वा नंशुक्तानामव्यरयानि निपात एवेति निपृत 
ग्रहणेन तेषां संग्रहः । गतयोऽप्युपसर्गां एवेति ¶चधा शब्द इतिं स्थितम्‌ । 


शेखर ने काव्यश्षास्त्र को 'साहित्यविद्या नाम दिया है-- शन्दार्थयो्यंयावत्‌ सहभावेन 
विद्या साहित्यविद्या ।' 


२. शब्द के प्रकार 
सार्थक शाब्द श्रनेक प्रकार क। होता है। वर्णो के समुदाय को शाट्द कहते 


है । इसके पांच मेद है-- नाम, श्राख्यात, निपात, उपसगं श्रौर कर्मप्रवचनीय, किन्तु 
कई श्राचायं इनमें ते "कर्मप्रवचनीय" को स्वीकार नहीं करते ।१,२। 


वणं का समूह शब्द कहाता है । शब्दके पाच भेदोंमे पहला भेद नमम है। 
निरक्त के प्ररोता यास्क के श्रनुसार जिसमे सत्त्व को प्रधानता हो उसे नाम कहते है 
सस्वप्रधानानि नामानि । सत्व उसे कते है जिसमे लिग ओआरौर सख्थाका सद्भाव 
सम्भव ही--लिगसंस्ययोरत्र सद्भाव इति सत्वभ्‌ । दुसरे शब्दों मे स्चावाचक 
शब्दो को 'नाम' कहू सक्ते है, क्योकि इन्दी मे तीनो लिगो तथा तीनो वचनों 
की सत्तां सम्भवदहै। ज्ञा के रूपान्तर होने के कारण सवंनामः को, भ्रौर्‌ सन्ञाकी 
विद्ेषता प्रकट करने के करण 'विगेषरवाची' शब्दोकोभमी गौण सरूप से "नामः 
केह दिया-जतादहै।योतो लिग प्रौर वचन क्रिया-शव्यो मे भी होते दैः जन्तु 
क्रिया-शब्दो मे करणीय-भाव' की प्रधानता रहती है-लिग श्रीर वचन का 
परिवर्तन तो इनमे संज्ञा श्रौर सर्वनाम के श्रनुरूप रहता है । श्रतः क्रिया-शन्दो को 
न्नाम नहीं कहा जाता 1 


शब्द का दूसरा भेद श्रास्यात दै । इसे यास्क ने भावप्रवान माना ह~ 
भ्दपरधानमास्य तिम्‌ । भाव कहते है किसी (नामः पद कफे वाच्यां कै भ्रात 
किसी कर्मके व्यंगयको। इसे प्र्रजी मे रेन्स्ट्‌क्ट नाडनः कह सकते है । जपे पाक, 
एग, स्याग श्रादि । यह भाव जिसमे प्रधान हो उसे श्राख्यात भरयवा क्रिया 
कट्ते टै- नामपदवाच्यार्थश्रयक्रियाव्येग्यो भावः पाक-राग-त्यागाख्यः स यन्न परधानं, 


५: काव्यानद्खुर. - { कारिका 


` ननु तथान्युपरु-रजपुद्याद्यः सव्दस्ममुदाया व्यतिर्कि रवि्रन्त डति 
कथगृक्त' पंचधेत्याशङ्खयाह-- 
नाम्नां वृत्ति धा भवति समासासमासभेदेन । 
वृत्तेः समासवस्यास्तत्र स्यू रीतयस्तिस्ः ।1३॥ 


न्वै 


गुणभूता क्रिया, तदिदं भावप्रधानम्‌ श्राख्यातम्‌ ) (विजेप विवरण के लिए देखिये ४्थंश्र °) 

दाव्द का तीसरा भेद निपात है । उसे अ्रव्यय भी कहते है--निपातमन्ययः। 
यास्क के श्रनषार इस शव्द की ग्यूतत्ति है--उच्चावचेष्वर्थेषु निपतन्ति इति 
निपाताः । ( निरुक्त १।३।११ ), ्र्थात्‌ जो विभिन्न प्रथो में प्रभुक्त होते ई । यास्क 
ने इन्हे तीन श्ररियो में विभक्त कियारै। (१) उपमार्थे -जिनका प्रयोगं उपमा 
के प्रसंग मेँ किया जाता है, जसे इव श्रादि। (२) कर्मोपमंग्रहार्थे--जिनका प्रयो 
'कमोपिसम्रह' श्र्थात्‌ समुचय, संबव श्रादिके स्थापनां किया जाता है । 'कमममि- 
संग्रह्‌" का यास्क के शब्दों मे श्रथ है- यस्यागमाद्‌ श्रर्थपथवन्वमाह विज्ञायते 
न चु श्रौदेश्षिकमिव विग्रहेख पृथक्त्वात्‌ स कर्मोपपंग्रहुः । श्र्थात्‌ कर्मोपसंग्रहू 
उसे कहते है जिसङ प्रयोग से प्रथं ( दन्द के दौ घटक }) पृथक्‌-पृथक्‌ हो जाए । 
विग्रह करने के कारण श्रव वे एक प्रतीतन हो । जैसेच, वा ्रादि। ( ३ ) पव- 
पुराथ - जिनका प्रयोग पादपूति के लिये किया जाता है, जसे -उ, हि, किल, खलु 
नूनम्‌ प्रादि । 


न्द कां चौथा भेद उपसं है, जो संस्कृत भापा के शब्द-भण्डार की प्रवृदि 
करने मे ्रत्यत महत्वपुणं योग देताहै। चसीके ही पुर्वं-सयोग से संज्ाएु. अ्रथवा 
क्रियाएं श्ननेक प्रर्थो की वाचक वन आती है । जसे श्हार' से प्रहार, भ्राहार, विहार, 
सहार श्रादि 1 यास्क ने उपसर्ग -प्रसग मे निम्नोक्त दो प्रदन उपस्थित किह: (१) 
क्या उपसगे सज्ञा श्रथवा क्रिया के साथ पुरवत्तलगन रहकर ही श्रथंपरिवतंन मे समथं 
वनती है ? त्रथवा (२) क्या उपसर्गे का स्वतंत्र श्रथं भी होतादहै ? श्रौर म्र्त 
मे उन्होने द्वितीय पक्ष का समयन किया है । कितु वस्तुतः उनका यह मन्तव्य न्य॒ाव्‌- 
हारिक नही है । भर, परा, श्रप, सम्‌, श्रनु, भ्रव, निघ, निर, दस्‌. दुर्‌ श्रादि उपसर्ग 


7 2.42 


का विना किसी सन्द की सहायता के प्रयोग निरथंक होता ह । अ्रत- पथमन्पक्षकोटी 


ग्य 1 1 ह । 


स्वीकृत करना चाहिये । कम 


[ ऋ 
(क कि हि ,। ह क ति 


राव्द का पांचवां भेद कर्म॑ वचनीय है । कभी-कभी उपसगं का -प्रयोग “उपसग 
कै समान नही होता । जंमे वक्षम्‌ श्रभिविश्योतते-विद्य्‌त्‌ , भर्थात्‌ विजनी ब्रु 


= ती | | 


¢ विमि क १ 
+ ११६. 


| शि 1, 2 ष , 1 


नि = न्मन 5 (> 
। ब । (0 


कर्टिका४-] ` ितर्ोऽध्याय. र 


नास्नामिति । नाम्ना वृत्तिवेतनं दधा, समासवत्यसमासवती. ब्रेति ~ तयोरपि 
प्रकारविरोषमाह - तत्र त ॥ ध्यात्समासवत्या.्रत्तस्तिखो रीतयो- भवन्ति । रीति- 
भद्धिविच्छित्तिरिति पर्यायाः ॥ 


कास्ता इत्याह 
.“ पाञ्चाली लाटीया गौडीया चेति नामतोऽभिहिताः'। 
. लघरुमध्यायतविरचनसमासभेदादिमास्तत्र ।।४॥ 
` पाचौलीति । चः समुचये । इति समाप्तौ । एतास्तिल एवेत्थं: । नामत इत्यनेन 
नाममात्रमेतदिति कथयति । न पुन पचालेपु भवा इत्यादि व्युत्त्तित. । अतिप्रसङ्गात्‌ । 


ताहि केन विशेपेण तिस्र इत्याह -लघुमध्परेत्यादि । लघु मध्यमायत च विरचनं यस्य 
समासस्य तद्भेदात्‌ 1 तत्रेव्युत्तरत्र योज्यते ॥ 


भेन = => 


[| 


की श्रोर चमकती है। पसे प्रयोगो मे अभि, वि उपसर्गो को “उपसं न कहा 

जाकर कमप्रवचनीय' कहा जाना चाहिए । किन्तु ठीकाकार नमिसाधु के केथनानुसार 

मेधाविरदर श्रादि भ्राचायं इसे स्वीकृत नही करते । हमारे विचार में 'करमप्रवचनीषः 

कोनतो शब्द का पाचर्वां भेद मानना चाहिय रौर न इन्हे उपसगं के अ्रन्तगंत 

स्वीङ्त करना चाहिए । भ्रपितु इन्हे “भ्रव्यय' मे अ्रन्तभ्रूत करना चाहिए) भस नगर 

भ्रति गच्छेति" इस वाक्यं मे "प्रति उपसंगं प्रतीत होता हृश्रा भी वस्तुतः उपसंगं नही 

है, किन्तु रह प्रतिनिवृत्य कार्य करोमि" मे "प्रति" निस्संदेह एक उपसर्ग है । उक्त 

प्रथमे वक्य मे श्रति' को भ्रव्यय मानना चहिए । वैसे, श्राज के हिन्दी-व्याकरण-ग्रन्थो 

मे इसे स्थानवाचक क्रियाविशेपण माना गया है । 

र. वर्ति ¢ 
नाम को वुत्ति [ वर्तनं श्रवा प्रयोग [ दोप्रकारकी है समासयुक्त श्रौर 
समास~रहित । इनमे से समासथुक्त वृत्ति कौ तीन रीतियों होती है, जो पांचाली 
लाटीया श्रौर गौडीया इन सामों से पुकारी जाती हँ । इनमे क्रमशः लघु, मध्य भ्रौर 


` भ्रायत समासथुक्त रचना होती है ।२,४। 


वृत्ति, इसका समा्ष के साथ सम्बन्ध तथा इसके विभिन्न भेदो की चर्चा रद्रट 
से पुवं वामन भ्रौर उद्भट के ग्रन्थो भँ उपलन्ध-होती है, पर किंचिद्‌ भरतर के साथः 
वामन ने वृत्तिकोइसनामसे न पुकार कर रीति नाम से पुकारा । “उन्होनि 
सवप्रथम रीति के तीन भेद वतये-- वैदर्भी, गौडी ओ्रौर पाचाली | कितु उद्भट ने इन्हे 
"वृत्ति" कौ सन्ञादी! इन तीनो का नाम परुषा, उपनागरिका श्रौर ग्राम्या वताया, 
तथा इन्हे भ्रनुप्रस श्रलकार के श्रतगंत निरूपित किया । उद्भट की यही पद्धति जैसा 


[ रौ भवेन 


२४ काव्यालद्भारः [ कारिका ५.६ 


श्रनियमे प्राप्ते नियमार्थमाह- 
द्वित्रिपदा पांचाली लाटोया पंच सप्त वा यावत्‌ । 
दान्दाः समासवन्तो भवति यथागक्ति गोडीया ॥५॥ 
दवित्रिपदेति । दं चीणि वा यस्या पद।नि । द्विधिग्रहृणस्थोपनक्षणार्थस्राच्चस्वारि 
वा समासवेन्ति यस्यासा पाचाली रीतिभंवति । यस्यातु द्वितीयादारम्य पच सप्त षा 


यावत्सा लाटीया । पच सप्त वेति मतद्रयं॑तदुभय संग्रहीतम्‌ यस्या तु समासवन्तः 


शाब्दा श्रष्टभ्य श्रारभ्य यथाशक्ति भवन्ति । यावत. कतु ` वनोति तावन्त इत्यं" । 
सा गौडीया ॥ 


नेन्वास्यातऽपि पचति अ्रपचतीति वृत्तिद्धविध्यं कथं न स्यादित्यत ऋआह- 
भ्राख्यातान्युपसर्गेः ससुज्यन्ते कदाचिदर्थाय । 

वृत्ते रसमासाया वैदर्भी रीत्तिरेकंव ।६॥ 

ग्राख्यातानीति । प्रास्यात्तानि तिडन्तक्रियापदान्युपसगंः साधं ससरण्यन्ते, न वं 


समस्यन्ते । सम्स॒पेत्यधिक्रारात्‌ । कि नित्यमेव । न । कदाचित्छवचिदपि । किमथंमि 
त्याह--श्र्थाय । यत उक्तम्‌- 


धाल्वथं' वाधते कश्िचत्कश्चित्तमनुवतते । 

तमेव विरिनष्टचन्य उपसगगतिस्तिधा ॥ 
तत्र बाधते यथा--प्रहुरति, प्रतिष्ठते इत्यदि । श्रनुवतंते यथा - प्रहन्ति श्रभिहन्ति 
विशिनष्टि यथा-~ प्रपचतीत्यादि । इदानीमसमासाया वृत्ते रीतिमाह- वृत्तरसमासाया. 


समासखरहित षदवृततर्वदर्भी नाम रीतिरेकैव । एताश्च रीतयो नालंकारा. कि तर्हि 
राब्दाश्रया गुणा इति ।॥। 


जनिन न-हि "नक 0 मं 


कि हम श्रागे (२।१८-३१) देखेगे, स्व्रट ने तथा श्नागे चल कर मभ्मट ने थोड़-बहुत 
परिवतंन के साय श्रपनायीदहि। 


पांचाली वृसि दो-तीन पदयो ऊ समास वाली होती है श्नौर लाटीया पचतीति 
पदो वाली ! गौडीया वृत्ति [साति से श्रधिक] यथाशक्ति जितने भी पदो के समास से 
युक्त टो सकती है ।५। 


क्रियाए' उपसर्गो के साथ भी संयुक्त को जातौ है । इससे उनके श्रयो मे 
विशिष्टता उत्पन्न हो जातौ है । समास-रहित वत्ति एक ही है- वैदर्भो ।६। ^ 


1 


@ 1 का ९.। (त्‌ 
~ 
# 1 


कारिका ७-८ 1 द्वितीयोऽध्यायः । २५ 


- -पंचविधस्यापि शब्दस्य यत्रोपयोगस्तस्येदानीं वाक्यस्य लक्षयं कतु माह्- 
वाक्यं तत्राभिमत परस्परं सनव्यपेक्षवृत्तानाम्‌ । 
समुदायः सब्दानामेक्पराणामनाकांक्षः ॥७।। 
वाक्यमिति । तत्रेति परचविधशब्दमध्यादन्यतरद्ित्रादिभेदानां समुदायो वाक्यम्‌ । 


न तु नामादीनां पंचानामेव युगपत्सद्‌मावे । कीदृशं शब्दानाम्‌ । परस्परं सब्यपेक्षवृत्तीनां 
अन्योन्यं साकांक्षव्यापाराणाम्‌ । न ल्वेवंविधानां यया- 
श्राषादी कातिकी भासी वचा ष्हिगु हरीतकी । 
पश्यतेतन्महच्वित्रमायुमर्माणि कृन्तति ॥ 
तथा एकपराणाम्‌ । एक वस्तु साधयितुमद्यतानामित्यथेः । तथा भ्रनाकक्षा । साकाक्ष- 
न भवतति यस्मादाख्यःतं विना रान्दसमुदायः सारकांक्षो भवति । तमपेक्षत इत्यर्थः 
अथ वाक्यगुखानाह-- 


भरन्युनाधिकवाचकवुक्रमपृष्टाथेराब्दचासरपदम्‌ । 
` क्षोदक्षममक्षूणं सुमतिर्वाज्ं प्रयुज्ञीतं ।।८।। ` 


४. [के | वाक्य (वाक्य का लक्षा ) 

वाक्थ उन शब्दो के समुदाय को कहते है, जो. परस्पर. ग्यपेश्षवृत्ति वाके हो, 
तथा एकपरक हों । एेसा वाक्य श्राकांक्षा-रहित होना चाहिए ।७। 
[ख] वाक्य के गुण 

वाक्य एला प्रयुक्त किया जाना चाहिए जिसमे वाचक श्र्थाति शब्द न्यून श्रथवां 
भ्रधिक न हो, जिसमे पदो का क्रम सुन्दरहो, जो पुष्टाथं भ्र्थाति श्रभीष्ट श्रयं के 
चोतक शण्दो से समन्वित हो, निसमें चारु श्र्थात्‌ उपयुक्त पदो का _ प्रयोग हो, जो 
क्षोद प्रयाति प्रषणीयता मे समथंहोतथानजो श्रु भर्थात्‌ सर्वतः पृण हों ।८। 

वाक्ष्यके उक्त लक्षण के भ्रनुरूप इसका लक्षण कान्यश्चास्तीय ग्रन्थो तथा व्याकरण, 
एव न्थाय से सम्बद्ध ग्रन्थो मे परायः उपथु क्तं शब्दो में ही प्रस्तुत किया गाह: 

विक्वनाथ--वाक्यं स्याद्‌ योग्यताऽऽकाक्षाऽऽसिपदोच्चथः ! >> 

- -- साहित्येद्पंण रय परि 
नागेशमद्रू--पदसम्‌हो वक्यमर्थसमाप्तै ! -- मूषा पृ०१ ४ 


केरावमिश्र - वाक्यं त्वाकाक्षयोग्यतासन्निधिमतां पदोनां समूहः । 
--तकभाषा, लन्दनिरूपर पु ०८७ 


२६ काव्यालद्धार [कारिका ४ 


रन्यूनेति । यब्दाश्व ते चास्पदानि च शौभनपदानि च गब्दवास्पदानि, उनानि 
चाधिकानि चोनाधिकानि, नितराशूनाधिकानि न्यूनाविकानि, न तथा श्रन्यूनाधिकानि, 
तानि च तानि वाचक्रानि च, नूक्रमाशि च पूष्टार्थानि च रच्दचाद्पदानि यत्र वाक्य 
तत्तथाभरूतं वाक्यं प्रयु जीतेति सम्बन्धः ! तव्रान्य॒नग्रहणा्यव कंचिच्छव्दं विना दृष्टाय 
प्रतीतिविवक्षितार्थप्रतिपत्तिरेव वा भवति तन्त्यूनपदं वक्रय निरस्तम्‌ । यथा-- 


संपदो जलतरंगविलोला यौवनं त्रिचतुराणि दिनानि । 
ारदाश्रमिव पेलवमायः कि धनः परहितानि कुरध्वम्‌ । 


रच हि धनशन्दादनन्तरं यावत्कार्यथव्दो न प्रयुक्तस्तावतु वर्नः किमिति 
परहितानि कुर्व्वम्‌' । मा कुषत इति दुष्टोऽर्थः प्रतीयते । विव्रभिताथप्रितीतियथा-- 
सीसपटिच्िययंगं पणमिय संभ नमह नाहं । श्रच “संम अषदादनन्तरं ततः 
गन्दमन्तरेा न नायते क्रि “प्रणम्यं सध्या ततो नाथ नमत, भ्राहोस्विनू श्रणतत्नव्य 
नायं नमत" इति । निःशव्दग्रहणायत्र विनापि पदमसाधारसर्विशेपोपादानात्तदनु- 
सथकरारकप्रयोगाष्ा । विषधितपदा्थप्रतीतिस्तदूनमात्रं साव्वेव 1 यथा-- 
स वः पायात्कला चाच्धी यस्य मूध्नि विराजते । 
गीरीनलाग्रधारेव भग्नरूढा कचश्रहे ॥ 


प्रतर ह्यसाधारणविगेपणं भंभुरित्यनुक्तमपि लम्यते । श्रनुरूपकारकप्रयोगाद्यदरवं प्रतीति. 
यया - 


1 
1 


1 


यच निम्वं परद्युना यद्चन मधुसपिया । 
यश्चन गन्धमाल्याभ्यां सर्वस्य कटुरेव सः ॥ , 
9 
ये मभी चग एक-समान ६, खदरट-प्रत॒त लक्ष मे प्रयूवत “व्यपेधकृत्ति वाले यब्दो 
से तात्पयं द कि वाक्यगत णब्द एक-दूसरे के प्रति साका स्प से सम्बद्ध हा, इस प्राचार्य 
विष्वनाथ ने "योग्यता' नाम दिया दहै । श्रथन वे चस प्रकारके नर्म कि ख्टक 
टीकाकार नमि साधु ने प्रस्तुत किये ह~ श्रापाटी, कात्तिकी, मासी, वचा, हीम श्रीर 
रट्‌ । शमर मदान्‌ श्राय्चरथंकोतो देदोश्रनरु-मर्मो को काटती है 1" "वाक्यगत शाच्द एवः 
पश्वः हा" का तायं द करि ये णच्द पररस्पर-सम्बद्धे हो, उनमे कालसम्बन्धी 
कोह व्यवयाननदो। चमे चिच्वनाथ कै णव्दयो म श््रासत्ति कट्‌ सक्ते ईं । 
उदाहरणाय देवदत्त जाना है" ये तीनो पद एक के वाद एक तुरन्त उच्चरित टा, 
उन काल-सम्बन्धी श्रन्तरन दहो । वाक्य भ्रनक्रसिदो' से तात्पर्यं दै कि ताकत 
पदो को मनने श्रवा प्नैकैः उमगान्त यद्‌ प्राकाश्ना नत त्रनी रहै करि श्रमी विय भरपूर 
द ठम कवन दायी, श्रत, गाय, वृख्य' रादि पदसमूह तराक्य नही कटाता। 


[द , +), 


क 


कारिका प | द्वितीयोऽध्यायः २७ 


प्रत्र च्छेदसेक्ालंकारा श्रनुक्ता श्रि परद्वादुपादानातपरतीयन्ते । नहि तेषां चच्छेदादेरन्यो 
व्यापार इति । प्रधिकग्रहुणाद्यत्र शब्दान्तरेणोक्त ऽप्यथ पुनस्तदर्थपदं प्रयुज्यते तन्नि- 
रस्ताम्‌ । यथा- 


` स्फारध्वानाम्बुदालीवलयपरिकरालोकनं भ्र मद।म्नोः। ० 
इत्यत्रालीक्चब्देन मेधानां बाहुल्यं प्रतिपादितमिति तदर्थो वलयथरिकरणन्दौ निष्रयो- 
जनाविति । मिग्रहणादधिकमावं साध्वेव । यथा-- । 

नदेन यस्थ सुरशत्रूविलासिनीनां काञ्च्यो भवन्ति हिथिला जघनस्थलेषु । 
ग्रतर॒ हि कांचयस्तत्स्यनत्वदेव जधनस्थले लन्वे तदुपादानमधिकमात्रमिति-। वाचक- 
प्रहणमवाचकनिवृत््ययंम्‌ । यथा-- 

लावण्यसिन्धुरपरेव हि केयमत्र यत्रोत्पलानि राशिना सह संप्लवन्ते । 

उन्मज्जति दिरदकुम्भतटी च यत्रे यत्रापरे कदलिकाण्डम्‌ ालदण्डा ॥ ' 


इस प्रकार केवल पद-सप्ह का नाम भी वाक्य वहीं है, अपितु इपर पद-समूह मे उक्त 
तीनों गुणों का रहना अ्निवायं है । - = 
महाभाष्यकार पतञ्जवि ते वाक्य के चार लक्षण प्रस्तुत किये है-- 


१. भ्रख्यातं साऽन्ययकारकविरेषणं वाक्यम्‌ । 

२. सक्रियाविजेषरणसम्‌ च ।। । 

३. श्राख्यातं सविश्चोषरणम्‌ । 

४. एक तिडः । [ महाभाष्य २।१।१] 
इनमे से प्रथम दो लक्षण परस्पर-सम्बद्ध'है । इनका प्रथं है कि वाक्य उस 
भ्रार्यात (क्रिया) को कहते है जिस के साथ भ्रव्यय, कारक, विरेषरा श्रौर क्रिया- 
विशेषण मे मे किष्ीएक, दो, तीनया चारो का प्रयोगकियाजा सके! तीसरा लक्षण 
उक्त दोनों लक्षणो का सक्षिप्त रूप प्रस्तुतं करता है 1 इस लक्षण मे "विरेषण शाब्द 
का भ्रथं है--प्रन्यथ, कारक, विशेषण श्रौर क्रियाविशेषण । श्रतः इस लक्षणकाभी 
वही श्रथं है जो उपर दिया गया है। चौथे लक्षरा के भ्रनुसार "वाक्य उसे कहते है जिसमे 
एकतिडः भर्थात्‌ एक क्रिया का प्रयोग कथा जाए । इस कयन का श्रभिप्रय यहुहै 
वाक्य मे केवल एक क्रिया होती है, हषरी क्रिया कै प्रयुक्त होने प्रर वह दूसरा 
चाक्य माना जाएगा । इस चौये लक्षण के सम्बन्व में पटली वात यह उल्लेखनीय -है 
कि. इसके ्रनुसार यह कदापि अ्रभीष्ट नदी करि वाक्यम केवल एक क्रिया ही प्रथुक्त- 
होती है, उक्त श्रव्धय श्रादि चार प्रयुक्त नहीं होते । उक्त तीनों सूत्रों की अनुवृत्ति के 


२८ कान्यालद्धुारः [ कारिका प 


रत्र शरिशचब्देन मुखम्‌, उत्पलशब्देन नेत्रे, दिरद म्भाभ्या स्तनौ, कदलिकाण्डशब्देनोरू, 
मृणालदण्डराब्देन बाहु, कवेविवक्षितौ । न च राब्दास्तथा वाचका, न च मुखादिषु 
शरिप्रथृतीनि पदानि यौगिक्तानि रूढानि वेद्यवाचकान्येव | उपमेयपदाप्रयोगाच्च 
रूपकश्रान्तिरपि नास्ति । तथा दशरथ इति वक्तव्ये १ क्ति रथशन्दोऽप्यवाचकः संज्ञारब्दत्वा 
सस्य 1 न च.दद्यसंश्यार्थो वा घटते । येन यौगिकरूढपदं स्यात्‌ । तथा भ्राज्रदेवादिषु वरूता 
मरादयः शब्दाः भ्रवाचका इति 1 सृक्रमग्रहणं दृष्टक्रमनिवृत््यथंम्‌ । यथा-वदन्त्यपर्णामिति 
ता पुराविदः \ इत्यत्र हि इतिरचाब्देन पुराविदां संबन्धः, न त्वपणयिाः । श्रपणयास्तु 
संबन्धे हितीया न स्याव । यथा--क्रमावमु' नारद इत्यबोधि सः' इत्यादौ हि 
वस्तुस्वरूपमात्रमवस्थापयतीति । लिगाथेमात्रे प्रथमेव न्याय्या न॑. हितीया.) कापि च 
शब्दमात्रप्रतिपादनेन प्रथमापि न भवति यथा--"गवित्ययमाह' इति । पुष्टा्थग्रहणमपृष्टाथं- 


श्राधार पर इस लक्षण में भरव्यय रादि का प्रयोग भी स्वीकायं है । उदाहर्णाथं- 
'्लाश्नो' इस क्रिया से प्रसंगानुसार भ्रव्यय भ्रादि चारमेसेचारों भी भ्रभीष्ट हो सकते 
हैश्रौर एक, दो श्रथवा तीन भी । दूसरी वात यह उल्लेषनीय है “तिंड.' से तात्पयं 
केवल तिडन्त क्रियाए (पठति,भ्रपठ्त्‌ श्रादि) श्रभीष्ट नही है, अपितु दन्त सूप भी 
भ्रभीष्ट है, यथा -- “तेने कृतम्‌, मया भक्षितम्‌, स्वया गन्तग्यम्‌' म्रादि । 

निष्कर्षतः उक्त लक्षणों में क्रिया पर बल दिया गथाहै, किक्रिया के जिना 
चाय नहीं जन सकता । किन्तु कभी-कभी बिना क्रिया के भी वाक्य प्र्ुक्त हते है" ज॑सं 
भ्रव वसः । किन्तु एमे वाक्यों मे भी क्रियाका श्रष्याहार कर लिया जाता है 
जसे इस वाबय मे अव बस करो यह वाक्य प्रभीष्ट है! परहा करो" क्रिया 
का भ्रध्याहार किया गया है । हा, इस स्थिति मे पूवं-प्रसग का ज्ञान रहना भ्रावर्यक ` 
है, भरन्यथा यह्‌ एकं निर्थंक वाक्य है । अतः यह्‌ सिद्धान्त मान्य है कि क्रिया वाक्य 
का श्रनिवायं घमं है, चाहे वह स्पष्टतः प्रयुक्त हो श्रवा भ्राक्षिप्त हो । 


इस प्रकार क्रिया की भ्रनिवायंता सिद्ध हो जाने पर यह कथन श्रनायास सिं 
होजाताहै कि भाषावाक्यकाही दूसरा नाम है। दुषरे शब्दों भे, वाक्य ही एक 
एेसा छेटे-से-छोटा रूप है जिते भाषा नाम से श्रभिहित किया जा सकता है । श्राधु- 
निक भाषा-वज्ञानिकों के कथनानुसार "वाक्य ही भाषा की इकाई है" ! 


इस स्थिति मे दो-तीन शंकाए उत्पन्न होती है । पहली यह कि कभी-कभी 
भ्रकेला रब्द भ्रयवा भ्रकेला वं ही घक्ता कै तात्पर्यं का योतक वन जाता है, श्रतः 
उन्हे भी भाषा कहं सकते है, केवल वाक्य को नही । शंका का समाधान सरल है। 


एसे कथनं मे भ्रन्य शब्द श्राक्षिप्त रहते है रौर उनका भरध्याहार कथि निना तत्पं 


ज जक जनुषा भनक, र 


रः नत १ 7 0 वि) ति +, ॥ हिं 


कारिका इ] द्वितीयोऽध्यायः २६ 


निवृत्यथंम्‌ एकशब्दप्रतिपाद्यायं नि रभिप्रायवहुशब्दप्रयोगादपुष्टाथंता जायते । यथा- 


पातु को गिरिजा माता -दादलार्धधिलोचनः । 

यस्य सा गिरिजा माता सं च द्वादशलोचनः ॥ ~ ~^ ~ 
इत्यत्र न त्रिलोचन शब्दादहादशार्धधिंलोचन इत्यादिभिः शब्दं रधिकोऽथः प्रतिपाद्यत 
इत्यपुषटाथंता । राव्दग्रहणमपश्चब्दनि रासाथंम्‌ 1 श्रपश्शव्दनिरासश्च यद्यपि व्यत्पत्तिद्वारेणव 
कृतस्तथापि महाकवीन।मप्यपश्न्दपातदर्शंन तनि रापादरश्य पनाय पूनरभियोगः । 
तथा हिं पाणिनेः पातालविजये महाकाव्ये--'संहयावधु' गृह्य करेरा' इत्यत्र गृह्यति 
बत्वो ल्यबादेशः । तथा तस्यव क्वेः-- 

गतेऽधंरात्रे परिमन्द भन्दं गजन्ति यत्प्रायुषि कालमेधाः । 

भ्रपर्यती वत्तभिवेन्दुनिम्बं तच्छरवरी गौरिव ह करोति ॥ 


इत्यत्र पश्यती इदं लुप्त न्ती' नकारं पदम्‌ । तथा च भतु हरेः- 


स्पष्ट नहीं होता । अध्याहार कर लेने पर भ्रव वह कथन वाक्य ही कहाएगा । भ्रकेला 
शव्द ( पद } भ्रथवा वशं नही । 


पहली शंकासे ही सम्बद्ध अन्य शंका यह्‌किवाक्यको भाषा की (इकाई 
स्वीकृत केरने पर इस प्रकार की मान्यताएं निरथंक सिद्धहो जातौ है कि विशिष्ट 
वर्णो का समह "पद कहाता है श्रौर विरिष्टं पदो कां समूह वाक्य । निस्सन्देहं यह 
मान्यता निरथंक है, किन्तु फिर भी यदि से स्वीकृत किया जाता दै तो केवल । 
न्पाकरण-सम्बन्धी व्यवहार के लिये श्रथवा भाषा के अ्रध्ययन `को सुकर बनाने कै 
लिये: 
[क | पदे न वर्णाः विद्यन्ते वाक्येष्ववयवाः न च । 
याक्यात्‌ पदानामत्यन्तं प्रविवेको नं कश्चन ।। वाक्यपवीय २।७३ 
[ख] यथा पदे विभज्यन्ते प्रकृतिप्रत्ययादयः । 
भ्रपोद्धारस्तथा वाक्ये पदानामुपवण्यते 1 वही २।१० 
[ग] पदानि भ्रसत्यानि ! एकम्‌ श्रभिन्नस्वभावकं वाक्यम्‌ ! - 
तद्‌ श्रबुधबोधनाय पदतिभागः केल्पितः । : ‡ ˆ ` 
थोड़ा भ्रौर स्पष्ट रूपमे कहे तो वाक्य का प्रत्येक पद वस्तुतः वाक्य मे प्रयुक्त 
हो जनि पर ही भ्रपने भ्रभीष्ट श्रथं का चोतक बनता है 1 इससे पूवं यह निरथंक सां 
भरपितु निरथंक ही, होता है । लगभग देसी ही `मान्यता “श्रन्विताभिधानवादी मीमांसकं 
कोभीदहै, जो श्रभिधादक्ति द्वारा श्रलग.श्रलग पदो का भ्र्थं न-मानकर श्रन्वित 


३९ काव्यालद्धारः [ कारिका ८ 


दह्‌ हि भरवनान्यन्धे घी रारचतुर्दश्च भुञ्जते । 
दत्यत्रात्मनेपदम्‌ । यथा वा कालिदासस्य-- 


श्रवजानासि मां यस्मादतस्ते न मविष्यति । 
“- ` भमत्मतुतिमनाराध्य प्रजेति त्वां शज्लाप सा) । 


द्त्यत्र हि श्रनाराच्येत्ति भिन्नकर्ूपुर्वकाले कत्वा । य्मादाराधनस्य राजा कर्ता भव्रनस्य 
प्रजेति । यथां च भारवेः- 


गाण्डीवी कनकशिलानिभं भुजाभ्यामाजष्नै विषमविलोचनस्य वक्षः । 


इत्यव्राटमनेदमस्व्राद्ध । एवमन्येषामपि । चृग्रहण ववंरत्यिादिदुःश्रत्रशव्द- 
निव्च्यर्थमित्ि । यथेवमेवंगुणयुक्तं कन्ये प्रसादगुणयोगास्मसाद एव काव्ये गृणः 


(परस्पर सम्बद्ध ) पदो के श्रथं का वोषे स्वीकार करते हँ इस श्रन्वितानामेवानिधानं 
दाव्दवोध्यत्वम्‌ , तद्वादिनोऽन्विताभिधानवादिनः । [ का० प्र०, वा० बो० पृष्ठ २६] 
इस मंत्तव्य के पम्बन्धमेयों भी कट सकते है करि एक वाक्य श्रपने-श्रापमे एक श्रलगं 
इकाई है । वह पद-रूप कई इकादयो का सभ्रूह नहीं है 1 


इसी सम्बन्ध मे तीसरी शंका यहु करि वक्ता श्रीर श्रोता के पारस्परिकं भाषा- 
व्यवहार में भ्र्थात्‌ इनक द्वारा प्रयुक्त वाक्यो मे किसी एक वाक्यं की, जिसे भाषा का 
पयौय माना गया है, स्थिति क्या होगी ? इसी प्रकार एक लघु कथा, एक उपन्यास, 
एकं कविता, एक खंण्डकानव्य प्रथव। एकं महाकाव्यं श्रादि मे प्रयुक्त वाक्यों मे एक 
वाक्य की त्थिति क्याहीगी ? इस बंका का समाधान साहित्यदपंरा-कार विद्वनाथ 
ने दिया है 1 पडले उन्होने वाक्यो के उच्चय (सप्रुटु) को "महावाक्य कष्ठ है । यहा 
"महावाक्य ' चन्द महान्‌ श्रथवा दीघं वाक्य का पर्थाय नहीं है, श्रपितु रामायण, 
महाभारत श्रादि काव्यप्रन्थो का वाचक है! किन्तु इसी प्रसंग मे उन्होने किसी श्रज्नात 
प्राचायं का निम्नोक्त कथन प्रस्तुत कर इन महावक्रो को भी वाक्य नाम 
दे दिया हैः: 


स्वाथंबोषे समाप्तानामङ्काऽङ्धित्वग्यपेश्षया । † 

चाक्यानामेकवाक्यत्वं पुनः संहत्य जायते ॥ सा०्द्०२य पररि° 
र्यात्‌ प्रत्येक वाक्य श्रपने-श्रपने श्रधं को वता चुकने के उपरान्त - अरन्य -सम्बद् वाक्य के 
परति श्रंग-वनता जाता है, श्रीर प्रत्येक परवर्ती सम्ब्रदध वाक्य भ्रपने पूर्ववर्तीःवणक्य-काः 


भरंमी होता है! इस प्रकार सें वस्तुतः ये सभी वाक्यं भिलकर भ्रन्तत. एक वाक्य ही 
होते ह । ~ 


न्क 


कारिका०] द्वितीयोऽध्याय: ३१ 


समाकितो भवति, न तु गाम्भीर्यमित्याह- क्षोदक्षम प्रेरणसहं वाक्यं प्रयुञ्जीत । 
गाम्भीरययुतमिति तात्पर्याथं. ! किमेतावदगुरामेव वाक्यमित्याह--ग्रक्षुणसिति 1 
समस्तदोषत्यागात्समस्तगणसंग्रहाच्च परिपूरणम्‌, एतेन “भ्रसमथेमप्रतीतं विसंधि" इत्य।दि 
वक्ष्यमाख॒दोषत्यायाच्च वाक्यस्य प्रयोगाहत्न मावेदितम्‌ ॥ 


प्रनत मे हम निष्कपंत. कह सकते हैँ कि 


१. वाक्य, भाषाकी ईकाई है, क्योकि हमदइसीमे ही अ्रपना विचार-विनिमय 
` करते है | 


२. वाक्यम क्रिया अ्रनिवायंत विद्यमान रहुती-है। चाहे स्पष्ट रूपमे प्रथवा 
ग्रक्षिप्तस्पमे। = 


३. वाक्य प्रनेक पदों से वनता है, किन्तु यदि एके शब्द (पद) अ्रथवा एकं वशं 
` भी विचाराभिव्यक्ति में समथं है तो उष भी वाक्य" कहना चाहिये । 


४ साधारणतया, विच।राभिव्यविति-समयं श्रकेल। वाक्य भाषा कहाता है । इस 
सम्बन्ध में दो तथ्य विचारणीय ₹ै- 

(क) प्रहला यह किं एक ही वक्ता द्वारा प्रयुक्तं एकं वाक्य जव उसी वक्ता 
के दूसरे वाक्य से सम्बद्ध रहता है तो यह उसका भ्रंग बन जाता है 
इस स्थिति मे ये दोनों वाक्य मिलकर ही भाषा कंहाने के श्रधिकारी 
वनते है, इनमे से कोई श्रकेला नही । 

(ख ) एक वक्ता द्वारा प्रयुक्त विचाराभिव्यक््ति-समथं एकं वाक्यः भी वस्तुत. 

| ि भाषा कटाने का श्रधिकारी चही ह जब तक किं वहु व्यवहारःल्प मे 
 श्रथवा.कत्पना से ही सेही दरंसरे व्यक्ति की श्रनुभूति का, .श्रौर इसके 

साथ साथ उच्चरिते श्रथवा मौन-प्रतयत्तर का कारण नहीं बनता । इसः 

श्रनुभूति भौर प्र्युत्तर के बिना “योग्यता' श्रादि गु से-युक्त कोई सार्थक 

४. वाक्य ठीक उसी प्रकार "भाषा" नाम का अ्रधिकारी नही वनना चाहिए 
` जसे किं बच्वोंकी प्रवेदिका-पूस्तको मे भरयुक्त परस्पर ब्रसम्बद्ध वाक्य .. 

जैसे--"्रीरत श्राईं, कौग्रा छत पर बैठा है" श्रादि । ेसेवाक्योकी भी 

वेही स्थिति समनी चाहिए जो एक वाक्य मे एकं सार्थक पद की 

होती हे, अ्रथवा एक पदमे एक व्ण कीहोती है) 

. इसी सम्बल्ध मे ्राधुनिक सनोवज्ञानिक कही अधिक दूर तके चले गये है। 

: उनके कथनानुसार भरत्येक न्यवित के सम्पूणं जीवन. की भावनाएः किसी न किसी रूप 

से परस्पर सम्बद्ध रहती है 1 भरत. उन्हे विभिन्न भावनाए न कहकर एक भावना 


[ त , ति त, , ति , ॥ 8 प 


३९ काग्यलङ्कारः | क रिका ६-१० 


त्थ पूर्वत्रासंदहीतवाक्ययुखम तिपादनार्थमाह-- 

रचयेत्तमेव शाब्दं रचनाया यः करोति चारुत्वम्‌ । 

सत्यपि सकलयथोदितपदगुखसाम्येऽभिधानेषु ॥६॥ 

रचयेदिति । तमेव शब्दं विरचयेतु । सकलै्यथोदितंर्येथामि हितैः पंदगुणं रुना 
दिकः साभ्ये समानत्वे सत्यपि विद्यमानेऽप्यभिधानेषु । नामसु मव्य रचनाया. शन्द 
संदर्भरूपायार्चरुत्वं सौन्दयं करोति ॥। 

किमिति चारुत्वापादकं शब्द्‌ रचयदित्याह-- 

स्चनाचारत्वे खलु शब्दगुणः संनिवेश चारुत्वम्‌ । 

तव््युवेवषें तस्पंक्तिरसंक्रटेव मूने ।। १० ॥। 

रचनेति । खनु॑स्माद्थे । यत्नो रचनाचारत्वे गुम्फसौन्दर्ये -सत्ति ˆ सनिवेश 
शब्दानां सहितास्यं नैरस्तर्योच्वारण तस्य चारत्वलक्षणो यः शब्दगुणः . स भवतीति । 
त्रोदाहरणं यथा-तरूणामाली पंत्तिरुव्येव महत्येव. हे ऋषे मुने । एतदचाररचन 


वाक्यम्‌ । एतत्समनाथं ` च।रुरचनं त्विदम्‌ । यथा-तरुप॑क्तिरसुकटेव मूने । श्रत एवविधमेव 
वाक्यं प्रयोज्यम्‌, न त्वा्यसममिति ॥ 


[ 
(न 


ही कहना चाहिए श्रौर इसी के श्रनुरूप इसे “एकः भावना का माध्यम भाषा भी एक 
ही है, रौर इस प्रकार एक व्यक्ति के सम्पूणं जीवन की भाषा को एक वाक्य ही 
समभना चाहिये । कु दसी प्रकार की ही धारणा विश्वनाथ नेः भी प्रस्तुत कौ थी 
जिसका उतल्लेक्ल अधर [स्वाथवोये समाप्तानाम्‌ "““ ] किया जा चुका है । मनोवंजानिका 
का यह कथन भ्रत्यन्त सूक्ष्म एवं अ्रतलस्पर्शी टै विन्त अ्रधिर्कां सीमां त्क 
इसमें खीचतान ही श्रधिक है तथा इसको स्वीकृति के ग्धवहार मे कठिनई उपस्थित 
होती है ग्रतः इसे. प्रधिक वले नही मिलना चाहिए 1 | “ 

दाब्द-सम्बन्धी उपयुक्त गुरो केहोते हृष भी [ वाक्य मे<एक श्रन्य गुण 
श्रनिवायं स्प से श्रयेक्षित है कि ईसमे [उन श्चन्दौ का प्रयोग करन चाहिए जौ 
रचना के भ्रभिधानों श्र्थात्‌ नामो मे संजा, विहेवण तथा सर्वनामवाची कन्दो मे-- 
सौन्दयं उत्पन्न कर दे ।£। 


किसी रचना के सौन्दर्य में शंब्द-गु्णो का सुन्दर सन्निवेश रहता है, श्र्थात्‌ सुन्दर 
शब्द के प्रमोगके कारण ही रचना भें सौन्दर्यं श्राता है.\ उदाहरणार्थ--शहे भूमे 
युको फो यह्‌ पक्ति संकट-रहिति ही है 1" इस्र कथन के लिए त्वत्युव्यव्यं' [ तर ~ 
प्रालि + ऊनी -}- एव +- ऋषे .] * जैसे श्रसुन्दर शब्दो क प्रयोग - न किया जाकर 


कारिका ११-१२ ] दितीयोऽध्यायः ३३ 
ववियलक्षरमभिधाय तस्य मेदम्रद्थनाथभाह- 
वाक्यं भवति धा गद्य छन्दोगतं च भरयोऽपि 


भाषाभेदनिम्त्तः षोढा भेदोऽस्य संभवति ।॥११॥ 


वार्येमिति 1 वायं चं द्विविधं भवति । कथम्‌ । एकं गद्यभुत्कलम्‌ अन्यच्छन्दो- 
गतं' छन्दोनिवेद्धम्‌ । भूयस्तथापि › भाषाभेदात्षोढा । भेदो वाक्यस्य सभवतीति 
षोढेत्यनेन यदुक्त करिचद्यथा- प्राक्रतं संस्कृतं चंतदपश्रंश इति त्रधा इत्येतन्निरस्तं 
भवति )) । । 


कस्तो माषा इत्याह-- 
,, प्रकृतसस्छृतमागवपिशाचभाषाश्च सूरसेनी च । 


षष्ठोऽत्र भरभेदो देश विद्ेषादपश्चःलः । १२॥ 


प्राक़ृतेति । 'सकलजगज्जन्तूनां च्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो वचेन- 
व्यापार. प्रकृतिः । तत्र भव सैव वा प्राकृतम्‌ । श्ररिसक्यणे सिचं देवाश भ्रदमागहा 
बाणी" इत्यादि वचनाद्वा प्राश्ूर्वं कृतं प्राकृत बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिवन्वन- 
भूत॒ वचनमूच्यतते । मेघनिमु क्तजलमिर्व॑कस्वरूपं तदेव च देशविरेषात्सस्कारकरणाच 
समास।दितविशेष सर {रकृताद॒त्तरविभेदानाप्नोति । श्रत एव शास्त्रकृता प्राकृेतमादौ › 
निदिष्ट तदनु स॑स्कृतादीनि । पारिन्यादिव्याकरणोदितंशब्दलक्षणेन संस्कर्णातु 
सस्कृतमूच्यते । तथा प्राकृत भाषंव किचिद्विशेषलक्ष णान्मागधिका भण्यते । तच दं यथा- 
रसयोलंशौ मामधिकार्याम्‌ । रेफस्य लकारो दन्त्यसकाररय ' तालन्यरकारः । यथा---- 
सुरा बुला, सरसी शलदी इत्यादि । तथा एत्वम॑कारस्य सौ पुति । यथा--एसौ 
पुरिसो, एशे पलिसे इत्यादि । पु स्येवत्वम्‌ । तेन तं रलिलं 1 तथा श्रहुवयमोहुगे 
प्रादेः । यथा- हगे सपत्ते, हगे संपत्ता । तथा जय्ययोयंकारो भवति । यथा-~-य्यारदि. 
य्याणवादी जाड जारवदेयस्य च । अ्रवय्य मय्यं विय्याहले । वचं मयं 'विद्याघरः । 
तथा क्षस्य इकोऽनादौ । यथा--यर्के लदकसे यक्षो राक्षस `इति । भ्रनादावित्येव । 
क्षयजलधरः खयय्यलहले इति न स्यात्‌! स्कः प्र क्षाचक्ष्योः । प्र क्षाचक्ष्योषत्विः क्षस्य 


"तर्पेक्तिरसंकटेव भूने' [ तप्तिः -[- भरसंकटा -एव मुने ] रेसे चुन्दर ` शब्दों का 
भ्रयोग किया जाना चाहिए 1 १०। 
५. वाक्य के मेद- 
वाक्य दो प्रकारका होता है गदयवद्ध श्रौर छन्दोबद्ध \ 


7 नष) ति ` 7 1 [षि पि 9 । । मि पीयष 
१ काणो किति जिनः कि अ क, ("मौ 


३४ कान्यालद्धारः कारिका ११-१२ 
स्कादेशः । यथा पेस्कदि आ्आचस्कदि 1 तथा छस्य स्वो भवति । यथा--पिरिचले 
श्रावण्णदचले । तथा षोः संयोगस्थयोस्तालव्यज्ञकारः । यथा--विष्नुः विहस्पदी 
कास्यगालं । श्र्थस्थयोः थस्य स्तदेशः । यथा--एसे भ्रस्ते एषोऽथः, समुपस्तिदे 
समुपस्थितः । तथा क्ञण्यन्यन्बीनां मो भवति । यथा -ज्ञ । अ्रगली भ्रञ्जलिः । 
ण्य 1 पुनकम्मे पुण्यकर्मा, पुनाहं पुण्याहम्‌ । न्यस्य च भ्रभिमन्‌: श्रभिसन्धुः कनका 
कन्यका । व्रजेः कृतादेशस्य वव्वइ वई । तथा तस्य दकारोऽन्ते । यथा-मलिदि होदि 
य्यारादि इत्यादि । भ्रन्यल्लक्षण ग्रन्थान्तराल्लक्ष्याच्च ज्ञेयमिति । तथा भ्राकृतमेव 
क्रिचिद्विशेषासशाचिकम्‌ । यथा णनोनंकारः पैशाचिक्याम्‌ । यथा -्रागेनूनयनमती- 
त्यादि । तथा दस्य वा तकारः । यथा-वतनं वदनम्‌  प्राङृतलक्ष णापवादद वात्र । 
यथा टस्य न उकारः । यया--पाटलिपुत्रम्‌ । तथा पस्य न वकारः । यथा-पदीपो, 
ग्ननेकपो । तथा कगचजतदपयवानामनादौ यथाप्रयोगं लोपः स्वरशेषता च न ` कर्तव्या ! 
यथा क्रमेरा--म्राकाशं, मिगंको, वचनं, रजतं, वितानं, मदनो, घृपुरिसो, दयालु, 
लावण्णं । एवं सुको, सुभगो, सूची, गजो, भवति, नदी इत्यादि च । तथा _ खघथघफ- 
भानां हो न भवति । यथा--मूखं मेधी रथो विद्याधरो विफल समा इत्यादि । यथा 
थव्योर्ढोऽपि न भवतति । यथा पथम, पुथुवी, मठो, कमठो. तथा ज्ञस्य मो भवति । 
यथा--यनकोसलं, राना लपितं 1 तथा हृदये यस्य पः । हितपक । तथा सर्व॑ तकारो 
न विक्रियते । एति विवमित्यादिषु । इत्यादयोऽन्येऽपि प्राकृतविहिता व्यञ्जनदेला न 
क्रियन्ते ते च बहत्कतथादिलक्ष्यदशं नाञ्ज्ेया इति । सूरसेन्यपि प्राकृत भाषेव 1 केवलमय 
विहेषः । यथा सूरसेन्यामस्वसंयोगस्यानादौ तस्य दो भवति यथा तदो, दीदि, 
होदि, श्रन्तरिदमित्यादिपु । श्रस्वसयोगस्येति किम्‌ । मत्तो, ' पुत्तो । स्वग्रहणात्‌ 
निच््विन्दो, भ्रन्देउरमिति स्यादेव ! अनादावित्येव । तेव तदेत्यादौ न भवति 1- तथा 
य॑स्य स्यौ भवति 1 यथा लक्ष्यम्‌ ्रय्यउत्त, पय्याकरुलीकदहि । यथालक्ष्यमित्येव । 
तेन कञजपरवसो, वजकज इत्यादौ न भवति । इह थघ्वमां घो वा भवति । इध, होघ, 
परित्तायघ 1 पक्षे इथ, होह्‌, परित्तायहं 1. तथा पूर्व॑स्य युरवो वा । यथा-न कोवि 
ग्रपुरनो पक्षे । श्रपुव्वं पदं । तथा कडय करिय -गड्य गच्छिय इत्ति क्त्वान्तस्यादेशः 
तथा एदु भवं जयदुभवं, तथा भ्रामन्त्रो भयव कुसुमाउह इत्यादि । तधा इनः भरा वा। 


वाद्य भाषा के श्राधार पर छः प्रकारका होताहै।!वे छः भाषाएं ये है-- 
प्राहृत, सस्छृत, मागध, पिश्ञाच, शौरसेनी तथा श्रपश्चंशष । इनमे से श्रपश्रंश भाषा 
विभिन्न देशो \ विभिन्न भू-भागों फे विभिन्न प्रयोगो ) फे फारण श्रनेक भरकर की 
होती ह ।१९,१२। 


करिका १३ | दितीयोऽ्यायः ३५ 


यथा--मो कंञुदया । रतश्च । भो वयस्सा, भो वयस्स । तथा इलोप इदनीमि । 
यथा- कि दाणि करदस्सं । निवजो दारि सो जणो । तथा श्रन्त्यान्मादिहेतोरणो भवति, 
यथा- चुतण्णिम, किण्णिमं, एवण्रोदं । यथाप्रयोगेमित्येव । तेन “किं एत्थं कररस्सं । 
तदस्ता भवति 1 यथा ता जावं पविंसामि । तथा एवाथे य्येव । वथा--मम स्येव 
` एकस्स । हंजे चेस्याह्वाने । हंजे चतुरिए । हीमाणहे निरवेदविस्मययोनिपातः । यथा- 
हीमाणएहे पलिस्संता हे एदिणा निथविहिरो दच्विलसिदेख । हीमाखदे जीवंतवच्छा 
मे जनी । णं निपातो नन्वर्थें । यथा- णं भणामि । श्रम्महे हषं निपातः 1 हीहीभो 
विदूषकणां हर्षे । शेषं प्राकृतसमं द्रष्टव्य मिति । तथा प्रा़ृतमेवापश्र शषः । स 
चान्यैरुपनागरामीरग्रःम्यत्वभेदेन निधोक्तस्तन्निरासार्थमूक्तं॒भूरिभेद इति । कृतो 
देशविदेषात्कारणातु । तस्य च लक्षणं लोकादेव सम्यगवसेयम्‌ । सामान्यं तु 
किचिदिदम्‌ । मथा न लोपोऽपभ्र शेऽधोरेफस्य । यथा ~ प्रखुरभरावृरवघ्रं शेत्यादि । 
तददभरुतोऽपि क्वाप्यघो रेफः क्रियते । यथा- त्राचालउत्रचत्रचरउक्राखक्र सीत्यादि । 
तथोदन्तस्य दकारो मवति । यथा-गोत्रुगजिद्र्‌ मलिदुचारितु इत्यादि । तथा ऋत 
स्याने ऋकारो वा भवति । यथा-कृणसमूगसिजई । पक्षे तणं इत्यादि लक््यादव- 
सेयम्‌ । व्यत्ययो बहुल भाषालक्षणस्थ । यथा--यहकारयोः भूरसेन्यां धत्वसूक्त 
मागघ्यामपि भवत्ति.। भ्रामीरीभाषा श्रपभ्न'शस्था कथिता क्वचिन्मागघ्यामपि हदयते । 
सूरसेन्यामिदानीशब्दे इलोप उक्तः शुदधपराकृतेऽपि भवति । तथा कगचजतदपय दीना 
पेशाचिक्या स्वरशेषत्वाभावोऽभि हितः । खघधफभादीना हत्वाद्य भावश्च सूरसेन्यामपि 


भव त । इत्या्न्यदपि साकयं` महाकविलक्ष्यादवसेयमिति । विशेषतस्तु भांषालक्षण 
 प्रन्थान्तरादवसेय मिति ॥ 


` एवं शब्दलक्षणं गुखदोषाश्वाभिधायेदानीं तस्यालङ्काराचिवक्ष राह- 
' वक्रोक्तिरचुप्रासो यमक इलेषस्तथा परं चित्रम्‌ । 
राब्दस्थालंक्राराः रलेषोऽथेस्यापि सोऽन्यस्तु ॥ १३॥ 


५. शब्दाल्कार-- 


वक्रोक्ति, श्रनुप्रसि, मक, इतेष तथा चित्र ये शब्दालङ्कार है । इनमे से 
इलेष श्र्यालङ्खार भी है 1१३ 


भ्रलेकार के मुख्य दो भेद माने जाते है- शब्दालंकार श्रौर प्रथलिंकार 1 तीसरा 
धरन्य भेद भी स्वीङृत किया जाता है--शब्दा्थलिंकार । इन भेदो का भ्राधार खट तक 
निर्णत तो हौ इका होगा, पर इस भर प्रकाश नही डाला गबा । स्रटने भी प्रका 


३६ कनव्यालद्धारः कारिका १३ | 


 वज्गोक्तिरिति । तथाराल्वः समुचये । श्न्यैरनुक्त' चित्र शब्दालंकारमध्ये समु्ीयते । 
परमुक्छृष्टमपरं वा! भ्न्यदित्यथंः । शब्दस्येत्यथंनिवु स्यथंम्‌ ।.भ्रतश्च कश्िदाशद्धते-- 
शब्दालंकार एवायं दलेषो न त्वार्थालंकारोऽपीति तं  .रत्याह-श्लेषोऽंस्यापीति । 
किमयमेव .र्लेषोऽ्थस्यापि नेलाह--सोऽन्यस्तु । तुरवधारणे । सोऽन्यारृक्ष एवेत्यथ : । 
तेन यदन्ैरमेदेन इलेषलक्षणमवादि तदयुक्तमित्युक्तम्‌ । नन्वलंकारोऽलंकार्यादिभन्नो 
हृष्टः । यथा पूरूषात्कटकादयः । न च वमन भेदमवगच्छाम इति । सत्यम्‌ । वित एव 
भेदः । यथा--किं गौरि मां प्रतिरुषा इति शब्दसमुदायोभ्लंकाय- -एव \ तस्य यद्‌ 
भद्धवन्तरेण व्याख्यानं सोऽलंकारः । अरनुश्रसेऽपि प्रथमोक्ता वर्ण भ्रावृत्ताश्चा्यो- 
न्यमलंकुवंते यथा हि- द्धौ सार संगतौ परस्परमलंकु्वति इति । एव यमके इलेष 
च द्रष्टव्यम्‌ 1 चित्रेऽपि स्पष्टो वणं क्रमोऽलंकार्यो भङ्धवन्तरृतस्त्वलंकार इति ॥ , 


। - - . 
नही डाला 1 भ्रागे चलकर मम्मट ने उक्त विभाजनका प्राधार ` ग्रन्वयन्यतिरेकभावि 
स्वीकार किया है ओर रय्यक ने श्राश्चयाश्रयिभावः-- ॥ 

[क] इह -दोषगुणालङ्ाराणां शब्दां गतत्वेन यो विभागः स अ्न्वथव्यतिरेकाभ्यामेव 

व्यवतिष्ठते । क!व्यप्रकाड ह्म उ० 


[ख ] तन्न शब्दालङ्धारो यमकादयः । भ्र्यालङ्ारा उवमादयः । उभयालङ्कारा लटब्ु 
प्रासादयः 1 >< >< >< लोकवदाश्चयाश्चपिपभोवश्च त॑त्तदलङ्ारनिदेन्धनम्‌ । 
# श्रलंकारस्वंस्व पृष्ठ २५६ 


जिसके रहने पर जो रहे वह “अन्वय कहाता है रौर जिसके न रहने १२ जो 
न रहे वह व्यतिरेक--यत्सत्तवे यत्सतवम्‌ श्रन्वयः । यदसत्वे यदसत्त्वम्‌ व्यतिरेक. । इसी 
भ्ाधार पर मम्भटने शरनुप्रास रादि को शब्दालकार, उपमा रूपक भ्रादि को प्र्ालद्कार 
तथा पूनर्क्तवदाभास, दिलष्टपरम्परित रूपक श्रौर राब्दहेतुक अर्थान्तरन्यास को 
उभयालंकार माना है। - 


। ई 
दस -परसंग-मे एके दाका उपस्थित-होती-है क्रि उमयालकार -होते- हए -भी भून 
सक्तषदाभ।स को शब्दालक!रो के साथ श्रौर रिलष्ट परम्परितं .रूपक -तथा शब्दहतुक 
अर्थान्तरन्यास को -पर्थालेकारों के मध्य स्थान-क्थो.मिलता चला श्नाय।-है ?. इस शका 
का सम।घान श्रवेक्नाकृत चमतफाराधिक्य मे सन्तिहित है, क्योंकि. एक शरोर पून खक्त- 
वदाभास मे शाव्दगत्त चमत्कार अधिक है तो भ्रथंगत कम, श्रौर दूसरी श्रोर भ्रवस्था 
ठीक इसके विपरीत,है । र | । 

वक्रोवित, -यमक भ्रौर लाटानुप्रास-के-सम्वन्ध ,मे भी एक-एेषी ˆजिजासा सा- 

भाविक है । श्रन्वयव्यतिरेक की-कोटी पर क्या इनकी. -गणनता लब्दार्थालं कासे मे तद 


कारिका १४ | . द्वितीयोऽध्यायः ३७ 


यथोह्‌ शं निश इति एवं वकरोक्तिलक्षणमाह-- 
वक्त्रा तदन्यथोक्त व्याचष्टे चान्यथा - तद्ुत्तरदः। 
वचनं यत्पदभंगेज्ञया सा इलेषवक्रोक्तिः ।१४॥1 


(मौ 


हो सकती ? यद्यपि इसी भ्राधार पर इन्हे भी शब्दाथलिकार मानना चाहिए पर शन्द- 
गत चमत्कार की भ्रत्यधिकता के कारण इनकी गणना रन्दालकारोमेहीकी 
जाती है । 


, £. वक्रोक्ति 
रव रुद्रट वक्रोविति श्रलंकार का निरूपण करते ह । खद्रट का यह प्रसंग श्रपने 
~कार्‌ का मौलिक प्रयास है भ्रौर श्रागे चलकर इसका श्रनुकरण भी हुभ्रा । ख्रट से 
पूवं भामह, दण्डी श्रौर वामन ने वक्रोक्ति पर प्रकाश्च डाला था। 


भामह ने वक्रोक्ति का स्पष्ट लक्षण प्रस्तुत नही किया, किन्तु इस प्रसंग मे उन 
के निम्नोक्त कथनो से इसे का स्वरूप भ्राभास्तित हो जाता है, - १] जहां 
भ्रतिदयोक्ति होती है, वहा सर्व॑. वक्रोषिति होती है । श्रतिशयोक्ति कते 
है उस उक्ति को जिस, मे लोक .( साधारण जन) के नैमित्तिक वचनं का-- 
कारण-कायं सम्बन्ध प्र आधारित कथन का--उत्लंघन किया गया हो । (२) 
वक्रोक्ति के द्वारा अथं (कवि का वण्यं विषय } विभावित (चमत्कृत) हो 
उठता है । (६) सफल कवि को इक (वक्रोचित्त के प्रदशंन } मेँ प्रयास करना चदिए 
भयोकि इसके चिना कोई भ्रलंक।र सम्भव नही होता । (४) इतना ही क्यो, काव्य के 
सभी श्रंग-इपांग वक्रत।पूरं स्वभावोक्ति से युक्त होने चाहिए । (५) जिन कथनो में 
चक्रोवित का श्रभाव रहता है, उन्हुं श्रलकार नाम .से.~भ्रभिहित नदय करना चहिए, 
उदाहरणाथं -- "सूयं इव गयाः, “चन्द्रमा "चमक रहा है, "पक्षिगणा श्रपने धोसलों को 
जा रहे दै--ये कथन तो ष्वार्ता' मात्र है, श्ट काव्य, फ्रहना समुचित नही है । हेतु, 
सुक्ष्म भ्रौर लेश ये तीनो श्रलेकार नामस ्रभिहित `नही होने चिप, क्योकि इनके 
 [उदाहरणो मे] समदाय रूप से वक्रोदित का प्रभिघान नही होता- 


निमित्ततो वचो ,यत्त॒ लोकातिक्गन्तगोचर । 


‡ 1 


मन्यन्ते अतिशयोक्ति तामलंकारतया यथा ॥ काण मर० २।८१। 


= ^ 4 


३८ कन्यिर्सिकारः कारिका १५ 


वक्वा प्रतिपादकेन तस्मादृत्तरवचनादन्यथा प्रकारान्तरेणोक्तम्‌ ! तदन्य थोक्त 
व्याचष्ट वक्ति चान्यथा । तस्योक्तस्योत्तरं ददातीति तदुत्तरदः ! यदेचनं यद्वाक्यम्‌ । 
कँर्व्याचष्टे पदभ; । पदखण्डनायेरयर्थः । स श्लेषवक्रोक्तिन्ञेया । वक्रोषितस्तु द्विविधा, 
रलेषवक्रोकितिः काकूवक्रोगितश्च । तल्लक्षखयोश्च वैलक्षण्यान् त्तं लक्षणमस्तीति मेदेनामि- 
घानमूपपन्नम्‌ । 

तत्रोद्ाह््समाह- 

क्रि गौरि मां प्रति रुषा ननु गौरहं कि 


कुप्यामि कां प्रति मयीत्यचुमानतोऽहम्‌ । 
जानाम्यतस्त्वमनुमानत एव सत्य- 


भित्थं गिरो गिरिभुवः कुटिलां जयन्ति । १५५ 


किमिति । इत्थमेव गिरो वाचौ गिरिभरुवो गौर्याः कुटिला वज्रा जयन्ति । कथम्‌ । 
श्ररयुकुपिता गौरी शभ्ुरनुनयन्नाह-हे गौरि उमे, मां प्रति भामुद्िद्य कि तव रषा 
रोषे । तत्प्रसीदेत्यथंः । एतदृत्त रदायिनी सान्यथा पदभगेराह--ननु गौरहं किम्‌ । 
ननुरक्षमायाम्‌ । किमहं गौस्त्वया कृता यद्‌ गौरित्यामन्नयसे । कां च भ्रति । मया कोपः 
कृतः यदात्थ किमिमा ` प्रति र्षेति । पुनः शभरुमाह--श्रवोऽस्मादनुमानतोभ्नुमा- 
नाद्क्रवचनलक्षणान्मयि विषये त्व कृष्यसीत्यह जाने । भूयो भवान्याह--त्वमनुमानत्त 
एव सत्यम्‌ । न उमा श्नुमा तस्या एव नत्तः । भ्रस्मदनमन केन तव ज्ञातमित्यथः ॥ 


युक्त वक्रस्वभावोक्त्या सवंमेवेतदिष्यते ।१।३०। 
हेतुरच सुक्ष्मो चेशोऽथ नालंकारतया मत्तः । 
समुदायाभिधानस्य वक्रोक्त्यनभिघानतः 1! २१८६ } 

` * गतोऽस्तमकः सातीन्दुर्यान्तिं वाक्ताय पक्षिणः । 
इत्येवमादि. {कि काव्यं ? वात्तमिर्ना प्रचक्षते ॥२।द७' ' 


निष्करषतः भामह के भ्रनुसार श्रतिक्षयोविति भ्रयवा वक्रोवित ब्रत्येक अलंकार 
का अनिवायं तत्तव है, इसके विना कोई कथन संधार "वार्ता-मात्र' हौता है । 


दण्डी के श्रनुसारं समस्त वाड.मय दौ प्रकारो में विभक्त हौ सकता -- 
स्वभावोक्ति श्रौर वक्रोविते । उन्होने स्वभावौवित से इतर भ्रन्य सभी श्रलंकारोको 


[ क त, , 


^ 
\ 
¶ 
ध 
१ 


कारिका १६] द्वितीयोऽध्यायः ३१ 


इदानीं काकृवकरोक्तिलक्षणमाह- 
विस्पष्टं क्रियम।ख'दक्लिष्टा स्वरविशेषतो भवति । 
भ्रथन्ति रप्रती तियेत्राप्तौ ` काकूवक्रोक्तिः ॥ १६॥। 


-विस्पष्टमिति । . यत्र स्वरविद्येषादर्थान्तरप्रतीतिर्भवति । कीहशात्‌ । विस्पष्टे 
स्फुटं क्रियमाखादुबायमाणात्‌ + कीहशी श्र्थान्तरप्रतीत्िः । अ्रविलिष्टा कल्पनारहिता सा 
काकुवक्रोक्तिः '॥ ` | 


. ्रकारान्तर से वक्रोक्ति श्रा पर्याय मानते हए कष्या है कि इन सभी श्रलकारो. मे ¶नेष 


के कारण शोभावृद्धि होती है - 


दलेषः सर्वच पुष्णाति प्रायो वक्रोक्तिषु धियम्‌ 1 
द्विषा भिन्नं स्वभावोकितिदेक्रोक्ितिश्चेति वाड मयम्‌ ॥ का० इ० २।३६२ 


वामन के श्रनुसार सदुर्यमूला लक्षणा (धर्थातु गौणी लक्षणा) का नाम 
पक्रोक्ति भ्रलकार है: साहश्याटलक्षणा वक्रोक्तिः ( का० सु° व° ४।३।८ } । 
इसी प्रसंग को श्रधिक स्पष्ट करते हुए. स्वयं वामन लिखते है कि जहां सादृश्य सम्बन्ध 
न हो वहाँ वक्रोक्ति श्रलंकार नही मानना चाहिए । "भसाशदयेनिंबन्धना ` तु लक्षणा न ` 
वक्रोक्तिः । (काऽ सुऽ व° ४।३।८ वृत्ति) त 

` इस प्रकार हमने देखा करि शट से पूवं भामह भौर दण्डी ने वक्रोक्ति को को 
विशेष ब्रलेकार न मानकर श्रलंक्ासों का मूल तत्व माना है, तथा वामव मे इसे गौरी 
चक्षणा का पर्याय स्वीकार करते हए इसे विशेष प्रकार का श्रथलिंकार'माना है । किन्तु 
पेदरट्‌.ने इसका नवीत्न स्वरूप उपस्थित करते हुए इमे विशेष प्रकार का 'शज्दालंकारः 
घोषित किया-- 

[ वक्रोक्ति के भेद है, श्लेष वक्रोक्ति श्रौर काकु वक्रोक्ति ।] जहां वक्ता के 
एक विशिष्ट श्रभिप्राय से.कहे हए वचन-को [सुनकर ] उत्तरदातो जान-बुकर उस 
चचन के पर्ोको मंग करके भ्न्य रूप में उत्तर देता है. -वहां श्लेष चक्नोष्ति धलंकार 
माना जाता है 1१४१ 


निस्न श्लोक .पदभंग इलेष वक्रोदिति का उदाहरण हैँ--इसमे क्िव-पावंती से 
कहते है, ¶क गौरि मां प्रति रुषा-हे गौरि ! तुम मुभसे कथो श्रप्रसस्न हो? पावती 
इस पित के पदों को इस श्रकार पृथक्‌ कर देती है । “कि गौः इमां प्रति रुषा?" श्रथति 
हे गौ ! दुम क्यो इस बेचारी पर श्रभरसन्न हो । श्रौर कहती है कया मे गायह ? 


ष्क 


४० ब व्प्रालङ्खुारः | कारिका १७-१८० 


तत्रोदाह्णम्-- 
शल्यमपि स्खलदन्तः सोरु" राक्येत हइालदलदिग्धम्‌ । 
धीरन पुतरकार्णकूुपितखलालोकदुवचनम्‌ ॥।१७॥ 
शल्यमिति । इदमनपरावकुपितखलवचनान्यसहमानं कश्चिस्समृहीषयन्नाह-भास्ता- 
मन्यतु । शल्यमपि काण्डमपि स्ललदन्तमेध्ये ममंघटुनां कुर्वण सोद न्तु शक्येत । 
कीटगम्‌ । हालहलेन विषेण दिग्धं लिप्तम्‌ ! धीरधंयपितनं पूनरकारणकुपितखला- 
लीकदुवंचनमित्येकोऽथः । एतदेव वाक्यं काक्रा स्वरविकेषेण॒ वदन्घमाश्वासयति- 
यथां रपि चाल्य स्लदन्तः सोद दाक्येत धीरनं पुनरकारणकृपित्तखलालीकदुवंचनम्‌ । 
यदि शल्यमपि सोद शक्यते तदा द्वेचनं सुसहमेवेत्यथंः । पूर्वपक्षं खलदुवंचनस्य 
दु सहतोक्ता, द्वितीये तु सुसहतेति भेदः 1 
तअरथानुप्रासलक्षणमाह-- 
एकद्धित्रान्तरित व्यञ्जनमविवक्षितस्वरं बहुशः । 
प्रीवत्यते निरन्तरमथवा यदसावनप्रा्ः ।*१८॥ | 
- एकेति 1 यद्व्यज्नं वहुशो वहून्वारानावल्येते । कीद्म्‌ ! एकंद्वित्रान्तरितम्‌ । 
एकेन द्वितररवां व्यञ्जन रन्तरितं व्यवहितम्‌ 1 कि व्यवहितानुवतंनमेवानूप्रासो नेत्याह-- 


छीर मे क्रिस परं श्रप्रसन्न हं?" शिव कहते ह-“मयीत्य नुमानतोऽहम्‌-मेरा श्रनुमान हँ 
किं तुम मुभ पर कुपित हो \' पावती इसं वादय में इस प्रकार पदविच्छेद कर देती 
है--मेयि.इति श्रनुमा-नतोौऽहम्‌ ' श्र्थदि तुम भुभपर कुपित हो एसा मे (श्रनुमा) उमा 
से पृथक्‌ किसी हग्ी से (नतः) प्रेम करने वाला कहता हू, -भ्रौर 'इसं॒श्रकार वहं यदहं 
जतेलाती है कि मे जानतीहं कि तुन यथार्थतः उमा-मिन्न किंसीस्त्री सं. त्रम 
करते हो ! पार्वती के एसे कूटिला्थ-संयुक्त चचनों की जय हो \१५। | 

काकु वकरोक्ति- 

जहाँ श्रत्यन्त स्पष्ट ल्प से फिये गये विशेष धकार के स्वर श्र्थात्‌ उच्चारण 
से श्रविलष्ट ( श्र्थात्‌ किसी प्रकार की कल्पना करिये विना नित्तास्त सरल } अन्य श्रय 
परी प्रतीति हो जाती है, वहां काकु वक्ोक्ति श्रलंकार माना जाता है \ १६ 


जसे धर्यशषाली पुरुष श्रपने वक्षःस्थल पर सर्मभेदी विष॑ले शत्य का प्रहार तो सह 


सकते है किन्तु चिना कारणा ही कुपित हुए दुष्टों के मिथ्या कटरुवचन ' नहीं सरह 
सफते 1 १७ 


स्द्रट-सम्मत वक्रौत्रित अ्नेकार का उक्त स्वरूप श्रागे चलकर भ्रत्यन्त प्रचलित 


कारिकौ' १६1 - द्वितीयोऽध्यायः ४१ 


निरन्तरमथवा । एतेनैकव्यञ्जनदलोकानामनुप्रासतोक्ता । व्यञ्जनग्रहणं स्वरनिरासा- 
थम्‌ ! ननु स्वरनिरासे कृतेऽनुप्रासस्याभाव एव स्थात्‌ 1 स्वररदितस्यादृ्ेरनुपलम्भा- 
दित्याह~- श्रविवश्षितस्वरम्‌ । श्रविवक्षिताः स्वरा यत्र तथा । स्वरचिन्ता न क्रियत 
इत्यथं.। बहुरोगप्रहणदेकावृत्तिमात्रेण नानुप्रासः 1 किं तहि । एकदित्रान्तरितमनेक- 
वारानाचत्यंते ततोऽनुप्रास इति † ` 
सामान्येनानुप्रासलक्षणमभिषायेदानीमस्येव मेदानाह- 
मधुरा प्रौढा परुषा ललिता भद्रेति वृत्तयः पञ्च। 
वनिं नानात्वादस्येति यथाथेनामफलाः ॥१६॥ 
मधुरेति । प्रस्यानुप्रासस्य पञ्च वृत्तयो भवन्ति । कुतः । वर्णानां व्यञ्जनानां नाना- 
प्वात्‌ । व्यञ्जनानामावृत्त्यानूप्रासस्योक्तत्वद्र्णानामिस्युक्तऽपि व्यञ्ञनानामिति गम्यते । 


कास्ताः मधुरा, प्रौढा, परुषा, ललिता, भद्रा । -इतिराब्दः "परिसमाप्त्यथंः । एता एव, 
न त्वष्टौ तिक्तो वाः। तथा ह्यष्टौ !हरिणोक्ताः । यथा- | 


रहा । रुय्यकं, मम्मट, विरेवनाथ रौर भ्रप्पय्यदीक्षित ने इसका यही स्वरूप निरूपितं 
किया । हाँ, इन तीनो से पूवं कुन्तक ने श्वक्रोविति' को भामह भ्रौर दण्डी के अनुरूप 
सापरान्य धरातल पर श्रवस्थित करते हृए इसे कान्य का “जीवितः (मात्मा) घोषित 
किया तथा इसीमे अन्य कार्व्यांगौ को श्रन्तभु त करने का प्रयास किया । वस्तुतः ये दोनो 
दृष्टिकोण श्रपनी भ्रपनी सीमा तक समुचित है । संकुचित दृष्टिसे देखे तो इसे एक 
विदिष्ट प्रकार का भ्रलंक।र न मानने की ्राशका ही उपस्थित नही होती, तथा व्यापक 
दृष्टि से देखे तोःचक्रता का व्यापार निस्सन्देह सामान्य.वार्ता एवं स्वभावोक्ति श्रादि की 
अपेक्षा उच्च धरातल पर स्थित है । -शेषःप्ररन रहा - कि रस श्रौर ध्वनि ज॑पने महत्त्वपूर्णं 
केच्यागो का समात्रैश इसमे कंसे सम्भवहैतो पारिभाषिक दष्टि से यहु यदि उसमे 
समाविष्ट न किये जा सके, किन्तु साबान्य वार्ताकी श्रपेक्षाये भी उच्च धरातल पर 
स्थित है, तथा श्रधिकाल सीमा तक वक्त व्यापारं की श्रपेक्षा रखते ही है । भ्रस्तु ! 
~ २ अनुप्रास त 

एक' व्यजन की बहुत बार श्रावृत्ति को श्रनप्रास श्रलकार कहते हैँ - एसे श्रावत्त 
. भ्यजन के बीच एक, दो श्रथवा तीन श्रन्य व्यजनो का व्यवधान रहना चाहिए तथा 
¡ ` स्वर के [ज्ययघान के]; सम्बन्ध में करद चिन्ता नहीं करनी चाहिए ।१८। 
` '. वर्णो के नाना -प्रकार-के [ प्रयोग के ] कारण श्रनुपास श्रलंकार की पांच 
वृत्तिर्या हे -मयुरा, -पोढा,. परषां, ललिता श्रौर भद्रा । इन वृत्तिर्या फे जंसे नाम है 
वसौ हो इन मे श्यंजन-योजना रहती ह ।१६। ॥ १ 1 


४२. कान्यालक्ारः [कारिका ९०.२१ 


महुरं षरसं कोमलमोर्जास्त निटद्रं च ललियं च, 
गंभीरं सामण्णं च श्रद्धभणिति- उनायस्चा ॥ 
श्रनौजस्विनिष्टुरगम्भीराणां `न तथा भेद दत्येकतरोपादानमेव न्याय्यम्‌ । तथा 
ब त्तीनां मिश्चता सामान्यम्‌ । त्चानुक्तमपि लम्यते। इत्येताः पञ्चंव 1 तथयान्यंग्राम्या 
परुषोपनागरिकेत्युश्तं तत्र त्वसग्रह एवेति । कीरर्यस्ताः, । यथा्थनामफलाः सान्वय- 
नानिकाः । कुतः 1 इति हत्वय । सा च माधुयन्मिधुरा, प्रौढत्वातपौढा, इत्यादिहैत्वर्थो 
द्रष्टव्य. ॥ | 
ह्दानीमासां लक्षणमाह । तत्र मधुरायास्तावत्‌- 
निजवर्गान्त्यवग्थाः संयुक्ता उपरि सन्ति मधुरायाम्‌.। 
तथ्‌ क्तश्च लकारो रणौ च स्वस्व रान्तरितौ ॥२०५। 
निजवर्गान्त्यैरित्ति 1 मधुरायां वर्ग्याः कचटतपवर्गंवर्णा उपयुं परिष्टात्संयुत्ताः सर्हिताः 
सन्ति विद्यते । करित्याह- निजवर्गन्त्यिडजणनमर्वणंः । तथा तद॒क्तस्तेन लकारेण 
युक्तो नकारः। रणौ च रेफणकारौ च । कौटशौ । हस्वस्वरेणान्तरितौ न्यवहितौ भवतः। 
नन्वेकव्यञ्जनावृत्तिरनुप्रासलभणमृक््तम्‌, तत्किमिहं वहुवर्णसद्भावं उच्यते । सत्यम्‌ । 
बहुत्व द्रणाना वहवोऽनुप्रासा अपीति न दोषः। एतेषां च वर्णानां युगपप्रथोग एव 


मधुरा वृत्तिरित्येव न द्रष्टव्यम्‌ । कि तहि। तेषां वर्णानां मध्यादन्यतमवरंरिनुप्रासे 
मधुरा वृत्तिरिति ॥ 


किमविरोषेरोते प्रयोक्तव्याः । नेवयाह-- 
, तत्र यथाशक्ति रणो द्िस्तर्वा धुवितितो लकारं च। 
पञ्चभ्यो न कदाचिदुः वग्यिध्वं प्रयुञ्जीत ।।२१॥। 


1 


[भिया ० गं 


जसा कि पीछे लिख भ्रायेहै ्रनुभासं भलंकार के अन्तर्गत धृत्तियो का निरूपण 


सवंप्रथम उद्भट ने किथाथा.। इन के पर्चात्‌ रूट.षे तथा-श्रागे चलकर भम्बट तेभी 
इसी पद्धति को अपना जिया । 


भधुरावृत्ति-में चग्ये (कवं श्रादि पाचों वर्गो के २५ वषु) श्रपने-प्रपने श्रन्तिम 
वणो (ङ, जज ए" न्‌ श्रौरम्‌) के साथ श्रागे की श्रोर संयुक्त रहते हे । इस वृत्ति 


मे परस्पर : संयुक्त लकार का भ्रयोग भी- श्रपेक्षित-है तथा; हस्व स्वर के व्यवधान से 
युक्त रकारं श्रर णकार का भी ।२०,२१। ` 


न्क [4 । 


कारिका २२-२४] द्वितीयोऽध्यायः ४३ 


- तत्रेति । तत्र तेषु वर्णेषु मध्ये रणौ यथाशक्ति यावतो. प्रयोयकररो सामध्यंमस्ति 
तावसप्रमाणौ प्रयोक्तज्यौ । माघुयलाभात्‌ । युज्तितः संयोगाल्लकारं द्िस्विर्वा प्रयुञ्जीत 
वर्ग्यास्तु पञ्चभ्य. ऊध्वंमधिकं न कदाचनापि प्रयुश्जीत । माधुयंभङ्खप्रसद्खादित्ययंः. 

एतदुदाहरसमाह - | क. 
भरण तरुणि रमरमन्दिरमानन्दस्यन्दिसुन्दरेन्दुभूखि । 
यदि. सत्लीलोस्लापिनि गच्छसि तकि स्वदीयं मे +२२॥ 


प्रनणुरणन्मिमेखलमविरतरिच्चानमंजुमञ्ञीरम्‌ । 

*' - परिसरणमरुणचरणे रणरणकमकारणं कुरुते ।२३।। (युग्मम्‌) 

भति । श्रनण्विति ¦ कश्चित्परमदिला निजदयितगह्‌ ब्रजन्ती वीक्ष्याह भस 
वदं 'स्वभेव हे तरुणि, यदि त्वं निजदयितमन्दिर, व्रजसि पतक्किम्‌ । स्रदीयं परिचरणं मे 
निष्प्रयोजनमेव रणरणकं हृश्याकुलत्व कुरते । श्रानन्दस्यन्दि हषंकारि "सुन्दर रेम्यमिन्दु- 
वन्मुखं यस्याः सामन्त्यते । तथा सल्लीलया सुविलासेनोल्लपितु -वत्रतु -गील्लं यस्याः सा 
चामन्च्यते । तथाइणचरणे लोहितक्रमे । कौटशं परिसरणम्‌ ! श्रनर तार रणन्ती शनब्दा- 
यमाना मरिमेखला रत्नरदाना यत्र तव्‌ ।, तथांविरतं शिञ्जानानि रणन्ति मञ्ञ नि मघु- 
रारि मञ्जीराणि चरणाभेरणानि यत्र ततु । लक्षणं तु स्वधिया सवंमायोज्यम्‌ ॥ 

। च्रथग्रीढामाह | | 
ग्रन्त्यटवर्ग्मुक्त्वा वरग्ययरणा उपरि रेरसंयुक्ताः , 
कपयुक्तरच तकारः प्रोढायां कस्तयुक्तदच ।२४॥ ` 


उदाहरणार्थं - | 
` किसी स्त्री को भ्रयने पति के धर मे जाते देखकर कोई पुदष कहता है:- 

॥ भ्रानन्ददायी चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखवाली ! हावभाव से मधुर श्रालाप 
करनेवाली तथा लाल-लाल चरणों से युक्त हे घर्णि! जब तुम जोर से बजती हुई मरियथों 
को कांची का शाब्द करती हई तथा सुन्दर तुपुरों की सधुर-मकार के साथ प्रपने पति-पृह 
मे प्रवेश करती हो, तव म जाने श्यो श्रकारण ही भेरा हृदय उत्कंठवश श्रातुर हो 
उशता है । २२.२३) 

भरौढा बुति में वगो के प्रन्तिम.वरणो (डः; एा०न्‌म्‌) प्रौरःटवर्गं को छोडकर 
शेष ष्यं (स्पर्शं वां) तथा य भ्रौर ण ये ब्रभी)रकारके सायं श्रये कौ नोर संयुक्त रहते 


४४ ` कान्धालकारः कारिका २५-२६ 


प्रन्तयटवर्मानिति । प्रौढां . वृत्ती वर्ग्याः कादथो यकारणकारौ 'चोपरिभगे 
रेफेण संयुक्ता भवन्ति 1 कि कुत्वा । श्रन्त्यान्‌ उन्णनमान्‌ टवं च भुक्त्व विहाय । 
तथा ककारपकाराभ्यामूपरिभागे तकारश्च `युक्तो भवति. 1 चः समृश्चये । तथा 
कृकारस्तकारेणोपरिभागे संयुक्त इत्यथः ॥ 

त नद्युदहरच्‌-- 

कार्याका्यमना्यंरू्मागेनिरगेव गेलन्सतिभिः । . _ ,. : 

ताकण्येते विकणय क्तोकितिभिस्क्तमुक्तमपि ॥२५॥ 


का्यकिार्यमिति । येऽनार्या श्रविष्टा उन्मार्गे क्रुमागे निरंला निरड. कुशाः 
स्वच्छेन्दा इत्यथ । तथा गलन्मतयो नदयद्र ढयः । विकरण ,जड स्तैरेवंभतंः कारयाकायं 
हितादितमुधतमूक्तमपि पुनःपूनभंशितमपि नाकण्यंते न -श्र.यते । कौरुक्तमित्याह- युक्ता 
संगता . उवित्वंचनं येपां तेः 1 पयुक्तक्रारस्य तयुक्तककारस्य च स्वमुदाहुरण 
द्रष्टव्यमिति । एपा वृत्तिरन्यंरोज इत्युक्ता । ध 4 4 


श्रथ पर्षामाह- ˆ - ` | । ४ 
स्वेरुपरि सकारः . सवं रेणोभयत्र संयक्ताः । _ , . . 


एकन्नापि हकारः. परुषायां सवेधा च. रषौ ॥२६।1. 
सर्वैरिति । परूपायां वृत्तौ सर्वगत रनुव्त॑स्च वणंरूपरिभागे - सकारो युक्तो 
भवति । तथा सरवे वर्णा उक्ता अनुक्ता रेफेणो भयत्रोपयंधौभागयो" पययिण पुगपट्ा 


ह । इसके श्रतिरिक्त इसमें त का -संयोगे कश्रौरप्‌ के साय [श्रनि की श्रोर] रहता 
है ( जैसे युक्त, - गुप्त. रादि), तथा कका. संयोग के साथश्रागे की श्रोर रहता है 
(जसे सत्कार श्रादि) 1 २४। 


अदाह्य ~ ~. 
| सुन्दर -युक्तियों हारा. उपदेवा देने वाले विद्रानों कै बार-बार कह्ने पर भी 
श्रनायं, स्वेच्छाचारी, नष्ट एवं जडबुद्धि लोग श्रयने हित. भौर श्रहित कौ बात नहीं 
शुनते ।२५। _ 

पुरुषा वत्ति.में सकार सव वर्णो के साथं श्राणे "क्री श्रोर संयुक्त रहता है (जसे 
लिप्ता, कुत्सित श्रादि) । सभी वएं रकार के साय दोनों रूपो मे पहले श्रथवा बाद में 
युक्त रहते हैँ (जेसे-कर्भ, क्रम श्रादि), रके साय हु का प्रभोग एक ही श्रोर होता है- 
ऊपर या नीचे । जसे श्रः हीं श्रादि) तयाश्श्रीरष का प्रथोग- सवं प्रकार से 
्ोता है [ जसे परामर्श, श्र श्रादि 1 1२६ 


कारिका २७-२८' +, ` द्वितीयोऽध्यायः ४५ 


यक्ता भवन्ति । तथा हकारो रेफेणौकत्रोपयं धो वा युक्तो भवति । अपि शब्दो नियमार्थः । 
एकतवेतययः । शकारषकारौ च सवथा सर्वेण प्रकारेण । रेफेणान्य॑र्ा युक्तावसंगुक्त 


वे न, < # ४ † # “न. र + & 
ति सवथान्दाथं र्थं; ॥| 
(प शुन ~: == प" क भ 4 ट 4 (५ # ॥ + ष्ट । [न १) कग “४ न ( ५ न 


उदाहरखम्‌-- ˆ ˆ ˆ: ` 

लिप्सून्सर्वान्सोऽन्तत्रह्योच ब्राह्मणेव्रु तः प्यन्‌ । ` ' 

जिद्टव्यग द्यं बहिःरेषरायः कोषरून्यः सन्‌ ॥२७॥ 

लिप्पूनिति । कश्चिन्मेहासत्वो दत्तसर्वस्वोऽत्र वण्यते ।, स महासत्त्वोऽन्तमध्ये 
निह ति लज्जते । कि कूवन्‌ । पदन्‌ । कान्‌ । लिप ल्लन्धुकामान्‌ सर्वायाचकातित्ययं :। 


कीश । वतः परिगतः । कैः ब्रह्मोवेदपारभ॑र्राह्यणं. । पूनः कोहेक्‌ । भगह्य परशस्तो 
यो बहिदंभः स एंयं -शेषमव॑रितिं ते शेते यं; तन्मात्तघने इत्यथः । लक्षणएयोजना 


व्य्‌ कार्या | । गि [ , + ) कै र [१ च ॥, | | [  . ५५ क. ९ कि क, 1, ॐ 7 "ना 2 भे 
{94 + ध 1 टै ड ^ = क ‰ $ ४ 
1 1 


“~~. „12: ग 
त्रथास्य्राः सर्वत्र प्रयोगनिवारा्थमाह --- ~ „=! & 
, - परुषाभिधायिवचनादनुकरणाच्नापरतर नो परुषाम्‌ } 
„ . रचयेदथागतिः --स्यात्तत्रापि..-्ादयो. हेयाः ॥ र्ठ! : ;.. 
,-: -- -परुषेति, ।->प्परुषाभिधायिवचनानचनिष्टुरत्वप्रतिपादनपरगिरोऽनुकरणाचास्यत् 
परुषां वृत्ति न रचयेत्‌ ।;्रथागतिशंत्यन्तराभावः स्यातु, तत्रापि हादयो हियास्त्याज्याः । 
अत्थ.त प्ररुषत्वात्‌ । केवलं शपादिप्रयोगः कायं ॥। 


[सर्व्वदाने क्रते, कै -यक्नात्‌ ] राज्य-कोष के .सिक्ति हो जाने पर पवित्र दभ- 
शय्या पर शयन ,करने. नाले . महाराज.वेदन्न ब्राह्यणो दारा-धिरे हुए. भ्रोर धन की 
कामना से श्राये हए सब याचको को देलकर मन-ही-मन लज्जा भ्रनुभवं करं रहे हैँ ।२७। 


पुरषा वृत्ति का भ्रयोग कटोरता-सुचक वचनो में श्रथवा एेसे वचनो के श्रनुकरण 
मे करना चाहिए श्रन्य प्रसगों मे नहीं । यदि किसी रचना मे गति (प्रवाह) का श्रभाषं 
उपस्थित होने लगे तो ह श्रादि वणा का त्याग कर देना चाहिए 1 (हण क्ष, 
वे कां व्रयोग.किया जा सकता है 1)-1२८। ` ` ~ । 

लिता वत्ति मे .घष्यं मर श्रौर स काभ्रयोगहोताहै श्रौर वे -लघु होने 
चाहिएं ! इसमे 'ल' का प्रयोग किसी वणं से श्रसयृक्त रूप मे होना चाहिए 1 - ˆ ˆ"? 
" , ^ व्र वरेति मे -उक्त चारों; दृततियों के वणो से शेष वचेः दए बु का धृथक्‌ 


तृतीयोऽध्यायः ' ` * + ` 
} अथेदानीं यमकलक्षेरमाह- ` | # 
- > तुल्यश्रृतिक्रमागामन्यार्थानां मिथस्तु वर्णानाम्‌ । ` 
पुनरावृत्तियेमक प्रायश्छन्दांसि विषयोऽस्य ।।१\ 
तुल्येति । पुनरावृत्तिः पुनेख्वारण वणनिा तदयमकम्‌ । कीटशानाम्‌ । तुल्या 
समाना श्वृत्ति श्रोत्रेन्धियोपलच्धि. क्रमस्च परिपाटी येषाम्‌ श्रृतिग्रहणाद्यत्र वणं विकारेण 
पत्वरत्वादिना वपृष्टा वपृस्ता इत्यादौ तथा पुनगंता पूना . रौतीत्यादौ च . सत्यपि कृमे 
तुल्यश्न्‌ तित्वाभावस्तत्र यमकत्वनिरासः । करमग्रहण।स्रतिलोमानुलोमसवंतोमृदरानुभ्रासा- - 
दीनां यभकत्वनिंरासः । नहि तेषु तुल्यश्च तिसदुभावेऽपि तुल्यक्रमो विद्यते । . मिथोऽन्या 
थानां परस्पर भिन्नार्थनिाम्‌ । इत्यनेन तु पूनरुकतस्य यमकृत्वव्युदासः । यथा- 
“ श्रो रूपमहो रूपमहो मुखमहो मुखम्‌ । 
 श्रहो कान्तिरहो कान्तिस्तस्याः सारङ्ुःचक्ष्‌ षः ॥ 


इत्यादिषु । श्रन्याथनिमित्यत्राथेशब्दः प्रयोजनवाच्यपि । तेनेहापि यमकत्वं 
सिद्ध भवति ।~ - >~ : # +), र 


बिनु म्भितोद्‌ममरतसेन चेतसा निरूप्यमाणं किमपि प्रियावपुः । 
तदेव वराग्थवता विभागशो निरूप्यमाणं किमपि ` प्रिधावपुः 7 ˆ“ 
-‡ ` श्रत्र हि वरणनिाभेकाभिंषेयत्वेऽपि" श्रयोजन भ्रियते ।' श्रस्य च थंमकरस्य प्रायो 


कै 


वाहुत्येन च्छन्दांसि प्यं विषय. । प्रायोग्रहणादूं ग्य मपि क्वापीति ।॥ ` ` “ 
तृतीय श्रल्पाय र # `~ ५“ ध 4 = ५ + + > 


द्वितीय अध्याय मं दा शब्दालंकारो--ककोक्ति च्रौर ्रनुग्रा् का निरूपय क्रिया 
गया था | इस च्ध्याय मे यमक का निरूप्‌ मरसतुत हे | 
(* ४.) 


दस श्रध्याय मे यमक का लक्षण प्रस्तुत करने के उपरान्त इसके भेदोपभेदो पर 
प्रकारा " गया ह, जिनका विवरण इस प्रकार है- 


कणिक 
एः 


# 1 
[ , । 


कारिका १ | तृतीयोऽध्यायः ४६ 


पहर यमक के दो भेद किये गये है- 

(क) समस्तपादज ओौर (ख) देशज । 

(क) इनमे से समस्त पादज के तीनं भेद है-पादाघृत्ति, अर्दावत्ति ओर इलोका- 
धत्ति 1 इनमे से पादाश्रत्ति के पहर तीन भेद है-- मूख, सदश ओौर आवृत्ति । फिर इसके 
दो अत्य भेद है-गभेयमक भौर सदष्टक । फिर दो अन्य भेद--पुच्छ ओौर पक्तिः 
ओौर फिर दो अन्य भेद-परिष्रेत्ति ओौर युग्मक । इस प्रकार पादावरृत्ति समस्तपादज 
यमक के कुल € भेद हुए । 

अर्द्धाध्रृत्ति समस्तपादज का दूसरा नाम समुद्गक! है ओर इलोकाष्ृत्ति का 
दूसरा नाम महायमक । 

इस प्रकार समस्तपादज यमक के कुर ११ भेद हुए । (३।१६) 

(ख) "एकदेराज यमक" के अनेक भेद सम्भव है 1 उदाह्रणार्थ-चारो पादो 
के प्रथम अद्धेभाग की दूसरे पादो मे पारस्परिक आभरृत्ति! इस प्रकार 'एकदेशजः के 
स्थर रू्पसे २०भेददहोजाते है। (देखिए ३।२०-२१) 

इसी प्रकार एक पाद के अन्तिम अद्धं भागकी किसी अन्य पाद के प्रथमाद्धं 
रूप मे आचृत्ति के भी भेद गिनाये गये है । इस आधृत्ति का नाम “अन्तादिकः है । इसके 
दो भेद व्यस्तं ओर समस्त। व्यस्तकेभीदोरूपरहै। (देखिए ३।२३) 1 इस 
प्रकार अन्तादिक यमक के तीन रूप हए । 

अन्तादिक यमक का एक अन्य रूप है--'मध्य यमकः जिसका तात्पयं है- 
द्वितीय पाद के अन्तिमि अद्धं भाग की तृतीय पादके अद्धंभाग मे आधृत्ति। 

मध्य ओर समस्तके योग कानाम वश्' यमक है ओर वश की विशिष्ट स्थिति 
मे योग का नाम चक्रके यमक है। 

इस प्रकार अन्तादिक यमक के ६ भेद हुए--व्यस्त-२, समस्त-१, मध्य-१, 
वश-१, चक्रक-१ । (देखिए ३।३०)} , 

अन्तादिक यमक के अतिरिक्त आद्यन्तक' यमक भी माना गयाहै। इसके भी 
अन्तादिक के समान छः भेद है । (३।३३) 

त १ अतिरिक्त अद्धैपरिवृत्ति, पादसमुद्गक दो यमक ओर माने गये है । 
पादस्समुद्गक के चार भेद है--अन्तरित, अनन्तरित, व्यस्त ओर समस्त । इनमे 
से अन्तरित ओर अनन्तरित के ५-५ भेद है, व्यस्त के ४ तथा समस्त का १ भेद है। 
इस प्रकार पादसमुद्गक के १५ भेद हुए । (३।३६) 
इनके उपरान्त पाद के चतुथं अश्च की आघरृत्ति के आधार पर यमक के निम्नोक्त 
तीन रूप निदिष्ट किये गये है-- वक्त थमक, रिखायमक ओर मालायमक (३।४०); 


1 


४६ ' कान्यालद्कुारः [कारिका २६.३१ 
ललितभद्रयोलैक्षरमाह- | | 
लचितायां घथभरसा लघवो लदवापरेरसंयुक्तः ! 
परिलिष्टाभद्रोयां पृथगथवा श्रन्यसयुक्ताः ।२९। 


ललितयाभित्ति । ललितया. वत्तौ घकारधकारभकाररेफसकारा भूवति । ते च 
लघवो न गुश्वः । तथा लकारल्वापरैर्वणंर संयुतः । श्रात्मना तु भवेदिति । भद्राया तु 
वृत्तौ परिकिष्टा वु तिचतुष्टयोपयुश्तवणंशेपाः 1 ते च पृथगसंयुक्ताः सन्ति । युक्ताः 
श्च (द्रवन्ति तदा श्वव्यैः श्र तिसुखैरयोज्या इति ॥ 

ललितीदाहरणमाह- | 

मलयानिलललनोत्ललम दकलकलकण्ठक्लकलललामः \ 

मधुरमधुविधुरमधूपो मधुरयमधुना धिनोति धराम्‌ ।{३०॥ 
मलयेति । भयं मधुरं सन्तोऽधुना घरां पृथ्वी धिनोत्ति प्रीरयति । किंभूतः । 
मनयानिलस्य मलंयवायोयंल्ललनं गमनं तेनोत्ललाः सोत्कण्ठा मदकला मदमधुरा ये कल- 
कण्ठा कोकिलास्तेषां य. कलकलः कोलाहलस्तेन ललामः श्र ष्ठः । श्रथवा स एव ललामो 
धवरजो यस्य स तथा । श्रन्यच मधुरेण मधुना मकरन्देन विधुरा मत्ता भ्रमरा यस्यस 

तथा । ग्रत्रान्ये उदाहूताः । घभप्तानां स्वयमृदादरणे द्रष्टन्यम्‌ क 


मद्रोदाहरसमाह - 
उत्कटकरिकरटतटस्परीटपाटनसुपटुकोटिभिः कुटिलैः । 
सेलेऽपि न खलु चखरेरु्लिखति हरिः खरराखुम्‌ ॥३ १ 


अर्थात्‌ श्रसंयुक्त सूय सं प्रयोग होता ह । यदि वे संयुक्त रूप से प्रयुक्त कपे गते है तो 
षस र्पसेकिवे श्र ति-पुखद प्रतीत हो ।२९। 


दक्षिरा दिशां शी शीतल एवं सुगन्धित वायु के चलने सं - उत्तडा भौर मदङ 
वं कोयलो के मधुर श्रालाप से रमणीय, तया मधुर पुष्प रस-यान से मत मर्थो तं 
युक्त यह वतन्ते अद पुय्वी को पुलकित जना शहा है 1३० 


तो श्रप्रभाष वाले श्रयते मयातक एवं कठोर नानो -ते कुन्ति -हस्तियो के 


[8 


कपोलों को काडने वाला सिह केलमें भी कमी चहेके मृदु शरीर को धिवीणं नहीं 


, करिका ३०-६२ द्वितीयोऽध्यायः ५७ 


उत्कटेति । हरिः सिह न खलु नेव सेलेऽपि क्रीडायामप्याखुः भूषकमूत्लिखति 
विदारयति नखः । कीटः । उत्कटा हढा ये करिकरटतटा द्विपगण्डस्थलानि तैषां 
यत्स्फुटं प्रकटं दारण तत्र-सृुष्टु पदटदंक्ना कोटिरर येषा तैः । तथां कुटिलैरतरृजुभिः 
खरस्तीक्ष्णंः । श्रत्र कटखाः केव ता केवलाः पूर्वत्र न प्रयुक्तां इति परिशिष्टत्वम्‌ ॥। 
त्रथाभ्यायमुपसंहरन्यथेतः वृत्तयो रचिता रमया भवन्ति तथाह-- 
एताः प्रयत्नादधिगम्य सम्थगोचित्यमालोच्य तथा्थसंस्थम्‌ । 
मिश्राः कवीन्द्रं रघनात्पदीर्घाः कार्या मुहुर्चेव गृहीतमुक्ताः।।३२॥ 
एता इति ! एता पूर्वोक्ता वृत्तय. कवीन्द्रं : सुकविभि्मिधाः परस्परान्तरित 
कार्या. । कि कृत्वा । भ्रधिगम्य ज्ञात्वा प्रयत्नात्तात्प्ेण । कथम्‌ । सम्यगविपरीतम्‌ 1: 
तथा -परौचित्यम्थसंस्थं पात्रगतमभिवेयगत चालोच्य विमृश्य । कौहर्यः सत्यो भिश्ना 
कार्या इंत्ाह--ग्रघनाल्पदीर्घा. । अधना श्रसंहताः । वृत्तौ पृत्तिनिरन्तरलग्ना न 
कार्या । यदि वा श्रघना श्रसंयोगाक्षरा. । एवंविधा अ्र॑प्यल्पदीर्घा. कतंव्वाः । एकैव 


` वृत्तिरत्यन्तमायता न कार्या यदि वा श्रल्पानि दीर्घाणि दीर्घाक्षराणि यास्विति योज्यम्‌ । 


एवेविवा ` श्रप्यलकारान्तररहिता उद्रगकारिण्य. श्रतु.खणा स्य॒रिष्याह- कार्यां मुहु 
पुनश हीतमुताः । मृहु्मोजितग्यः कर्तंव्यश्चानुप्रासर इति ॥ 


इति श्रीरुद्र कृते कान्यालद्ारे नमिखाधूविरचित्तटिप्पणसमेतो 
द्वितीयोऽध्यायः समाप्त. । 


। , । रे 


करता \२१। 


इस प्रकार सुसज्जनों ` द्वारा इन दुत्तियो को प्रयत्नपुवेक समभकर, इनके 
[पात्रगत] श्रौचित्य की तथा श्र्थेस्थ श्र्थात्‌ श्रभिधेयायं कौ श्रचुकलता को देखकर 
इनक! प्रयोग कहीं भिधित श्र्थात्‌ परस्पर संयुक्त स्य से, कटौी- श्रत्प- तथा, कहीं 
दो स्प सं करना चाहिए, तथा कहीं इनका प्रयोग ` करके फिर छोड देना चाहिए 
जिससे निरूपर-शंली एव सूपता न रहे \] १३२1 


\ , ` इति श्रंशुप्रमाऽऽख्य हिन्दी-व्याख्याया, द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः । - 


न्प ॐ 


{४4 +. 12 { 2 ४ 6 १ 


५. ५ त = 
+ | ¶ 


` तृतीयोऽध्यायः ` ` . ` ४; 

, ,प्रथेदानीं यमकलक्षखमाह - म 

5; तुल्यश्रुतिक्रमाणामन्यार्थानां मिथस्तु `वर्णानाम्‌ । `` ` 
पुनरावृत्ति्येमकं प्रायदछन्दांसि विषयोऽस्य ।१॥ ` ” 


तुल्येति । पूनरावृत्तिः पृनरुचारणं वर्णना तदयमकम्‌ । कीटशानाम्‌ । तुल्या 
समाना श्रत्ति: श्रोत्रेन्ियोपलन्धि क्रमङ्च परिपाटी येषाम्‌ श्रतिग्रहणादय्त्र वणंविकारेण 
पत्वरस्वादिना वपुष्टा वपुस्ता इत्यादौ तथा पुनगंता पूना सौतीत्यादौ च , सत्यपि क्रमे 
तुल्यभ्र्‌ तित्वाभा वस्तत्र थमकत्वनिरासः। करमग्रहण।त्रतिलोमानुलोमसवतोभद्रानुप्रास्ता- - 
दीनां यमकत्वनिरासः । नहि तेषु तुर्यश्र तिसद्भावेऽपि तुल्यक्रमो विद्यते । मिथोऽन्या 
धनिां परस्परं भिन्नाथनिाम्‌ । इत्यनेन तु पुनरुवतस्य यमकत्वव्युदासः । यथा- 
ग्रहो रूपमहो रूपमहो मुखमहो मुखम्‌ ।. .. 
भ्रहो कान्तिरहो कान्तिस्तस्थाः सारङ्खःचक्ष षः ॥ 
इत्यादिषु । भ्रन्यार्थानामित्यत्राथेशन्दः प्रयोजनवाच्यपि । तेनेहापि यमकष्वं 
सिद्ध ,भवति ।- ~~ 7. 4 


विनृम्भितोद्‌मरसेन चेतसा निरूप्यमारं किमपि प्रियावपुः । +. ` ` ` ` * ` 
, तदेव वराग्यवता विभागशो निरूप्यमाणं फिमपि भरियावपुः 1 ` 


` अत्र हि वणनामेकाभिधेयत्वेऽपि प्रयोजनं भिथते । श्रस्य च "मकरस्य प्रायो 
वाहृत्येनं च्छन्दांसि पद्य विषयः । प्रायोग्रहंणेएद्‌ गे्मपि क्वापीति ।॥ ` “` ` 


|) 


पणि ी्कषषष णी णी पो क ः  ऋकककयकमक । 
भै 


तृतीय श्रध्याय. ८ ए“ नग" 
द्वितीय च्रन्याय में दो शब्दालंकारो--वकरोक्ति च्रौर श्रनुप्रास करा निरूप्‌ किया 
गया था | इस च्रध्याय मँ यमक क्रा निरूपर्‌ प्रस्तुत हे | 
(९) 


इस श्रध्याय मे यमक का लक्षण प्रस्तुत करने के उपरान्त इसके भेदोपभेदो पर 
प्रकार हाला गया है, जिनका विवरण इस प्रकार है- 


(न 


 ः मे व 


णर 0 00 क ११ १] = 


[१ ह~ । [, हि + +) 9 1) 


# सि ^ ++ 0 


[1 न । मीर) ^ जीद कच तो “क = 9 ~ ॥ > १ [1] 0.8 7, ए, , । 
# 1 
1) 1 


१० 


कारिका १ | तृतीयोऽध्यायः ४६ 


पहर यमक के दो भेद कयि गये है- 


(क) समस्तपादज ओर (खे) देडाज । 

(क) इनमे से समस्त पादज के तीनं भेद है पादाशृत्ति, अद्धचरत्ति ओौर इलोका- 
यत्ति । इनमे से पादाश्रत्ति के पहर तीन भेद है--मुख, सदश ओौर आघृत्ति । फिर इसके 
दो अन्य भेद है-गभेयमक ओर सदष्ट्क । फिर दो अन्य भेद-पुच्छ ओर पक्ति, 
ओर फिर दो अन्य भेद-परिश्रत्ति ओर युग्मक । इस प्रकार पादाधृत्ति समस्तपादज 
यमक के कुल & भेद हए । 

अर्द्धावृत्ति समस्तपादज का दूसरा नाम 'समूद्गक' है ओर रलोकाघृत्ति का 
दूसरा नाम महायमकं ! 

इस प्रकार समस्तपादज यमक के कुल ११ भेद हुए । (३।१६) 

(ख) 'एकदेशज यमक" के अनेक भेद सम्भव है । उदाहरणा्थ-चारो पादो 
के प्रथम अद्धंभाग की दूसरे पादो मे पारस्परिक आधृत्ति।! इस प्रकार एकदेशज' के 
स्थूल खूप से २० भेदहो जाते है) (देखिए ३।२०-२१) 

इसी प्रकार एक पाद के अन्तिम अद्धं भाग की किसी अन्यपादके प्रथमाद्धं 
रूप मे आवृत्ति के भी भेद गिनाये गये हँ । इस आभ्ृत्ति का नाम (अन्तादिके' ह । इसके 
दो भेद है-- व्यस्त ओौर समस्त व्यस्तकेभीदोरूपटै 1 (देखिए ३।२३) । इस 
प्रकार अन्तादिक यमक के तीन रूप हए । 

अन्तादिक यमक का एक अन्य रूप है---"मध्य यमक' जिसका तात्पयं है-- 
द्वितीय पाद के अन्तिम अद्धं भाग की तृतीय पादके अद्धेभाग मे आधृत्ति। 

मध्य ओर समस्तके योग का नाम "वश" यमक है ओौर वश' की विशिष्ट स्थिति 
मे योग का नाम चक्रक यमके है। 

इस प्रकार अन्तादिक यमक के & भेद हुए--व्यस्त-२, समस्त-१, मध्य-१, 
वरा-१, चक्रक-१ । (देखिए ३३०) 

अन्तादिक यमक के अतिरिक्त आद्यन्तक' यमक भी माना गयाहै 1 इसके भी 
अन्तादिक के समान छः भेदं है । (३।३२) 

( 0 अतिरिक्त अद्धंपरिषृत्ति, पादसमुदगक दो थमक ओर माने गये हे । 
२४ 

पादसमुद्गक के चार भेद है--अन्तरित, अनन्तरित, न्यस्तं ओर समस्त ) इनमे 
से अन्तरित ओौर अनन्तरित के ५-५ भेद है, व्यस्त के ४ तथा समस्त का १ भेद है, 
इस प्रकार पादसमूद्गक के १५ भेद हुए । (३।३६) 

इनके उपरान्त पाद के चतुथं अश की आध्रत्ति कै आधार पर यमके के निम्नोक्त 


तीन रूप निदिष्ट किये गये है--वक्तर यमक, शिखायमक ओौर मालायमक (३१४०); 


1॥ 


५० काव्यारुङारः [ कारिका १ 


पुनः ये तीन भेद ओौर- मध्ययमकं, आद्यन्त यमक ओौर काञ्ची यमकं 1 (३।४४) 
किसी एक पाद के त्रृतीयाश की आश्रृत्ति के आधार पर यमक के दस भेद हीते 
दै, ओर यही आपस मे आघ्रृत्त होकर ३० प्रकार के वनं जाते है । (३1४८, ४६) 
आयन्त ओर अन्तादिक के छ.-छः भेदो के अतिरिक्त एक एेसा अन्य भेद है- 
अयेपरि धृति \ इस प्रकार ये कुर १३ भेद हुए \ इन तेरहौ के भी अर्द्धं भागोकी 
आभ्रृत्ति करने से करई भेद वन जाते ह । (३।५१) 
स्थान के आधार पर यमक के तीन्‌ अन्य भेद भी सम्भव है-आदिमध्य, 
आद्यन्त ओौर मध्यान्त । (३।५२) ओर अन्तत. एक भेद ओौर-जिसमे पाद के किसी 
अवयव का स्थान नियत नही होता । (३।५६) 
इस प्रकार रुद्रट ने यमक की अनेक चमत्कतियो की चर्चा करने के उपरान्त 
इस अध्याय के अन्तिम इलोक मे इनके प्रयोग की विधि का निद कियादहै। 
६.2. 4 
स्द्रट से पूवं भामह ने यमकं के पाँच भेद गिनाये है--आदिं यमक, मध्य 
यमक, अन्त यमक, पादास्याप्त, आवली ओर समस्तपाद यमक । भामह के कथनानूसार 
सन्दष्टक, समुद्गक आदि अन्य यमक-पकार इन्दी पचो मे अन्तर्भूत हो जाते है, इन्हे 
स्वतन्त्र नही मानना चाहिए 1 (कान्यांकार २।६,१०) 
भामह के उपरान्त दण्डी ने यमके के दो प्रमुख भेद माने है-अन्यपेत ओर 
व्यपेत } ये दोनो एक, दो, तीन अथवा चारो पादो के आदि, मध्य ओर अन्त के अति 
रिक्त मध्यान्त, मध्यादि ओर आद्यन्त मे घटित होने कै कारण अनेक प्रकारके है। 
(काव्याद ३।१, २, १६, ३३) । इनके अतिरिक्त दण्डी ने “इलोकाभ्यास' नामक 
यमक भी निदिष्ट किया है, जिसमे एक ञ्छोक की पूर्णत आवृत्ति की जाती है (३।६७)। 
यमक का एकं आर रूप है--“महायमकः ! (३७०) इनं सव के विपरीत यमक का 
एक ओौर सरूप भी दण्डी ने माना है- प्रतिलोम । (३।७३) 
टण्डीके ही अनुरूप वामन ने भी यमक-भेदो को निम्नोक्त रूप मे प्रतिपादितं 
किया है--एक पाद का यमकः; एक, दो, तीन अथवा चारों पादो के आदि, मध्य ओर 
अन्त भागो का यमक । (का० मू० व्‌० ५।१।२)। इसी प्रसगमे वामन ने यमक-भग 
कीभीचर्चाकीहै। इसे उन्होने तीन प्रकार का माना है-भ्युःखला, परिवर्तक ओर 
चूर्णा । (४१४) 
भामह, दण्डी ओौर वामन के इन यमक-भेदो पर आपातत दृष्टिपात कटने से 
ज्ञातदहोजातादहै किरद्रटने उक्त सभी ग्रन्थौ से साधात्‌ अयवा असाक्षात्‌ रूपसे 
सामग्री यहण की है, किन्तु इनका यमक-प्रकरण उनकी अपेश्ना पर्याप्त रूप से परिः 
वद्धित एवं व्यवस्थित है । 


कारिका १ | तृतीयोऽध्याय ५१ 


५ 
अव विवेच्य प्रश्न यह दहै किक्याये सव भेदोपभेद-चक्त ग्राह्य टै? काव्य 
सौन्दयं के दो पक्ष स्वीकृत किये जाते है-- बाह्य ओर आन्तरिक । वाह्य कान्य-सौन्दयं के 
अन्तरगत अनुप्रास, वक्रोक्ति, ररेष ओर यमक नामक शब्दाक्कारो, पुनरुक्तवदाभासः 
नामक उभयाककार का चमत्कार आता है ! उपमा, रूपक, दीपक आदि अर्थारुकार भी 
निस्सन्देह बाह्य सौन्दयं से सम्बद्ध है, किन्तु उनमे आन्तरिक सौन्दर्यं भी कम नही है । 
रस ओर ध्वनिगत सौन्दयं वस्तुत. काव्य का एेकान्तिकं आन्तर्कि सौन्दयं है । अर्था- 
लकारो का सौन्दयं रस-ध्वनिगत सौन्दयं का परिवद्धंक है, ओर केवर इसी स्थिति मे 
ही वे मान्य है- 
(क) रसभावादितात्पयथंमाभित्य विनिवेशनम्‌ । 
अलक्तीनां सर्वासामलकारत्वसाधनम्‌ ॥ 
--हिन्दी ध्वन्यालोक, प्रष्ठ १२२ 
(ख) ध्वन्यात्मभूत्डु गारे समीक्ष्य विनिवेशतं. । 
रूपकादिरलकारवगं एति यथार्थताम्‌ ॥ 
ध्वन्यालोके २।१७' 

(क) सभी अककारो का अककारत्वे इसी तथ्यमेदहैकिवे रस, भाव आदि के 

तात्पयं के आधित होकर रहै-वे रसं आदि का अग बनकर रहे। 

(ख) रूपक आदि अर्थाककारो की यथार्थता इसीमे है किं कवि इन्हे अपनी 
 समीक्षा-बुद्धि दवाय काव्य की आत्मा ध्वनि [पर आधित] श्छ गार [आदि रसो] के 
आधित रूप मे वणित करे । 

इसका तात्पर्यं यह्‌ कि अकार रसो के उपकारक रूपमे ही वणित हो। 
उनके अग बनकर रहै, स्वतन्त्र रूप मे वणित न हो- 
उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽद्खह्ारेण जातुचित्‌ । 
हारादिवदलकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ॥ का० प्र० ८।६७ 
राब्दारकारो की, विदोषत. विवेच्य अककार यमक की, यथार्थता के सम्बन्ध मे 
संस्कृत का कान्याचायं प्रारम्भ से सतकं रहा है । उन्होने उक्त चार शब्दालकारोभमेसे 
चित्र' अलकार को सर्वाधिक हेय माना है, ओर इसके उपरान्त इस दृष्टि से क्रमश. यमक 
मौर अनुप्रास को । ^केष" की हेयता पर विशिष्ट रूप से वल नही दिया गया ! इसका 
एकं मात्र कारण यह्‌ है किं इस अकार मे उपमेय ओर उपमान दोनो का साम्य दिकृष्टता 
के आधार पर पाठक के हृदय मे कुछ चमत्कार अवश्य उत्पन्न कर देता है 1 अस्तु, 
अनुप्रास ओर यमके के सम्बन्धं मे विभिन्न आचार्यो के कतिपय कथन उल्रेखनीय है-- 
१. दण्डी ने केवर दो शबव्दालकारो--अनूप्रासं ओौर यमकं का निरूपण किया 


& 


५२ ` कान्याकद्धारः | कारिका { 


दै जीर दोनो को समादर की टृष्टि से नही देखा 1 उनके कथनानुसार अनुप्रास का अर्थ 
रौधिव्य है, ओर यह्‌ शप" नामक गुण के अभाव का दूसरा नाम है। गौड मा 
(जा कि वदभ मागं की अपेक्षा निकृष्ट मां है) के अवलम्वी ही इसे अपनाते है 
-क० द० १।४३,४८ 
यमक के सम्बन्ध मे उनकी धारणा है कि उसका अकेला प्रयोग मधुरत्राजनक 
नही होता-"तत्तु नंकान्तमधुरम्‌' --का० द० १।६१ 
२. आनन्दवद्धंन ने यमक आदि गन्दाकुकारो की अपे्नाकृत हीनता प्रवल न्दो 
मे व्यक्तकीदहैं: 
ध्वन्पात्मभूतश्यु गारे यमकादिनिनन्धनम्‌ । 
शक्तावपि प्रमादित्वं विप्रलम्भे विशेषतः ॥ 
| >८ > >< यमके च प्रवन्धेन बुद्धिपूर्वकं क्रियमाणे नियमेनैव यत्नान्तरपरिग्रह भापतति 

दाब्दविहेषान्वेषगरूपः ! >< > > 

अप्रथग्यत्ननिर्वत्यैः सोऽलंका रोध्वनौमतः । यत्तु रसवन्ति कानिचिद्‌ यमकादीनि 
दृश्यन्ते तत्र रसादीनामद्धता, यमकादीनान्त्वंगितैव । ध्वन्या २।१५,१६ तया वृति 
अर्थात्‌ व्वन्यात्मक श्चुद्खार मे यमक आदि का निवन्ध कवि के प्रमाद का सूचक टं। 
काव्य मे अख्कार का प्रयोग अप्रयत्नज होना चाहिये, पर यमक-निवन्यन के ल्य तो 
कृवि को विदेष शब्दो की खोज करनी पड़ती है ! सरस रचना मे यमक अलकार र 
कोअगवनादेता है ओर स्वय अगी वन जातादहै। 

३ कन्तक की भी यमक के सम्बन्धमे यही धारणाहै किं यह्‌ शोभागून्य 
अकार है, इसके विस्तरत जाल मे उकलक्नेसेक्यालाभ ? 

स तु शोभान्तराभावादिह नातिप्रतन्यते । --व० नी” २।५ 
सीर स्वय रद्रट भी यमक अकार के प्रयोग के विनेषमे सतकंता ओौर सावधान 
वरतने का आदेय दे रहै है । (देखिये ३।५६) 
यमकं क्रा लक्षय हे 

ठेसे वर्णो की आवृत्ति को यमक कहते है जो घुनने मे समान प्रतीत ह 
जिनका क्रम समान हो किन्तु उनका अथं परस्पर भिन्न हो । 

रुद्रटः के अनुसार यमक का पहला तत्त्व है-समान धरति, अर्थात्‌ उन वरणो की 
आच्रत्ति जौ सुनने मे एक-समान हो, किन्तु यह्‌ विगेषण निरर्थक प्रतीत होता है । स्वय 
"आवृत्ति चव्द ही 'समानश्रुति" तत्तव का सूचक है । नमिसाघु ने "पुष्टा वपुष्ता 
तथा “पुनता पुना सौति" उदाहरण देते हुए कदा है कि इनमे क्रमश. पत्व (स कौ प) । 
पर र्द्व (विसर्गं को र} वर्णविकार हौ जाने के कारण समानश्रुति नही मानी जए 
अत. यहो यमक अकार भी नहीं होगा 1 क्िन्तुरेसे स्यलोमे भी यमके अलंकार 


कारिका १ ] तृतीयोऽध्यायः ५३ 


मानना चाहिए क्योकि यहां वपु" ओौर पुन" वर्णो की अवृत्ति है । वस्तुतः निरर्थक 
वण-समुदाय (शब्दो) की आवृत्ति मे भी यमक मान लिया जाता है यद्यपि रु्रट ने इस | 


भोर कोई सकेत नही किया । । | 
यमकं का दुसरा तत्त्व है वे वणे जिनका क्रम समान हौ, जैँसे-- चक्रं वहतारं 
चक्रन्द हतारमू । यहं तत्तव यमक अख्कार को चित्र अककार के अनुलोम ओौर प्रति- 
लोम नामक भेदो से अरग करता है । इनमे वर्णो की आवृत्ति अथवा समानश्रुति होने 
पर भी समान क्रम नही रहता । (देखिए प्रस्तुत ग्रन्थ ५।१७) 
इस अरुकार का तीसरा तत्त्व है--आवृत्त वर्णो का अर्थं भिन्न-भिन्न हो । 
नमिसावु के अनुसार अर्थ" शव्द से यहाँ श्रयाजनः अयवा (तात्य भी अभिप्रेत है । 


जंसे- 

विजुम्मितोहामरसेन चेतसा 

निरूप्यमाणं किमपि प्रिषावपुः 

तदेव ॒वैराग्यवता विभागको 

निरूप्यमाणं किमपि प्रियावपु. । 
इम उदाहरण मे निरूप्यमाण किमपि प्रियावपुः' वाक्य दो वार अवृत्त किया गया है 
किन्तु दोनो स्थलों पर इसका आकयं भिन्न-भिन्न है । "रसिकं चित्त से देखना-इस पक्ष 
मे श्रियाका शरीर जगत्‌ का सरवो्छष्ट सार है" गह ध्वनित होता है । वे राग्यपूणं 
चित्त से देखना प मे उसे 'अस्थिचर्ममय' मानते हृए उसके प्रति घृणा व्यक्त की 
गयी है । इस प्रकार नमिसाधु के अनुसार इस उदाहूरण मे प्रयाजन की भिन्नता होने 
पर भी यमक अल्कार माना जाएगा, किन्तु परवर्ती आचार्यो ने एेसे स्थखो मे ऊखाटा- 
नुप्रास माना है-- 

शब्दार्थयो. पौनखतयं मेदे तात्प्यमाचतः । 


शकक स्ाटानुप्रास इत्युक्तो >८ > > ॥! 
ह्रणार्थ-- + त 


यस्य न सविधे दयिता दवदहनस्तुहिनदीधितिस्तस्य । 
यस्य च सविधे दयिता दवदहनस्तुहिनिदीधितिस्तस्य ॥! 


-सा० द९ १०म्‌० प्रि० 


त तो हो किन्तु उनमे अथ भिन्न 


अहो कान्तिरहो कान्तिस्तस्या. सारगचध्युषः 1+ 


यहो यहं भी ज्ञातव्य है कि प्राय प्च ही यमक का प्रयोगत दै, गय मे इसका 


क्ट 


५ 


५२. काव्यालद्धुारः { कारिका १ 


है ओर दोनो को समादर की हष्टि से नही देखा । उनके कथनानुसार अनुप्रास का अर्थं 
दोथित्य है, ओर यह्‌ इरेष' नामक गुण के अभाव का दूसरा नाम दहै गौड मागं 
(जा किं वेदभे मागं की अपेक्षा निकृष्ट मागे है) के अवरम्बी ही इसे अपनाते ह | 
--कृा० द० १।४३,४४ 
यमक के सम्बन्ध मे उनकी धारणा है किं उसका अकेला प्रयोग मधुरताजनक 
नही होता--^्तत्तु नकान्तमधुरम्‌' --का० द० १।६१ 
२. आनन्दवेद्धनं ने यमक आदि रन्दालकारों की अपेक्षाकृतं हीनता प्रन शब्दो 
मे व्यक्तकीदहै: 

ध्वन्यात्मशूतभ्य गारे यमकादिनिबन्धनम्‌ । 

शक्तावपि प्रमादित्नं विप्रलम्भे विशेषतः ॥। 
> > >< यमके च प्रनन्धेन बुद्धिपु्वंकं क्रियमाणे नियसेनेव यत्नान्तरपरिग्रह आपतति 
शाब्दविहेषल्वेषणरूपः ! >< >< >< 

अपुथग्यत्ननिवेत्यं सोऽलकारोध्वनौमतः । यत्तु रसवन्ति कानिचिद्‌ यसकादीनि 
हश्यन्ते तत्र रसादीनामङ्कता, यमकादीनान्त्नंगितेव । ध्वन्या० २।१५,१६ तथा वृत्ति 
अर्थात्‌ ध्वन्यात्मके श्यद्धार मे यमक आदि का निबन्ध कवि के प्रमाद का सूचक रहै, 
कान्य मे अलकार का प्रयोग अप्रयत्नेज होना चाहिये, पर यमक-निबन्धन के ख्यितो 
कवि को विशेष शब्दो की खोज करनी पडती है । सरस रचना मे यमक अरुकार रस 
कोअग वना देता है ओर स्वय अगी बन जाता है। 

२३. कुन्तक की भी यमक के सम्बन्धमे यही धारणादहै कि यह्‌ शोभादुन्य 
अलकार है, इसके विस्तृत जाल मे उलञ्लने से क्या राभ? 

स तु शोमान्तराभावादिह नातिप्रतन्यते \! -व० जी० २।७ 
ओर स्वय रद्रट भी यमक अरूकार के प्रयोग के विरेष मे सतकंता ओर सावधानी 
वरतने का आदेश दे रहै है । (देखिये ३।५६) 
यमके करा लक्ष 

ठेसे वर्णो की आवृत्तिको यमक कहते है जो युनने में समान प्रतीत हो, 
जिनका क्रम समान हो किन्तु उनका अथं परस्पर भिन्न हो । 

रुद्रट के अनुसार यमकं का पहला तत्तव है--समानध्रूति, अर्थात्‌ उन वर्णो की 
आन्रृत्ति जो सुनने मे एक-समान हो, किन्तु यह विशेषण निरथक प्रतीत होता है } स्वय 
"आवृत्ति" शब्द ही 'समानश्रुति' तत्त्व का सूचक है । नमिसाधु ने “वपुष्टा वपुष्ता 
तथा 'पुनर्गता पुना रौति' उदाहरण देते हुए कहा है किं इनमे क्रमशः षत्व (स को ष) 
ओौर रत्व (विसर्गं को र) वर्णविकार हौ जने के कारण समानश्नुत्ति नही मानी जाएगी, 
गतः यर्हां यमक अल्कार भी नही होगा । किन्तुएेसे स्थलोमे भी यमक अककार 


कारिका १ | तृतीयोऽध्यायः ५३ 


` सनन चाहिए क्योकि यहं वपुः भौर पुनः वर्णो की आवृत्ति है । वस्तुतः निरेक 
वर्णे-समुदाय (शब्दो) की आवृत्ति मे भी यमक मान लिया जाता है यद्यपि श्रटने इस 
ओर कोई सकेत नही किया । 
यमक का दूसरा तत्त्व है वे वण जिनका क्रम समान हो, जंसे--चक्र दहतार 
चक्रन्द हृतारम्‌ । यह्‌ तत्त्व यमक अलकार को चित्र अलकार के अनुलोम भौर प्रति- 
` लोम नामक भेदो से अरग करता है । इनमे वर्णो की आवृत्ति अथवा समानश्रुति होने 
पर भी समान क्रम नही रहता । (देखिए प्रस्तुतं ग्रन्थ ५।१७) 
इस अलकार का तीसरा तत्त्व है--आवृत्त वर्णो का अर्थं भिन्न-भिन्न हो । 
तभिसराधु के अनुसार अथे" शब्द से यहाँ ्रयाजन' अयवा तात्पयं' भी अभिप्रेत है । 
जसे- 
विनुम्भितोदामरसेन वेतसा 
निरूप्यमाणं किमपि त्रिधावपु. 
तदेव वंराग्यवता चिभागद्रो 
निरूप्यमाणं किमपि प्रियावपुः 1 
इस उदाहरण मे निरूप्यमाण किमपि प्रियावपु." वाक्य दो वार आवृत्त किया गयादहै 
किन्तु दोनो स्थलो पर इसका आशयं भिन्न-भिन्न है । "रसिक चित्त से देखना--इस पक्ष 
मे श्रिया का शरीर जगत्‌ का सर्वोक्क्िष्ट सार है गह ध्वनित होता है। वेराम्यपूणं 
चित्त से देखना पशन मे उसे 'अस्थिचमेमयः मानते हुए उसके भ्रति धृणा व्यक्त की 
गयी है । इस प्रकार नमिसाधु के अनुसार इस उदाहरण मे प्रयाजन की भिन्नता होने 
पर भी यमक अलकार माना जाएगा, किन्तु परवर्ती आचार्यो ने एेसे स्थले मे लाटा- 
नुप्रास माना है- 
कन्दाथयो. पौनर्कत्यं भेदे तात्प्यमात्नत । 
लाटानुप्रास इत्थुक्तो > > > ॥ 
उदाह्रणार्थ-- 
यस्य न सविधे दयिता दवदहनस्तु्हिनदीधितिस्तस्य । 
यस्य च सविधे दयिता दवदहनस्तुहिनदीधितिस्तस्य ॥ 
--सा० द० १० मण प्रि० 
जिन स्थलो मे वर्णो की समन क्रम से आवृत्तितो हो किन्तु उनमे अर्थं भिन्न 
न होकर समान हो वहाँ पुनस्त (अथवा वीप्सा) भरकार मानना चाहिए, जसे- 
अहो रूपमहो रूपमहो मुखमहो मुखम्‌ । 
अहो कान्तिरहो कान्तिस्तस्या. सारगचध्ुष. ॥ 
यहां यह्‌ भी ज्ञातव्य है कि प्राय पद ही यमक का प्रयोगक्षे् है, गच मे इसका 


\ 


भ कन्यालद्धुरः [ कारिका २-४ 


श्रथ परोक्तयमकमेदान्तिरस्यन्स्वाभिमतयमकमेदा्लिक्षयाभिधानायाह- 
पूवं द्विभेदमेतत्समस्तपादेकदेराजत्वेन । 


पादाधंरलोकानामावृत्या सवेंजं त्रेधा |! २॥ 
पूर्वमिति । पूवं मूलभेदाद्यपेक्षया एतद्यमकं द्विभेदम्‌ । केन भेदेनेत्याह--समस्ते- 

त्यादि ! त्र समस्तपादश्च समस्तपादौ चं समस्तपादाश्च व्येकरेष. ! तथा एकदेशश्च 
एकदेदौ च एकदेशश्च ति । समस्तपादजमेकदेशज चेतति भेदद्यम्‌ 1 अत्र च वक्ष्य- 
माणभेदाः स्वेऽप्यन्तर्भवन्तीति पचधा चतुदंरधा चेति परोक्तवचनव्युदास इति । तत 
समस्तपादजग्रभेदानाह्‌- पदार्थेत्यादि । पादावृत्त्या अर्घावृत्त्या श्ोकावृत्त्या च सम- 
स्तपादजं तरेधा भवति 1 

तत्रापि पादावृत्तेस्ताक्द दानाह-- 

पययेणान्येषामावृत्तानां सहादिपादेन । 


मुखसंदंशावृतयः कमेण यमकानि जायन्ते ।1 ३ ॥ 
पययिणेति ! पयधयिण क्रमेणान्येषा दितीयादीना त्रयाणा पादानामादिपदेन सहा- 
वृत्तानां यमकिताना मुखसदंशावृतिसज्ञितानि क्रमेण यथासंख्य यमकानि चीणि जायन्ते 
भवन्तीति ॥ 
तदुदाहरणानि क्मेखाह- 
चक्रं दहतारं चक्रन्द हतारम्‌ । 


खड्गेन तवाज राजन्नरिनारी । ४ ॥ 


प्रयोग विररू एव चमत्कारशरुन्य होता है । 
यमक के मेद्‌ 
यसक अलकार के [प्रमुख ] दो भेद है-- 
समस्तपादज ओर एकदेरज । इनमें से समस्तपादज के तीन भेद है-- 
पादावृत्ति, अर्दादत्ति श्रौर इलोकाचृत्ति ।२। 
पादावृत्ति यमक केभेद्‌ 
इनमे से पादाबृत्ति के तीन मेद हे । प्रथम पाद की शेष तीन पादो मे क्रमिक 
लावुत्ति क्रमशः मुख, सदह आर आवृति कटाती हे । 
अर्थात्‌ प्रमुखं पाद की दितीय पाद में आवृत्ति “मुख कहाती है, तृत्तीय पाद मं 
वह्‌ “संदश्च' कहाती ३ जौर चतुथं पाद मे इसका नाम "आवृत्तिः है 1३1 
मुख का उदाहरण ` 
छ्रन्वय--दै राजन्‌ ! आजौ आरं (रिपुसम्वन्धि) चक्रं (समूह) अर दहता 
तवं खड्गेन हता (गोकं प्रापिता) अरिनारी चक्रन्द ! 


कारिका ५-६ | तृतीयोऽध्यायः ५५ 


चक्रमिति । कश्चिन्तरृपमाह--है राजन्‌, तव॒ सबन्धिना खङ्ग नाजौ रणे आरं 
रिपुसक्त चक्रं समूहमर शीध्रं दहता ध्नता अरिनारी रिपुस्तरी भदैवषेन हता ताडिता 
सती चक्रन्द । क्रन्दितवतीत्यथ । इति प्रथमद्ितीयपादयमक सुखसन्ञम्‌ ॥ 
श्रथ तंदश्चः- | 
सन्नारीभरणोमायमाराध्य विधुशेखरम्‌ । 


सन्नारीभरणोऽमायस्ततस्त्वं पृथिवीं जय । ५॥। 

ˆ सन्नारीति । कश्चिन्तृपस्याशिषमाह--त्व विधुगेखर हरमाराध्य तत. पृथिवी जय । 
कीदृश हरम्‌ 1 सत्यश्च ता नार्यश्च सन्नायंः साध्व्यः स्वियस्ता विभति पोषयतीति सन्ना- 
रीभरण स चासाद्धुमायश्च । उमा पार्वती ता याति गच्छति तया सह्‌ सयुज्यते यस्त 
तथाविधम्‌ । त्व कीदृशः । सन्ता. खिन्ना अरीभा रिपृद्धिपा यत्र स तथाविधो रण. 
संग्रामो यस्य स तथा । पुन कीदृ" । अमायो मायारहित. । सात्विक उत्यर्थ. । अत्र 
प्रथमतृतीयपादयो. सदशनामक यमकम्‌ ॥ 

अथावृतिः-- 


मुदारताडी समराजिराजितः प्रवृद्धतेजाः प्रथमो धनुष्मताम्‌ । 


भवान्बिभर्तीह्‌ नगइच मेदिनीमुदारताडीसमराजिराजितः ॥ ६॥ 


है राजनु ! युद्धक्षे्र मे तुम्हारी तलवार हारा श्ान्नुमण्डल के मारे जाने पर शतु 
पक्ष को स्त्रियां अपने स्वासियों के वध से शोकाकुल होकर करन्दन कर रही थीं !४। 

सस्कृेत पद्य मे प्रमथ पाद की द्वितीय पाद मे आवृत्ति की गयी है, अत. यहां 
(मुख यमक है । 
संदंश करा उदाहरण 

छअन्वय-त्व सन्नारी-भरण-उमाय विधुरोेखरं आराध्य सन्न-अरि-इभ-रणः, 
अमाय [सन्‌ | पृथिवी जय । 

है राजन्‌ ! पतिन्नता स्त्रियों के रक्षक उमा के पति तथा चन्दरहेखर भगवानु 
रिव को आराधना करके आप रणक्षे्र में शश्रुगों के हाथियों को अपने पराक्रमसे 
व्याक्रुल बनते हुए सात्त्विकं भाव से पृथ्वी को जीते ।५। 

यहाँ सस्कृत-पद्य मे प्रथम की तृतीयपादं पाद मे आवृत्ति की गयी है । अत" यहाँ 
"संदंश" यमके है । 
प्रवृतिं का उदाहल्ण 

्न्तय---इह भवान (नगश्च), मुदा-आर-ताडी, समर-अजिर-अजित , प्रवृद्ध- 


तेजा , धनुष्मता प्रथम" [मेदिनी विभति] 1 नगद्च उदार-ताडी-सम-राजि-राजितः, 
मेदिनी विभति । 


५६ काव्यालङ्कारः [ कारिका ७-८ - 


मदेति । कश्चिच्चाटूकङन्तृपमाह्‌--इहं भवास्त्व नगश्चाद्धिश्च मेदिनी भुवं विभति 

पोषयति धारयते च ! कीदृशस्त्वम्‌ ! मुदा हषण, न तु भयेन, आरताडी रिपुसमूहताडन- 
रीलः 1 तथा समराजिरे रणाङ्खणेऽजितोऽपरिभरतः 1 तथा प्रवृद्तेजाः प्रथितप्रताप. । 
धनुष्मता धानृष्काणा प्रथमो मुख्य. । नग. कीदृश. । उदारा उन्नता यास्ताडयस्ताडि- 
वृक्षास्तासा समा अविपमा या राजयः पक्तयस्ताभी राजित शोभितः । इहं चतुथेपा- 
दयमकमावृति्नामि ॥ 

मेदान्तरमाह- 

प्रत्येकं परदिचमयोरावच्या पादयोदितीयेन । 


यमके संजायेते गभं: संदष्टकं चेति ।॥७॥ 
पत्येकमिति 1 पश्चिमयोस्त्रतीयचतुथेपादयोद्वितीयेन पादेन सहावृत्त्या प्रत्येक पृथ- 
ग्यमके संजायेते भवतो गभंसदष्टकसनिते ॥ 
तत्र गभांदाहट्खस्‌- 
यो राज्यमासाद्य भवत्यचिन्तः समूद्रतारम्भरतः सदेव । 
समूद्रतारं भरतः स दंवप्रमाणमारभ्य पयस्युदास्ते ।1 ८ ॥ 


है राजन्‌ { अरिगण को मयभीत करने बारे अमित तेजस्वी, धनुर्धारियो मे 
श्रेष्ट तथा युद्धभूमि मे अपराजित आप प्रसन्नता से पृथ्वी का पालन-पोषण करते 
है, ओर [ इधर ] पवेत सी आपके समान पृथ्वी को धारण कर रहा है जो ऊचे-ऊचे 
ताड वृक्षो की समान पक्तियों से बोभित है 1६! 
संस्ेत-पद्य मे प्रथम पाद्‌ की आवृत्ति चतुथं पादमे की गयी है 1 अतः यहाँ 
ˆ आवृत्ति" नामक यमक है । 
पादावृत्ति यमककेदो अन्यमेद्‌ 
दहितीय पाद की परवर्तो दोनों पादो मे (अर्थात्‌ वृत्तीय ओर चतुथं पाद मे) 
आवृत्ति को कपज्ञ. गभे-यमक भौर संदष्टकं यमक कहते हैँ 1७1 
अर्थात्‌ द्वितीय पाद की तृतीयं पाद मे माचृत्ति को गभ-यमक' कहते है ओर 
इसी पाद की चतुर्थं पाद मे आचत्तिको संदश्टक-यमक' । 
गभ का उदाहरण 
अन्वय--य. राज्य आसाद्य अचिन्त. भवति तथा सन्मतु (सन्‌) सदैव रत-आरम्भ- 
रत. (भवति), (स) भरतः समुद्र-तारं आरभ्य दैवप्रमाण पयसि उदास्ते । 
जो युरुष राज्य पाकर उसकी रक्ना करने मे उदासीन हौ जाता है ओर नित्य 
रति-क्रीडा मे ञआनन्द श्रनुमव करता रहता है, वह उसं पुरुषके समानदहैजो 


कारिका € | तृतीयोऽध्यायः ५७ 


य इति । यः पुरुषो राज्य प्राप्य तस्य रक्षणादौ निश्चिन्तो भवति । तथा प्राप्तं 
राज्यमिति समु्सदषंः ! यो रतारम्भरतः सदव निधूवनप्रारम्भासक्त्‌ । सतत स तथा- 
विधनरपो भरतो भरेण समूद्रतारं जलनिधितरणं बाहुभ्यामारम्य पयसि जलमध्य उदास्ते 
निष्क्रियो भवति ! कथम्‌ । दैव पुराकृत कमं प्रमाण यत्र तत्तथेति क्रियाविरेषणम्‌ । 
य. प्राप्तराज्यो निरद्यम. स॒बाहुतरणप्रवृत्तजकधिमध्यस्थितनिष्क्रियन रतुल्य इत्यथ. । 
इति मध्यमपादयोगेर्भो नाम यमकम्‌ ।} 


थ संद्ष्टकम्‌- 
इदं च येन स्वयमात्मभोग्यतां समस्तकाश्चीकमनीयताकुलम्‌ । 
नितम्बबिम्बं कथमस्तुनो नृणां स मस्तकाञ्ची कमनीयताकूलम्‌ 1 €।। 


इदमिति । कश्चिद्रागी परस्त्य दृष्ट्वा केचिदाह--उद नितम्बविम्ब श्रोणीतट 
येन स्वयमसहायेनात्मभोग्यता स्वोपकारितामनीयत नीत स तथाविधो व्रणा पुसां मस्त- 
काच्ची शिरोवर्ती कथ नो अस्तु कथ मा भूत्‌ । सोभाग्यातिद्ययवानित्यथ. । कौर कटि- 
तटम्‌ । आकुल प्रयोगवदयाच्चट्ुरुमत एव समस्ता सम्यकक्षिप्ता काश्ची मेखला यतस्तत्स- 
मस्तकाश्वीकम्‌ । तथा च कमनीयताया रामणीयकस्य कु स्थानम्‌ 1 अत्र द्ितीयचतु- 
थेपादयोः सदष्टयमकम्‌ ॥ 


भजामो से समुद्र पार करना प्रारम्भ करके फिर भाग्य पर ही जीवन छोडकर तंरना 
बन्द कर देता है 1८) 


सस्कृत-पद्य मे द्वितीय प्च की आवृत्ति तृतीय पद्यमे भी गयी है । अत. यहाँ 

गर्भ" नामक यमक है 1 
सन्द््के क्रा उदृाह््य 

श्न्वय--येन समु-अस्त-काश्वीकम्‌ (अतएव)जाकुलम्‌, (तथा) कमनीयता-कुलम्‌, 
इद नितम्बविम्ब, स्वय आत्मभोग्यता अनीयत, स व्रणा मस्तक-अश्वी कथ नो अस्तु 1 

[ कोई कामुक किसी पर-स्त्री की देखकर अपने साथी से कहता है--] निस 
पुरुष ने बड़ी अधीरता से इसकी कमर में बेधी मेखला (तगड़ी) को लीचकर सौद 
के केन्द्रस्थल इन नितम्बो का उपभोग किया है, वह सबसे अधिक भाग्यलाली कंसे न 
होगा 1£। 


संस्कृत-पद्य मे द्वितीय पद्य की आचृत्ति चतुर्थं पद्यमे की गयी है 1 अत. यहं 
'सन्दप्टक' नामक यमक है । 


५८ कान्यालद्धुार [ कारिका १०-११ 


पुनटएह-- 
प्रन्योन्यं परिचिमयोरावृत्त्या पादयोभेवेत्पुच्छः । 


सर्वेः सार्धं युगपतप्रथमस्य तु जायते पंक्तिः । १०॥ 
अन्योन्यमिति । पश्चिमयोस्तृतीयचतुथंपादयो" परस्परावृत्त्या पुच्छो नाम॒ यमक 
भवेत्‌ । तथा प्रथमपादस्य सर्वेस्विभिरन्यं सार्धं युगपत्समकालमावृत्त्या पक्तिर्नाम यमक 
जायते ।। 
तत्र पुच्छः-- 
उत्तुङ्घमातद्धकुलाकुले यो व्यजेष्ट शत्रून्समरे सदेव । 
स सारमानीय महारि चक्र ससार मानी यमहारिचक्रम्‌ [१ १॥ 
उत्तृद्ध ति । कश्चिदरीरो व्यंते-स मानी मानवान्न रोऽरिचक्र रिपुराष्टर ससार 
जगाम ! कीदशः । य. समरे रणं ! कौटशे । उत्तद्धमातद्खकुकाकुरू उन्नतद्विपसमहसकुले 
सदेव सवेदंव व्यजेष्टाभ्यभ्रुत्‌, शतून्रिपून्रू 1 कथम्‌ 1 सारमृकृष्ट महारि महद्धिररर्थक्त 
चक्रमायुधविदोषमानीयादाय } कीहदो मानी । यम युग्म कृतान्तमपि वा हन्तीति यमहा ॥ 
पादावृत्ति ययक केदो @्न्यमेद्‌ 
पश्चिम अर्थात्‌ वृत्तीय ओर चतुथं पादो को पारस्परिक आवृत्ति को पुच्छ- 
यमक कहते है, तथा प्रथम पाद को शेष तीनो पादो मे आचरति को पेक्ति-यसक्‌ ।१०। 
पुच्छं का उदाहरण 
श्रन्वय--स मानी सदव उतुद्ख-मातद्ख-कुल-अकुरे समरे शचरून्‌ व्यजेष्ट । 
(अथ च) [स.] यम-हा, सार, महा-अरि चक्र आदाय अरि-चक्र ससार । 
जो बड़े-बड़े हाथियों से व्याप्त रणभुमि में शत्रुओं पर सदा विजय पाताथाः 
वही यमराज को भी आतकित करने वाला मानी वीर बडे-बडे अरो वाके श्रेष्ठ चक्र 
को लेकर अरिचक्र' अर्थात्‌ शत्रु देश में चला गया हे !११। 
सस्कृत पद्य मे तृतीय जओौर चतुथं पाद की परस्पर आ्ृत्ति की गयी है, अर्थात्‌ 
दोनो पाद एक से है 1 अत यहाँ "पुच्छ नामक यमक है । 
पंक्ति का उदाहरण न 
छ्रन्वय--सभाजनेन, सभा-अजने, न उपरिपु-ऊरित-असौ अपरिप्रित-असौ नः 
सभाजने दत-असौ उपरि पूः इता जन-इन- सभा. अथ च ऊ । 
शब्दां 
सभाजनेन-मत्रियो द्वारा, समा-अजने-[मत्रियो पर] आक्षेप करने वाले, न 
उपरिपु ऊरितासौ--शनु के समीप खड्ग न उठानेवाले, अपरिपुरित-असो-- मृतकं तुल्य, 
नः सभाजने--हमे प्रसन्नता देने वाले, इत-असौ--अपमानित होने वाक [पुरवासियो 


कारिका १२ | तृतीयोऽन्यायः । ५६ 


अथ पक्तयुदाहर्यम्‌-- 

सभाजनेनोपरि प्रितासौ सभाजने नोपरिपूरितासो । 

सभा जनेनोऽपरिप्रितासौ सभाजने नोऽपरिपूरितासोौ ॥१२।। 

सभाजनेनेति । कस्यचिद्राज्ञो मन्त्रिणः पौरेस्तिरस्छृता । ततस्तस्य स्वसमभ्य\- 
धिक्षेपजातकोपस्यापरागभयात्पौराननिग्रह्लत. कान्तिश्र रौ बभूव 1 तत करिमश्चिदवसरे 
ते सम्या रुव्धावसरा- सन्त. पौराणामुपरि कटकयात्रामदु । ततस्ते पौरा निरायुधा सन्त. 
पराजिग्िरे । ततो राजा परितुष्ट. पुनरात्मीया कान्तिमाप' इति समुदायार्थ" । पादानां 
त्वेव योजना ! कश्चित्सभ्यः परस्य कथयति-सभाजनेनं समभ्यलोकेन । मन्तरिजनेनेत्यथं । 
उपरि पृष्ठत , पू पौरजनता ! इता प्राप्ता, असौ । एषा पौराणा पृष्ठत सम्या आगता 
इत्यथै । कदा । सभां सभालोकमजति क्षिपतीति सभाजनस्तसिमिन्पौरजने । न उपरिपु 
शत्रुसमीपे सम्यस निधाने ऊरिता असय खद्खा येन स उरितासिस्तस्मिन्नेवविषे । अनु- 
दयतखद्ध इत्यर्थ. ।! अतं एव जनानामिन. स्वामी जनेनो राजा, सह भासा वतते इति 
सभा. सदीप्तिकं सवृत्त. । अन्यच्च कीदृशे पौरलोके ! अपरिपूरिता अनाप्यायिता 
असव प्राणा यस्यासौ तथोक्तस्तस्मिन्‌ । मृतचुल्य इत्यथ. । तथा सभाजने । सभाज 
प्रीतिदर्नि' १ इत्यस्मात्कतरि ल्युट्‌ । नोऽस्माक प्रीतिकरे । पूजक इत्यथं । अत एवा- 
स्माक पूरवभरक्रान्तो जनेन , अवतीत्यू । रक्षिता सपन्त इत्यथ. । कथम्‌ । अपगता रिपवो 
यत्रावने तत्तथेति क्रियाविरदोषणम्‌ । किभूते पौ रलोके । इतासौ इता प्राप्ता असु अपूजा 
येन तस्मिन्‌ । अधिगतमानश्र श इत्यथ. । 
परिप्रतिगतार्थो तु सु पूजायां यदा भवेत्‌ । 
अतिरतिक्रमणे चव नोपसर्गा इमे तदा 
इति सर्वपादज पक्तियमकम्‌ ॥ 


पर], उपरि पु इता-पीचे से आक्रमण किया गया, जन-इन.- [अतएव] राजा, 
स-भा दीप्तिमान्‌, [ओर] रक्षक [हो गया] । 

[नगरवासियों ने किसी राजां के मन्तियो का तिरस्कार किया । किन्तु राजा 
ने प्रतिक्रियास्वरूप कोई कदम नही उठाया, इसकिए उसकी प्रतिष्ठा को धक्का रगा । 
उधर मन्तियो ने अवसर पाकर उन नागरिको पर आक्रमण कर दिया] वे नागरिक 
दास्त्र-रहित होने के कारण पराजित हये गये ओौर्‌ राजा को अपनी खोई प्रतिर्ष्या मिल 
गयी । निम्नाकरित उदाहरण मे यह्‌ चणंन प्रस्तुत है--] | 

एक मन्नी क्स से कहु रहा है कि मन्तरियों ने अपना अपमान करने वाक 
निःशस्त्र, मृतक-ससमान नागरिको पर पीछे से आक्रमण कर दिया । इससे राजा फिर 
अपने राजतेज से दीप्त हो उठा !१२। 


[ण 


ल } 
॥ 


६० | काव्यालङ्कारः | कारिका १३-१४ 


भूयोऽपि मेदान्तरमाह- 
परिवृत्तिर्नाम भवेद्यमकं गर्भावृतिप्रोगेण । 
मुखपुच्छयोर्च योगाद्‌ युग्मकमिति पादजं नवमम्‌ ॥ १३ ॥ 
परिवृत्तिरिति ! पूर्वोक्तगभवृतियमकयोर्युगपद्योगे वृत्तिर्नामि यमकं भवतति 1 तथा 
र्वोक्तमुखपुच्छयोर्युगपद्योगादयुग्मके नाम समस्तपादसभव नवमं यमक भवति ॥ 
तत्र परिवृद्युदाहर्श्य्‌- 
मुदा रतासौ रमणी यता यां स्मरस्यदोऽलं कुरुतेन वोढा । 
स्मरस्यदोऽलकुरुतेऽनवोडामुदारतासौ रमणीयतायाम्‌ ।1 १४1 
मृदेति । एतन्मानिन्या. सखी अनुनयप्रत्याख्यानभयादपसृतं नायकमाह-असौ 


रमणी स्त्री त्वयि रता 1 मुदा प्रीत्या न तु धनलोभादिना। यता त्वदागमनार्य प्रयत्न 


सस्कृत पद्य मे प्रथम पाद की आवत्ति शेष तीनो पादोमे की गयी है, अर्थात्‌ 
चारो पाद एक-समान है । अतः यहाँ प क्ति" नामक यमकं है | 
पादावृत्ति यमककेदो ऋअन्यमेद्‌ 

उपयु क्त गभं ओर आवृत्ति नामक थसकों के पारस्परिक योगं को परिवृत्ति 
नामक यमक कहते है, तथा मुख ओर पुच्छ का योग युश्मक नामक नवम यमक 
कहाता है ।१३। 

श्रन्वय-- कुरुतेन (उपरक्षित } या वोढा, अद अल स्मरसि । अक्तौ रमणी मुदा 
रता यता (च) । असौ उ-रता, (यतु) रमणीयतार्यां स्मरस्यद. अनवोढां अककुरुते ! 
शब्दा 

या वोढा- जिससे तुम विवाह करने जा रहै हो, अदः अकं स्मरसि-अवद्य 
ही तुम उसे निरन्तर स्मरण करते रहते हो, कुरुतेन [उपलक्षित. |--अनायास ही तुम्हारे 
मूख से उसके विपय मे वचन निकर पडते है, असौ रमणी मुदा रता-- वह भी तुम्हे सच्चे 
हृदय से प्रेम करती है, यता--तुमसे मिलने के किए प्रयत्ननीर रहती है, [रहा उसका 
मान करना] असौ उदारता- वह्‌ भी उचित ही है, रमणीयताया स्मरस्यद. अनवोढाम्‌ 
अखकूरते--प्रगलभ नायिका के कवण्य का काम का उद्रकं [भाव] भूषित दही करता है 
[दपित नही | । 
परिवृत्ति का उदाहर्य 

प्रार्थना के दरुकरा दिए जाने के भय से कौटते हृए नायक के प्रति किसी मान- 
वती नायिका की सखी द्वारा प्रस्तुत यह्‌ उक्ति दै- 

जिससे तुम विवाह करने जा रहे हो अवद्य ही तुम उसे निरन्तर स्मरण करते 
हो, क्योकि अनायास ही तुम्हारे भुल से उसके विषय में वचन निकर पड़ते हैँ भौर 


कारिका १५ | तृतीयोऽध्यायः ६१ 


परा।यात्व वोढा परिणेता। अदोऽ नि सदेहं स्मरसि ध्यायसि । कौहशस्त्वम्‌ । 
कुरूतेनोपलक्षित । क्रत्सित सूतं कुरुत तेन । यत्पुरुषस्य धंयंच्युतिप्रकाशकमत एव 
तत्स्मरणपरिज्ञानम्‌ । ननु यदि सा मानिनी तक्किमनुनया्थं त्व प्रेषितेत्याह--यस्मादु- 
दारतासौ ओौचित्यमिदम्‌ 1 रमणीयतायां रमणीयत्वे । यत्स्मरस्यद. कामोद्रं कोऽखकूरुते 
भूषयति । अनवोढा प्रगल्भा नायिकाम्‌ ॥ 

त्थ युगमकम्‌-- 

विनायमेनो नयताऽसुखादिना विना यमेनोनयता सुखादिना । 


महाजनोऽदीयत मानसादरं सहाजनोदी यतमानसादरम्‌ ।॥१५॥। 
विनेति । कश्ित्कचिदाहु--अय महाजन सत्पुरुषलोक. । एनोऽपराध विना । 
अनपराध इत्यथ. । अदीयत खण्ड्यते स्म । केन । यमेन । कि कूवंता यमेन । नयता- 


वह भी तुम्हें सच्चे हदय से प्रम करती है तथा तुमसे मिलने के लिए भ्रयत्नच्चील रहती 

है । [ रहा उसका मान करना] बहु भी उचितहीरहै, क्योकि प्रगलम नायिका के 
लावण्य को काम का उद्रक~भाव भूषित ही करता है, (इषित नही) । १४। 

सस्कृत पच मे प्रथम पाद कौ आवृत्ति चतुथं पाद मे की गयी है (आवृत्ति- 
यमक}, ओर द्वितीय पाद की तृतीय पादमे की गयी दहै (गभं यमक) 1 अत यह इन 
दोनो यमको के प्रयोग के कारण परिवृत्तिः यमक है। 
युग्मकर का उदाहरय 

अन्वय--नयता असुखादिना जनयता सुखादिना यमेन अय मनसातु महा- 
जनोदी महाजन एनः विना अरं यतमनि सादर [च] अदीयत । 
शब्दार्थं 

नयता-अपने पास बुलाकर, असुखादिना- प्राणो का भक्षण करनेवाले, ऊन- 
यता--[श्रेष्ठ पुरुप को मारकर] जनसख्या कम करने वारे, सुखादिना-- सुख-समृद्धि 
के विनाशक, अथवा-सुखादिना ऊनयता- सुख-समृद्धि के विरहित करने वारे, यमेन- 
यमराज ने, एन. विना-अपराध के विना,- अय महाजन.--इस सत्पुरुष का अर 
गीघ्र, यत्तमान-सादरं [प्राण रश्नार्थं | प्रयत्रीरु बन्धुमो को खेद पहँंचाते हुए अर्थात्‌ 
उनके यत्न को निष्फल वनाते हए, [यमराज ने] अदीयत-- वव कर दिया, जो [सल्युरष] 
विना यमराज के आगे पुरुषा्थेहीन हो गया था, मानसात्‌-[नरुओ का] मानमर्दन करने 
वाखा था, [ओर] महाजनोदी--सुख मे बाधा डालने वार दृष्टौ का नियामक था 

कोई किसी से कहता है कि-- 

अपने पासं बाकर, प्राणों का भक्षण करने वाक्ते श्रेष्ठ पुरुष को मारकर जन- 
सस्या कम केरने वाल, युख-समूृद्धि के विनाशक अथवा सुख-सम्रद्धि से विरहित करने 


# ५५ 


६२ काव्यालङ्र , | कारिका १६ 


त्मसमीपं रायता } तथाऽसुखादिना प्राणभक्षणगीखेन 1 ऊनयता महाजनसूनीकुवेता । 
सुखाद्विना सौख्यमक्षकेण 1 अथवा सुंलादिनाथेन न्यूनयता । कीदृशौ महाजन । विना 
विगता नरो यस्माच्‌ ! यम प्रति पृरुपकारविफलत्वाद्विपुरुष इत्यर्थ. । वहुरुत्वात्को न 
भवति । यदा विनष्टो ना पुरूषो विना । पुन. महाजन कीट. । मानसान्मानमहकार 
सादयतीति मानसाद्रिपणाम्‌ । यदि वा मानसान्वित्तात्सकालात्सूखादिना । तथा महाज- 
मोदी महमृत्सवभजन्ति भषन्ति महाजा दुजेनास्तान्नुदति प्रेरयतीति महाजनोदी । 
कथमदीयत्त 1 अर शीघ्रम्‌ । तथा यतमानसादर यतमानाना मरणप्रतिक्रियाग्यापृताना 
सादं खेद राति ददातीति च क्रियाविरेषणम्‌ ॥ 

एतानि नव यमक्रानिं तमस्तपादस्योक्तानि । श्रधुना तमस्तपादयोः 
समस्वपादानां चाह-- 


प्रधं पुन रावृत्तं जनयति यमक समुद्गक नाम । 
दलोकस्तु महायमक तदेवमेकादशरेतानि । १६॥ 


अधंमिति ! प्रथमम्धं पुनरावृत्त भूय उच्चरित समूदृगकाख्य यमकं जनयति 
केरोति । नामशब्द. सस्थाननिपेधसूचनाथः ! तेन चिव्रमध्येऽस्य नान्तर्भावः । अधंद्रय- 


वाले, यमराजं ने अपराध के निना इस सत्पुरुष का [ प्राणरक्षां | भरयत्नशील बन्धुओं 


को खेद पर्हुचाते हुए अर्थात्‌ उनके यत्न को निष्फल करते हुए लीश्न चध कर दिया । 
वह्‌ सत्पुरुष यमराज के आगे पुरुषाथहीन हो ग्या था, शाच्रुओं का सानमर्दन करते 
वाला था ओर सुख में बाघा डालने वाके दृष्टो का नियामक था । १५ 

सस्केत पच मे प्रथम पाद की आवृत्ति द्वितीयमे की गयी है (मुख यमक); 
ओर तृत्तीय पाद कौ आवृत्ति चतुथं मे । अत. यहाँ युग्मके" यमकं है । 

इख प्रकार पादावृत्ति यमक के € मेद हए \ 
त्रद्ावरत्ति : समुद्गके तथा श्लोकवृत्ति महायमक्र 

पाद का अद्धं भाग आवृत्त होने पर 'समुदगसक' नामक यमक कहाता है! 
किसी पूरे उलोकं (पद्य) की आवृत्ति को महायमक कहते है 1 

इस प्रकार यमक के ये (६ -{- २) १९१ भेद हुए \१६। 
सथुदगक का उदृह्ट्ख 

छअन्वय-- मरही, न च अरित्रमुत्‌, न नामल. छोक. आनवेन आरधीर अकोविद- 
मानवेन अहीनचारित्र उदारधीरे चिदं ननाम 1 
शब्दां 

मही--युग्रसन्न, न च अरित्रमुतु-रात्रु की प्राणरणा मे जिन्हे प्रसन्नता नही 
होती, एसे, न नामक--शुदध स्वभाव, लोक. --रोगो ने, आनवेन-स्तुति से, विदं-- 


कारिका १७ | तृतीयोऽध्यायः ६३ 


सारूप्येण च समुद्गकसाहर्यम्‌ 1 शयोक श्ोकान्तरे यमकरितो महायमकं 'जनयति । तुः 
पुनरर्थे । शोक इत्येकवचन द्रयोर्त्यादीना च यमकत्वतिवृ्य्थेम्‌ । यथालक्ष्येष्वदर्शनात्‌ । 
एव मुखादारभ्य महायमकान्तान्येकादशंतानि समस्तपादयमकानि भवन्ति ॥ 

तत्र समुद्रकय्‌- 

लनाम लोको विदमानवेन मही न चारित्रमुदारधीरम्‌ | 


न॒ नामलोऽकोविदमानवेनमहीनचारित्रमुदारधीरम्‌ ॥१७॥ 
ननामेति । रोक जनो विद पण्डितं ननाम प्रणतः । केन । आनवेन स्तुत्या । 
कीहश्ञ. । महा उत्सवा. सन्त्यस्येति मही तथारीन्रिपूस््रायतेऽरिवा मुतखमोदो यस्यस 
तथाभूतो न च नव । विद कीट्म्‌ । अरीणां समूह आर तस्य धीबृद्धिस्तामीरयतीति 
त तथाविधम्‌ । खोकंस्तु न नामक , अपि त्वमलो निमंल एव । विद पूनः कीहशम्‌ । 
अकोविदा मूखस्तिषां मानमह॒कार वान्ति गन्धयन्ति नागयन्तीत्यकोविदमानवास्तेषा- 


उस विद्वान्‌ पुरुष को, ननाम- नमस्कार किया, [जो | आरधीर-रात्रुभओ की बुद्धि को 

कुण्ठित करने वाखा है, अकोविदमानवेन-मूखं लोगो के गहकरर का नाश करने वालो 
मे अग्रणी है, अहीनचारित्रमु-जिंसकां चरित्रं अखण्डित है, [तथा| उदारवीरम्‌-जो 
उदारता एव धयं से भूपित है । 

सुप्रसन्न तथा रान्न की प्राणरक्षा मे भ्रसन्न न होने वाके श्युद्ध स्वमाव खोगोंने 
स्तुति से उस विद्वानु पुरुष को नमस्कार किया, जो शत्रुओं कौ बुद्धि को कुण्ठित करने 
वाला है ओर भूखं लोगों के अहकार कानाश्च करने वालों में अग्रणी है, जिसका 
चरित्र अखण्डित है तथा जो उदारता! एवं धयं से भूषित है \९७ 

सस्कृतं पद्य मे प्रथम रलोकाधं की आवृत्ति द्वितीय रलोकाधंमे की गई है। 
अत यहाँ समुद्गक" नासक यमक है । 
महायमक का उदाहर्य 

अन्वय--स तु अलस अवान्‌ (तथा) अस्थितः (वित्‌) आर भरत अवश्यं 
अवक विततारव सर्वंदा रणम्‌ अनंषीत्‌ । [तथा] सत्त्वारम्भरत सर्वदारणमानैषी 
दवानलसमस्थित (स वितु) वश्य अवलम्बिततारवं [आरम्‌] । 

सन्दार्थ 

स तु [चित्‌ [--वह रणपडित, अस अवान्‌--निष्क्रिय अथवा कायर शत्रुभओो के 
पास जाने वाखा नही है, [तथा] अस्थित. शच्रुमो की अस्थियो को चर्ण करने वाला 
है, [उसने] आर--रव्रुसमूह को, सदा-हमेशा, भरत.--अपने पराक्रम से, समरम्‌- 
यद्ध मे, अवश्य-- निश्चय ही, अवरमु-बरहीन, विततारव [भयजमित]-- क्रन्दन के 
` शब्द से दिशाओं को जाने वाला, आनंपीत्‌- वना दिय है । 


६४ कान्याल्द्ारः | कारिका १८-१६ 


मिनः स्वामी तम्‌ । तथाहीनचारि्मखेण्डरीलम्‌ । उदारो विपुलारायो धीरो धेयोपितः 1 
उदार च वीरं चेति। 
अथ मह्ययमकं श्लोकदयेनाह-- 
स त्वारं भरतोऽवद्यमबलं विततारवम्‌ । 
सवेदा रणमानैषीदवानलसमस्थितः 11 १८॥ 
सतत्तारम्भरतो वश्यमवलम्बिततारवम्‌ । 


सवेदारणसानंषी दवानलसमस्थितः ।। १६॥ 

स इति । स्वेति । स पूवं प्रक्रान्तो वित्‌ । तुशब्द क्रियान्तरोपन्यासाथ्‌ । आरम- 
रिसमूहम्‌, भरतो भरेण, अवश्य निश्चितम्‌, अवल बररहितम्‌, विततारवं कतभया- 
तिविस्तीर्णनि.स्वनम्‌, सवेदा सदा, रण समरम्‌, आनंषीदानीतवान्‌ । कीद्रोऽसौ । 
अवानगच्छन्‌ 1 कम्‌ 1 अलस निष्क्रिय जनम्‌ 1 तथास्थितोऽस्थीनि शत्रृणा तस्यति 
क्षय नयतीत्यस्थित इति । तथा सत्त्वेनावष्टम्भेनारम्भा ये तेपु रत. सक्तः । कीकमा- 
रम्‌ । वद्य वरागतमथवावश्यमनायत्तम्‌, अवलम्विततारव समाभ्रिततरुसमूहम्‌ । 

वित्कीहदाः 1 स्वेदारणमानंषी स्वेषां यदारण विनाशन तेन मानमिच्छतीति कृत्वा, अत 
इन्टी शब्दो के इकेप से उस ^रणपंडित ओर शचरुसमूह्‌' के अन्य विशेषण 
इस प्रकार बन जते है- 

[वह्‌ रणपण्डित] सत्त्वारम्भरत - पराक्रम के कार्यो मे उत्साह रखने वाखा, 
सवं दारणमानपी-सभी [शच्रुओं | के विनाक कर देने के मान का इच्छुक [अतएव | ॥ 
दवानर समस्थित-दवाग्ति के सदृश प्रचण्ड है । 

[वह्‌ शत्रुसमूह | अवण्यम्‌ (उस रणकुशरू के वश्च मे है) [अथवा अवश्यम्‌ - 
स्वाधीन है], अवलम्विततारवम्‌ [वनो मे] (वृक्षो काआश्रय लने वाखा है) । 

प्रथम अथं - वहु रणपंडित निष्क्रिय अथवा कायर शत्रुओं के पास जाते वाला 
नही है तथा शत्रुओं को अस्थियों को पुणं करने वाला है + उसने शत्नुसमुह्‌ को हमेशा 
भ्रपने पराक्रम से युद्ध में निश्चय ही बलहीन तथा [ भयजनित्त ] करन्दन के शाब्द से 
दिश्चाओं को गृजाने वाला बना दियादहै) 

द्वितीय अर्थं--बह रणपंडित पराक्रम के कार्यो मे उत्साह रखने वाला [सभी 
दाचुओं के] विनाश कर देने के मान का इच्छुक है, [ अतएव [ वहु दावाग्नि के सहश 
प्रचण्ड है । [वह्‌ इचरु-समूह | उस रकशर के वश से है, अथवा स्वाधीन हैः एवं 
वनो सें वृक्षो का आश्रय लने वाला है ! १८-१६। 

सस्कृेत के दोनो पद्यो मे से प्रथम पद्य की आवृत्ति द्ित्तीय पद्यमे की गयी है। 
अत. यहाँ 'महायमक' है । | 

१ 


कारिका २०-२२ | तृतीयोऽध्यायः ६५ 


एव दवानकेन दवाग्निना सम तुल्य स्थित स्थितियंस्येति । शब्दश्लेपस्यास्य च महायमके- 
स्याय विशेष । तत्रैकेनैव प्रयत्नेन वाक्यद्यमुच्चायंते, इह तु द्वाभ्याम्‌ । 

एवं समस्तपादजं यमकरमाख्यायेदानीमेकदेशजमाह- 

पादं हिधा त्रिधा वा विभज्य तत्रैकदेराजं कुर्यात्‌ । 


प्रावतयेत्तमंशं तत्रास्यत्रापि वा भूयः ।२०॥ 
पादमिति । यच्छन्दोऽर्धादिभाग ददाति तस्य पाद द्विधा त्रिधा वा विभज्य 
द्विखण्डं त्रिखण्ड वा कृत्वा तत्र विभव्तेऽश एकदेशज यमक कुर्यात्‌ । कथमित्याह॒-- 
आवततयेयमकयेत्तमश विभक्त भागम्‌ । तत्रैवाडे प्रथमार्धानि प्रथमारधेषु द्वितीयार्धानि 
` द्वितीया्ेंष्वित्यादिक्रमेण । अन्यत्र \7प्यशान्तरंरभूय. प्रभरूतमावततयेतु । अदन्त रावृत्तौ 
वहवो भेदा भवन्तीत्यथं' । अपिरान्द समुच्चये ॥ 
तत्रैवाधृत्त्या ये मेदाः संभवन्ति तानाह- 
प्रा्य्धन्यन्योन्यं पादावृत्ति क्रमेण जनयन्ति । 


दश यमकान्यपरस्मिन्परिवृत््या तदन्यानि ।॥ २१॥ 

आदर्धानीति । रखोकपार्दचतुष्टयस्य प्रथमार्धन्यिपरस्मिन्पादेऽन्योन्य परस्पर 
पादावृत्तिक्रमेण समस्तपादद्वययमकवदृश्च यमकानि जनयन्ति । तदततथैव चान्यान्यपि दन 
जनयन्ति) तानि च मुखसदशावृत्तिगभंसदष्टकयुच्छपक्तिपरिवृत्तियुग्मकसमुद्गकसन्ञानि ॥ 

कि पुनरेषामुदाहर्खानि नोक्तानीत्याह-- 

एतदुदाहरणानां पादावृत््य॑व दर्शितो मागः । 

इहु विशतिभेदमिदं यमकं नोदाहूतं तेन ।॥ २२॥ 


एकदेशज यमक 
एक पाद को दो अथवा तीन भागों मे विभक्त करने के उपरत. एङ सग 
॥ ~ स्थाल्य % 
पतर्शन्णग्हात्‌ः दैः मदि एस ंश्‌जकी जादृ) इतर स्यातसे पर कृनाए तो एक- 
दज के नहत से भेद सम्मव है ।९०॥ । १ 0 7 ए प्त 
ध्मः कपतारोप्रदोकेनूषयुरभदे भष करदतरे प्रदम भे पस्परिकःमबुति [समस्त 
मपरदायुमक केयु कतरे 1केसमात ] स्‌-भ मको तपन्ती १ 
भकार अन्य एुकदेशज भी पारस्परिक आवृत्ति द्वारा विभिन्न प्रकार के यमृकृभेदीक्रो 
पक्ति क शाः किती कणत 1 ववार मसर ४ एः 
इन सब भेदो के उदाहरण कामप्रं --जुक्त पस की; आवृत्ति मैँ-दिख्या 
पिमप दि (ह्न समन्म्लेो हिर) 1. इसलिए यमक करःङुन नीम्‌ रदो के उदा- 
हरण प्रस्तुत नहीं किये जा रहे ।२१-२२। | तमीप सीय (7 कर 


(8. ६१५ 


६६ कान्यालद्धारः [ कारिका २३-२४ 


` एतदिति । समस्तपादावृत्तियमकोदाहुरणं रेव पूर्वोकितरेतदु दाहूरणानां दिकप्रदर्भनं 
कृतमितीह विगतिभेद यमक नोदाहूतमिति । यदपि चोभयत्राप्यत्रंकादश्षोऽपि भेद. 
सभवति । यथा यानानि प्रथमद्लोक आद्यत्तानि चार्धानि कृतानि तादशान्येव तानि 
रलोकान्तरे क्रियन्त इति कृत्वा तथापि महाकवीना न क्वचिदेव विधं लक्ष्य हर्यत इति 
दरोव भेदा उक्ता. ॥ 

इ्दानीयन्यत्र दे आवृत्त्या तानाह 

प्रथमतृतीयान्त्याधं तदनन्तरभागयोः परावृत्ते 1 

ग्रन्तादिकमिति यमक व्यस्तसमस्ते त्रिधा कुरुतः ।\२३॥। 

प्रथमेति । प्रथमपादान्त्यार्ध द्वितीयपादाद्यर्थे तृतीयपादान्त्यार्धं च चतुर्थपादाद्रधं 

परावृत्त प्रत्येकं युगपच्चेत्यन्तादिकं नाम त्रिविध यमकमन्ताद्योयं मरकेनाद्धवतीति ॥ 

तत्रोदाहट्सयानि-- 

नारीणामलसं नाभि लसन्नाभि कदम्बकम्‌ । 


परमास्त्रमनङ्खस्य कस्य नो रमयेन्मनः ।।२४॥। 

नारीणामिति । नारीणा कदम्बक स्त्रंण कस्य मनरिचत्त नो रमयेस्प्रीणयेत्‌ 1 
कीदृशम्‌ 1 अरस मन्थरगमनम्‌ । तथा नाभि अवलात्वात्सभयम्‌ । तथा ऊसन्ती मनोज्ञा 
नाभि्येस्य तत्तथा । तथा परमास्वर प्रकृष्टायुधमनद्खस्य ॥ 

प्रथम पाद के अन्तिम अरद्धंमाग की आवृत्ति द्वितीय पाद के प्रथमाद्धे मे, तथा 
तृतीय पाद के अन्तिम अद्धंमाग की आवृत्ति चतुर्थं पाद के प्रथमाद्धं में करना अन्ता- 
दिक यमक कहाता है 1 इसके दो मेद है-- व्यस्त ओर समस्त । [ च्यस्त उसे कहते हँ 
जहाँ उक्त दोनों रूपो सें से केवर कोई एकरूप हो } इस प्रकार व्यस्तफे दो मेद 
हए । "समस्त ` उसे कहते हँ जहाँ दोनो रूप एक साथ हो । ] इस प्रकार ये कुल तीन 
भेद हुए \२३। 

छ्रन्वय--अक्स, नामि (न-अ-भि), लसन्नाभि, अनद्खुरयं परमास्व नारीणा 
कदम्बकम्‌ कस्य मन. नो रमयेत्‌ ! 

सन्द गति से चलने वाली, भीरं स्वभाव वाली, सन्दर नामि धारण करने 
वारी तथा कामदेव का अमोघ अस्त्र ये नारि्थां किसके मन कोहरण नहीं कर 
लेती 1 २४। 

इस पद्य मे प्रथम पाद का अन्त्याद्धं द्वितीय पाद के भद्याद्धं मे आवृत्त हभा 
हे 1 अत. यहां प्रथम “न्यस्त अन्तादिक यमक है । 


अन्वय-- पथिका काम-शिखि-धुम-शिखामिव पद्चालय-अलीनां, क्य-आखीनां, 
इमां महा-आवखी पह्यन्ति ¦ 


कारिका २५-२७ | तृतीयोऽध्यायः ६७ 


द्वितीयोदाहरर्माह- 
परयन्ति पथिकाः कामरिखिधूमरिखामिव । 


दरमां पञ्यालयालीनां लयालीनां महावलीम्‌ ॥२५॥। 
परदयन्तीति । प्मान्याख्यो येषा ते च तेऽल्यर्च भ्रमराश्च तेषा महावखी दीषं- 
श्रेणीमिमा पथिका. पान्थाः पश्यन्ति । कीहरीम्‌ । ख्येनान्योन्यर्केषेणारीना सद्धाम । 
 कामर्िखिधरूमरिखामिव स्मरानलधुमरेखामिव । इति व्यस्तोदाहरणे ॥ 
समस्तोदाह्टर्माह- 
पुष्यन्विलासं नारीणां सन्नारीणां कुलक्षयम्‌ । 
श्रा कल्पं वसुधासार सुधासार जगन्जय ।२६॥ 
पुष्यन्नितिं 1 हे वसुधासार भूप्रधान चप, आ कल्प युगान्त ॒यावज्जगदूर्रुवन 
जय ! कीरञ्च । सुधासार अमृतवेगवषं । कि कुर्वेनु । पुष्यन्पुष्टि नयन्‌ । कम्‌ विलासम्‌ । 
कासाम्‌ । नारीणाम्‌ ! तथा सन्नानामवसाद गतानामरीणा रिपूणा कुलक्षयमन्वायान्त 
पृष्यन्‌ । अन्तभवितकारितार्थोजत्र पुषिः सकर्मक ॥ 


भेदान्तरारयाह- 
देतीयमन्यमधं परिवृत्तमनन्तरे भवेन्मध्यम्‌ 
मध्यसमस्तान्तादिकयोगादपि जायते वंशः ॥२७॥। 


प्रवासी खोग कमलो के कोष मँ रहने वाके भ्रमरो की परस्पर सम्बद्ध दीं 
पक्ति को कामाग्नि की धुमकशिखा समन्ते हैँ । २५ 

इस पद्य मे तृतीय पाद का अन्त्याद्धं चतुथं पाद के आचाद्धं मे भावृत्त हुआ है । 
अत. यहाँ द्वितीय म्यस्त अन्तादिक यमकं है ! 

छन्वय--वसुधासार ! सुधासार ! (त्वम्‌) नारीणा विलास पुष्यन्‌ (तथा) 
सन्न-अरीणां कुलक्षय (पुष्यन्‌) आकल्प जगत्‌ जय । 

हे भूमण्डल के रतनरूप अमूतवर्षौ राजन ! आप नारियों को विलास-सुख 
प्रदान करते हुए तथा विषादग्रस्त शत्रुम को समू नष्ट करते हए जगज्जयी बनो ।२६। 

इस पद्य मे प्रथम पाद का अन्त्याद्धं (स नारीणा') दह्ितीय पाद के आयद्धंमे 
तथा वृतीय पाद का अन्त्याद्धं (सुधासार') चतुथं पाद के मआयाद्धं मे आवृत्त हृभा है । 
अतः यहां समस्त अन्तादिक यमक है । 

दवितीय पाद के अन्तिम अद्धंमाग की आबरत्ति तृतीय पाद के अद्धंमागमें होने 
पर मध्य थमक मना जातादहे। . 

मध्य ओर समस्त नामक अन्तादिक के योग का नाम वंशा यमक है । २७ 


६८ काव्यालङ्ारः [ कारिका २८-२९ 


दंतीयमिति । द्वितीयपादस्यान्त्यार्ं तृततीयपादादय्े परिवृत्त मव्याख्य यमक जन- 
यति । एतस्य मध्यस्य पूर्वोक्तसमस्तान्तादिकस्य योगे वशो नाम यमकम्‌ । समस्तग्रहण 
व्यस्तान्तादिकनिवृत्यर्थम्‌ । तन्निवृत्तिसतु ठक्ष्यदन्येनात्‌, न त्वसभवात्‌ ! एवमन्यत्रापि 
द्रष्टव्यम्‌ 1 अपि. समुच्चये ॥ 


तत्रो दाहर्यसाह-- 

समस्तथुवनव्यापियश्चसस्तरसेहते । 

रसेहते प्रियं कतु प्राणेरपि महीपते ।२८॥ 

समस्तेति । हे महीपते भूपते, तवेहात्र रसा पृथ्वी प्राणैरपि । आस्ता धना- 


दिभि. । त्रिय हित कर्तुमीहते चेष्टते । तरसा ज्ञगिति । कीटस्य ते । समस्तग्रुवनन्यापि- 
यशसः सकरजगटव्यापिश्लोकस्य । इति मध्य. । 


प्रथ कश्ः- 
ग्रीष्मेण महिमानीतो हिमानीतोयरोभितः ! 


योऽभितः पवेंतस्य पवे तस्य हि तन्महत्‌ ।।२९॥ 

ग्रीष्मेणेति । ग्रीप्मेण निदाघेन पवेतस्य शरस्य महिमा माहात्म्यमानीतः । 
कोहर. । महद्धिमं हिमानी तत. सुतेन तोयेनाम्बना शोभितो राजितः । हि यस्मात्तस्य 
पवतस्य तदधिमानीतोयमभितः समन्ताद्यशो वतते । तथा पव महोत्सवश्च महन्महा- 
प्रमाणम्‌ 11 


द्रन्वय-- महीपते ¦ इहं रसा समस्त भुवनन्यापियशसः ते प्रियं प्राणैरपि कतु 
तरसा ईहते । 

हे राजन्‌ ! आपका यद समस्त ससार मे व्याप्त है । यह पृथ्वी अपने प्रारणों 
से भो आपके जभमीश्ट सम्पादन के जिए आतुर है ।२दा 

इस पद्य मे द्वितीय पाद का अन्त्याद्धं ("रसेहते') तृतीय पादके आद्याद्धंमे 
आवृत्त होने से मव्य अन्तादिक यमकं है । 

्रन्वेय-- ग्रीष्मेण हिमानी-तोय-शोभित. पर्व॑तस्य महिमा आनीत. । हि तस्य 
(पर्वतस्य) अभित य पवं (च) महत्‌ (रमाणम्‌) 

ग्रीष्म ऋतु पवंत-जंसौ विदिष्टता धारण कर रही है, क्योकि यह्‌ वफ के वहते 
हए पानी से शोभित है ओर प्रसन्नता का कारण है, इधर वहते हृए निन्नर उसका 
यश्ञ ह मौर वह्‌ पर्वो (पेरवो) से युक्त रै ।२६। 

इस पद्य मे प्रथम पाद का अन्त्याद्ध ('हिमानीतो) द्वितीय पाद के आद्याद्धं 
म, दितीय पाद का अन्त्याद्धं ('्यश्ोभित.') तृतीय पाद के आद्याद्धं मे ओौर तृतीय 


कारिका ३०-३१ 1 तृतीयोऽध्यायः ६९ 


पुनर्भदमाह- 
ग्रावृत्तं प्रथमादौ द्वितीयमर्धं चतुथंपादस्य । 


वंशश्च चक्रकरास्यं षष्ठं चान्तादिकं यमकम्‌ ॥३०।। 

आवृत्तमित्ि । चतुर्थपादद्वितीयार्धं प्रथमपादाद्र्धेन सहावृत्त पूर्वोक्तिवराश्चेति 
यमकयोगे चक्रकं नाम यमकम्‌ । षष्ठोऽन्तादिकभेदः। एकरचकारो वशकसमुच्चये 
द्वितीयद्व चक्रस्यान्तादिकमध्ये समूच्चयाथं । 


सभाजनं समानीय स मानी यः स्पुटन्नपि | 


स्फ़टं न पिहितं चक्रे हितं चक्रे सभाजनम्‌ ।।३१॥ 

सभाजनमिति । स एव मानी मनस्वी यर्चके राष्ट हित चक्रेऽनुकरूक चकार । 
किं कृत्वा ¡ सभाजन सभालोके समानीय सम्यगात्मसमीप प्रापय्य । सम्याना विदित 
कृत्वेत्यथं` । कथ हित चक्रं । पिहित गुप्तमू, न स्फुट प्रकटम्‌ । अविकत्थनात्‌ । कि 
कूवंन्नपि 1 स्पुटन्नपि पीडितोऽपि । कीटदा सभाजनम्‌ । सभाजन प्रीतिदशनम्‌ । लक्षण 
सवत्र स्वधिया योज्यम्‌ ! अत्र च सप्तमोऽप्येव भेद सभवति । यत्र केवलमेव प्रथमाद्यद्धे 

चतुर्थान्त्याधमावव्यंते स तु पुवंकविलक्ष्येषु दश्यमानोऽपि कथमपि नोक्त ॥ 

पाद का जन्त्याद्धं (पवंतस्य') चतुथं पाद के आाद्धं मे आवृत्त है । अत" यहाँ वज 
अन्ता्दिक यमक है । 

चतुथं पाद का हितीय अद्धमाग प्रथम पादके आदिमे आवृत्तहो तथा साथ 
ही उक्त "वश थमक का योग भी. हो, वहा श्चक्रक' नामक यमक माना जाता है। इस 
प्रकार अन्तादिक यमक छः प्रकार का हभ [ दो प्रकार का व्यस्त, एक समस्त, एक 
मध्य, एक वंश ओर एक्‌ चक्रक । | ।३०। 

श्न्वय-स एव मानी य. स्फुटन्नपि सभाजन, सभा-जन समानीय चक्रे पिहित, 

नं स्फुट हित चक्रे । 

इसं पद्य मे प्रथम पाद का अन्त्याद्धं (समानीय) दहितीय पाद के आद्याद्धं मे, 
दवितीय पाद का अन्त्याद्ध (स्फुटन) तृतीय पाद के आद्याद्धं मे, रौर वृर्तीय पाद का 
अन्त्याद्धं (हित चक्रे) चतुर्थं पाद के आयाद्धं मे आवृत्त हुआ है । [यहाँ तक वंश" यमक 
हुजा 1] इसके अतिरिक्त इस पद्य मे चतुर्थं का अन्त्याद्धं (सभाजनम्‌) प्रथमपाद के 
आयिाद्धं मे आवृत्त हुमा है । अत. इस-पद्य मे "चक्रक" नामक अन्तादिक यमक है । 

[नमिसाधु के अनुसार उक्त छः भेदो के अतिरिक्त अन्तादिक. "यमक का 
सातर्वां भेद भी सम्भव है भौर जिसके उदाहरण भी पूव कवियो के काच्यो मे मिल 
जाते है, किन्तु सद्रट हारा यहाँ उसका उल्लेखं नही किया गया \ वह्‌ इस प्रकार है-- 
जहां केव चतुर्थं पादं के अन्त्याद्ध की प्रथम पाद के मा्याद्धं मे आवृत्ति हो ।] 


७० कानव्याखृद्धुारः | कारिका ३२-३४ 


तअथाचन्तकमेदानाह- 
प्रथमादिप्रथमाधंः परिवृत्तात्यव सधंमर्धानि | 
ग्रन्त्यान्यनन्तराणां जनयन्त्याद्यन्तक नाम ।। ३२ ॥ 
प्रथमादीति । प्रथमद्ितीयतृतीयपादध्र थमार्ध- साधंमनन्तराणां हितीयत्रतीयचतु्थ- 
पादानामन्त्यार्घानि परिवृत्तानि यमकितानि सन्त्याचन्तकसज्ञक यमक जनयन्ति ॥ 
किमेकमेदमेवेदम्‌ | नेत्याह- 
इदमप्यन्तादिकवत्क्रमेण षोढव भिद्यते भूयः । 
ग्रस्योदाहुरणानां तेनव च दशितो मार्गः । ३३ ॥ 
इदमिति । न केवलमन्तादिकमिदमप्यादयन्तक्‌ तेनेव क्रमेण षोढा षड्भिमेदमि- 
दते । भूयः पुन. यथा प्रथमाद्यधै द्वितीयपादान्त्याधंन सह यमक्ते तृतीयां चतुथन्त्या- 
धेन सह व्यस्तमाद्न्तक द्विधा तदुभययोगे समस्तमिति तृतीयो भेद. । द्ितीयाचार्घं 
तृतीयान्त्या्ेन सह्‌ मध्यनामा चतुथ. । मध्यसमस्ताचन्तकयोगे वशः पञ्चमभेदः । प्रथमा- 
न्त्यार्धंचतुर्थाद्यधंसारूप्ये वये च युगपते चक्रकं नाम पष्ठः । पूवेवच्च सप्तमो भेदः 
संभवतीति यत्र प्रथमाद्यधंचतुर्थान्त्यभागयो. सारूप्यम्‌ 1 अस्य च निदरेनाना तेनंवा- 
न्तादिकेन मार्गो दशितो दिक्परदर्गेनं कृतमिति नोदाहरणं दत्तम्‌ ॥ 
भूयो मेदमाह्- 
प्रथमत्रृतीयाद्यधं तदनन्तरचरमयोः परावृत्ते । 
भवति समस्तान्तादिकयोगादप्यधंपरिवृत्तिः ।! ३४ ॥ 
प्रथमेति । प्रथमार्धः ह्ितीयपादान्त्याधेन त्रतीयाद्यर्धं चतु्धन्त्याधेन यमकितं 
समस्तान्तादिक चेत्युभययोगेऽधेपरिव्रत्तिरनाम भवति ॥ 


्ाधनकर यस्क 

पथम, द्वितीय भौर वृतीय पाद के प्रथमाद्धं भाग क्रमशः हितीयः, चतीय ओर 
चतुथं पायो के अन्तिमि अद्धंमागो मे आवृत्त होने पर (आद्यन्तक' नामक थमक 
कहुखाता हे \२३२। 
प्राचन्तके यमक केमेद 

इस आआद्यन्तक यमक के मी अन्तादिक फे समान पुनः छ. मेद होते है । इनके 
उदाहरण उक्त उदाह्रणों ॐ अनुरूप जान छने चाहिए 1२३) 
यमक का अन्य मेद-्रवृत्ति 

प्रथमं पाद फा प्रयमाद्धं दवितीय पाद के अन्तिमि मागें तथा वृतीयपादका 
प्रथमाद्धं चतुथं पाद फे अन्तिम भाग मे आवृत्त होने के साथ-साथ यदि समस्त नामक 


कारिका ३५-३६ | तृतीयोऽध्यायः ७१ 


यृथा- 
ससार साकं दपण कदर्पेण ससारसा। 


रारन्नवाना विभ्राणा नाविश्राणा शर नवा। ३५॥ 
ससारेति । कदर्पेण कामेन साक सार्धं दपण वेगेन शरत्ससार प्रसृता । कीदशी 
सा। ससारसा सह॒ सारसः पक्षितिशेषंवंतते या सा । तथा नवानि नूतनान्यनसि 
दकटानि यस्या सा नवाना । तथा शर काण्डतरृणविदेप बिभ्राणा धास्यमाणा। तथां 
भ्राणन भ्राणः शब्दः । वीनां पक्षिणा राणो विश्राणो न विद्यते विभ्राणो यस्या सा- 
ऽविश्राणा नवविधा । सपक्षिस्तेत्यथं. । तथा नवा प्रत्यभ्रा तत्कालप्रवृत्तत्वात्‌ ॥ 
पन्ेदान्तरार्याह- 
पादसमुद्गकसंज्ञं तत्राव॒त्तानि कवते तच्च । 
ग्रन्तरितानन्तरितव्यस्तसमस्तेषु पदेषु ।॥ ३६ ॥ 
पादेति । चतुर्णामपि पादाना यान्यर्धानि तानि तत्रैव पादे परिघरत्तानि सन्ति पादे 
पादे समृद्गकराहदयातादसमूद्गक नाम यमक कुवन्ति । तच्च पादेष्वन्तरितेषु व्यव- 
हितेष्वनन्तरितेपु च तथा व्यस्तेषु केवरेषु समस्तेषु च पादेषु बहुधा भवति । ते च वहवः 
अन्तादिक कामी थोग दहो तो वहां अ्धंपरिवृत्ति' नामक यमक स्वीङृत किया जता 
है ।३४। 
श्रन्वय -स-सारसा, नव-अना, वरं विभ्राणा, न-अ-वि-्राणा, नवा शरत्‌ 
कदपेण साकं दर्पेण ससार । 
यह्‌ न्ई-नई शरद ऋतु कामदेव को साथ ककर अड़े ग्वं से सर्वत्र व्यप्त हो 
रही है । इस ऋतु मे सारस पक्षी यत्र-तत्र विहार करते दिखाई देते है । नये-नये 
शकट (छकफड) चलते है । क्षर नाम की धास यत्र-तत्र उग रही है, तथा पक्षियों का 
मनोहर शब्दे दिद्रांभ को युखरित कर रहा है ।३५। 
दसं पद्य मे (१) प्रथम पाद का आयद्धं द्वितीय पाद के अन्त्याद्धं मे आवृत्त दैः 
(२) तृतीय पाद का आचद्धं चतुयं पाद के अन्त्यद्धं मे आवृत्त हैः (३) तथा इसके 
अतिरिक्त यहाँ समस्त अन्तादिक यसक मी है--अर्थात्‌ प्रथम पाद का अन्त्यादधं दितीय 
पाद के आदयद्धं मे तथा चृतीय पाद का अन्त्याद्धं चतुथं पाद के आदयद्धं मे आवृत्त है । 
अतः यहां अद्ध परिवृत्ति नामक यमक है । 
यमक्र काशक अन्य मेद्‌ : पाद्तमदु.गक 
चासो पादो के अद्धेमाय यदि वहीं अपने-अपने पादोमेही आवुत्त किये जाते 
है तो 'पादसमुद्‌गक' नासक यमक माना जाता है । वहु यमक अन्तरित ओर मनन्त- 
रित तथ! व्यस्त ओर ससस्त पादोमे होता है \३६। | 


७२ कान्यालद्धुारः [ कारिका ३७ 


प्रकाराः पञ्चदश । कथमन्तरितं तावत्पञ्चधा । प्रथमतृतीययोष्ठितीयेन, द्वितीयचतु्े- 
योस्तृतीयेन, प्रथमतृतीयचतुर्थाना द्वितीयेन, प्रथमद्ितीयचतुर्थानां तृतीयेनान्तरणम्‌ । 
इत्येकान्तरित चतुभेदमू । प्रथमचतुथैयोस्तु द्वितीयतृतीया भ्यामिति दुव्यन्तरितमेकमेव । 
इत्यन्तरित पञ्चभेदम्‌ । अनन्तरितमपि प्रथमद्वितीययोरयुगपदिद्रितीयतर तीययोर्वा तृतीय- 
चतुथयोवेति द्वियोगे त्रिभेदम्‌ 1 त्रियोगेण तु प्रथमद्वितीयतृतीयाना द्वितीयतृतीय- 
चतुर्थाना चेति द्विभेदम्‌ । एवमेकत्रानन्तरित तत्पञ्चधा । तथा व्यस्तेषु चतुषु पादेपु 
चत्वारो भेदा. समस्तेषु त्वेक एव भेदः । इत्येव सवं पञ्चदश । 

तत्राचेऽन्तरितभेददये तथा पञ्चदशे समस्तजभेदे च दिवप्रदशनायोदाहरण- 
चरयमाह । यथा-- 


मदा सेनामुदासेनादसौ तामसमञ्जसम्‌ । 
महीनाथमहीनाथ जयश्री रालिलिङ्ख तम्‌ । ३७ ॥ 


15 अन्तरित से अभिप्राय है दो अथवा तीन पादो के बीच व्यवधान ओर अनन्त- 
रितसे अभिप्रायदहैदो पादो के बीच व्यवधान का अभाव! पाद्समुद्गक यमक के 
निम्पोक्तं १५ प्रकार सम्भव है--अन्तरित के पाच, अनन्तरित के पाच, व्यस्त के चार 
आरः समत का एक 

अन्तरित के पांच भेद-(१) प्रथम भौर त्रृतीय पादो मे समुगद्क किन्तु द्वितीय 
पादमे नही, (२) द्वितीय ओौर चतुथं मे समुद्गक किन्तु तृतीय पादमे नही, (३) 
प्रथम, तृतीय ओर चतुथं पादों मे समुद्गक, किन्तु द्वितीय पाद मे नही, (४) प्रथम, 
ह्री ओर चतुथं पादोमे समुद्गक, किन्तु व्रृतीय पादमे नही! (५) प्रथम ओर 
चतुरध+पादो मं समुद्गक किन्तु द्वितीय ओौर तृतीय पादो मे नही । 

17 ‰# -मत्न्तरित के पोच भेद-(१) प्रथम ओर द्ितीय पाद मे समुद्गक, (२) द्वितीय 
भौर तृतीय पाद मे समुद्गक, (३) तृतीयं ओर चतुथं पाद मे समुद्गक, (४) प्रथम, 
दितीय-ओौरभ् तृतीय पादो मे समुद्गक, (५) द्ितीय, तृतीय अौर चतुर्थं पादो मे 
समुद्गक; {४ 

स दैयरतःके चार भेद-चारो.पादोमे से किसी एक-एक मे समुद्गक । 

समरस के एक्‌ भेद-चारो पादो मे समुद्गक्‌ ।| 


अन्तरित पादसमुद.गक का उदाहरण 
श्रन्वय- असौ ता सेनां मृदा इनात्‌ असमज्जसम्‌ उदास । अथ अहीना जयश्वी 
त महीनाथ आटिकिद्ध। ` ° ?,. 


॥ 


उस-महीनाथ राजा ने उस (जनु) सेना को हर्षपुर्वंक (अनायास ही ) उसके 
स्वामी से पृयक कर दिया । अर्वाच सेनापति अथवा राजा को मारकर सेना को अनाथ 


कारिका ३८-३९ | तृतीयोऽध्यायः ७३ 


मुदेति 1 असौ महीनाथो राजा तां सेनां मुदा हर्षेण इनात्स्वामिनः सेनामर्तु 
सकाशादुदास चिक्षेप । वियोजितवानित्यर्थः । कथम्‌ । असमञ्जसमितस्ततः । अथानन्तरं 
महीनाथमहीना सपूर्णा जयलक्ष्मीरालिखिद् परिपस्वजे ॥ 
द्वितीयो दाहर्यमाह-- 
यत्त्वया शात्रव जस्ये मदायतमदायत 


तेन त्वामनुरक्तेयं रसायत रसायत 1! ३८ ॥] 
यदिति ¡ करिचद्राजानमाह्‌--यचस्मात्वया शत्रव शत्रृगणो जन्ये रणेऽदाय- 
तालरुयत तेन हितुनेय रसा पृश्व्यनुरक्ता सती त्वामयतागता 1 अय गतौ" इत्यस्य रूपम्‌ । 
कीटशम्‌ । शात्रव मय्नातीति मतु रिपुमयनसमर्थ॑म्‌ । आयत विस्तीणंम्‌ । यद्रा मदेना- 
यतम्‌ 1 कीदहली रसा । आयतरसा त्वा प्रति दीर्घाभिलापा ॥ 
तृतीयोदाहरमाह-- 
रसासार रसासार विदा रणविदारण । 


भवतारम्भवतारं महीयतमहीयत । ३९ ॥ 
रसासारेति । है रसासार भूश्रेष्ठ, तथा रसाना श्ुद्धारादीनामासार वेगवर्ष- 
कर दिया । तब सम्पूणं जयलक्ष्मी ते महीना का आलिद्धन किया 1३७ 
इस पद्य मे प्रथम ओर तृतीय पादो मे समुद्गक है अर्थात इन पादो का पूवद 
इन्दी पादो के उत्तराद्धे मे आवृत्त हुआ है; तथा समुद्गक युक्त इन प्रथम ओर तृत्तीय 
पादोके वीच समुद्गक-~रहित द्वितीय पाद का व्यक्धान है। अतः यहाँ प्रथम प्रकार 
का अन्तरित समुद्गक यमके दै । 
दूसरा उदाहरय 
अन्वय--यत्‌ त्वया जन्ये शात्रव अदायत्‌, तेन इये आयतरसा रसा मत्‌ आयतं 
(अश्रवा मद-भायत) त्वा. (प्रति) अनुरक्ता (सती) अयत । 
है राजन्‌ ! तुभने रण-कषेत्र में अभिमानी शत्रुम को काट-काट कर गिराया है 
इसि यहं पृथ्वी तुम पर अनुरक्त होकर बडी अभिलाषा से तुम्हारे पास आई है !३०८। 
यहाँ द्वितीय ओौर चतुथं पादो मे समुद्गक है ओौर इन दोनो के वीच तृत्रीयमे 
री है । अत द्वितीय प्रकार का अन्तरित समुद्गक यमक है) 
श्रन्तरितं पाद समुद.यक का उदाहर्य 
अन्वय --रसा-सार । रस-आसार ! रण-विदारण ! विदा आरम्भवता भवता 
मही-यतम्‌ आर अहीयत । , ~ । 
है भूमण्डल के सार { 'एद्धारादि रसो के उदाम प्रवाह रूप ! एवं युदध-विक्चारद 
राजनु ! उत्साही एवं कुर आपने समस्त पृथ्वी के क्षतरुभों को जीत लिया है । ३९। 


७४ काव्यालङ्कारः [ कारिका ४०-४१ 


तुल्य, तथा रणविदारण समरभेदकं, भवता त्वया, विदा पण्डितेन, आरम्भवता सोद्योगेन, 
आर दात्रवमहीयत हानि नीतम्‌ । जितमित्यथंः। कीहशम्‌ । मह्यां पृथिव्या यतं 
संबद्धम्‌ । हर्म्यादिवियोजितत्वादिति । अन्यदेशावृत्तौ मनोहारित्वमाधित्यते त्रिद्धोदा 
जाता. । यथान्तादिके पट्कमाद्यन्तके पट्कमिति द्रादग सभवन्ति। सप्तमभेदाम्या सह्‌ 
चतुदश । पञ्चदशार्धंपरिवृत्ति. तथामी पादसमुद्गकभेदारेच पञ्चदरोति । यथेष्टं चावृत्ताव- 
सख्याता भेदा. स भवन्ति । ते तु नोक्ताः कविलक्ष्येष्वदङनादरम्यत्वाच्चैति ॥ 

अधुना प्रकारान्तरमाह 

प्रावृत्तानि तु तस्मिन्ना्यधन्यिधंशो विभक्तानि । 


वक्त्रं तथा शिखान्त्यान्युभयानि च जायते माला ।४०॥ 

आव्ृत्तानीति । पादानामायान्यर्घान्यर्धेन- खण्डितानि तस्मिन्नेव खण्डितेऽधं यम- 
कितानि वक्त्र नाम यमक जनयन्ति । तथान्त्यार्धान्यर्धीङ्ितानि तस्मिन्नेव यमकितानि 
शिखा जनयन्तीति । वक्त्रशिखयोदच युगपद्योगे माला भवति । 

कमेरोषामुदाहरणत्रयमाह-- 

घनाघनाभिनीलानामास्थामास्थाय श्ाइवतीम्‌ । 


चलाचलापि कमले लीनालीनामिहावली ।४१।। 
धनेति । इह कमे पद्म ऽरीना भ्रमराणामावली परिक्तर्टनिा दिष्टा । 
_ कौटक्‌ 1 चलाचलापि चञ्चलापि । कीटलामटीनाम्‌ । घनाधना वार्षुकमेषास्तद्रदभि- 

प्रथम ओौर ह्ितीय पादो मे समुद्गक होने के कारण, इस पद्यमे प्रथम प्रकार 
का 'अनन्तरित समुदगक' यमक हे । 
यमके के श्रन्य तीन मेद्‌ 

पादो के प्रथम अद्धं माग का अद्धंमाग अर्थात्‌ चवुर्थाश्च यदि उसी प्रथम अद्ध 
भाग सें आवृत्त हो तो उसे “वक्र यमक" कहते ह ! पादो के दवितीय अद्धंभाग का अद्ध- 
माग अर्थात्‌ चतुर्था यदि उसी दितीय अद्धंमाय में आवृत्त हो तो "जिला यमकं" कहते 
है! ओर यदि किसी पादमं दोनोंकासंथोगहौ तो उसे "मालाः कंहूते है ।४०। 
वक्त्र यमके का उदाहर 

अन्वय- उह कमते घनाघन-अभिनीलाना अखीना चलाचलापि आवटी 
द्ादवती आस्था आस्थाय लीना । 

इस कमल मे वर्घाकानिक मेघो की तरह श्याम एवं चञ्चल श्रमरोकी 
पवित स्थिरता के साथ लीन होकर स्थित है ।४१। 

चारो पादो के प्रथमाद्धंका चतुर्थादा उन्दी पादो के प्रथमाद्धंमे ही आवृत्त 
होने कै कारण यहां वक्त्र यमक है । 


कारिका ४२-५४२ 1 तृतीयोऽध्यायः ७५ 


नीखानां श्यामानाम्‌ । कि कृत्वा । लीना शाश्वतीं स्थिरामास्थां वृत्तिमास्थाय कृत्वा । 
वक्तरमिदम्‌ । 


यासां चिते मानोऽमानो नारीभू योऽरं ता रन्ता । 


सारप्रेमा सन्नासन्ना जायेतवानन्ता नन्ता ।४२॥ 

यासामिति । सन्ना सत्पुरुषो भूय. पुनरर शीघ्र जाये्तव भवेदेव । कीहशः । 
रन्ता रमणी. । रमेरन्तर्भूतकारिता्थद्रिमयितेत्य्थ. । कास्ता. । नारी । कोटली. । 
अनन्ताः प्रद्चरास्तथा आसन्ना अस्यर्णाः । यासन नारीणा चित्ते मनसि मानोऽहकायो- 
ऽमानोऽतिबहु । कीश. । सन्ना नन्ता नञ्न. 1 सारप्रेमा स्थिरप्रीति. । इति निखा । 


भीताभीता सन्नासस्ना सेना सेनागत्यागत्या । 


धीराधीराह त्वा हत्वा संत्रासं त्रायस्वायस्वा ॥४३।। 

भीतेति । करिचदह्‌. तो राजानमाह-हे धीर निभय, आधीर मनोदुःखप्रेरक, सा 
परकीया सेना चमू. सेना सस्वामिका त्वा भवन्तमाह्‌ ब्रते । कौशी । भीता त्रस्ता, 
अभीता ममुखमागता, सन्ना सखेदा, आसन्ना निकटवतिनी, अगत्य समेत्य, अगत्या 
गत्यन्तराभावेन । कि तदाह--हत्वा विनाश्य, सवास भयम्‌, त्रायस्व पाक्य । पनः 
कीटरी । भायस्वा आयस्त्वत्सकाश्ादागमनमेव स्व धन यस्या. । इति माला ॥ 


शिखा यमके का उदाहर 

न्वय-यासा चित्तं अमान मान, ता. अनन्ता, आस्रन्नानारी रन्ता, 
नन्ता, सारप्रेमा, सतु-ना भूय. अर जायेत्त एव । 

अतिहाय सानचती गसंख्यं तथा समीपं रहनेनाली स्नियों से रमण करनेवाला, 
विनच्र तया स्थिरप्रेम से युक्त सत्पुरुष फिर शीघ्र होना चाहिए ।४२। 

चारो पादो कै द्वितीयाद्धं का चतुर्था उन्ही पादो के दितीयद्धं मे भावृत्त होने 
के कारण यहां धिखा यमक है) 
साला यमक का उद्ाह्य 

अन्वय--धीर ¦ आधी-र । सा भीता, अभि-उता, सन्ना, आसन्ना, आय-स्वा 
स-इना सेना अगत्या आगत्य त्वा आह्‌ म॒त्रास्न हत्वा त्रायस्व । 

एक दुत राजा से कहता है-ह निभेय एवं मानसिक इःखों के चिनाशक 
राजन्‌ 1 शत्रु-सेना अपने स्वामी के साथ ञापके पास आकर कहती है कि हमारे सय 
का नाश्ञ कर हमारो रक्षाकरो। वहु सेना खिन्न तथा मयमीत होकर आपके पास 
आई है, उसने पास अब ओर कोई चारा वहीं रहा । आपकी क्नरण में आना ही उसका 
एकमात्र धन है, जर्थातु उपाय है ।४३। 

इस पद्य मे वक्त्र ओर रिखाका्योग होने के कारण मारा यमक है । 


७६ कान्यालद्भारः [ कारिका ४४-४५ 


भूयो ऽप्याह- 

मध्यान्य्धर्धानि तु मध्यं कुवन्ति तत्र परिवृत्त्या । 

ग्रा्यन्तान्या्न्तं काञ्चीयमक त्थकत्र ।(४४।। 

मध्यानीत्ति ॥ तु पुनरथ । मध्यान्यर्घार्धामि पनस्तत्रैव म्ये परिवृत्त्या मध्यं 
नाम यमकं जनयन्ति । एवमाद्यन्तान्यर्वार्थानि परिवृत्त्याद्न्त नाप कुवन्ति । तदुमय- 
योगे समकरार काञ्चीयमक जनयन्ति । तथादाव्दः समुच्चये । 

तत्रोदाहरसत्रयं कमेखाह- 

सन्तोऽवत वत प्राणानतिमानिह्‌ निहन्ति नः । 


सदाजनो जनोभ्यं हि बोद्ध सदसदक्षमः ।(४५।। 

सन्त इति । करटिचदाह-हे सन्त. निष्टा., नोऽस्माक प्राणानवतं रभत । हि 
यस्मादय जनो लोके इहात्रेमान्प्राणान्तिहुन्ति हिनस्ति । वतेति खेदे । कीहमो जन । सदा- 
जनः सता क्षेप्ता । तथा सच्चासच्च युक्तायुक्त वोद्धू ज्नातुमक्षमोऽसमथं. । उति मध्यम्‌ । 


यमक के अन्यद्‌ 
मध्य अद्धद्धं (चतुर्थांश) अववत्तहो तो उसे मध्य यमक कहते है, आन्त 
[ अर्द्धाद्धं अर्थात्‌ चतुर्थाज्ञ भावृत्त हो तो उसे] (आद्यन्त' कहते ह, [तथा इन दोनों 
मध्य ओर आन्त के ] एकत्र [प्रयोग] को काञ्ची यमक कहते ह ।४४। 
इसका तात्पयं यह्‌ है--पाद के प्रथम अद्धंभाग का अन्तिम आवा भाग (अर्थात्‌ 
चतुर्थांश) यदि द्वितीय अद्धंमाग के प्रथम अद्धंभाग मे (अर्थात चतुर्थि रूप मे) आवृत्त 
हयो तो उसे मध्य यमक" कहते ह 1 
यदि पाद के. प्रथम अद्धभागे का प्रथम अद्धंभाग अर्थात्‌ चतुथ उप्ती पाद कै 
दवितीय अरद्धंभागसे दहितीय अर्धभाग अर्थात्‌ चतुर्थके रूपमे आवृत्तही तोरउसे 
"आद्यन्त यमक कटते ह । 
यदि मध्य ओर आयन्तका योग क्ियाजाएतो काञ्ची नामक यमक 
कहाता है । 
मध्य यमक क्रा उदाह्य 
द्न्वय--सन्त ! न. प्राणानू अवत । हि अय सदाजन,.जुनः उह इमान्‌ प्राणान्‌ 
निहन्ति वत । (अथच स ) सत्ू-जसत्‌ बोद्धुम्‌ अक्षम. । ` 
है सज्जनो { हमारे प्राणो की रक्षा करो । यहां मचिवेकी इष्ट लोग प्राणो का 
हनन करने वाल ह ।४५। 
प्रस्तुत पद्य मे वत-वत, निह-निह, जनो-जनो, सद-सद--पादो के इन मध्यवर्ती 
चतुर्थादा की जावृत्ति होने के कारण यहा मध्य यमकं हे । 


कि 
र 


कारिका ४६-४७ | तृतीयोऽध्यायः ७७ 


दीना दूनविषादीना शरापादितभीशरा । 


सेना तेन परासे ना रणे पुञ्जीवितेरणे ।।४६॥ 

दीना इति । कर्चित्कस्यापि कथयत्ति- हे न पुरुप , तेन केनापि वीरेण रणं 
समरे सेना चमू. परासे क्षिप्ता । कीदृशे रणे पृजीवितस्येरणे क्षेप्तरि । सेना कीहशी । 
दीना निष्पौरुषा । तथा दून परितप्त विषादी विषण्ण इन स्वामी यस्याः सा तथा- 
भूता । तथा शरोर्वाणं रापादिता भीर्भय शरो हिसा च यस्या सा तथा इत्याद्यन्तम्‌ । 


या मानीतानीतायामा लोकाधीरा धीरालोका। 
सेनासन्नासन्ना सेना सारं हत्वाह्‌ त्वा सारम्‌ ॥४७॥ 


येति । कदिचद्‌. त स्वसेनासदेद राज्ञः कथयति-- सा त्वदीया सेना पृतना, 
आर रिपुस्मूहम्‌, हत्वा विनाश्य, आह ब्रवीति 1 त्वा भवन्तम्‌ । कि ब्रवीति । सार 
प्रधान वस्तु 1 शत्रवो जिता इति निवेदयतीत्यथ. । तस्यव सारत्वादिति । कीहरी । या 
मानिभिर्मनस्विभिरिताधिष्ठिता। तथा आनीतः संपादितः परबलस्वीकारेणायामो 
विस्तारो यस्याः सा तथाभूता । लोकानामाधीमंन.पीडा ईरयति सा लोकाधीरा । तथा 
धीरो निर्भय आखोक प्रेक्षण यस्या सा तथाभूता । सेना सदण्डनायका, असन्ना 
सोत्साहा, आसन्ना निकटा । इति काञ्यीयमकम्‌ । पादसमुद्गकभेदवदन्तादिकादि- 
यमकञेदवच्वेहापि सर्वं एव भेदा द्रष्टव्या इति 1} ˆ 


श्रान्त यमक का उदाहर 

श्नन्वय-न- ! तेन प्‌जीवित-ई्रणे रणे दीना दून-विषादी-इना शर-आपादित- 
भी-कश्षरा सेना परासे । 

एक व्यक्ति किसी से कह रहा है--है मद्रजन ! उस वीर पुरुष ने प्राणो का 
हरण करने वातं रण में सन्तप्त तथा विषण्ण स्वामी से युक्त, शर-वर्षा से नष्ट हई 
तथा उरी हुई उल्साहहीन सेना को तितर-बितर कर दिया ।४६। 

प्रस्तुत पद्य मे प्रत्येक पाद का प्रथम चतुर्थादि उसी पादके अन्तिम चतुर्था 
के रूप से आवृत्त होने के कारण जायन्त यमक" है । 
माला यमक क्रा उदाह््य 

न्व्य--या मानी-इता, आनीत-आयामा, छोक-आधी-रा, धीर-आखोका सा 
स-इना, असन्ना, आसन्ना सेना आर हत्वा त्वा सार आह । 

एक दुतं राजा से अपनी सेना का वृत्तान्त युना रहा है-है राजन्‌ { सेना- 
नायक को अध्यक्षता मे आपको सेना शच्रुमो को भारकर आपसे विजय का समाचार 
निवेदित करती है । इस सेना के संनिक मनस्वी तथा उत्साही है 1 पराजितःशश्रुमों 


७८ कान्यालद्धारः [ कारिका ४८५० 


"पाद द्विधा त्रिधा वा विभज्यः (३।२०) इत्युक्तम्‌, तत्र द्विधा विभक्ते यम- 
कान्यास्यायेदानी त्रिधा विभवतस्याह- 


पादस्त्रिधा विभक्तः सकलस्तस्यादिमध्यपयंन्ताः | 


तेष्वपरत्रावृत्त्या दश दक यमकानि जनयन्ति ।#४८।। 

पाद इति । यस्य पादस्यत्रिधा भाग. संभवति स त्रिधां खेण्डितस्ततश्च 
तस्यादिमध्यान्तभागा अपर पादान्तरे तेष्वेवं प्रथमदितीयतृतीयभागेपु यथाक्रमं 
यमकिता दश दश्च यमकानि पुवंवज्जनयन्ति । एवं त्रिंशय मकानि भवन्ति ॥ 

एतदाह 

सुमतिरिमानि तीण्यपि पादावृत्तिक्रमेण दशकानि । 


यमकानां जानीयात्तद्दाहरणानि तद्रच्च 1४६।। 
सुमत्तिरिति । एतानि यसकाना चीणि दराकानि प्राज्ञ. पादावृत्तिक्रमेण मुख- 
सदशादिसज्ञाभिर्जानीयात्‌ । तदुदाहुरणान्यपि तदेव तेनेव प्रकारेण 1 सर्वं चतदु द्विधा 
विभक्तपाद इवं यमकजात ज्ञेयम्‌  केवक्छं त्रतीयभागकृतो विक्ेष. । 
तदेवाह-- 
ग्रन्तादिकमिव षोढा विभिन्नमेतत्करोति तावन्ति) 


यमकान्या्यन्तकवत्तथापरामधेपरिवृत्तिम्‌ ।५०॥। 
अन्तादिकमिति ! यथान्तादिकमाद्यन्तक च पूर्वत्र पोढा भिन्न सत्परत्येकं षड्‌- 


को अपनी सेना सें प्रविष्ट कर लेने से यह विक्लारू हौ गई है तथा लोगों के मानसिक 
सन्तापो का ना करने वाली है 1४७) 

भ्रस्तुत पद्य मे मध्य ओर आद्यन्त का योग होने के कारण काञ्ची यमक' है । 

[पी कह आये है कि पाद के दो अथवा तीन भाग करके उनकी आवृत्ति से 
अनेक यमक-भेद सम्भव दै (देखिए ३।२०)} । पाद के दो भाग करके अनेक भेद दिखाये 
गए ह । अव आगे तीन भाग करके भेद दिखाये जाते है 1] 

यदि पाद के तोन भाग--आदि, सध्य मौर अन्तके रूप से- करके उनकी 
परस्पर आवृत्ति की जाए तो दक्ष प्रकार कां यमक बन जाता है \४८) 

इस प्रकार बुद्धिनान व्यक्ति को पादो की परस्पर मावुत्तिकै क्रम से उक्त 
तीन दशको अर्थातु तीस रकार के यमक-मेदो के उदाहरण जानने चाहिए \€४। 

जसे यह्‌ इलेष अलंकार “अन्तादिक' के [उक्त] छः भेदो मे विभक्त है, तथा 
जसे थह [शेष ] अन्तादिकि को मी छः भेदो [मे] विभक्त करता है, उसी प्रकार 
यह्‌ श्लेष अ्धेपरि वर्ति" नामक अकार फो भी [ उत्पन्न ] करता है ।५०। 


कारिका ५१-५३ | तृतीयोऽध्यायः - ७६ 


यमकानि जनितवत्तथेदमपि । तथापरांमन्याम्धपरिवृत्ति देधाविभक्तपादवज्जनयति । 
तथारब्दस्योभयत्र योग ॒। इति त्रयोदश यमकानि ।) 

एषामुदाहटसानि कानीत्याह- 

तद्टदुदाहरणान्यपि मन्तभ्यानि त्रयोदशेतेषाम्‌ । 


कृत्वा्धंराद्च भागानिहापि सर्वं तथा रचयेत्‌ ।५१॥ 
तदिति ! उदाहरणान्यपि तद्देव योदा नेयानि । उपलक्षण चतत्‌ । पाद- 
समुद्गकवदिहापि पच्वदराना भेदाना सभवत्केवलमिह भाग्यस्य सादृश्यम्‌ । तत्र तु 
यस्य पूनरपि भेदानाह्‌--कृत्वाघंशद्चेत्यादि । यथा पूवे्रार्पार्धानि कृत्वा वक्त्रिखा- 
माकामध्याद्यन्तकाश्वीयमकानि कताल्येवमिहापि कर्तन्यान्युदाहरणानि च देयानीति ॥ 
भूयो भदान्तरारयाह-- 
स्थानाभिधानभासिजि त्रीण्यन्यानीति सन्ति यमकानि । 


म्रादिर्मध्येऽन्ते वा मध्योजन्ते तत्र परिवृत्तः ।॥५२॥ 

स्थानेति । त्रिधा विभक्ते पदेऽन्यानि त्रीणि वक्ष्यमाणानि यमकानि सन्ति। 

कि नामधेयानीत्याहू--स्थानाभिधानभाज्जीति । स्थानकृतमभिधान भजन्ते यानि । कथ- 

मित्याह--आदिमागे मध्यभागेन यमकिते आदिमध्ययमकम्‌ । आदिभागेऽन्त्येन चेत्त- 
दाद न्तयमकमू । मध्यभागेऽन्त्येन यदि तदा मध्यान्तयमकम्‌ ॥ 


तदुदाहरख॒त्रयं कमादाह-- 
सरणे सरणेन नृपो बलितावलितारिजनः | 
पदमाप दमात्स्वमतेरुचितं रचितं च निजम्‌ ।५३।। 


इसका आराय यहं है कि अन्तादिक ओर आद्यन्तकके छः-छ भेदो के 
अतिरिक्त एक अन्य १२वां भेद भी होता है-अधंपरिव्रत्ति, जिसका तात्पय॑ है पाद के 
आधे भाग की आवृत्ति । । 

इसी प्रकार इन १३ यमक-मेदों के १३ उदाहरण भी जानने चाहिए । तथा 
आधे का आधा भाग करके मी [पुर्वोक्ति चक्न, शिखा, माला आदि के समान] यहां 
भी इसी प्रकार के भेदो की रचना करनी चाहिए ।५१। 

स्थान [के आधार पर] अभिधान अर्थात्‌ नामको धारण करनेवारे तीन 
यमक~भेद जर होते है--(१) आदि की मध्य मेँ आवृत्ति, (२) आदि की अन्तमें 
मवृत्ति, (३) ओर मध्य की अन्त में आवृत्ति ।५२। 

इनके क्रमश तीन नाम इस प्रकार है--आदिमध्य-यमक, भाद्यन्त-यमक भौर 
मधघ्यान्त-यमक । 


८9 काव्याल्द्धारः [ कारिका ५४ 


स इति । स करिचन्वृपो रणे समरे सरणेने थानेन तथा दमादूपक्षमान्च हैतोः 
स्वमतेनिजवृद्धंरचित योग्यं सुचित्तमिष्ट च निज स्वकीय पद स्थानसाप लेभे ! कीहशो- 
ऽसौ 1 वक्ता वक्ित्व तया वलितो वेष्टितोऽरिजनः शनुरोको येन स तथाविधः । 
दूत्यादिमध्यम्‌ ।। 


घनाघ नायं न नभा घनाघनानुदारयन्नेति मनोऽनु दारयन्‌ । 
सखेऽदयं तामविलास सेदयन्नहीयसे गोरथवा न हीयसे ।1५४।। 


घनेति । एतत्प्रावृपि पथिकस्य सुहुदोच्यते-है घनाध गृहाननुसरणादृबहुपाप, 
अयमसौ नभाः श्रावणो मासोन नंति! अपि स्वायात्येव । नमःशन्दो मासवाचकः 
पृकिद्धः । कीटसो नभाः । घनाचनान्पजख्जरदानुदास्यन्विस्तारयनच्‌ । अनु पर्चाच्च 
मनरिचत्त दारयस्विपाटयन्‌ । तथा हे सखे अविखास निर्खीकि, ता कान्तामदय निर्दयं 
तेदयन्नदरेजयन्नहीयसे सर्पायसे 1! अथवा गोवंखीवर्दान्न हीयसे । बरीवदं एवासीत्यथंः । 
इत्याद्यन्तयमकम्‌ ।। 


आादिमभ्य-ययक का उदाहरण 

द्न्वेय - सः बकित-वलित्त-अरिजनः नृपः रणे सरणेन, दमात्‌ स्वमते: उचितं 
रुचितं च निजं पदम्‌ आप । 

अपने पराक्रमसे शान्रुजों को घेरकर इसं राजाने युद्ध वीरता हारा तथा 
साभनीति का आश्य लेकर अपनी बुद्धि के अनुकल अभीष्ट पदं प्राप्त कर ल्या 
है ।५२। 

उक्त पद्यमे चारों पादो का त्रतीयाश [सरणे, वलिता, पदमा, रचित रचित] 
अपने-अपने पादो के मध्य मे आवृत्त हुआ है । 


श्रायन्त यमक का उदाहरण 
वेय---घन-अघ ! घनाघनानच्‌ उदारयन्‌, अनु मनृःन्दाःस्यून्‌) =अप्रात्रभाः-ल 

त एति । सञ्े {-ध्िकासनत्मा-सुदपरंसेद्य्ुलदी्रसे अथधवा-गोः-च्‌-हीयङ्ने- 
> [रएकू निनःक्रिसौ -भवासी-को कह रह्म है - (धर. स्--जाने > : कारण) +-सरे 
महापोपौ } जलपुणं मेधो का। विश्तारक्ररता -हुञा,.-फिर(मन्‌.कमे विदीणे करता, हश्रा 
कृपा श्यहश्रावण कपातमास त्रीं जा,गय्‌ा \--हे- विकासश्च. तिरक्त -युरुष 1 - निर्दंयता- 
षश.उ्त. अप्रत्य परिया कोड. पर्हेचृति"वाल तुमृ.-सप्रतुत्य हो यथवा बेल-से-त्रो-ङ्किपरी 
प्रकार कम नही हो, अर्यात्‌ मूर्खो, 1४ - नः प ब = ४ 
-{= ---ष्डक्तमपय मे्तासे पादौ -प्रथम्न-तृतीग्रव्यि.-{बनाप्रना,--नुदाद्ययन्‌, सेदं, 
नहीयसे | को उन्दी पादो के अन्त मे आत्रत्त किया गया है । 


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कारिका ५५-५६ | तृतीयोऽध्यायः [ ८१ 


ग्रसतामहितो युधि सारतया रतया । 
स तयोरुस्चे रुषचे परमभवते भवते ।५५।। 


असतामिति । हे उरुरुचे विस्तीणैकान्ते 1 अथवा उर्वी र्यस्य स तस्म विस्तीणं- 
कान्तये । स करिचद्वीरो भवते तुभ्य रुरुचे प्रीतिमुत्पादितवान्‌ । तया जगत्प्रसिद्धया 
युधि रणे सारतयोक्छृष्टतया हितुभूतया । कीदृश्या । रतया सक्तया । सबद्धयेत्यर्थंः । 
कीहशोऽसौ । असता दुजेनानामहितो द्रोहकारी । अत एव महितः पूजिते. । भवते 
कीरश्षाय । परमा उक्कृष्टा इभा हस्तिनो विन्ते यस्य स तथा तस्म ॥ 


रथो पतंहारं कुव॑न्ननियतदेशावयवयमक्रानामानन्त्यमाह-- 
थमकानां गतिरेषा देशावयवावपेक्षमाणानाम्‌ । 
्रनियतदेशावयवं तदपरमसंख्यं सदेवास्ति ।५६।। 


यमकानामिति । देश आदिमध्यान्तलक्षणः! अवयवोऽधेत्रिभागादिः । तौ देश्षाव- 
यवावपेक्षमाणानामत्यजता यमकाना गतिरेषा परिपाटीय पूर्वोक्ता । यत्तु यमक देशाव- 
यवौ नापिक्षते तदपरमसस्यमससख्यातम्‌ । तच्च महाकविरक्षयेषु सदेव साध्वेवारिति 
विद्यते । एतदुक्त भवति--स्वेच्छाक़ृतत्वेनानन्तत्वात्तस्यं लक्षण कतु न दाक्यते | 
केवल महाकविलक्ष्यदरोनाज्जेयम्‌ । 


मध्यान्त यमक का उदाहरण 

अन्वय-उरुख्चे 1 असता अहितः स. तया युधि सारतया रतया परम-इभवते 
भवते रुरुचे । 

है अतुल कान्तिमान्‌ ! इष्टो के अहितकारी उप्त वीरने युद्ध मे अपनी अनुपम 
वीरता से सुन्दर गजसेना रखनेवाक आपके हदय में अपना स्थान बना चया है ।५५। 


इस पद्य मे तीन पादो के मध्य भाग रतया, रुरुचे, भवते] को अन्तिम भाग 
मे आवृत्त किया गया है | 


इस प्रकार देश्च अर्थात्‌ आदि, मध्य ओर अन्त ओर अवयव अर्थात्‌ पाद के 
अद्धंभाग अथवा तिहाई माग की अपेक्षा रखनेवाङे यमक कौ यही उक्त व्यवस्था है 1 
किन्तु जिस यमक में देशं ओर अवयव नियत नहीं है, उसके असंख्य मेद हैँ ओर वह्‌ 
(उसका काव्यो में प्रयोग) सुन्दर होता है ।५६। 


प्रनियत देश तथा अवयव यमक का उदाहर 
श्रन्वय--सा अकिनी तेन (दयितेन) सह॒ निषेविता कमिनी (सम्प्रति) 
दयितं चिना न सहते 1 अधुना मधुना हदि निहित रतिसार तं प्रियं अहरनियं स्मरति । 


॥ 
श्र 


८२ काव्यालद्खारः [ कारिका ५७-५८ 


त्त्र तु दिड्मात्रप्रदशेनाथंमाह-- 

केमलिनीमलिनी दयितं विना न सहते सह्‌ तेन निषेविताम्‌ ¦ 

तमधूना मधुना निहितं हदि स्मरति सा रतिसारमहनिराम्‌ । ५७॥ 
कमलिनीति । साली भ्रमरी दयित प्रियं चिना कमलिनी पयिनी न सहते न 

क्षमते । ता हृष्ट्वा तप्यत इत्यथ. । कीदशी कमलिनीम्‌ । तेन दयितेन सह्‌ सम निपेवि- 

ताम्‌ । कि तर्हीदिनी करोतीत्याहु-त त्रियमघुनेदानी मुना वसन्तेन हृदि मनसि 

निहितमपित रतिसार रप्प्रधान सा स्मरति ध्यायति । अहनिज दिवानिगम्‌ । अव्र न 

देशविभागेनाद्ृत्तिनप्यवयववि भागेन । यतो द्र.तविचम्विताख्य द्वादशाक्षरमेतद्रत्तम्‌ । 

अस्यां षडक्षराणि । अत्र च प्रथममक्षरं मृक्ला त्रीणि यमकरितानि ॥ 

तथा- 

कमलिनी सरसा सरसामियं विकसितानवमं नवमण्डनम्‌ । 

किमिति नाधिगता धिगताहं मधुकरेण बताणवता कृतम्‌ |! ५८॥ 


कमकिनीति । उय कमिनी पबिनी किमिति तस्मान्मधुकरेण भृद्धण नाधिगता 
न सप्राप्ता । धिक्कष्टमू । तेनाणवता गब्दवता तादृशमयुक्त कृतम्‌ । विग्वतशब्दावनत्र 
खेदाधिवय सूचयत. । कीदशी । सरसा नूतना । विकसिता प्रफुल्ला । अत एव सरसा 


जलारयानामनवम श्रेष्ठ नवमण्डन प्रत्यग्रालकरणम्‌ । अत्रापि देनावयवानपेक्षयात्रृत्ति. ।1 


प्रिय के साथ कमलिनी के रस का आस्वादन करनेवाली वहु भेवरी अव श्रिय 
के वियोग में कमलिनी का दर्शन नहीं सह सकती, अर्थात उसे देखकर संतप्त होती 
है । इस मधुमास में अपने रति-सर्वस्व प्रिय का चिचार जा जाने से रात-दिन उसका 
स्मरण करती रहती हे 1५७ | 

उक्त पद्यमे पादके किसी भी अवयव की आचरत्ति का स्थान नियत नही दै। 
एक अन्य उदन्य 

प्रन्वय--इय सरसा, विकसिता, सरसा अनवम नवमण्डन कमलछ्िनी मधु- 
करेण किमिति न अधिगता चिक्‌ । अणवता (तेन) अतादग कृतम्‌, वत । 

सरस, विकस्तित एवं सरोवरों का श्रेष्ठ मण्डन-रूप यहु कमलिनी श्रमर को 
क्यों नही भराप्त हृदं । बडे खेद की वात है कि भ्रमर ने कोलाहूल करके यह अनुचित 
कायं क्रिया है [गौर कमलिनी को प्राप्त नहीं कर सका ] ।५८ 

दस्र पद्य मे भी उपर्युक्त स्थिति दै । 


कारिका ५९ | तृतीयोऽध्यायः ८३ 
त्रध्यायमुप्तहरन्यमकस्वरूपं विपयं चाह-- 
इति यमकमशेषं सम्यगालोचयद्धिः 
सुकविभिरभियुक्तेवेस्तु चौचित्यविद्धिः । 
सुविहितपदभङ्धं सुप्रसिद्धाभिधानं 
तदनु विरचनीयं सगेबन्धेषु भूम्ना । ५६९ ॥ 
इतीति 1 इति पूर्वोक्तं यमकमशेषं सर्वं समस्तपादंकदेशज सम्यग्यथान्याय- 
मालोचयद्धि सत्कविभिरभियुक्तं. सावधानं. । तथा वस्तु च चिषयविभागमालोचयद्भि । 
यथा कस्मिन्ससे कर्तेव्यम्‌, क्व वा न कर्तव्यम्‌ 1 यमकरकषचित्राणि हि सरसे काव्ये 
क्रियमाणानि रसखण्डना कुर्यू: विशेषतस्तु शृद्खारकरुणयोः कवे. किलतानि शक्ितिमात्र 
पोषयन्ति, न तु रसवत्ताम्‌ । यद्क्तमू--"यमकानुलोमतदितरचक्रादिभिदो हि रस- 
वि रोधिन्य । अभिधानमात्रमेतद्गड्ूरिकादिप्रवाहो वा + प्रयोगस्तु तेषा खण्डकाव्येषु देव- 
तास्तुतिषु रणवर्णंनेथु च 1 तदेवाहु-ओचित्यविद्धिरिति 1 ओौचित्य यमकरादिविधाना- 
स्थानस्थानादिके विदन्ति ये ते" । कौदृशं यमकम्‌ । सुष्टु विहिता हूदयगमा पदभद्खा 
यत्र॒ तत्तथाभूतम्‌ । तथा सुप्रसिद्धान्यभिधानानि वस्तुवाचकशल्दा यत्र तत्तथाभूत 
यमकम्‌ । तदनु चौचित्यादिज्ञानानन्तरं विरचनीयस्‌ । भूम्ना बाहुल्येन स्गेवन्धेपु महा- 
काब्येषु 1 नाटककथाख्यायिकादिपु पुनः स्वत्पमेवेत्यथ. ॥ 


_ इति श्रीरद्रटक्ते काव्याखकारे नभिसाधुविरचितटिप्पणसमेत तृतीयोऽध्यायः समाप्तः । 


इस अध्याय मे निरूपित यमक के समस्तपादज, एकदेश्ज आदि भेदोंका 
अच्छी तरह पर्यवेक्षण करके एवं यमक के प्रयोगक्षेत्र को ध्यान में रखते हृए ओौचित्य 
के ज्ञाता सत्कचिगण इसकी रचना मे प्रवृत्त हों । प्रसिद्ध शब्दों का चयन तथा पदों 
कामद्ध ठीक प्रकार से होना चाहिए । मुख्यतया महाकाव्यं मे इसका प्रयोग समी- 
चीन है" नारक, कथा. आख्यायिका आदि में इसका प्रयोग कम ही होना चाहिए 1५६॥ 
[यमक के प्रयोग मे ओंचित्य का ध्यान रखना अपेक्षित होता है । विशेषत. रस के 
क्षत्र मे किस रस मे इसका प्रयोग उचित रहेगा ओौर किस मे अनुचित, यह्‌ बड़े अवधान 
का विपय है 1 वस्तुत. यमक, इरप आदि सरस काव्य मे रस का व्याघात ही उत्यन्न 
करते है, विशेषतः श्यगार ओौर करुण मे। इसका कारण यह्‌ है कि इन दोनो अरकारो 
का प्रयोग कवि के विनाल शब्द-ज्ञान एव उसके प्रयोग की प्रवीणताकोतो प्रकट 
करते है किन्तु इससे काव्य की रसप्राणता पर आवरण छा जाता है, जो कि उसका 
मुख्य तत्त्व ह 1 हा, खण्डकाव्य, रणवर्णन, देवस्तुति आदि के अतिरिक्त गद्य कान्य-- 
ये सभी यमक आओौर इरप के प्रयोगक्षेत्र है ।] 
इति अंसुप्रभाऽऽख्य-हिन्दी-व्याख्यायां तृतीयोऽध्याय समाप्त. । 


८४ काव्यालद्खुारः | कारिका १ 


चतुर्थोऽध्यायः 
यमक्रं व्यास्यायं श्लेप' व्याचिस्याुराह- 
वक्तु समथ मथं सुदिलष्टाकिलिष्टविविधपदसंधि । 


युगपदनेक वाक्यं यत्र विधीयेत स रलेषः 1१ 
वक्तुमिति । यत्राकारे युगपत्तृल्यकालमेकप्रयलनेनंवानेक हयादिकं वाक्यं विधी- 
येत स इकप । युगपत्पदग्रहुणान्महायमकादीनां ज्लेपत्वनिश्रत्तिः । कीटगम्‌ । वाक्यमर्थ- 
मभिघेय वक्तु भणितु समर्थं नक्तम्‌ । अनेकमितीहापि द्रप्टन्यम्‌ । तथा सुष्टु चकष्ट 
सुप्रयोजितोऽक्िकिप्टः कष्टकल्पनारहितो विविधो नानाविवः पदाना सुप्तिडन्तानां संचि- 


रेकी भावो यत्र तत्सुदिकप्टाकिकष्टविविधपदसधीति । 


चतुथं अध्याय 

इस श्ध्याय मेँ श्लेप नामक शब्दालंकार का निरूप्या ह | 

रकेष का लक्षण देने के उपरान्त इसके निम्नोक्त आठ भेदो के लक्षण गौर 
उदाहरण प्रस्तुतं किये गये है--वणंगत, पदगतं, छिगगत, भापागत, प्रकृतिगत, ्रत्यय- 
गत, विभक्तिगत गौर वचनगत } भापागत द्केप के अन्तगंत निम्नोक्त भापागोके 
उदाहरण दिये गये ह--(१) सस्कृत, मागधी, (२) सस्कृत, पिनाच, (३) सस्छत, 
गूरसेनी, (४) संस्कृत, अपश्र श । इन आठ भेदो के उपरान्त देप के सम्बन्ध मे कहा 
गया है कि भाषा-उकेप के अतिरिक्त अन्य सभी दकेप-प्रकार अकारो (अर्थारुंकारो) 
से संस्पृष्ट रहते है, विेपत उपमा गौर समुच्चय के साथ तोये बवैचित्र्यको वारण 
करते है । रद्रट का थह प्रसग भामह से गृहीत है । (देखिए बागे ४।३१-३४) । 

[ अर्थ्टेप तथा इरेष-विषयक अन्य शास्त्रीय चर्चा के लिए देखिए प्रस्तुत 
ग्रन्थ का दशम अध्याय 1] । 
श्लेष 

जिस [ रचना] नें हिलष्ट (अर्थात्‌ सुनियोजित, उचित प्रकार से जुडे हुए); 
अक्लिष्ट (अर्थात्‌ कष्ट-कल्पना रहित) तथा विविघ पदों (सुवन्तों ओर तिङन्तो) की 
सन्धि से युक्त ेसे अनेक वाक्यों कौ युगपद्‌ (अर्थात्‌ एक साथ, एक काल्मे ही, स्पष्टतः 
कहं तो एक वाक्यमें ही) रचना हो जो [अनेक] मथं बताने में समर्थं हो, वहां श्केष 
भकंकार माना जाना है! 

सद्रट से पूर्वं भामह, दण्डी ओौर उद्भट ने दकेप अल्कार का निरूपण किया है । 
इम अककार के सम्बन्ध मे दो वाते ज्ञातव्य है-- 

(क) इस अख्कार मे उपमान ओर उपमेय के समन धर्मो मे दचर्थकता के 
आधार पर समानता रहती है । 


कारिका २ | चतुर्थोऽध्याय. ८५ 


सामान्यलक्षरमभिधाय तरिरोषाभिधानाय शृलेषप्रकारानाह-- 
वणेपदलि द्ग भाषाप्रकृतिप्रत्ययविभक्तिवचनानाम्‌ । 


प्रत्रायं मततिमद्धिविधीयमानोऽष्टधा भवति 1२) 

वर्णेपदेति। अचर शब्दारुकारेष्वय रेषो मतिमद्धिविधीयमानो धीमद्धि क्रियमा- 
णोऽष्टधाष्टप्रकारो भवति । केषा विधीयमान इत्याह्‌-वणत्यादि । वणंश्च पद च क्िद्खं' 
च भाषा च प्रकृतिश्च प्रत्ययरच विभक्तिश्च वचन च वणंपदलिद्कभाषाप्रकृतिप्रत्यय- 
विभक्तिवचनानि तेषाम्‌ । वर्णपदादिविषयभेदात्तन्नामाष्टधा रेकेप इत्यथं । अत्रेति 
परमतनिरासार्थ॑म्‌ । अन्यंह्य विशेषेण शब्दार्थयो. रङेषोऽभ्यधायि । वर्णादिनिदशादेवाष्ट- 
विधत्वे' छन्घेऽष्टथेति नियमाथंम्‌ । मेदे सत्यण्टधेव नान्ययेत्यथेः केचिद्धि पदेषु छिद्ध- 
मन्तभवियन्ति 1 म्रत्यये च विभक्तिवचने । विभक्तौ च वचनम्‌ । तदेतन्न चारु ! भेद- 
दशंनात्‌ । तथाहि हार इति भूषण मुक्ताकलाप., हरण हारो मोष , हरस्यायं हार. 
कोऽप्यथंः इत्यत्र पददलेषेऽपि लि द्खुदकेषो न विद्ते । सवत्र पुर्द्धित्वात्‌ । तथा पद्मो 


(ख) यह समानता अरूग-अख्ग न कही जाकर युगपद्‌" ही कही जाती है-- 
(क) उपमानेन यत्तत््वमुपमेयस्य साध्यते । 
गुणक्रियाभ्यां नाम्ना च विलष्ट तदमिधोयते ॥ 
>< >< >< 
इष्टः प्रयोगो युगपदुपमानोपमेययोः ॥ 
का० अण० (भा०) ३।१४-१५ 
(ख) हिलष्टसिष्टमनेकाथंमेकरूपान्वितं वचः ॥ 
का० दे० २।३१० 
इधर सुद्रट के उक्त लक्षण मे प्रयुक्त युगपद्‌ अनेकवाक्यम्‌' यह कथन दयर्थकेता 
तत्तव की ओर प्रकारान्तरसे ही सकेत करता है! वस्तुत इनका यह कथन भामह के 
निम्नोक्त कथन से प्रभावित है- 
“इष्ट प्रयोगो युगपदुपमानोपमेययोः 1“ भामहाककार ३।१५ 
अर्थात्‌ -र्केष अकार मे उपमान ओौर उपमेय का प्रयोग युगपद्‌" अर्थात्‌ 
एक साथ करना अभीष्ट रहता है । 
बुद्धिमानों ने इस दरेष के आठ प्रकारो का इस प्रकार परिगणन किया है-- 
(१) वणं, (२) पद, (३) लिद्ध, (४) माषा, (५) प्रकृति, (६) प्रत्यथ, (७) 
विभक्ति ओर (८) वचन । २। 
रुदरट से पू दण्डो ने इष के अनेक भेद गिनाये है । भामह ने इरेपके भेदो का 
उत्छेख नही किया, इसके तीन रूपो ओर तीन आधारो की चर्चा-मात्रकी है! उनके 


स कान्यालद्धारः | कारिका द-४ 


निधि. पद्म कमलम्‌, पश्चा श्रीरिति लि ज्खद्लेपेऽपि पदमभिन्नम्‌ । तथा तपनस्याय ताप- 
यतीति वा तापन. । इत्यादिषु प्रत्यथभेदेऽपि विभक्तिवचनभेदो न विद्यते । तथा सतां 
मुख्यः पुर.सरः सन्मुख्य. सच्छोभन मुखं यासा ताः सन्मुख्यः इत्यत्र वचनभेदेऽपि विभक्ति 
भेदो न विद्यते इति भेदप्रतीतेनं गोभनोऽन्तर्भाव इति 1 

यथो देशस्तथा निर्देश इत्याद वरश्लेपलक्चणमाह- 

यत्र विभवितप्रत्ययव्णंवदादंकरूप्यमापतति । 

वर्णानां विविधानां व्णैदलेपः सः विनेयः 11 ३॥ 

यत्रेति । यत्रे विविधाना नानारूपाणां वर्णानामैकरूप्य साम्यमागन्छति स वणं - 
दन्ेषः । विरूपाणां कथ सादहदयमित्याहू-विभवित्तवकछास्रत्ययवल्ादर्णवलाच्चेति ॥ 

उदाहररमिदम्‌- 

साधौ विधावपर्तावषराहावास्थितं विषादमितः। 

ग्रायासि दानवत्तवं तद्धर्म्यं परमकुर्बाणिः 11४1 


अनुसार द्रकेप के तीन रूप है--गुण, क्रिया गौर नाम, तथा इसके तीन आधारे 

सहोक्ति, उपमा गौरं दतु [का० अ० ३1 १४-२०] । उक्त तीन कूप परवर्नी इकेप-भेदों 
कै वीज माने जा सकते है, ओर उक्त तीन आधार इस शास्त्रीय चर्चा के उद्गम मने 
जा सक्ते दहै कि ञ्छेप विविक्त रहता है अथवा नही [विनेप विवरण के च्िए आगे 
देखिए ४।३१-३४] । 

दण्डी के अनुसार इटेप के दो प्रमुख भेद दै--अभिन्नपद ओौर भिन्नपदयप्राय । 
इन्हे क्रमणः अभद्ध गौर सभद्ख भी कहं सकते है! (का० द० २।३१० } इनके 
अतिरिक्त दकेप निम्नोक्तर्पोमे भी प्रकट किया जा सकता ₹ई--अभिन्नक्रियरकेप, 
मविम्द्धक्रियश्केप, विर्द्धक्रियण्केप, सनियमदरेप, नियमा्नेपल्पकोक्तिरकप, अविरोधी 
च्छेप, विरोधी दकेप आदि (का० द० २।३१४, ३१५) । 
वणुश्लेप 

जहा विभक्ति, प्रत्यय ओर वणं के कारण विविध वर्णो में एकख्पता आ जाती 
है उसे वर्णश्लेष कहते है 1३1 


उदर्य 

दिल्ट पदों का अर्थ- 
साधी-- (क) यभेरसयुक्ते, (ग्व) सुन्दरे 1 
विधी-- (क) देवे, माग्ये, (ख) चन्द्रमसि । 


अपर्ता-- (क) अपगतकाटविदेपे, 


कारिका | चतुर्थोऽध्यायः ८७ 


साधाविति । अत्र महासत्त्वो दरिद्रो वण्येते--कदिचन्नरो दानवतो भावो दान- 
वत्व दातृत्व॒तत्पुराृतमकूर्वाणोऽसपादयन्विषाद खेदमितः प्राप्त. । कीहश दातृत्वम्‌ । 
विधिर्देव तस्मिन्नास्थिनमायत्तम्‌ । दवाधीनमित्य्थैः। द॑वेऽनुङ्ककं भवतीति भाव. । 
कहे विधौ । सहाधिभिवै्तत इति साधिस्तस्मिन्‌ । नित्यमेव मनःपीडावह्‌ इत्यथं । 
तथापरौ सदा सनिधानादपगतोऽ्त्‌ कारुविश्ेषो यस्य सोऽपर्तृस्तस्मिन्‌ 1 तथापराहाव- 


(ख) गतिरदहिते, सदाऽवस्थिते । 


अपराहौ- (क) रान्रुविहीने अहिवत्‌ कुटि च 

(ख) अपगतराहौ 1 
आस्थितम्‌ -- (क) आधीनम्‌, (ख) आस्थाधारिणम्‌ । 
विपाद-- (क) खेदम्‌, (ख) कालब्रुटभक्षक (दिवम्‌) 1 
इतः-- (क) प्राप्त. (ख) अस्मात्‌ प्रदेशात्‌ । 
आयासि-- (क) आयासजनकः खेदावह्‌, (ख) आगच्छसि । 
दानवत्त्वम्‌-- (क) दातृत्वम्‌, दानरीरताम्‌ 


(ख) दानव [त्वम्‌ =है दनुसुत ! त्वम्‌ (वाणोाधुर ) । 

(तत्‌) धम्यम्‌-- (क) धमेसयुक्तम्‌, श्र ष्ठम्‌ 

तत्‌ हर्म्यम्‌-- (ख) तस्य स्थानम्‌ । 

प्रम्‌, अकूर्वाण --(क) श्र ष्ठम्‌, असपादयन्‌ 

परम-क्‌ -वाणः-- (ख) उक्कृष्टा भ्रूमि (निर्वाण-पदम्‌ । बाणासुर. ।) 
प्रथम अथं 

्न्वय- [करिचिन्‌ नर ] साधौ अपतौ अपराहौ विधौ आस्थितं धर्म्यं आयासि 
तद्‌ दानवत्त्वम्‌ अकुर्वाणः पर विषादम्‌ इतः । 

करे महासत्त्व मनुष्य दरिद्र वन जाने के कारण पूवत दान अव नही कर 
सकता, अत. अत्यन्त खिन्न है ! उसी का वणन इस इ्लोक मे है-- 

[कोई महासत्त्व पुरुष ] आधिसंयुक्त अर्थात्‌ मन को अन्ञान्त करने वाटी, 
कालरहित अर्थात्‌ सदा साथ रहने वाखी, तथा मानो दूसरे स्प के सदश्च [ दु वदाय] 


विधि फे अधीन, धर्म॑सम्मत तथा [अबन हो सकने के कारण] खेद देने वारे दान 
कोन करता हुभा विषाद को प्राप्त हुमा 1४1 
हितीय अथं 


श्रन्वेय--दानव ! त्व वाण. इत. साधौ अपर्तौ अपराहौ विधौ आस्थित विपाद 
तद्‌ ह॒म्य परम-कू जायासि। 

कोई वाणाभुर से कहता है- हे दानव । तुम, कालक्रट-विष भक्षण करनेवाक, 
राह के अक्रिमण से मुक्तः सुन्दर तथा [ क्षिव के मस्तक पर ] सदावत्थित चनरमापर 


८ काव्यालद्खुारः | कारिका ४ 


विद्यमान. परः प्रतिपक्षो यस्यासावपरः स चासावदहिर्वे सपंश्व पीडाकारित्वादपराहि- 
स्तस्मिन्‌ । अपरस्याहेनंकुखादिहिसको भवति, अस्य तु नव 1 अन्यच्च कीर दानव- 
त्वम्‌ ! आयास्यघटनादभीक्ष्णं खेददायि । तथा धर्म्यं स्वभावतो धर्मादनपेतम्‌, अत एवं 
परं श्रष्ठम्‌ । एष एकस्य वक्यस्या्थैः । अपरस्य तु--साधावित्यादि करचिद्नाणासुर- 
माह-है दानव दनूसुत, त्वं वाणो वाणाख्य इतोऽस्मास्देश्ाद्धिषादं कालक्रुटभक्षक 
शिवमायास्यागच्छसि । कीदशं शिवम । विधौ चन्द्रमस्यास्थितमास्था संजातास्येति 
तम्‌ । कटश विधौ । साधौ सुन्दरे 1 तथापगता ऋति्गंमन यस्यासावपतिस्तस्मिन्‌ सदा- 
वस्थिते । तथापगतो राहुविधूतुदो यस्मादसौ तथाचिधस्तस्मिन्‌ । किमिति तत्सकार- 
मायासीत्याह-तस्य ह्यं स्थानं तद्धर्म्यं यतः परमोक्कृप्टा कुर्भूमिः । निर्वाणपद्‌- 
भित्यथः। साधावित्यादाविकारोकारयोः सप्तमीविभवितिवरादंकरूप्यम्‌ । आस्थितमितः 
प्रमृतिषु प्रत्यचवशात्‌ । तद्धम्य॑मित्यत्र धकारहकारवणं वादिति । परमकुर्वाण इत्यत 
केत्रौष्ठयोऽन्यत्रे दन्त्यौष्ठयो वकारस्तत्कथमेकरूपता वर्णानाम्‌ । सत्यम्‌ । यमकरकष- 
चिचेषु ववकारयोरीौप्ठ्यदन्त्यौष्ठययोरभेदो हश्यते 1 यथा--तस्यारिजात नृपतेरपश्य- 
दबर वनम्‌ । ययौ निर्भंरसभोगैरपश्यदवलम्बनम्‌ 11 त्था नकारणकारयोश्च न भेद । 
यथा--चेग हे तुरगाणां जयन्नसावेति भङ्खहेतुरगानाम्‌' इतति शिवमद्रस्य । विसजंनीय- 
भावाभावयोर्च न विशेष. । यथा--द्विषतां सूलमच्छेततु , राजवज्ञादजायथाः । द्विष 
-इचस्त्रस्यसि कथ पकयूथादजा यथा ।।' अत्र हयो कत्राजायथा इति विसगन्ति क्रिया- 
पदम्‌, अपरत्र यथाशब्दोऽव्ययम्‌ । तथान्त्ययो्ंकारनकारयोदच न भेद ! यथा-- 
भ्रापयासुरथ वीर समीरसमरंहसम्‌ 1 द्विषता जहि नि.रेषपृतना. समर हसन्‌ ।। अत्र हिं 
समरहसमिति मान्तम्‌, हसन्निति नान्तं पदम्‌ 1 तथा ग्यञ्जनात्परस्येकस्य व्यञ्जनस्य 
दयोर्वा न विशेष. । यथा-शुक्छे शुक्छंशनाशा दिदाति" इत्यादौ शुक्छं शुक्रे यमकम्‌ । 
तस्मिश्च कत्र शुक्छगुणयुक्ते, अन्यत्र शुच. ककशस्य च नाक्षं दिंशतीत्य्थं । अत्र द्यं कत्र 
ककाराल्लकार एवैक व्यञ्जम्‌ 1 अन्यत्र ककारो रकारङ्च द्वयमिति । 
आस्था रखने वाके मगवावर कलिव के पास निर्वाण पद प्राप्त करनेकी इच्छासे 
आते हो !४। 

इस पद्य के उक्त दिरुष्ट पदो के अर्थो तथा दोनो अर्थो के अवथवो को देखने 
से ज्ञात होगा कि साधौ (स-{आवौ), अपराहौ (अपरअ), आस्थित्तम्‌ विषाद 
(विष~+-अद ) आदि पदो के कारण रेष नही है, अपितु इन पदो के वर्णो को भिन्त 
रूपोमे रखने के कारण इलेष है । अतः यहाँ वणं दंरेष है । 

[कवाण.--वाणः । यमक, दलेष जओौर चित्रमेव ओरव, डओरल तयार 
ओर कमे अभेद रहता है--“यमकश्लेषचित्रेपु ववयोडंरयोरख्योनं भित्‌ 1" अत 
यहा वाण का अथं वाणं है| 


कारिका ५-६ | चतुर्थोऽध्याय ८६ 


प्रथ पदश्लेपः- 
यस्मिन्विभक्तियोगः समासयोगक्ष्च जायते विविधः । 


पदभङ्खषु विविक्तो विज्ञेयोऽसौ पदशइलेषः ।॥५॥ 
यस्मिन्निति ! यत्र वाक्ये विभक्तियोगो विविधो नानासमासयोगश्च जायते | 
केषु ! पदभद्ख षु सत्सु । विविक्त स्फुट. स पदर्लेप. 1 
उदाहररमिदम्‌-- 
सुरतरतलालसगलन्नयनोदकलालसत्कू चा रोहम्‌ । 
समराजिदन्तरुचिरस्मिते नमदसौ शरीरमदः ॥६।) 
पदश्लेष लौं 
जिस अलंकारमे पद भंग करने पर विभक्ति एवं समासो का अनेकविध योग 
हो उसे स्पष्ट ही पद उष समन्नना चाहिए 1*। 
उदाहरण 
हलष्ट परयो का अथं 
१ (क) सुरत-रुत-लालस-गलम्‌, नयन-उदक-लाल-सतु-कुच-आा रोहम्‌ । 
(ख) सुर-तरु-तर-अलस-गलतु-नय-नोद-कला-कसत्‌-कू-चार.-अहम्‌ । 
अर्थ-- (क) निधुवन-भणित-उक्तण्ठित-कण्ठम्‌, अश्नु-प्रसरण-शोभित-उन्नत-स्तनो- 
पेतम्‌ । 
(ख) देव-त्रक्ष-जघोभागेपु, मन्द-भ्रर्यत्‌-नीतीना-पातन-विज्ञान-शोभमान- 
पुथ्वी-वल्मन -अहुम्‌ । 
२ (क) सम-राजि-दन्त-रुचिर-स्मिते । 
नमत्‌-असौ-सरीरम्‌-अद. । € 
(ख) समर-आलित्‌-अन्त-रुचि-अस्मि, तेन-मतु-असौ-शरि-ईर-मद । 
अथं-- (क) अविषम-दन्त-प क्ति-मनोहर-हास्ययुक्ते । 
नमत्‌ = विनस्रमु, असौ सा (कान्ति ), शरीरम्‌न्वपु , अद इदम्‌ । 
(ख) रणविजयि-विनाङ-अभिराषोऽसिम । 
तेन == अस्माद्‌ हेतो , मतु मम, असौ == खड्गे, शरि धानुप्कं । 
ईर = अभिभव , मद == गवं 1 
२ (क) नव-रोम-राजि-राजित-वलि-वर्य-मनोहर-तर-सार, भा । 
(ख) न-वरो-अमर-अजिर-अजित-बलि-वल-यमन-ऊह-रत-रस-आरम्भाः। 
- ४ (क) धवख्यति रोहि-तानव-मद्ध्य-अनमत्‌-आहित-स्तनि ! ते। 
(ख) धव-ल्य-तिरोहित-अनव-मत्‌-घ्यान-मद-अहित-स्तनिते । 


६० काव्थाल्धारः | कारिका ७ 


नवरोमराजिराजितवलिवलयमनोहरतरसारं भाः। 


धवलयति रोहितानवमद्धचानमदाहितस्तनि ते ।७॥। 
(युभ्मम्‌) 

सुरेति । नवरोमेति । कश्चिच्चाटकृल्प्रियामाहु--है समराजिदन्तरुचि रस्मिते 
अविषमदन्तपदक्तिकान्तहसिते, तवासौ भा एपा दीप्तिरद एतच्छरीर वपुर्धवख्यति 
शुक्लयति । कीदशम । सुरतस्तेषु निधूवनभणितेषु खाकसो लम्पटो गः कण्ठो यस्य 
तत्तथाभूतम्‌ । तथा प्रियसनिधानाद्यन्तयनोदकमानन्दलोचनवारि तस्य यो लालः प्रस्षरण 
तेन सञ्शोभन. कूचारोह. स्तनोच्छायो यत्र तत्तथाभूतम्‌ । तथा नमत्स्तनाभोगभारान्न- 
प्रम्‌ । तथा नवा नूतना या रोमराजी रोमरेखा तया राजित भूषित यद्रलिवल्य वल- 
याकार वलित्रयं तेन मनौहुरतर रम्यतर तच्च तत्ारमृक्छृष्ट चेति समास. । रोहत्यु- 
तिष्टतीति रोहि तानव कृजत्व यस्य तद्रोहितानव यन्मध्यमुदर तत्रानमन्तौ कठिन- 
त्वादलम्बमानावाहिताववस्थितौ स्तनौ यस्यास्तस्या आमन्त्रण है रोहितानवमध्यान- 
मदाहितस्तनि । एष एकस्य वाक्यस्यार्थं ।॥ अपरस्य तु यथा-करदिचत्वडगप्रहरणो 

धानुष्क स्पधिनमदिश्य वयस्यानाह--यतोऽहमेव वििप्टस्तेन हेतुना मदसावस्मत्खड्गे 

प्रथन अथं 

छन्वय- (दै) सम-राजि-दन्त-रुचिर-स्मित्ते ` रोहि-तानव--मद्ध्य-अनमत्‌-आ- 
हितस्तनि !1 ते असौ भा सुरत-रत-काकस-गरूम्‌, नयन-उदक-लछाल-सत्‌-कुच-आरोहम्‌, 
नमत्‌, नव-रोम-राजि-राजित-चकि-वरख्य-मनोहुरत र-सार अद. शरीर धवर्यति । 

हे समान दन्तपक्ति से चिटकती हई मुन्दर मुस्कान से युक्त तथा कृश उदर पर 
करकते हए कठोर स्तनो वाली सुन्दरि ! यह्‌ तुम्हारी सुस्कराहट की चमक सुरत-समय 
मधुर ध्वनि करनेवाले कण्ठ से युक्त [प्रिय के समीप होने ते ] आनन्दाश्रु से मीग रहै 
उन्नत स्तनो से मण्डित [ विशाल स्तनो के बोक् से] भुकते हृए तथा त्रिवली पर नवल 
रोमपक्ति से भुषित्त तथा अति मनोहर सवस्व-रूप तुम्हारे शरीर को धवक्तिति कर 
रही है ।६-७1 
दहितीय अयं 

अन्वय--{है] अमर-जजिर-अनजित्त-वलि-वल-यमन-उदहू-रत-रस-आरम्भा. । 
[यत ] अहम्‌ मुर-तर-तर-अरुस-गरुच्‌-नय-नोद-कला-लसत्‌-कु-चार., [अथ च] समर- 
आजित्‌-अन्त-रचि -अस्मि, तेन धव-ल्य-तिरोहित्त-अनव-मद्‌-व्यान-मट-अहित-स्तनिते 
मत्‌-असौ गरि-ईर-मद (वतते) । 

कोई खड्गधारी किसी धनुर्धर से स्पर्घां करते हुए अपने भिन्नो को कहता 
है-- सूरवृक्षो (कत्पतर आदि) के नीचे विषयादि मे आसक्त नीच जीवों को नीवे 


कारिका ठ | चतुर्थोऽध्यायः ९१ 


न वरो न श्रष्ठः योऽसौ शरीरमद । शरा वियन्ते येपा ते सरिणो धानुष्कास्तानी रयति 
क्षिपत्यसभिथवतीति शरीरस्तस्य मद. ! नजितधनुधंरोऽहमिति कृत्वा यो दपं इत्यथ । 
यतः कीहसोऽहम्‌ । सुरतरुतकषु देवव्रक्षाधोभागेष्वलसा मन्दा ये गङन्नया श्रश्यन्नीतय. । 
विषयासक्ता इत्यर्थं 1 तेषा नोदस्तत पातनं तत्र या केला विज्ञान तया लसञ्शोभमान, 
कौ पृथिव्या चारो वत्गन यस्य स तथाविधोऽहम्‌ । खज्ख विद्यया स्वगंस्थानपि पाततयामी- 
त्ययं । तथा समर रणमासमन्ताज्जयन्त्यभिभवन्तीति समराजितो ये शूरास्तेपामप्यन्ते 
विना रुचिरभिापो यस्य स एव विधोऽस्मि भवामीति । अधुना वयस्यानामन्त्रयते- 
अमराजिरेषु देवाङ्खनेप्वजितमपराभरूत यद्‌्बछिविक वकिदानवसेन्य तस्य यमन बन्धन 
तच्नोदस्तकंिचन्ता तत्र॒ रतो विष्णुस्तस्येव रसस्तात्पयंभारम्भद्चानुष्ठान येषा ते तथा- 
भूता भवन्त भमन्त्यन्ते । कौशे मदसौ । धवा श्रक्षविशेषास्तेपु ख्यो दुरगंधिया सश्रय- 
स्तेन तिरोहितमन्तरितमनव बहुदिवसमव यन्मद्धयान मदीयचिन्तनम्‌ 1 दुगंस्था वयमत. 
स कि करिष्यतीति कृत्वा 1 तेन मच्विन्तान्तवनिन मदो येषा ते च तेऽहिताश्च शत्र 
वञ्च तेषु स्तनिते तद्ारणाच्छणच्छणायमाने । ख द्ध इत्यथ 1 अथवा धवा" पुरुषास्तेषा 
लयः स्वर्पौरुषकमंकौरोलम्‌ । अनवम उक्कृष्टो ध्यानमदो नीतिशास््चिन्तादरपौ येषा 
तेऽनवमध्यानमदा मच्त्रिभ्राया उच्यन्ते! धवल्येन कर्मकौरालेन ति रोहिता न्यक्छृता अन- 
वमध्यानमदा यंस्ते तथा तै च तेऽहिताद्व रात्रवस्तेपु स्तनिते शब्दिते । अन्योऽप्यत्र यदि 
भद्ध संभवति सोऽपि तद्टिदा विचायं कतेष्य एव ॥ 

त्रथ लित्गश्लेपः- 

स्त्रीपुनपुंसकानां शब्दानां भवति यत्र सारूप्यम्‌ । 


, लघुदीघंत्वसमासंलिद्धर्लेषः स विज्ञेयः ॥८॥ 
गिराने में दक्ष हँ तथा प्रथ्वी पर ध्रुमने वाला हुं! भ्र्थात्‌ मै पृथ्वी पर रहते हृए मी 
अपनी खड्ग-विद्या से स्वगंवासियों को भी नीचे गिराने वाला ह । बड़े-बड़े 
युदध-जयी शूरो के विनाश का इच्छुक हुं । देवो के आद्धन में अपराजित वलि-तेना 
के बन्धन मे चिन्तामग्न विष्णु के सहश अभिप्राय बाले तया कार्थं करने मिनो ! 
बहुत दिनों तक मेरे पेड पर छप रहने के कारण निर्भय शत्रुम पर छपछपाने बाली 
भेरो तलवार के आगे उस धनुधंर का गवं करना ठीक नहीं है ।६-७। 

उक्त पद्य मे इरुप का आघार दोनो अर्थो मे स्वतन्त्र पद है--जँसे सुरत-रत- 
लालस [अथवा सुर-तशखु-तल-अलपस | सम-राजि-दन्त-रचिर्‌ [अथवा समर-अजित्‌- 
अन्तरुचिः| इन पदो को उक्त वर्णञ्केपगत उदाहरण के समान वर्णो मे विभक्त नही 
किया जाता 1 अतः यहो पदर्केष है । 
लिञ्ध श्लेष 

जहां हस्व तथा दीघं वर्णो (कहीं हस्व वणं के दीधं बन जाने से, कही दीघं 


६२ काव्यालङ्कारः | कारिकां & 


स्त्रीपुमिति । यत्र स्तीपुनप्‌सकचिद्धाना सारूप्यं भवत्यसौ लिद्धन्केष. 1 कौ: 
कृत्वा । ऊधुदीर्घत्वसमारसरिति क्वचिहीघंस्य कघुत्वेन । वस्वत्वेनेत्यथंः । क्वचिद्‌ 
स्वस्य दीघं त्वेन क्वचित्समासेन चेति ॥ 
उद्ाहटर्यम्‌- 
देवी मही कुमारी पञ्चाना भावनी रसाहारी । 
सुखनी राज तिरोऽहितमहिमानं तस्य सद्धारी ॥€।॥ 
देवीति । कश्चि द्राजानमानास्ते--त्वं राज शोभस्व । तथा तिरश्चीन यथा भव- 


(णी कि 1 [ 


के वस्व बन जाने से) भर कहीं समास के कारण पुलिग, स््ीविग गौर नपुंसकल्िद्ध 
वाब्दों फे रूपो मे समानता हो बर्हा लिञ्खररेष रहता है 1८ 
उद्रि 
शिष्ट पदो का अथं 
देवी--(क) करीडारत. (ख) आदरणीया 
मही--(क) उत्सववानु (ख) पृथ्वी 
कूमारी--(क) कुत्सितानां चौरादीनां मारयिता, (ख) नित्य तरुणी 
प्चाना भावनी--(क) [सेवकेम्यः] लक्ष्मीप्रदः, (ख) कमलानां जनयित्री ! 
रसाहारी-- (क) पृथ्व्या. आत्मसातुकर्ता, (ख) जलादिरसानां ग्रहणङीला । 
सुखनी.--(क) [भूत्यादीना ] सुखदः, (ख) रोभन-जाकरोपेता । 
राजतिरोऽहितमहिमानं तस्य-- (क) राज == दोभस्व 1 तिर == कुटिकं (क्रिया- 
विशेषण), अहितम्‌ = गन्रू म्‌, अदहिमानम्‌ = वृत्रसह-दपं युक्तम्‌, तस्य नाय । 
(ख) राजति गोभते, रोहित-महिमा = आरोपित-माहात्म्या, अनन्तस्य = 
शेषस्य । 
सद्धारी--(क) चिष्टानां पोपयिता, (ख) विद्यमान-वस्तूना धारिका । 
प्रयम्‌ अथं 
द्रन्य- (त्वम्‌) देवी, मही, कमारी, पश्माना भावनी, रसाहारी, सुखनी , 
सदघारी (असि), (त्वम्‌) अदिमानम्‌ अहितम्‌ तिरः तस्य राज (च) 1 । 
कोई व्यित राजाको प्रशंसा करते हुए कहता है--हे राजव ! बुम क्रीडा 
प्रियं छे, प्रसन्न रहने चाल हो, चौर आदि का नाह करने वाल हो, भृत्यो को धना्दि 
से सम्पन्न करने वाले हो, शत्र-देश्नो को हस्तगत करने चाके हो, सेवको को युख देने 
वाक हो, सज्जनो का पोषण करने वालेहो! वृच्नासुर की तरह अभिमानी श्च्रुको 
बुरी तरह से विनष्ट करके शोमित हो 1६। 


 त्येवमहित शत्रु तस्य क्षय नय । "तयु उपक्षये" इत्यस्य रूपम्‌ । कौहशस्त्वमू । दीव्यतीति 


कारिका १० | चतुर्थोऽध्यायः ६३ 


देवी क्रीडारतः, मही उत्सववान्‌, कृत्सिताश्चौरादीन्मारयतीति कुमारी । अथवा कुः 
पुथ्वी मारः कामस्तौ विद्येते यस्थ स कुमारी । तथा पद्माना श्रिया भाव सत्ता नयति 
भृत्येष्विति भावनी । सेवकाना लक्ष्मीप्रदं इत्ययं । रसां भुवमाहरत्यात्मसात्करोतीति 
रसाहारी । यदिवा रसमधुरादिभिराहरतीति रसाहारी । सुखं नयति भृत्यानिति 
सुखनीः, सतः शिप्टान्धारयति पोषयत्तीति सद्धारी, शोभनहारवान्वा । कीहरम्‌ । 
अहितमहिमानमहैतरं स्येव मनिोऽहंकारो यस्य॒ त तथाविधम्‌ । अयमेकस्य वाक्य- 
स्याथः | अपरस्य तु-- मही पृथ्वी राजति दोभते। देवीति पूजापदम्‌ । कीदशी 
मही । कूमारयंकृतविवाहा नित्यतरुणी वा । पद्यानां नल्िनाना भावन्युट्पादिका । 
रसाञ्जलादीनाहरति गृह्णातीति 1 कर्मण्यणन्तादी ।' सुखनिः शोभनाकरा । तथा- 
नन्तस्य शेषस्य रोहित आरोपितो महिमा माहात्म्य यया । स्वयमात्मधारणे राक्त- 
याप्यनन्तस्य रोके माहात्म्यख्यापना्मभरस्तयापित इत्यं । सद्विद्यमान वस्तुजात धर- 
तीति । कर्मण्यणन्तादी ।' देवीत्यादौ दीर्घत्वे रसहारीव्यादौ दीर्घत्वे समासे च सारूपं 
दी्ंस्य । स्वत्व त्वन्यत्र स्वधिया द्रष्टव्यम्‌ ॥ 
त्थ माषाश्लेषः-- 


यस्मिन्नुच्चायेन्ते यु-यक्तविविक्तभिन्तभाषाणि | 


वाक्यानि यावदर्थं भाषारलेषः स विज्ञेय : ॥१०॥ 

यस्मिन्निति } यत्र यावदर्थं कवेर्यावन्तोऽर्था विवक्षितास्तावन्ति वाक्यान्युच्चा- 
यन्ते स भापाश्लेष इति ! कौटशानि ! सुव्यक्त स्फुटं यथा भवत्येवं विविक्ताः परथगुप- 
रम्यमानचिवेका भिन्ना द्वित्राद्या भाषा येषु तानि तथाविधानि 1 
हितीय अथं 

प्रन्वय--देवी, कुमारी, पश्माना भावनी, रसाहारी, सुखनि , अनन्तस्य रोहित- 
महिमा, सद्धारी मही राजति । 

यह देवीस्वरूपा पृथ्वी शोमित है ! यह्‌ (पृथ्वी) नित्य तरुणी है, कमलो को 
उत्पन्न करने वाली है, रसो का आदान करने वाली है ! सुन्दर खानों से मरपूर है । 
रोषनाग को महत्त्व प्रदान करने वाली है, तथा सब वस्तुओं को धारण करती है ।€। 


उक्त पद्य मे देवी, मही" आदि पदो मे दीधंरूपता तथा “रसाहारी' आदिमे 
समास ओर दीघं रूपता होने से लिद्ख-रकेष का चमत्कार है । 
भापाश्लेष 


जिसमे विभिन्न भाषां के नितान्त स्पष्ट तथा प्रथक्‌ मालूम पड़ने वारे एवं 
कचि के अभिवांछति अर्थो को प्रकट करने वारे दो-तीन वाक्य हों उसे भाषाररेष 


कहते है ।१०। 


रि 


६४ कान्यालद्धारः [ कारिका १९१ 


तत्र संरतप्रा्तश्लेपा दाह्छम्‌- 

सरसबलस हि सूरोऽसद्धामे माणवं धुरसहावम्‌। 

मित्तमसीसरदवरं ससरणमृद्धर इमं दबलम्‌' ।११॥ 

सरसवरमिति । कश्चित चिदाह्‌-स सूरो रविरिमं तं माणव रोगित्वाक्कुत्सित- 
मनुष्यमसीसरत्सारयामास । गतियुक्त चकारेत्यथंः । कीटशरम्‌ । सरसं गतिलाभात्प्रत्यग्र 
वल शवितर्य॑स्य तं तथाभूतम्‌ । हि स्फुटम्‌ । क्व सति पूवंमसीसरदसद्धामे न विद्यते 
सङ्घो यत्रासावसद्खः स चासावामश्च तस्मिन्‌ 1 असपकंयोग्ये रोगे सतीत्यथ. । पुनः 
कीटं माणवम्‌ । घुरसहाव धुरि प्रथममसहासमर्था भवा रक्षितारो वेद्या यस्य । पूर्व 
वेचयत्यक्तमित्यथः । सूर कीदशः ! मिन्मेयति स्निह्यति । कृपणेषु दयापर इत्यथ. । 
कीहगम्‌ । तमवर सरोगत्वादश्रेष्ठम्‌ । तथा दव लातीति दवछसमुपतापयुक्तम्‌ । कीटगः । 


उदुहट्य 
प्रथम अथं (संस्कृत माषा के अनुसार) 

छन्वेय--सः मित्‌ ससरण-मुत्‌-ह॒रः सूरः असद्ध-आमे धुर-सह-अवं, दच-ङ, 
अवर इय तं माणव सरस-वल असीसरत्‌ । 

कोई किसी से कहता है कि योगियों को प्रसन्नता देने वाक कृपालु स्यं ने 
संक्रामक रोग से ग्रसित उस मतुष्यमे शक्ति का सञ्चार करके उसे चक्लने योग्य 
बना दिया ! अआरोग्य-छाम से पहल चिकित्सक लोग उसन्ती अवस्था से निराञ् होकर 
अपनी असमर्थता प्रकट कर चुके थे । इससे वेह अत्यन्त सन्तप्त था ।९१। 
द्वितीय अथं (प्राकृत भाषा के अनुसार) ५ 

छ्न्वय--सः हि गुरः सम्रामे शर-जवल, मान-बन्धुर-स्व भावं, असीश्वर-दवर, 

सशरण [किन्तु सम्प्रति ] मन्दवक मित्रम्‌ उद्धरति 1 

कोद नायिका अपने भर्ता के विषय मे सखी से कहती है कि मेरे बीर स्वामी 
ने युद्ध में उस भिन्रकीरक्षाकीजो विचित्र व्णं-बाणोंको धारण करनेवाला हैः 
मनस्वी एवं पुस्वमाव है ! खड्ग से युद्ध करने वार योद्धामों को सन्ताप देने वाला 
है तथा शरणागतों का रक्षक है, किन्तु जिस की सेना जंडते-लडते निर्बल हो चुको 
थी 1११) 

उक्त पद्य का प्रथम अथं संस्ृतके अनुसारदहै गीर दूसरा अर्थं प्राकृत के 
अनुसार । 


१; ्राकृतच्छाया-शरशबलं सलि शुरोऽसंग्रामे मानबन्धुरस्वसावम्‌ । 
मित्रमसीहवरदवरं सक्षरणमुद्धरति सन्दबलमु 11 


= = द्र 


कारिका १२ | चतुर्थोऽध्याय. ६५ 


ससरणमृद्धरः सह सरणेन ज्ञानेन वतन्ते ये ते ससरणा योगिनस्तेपा मुद हपं घार- 
यति पुष्णातीति त्वेति सस्कृतवाक्यार्थः 1 प्राकृतस्य तु--काचिद्धुर्तारमुदिश्य सखी- 
माह-हे सखि, स ॒भूरोऽस्मद्धर्ता मित्र सुहृद सम्रामे रण उद्धरति रक्षति । कौटशम्‌ । 
गरैर्वाणि. शवल कर्वुरम्‌ । तथा मानेन गवेण बन्धुरो रम्यः स्वभावो यस्य त॒ तथा- 
भूतम्‌ । तथासीश्वराणा खद्धयोधिना दवरमुपतापदम्‌ । तथा सह शरणेन वतेते यस्तं 
सरण परित्राणाथिनामातिहरम्‌ 1 यचेव विधं तक्तकिमिति तेनोद्धि यत दइत्याह॒--मन्दवल 
मन्दमसमर्य वरं यस्य त तथाभूतम्‌ 1 बहुयोधनादक्षमसंन्यमिति ॥। 

इदानीं संरकतमागध्युदाहरणम्‌- 

कुलला लिलावलोले शलिलेरो दालशालिलवदूले । 


कमलारवलालिबलेऽमाले दिशमन्तकेऽविशमे" ॥१२।। 
कुरति । कश्चिज्जातससारभयो वक्ति- एव विवेऽन्तके मृत्यौ सति ए विष्णौ 


विषये या दिङ्म।गंस्ता दिशमविन प्रविष्टोऽस्मि । कीदशेऽन्तके । कुरानि लाख्यन्ति 


उद्य 
प्रथम अथं (संस्कृत के अनूत्तार) 
श्रन्वय--कुल-जाछि-खाव-लोके, रलि-ठेशे, लाल -रालि-रव-ञुल, कमला-राव- 

लालि-वरू, अमा अन्तके (सति) ए दिशम्‌ अविकम्‌ । 

कोई व्यक्ति ससार को विडस्ननाओ से घबराकर कहता है--इस निमम यमराज 
के कठोर शासन से मयमीत होकर मै तो श्नरणागतवत्सलं भगवान्‌ विष्णु को शरण में 
चला गया हूं ! यह्‌ यमराज सज्जनो के नशस वधमे पदु है! उद्योगियों को मथवा 
खड्ग से लड़ने वाले योद्धाओं को नष्ट करता है । बडे-बड प्रासादो मे विराजमान 
लोगोके किए मी यह्‌ शुल-सह्है। यमकीसेना दरिद्रं कामी पीछा नहीं 
छोडती । प्रत्येक प्राणी को इसका सामना करना अनिवायं है ।१२। 
द्वितीय अथं (मागधी के अनुसार) ° 

अन्वय--विपमे करुररा-भालि-राव-रोर, सारस-आलि-रव-शूरे, कमल-आसव¬ 
ल-अलिवरे, शे सकलिक समन्तके भारेदि 

शरद ऋषु मे कुरर पक्षियों के शब्दों से कोलाहलपु्णं विमुक्त सारस पक्षियों 
को मारने में समथं, मकरन्द ऊने वारे अमरो के कारण श्रेष्ठ वियोगियों के लिए 


मीषण इस जल को देखकर मुनि मी क्षुन्ध हो उठते है, क्योकि यह जल श्रान्त तप- 
स्विथोको भी मारने वाला है \१२। 


१. मागधीच्छाण--करुरराकिरानरोलं सक्लिलं तत्सारसालिरवशुरम्‌ ! 


कमलासवलाल्िवरं मारयति ताम्यतो विषमम्‌ ॥ 


६६ काव्यालद्खुार [| कारिका १३ 


पोषयन्ति तच्छीला कुलुलालिनः सत्पुरुषास्तेपा लावे छेदे कर्तव्ये छौलो कम्पटो यस्त- 
स्मिन्‌ । तथा शलन्तीति गलाः सोद्यमास्ते विन्ते यत्र देशे सशरी! यद्रा शक 
ख द्खकोषवन्धोऽस्ति येषा ते शलिन: खद्धयोधास्ताल्लिशत्यत्पीकरोतीति शलीरशस्तस्मिन्‌ 
तथा शालंगर है. शालन्ते श्चाघन्त इत्येवशीखाः शालशाछिनस्ताल्लृनातीति राखशालि- 
ख्व्रः स चासौ चलं च । पीडाकरत्वात्‌ 1 तथा कमला लक्ष्मीस्तस्या गवा दरिद्रा 
स्तेष्वपि रति विलसतीत्येवशीखं वख सन्य यस्य स तथा तस्मिन्‌ । तथामाङे । (मल 
धारणे ।' मलन मारो न विद्यते मालो यस्यासावमालस्तसिमिनु ` अनिवायं इत्यथः । 
एष संस्छृतवाक्यार्थः 1 मागधस्य तु-श सिरु तत्सकिल जर कमन्तके चाम्यतः 
रमिनोऽपि माकेदि मारयति 1 कीदृश तत्‌ 1 कुरराः पक्षिविशेषास्तेपामालि. पटिक्तस्त- 
दीयं रावे शब्दं रोल. कल्को यत्र तत्तथाभूतम्‌ 1 तथा सारसाक्िरवेण सारसश्रेणि- 
वारितेन युर तद्विरहिमारणस्मर्थम्‌ । तथा कमलाना पद्मानामासव मकरन्दाख्य लान्ति 
येतेच तेऽजिनश्च ्रमरास्तर्वर श्रेष्ठं यत्तत्‌ । तथा विषम वियोगिभीषणमेवंचिधं 
शरदि सङिल विलोक्य मुनयोऽपि क्षुभ्यन्ति 1 इति मागधवाक्यार्थ. ।॥ 


इदानीं संरतपिशाचभापाश्लेपोदाहर खमाह- 
कमनेकतसादानं सुरतनरजतु च्छलं तदासीनम्‌ । 
ग्रप्पतिमानं खमते सोऽगनिकानं नर॒ जेतुम्‌* ।\१३।। 


उदाहरण 

प्रथम अथं (संस्कृत-भाषा के अनुसार) 

प्रन्वय - (हे) सुरत-न. ! ख-मते । स. अनेकेतम-आदान छर तत्‌-आसीन, 
अप्पति-मान, अग-निकान, क नर जेतुम्‌ अजतु । 

कोई च्यवित किसी केहारा कौ हुई इसरे की प्रशंसा को न सहकर कष्टता है-- 

अरे मखं { रति-युद्ध प्रवीण ! (तुम रणसुमि में वीरता दिखाना स्या जानो) वह 
मनुष्य मला कंसे उसको विजय करने की ङग सारता है (उसे जीतना कठिन है), 
क्योकि जाद्गर होने के कारण उसके उत्पत्ति के स्थान अनेकं है वहु चरुण के समान 
मानी एवं वचंस्वी है 1 सन्दराचल के समान उसकी कान्ति है । १३1 
दितीय अथं (पिक्ञाच-भाषा के अनुसार) 

छन्वय --स. रजयितु कमने कतमोदाना सुरन-रजत-उच्छलहासीना गणिकाना 
अप्पतिमभनें न क्षमते । 


१. पजाचोचछाया--कामे कृत(मोदानां सुव्णरनतोच्छलहासीनाम्‌ । 
अप्रतिमानं क्षमते स गणिकानां न रञ्जयितुम्‌ ॥ 


कारिका १४ | चतुर्थोऽध्यायः ६७ 


कमिति ! कस्यचित्केनचित्पौरषस्तुति कता । ततोऽन्यस्तामसहमान भाह-है 
सुरतन. निधुवनयुरुष, ते तव पौरुषं न रणे इत्यामन््रणपदाभिप्राय. । तथा खमते चून्य- 
वद्धे, यस्त्वया वण्यते स क नरं जेतुमजतु गच्छतु । नास्त्येवासौ पुरुषो य सोऽभिभविष्य- 
। तीत्यथंः । कीश नरम्‌ 1 अनेकतमान्यादानान्युत्पत्तिस्थानानि यस्य त तथाभूतम्‌ । 
तथा छल तदासीन तां मायामाधितम्‌ 1 आश्रयणा्थंः आसिः' सकर्मक. । तथापा पते- 
रप्तेरव॑रुणस्येव मानो गर्वो यस्य तम्‌ । तथागस्येव मन्दरस्येव निकाना दीप्तियंस्य तम्‌ । 
अथवा न गच्छतीत्यगो निकानो यस्येत्यन्यथास्य वाक्यस्यार्थं. । अथवा यदा न सन्त्ये 
वंविधास्तदा स्वमेव तेन यतो जितमत. स कमिव नरं जेतुमजत्विति स्तुतिरेवात्रार्थः 1 
इति सस्कृतवाक्षयार्थ" 11 पंशाचस्य तु-केनचिद्रश्यानामूपकार. कृत. । ताभिस्तु तस्य 
न छत इति सोऽत्र वर्ण्यं त-स पूजिततगणिक पुरुषो गणिकाना वेदयानामप्पतिमानमः- 
प्रतीपमपूजन न क्षमते न सहते । किम्थंम्‌ । रजञ्जयितुमात्मरञ्जनाय । इदानी मा ता. 
पूजयन्त्वित्येवमर्थम्‌ । कीटशीना गणिकानाम्‌ । कामविषये कतामोदाना कृतहर्षाणाम्‌ । 
तथा सुरन (स्वणं) रजताभ्यामृच्छलन्त्यो विलसन्त्यो दास्यो यासास्‌ ! पिाचभाषाया 
क्गचजतदपयवानां खोपो न क्रियत इत्यादिपू्वेव्ति लक्षणम्‌ 1 

इदानीं संखतद्रसेनीवाक्योदाहररमाह- 


तोदी सदिगगणमदोऽकलहं स॒ सदा बलं विदन्तरिदम्‌ । 
प्रार्‌ दमेहावसर्‌ं सासदमारं गदासारम्‌'* ।१४॥। 


म भिण 


किसी ने वेश्याजों का उपकार किया, किन्तु उन्होने उसका सम्मान नहीं 
किया! इस इतलीक मे उस पुरुष का वणेन है-- 

गणिकां को पूजा (उपकार) करने वाला वहु पुरुष उनसे प्रत्थुपकार की 
भाशा रखता है मौर उक्के प्रप्तनहोनेसे र्ट है। वे वेश्याएं काम-सम्बन्धी बातों 
भे अत्यन्त आनन्दित होने वाली हैः उनकी दासियां मी सोने-चाँदी में खेलती हैँ । १३। 
संस्कत श्रौरं शोशसेनी का उदाहरख 
प्रथम अथं (संस्कृत माषा के अनुसार) 

्नन्वय-तोदी, सदिक्‌, अगण-मदः स. वित्‌ सदा अकचरह्‌, दम-रदहा-अवसरं, 
सासदं, गदा-सारम्‌, इदम्‌ आरं वलम्‌ अन्त आर 

युद्ध करते हए मनुष्य का वर्णेन है--वह युद्धकला-निपुण, शच्रुपीड़कः व्यूहरचना 
से अभिज्ञ, परानपेक्षी तथा अपने भरुजबल पर आश्वस्त व्यक्ति शन्नओं की सेना भं 


१. सुरसेनीछाया--ततो ह्यते गगनमद कलहंसकशतावरम्बितान्तरितम्‌ । 
आर तमेधानसर शाद्वतमारं गतासारभू ॥ 


~ नैक ~ 
कष 


६८ काव्ालद्ारः | कारिका १५ 


तोदीति । कश्चिन्नरो रणस्थो वर्ण्यते--स करदिचच्छ्रुरो वित्पण्डित इदमारमरि- 
सवतं बर सेन्यमन्तर्मध्य आर ससार । कीहगोऽपौ । तुदति परानिति तोदी। तथा 
देशनं दिगुपदेशो व्यूहरचनादिविषय. सह्‌ दिशा वर्तत इति सदिक्‌ 1 तथा न गणेन सहाय- 
वर्गेण मदो यस्यासावगणमद. स्वभ्रुजवलसहायक्ापेकषे इत्यथ" । सदा सवंकालमेव 1 कीटन 
वलम्‌ । अकलह्‌ परिभूतत्वान्निर्वेरम्‌ । अत एव दमेहाया उपडमचेष्टाया अवसरः कालो 
यस्य तत्तयाभूतम्‌ । तथास्यन्ते किप्यन्तं॒इत्यासाः नरास्तान्यन्ति खण्डयन्तीत्यासरदा 
धानुप्काः सह तवत्तंत इति सासदम्‌ 1 तथा गदाभि सारमृच्छृष्टम्‌ । एप सस्करत- 
वाक्यार्थ. 1\ सूरसेन्यास्तु-रदि नभो वण्यंते- तो इति ततः प्रावृपोऽनन्तरं हदयते- 
ऽवरोक्यते 1 गगन नभ 1 अद एतच्‌ । कीटगम्‌ । कह सुगते रवखम्वितं चान्तरित च । 
तथा आरतो निवृत्तो मेघाना घनानामवसरः कालो यत्र । यदि वा आरता उपरता मेधा- 
नामाप एव चरा वाणा यत्र तत्तथाभूतम्‌ 1 तथा गाद्वत. स्थिरो मारः कामो यत्र । तथा 
गत आसारो वेगवर्पो यतसरतत्तथाभूतम्‌ ।। 

द्रथ संरछतापत्र शयः श्लेषो दाहर्यमाह- 


"धी रागच्छदुमे हतमृदुद्धरवारिसदःसु । 
ग्रश्रमदप्प्रसराहरणुरविकिरणा तेजःसु । १५। 


घुसता चा गया 1 चह सेना परानित हने फे कारण नि्वेरथी त्थासंधिके किए 


अवसर देख रही थी 1 उस सेना मे अन्ध धनुर्धर तथा गदाचाल्न-पद्र योद्धा सी ये 1१४) 


द्वितीय अथं (सुरसेनी भाषा के अनुसार) 

अन्वय-तो करुहस दतेररम्वित अन्तरित (च) आरतमेधाव्रं गादवत- 
मारं गत-बगासार अद गगनं हश्यते । 

इसमें शरत्‌ का वणन है-- वर्षा के अनन्तर आक्ताश्न मे संकडों कलहंस उडते 
दिखायी दे रहे ह, आकाल उनसे छिप-सा गया है । अब मेघो का समय चला ग्या है। 
कामजनित विकार इस ऋतु मे शन्तहौ गयेहै। अब वृष्टिकावेगमी समाप्तहो 
चुका है 1 १४1 
संसत श्र च्रपभ्र' श का श्लिष्ट उदाहरस 
प्रथम अथं (संस्कृत के अनुसार) 

द्नन्वय--उमे ¦ धीरा [भव] । अश्र-मद्‌-अप्प्रसरा, अवि-किरणा, अह्‌ हत- 


मुत्‌, अशुः [ग्धा] उद्‌-धर-वारि-सद सु तेज.सु अगच्छत्‌ । 


१. अपन्न शच्छाया--धीरा गच्छतु मेघतमो इुर्धरवार्षिकदस्थु ! 
अश्नमदग्रसरा हरणं रविकिरणास्ते यस्य ॥ 


कारिका १५ | चतुर्थोऽध्यायः ६& 


धीरेति 1 अत्र काचिद्गौरीसखी गद्धाया. सपल््या व्यसनेन गौरीमानन्दयति- 
यथा हे उमे गौरि, धीरा स्वस्था भवेति क्रिया गम्यते । यत, अश्र गगने माद्यत्युद्धतो 
मवति य" स तथाविघोऽपा जलानां प्रसरो यस्या सा अभ्रमदप्प्रसरा गद्धा अवेरिव 
गडरिकाया इव किरण विक्षेपण निर्वासनि यस्याः साविकिरणा 1 अहदिवसमपि । 
कालाव्वनोरत्यन्तसयोगे- दति कमं 1 अत एव हृतमृद्गतहूर्षा 1 तत एवं चाणुः कृशा 
सत्यगच्छदपतत्‌ । क्व तेज सु । कीटेषु 1 उद्गता धरा पृथ्वी प्रर्यापन्निमग्ना सती 
यस्मात्तदुद्धर तच्च तद्वारि च समृद्रजरु च तदेव सदो गृहं येषा तानि तथाविधानि तेषु । 
वेडवानलतेजःस्वित्यथं. ! ह्रनिर्वासतदु खिता सती ग द्धात्पान वडवानखेन्धनी चकारेति 
भावाथं । एष सस्कृतवाक्याधं. 11 अथवा काचित्सखी गौर्या परतो हुरसमर वणंयति-- 
हे उभे, धीवुंद्धिरागच्छदागता । कथमहतमुदनष्टहूपं यथा भवति तथोद्गता निवृत्ता हर- 
वारिणो हरनिषेधका. शत्रवो यत्र कर्मणि तदुद्धरवारि यथा भवतति यथास्माक बुद्धिस्तु- 
ष्टिद्चाभूत्तथा हरेणारयो जिता इत्यथं । सा च धी. सदसु सभासु तेज सु च परतेजो- 
विषयेऽश्रमत्प्रसृता । तेजस्ततारेत्यर्थ- । कीहणी वी. 1 सवंगत्वादपामिव प्रसरो गतियंस्याः 
साप्प्रसरा ॥ अहदिवसम्‌ 1 सदेत्यर्थ" । गण्‌: कुशाग्रीया ।! तथाविकिरणा निरसितुम- 
दाक्या 1 इति सस्कृतवाक्या्थं- ।। .अपश्रंसस्य तु--वर्पाीवणं नम्‌--हे धीरा , गच्छत्व- 
पसरतु । किम्‌ । तन्मेघलरृत तमो मेवतम. कीटशम्‌ । दुधरा दुर्वारा वार्षिका वर्पस 
भवा दस्यवदचोरा यत्र । यदि वा वार्षिका मेघा एव दस्यवश्चौरास्तेजसो हरणाद्यत्र । 
तथा यस्य मेघतमसस्ते रविकिरणा. सूर्यंकरा हरण हतर । कीटदा. । अश्रमदगप्रसरा 


एक सदो मौरी को उसको सपत्नी ग्धा फी विपत्ति का हार सुनाकर 
आनन्दित करती है - 


है गौरि 1 अव प्रसन्न हो । क्योकि आकाश्च मे पहर जिस ग्ा का वेग- 
पणं जल-प्रवाह प्रसारित होता था यब उस गद्खाको भेडकी भांति घर से निर्वा 
सित कर दिया गया है । इस कारण उसका सारा सुख मिह्धी में भिल गयाहै। चहु 
क्षीणकाय होकर समुद्र -जल में स्थित वडवानल के मुखम जा गिरी है।१५। 


हितीय अथं (अपश्च श्च के अनुसार) 


अन्वय-[हे] धीरा. । दुरधेर-वापिक-दस्यु मेचतम गच्छतु ! अश्रम-द-प्रसरा 
रविक्रिरणः यस्य हरणम्‌ । 


इसमे वर्षा-वणंन है-हे बुद्धिमान्‌, धीर व्यक्तयो 1 अव मेधजनित अन्धकार 
का नाज्ञ हो, जिसमे वर्षाकाल में होने बारे अनेक्त भयंकर चोर-लृटेरे वसते है । पदार्थो 
का यथाथ प्रकाकान फरने वाली सूर्यं कौ किरणे जिस अन्धकार का नाकच करती है 1 


१०० काव्याकद्धुारः [ कारिका १६-१७ 


श्रमो भ्रान्तिं भ्रमो निङ्चयस्त ददातीत्यश्रमदः प्रसरो येपा ते तथाविधाः । यथाव- 
स्थित वस्तुस्वरूप ये प्रकाशयन्तीत्यथः 1 


अथ माषाङ्लेषस्य म्कारान्तरमाह- 
वाक्ये यत्रैकस्मिन्ननेकभाषानिवबन्धछनं क्रियते । 
म्रयमपरो विद्रद्धि्भषिार्लेषोऽत्र विजयः 11१६1 


वाक्य इति । यत्रंकस्मिन्नेव वाव्येऽनेकभापा निवध्यन्ते सोऽयमपर पूर्वस्मादन्यो 
भापाइ्लपोऽतर ्नातन्य. । पूवेत्रानेकार्थोऽनिकाभिर्भापाभिरुक्त, इह्‌ त्वेके एवार्थो वह्वीभि- 
भषिाभिखूच्यत इति तात्पर्यां ॥ 
<दहर्यन्- 
समरे भीमारम्भं विमलासु कलासु सुन्दरं सरसम्‌ । 
सारं सभासु सूरि तमहं युरगुरुसमं वन्दे ॥ १७। 
समर इति 1 तमह सूरि बन्दे स्तौमि कीहशम्‌ 1 समरे रणे भीमारम्भं भीपणो- 
चयोगम्‌ । विमलासु कासु सुन्दर निमंककराविपये शोभनम्‌ 1 सरसं श्ृद्खारादिरसो- 
पेतम्‌ 1 तथा समासु सदसु सारमूल्कृष्टम्‌ । अत एव सुरगुरुसम वृहस्पतितुल्यम्‌ 1 
भापा-श्लेप करा एक अन्य प्रकार 
जहां एक ही वाक्य में [ एक अथं को प्रतिपादित करने वाली ] अनेक भाषाओं 
का भरयोग हो चहु एक अन्य भाषा-ररुष है । १६। 
पूवेक्ति भापा-ज्केष के उदाहुरणो मे अनेक भापाओं से अनेकं अथं व्यक्त थे, 
किन्तु निम्नोक्त उदाहुरणो मे अनेकं भाषाओं से एक ही अथं प्रकट होता है । 
उदाहरस (संसत रौर प्राक्त के समान शर्ब्दो से वना श्लोक) 
छ्रन्वय--अहं समरे भीमारम्मं, विमलासु कायु सुन्दर, सरस, सभासु सार, 
सुरगुरुसम तं सूररि वन्दे ! 
मै बृहस्पति-तुल्य विद्धान्‌ का अभिवादन करता हं जो रणभुमि में प्रचण्ड वीरता 
से युद्ध करता है । युन्दर कलाओं सें निष्णात तथा श्यृद्खारादि रस-बणंन सेषटुहैः 
जो सभाओक्तातो सानो प्राण है 1१७) 
यह्‌ कखोक सस्छृत ओौर प्राकृत के समान शब्दो से विरचित है । दोनो भापामो 
से एक ही मथ व्यक्त होता दै 1 
श्रन्य उदाहरण (संस्कत चरर मागधी के समान शदो से वना श्लोक) 
अन्वय--[यत्त.| दुःगीरा. खला" काक अगमदञ्च भरिवम्‌ दिशन्ति । [अतः ते | 
दावला" यूर गलन्तु, का श विशन्तु, [वा] वक्षं (यान्तु), वा विद्धा [भवन्तु] 1 


कारिका १८-१९ | चतुर्थोऽध्यायः १०१ 


अथमेकत्राथे सस्कृतप्राङृतरेष. समसस्छृतभ्राकरतशन्दरचितत्वातु 1 एवमुत्तरत्रापि सम- 
सस्कृतमागधकब्दरचितत्वादित्यादि द्रष्टव्यम्‌ ॥। 


समसंरछतमागधशब्दोदाहरयमाह-- 

शूलं शलन्तु शं वा विशन्तु शबला वशं विशङ्भा वा। 

प्रशमदं दु-रीला दिशन्ति काले खला भ्रशिवम्‌ ॥१८॥ 

शूरमिति । दु-शीला दुप्टचारिचाः खला. शक्वोऽक्षिवं पीडादिक दिशन्ति ददति 
यतोऽतस्ते दावलाः पात्तकिन शलं वा शलन्त्वधिरोहन्तु। श वा सुखं वा विशन्रव- 
धिगच्छन्तु । वद पराधीनता वा यान्तु । विश ङ्ा. स्वच्छन्दा वा भवन्तु तच्चिन्तामपि 
न कुम । कीदहरमरिवम्‌ । अविद्यमान. राम उपरमो यस्यासा तथाविना द्शावस्था 
यत्र तदङ्मदलम्‌ \\ 

संरतपेश्चाचिकयोः श्लेषोदाहररमाह- 

चम्पककलिकाकोमलकान्तिकपोलाथ दीपिकानङ्खी । 

इच्छति गजपतिगमना चपलायतलोचना लपितुम्‌ । १६।। 


चेम्पकेति । काचिन्नायिका गजेनद्धसमगमना चश्चरुदीघंखोचना च 1 तथा चम्पक 
कलिकावत्कोमरकास्ती रम्यरूची कपोलौ यस्या. सा तथाविधा । तंथानङ्खस्येयमा- 
नद्खी दीपिका 1 तया कामस्य प्रकाितत्वातु । सा कपितु वक्तुमिच्छति । 


दृष्ट लोग इस प्रकार दुःख देते है कि मानसिक श्ान्तिविहीन मरणावस्था का- 
सा कष्ट होता है ! वे पातकी शली पर चदु या सुख भोगे, पराधीन बनें अथवा स्वच्छन्दं 
विहार करे हम इस बात की चिन्ता नहीं करते \ १८। 
उदाहर (संस्कत चोर पशाची के समान शब्दों से बना श्लोक) 
छन्वय--चस्पककलिकाकोमलकान्तिः, अथ आनद्धी दीपिका, गजपत्तिगमना, 
चपलायत लोचना (सा काचित्‌) रुपितुम्‌ इच्छति । 


चम्पा कौ कली के समान कोभलकान्त कपोलों से युक्त, काम कौ दीपिका र्य 
(प्रकाशिका), गजे के समान धीर गति वाली तथा चञ्चल एवं दीर्घं ॒नेत्रो बाली 
यह्‌ नायिका कुछ कहना चाहती है 1 १&६। 
उदाहरण (संसत त्रोर शौरसेनी (पूरसेनी) से वना श्लीकर) 


छअन्वय--मदिरामद मधुरवाणि ! सुपीवर-परिणाहिपयोधरारम्भे { तरुणा. ते 
सामोद अधरदर साधु पिवन्तु । 


१०२ काव्यालद्धारः [| कारिका २०-२२ 


चरथ संतसूरसेनीश्लेपमाह- 
ग्रधरदलं ते तरणा मदिरामदमधुरवाणि सामोदम्‌ | 
साधु पिबन्तु सुपीवरपरिणाहिपयोधरारम्मे ।२०॥ 
अधरेति । मदिरामदेन मधुरा वाणी यस्या. सा संवोध्य भण्यते । ते तवाधर्‌- 
दलमोष्ठपल्लव तरुणा युवान. साघु यथा भवत्येव पिबन्तु च्ुम्बन्तु । कीदश्म्‌ 1 सामोदं 
सुगन्धि 1 किविश्षिष्टे 1 सुष्टु पीवरो मासकः परिणाही परिमण्डल. पयोधरारम्भः कुचा- 
भोगो यस्या. संवमामन्न्यते ।। 
संरतापम्रंशश्लेपमाह- 
क्रीडन्ति प्रसरन्ति सधु कमलप्रणयि लिहन्ति । 
भ्रमरा सित्र सुविश्रमा मत्ता भूरि रसन्ति।२१।] 
क्रीडन्तीति 1 कश्चि चिदाहू-दे मित्र, भ्रमरा मत्ताः सन्तः कीडन्ति विच- 
रन्ति । प्रसरन्तीतस्ततो गच्छन्ति । तथा मयु मकरन्द कमलप्रणयि पद्मसंवद्ध छिहन्त्या- 
स्वादयन्ति । कीहनाः । सुष्टु विभ्रमो येपां ते तथविधाः। तथा भूरि प्रभूतं रसन्ति 
दाव्दायन्ते 1 अन्योऽपि मत्त एवविवो भवति ॥ 
भापाश्लेषमुपसंह रन्नाह-- 
एवं सर्वसिामपि कुर्वीति कविः परस्परं इलेषम्‌ । 
्रनयैव दिरा भाषास्व्यादी र्चये्यथा्क्ति ।२२। 


एवमिति । तथा सस्छृतभापाया अन्या्भिर्भापाभि. सह्‌ चकेपः कतत एवमन्या- 
सामपि परस्परं कर्त॑न्योऽसौ 1 तद्यथा--प्राकरृतभापाया मागधिकापंशाचीन्‌ रसेन्यपश्र शः 


है मदिरा के मद से मघुर बोलने वाली तथा अतिस्थूल एवं विश्चाल स्तनो 
वाली ! युदक-जन तुम्हारे सुगन्धित अधरो का रचिपुवंक पान करे ।२०। 


उदाहरण (तंसकत चौर तअपभ्र॑शय के समान शब्दो से दना श्लोक) 

प्रन्वय-हेमित्र ! सुविश्रमाः भ्रमरा मत्ताः (सन्तः) क्रीडन्ति, प्रसरन्ति, 
कमलप्रणयि मधु छिहुन्ति, भूरि रसन्ति । 

हे मित्र 1 मरे मदमत्त होकर इधर-उधर धुमरहेहै, कमलोंके मधु का 
स्वाद केकर अनेक प्रकार से सुन्दर विक्तास करते हए सतत कशब्द कर रहे है \२१। 

इस प्रकार न फेवल संस्कृत अपितु अन्य सभी साषाभं का भी कति उपर्युक्त 
विधि से यथाज्ञक्ति (एकत वाक्यं तथा अनेक वाक्यों मे) परस्पर देष कर! इसमें 
तीन, चार, पाच अथवा छः तक भाषाएं सिल की जा सकती ₹।२२। 


कारिका २३ | चतुर्थोऽध्यायः १०३, 


सह, मागधिकाया. पंगाच्याः सूरसेन्यपश्रशः पंशाच्या. सूरसेन्यपश्र शाभ्याम्‌, सूरः 
सेन्या अपश्र देन । एते दश भेदाः प्राच्यैः सह्‌ द्वियोगे सवं एव पञ्चदरा भेदा भवन्ति । 
तथानयंव दिशानेनेव न्यायेन त्रयादीस्तिलश्चतस्रः पञ्च षड्वा यूगपच्छ्िकष्टा भाषा 
यथासामथ्यंमेकवाक्यतया भिन्नवाक्यतया वा रचयेत्‌ । तत्र त्रियोगे विशतिभंदा.। यथा-- 
सण प्रा० मा० १,सश्प्रा०्पं० २, सं°प्रा०सू० ३, सण०्प्रा० अ० ४ प्रा° मा 
पं०५, प्राण मा० सू० ६, प्रा० मा० अ०७, मा०पऽसू० ८, मा०पं०अ० ९, 
पण मू०अ० १०, सण०मा० पं० १९१, सण मा० सु° १२, स° मा० अ० १३ 
प्रा प° सू १४, प्राण पण अण १५, प्रा सू9 अ० १६, स° पण सू9 १७, 
सं०्पं०अ० १८, प्रा० सू०अ० १९, सण सू० अ० २०) चतुयगि तु पञ्चदश । 
तद्यथा-स०्प्रा० मा० पं० १, सण्प्रा० मा०सू० २, सं प्राऽ मा०अ० ३, प्रा 
मा० पं०सू० ४, प्रा० मा० पँ० अ०५,मा० प° सुऽ अ० ६, स० मा० पर 
सू9 ७, सं०्माऽ पृ० अ० ८; सण प० सू अण ९, प्रा० प° सू% अ० १५); 
सण प्राण सू० अण० ११, सण मा० सू० अ० १२, पण प्रा° पृं० सू० १३, सं9 
प्रा० पं० अ० १४ प्रा० मा० सु० अ० १५1 पञ्चयोगे षट्‌ । तद्यथा-सण प्रा० 
मा० पं सू० १; स०प्रा० मार पं०अ० २, स० मा० पे० सू० अण० ३; संणप्रा० 
पे०सु० अ० ४, सण प्रा० मा० सु०अ०५, प्रा० मा०पं० सु°अ० ६1 षडयोगे 
त्वेक एव भेद. ।) 

तत्र पडयोगादिकिग्रदशंनायेकाथश्लेषमेकयुदाहरयमाह-- 

ग्रकलङ्कुकुल कलालय बहुलीलालोल विमलबाहूबल ! 


सखलमौलिकोल कोमल मङ्खलकमलाललाम लल ॥२३।। 

अकल्द्धुति । है एवविध, त्व कक क्रीड । कीदृश । अकलद्खुकूल निर्मकान्वय । 
कलार्य ककावाप्ष । वहुखीखारोक प्रचुरविलासलस्मट । विमख्वाहुवल प्रकटुज- 
पराक्रम । खलमौकिको दुजनशिर रद्ध । कोम कमनीय 1 मङ्कलकमलालकाम 
जयलक्ष्मीचिह्ल 1 अत्रकस्मिन्नथं भाषाषट्कस्यापि समान रूप ॥ 


उदाहरण | 

अन्वय--हे अकल कुल ! कलार्य 1 बहुलीलालोर ! विमर्वाहुवक ! खल- 
मोलिकीर ! कोमङ ! मद्धलकमलालकाम 1 (त्वम्‌) खक 1 

हे निमर वंशरत्न ! कलाओं फे मन्दिर ! अनेकविध विलासो मे आसक्त ! 
भुजबल दारा यज्लोपाजंन करने वाक्ते ! दुष्टो के मस्तक पर कील के सदुश ! सुन्दर ! 
जयलक्ष्मी फे चिह्ध ¦ तुम सदा क्रीडा में रत रहो ।२३। 

छ. भाषामो के समान दाब्दो से वने इस दोक से एक ही अथं व्यक्त हुभा है । 


१०४ कान्यालद्खारः | कारिका २४-२५ 


त्रथ प्रकतिश्लेपमाह-- 
सिद्धयति यत्रानन्यंः सारूप्यं प्रत्ययागमोपपदैः । 
प्रकृतीनां विविधानां प्रकृतिरदलेषः स विज्ञेयः | २४॥। 
सिद्धयतीति 1 यत्र प्रत्ययं रागमं रूपपदं श्चानन्यंस्तंरेव प्रकृतीना तु नानाप्रका- 
राणा सारूप्य समानरूपता सिद्धयति स प्रकृतिरलेषः ॥ 
तत्रोदाहर्कमाह-- 
परहूदयविदसुरहितप्राणनमत्काव्यकृत्सुधारसनृत्‌ । 
सौरमनारं कलयति सदसि महत्कालवित्सारम्‌ ॥२५॥ 
परेति । देवासुरयुद्धं वण्यते-सौर सुरसमूहः कतुं कलयति कलि गृह्णाति । 
युद्धयत इत्यथः । क्व सन्तः । अस्यन्ते क्षिप्यन्ते यत्र॒ तत्सदस्तत्र सदसि युद्धे सौर 
कीहशम्‌ । परहृदयानि रिपुवक्षासि विध्यतीति परहूदयवित्‌ 1 यथासुरदितानां दानव- 
पक्षपातिनां प्राणनं जीवन मथ्नातीत्यसुरहितप्राणमत्‌ । तथा काव्यं दानवगुरु कृन्तति 
पीडयतीति काव्यकृत्‌ । तथा सुधारसममृतरपस्र नौति स्तौतीति सुधारसनुत्‌ । तथा 


देवत्वान्न विद्यते नारं नरसमूहो यत्र तदनारम्‌। तथा महत्मभूतम्‌ तथा कार कृत्य- 


2" ^ ध 
# 1 
# 1 


प्रकृतिश्लेष 

जहां विचिध प्रकृतयो की अनन्य प्रत्यय, आगस ओर उपपदों के साथ समान. 
रूपता हो उसे प्रकृतिहलष कहते है 1४२ 
उदहष्य 
प्रथम अथं 

अन्वय-परहृदय-वित्‌, असुर-हित-प्राणन-मत्‌, कान्यज्ृत्‌, सुधा-रस-नुतु, 
अनार, महत्‌ कारवित्‌ सौर सदसि सार कलयति । 

देवासुर संभ्राम का वणेन है- देवता चेम युद्ध मे ान्रु-दानवोंके हृदय को 
वीधते हु, शत्रुओं के पक्षपातियों के प्राणों का मंथन करते हैँ (हरण करते है) । दानवं 
के गुरु शुक्राचायं को पीडित करते ह तथा अमृत को प्रशसा करतेहै। कायं करने 
के समय उनकी चेतना-शक्ति त्यन्त प्रबुद्ध रहती है \ देवताओं के यह मनुष्यों का 
वास नहीं होता । इस प्रकार वे अपने शत्रुम के साथ युद्ध करते है !२५। 
दहितीय अर्थं 

श्रन्वय---महत्‌, पर-हूदय-वित्‌, असु-रहित-प्रणन-मतु, काव्यश्ृत्‌, सुधार-स- 
नुत्‌, अनार, काचित्‌ सौर सदसि सार कलयति । 

विष्टान्‌ चछोग समा में उक्करष्ट अथवा उचित वस्तु का विदकेषण करते है । पुज्य- 
जन क्ता समादर करते ह । सज्जनो को सताने वाले दृ को युधारते हैँ । कलाभों का 


कारिका २६ | चतुर्थोऽध्याय १५१५ 


करणसमये चिच्च तन्य ज्ञान यस्य तत्कार्चित्‌ तथा सहारेणारिसमूहेन वतते यत्तत्सारं 
यथा भवत्येव कल्यति । एष एकस्य व्राक्यस्या्थ. ।। परस्यापि तादृशान्येव पदानि । 
सौरं सूरिसमूह. सारमुक्कृष्ट वस्तु न्याय्य वा सदस्ति सभाया करयति परिच्छिनत्ति । 
कि कुर्ैत्सौरम्‌ । महत्पूजयत्युज्यजनम्‌ । तथा परहूदयवित्परचित्तन्ञम्‌ 1 तथासुरहिताना 
प्राणवजिताना प्राणनेन प्रत्युज्जीवनेन माद्यति हृष्यतीत्यसुरहितप्राणनमद्‌ । तथा 
कान्य कविकर्म करोतीति कान्यकृतु । तथा शोभनो धारो मर्यादादिधारणयेषा ते 
सुधारा सुजनास्तन्स्यन्ति ध्नन्ति ये ते सुधारसा खलास्तान्नुदति प्रेरयतीति सुधार 
सनतु । तथा न विचत आरमरिसमूहो यस्य तदनारम्‌ । तथा काना समूह्‌ कालं 
चिनोत्यजेयतीति कालचित्रं । अत्र प्रकृतयो व्यधिविदिप्रभरृतयो भिन्नाः । प्रत्यया 
क्विवादय उभयत्रापि त एव । परहूदयादीन्युपपदानि च तान्येव । आगमरच काल- 
चिदादिपदेऽतोऽन्तागमादिकोऽनन्यः । ननु चैकत्र पक्षेऽतोऽन्तोऽस्ति द्वितीये नास्तीति 
कथमनन्य. । सत्यम्‌ । नास्यान्योऽस्तीत्यनन्यो द्वितीयपक्षेऽन्यागमाभावादुच्यत इति सुस्थम्‌ ।। 
अथ ग्रत्ययश्लेषः- 


यत्र प्रक्ृतिप्रत्ययसमुदायानां भवत्यनेकेषाम्‌ । 
साष्प्यं प्रत्ययतः स ज्ञेयः प्रत्ययर्लेषः ।२६॥। 


यत्रेति । यत्र प्रकृतिप्रत्ययसमुदायाना बहूना प्रत्यथात्सकाशात्सारूप्य समान- 
रूपता भवति स प्रत्ययर्कषो ज्ञातव्य | 


उपाजन (शिक्षण) करते है, तथा सबमे समान चित्त होने से उनके शत्रु नहीं होते ।२५। 

यहां विदि आदि प्रकृतियो, किविवाटि प्रत्ययो, परहूदय आदि उपपदो, काल- 
चितु अ!दि आगमो कौ भनन्यता है। 
प्रत्ययश्लेष 

जहा प्रकृति ओर प्रत्यय के अनेक समुदायो की प्रत्यय के कारण समानरूपता 
हौ उसे प्रत्थयशलेष कहते है ।२६। 
उदह्य 
प्रथम अथं 

द्रस्वय--दासेय. तापनम्‌, आजं, पावनमार हार पराप । [अथ च| वहुशः 
[स.] कार, चारण, आहित साधन दरम्‌ आज । 

इस्‌ दुष्ट चोर ने [पकडे जाने कौ अवस्था में| संताप देने वाले तथा [ दण्ड- 
रूपमे चोरके फक दवियि जाने के कारण] दुःखदायी, मृत्युदण्ड-तुल्य इस हार को 
चुराया है । इसने हार चुरते समय इसके स्वामी का उर नहीं माना । हंडबड़ी में 
मागते समय हाथ-परो के हुटने को भी परवाह नहीं की ! [ वस्तुत. ] यह्‌ बहुत से धनियों 


(ष 


प 


१०६ कान्यालड्ुरः [ कारिका २७-२८ 


उदाहररम्‌- 
तापनमाजं पावनसारं हारं पराप दासेयः । 


कारं चारणमाहितमाज दर साधनं वहुश्षः ।२७। 

तापनमिति । एप दासेयो दासरीपुत्रष्चौरो हारं मृक्तककाप द्ियमाण वा वस्तु 
पराप मूुपित्वा प्राप्तवान्‌ 1 कीटनम्‌ । तापयतीति तापनम्‌ । वन्वादिहेतुत्वात्‌ । तथा 
अज्यते क्षिप्यतेऽनेनेत्याजयतीति वा गाजम्‌ 1 चौरो हि चारकादी क्षिप्यते तथा पावय- 
तीति पावनः बुद्धिकृन्मारो मरण यत्र तत्पावनमारम्‌ । तथा स दासेयो हरणकाले दरं 
भयमाज विक्नेप त्यक्तवान्‌ । कीदृग दरम्‌ । सवनादीश्वरादागत साधनम्‌ । आहित 
हदये निहितम्‌ । पुनः कीदृब दरम्‌ । करयोरिदे कारम्‌ । तथा चरणयोः पादयोरिदं 
चारणम्‌ 1 करचरणखण्डनादिमय नाजीगणदित्यर्थः 1 यतोऽसौ वहूञ्य्यतीति वहुशः । 
वहुवस्तेन धनाय पहारतस्तनूकृता इत्वर्थः । एप एकोऽर्थः ॥ द्वितीयस्तु--आसेय आर 
गति परापत्प्राप्तवान्‌ । पिन्‌ वन्धने" 1 आसेतव्य भासयो मोलमगप्रप्तो नानी भण्यते । 
ईपत्कर्म बन्धनात्‌ । कीदृगमारम्‌ । तपनस्येम तापनम्‌ । अजस्येममाजम्‌ ! पवनस्येमं 
पावनम्‌ 1 ह्रस्येम हारम्‌ । मू विष्णुवायुशट्राणा सवन्विनी मति केम इत्यथः । यतो- 
ऽसौ कार क्रियामाजत्यक्तवान्‌ } कीदृ श्न कारमु 1 चारयति गमयति ससारे प्राणिनमिति 
चारणम्‌ 1 पुन. कोटनम्‌ । अदहिताना रागादीनामिदमाद्ितम्‌ । कि तत्‌ 1 साव्यतेऽने- 
नेति साघनम्‌ । रागादीनामूुपकरणमिव्यर्थः । कथ साधनम्‌ । वहुनोऽनेकन. 1 अर 
रीम्‌ । अतर प्रत्ययवबात्प्रकृतिप्रत्ययक्षमुदायाना सारूप्यम्‌ ॥ 

प्रथ विसक्तिव चनश्लेपः- 

सारूप्यं यत्र सुपां तिडां तथा सवंधा मिथो भवति । 


सोऽत्र विभक्तिश्लेपो वचनदलेषस्तु वचनानाम्‌ ।।२८॥ 


को लृटकर निर्धन वना चुका है, मतः अम्यस्त हौ गथा ह ।२६। 


हितीय अथं 

अन्वय--जासय. तापनम्‌, जाज, पावन, हार आरं पराप । चारणं, आहितं, 
वटक्ष. साधनं, कारं अरम्‌ जाजत्‌ । 

ज्ञानी व्यवितिने सुं, विषम्‌, वायु तथा खद की गति को प्राप्त्‌ किया । क्योकि 
उसमे जन्म-मरण वन्धनहेतुकं समो क्रियाभों का परित्याग कर दिया था, दथा शीघ्र 
ही अनेक प्रकार के रागादि विषय एवं उनके साधनो को छोड दिया था 1२७ 

यहाँ प्रत्ययं के कारण प्रत्यय ओर प्रकृति कौ एकरूपता स्पष्ट है | 
विभकििश्लेप शरीर वचनश्लेष 

जहां चुबन्त ओर तिडन्त पदों के रूप सव प्रकार से परस्पर एक-समान हों 


कारिका २६ | चतुर्थोऽध्याय. १०७ 


सारूप्यमिति । यत्र सारूप्य समानरूपता सुपा स्यादीनां तिडां व्यादिना मिथः पर- 
स्परं सर्वथा सर्वप्रकारभवति सोऽत्र इरेषाधिकारे विभक्तिररूषो जेयः । वचनाना त्वेक- 
वचनादीनां भिथः सारूप्ये वचनरश्रष, ।। 

तत्र तावद्विभक्तिश्लेषो दाहरणम्‌ - 

ग्रायामो दानवतां सरति बले जीवतां न नाकिरताम्‌ । 

नयदानर्वल्लिलामः किमभूरसि दारुणः सहसा ॥२९। 


"आयाम इति । जीवता प्राणभरेता दानवता दनि ददता सता सबन्धिनि बे 
सन्य आयामो विस्तारः सरति प्रसरति । न नाकिरता न विक्िपताम्‌ । कापेण्येन 
गकेऽथिन गृह्णता नेत्यथं । कुत. । यतो नयश्च दान च ते विद्येते यस्यासौ नयदान- 
वान्पुरूषो रुलामो भूषण जगत । तथा किम कुत्साया अभूरस्थान किमभ्रुः । तथा 
सहसा वखेनासिदारुणः खद्धभीपणश्च कलाम । इत्येकोऽथे. । अपरस्तु-केचित्सुरा 
तङिनामानमसुरमूनच॒ -हे बर वंरोचन, दानवतामसुरत्वमायाम आगच्छामः । कथम्‌ । 
सरति सप्रीतीति कृत्वा 1 न पुनर्जीवता ब्ृहस्पतिताम्‌ । किभूताम्‌ नाकिषु देवेषु रता 
सक्तां नाकिरताम्‌ । तस्मान्नय प्रापय दानवानसूुरानू । येन तेषा मध्ये लक्ामो 
विलसाम । किमसि त्व दारुणः काष्ठादभू सजातः सहस्रा । येनास्माक वचन न 


स्णृणोषीत्यथं । अत्रायाम इत्यादयो य एव ॒स्याद्यन्तास्त एव त्या्न्ता. शब्दा इति 
सारूप्यम्‌ । 


वहां विभक्ति इलेष होता है ओर जहां वचन (एकवचनं, द्विक्चन अथवा बहुवचनों के 
रूप परस्पर) एक-तमान हों वहां वचनद्ेष जानना चाहिए ।२८। 
उदाहर 
प्रथम्‌ अथं 

अन्वय--जीवता, दानवता वर आयाम सरति, न नाकरिरताम्‌ 1 [यतः] नय- 
दानवान्‌ लाम । किम्‌ अभू सहसा असि-दारूण ॥ 

दान देनेवाल अर्थात्‌ उदार प्राणियो का सेभ्यबर विस्तार को प्राप्त होता है, 
कृपण व्यक्तियों का नहीं । ज्योकि नीतिज्ञ दानी पुरुष ही जगत का भूषण होता है । 
उसका चरित्र अनिन्छ होता है तया वह्‌ बल में खडगके समान दारुण होता है ।२९। 
दितीय अथं 

प्रनय-हे वके ! स~रति दानवताम्‌ आयाम , न [पुन] नाकि-रतां जीव- 
तामु । असुरान नय, काम । कि असि (त्वम्‌) दारुण. अभू- सहसा । 

कुखं देवता नकि से कह रहै है-हे वकि ! हम प्रसन्नता से दानवता की ओर 
जति देवो के विजेष प्रिय वाचस्पतित्व की ओर नहीं! हमें राक्षसो के पास्ते 


[+ 


१०८ कांन्यालद्धुरः [ कारिका ३० 


अथ वचनश्लेपोदाहस्छम्‌- 

म्रार्योऽसि तरोमात्यः सत्योऽनतकूक्षयः स्तवावाच्यः । 

सन्नाभयो युवतयः सन्मूख्यः सुनयना वन्द्यः 11३ ०॥ 

आयं इति 1 करिचदुत्साह्यते--असि त्वं वन्यो वन्दनीयः, यत आर्यो वि्थिष्ट 1 
तथा तयो वक माल्यमरंकरण यस्यासौ तरोमात्य- । सत्योऽवितथवाक्‌ । अनतानाम- 
प्रणताना कोर्मूमे क्षयो नाशहेतुरनतकुक्षय. । स्तवे स्तुतिभिरवाच्यो वक्तुमदाक्य. । 
तथा सन्नानां क्षीणानामभयो न विद्यते भय यस्मादिति सन्नाभयः । तथा यूनस्तरुणा- 
स्तयतेऽभियुडक्त उति युवतय । सता साधुना मुख्य आद. । तथा शोभनो नयोऽस्येति 
सुनयः स चासौ ना च। सुनीतिपुरूष इत्यथं । एप एकवचनेनेकस्य वाक्यस्यार्थं ॥ 
अपरस्य तु--करिचद्राजानम!ह्‌--तव सबन्विन्य आर्योऽरिसक्ता युवतयः स्तयो वन्यो 
ग्रहानीता एवविधा. 1 असिता रोमाखी यासा तास्तथाभूता. । तथा सत्य साष््य.। 
नतकुक्षयः ईशोदय. । अवाच्योऽधोमुख्य. तथा सती रम्या नाभिर्यासा ता. सन्नाभयः | 
तथो सच्छोभनं मख यासा ता. सन्मूख्य. । दोभने नयने यासा ताः सुनयना 1 अत्रायं 
इत्यादीनि पदानि वहुवचनान्तानीति वचनदरेप" ।। 


चलो, निससे हम उनके बीच विहार कर सके । अरे, क्था तुम ल्कडोके बनेहो 


[ जिससे हमारी बात नहीं सुनते | ।२९। 
उदाह्य 
प्रथम अथं 

द्न्वय-[त्वम्‌] वन्य. असि, [यत | भयं , तरो-माल्य , सत्य , अनित-कु- 
क्षय , स्तव-अवाच्य-, सन्न-अभय., युव-तय , सत्‌-मुख्य , सूनयना च । 

तुम वन्दनीय तथा सच्चरित्र हो ) विक्रम ही तुम्हारा सूषण है 1! तुम सत्य- 
वादी ओर दृष्टो के विनाशक हो । तुम स्तुतिसेपरेहो। दुबलों को तुमसे कोई भय 
नहीं है, अर्थात्‌ उन्हँं असय दान देने वाक्त हो । तुम युवकों से युद्ध करने वाके, सज्जना 
मे अग्रगण्य तथा सुनीतिमान्‌ पुरुष हो 1३०} 
हितीय अथं 

अन्वय--असित-रोमाल्य., सत्य. नतकरक्षय , अवाच्य , सन्नाभय., सन्मुख्य , 


` सुनयना , तव आयं: युवतय वन्य" । 


है राजन्‌ { आपके शन्रुगों की युवती स्त्रियों को बन्दी बना ल्या गयादहै। 
वे युवतियां काली रोमावली से युक्त है) साध्वी हँ तथा कृशोदरी है। उन्होने 
मुखे नीचे किया हुञा है, उनको नामि, मुख ओर नेच्न-युगर सुन्दर एवं मनोहर हैँ ।३०। 


कारिकां ३१-३२ | चतु्थ$ऽध्यायः १०६ 


एवं श्लेषलक्षणमभिधाय पुवकविलद्यसंग्रहमय लक्षणशेपमाह- 

भाषारलेष विहीनः स्पृराति प्रायोऽन्यमप्यलंकारम्‌ । 

धत्ते वेचित्यसयं सुतरामुपमासमुच्चययोः ॥३१। 

भापेति 1 अय पूर्वोक्तदकेपो भाषारकेषरहित प्रायो बाहल्येनान्यमप्यलकारमर्थ- 
विषय व्यतिरेकादिक स्पृशति । शकपस्याप्यौपम्यादिभि सह्‌ सकरो भवतीत्यथे. । अपि- 
दाब्दो विस्मये । प्रायोग्रेहणमसाकल्यप्रतिपादना्थेम्‌ । अन्यमरकारः स्पृशति पर न 
सर्व॑मेवेत्य्थं । , तत्रापि सृतरामत्तिशयेन वैचिश्र्य रम्यत्वमय रेष उपमासमुच्चययोधंतत 
धारयति उपमासाहचर्यात्समुच्चयोऽप्यत्रौपम्यभेदो गृह्यते । 

नन्वत्र ररेषवाक्यद्रये शब्दमाच्र दिरुष्ट भवति, न स्वथं इतिसाम्याभावस्ततश्च 
कथमुपमासमृच्चयाम्या स्पर्शो घटत उत्यारङ्चाह-- 


स्फुटमर्थालंकारावेतावुपमासमुच्चयौ कि तु । 


भ्राश्ित्य शब्दमात्रं सामान्यमिहापि संभवतः।।३२॥। 
स्फुटेति । स्फुटं सत्यमर्थाकारावेतावुपमासमुच्चयौ न कदापि स्वरूपं त्यजत । 
कितु शन्दमा्रूप सामान्य साधारण धमंमाध्रित्य संभवत । ताभ्यां योगो घटत 
[ यहाँ आर्यादि पद बहुवचनान्त होने से वचनररष टै । | 
भाषाशलेष को छोडकर [अपने हेष सभी प्रकारो से युक्त] यह शेष 
अलंकार प्राय अन्य (करटः न कि समी) अलंकारो के साथ भी स्पष्ट (समन्वित अथवा 
सम्बद्ध, शासनीय शब्दावली में कहँ तो संकरित) रहता है । उपमा ओर समुच्चय 
नामक अककारों के साथ इसका संकर तो [ बहुत ही ] रमणीय होता है ।३१। 
इस कारिका का उत्तराद्धं भामह से प्रभावित जान पडता है 1 उन्होने इरेष 
के तीन रूप बतायं है--सहोक्ति द्वारा निदिष्ट, उपमा द्वारा निर्दिष्ट ओौर दहेतु हारा 
निर्दिष्ट (भामहालकार ३।१७) । यहाँ "सहोक्ति' से भामह का तात्पयं प्रख्यात सहोक्ति 
अककार न होकर समुच्चय अरुकार से है जसा कि उनके निभ्नोक्त उदाहरण से स्पष्ट हैः 
छायावन्तो गतव्यालाः स्वारोहाः फलदायिनः । 
मागदरुमाः महान्तश्च परेषामेव भूतये ॥ 
। भा० अ० १३।१८ 
इधर खुद्रट ने हेतु निर्दिष्ट" नामक भेद की चर्चान करके प्रथम दो अलकारौं 
कीचर्चाकीहै। 
यद्यपि उपमा गौर समुच्चय ये दोनो स्पष्टतः अर्थालंकार है, किन्तु ये दोनों “ 


मलकार [रकृत ओर अप्रकृत दोनों पक्षो के लिए] सामान्य अर्थात्‌ एक समान शब्दों 
करो धारण करते हुए मी सम्भव होते है !३२। 


+ 1 
४। 


११० | कान्यारुडारः | कारिका ३३ 


इत्यर्थं । अर्थतो न सादृव्य कितु वाक्यद्रयसाधारणदान्दाश्रय सादृश्य विद्यत इति 
तात्पर्याथं 1 


उद्ह्श्यमाह-- 
यदनेकपयोधिभूजस्तवेव सहडोऽस्यहीनसुरतरसः । 
ननु बलिजितः कथं ते सदृशस्तदसौ सु राधिकृतः ॥३३॥ 


उदाहश्य 


१ 


हिलष्ट पदों का अथं 
अनेकपयोधिभुज (क) अनेकप-योधि-ग्रुज. (अनेकापाना द्िपाना हस्तीनामिति 
यावत्‌, योद्धा भुज बाहु यस्यस । 
(ख) अनेकान्‌-- चतुर. पयोधीन्‌--समृद्रान्‌, भुनक्ति रक्षति 
य. तस्य उनेकपयोधिभुक्तस्य । 
महीनसुरतरसः (क) अहीन--पूणेः, सुरत-रस"- निधु-वन-आनन्दो यस्य सः। 
(ख) अहीनां-- नागानां, उन --स्वामी, सुराः- देवा. तेपा- 
मिवे तर.-वक यस्य सः। 
वक्िजित. (क) वजिन समर्थान जयतीति वचिजित्‌ तस्य । 
(ख) वङ्िना--वक्िनामधेयेन दानवेन, जितः--पराभूत । 
सुराधिक्ृत. (क) सुराणामाधीन्‌ मन पीडा छन्ततीति सुराचिकरृत्‌ तस्य । 
(ख) मुरं- देवं. अधिकृत -- (राज्ये) नियोजितः ! 
द्न्वय--यत्‌ अनेकप-योधि-रुज अहीन-सुरत-रसं त्वमु अनेक-पयोधि-पुज. 
अहि-इन-सुर-तरसः तव एव सदृश असि । ननु वलि-जितः सुर-जाधि-कृत. ते वकि- 
जितः सर-अधिकृत. असौ [इन्द्रः] तत्त कथं सदृश । 
हाथियों से युद्ध करने मे समयं भुजाभों वाकं तथा सुरत के आनन्द का पुणं 
उपभोग करने वाके तुम अपने सहर आपह हो । क्योकि तुम चारो समूद्रों की रक्षा 
करने वाले हो तथा नागराज वासुकि ओर देवताओं के समान शक्तिमान्‌ हो । तुम 
इन्द्र के सहश न होकर अपनी उपमा स्वय हो, क्योकि तुम बक्वानोंको सी जीतने 
वाले हौ तथा देवो की मानसिक चिन्ताओं का अपहरण करने वाख हो, जबकि इन्र 
बलति से पराजित है भौर देवतामों ने उसे अपना राजा भाना हज है !३३। 


- उपमा श्रौर्‌ समुच्चय [ते समनित श्लेष] का उदाहरण 


निम्नोक्त पद्य के प्रथम दक मे समुच्चय-समन्वित करेप है गौर दूसरे दख्मे 
उपमा समन्वित इकुष । । 


कारिका ३३ ] ` चतुर्थोऽध्यायः १११ 


यदिति । करिचदुच्यते--त्व तवव सदृशो नान्यस्येत्यनन्वयोनासूपमाविशेषण- 
द्वारेण साम्यमाह-कीदुशस्त्वम्‌ । अनेकपाना द्टिपाना योद्धा भ्रुजो बाहूयेस्यासावनेक- 
पयोधिभुज । तथाहीन- परिपणे. सुरतरसो निधुवनरसो यस्यासावहीनसुरतरस. 1 तव 
कीदृशस्य । अनेकाङ्चतुर पयोधीन्समुद्रान्भुनक्ति रक्षतीत्यनेकपयोधिभ्ुक्तस्य । तथा- 
हीनामिनो नागयज सुरा देवास्तेषामिव तरो बर यस्यासावहीनसुरतरास्तस्य 1 अत्र 
प्रथमानिर्दिष्टमुपमेय पष्टीनिदिष्टसूपमानमनयोस्तु न वस्तुतः किचिदपि साम्यमस्ति, 
कितु तत्प्रतिच्छायशब्दप्रयोगात्साम्य प्रतिभासते ।! एवमुत्तरत्रापि योज्यम्‌ । किमिति । 
त्व तवेव सदृशो न त्विन्दरस्येत्याहु-- नन्वित्यादि 1 ते तव कथमसौ सदृश इति व्यति- 
रेकोऽरुकार । कीदृशस्य ते । वलन. समर्थाञ्जयत्यभिभवतीति बकिजित्तस्य वलि- 
जित. 1 तथा सुराणामाधीन्मन पीडा कृन्ततीति सुराधिकृत्तस्य सुराधिकृत । इन्द्रस्तु 
कीदृश । वकिनाम्ना दानवेन जित पराभूत । तथा सुरेरधिकृतो राज्ये नियोजित. । 
एव त्व सुराणामाधीज्छिनत्सि, स तु सुरंरधिकरृत इति स्फुट एव तवेन््रस्य च विशेपः । 
यत्तच्छब्दौ हेत्वर्थो । नन्वमषें । यस्मात्तव तवेव सदृरास्तस्मांत्तव केथमिन्द्र. सदृशो 
भवतीत्यथं. ।। 


उदाहट्य | 
श्लिष्ट पदो का अथं 
वेसुधामहितसुराजितनीरागमना-- 
(क) वसु--घधनम्‌, धाम-तेज , [ताभ्या ] हित--अनुकूक, सुरः 
देवं , अजित--अपराभूतम्‌, नीराग--रागरहितम्‌, मन , चित्त 
यस्य स. 1 
(ख) वसुधाया- पृथिव्याम्‌, महितम्‌- पूजिताम्‌, सुराजितम्‌- 
सुष्टु राजित--शोभित, नीराममनम्‌--नीरस्य, जलस्य, 
आगमनम्‌--सप्राप्ति यासुता 1 
सुरचितवराहवयुप - 
(क) सुष्टु रचिन- निमित्तम्‌, वरश्रेष्ठ, आहव- समर, 
पुष्णाति--पुष्टि नयति इति य , तस्य । 
(ख) सूरः देवे, चित्त-व्याप्तम्‌, वराहवपु -शरूकरशरीरम्‌ 
यस्य सः । 
प्रथम अथं 


श्नन्वय--वसु-वाम-हित-सुर-अजित-नीराग-मना. भवादच वर्षार्च । सु-रचित- 
वर-आंहूव-पुष तव च हरे. च उपमा घटते । 


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११२ काच्यालद्धारः [ कारिका ३४ 


उपमासमुच्चयोदाहरणमाह- 
वसुधामहितसुराजितनी रागमना भर्वांङ्च वर्षादिच । 
सुरचितव राहवपुषस्तव च ह्रेड्चोपमा घटते । ३४ 


वसुधेति। त्व वर्पाश्चि सहदौ 1 त्व तावत्कीर । वसु धनम्‌, धाम तेज, 
ताभ्या दितमनुकूक सुरद रजितमपराभूतं नीरागं रागरहित मनरिचत्त यस्य स तथो- 
क्तस्त्वम्‌ । वर्षस्तु वसुधायां भ्रुवि महित पूजिते सुष्टु राजितं शोभित नीरागमन जला- 
गतिर्यासु तास्तथोक्ता । चदाव्दावत्र समुच्चयार्थौ । साधारणविश्चेषणादौपम्यस्य सद्धावः। 
लुद्धाया उपमाया उदाहरणमाह--सुरचितेव्यादि । तव विष्णोश्च साम्य घटते । 
कीहशस्य तव सुष्टु रचित वरं श्रेष्ठमाहव समर पुष्णाति पुष्टि नयतीति यस्तस्य सुरचित- 
वराहवपुष । हरस्तु सुरंदवेदिचतं व्याप्त व राहवपु सूकरशरीर यस्य स तथा तस्यं । 

अत्रापि साधारणचब्दयोगात्साम्यम्‌, न त्व्थंत ॥। 


द्वितीय अथं 

अन्वय-वसुधा-महित-सुराजित-नीर-आगसना भवारच वर्षादच । सुर-चित- 
वराह्‌-वपुष तव च हरे च उपमा घटते 1 
समुच्चय समन्वित श्लेष 

तुम ओर वर्बा एक समान हो । [क्योकि ] तुम्हारा मन, धन ओर तेज से युक्त 
है, तथा देवो से अपराजित तथा राग-रहित है [ओर उधर ] वर्षा संसार में सत्कार 
होने तथा सुन्दर लहरते हृए जल के छाने के कारण अभिनस्दनीय होती है ।३४। 
उपमा-समन्नित श्लेप 

तुमसे ओर विष्णु मे समानता है! [क्योकि तुम] सुन्दर रीति से युदढ- 
संचालन करते हो [ओर उधर] विष्ण्‌ देवों से व्याप्त वराहस्पको धारण करने 
वाला है 1३४) 

देप के उपर्युक्त आठ भेदो के निरूपण के उपरान्त इन चार (३ १-३४) 
कारिकाओमे रलेष की क्षेत्रसीमा ओर अधिक बढायी गयी है । ३१.३२ कारिकाका 
उद्य यह है कि उपमा गौर समुच्चय यद्यपि अथलिकार है, किन्तु यदि उनका 
चमत्कार श्छेष पर आधारित है तो वहाँ श्छेप अककार ही स्वीकृत करना चाहिए, 
इनमे से कोई एक अथवा दोनो अरूकार नही, क्योकि इसीका चमत्कार उपमा [अथवा 
उपमा से सम्बद्ध रूपक-व्यतिरेक आदि अलकारो| तथा समुच्चय अककार के चमत्कार 
को आच्छादित करदेताहि। ३३ेवी कारिकामे व्यतिरेकके, ३४्वी कारिका के 
पर्वाद्धं मे समुच्चयके ओर उसी के उत्तराद्धं मे उपमाके चमत्कारको इर्ेषका 
चमत्कार आच्छादित किये है! 


कारिका ३४ ] चतुर्थोऽध्यायः ११३ 


इस सम्बन्ध मे निम्नोक्त प्रन विचारणीय है-- 

(१) क्या रलेप अरकार के प्रसग मे अन्य अल्कारो की सत्ता अनिवायं है ? 
शास्त्रीय शब्दावटी मे कहे तो- क्या इरष अलकार अन्य अल्कारो से विविक्त 
(रहित )- नितान्त स्वतन्त्र रूप से- नही हो सकता ? 

(२) इसी प्रश्न से मिल्ती-जूकुती अन्य समस्या यह है कि शद्रट ने उपमा भौर 
समुच्चय को शब्द" पर आधित भी मानाहै तो क्या श्ब्दसाम्य' भी उपमा [तथा 
समृच्चय | का प्रयोजक है । वस्तुतः यही समस्या ही इसी प्रसंग मे विवेच्य है 19 

उद्मट ओौर रुय्यक का मन्तव्य यह है कि रकष अकार स्वतन्त्र रूप से कभी 
नही रहता 1 जहाँ इसकी स्थिति होगी वहां कोई-न-कोई अलकार अनिवार्थतः रहेगा, 
किन्तु इसका चमत्कार अन्य अलंकार के चमत्कार को वाधितकरदेताहै ओर वहाँ 
दरेष अकार स्वीकृत किया जाता है । इस सम्बन्ध मे उनका प्रमुख तकं यह है कि 
यदि श्लेष के होते हृए अन्य अकार माने जाएेगे तो रेष अलंकार निविषय हो 
जाएगा, अर्थात्‌ इसके उदाहरण नही मिकूगे । काव्य्ास्त्र के [अथवा किसी भी 
शास्त्र के] इस नियमसे वे भरीर्माति परिचितदहै कि जो सबसे अन्त्यमे प्रतीत हो 
वही प्रधान, पोष्य एव उपस्कायं माना जाता है, किन्तु उनके विचार मे ररप अल- 
कार के प्रसग मे यह्‌ नियमं शिथिल करना पडेगा, अन्यथा किसी अन्य अल्कारकी 
स्वीकृति कर लेने पर रष" सदा अप्रधान एव पोषक वना रह्मन के कारण अलकार- 
पद से च्युतं हो जाएगा । 

इधर मम्मट ओर विश्वनाथ इस स्थिति को सदा स्वीकार नही करते । इनके 
मत्त मे शेष अककार कमी अन्य अक्कारोसे स्वतन्व रहता है ओर कभी नही 
रहता । जर्हा वह स्वतन्त्र नही रहता वर्ह कभी तो इसका चमत्कार भन्य अलकारो 
के चमत्कार को बाध देता है ओर कभी स्वय वाधितं होकर उसका पोपक बन जाता 
है। इस प्रकार इन आचार्यो के मतमे इरष अर्कारः की स्थिति तीन विकल्पो मे 
सम्भव है- 

(१) रखेष स्वतन्त्र रूप में रहता है । 

(२) शकेष अन्य अलकारो का वाघक्र बन जाता है | 

(३) रूष अन्य अरकारो का पोषक बन जाता है । 

इनमे से प्रथम दो विकल्प ही इरेष अलकार से सम्बद्ध है । 

सर्वप्रथम एेे उदाहरण भ्स्तुत है जहाँ केव इरेप अकार का चमत्कार है। 


१ विशेष विवरण के लिए देखिए काव्यप्रकाज्ञ, नवम उल्लास, साहित्यदर्पण, दशम 
परि०, कान्यानुरासन (हैमचन््र) प° सं० २३१, २३२1 


११४ काव्यादद्भुमुः [ कारिकां ३४ 


¢ 
[1 1 वि । क 1 ^) 0) रि 1 भै 


(१) है पुतनामारण तें युदक्ष, जधम्य काकोदर्‌ या विपक्ष । 
की किन्तु र्ना उत्तकी दयालु, शरण्य एेये प्रभु हँ कृपालु ॥1 
[धर्थान्‌ (राम गौर्‌ कृष्ण) य दोनों प्रभु गयणदेनै वाके बौर दपा द| 
राम पूतनामा अर्थात्‌ पवित्र नाम वान्दे गीर्‌ रणम मुदश्ष (नियृण दै), कृष्ण पूतना 
के मारणमे दक्ष (निपृण) है । राम थपने विप्रक्षी काक्रोदर्‌ (रन्द्र केः पृत्र जयन्त) की 
रक्षा करने वाट द्र, भौर छरप्ण अषने विपक्षी कालिय यपंकी गधरा करने वकद ।| 
टस पद्यमे उदूभट भीर्‌ म्यक के अनुमार वरस्तु. तुल्ययोगिता अन्छकार्‌ होना 
चाहिए, क्योकि इमम दोनो प्ररतो--यम वीर्‌ कृप्ण-- करा एक धम चे सम्बन्ध वताया 
गया है। पर दप का चमत्कार तुल्ययोगिता के चमत्कार पर आच्छादित हौ गया 
है 1 अतः य्ह शेप अकार्‌ द्ध) किन्तु मग्मट अीर्‌ विच्वनाथ के मतम यहा केवट 
दखेप काही चदमत्वार्‌ ह| वरहा तुत्ययोगित्ता भकार प्राप्तदहीनी दहै । एकतो सम 
शीर कृष्ण उन दोनो प्रक्रत पक्षो का य्ह एक वर्म मे सम्वन्थद्िथिर नही किया गया। 
जपे रम श्रूतनामा बौर रणम मृदक्ष ह, तो करप्ण धूतना-मारण मं युक्त दु, इत्यादि 
यौरद्रूमरे, उमपद्यमकविको उक्त दानीं पक्षोके वाच्यां अभीष्ट, गीर्‌ यही 
ष्छपका व्रिपयदहै। अतः यद ण्केप अलंक्रार पृणेतः स्वतन्वतस्पमयेदै। इसी 
प्रकार-- 
(२) येन ध्वस्तमनोभवेन चलकिजित्कायः पुरास्त्रीकृतो । 
यश््चोदरवृत्तग्रुजगहरचक्योगगं च योऽधारयत्‌ ॥ 
यस्याहुः श्त्रिमच्छिरोहरः इति स्तुत्यं च नामामराः ! 
पायाद सं स्वयमन्धकक्षयकरन्त्यां स्तदोभाधवः ॥ 

[अककारनवंर्व पृष्ठ १२२, सा० द° दाम परि०| 
व्सप्द्यमेभी कचि को दोनो पक्षां [माधव-विष्णु, थर उमाधव-उमां का धत्रे (पत्नि) 
अर्थात्‌ महादेव | के अर्थ अभीष्ट गौीरये दानो ही वान्या हुं । इसके अत्तिरिक्त यर्दा 
कोटं मन्य यनख्कारभी नदीदहु। यतः यरा मम्मट भीर्‌ विध्वनाध्रकै मतम च्छे 
अन्कार्‌ ह 1 उद्ट भौर स्य्यकके मतम भी यहा ्छ्प अनक््कारदै, किन्तु वरृतुत 

र्हा तुद्ययोगिता अककार्‌ प्राप्त धा, क्योकि द्रो प्रस्त विपर्यो का एके वर्मं सचे सुम्बन्य 
यत्ाया गया द । जगरे--विप्णुयक्षमे : अंगा चे योऽधारयत्‌, जिसने [कृष्ण त्पस| 
सगं--गोवद्न पवत को, भीर्‌ दरर्मस्पने गा-पृश्ची को वारण किया था। महादेव- 
पक्षम: "गंगाच यो ऽवारयतु, जिसने गंगाको वारण किया था, किन्तु तुल्ययोगिता 
का यहु चमत्कार देप के चमत्कार द्वारा काधिन हौ नाता ह 1 निप्वर्थत. दोनो प्रकार 

कैः आचाय यदं ट्नप अन्धकार दरी स्वीकार्‌ करते द, किन्तु अपने-अपने दग स्ने । 
यत्र दूमर्‌ प्रकारके एमे उद्राहरण प्रस्तुत है जहां किमी अन्य अंटखकार के 


कारिका ३४ | चतुर्थोऽध्यायः ११५ 


रहते हए भी-रंखेष अककार का चमत्कार प्रमुखतः स्वीकार किया जाने के कारण 
उन्हे इसी अलंकार का ही उदाहरण माना जाता है- 
नीतानामाक्लीमावं दुग्धेभु रिक्लिलोमुखं: 1 
सहे वनवृद्धानां कमलानां तदीक्षणे ॥ 
अर्थात्‌ इस [सुन्दरी] की अखे कमलो अर्थात्‌ पद्मो भौर हरिणियो के सदश है (मृग- 
भेदेऽपि कमः इति मेदिनी-को ) । एक ओर पद्म लुष्ध (लोभी) बहुत शिरीमुखों 
(भ्रमरो) से अकृरीभाव (सकूकुता) को प्राप्त वन (जर) मे वडेहुएं दहै, तो दूसरी 
ओर मृग अधिक शिलीमुखो (बाणो वा लुब्धो) (रिकारियो) द्वारा अकुलीभाव 
(चासमाव) को प्राप्त तथा वन (जंग) मे पड़े हुए है ।| 
उद्भट भौर रुय्यकं के अनुसार इस प्य मे भी यद्यपि तुल्ययोगिता अकार 
प्राप्त है, क्योकि यहां दो अप्रकृतो- पद्म ओर हरिणी का एक धमं से सम्बन्व स्थापित 
किया गया है, किन्तु रेष का चमत्कार इस अलकार के चमत्कार को आच्छादित 
कर देता है । तुल्ययोशित्ता का चमत्कार रकेष के आगे गौण है, वह इस अककार के 
चमत्कार का पोषणं करता है । अत. यहाँ श्छेष अकारः है । ठीके यही स्थिति मम्मट 
जौर विरवनाथ को भी स्वीकृतं है । इस प्रकार इटेष की इस दूसरी स्थिति मे ये दोनों 
प्रकार के आचायं परस्पर सहमत है । 
अव तीसरे प्रकार के उदाहरण लीजिए जहाँ ररेष स्वय गौण बनकर किसी 
अण अरुकार्‌ की पुष्टि करतां है । विरोधाभास ओर परिसख्या अरुकारो के उदाहरण 
इसी श्रेणी मे आते है-- 
(क) सन्निहितवालान्धकारा मास्वन्मूतिदच । 
इस कथन मे विरोध यह है किं वार (अप्रौढ) अन्धकार जिसके पास रहता है, एेसे 
भास्वान्‌ (सूयं) की मूति 1' इसका परिहार यह दहै किं "वह्‌ [सुकन्या] वार (केश) 
रूप अन्धकार, जिसके पास रहता है एेसी भास्वत्‌ (चमकदारः) मूत्त वारी है । इस 
प्रकार यहाँ "वाक ओर "भास्वत्‌" शब्दो मे रठेप का चमत्कार विरोधाभास के चमत्कार 
का पोषक है । अत यहाँ इलेष' की स्वीकृति न हकर विरोधाभास भकुकार माना 
जाता है 1 इसी प्रकार-- 
(ख) यस्मिंश्च राजनि जितजगति चित्रकर्मसु वर्णंसंकराश्चापेषु 
गुणच्छेदाः >< >< ><» इत्यादि ! 
[अर्थात्‌ जगत को जीतने वारे उप्र राजा के राज्यमे चिच्रकारीमे ही वर्णो 


१. साहित्यदर्पण की विमला टीका में इसे दीपक अलंकार का उदाहरण बताया 
गया है । 


११६ कान्यालद्खारः | कारिका ३४ 


(रगो) का सकर (सम्मिश्रण) होता था (अन्यथा वणेसंकर' नही था), धनुषोमेही 
गुणो (रस्सियो) का चिच्छेद होता था (अन्यथा गुणों का कही नाद नही होता था) ।] 
इस कथन मे भी दलेष का चमत्कार परिसस्या के चमत्कार का पोषक दहै) 

अतः यहाँ परिसख्या अककारही है । ध 

इसी प्रसग के सन्दभभं मे अव रुद्रटके उक्त कथन (४३२) कोलकि यद्यपि 
उपमा भौर समुच्चय अरूकार स्पष्टतः अर्थाल्कार है, किन्तु ये दोनो शन्दगत समानता 
पर [भी] आधारित रहते है । इसी कथन को उद्धृतं करते हुए मम्मट ओर उनके 
अनुकरण पर विरवनाथ ने यह्‌ निप्कषं निकाला कि उपमा अरकार के अन्तगेत उपमेय 
ओर उपमानमे गुण अथवाक्रियाकासाम्यतोहोताहीदहै, साथ ही उसमे शन्द- 
साम्य' भी रहता है 1 उदाहरणाथ-- + 

सकलकल पुरमेतज्जातं सम्भति सुधांशुबिम्बमिव । 

[अर्थात्‌ यह्‌ नगर अव चन्द्रविम्बे के समानदहोगयाहै, [क्योकि एक ओर] 
चन्द्रविम्ब सकल-कर-सकर कला से युक्त है, [तो दुसरी ओर] यहं नगर भी 
सकलकल" अर्थात्‌ कलकल (रोर) से युक्त है । | 

यह उदाहरण रुद्रट-प्रस्तूत नही है, इसे सम्मट ओर विरवनाथ ने प्रस्तुत करते 
हुए कहा है कि यहाँ उपमा अककार मानना चाहिए, इरेष अककार नही । यह्‌ उपमा 
"सकलकल" इस शब्द-साम्य पर आधारित है, किन्तु हमारा विचार है किं यहाँ रल्प 
काही चमत्कार है निस्सन्देह यहाँ कवि का उद्दिष्ट उपमा की स्थापना है, किन्तु 
सहृदय इरेष से ही चमत्कृत होता है, उपमा का चमत्कार उसे गौण प्रतीत होता है, 
यहाँ तक कि सुरुचिपुणं पाठक को एेसे स्थलों मे उपमा हास्यास्पद-सी प्रतीतं होती है । 
वस्तुत. कवि की विवक्षा से वढकर सहुदय का भावोदुवेलन ही काव्यगत सौन्दयं का 
निर्णायक होता है । अत. उक्त कथन मे उपमा के स्थान पर रकष अलकार ही मानना 
चाहिए । वस्तुतः यहाँ भी वही स्थिति मान्य है, जो नीतानामाकुली भावम्‌" * ˆ* उपर्युक्त 
पद्य मेँ दोनो प्रकार के आचार्योने स्वीकार करते हुए तुल्ययोगिता के स्थान पर इरष 
का चमत्कार माना था 1 अस्तु ! हाँ, सककरकलम्‌ `" इस कथन मे यदि हम चाहे, तो 
रुष को उपमापुष्ट, उपमाभ्रित, उपमाजन्य, उपमामूक, उपमागभितं आदिमे से 
किसी एक विदेषण के साथ समन्वित कर सकते हैँ । जव इकेषमूखक विरोधामास, 
परिसख्या मादि अकार स्वीकृत किये जाते है, तो उपमामूकक इरेष स्वीकृत करने मे 
भी कोई आपत्ति नही होनी चाहिए 1 ठीक यही स्थिति रहीम के निम्नोक्त दोहे की भी 
समङ्गनी चाहिए- 

ज्यों रहीम गति दीप की, कुल कयुत गति सोय । 
वारे उजियारो करं बहे अन्धेरो होय ॥ 


कारिका ३४ | चतुर्थोऽध्यायः [ ११७ 


वस्तुत. मम्मट ओर विरवनाथ को उक्त उद्धृत कारिका से पूवं शद्रट की इससे 
पहटी कारिका (४।३१) भी उद्धृतं करनी चाहिए थी कि भाषा-रलेप को छोडकर 
[अपने इतर प्रकारो से युक्त] यह्‌ [श्छेष अककार | अन्य अक्कारो का भी प्रायः स्पशं 
करता है, [ओर जव वह्‌] उपमा ओौर समुच्चय का [स्पशं करता है तो अत्यधिक 
वैचित्र्य (चमत्कार) को धारण कर केता है ! वस्तुत. शुद्रट यहा दण्डी के इस कथन से 
ही प्रभावित्त है कि ररेष अकार प्रायः सभी वक्रोक्तियो (अर्थात्‌ अर्कारो) को शोभा 
को वढा देता है--श्छेषः सर्वासु पुष्णति प्रायः वक्रोक्तिषु भ्िययु । (कान्यादश्रं 
२1२६३) । । 

इस प्रकार हमने देखा किं स्रटके उक्त कथनेमें मूल प्रसमररेष काहे, 
गौर दसी के ही अधिक चमत्कार धारणं करने की चर्चा उन्हे अभीष्ट है । स्वय उनका 
उक्त उदाह्‌रण---“सुरचितवराहवपुषस्तन च हरेश्चोपमा घटते इसी तथ्य कौ पुष्टि 
करता है किं यहां उपमामूलक इलेष है -प्रस्तुत नृप ओौर अप्रस्तुत विष्णु के ओपम्य 
से वढकर यहो श्लेष का ही चमत्कार सहूदयहूदयहारी है । 

इसी प्रसग से सम्बद्ध एक शका सम्मट एव विश्वनाथ ने उपस्थित कीरै कि 
यदि "सकलकलम्‌ * ““ ` “"इत्यादि स्थरो मे उपमा के स्थान पर शबष्दश्छेष का चमत्कार 
माना जाए तो कमलमिव मुखं मनोन्ञमेतत्‌' इस उदाहरण मे पूर्णोपमा के स्थान पर 
अथेरलेष ही मानना चाहिए, क्योकि 'मनोन्न' शन्द हयर्थक न सही, पर कमल की 
'मनोज्ञता' ओर सुख की ममनोज्ञता' में तो अन्तरदहैही, अथेद्केष की परिभाषा भी 
यही है - 

शब्दैः स्वभाववेकार्थ. इलषोऽनेका्थवाचनमू । (सा० द° १०।५८)} 
स्पष्ट हैकि मनोज्ञ दाब्दका यहां सौन्दयं' कीओरसकेतदटै जौ किं कमरगत 
सोन्दयं मौर भूखगत सौन्दयं दोनो का वाचक है । इन दोनो सौन्दर्यौ मे निस्सन्देह 
पार्थक्य एव अन्तर है । अतः जिस प्रकार सकलकलम्‌" "" ` इस उपयु क्त उदाहरण 
मे उपमा को गौण समञ्षकर शब्दश्छेष माना जाता है, उसी प्रकार (कमरमिव मुखं 
मनोज्ञम्‌ मे भी उपमा को गौण समद्चकर अर्थश्लेष मानना चाहिए । किन्तु मम्मट कां 
यह्‌ तकं अत्यन्त सूक्ष्म होते हुए भी इस दृष्टि से अमान्य है कि यहा मौ सहूदय का 
भावोदुवेलन्‌ ही निर्णायक आघार ह 1 स्वय मम्मट ओर विश्वनाथ के अनुसार 'कमल- 
मिव मुखं मनोज्ञमुः मे यदि उपमा अक्कारका चमत्कार मान्यहै, ओौर निम्नोक्त 
पद्य -- 

स्तोकेनोन्नतिमायाति स्तोकेनायात्यधोगतिमु । 
अहो सुसह्ी वृत्तिस्तुलाकोटेः खलस्य च ॥ 

मे अ्थदरेष का, (ययपि दोनो मे साम्य-तत्तव लगभग एक समान है, तो इसका एक- 


११८ काव्यालद्धारः [ कारिका ६१ 


प्रथ श्लेपयुपसहरन्नाह- 
राब्दानुशास्नमदेषमवेत्य सस्य- 
गालोच्य लक्ष्यमधिगम्य च देदाभाषाः। 
यत्नादधीत्य विविधानभिधानकोषा- 
ञ्-लषं महाकविरिमं निपुणो विदध्यात्‌ ।। ३५ ॥। 
रब्दानुशासनमिति 1 इदमिदं च कृत्वा ततो महाकविरिमं च्छषं कुर्यात्‌ । कि 
करत्वा । शब्दानुगासन व्याकरण समग्रं सम्यग्त्रात्वा 1 तथा लक्ष्यमूदाहुरण महाकवि- 
कृतमालोच्य । तथा , सृरसेन्यादिदेश्भापा विदित्वा 1 तथाभिवानकोपान्नाममासा 
अधीत्य पटित्वेति एतच्च कृत्वा निपृण. कुलो महाकविङ्व यः स इरेप कुर्यादिति ॥ 
इति श्रीरुद्रटश्ेते काव्याकुकारे नमिस्नाधुविरचितरिप्पणसमेत- 
ठ्चतुधघ्याय. समाप्त. । 


माच्र कारण सहृदय का भावोद्वेल्न ही है । अत. केवर इसी आधार पर सकल- 
कलम्‌" ` “ˆ ˆ "आदि कथनो मे कवि द्वारा साम्यता के उद्दिष्ट रहने पर भी सहूदय का 
पठडा अत्यधिक भारी मानकर श॒व्दरकेप स्वीकार करना चाहिए, उपमा नही । 
निष्कषतः-- 

१. श्लेष अकार का क्षेत्र स्वतन्त्र भी रहता हि, तथा अन्य अलंकारो से 
युक्त भी । 

२ अर्हा दलष के साथ अन्य अलंकार रहते है वहा कभी यहु उनसे पुष्ट होता 
है भौर कभी उनका पोषक रहता है । 

३. किन्तु उक्त तीनों स्थितियों का निर्णयक आधार सहूदय का भावेोद्रवेलन 
हैः न कि फवि को विचक्ला। 
श्लेप-वि पयक्र प्र्॑ग क्रा उपसंहार 

व्याकरण-शास्त्र फे परिनिष्ठित अध्ययन, महाकवियो के लक्ष्यग्रन्थों (प्रनन्ध- 
ग्रन्थो) के सम्यक्‌ अनुशीलन, [शूरसेनी आदि] देशीय भाषामो के ज्ञानोपार्जन एवं 
अनेक श्व्दकोदें फे सयत्न परिशीलन के अनन्तर नियुण महाकवि दरेष-रचना में 
प्रवृत्त हा । ३५} 

इति “मञुप्रभा'ऽऽख्य-टिन्दी-व्याख्यायां चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः । 


कारिका १ | पच्चमाोऽध्यायः १ ९६ 


पञ्चमोऽध्यायः 

वकरोक्तयनुप्रा्यमकश्लेपान्निरूप्य करममरप्तं चतरं प्रतिपादयितुमाह- 

म ङ्गचन्तरकृततत्करमवणेनिमित्तानि वस्तुरूपाणि । 

साङ्कानि विचित्राणि च रच्यन्ते यत्र तच्वित्रम. ॥ १॥ 

भद्ध चन्तरेति । यत्र काव्ये वस्तुना चक्रदीना रूपाणि सस्थानानि रच्यन्ते निव- 

ध्यन्ते तच्चित्रसाहर्यादाश्चर्याह्वा चित्र नामाल्कार । काम्ये कंथ वस्तुरूपाणि रच्यन्त 
इति प्रश्ने विशेषणारेण युक्तिमाह- भद्ध चन्तरेण चक्रादिविच्छित्तिलक्षणेन प्रकारेण 
कृत. स सकललोकप्रसिद्ध क्रमो रचनापरिपाटी येषातेचते वणद्चिक्षराणिचते 


पचम जन्याय 


इस अन्याय मे चित्र नामक शब्दालंकार का निरूपय ह| “चिन्न 
प्रल॑कार का लक्ष अस्तुत करने के उपरान्त रुद्रट ने इतके अनेक रूपों करी 
गुना कते हए उनमें से अधिकांश फा सखरूप-निदेय किया हे | 
सुद्रटसे पूवं चित्र का निरूपण दण्डीके ग्रथ मे उपकन्ब होतादहै। वहाँ इस 
अलंकार को गोमूत्रिका, अर्धंश्रम तथा सवंतोमद्र नामक बवन्धचित्रो तथा स्वर, स्थान 
ओर वर्णो के नियमोके रूपमे दिखाया गया है 1 (काव्याद ३।७८-६५) इधर जंसा 
कि हम अगे देखेगे श्रटनेभी इसे इन्हीरूपोमे प्रस्तुत किया है-- चक्र, खड्ग आर्दि 
वन्धचित्रो के ङ्प मे तथा अनुलोम, प्रतिलोम आदि वणं विन्यास-जन्य वेचिच्यके कूपं 
मे ! आगे चलकर इद्रट के पर्चात्‌ भोजराज तक अते-भाते इससे मिरूते-जुलत्ते अ 
तीन अल्कारो की भी गणना हो गयी--वकोवाक्य, गूढोत्तर भौर प्रश्नोत्तर । भोज के 
'सरस्वतीकण्ठामरण' के दूसरे परिच्छेदं मे इन चारो अक्कारो का विस्तृत निरूपण है । 
इनके भेदोपभेदो की सख्या ६० से भी उ्परजा पहुंची है! य्ह चित्र" से तात्पयं 
वन्व-चित्रो के अतिरिक्त पद्मवन्ध आदि आकारो (रेखा-चिवो) से भीरहै। स्वर, 
व्यजन, उन्चारण-स्थान के अतिरिक्त गति कौ कलावाजिर्यां भी इसमे सम्मिलित है । 
इसी प्रकार वाको-वाक्य आदि नेप तीन अलकारो का परिवार भी कुछ कम बज नही 
है। मम्मट ओर विदेवनाथने यद्यपि केवल "चित्र अकरूकार का उत्केख कियाद, 
"वाकोवाक्य' आदि अन्य तीन अल्कारो का उल्लेख नही किया, पर उन्हे एेसी प्राय 
सभी चमक्छरततियो गौर आश्चयंकृतियो को चित्र" शब्द के ही व्यापक अर्थं मे अन्तर्भूत 
करना अभीष्ट था) 
इस प्रकार अव चित्र अकार एकं ओर वन्धचित्नौं का वाचक वनं गया भौर 
दूसरी ओरं प्रष्नोत्तर, गूढोत्तर आदि वर्णवद्ध अथवा शन्द-वद्ध वौचित्य का- वर्णा. 
नामय पदुमाद्याङृतिहेदुत्वमुच्यते चिन्नमु । (एकावली ७1८1) इसके दूसरे रूप को तो 


१२० कान्याल्गारः [ कारिका २- 


निमित्तं कारणं येपां वस्तुरूपाणा तानि तथोक्तानि । तथा सदहाङ्कन स्वनामचिदह्धंन 
वर्तन्त इति साद्धानि । तथा विचिच्राणि चान्यानि च सवंतोभद्रानुलोमप्रतिखोमादीनि । 
चकारो वस्तुखूपेपु मध्ये सवंतोभद्रादिसमुचया्थ. ॥ 
सामान्यतधित्रलक्षसममभिधाय विशेपेखाभिधातु" तद्द दानाह- 
तच्चक्रख दघ मुसलंर्बाणासनशक्तिरूलहलेः । 
चतुर द्गपीठविरचितरथतुरगगजादिपदपाठः। २॥ 
प्रनूलोमभ्रतिलोमंरधंश्रममुरजस्वंतोभद्रैः । 


इत्यादिभिरन्यंरपि वस्तुविशेषाकृतिप्रभवैः । ३ ॥ 
अन्वयन्यत्तिरेक के आधार पर गव्दाककार न मानने का प्रन ही उपस्थित नही होता; 

गोमूत्रिका, पदूमवन्ध आदि कोष्ठक (रेखा-) चित्रो को भी कारणकाययं-स्म्वन्ध से उप. 
चार हारा शब्दाककार मान चछिया गया । (मरकारसर्वस्व, पृष्ठ ३०, सा० द०, 
१०म परि०, पृष्ठ १०७} । 

चित्र भककार के सम्बन्ध मे यह्‌ उल्लेखनीय है कि सस्कृत के प्रत्येक गब्दारंकार- 
निरूपक आचायं नै, यहाँ तक कि भोजराज ने भी जिन्होने अन्य आचार्यो की अपेक्षा 
इसका कई गुणा अविक विस्तृत निरूपण किया है, इसे अवहेलना की दृष्टि से देखा है- 

दुष्क रत्वात्कटोरत्वाद्‌ दुर्वोधत्वाद्धिनावधेः । 
दिद्मात्रं दशित चित्रे शेषमुल्ं महात्मभिः ॥ स० क० २।१३० 

दण्डी ने इसे दुष्कर", मम्मट ने कष्ट काव्य", विद्याधर ओर विद्वनाथ ने 
"कान्यान्तगं दुमूत' ओर केगवमिश्र ने तुच्छता-प्रद्नार्थं इसे "कौतुकविदेपकारी' कटा 
है,१ मौर विद्याधर ने दते रस-पृष्टि मे वाधक माना दै-- 

प्रायज्ञो यमके चित्रे रस्ु्टिनं हश्यते । (एकावली) 

दून कथनो से इन प्रसिद्ध बाचार्यो की चित्र के प्रति अवहेलना स्पष्ट है | 

चित्र अलंकार उते कहते ह जहा [ चक्र, खड्ग आदि नस्तुभों के रूप अपने 
चिह्ध फे साथ इस प्रकार रचे जाते ह कि इनमे इनका क्रम (रचनाविन्यास) भद्खञय- 
न्तर से --दिशेष विच्छित्ति रूप से--वर्णोके द्वारा किया गया हो । [इसके अत्तिरिक्त 
चिन्न के अन्य भी कई] विचित्र [रूप] रहते है [जैसे सर्व॑त्तोभद्र, भनुलखोम-प्रतिलोम 
भादि] ।६। 

है कविगण ! वस्तु-विश्चेष फी आति के आधार पर चित्रकाव्य के रचना- 


१. फा० द० २।७८; का० प्र० €।८५ (वृत्ति); सा० ० १०म परि०, पृष्ठ १०८, 
० श्चे° पृष्ठ २६1 


कारिका ४-५ |] पच्चमोऽध्यायः १२१ 


भेदंविभिद्यमानं संख्यातुमनन्तमस्मि नेतदलम्‌ । 


तस्मादेतस्य मया दिङ्मात्रमुदाहूतं कवयः ॥ ४ ॥ 

तदिति । अनुरोमेति । भेदैरिति । तदेतचित्र यस्मादित्यादिभिरुक्तं रन्ये रनुक्त- 
रपि। भेदै. कीर । वस्तुविशेषाकारास्प्रभवन्ति जायन्ते ये तैविभिद्यमान भेदेन 
व्यवस्थाप्यमानमनन्तमसख्यात तत्सख्यातु सख्यया प्रतिपादयितु नाक न समर्थोऽस्म्यहम्‌ । 
तस्मादेतस्य मया दिडमात्रमुदाहृत दशिव हे कवयं । दइत्यादिभिभदै रित्युक्त तानेव 
ददोयति- तच्चक्रेत्यादि । चक्रादीति प्रतीतानिन वरभ्‌। वाणासन धनु । चतुरद्खपीठ 
द्तकारिविदितचतुरद्घफलकस्तत्र रचितं रथतुरगगजादिपदपाठ. । पम्यतेऽनेनेति पाठ. 
शयोक । आदिग्रहणन्नरपदसग्रहु- 1 क्रमनग्युतक्रमाभ्या य. सहर. सोऽनुलोमप्रतिलोमश्चोक । 
अर्धंञ्रमणादधंश्रम. 1 सर्वतस्तु भ्रमणात्सवेतोभद्रः । आदिग्रहणात्पदगोमूत्रिकादिसग्रहः। 

कि पुनस्तेषां वस्तुरूपाखां विर चने लक्षरमित्याह- 

यन्नाम नाम यत्स्यात्तदाकृतिलेक्षणं मतं तस्य । 


तल्लक्ष्यमेव दृष्ट्वावधायंमखिलं तदन्यदपि ॥ ५॥ 
` यदिति । चक्रादिक प्रसिद्ध नाम सज्ञा यस्येति विग्रह । तच्न्नाम । दहितीयस्तु 

नामशव्द प्राकाश्ये 1 तदेव विधं वस्तु वत्स्यात्तदाकृतिस्तदाकारस्तस्य चित्रस्य लक्षणम- 
विषयक खड्ग, मुसल, धनुष, शक्ति, शल, हल स्प मे तथा चघुरङ्ध पीठ (सम 
चतुष्कोण चौकी) पर बने हुए रथ, घोडे, गज आदि सूपो में करई भेद हैँ तथा अनु- 
लोम, प्रतिलोम, अर्धश्रम, सुरज ओर सर्वतोभद्र आदि अन्य भी अनेक भेदै इन 
सब भेदो को गणना करना सम्भव नही है 1 इसलिए मैने इस्फे कुड भेदोंके ही 
उदाहरण प्रस्तुतं किये है ।२-४६। 

इस प्रकार सुद्रट के अनुसार - चित्रके प्रमुख दो रूप है--(१) खंडग, मुसल 
भादि आछ्ृतियो को प्रकट करने वाखा चित्र, (२) अक्षरो के विभिन्न क्रम-विन्यास के 
आधार पर अनुखोम, प्रतिलोम आदि विभिन्न चिच्छित्तियो को प्रकट करने वाला 
चित्र । 
चक्रवन्ध आदि का लक्षण 

जिस आल्ृति का जो नाम हो, वही आकृति ही उस [नाम] का लक्षण है । 
महाकवियो के कान्यों मे इनके उदाहरण देखकर ही इनका स्वरूप निर्धारण करना 
चाहिए । जौ भेद उनमें न भिर, उनका अयनी बुद्धि से स्वङ्प निर्धारण कर ऊना 
चाहिए \५। 

इसका तात्पयं यह है किं जिस वणंरचना प्रकार से जो आकृति बन जाए 
उसे वही नाम देना चाहिए, जं से चक्रवन्व चित्र, मुरजबन्ध चिन्न आदि । 


ह. 


१२२ काव्याद्धारः | कारिका ६-७ 


भिहितम्‌ । यदनुकायस्थं चक्रादेर्नाम संस्थानं च तदेवानुकरणंस्यं केरणीयमित्य्थः । तच्च 
चित्रलक्षणमचखिरं समग्र मावादिमहाकविरचित लक्ष्यमुदहुरणमेव हण्ट्वावधाय नेयम्‌ । 
ततो वस्तुरूपादन्यदपि स्व॑तोभद्रादिक लक्ष्यमेव हष्ट्वावधार्येम्‌ । अथवा ततो लक्ष्य 
कताद्रस्तुरूपादन्यदपि मल्स्यवन्वादिकं स्ववियंवाम्बूह्यम्‌ 1 मार्ग दृष्ट्बान्यथापि करण च 
दोपायेत्यर्थः । तेन चक्रारनेमिपद्मदलादावनियम उक्तो भवतीत्ति स्थितमेतत्‌ ॥ 


तत्राएमिः छोकगर्मल्तिखन्ना दिविस्वरूपान्तर्धक्माह-- 
मारारिशक्रसामेभमूखे रासाररहस्ा । 
सारारन्धस्तवा निव्यं तदतिहूरणक्षमा । ६ ॥ 
माता नतानां संघद्रः धियां वाधितसंश्चमा ! 
मान्याथ सीमा रामाणांशं मे दिश्यादुमादिजा । ७॥ 
खड्गबन्धः । (युग्मम्‌) 
मारेति । मातेति! उमा गौरी सुखं मे मह्य दिश्याटेयात्‌ । कीदशी 1 
जादिजा जगदादिभवा । तश्रा मारारि. गभ, दक्र इन्द्र, रामौ जामदग्न्यो दाशरथिर्वा, 
उभमुखो गणाधिपस्तं रासाररदहस्ा वेगवपेवद गेनादरवेशात्सार उक्करष्ट आरब्धः प्रकृतः 
स्तवः स्तुत्तिर्यस्याः सा 1 तथा नित्य सदा तेपा मारारिप्रभृतीनामततः पीडाया ह्रणंऽप- 
नयने क्षमा समर्था । तथा नताना मातेव माता । वत्सकत्वातत्‌ । तथा सधु सभूदः । 
कासा धियामृद्धीनाम्‌ । तथा वाधितो नाथितो भक्ताना सश्रमो भय यया सा तथा- 
प्रन्वय-- (स्रा) उमागमे दिष्याच्‌ (या) आदिना, माररिगक्र-इभमूखः 
आसाररहसा साराऽऽरब्धस्तवा, नित्य तदतिहरणक्षमा, नतानां माता, श्रिया सधट, 
चाचितसम्श्रमा, मान्या, अथ रामाणा सीमा (अस्ति) | 
कथिन शब्दों के रथं 
मारारि- मारस्य कामदेवस्य अरि, महदेव" उभमूख.--दस्तिमुखः 
गणेः 1 अनरारग्ह॒सा--भादरस्याऽ्वेनाचु । सार --उक्कृष्टः । सघट्र --समूट्‌ः। 
सामा-नारी। 
वहु पावती जी मुशे सुख-समृद्धि प्रदान करं जो सृष्टि के आदि मे उत्पन्न हई 
ह, लिनका उकत्करृशट स्तवन महादेव, इन्द्र; गणेश ये समी अत्यन्त भआदरावेक्नसे करते 
ह यीरनजो इन सव [महादेव आदि] केदुभ्बोको दूर करने में समर्थं ह, जो विनीत 
व्यप्रितयो फो माता ह, ल्मी का केन्-स्यान ह तथा सव [प्रकारके] भवयोकोदुर 
फरने वालोरह" जो स्रमादरणोया ह तथा नारियों में स्वेत्तिम ह ।६, ७ 


कारिका ६-७ | प्चमोऽध्यायंः | ९२६ 


र्त 


४, खड्गवन्ध, श्लोकसंख्या $.७ 

इस खंडगचित्र मे खड्ग के दो भाग है-- 
फर गौर मुष्टि 1 प्रथम दलोकं फल' मे चित्रित 
किया गया है ओर द्वितीय इ्छोक मृुण्टिमे। साः 
फल के अन्त मे चित्रित है भौर 'दिजा' मुष्टि के 
उपरिभाग मे । एक (मा' मुष्टि के मध्यमे विचरित 
है गौर दूसरा भमा' मुष्टि ओर फल के मध्यमे । 
अब दोनो इलोको को यथाक्रम पढ़ सकते है-- 


मारारि”*"“““* रहंसा । सारान्धस्तवा"**“ “ˆ 
मा 1 सता... संथ्चमा ! मास्पाथ-* 
@ @ @@ @ 9 जा 1 | 


श्रन्वय-- (दै) मातः! (सा त्व) मा सत्रा्ातु ासीष्ठा, आरम। (यात्व) 
मदाहावा, रसद्श्रुजा, जातलीला, मायाविनं, रसायात, अयथासारवाच, महिष- 
मावधीः । (अथ चत्व) अभीदा, ररण्या, मुतु, सदेवारुकप्रदा, धीः, धीरा पवित्रा 
(असि) 1 


१२४ काज्यालङ्धारः | कारिका ८-६ 


२. मुसलवन्ध, श्लोक-तंख्या ८ 
इस मुसकचित्र मे मुस के तीन भाग है 1 मध्य भाग, दो पादवंभाग 
ओर अन्त भाग । 
(१) मध्य भाग (तनुभाग)-इसमे वा रसा' ये वणं चित्रित है । 
(२) दो पाद्वं-भाग--एक ऊपर, एक नीचे । ये दोनो दो-दो खण्डो 
मे विभक्त ह--एक वाई ओर गौर दूप्तरा दाई्‌ ओर । वार्ई ओर इलोक 
का पहला ओर दूसरा पाद चित्रित है, ओर दाई ओर तीसरा जर चौथा 
पाद । 
(२) अन्त भाग-- इसमे जा" चित्रित है। रलोक को यथाक्रम 
सं पटने से जा' कौ आवृत्ति दो बार होती है, तथा ऊपर से नीचे की ओर 
। पठते समय मध्य भाग मे चित्रितं 'वारस्रा' को पहर इस क्रम से पढते 
। है, पुन. नीचे से ऊपर पठते समय शसरारवा' इस क्रमसे। 


। 
भी 


य्य 
रराततमाष्छसीलसातासंना 


4 # 
५ ध ५ 
* 
4 = > 
; ; 
५ ८ , 
2 
५ र १ 
9 # =» ) ~= ~ ज फेन ऋ ॥ क 
+ 
1 
# \ 


२. घनुव॑न्ध, श्लोक-संख्या & 

इस घनुदिचत्र मे धनुष के दो भाग है- कुटिकं वड भागं ओर गुण-भाग। 
द्खोक का प्रथमाद्धं वंल-माग मे चित्रित है मौर द्ितीयाद्धं गुण-भागमे 1 वश के निम्न 
तममभागमेभमा' चित्रितदहै, वश्च के एक सिरे (अधस्तन कोटि प्रान्त) पर भह 
ओौर दरसरे सिरे पर (शिखा रूप म) "वी. है। "घी" ओौर 'म' कौ आवृत्ति दो-दो 
वार की जाती है, ओौर श्लोक के द्वितीयद्धको दार्णँसे बाई ओरपढाजातादहै। ` 


[गि ब 


कारिका ८-६ | पचमोऽध्यायः १२५ 


भूता । तथा मान्या पुज्या ! अथ सीमा मर्यादा रामाणा सखीणाम्‌ । सर्वोत्तमित्यथं" । 
अनेन सदानितकेन खड्ग उत्पद्यते । भाः रंलोक. फलरूपोऽपरो मुष्टिरूपः । सा" सान्दः 
फलान्ते वैक्षण्याकारी "दिजा' इति मुष्टेरुपरि "मा" शब्दौ तत्र साधारणौ । अस्य न्यास. 1 
श्रथ मुसलधनुषी- 

मायाविनं महाहावा रसायातं लसदुभुजा । 
जातलीलायथासारवाचं महिषमावधीः ।।८॥मुसलम्‌।। 
मामभीदा शरण्या मुत्सदेवास्क्प्रदा च धीः। 


धीरा पवित्रा संत्रासात््रासीष्ठा मातरारम 1 €।।धनुः।॥ (युग्मम्‌) 

सायाविनमिति । मामिति । है मात., सात्व संत्रासाद्धयान्मा त्रासीष्ठा रक्न। 
आरम व्यापारान्तरान्तिवतंस्व 1 प्य मामित्यर्थः । या त्व महिष महिषासुरमावधीहंत- 
वतीति सवन्ध. । कोहं महिषम्‌ । मायाविन छद्मपरम्‌ । त्व तु महाहावा महान्हाव- 
दचेष्टाविरोपो यस्या. सा । रसेन दपंणायात महिषम्‌ । त्व लसद्ुना लसन्तौ भुजौ 
यस्या. । तथा जातलीला सपन्नविखासा । महिषमयथासारवाचमयथासारा मर्यादोल्ल- 
द्धिनी वाग्यस्य । तथा त्वमभियमभयं ददासीत्यभीदा । चरणे साधु" शरण्या । मृत्प्रहृष्टा । 
सदव सवंकामख्क्पदा नीरोगत्वदायिनी । च. समृच्चये । धीनृद्धि । तद्धेतुत्वात्‌ । 
धीरा निर्भया 1 पवित्रा पावनी । अत्राद्यश्लोकेन मुसरम्‌-- मध्ये तनु पारवेयो. स्थुल- 

मेकत्र प्रान्ते तीक्ष्णम्‌ । तत्र मध्ये वारसाः इत्यक्षरत्रय साधारणमन्ते "जा इति 

किन शब्दों के अर्थं 

महाहावा--प्रच्ुरचेष्टायुक्ता । रसायातम्‌--दपण समागतम्‌, अयथासार- 
वाचम्‌- मर्यादाहीनवचसम्‌ । अभीदा--अभयप्रदा 1 मृत्‌-प्रसन्ना । अरुक्प्रदा- 
जारोग्यदात्री ! धी---शरीरिणी बृद्धि । आरम-कार्यान्तरात्‌ निवतंस्व । 

है माता! शेप कायं छोड़कर मेरी ओर देखो ओर मुञ्े मय से बचाओ । 
आपने बड़े दपं से आक्रमण के लिए श्राये हृए ओर दुंचन बोलते हृए महिषासुर को 
खेल-खेर मे, हावमाव दिखाते हुए अपनी सुन्दर भुजाओं से मार दिया । आप ही भस्त 
अभय देने वाली है अपं ही मेरी शरण्य हैँ । प्रसन्नता, आरोग्य ओर बुद्धि की दात्री 
मीञापही हँ । आप परम-पवित्र ओर धीर-स्वभाव है! €। 

्न्वय--अद्ध (है) सद्रस । सर्वदा सादर मनसा दास्य गत्वा ता माननाप- 
- रष लोकदेवी सन्तम । 
कठिन शब्दं के श्रथं 


मानना-अप-रुषम्‌-- पुजनेन विगतकोपाम्‌ । सद्रस--भक्तिभरेण आप्र हदय ! 
सन्तम- सम्यक्‌ प्रणामं कुर 1 


9, ।1 


[+ = 
९ 
4}, 


काव्यालद्धुारः | कारिका १०-११ 


६, 
न 


४, शरवन्ध, ग्लो क्र-तंख्या 2० 

इम शर-चितनमे रके चार्‌ भाग ह--दण्ड, फन, दो वाज (पक्ष), भौर 
जटनी (गर का एक निरा) । यहाँ दण्ड मे प्रथम पाद चित्रित है गौर फछमे द्वितीय 
पाद} दो पक्षो तथा बटनी में तृतीय गौर चचुधं प्राद चित्रित । श्वाःथीरष्वाःकी 
बात्रेत्ति दो वार होनी दहै। । | 


कारिका १०-११ | पच्चमोऽध्यायः १२७ 


द्वितीयश्लोकेन धनु-- तत्रा्यमर्धं कुटि वशभागे, दितीय गुणाकार मा शब्दोऽध- 
स्तनकोरिग्रान्ते, तदृपोन्ते च भकारो द्विरावृत्ति, "वी" शब्द्च शिखारूप. । न्यास. 11 
अथय शर 
माननापरषं लोक्देवीं सद्रस सन्तम । 


मनसा सादरं गत्वा सवेदा दास्यमङ्खताम्‌ ।1१०।।द रः) 

माननेति । अङ्खति कोमलामन्वणे । है सद्रस सुभक्तिभरेणाद्र हदय, सर्वदा 
सदा सोदर सप्रयत्न मनसा चेत्तसा ता लोकदेवी भ्रुवनदेवता सन्तम सम्यक्प्रणम। 
दासभावं मत्वाभ्युपेत्य । माननया पूजनयापगता रट्‌ क्रोधो यस्यास्ता मननापरुषम्‌ । 
सापराघेऽपि पूजया सप्रसादामित्य्थः 1 अत्र प्रथमपादेन दण्ड , दह्ितीयेन फलम्‌, तृतीय- 
चतुर्थाभ्यां वाज वटनी च । न्यास ॥ 
अथ शूलम्‌- # 
मा मु राजस स्वास्‌ ल्लोककटेशदेवताम्‌ । 
तां शिवावारितां सिद्धयाध्यासितां स्तुतां स्तुहि ।॥११।।शूलम्‌]] 

मा मूष इति । दे राजस रनोगुणयुक्त, स्वासूनात्मप्राणान्मा मुषो मा हार्षीः । 
ता खोककूटाना जनसमूहानामीरा राजानस्तेषा देवता स्तुहि नुहि ! कीद्शीम्‌ 1 शिवेन 
श भ्रुना वाशितामाहृता शिवाभिर्वा वाशिता कृतकलकलाम्‌ । सिद्धचा कायंसिद्धचाध्या- 

हे भक्तिपुरितहूद्य वाक सौम्य ! तुम सदा बडे आदर सहित दासभावसे 
उस भुदनदेवी को मन से प्रणाम किया करो । पूजा तथा अनुनय से उसके क्रोध को 
शान्त करो । १० 

द्न्वय-- (ह) राजस ¦ स्वासून्‌ मा मुप. । लोककूटेशदेवता शिवावारिता 
सिद्धयाध्यासिता स्तुता ता हि स्तुहि 1 
कठिन शब्दं के श्रथ 

मुषः--हर (ह धातु, छोट, मध्यम° एकवचन) । 

राजस-रजोगृणयुक्त । 

स्व-असूचू-निजप्राणान्‌ । 

खोकद्ुटेश --जनसमूहस्वामी । 

शिवावारिताम्‌--रिवेन आहूताम्‌ । 

सिद्धयाघ्यासिताम्‌-कार्येषु सिद्धिप्रदात्रीम्‌ । 

हे रजोगुण-गुक्त पुरुष ! तुम व्यथं में प्राण-त्थाग न करके प्रजावत्सल राजाओं 
की सम्मान्य देवी, लोकवन्दनीया, सिदधिप्रदात्री पारवेतीजी कौ स्तुति करो ! स्वयं क्षिव 
भी उनका स्मरण करते है \११। 


१२८ कान्यालद्ारः [| कारिका १०-११ 


2) 


प 44 4 4 4142209 29०५4 ०५-१| ~ 


५. शृलव्न्ध, श्लोक-संस्या ९? 

इस गूल्चित्रके दो भाग है--दण्ड-भाग ओौर त्रिरिखा-भाग । स्लोक का 
प्रथमाद्धं दण्ड-भाग म चित्रित दहै, भौर दित्तीयाद्धं त्रिकिला-माग मे 1 द्ितीयां 
दा-वाएँ, उपर्न,चे आवृत्त हुमा है, अर प्रथमाद्धं का अन्तिम गन्द न्ता भी 


दितीयाद्धं मे बाव्रृत्त हुमा है इस प्रकार तानिवासिदडचास्तुदहि'ये समी आरतत 
होकर द्ितीयारदधको पुराकर देते है। 


कारिका १२-१४ ] पमोऽध्यायः १२९ 


सिता समधिष्ठिताम्‌ । स्तुतं जगतेति । त्रिजिखमेतेन चूलमुत्पद्यते । प्रथममर्धं दण्डमागे 

द्वितीय स्वावतंपराव्ते निखासु । तत्र सर्विखामूरू "ता" रन्दो वारपञ्चकमुच्चायते । 

रिखायामेकस्या "शिवा", द्वितीयाया सिदधचा, मध्यमाया स्तुहि । न्यासः ॥। 

द्र शक्त्यादीनि-- 

माहिषाख्ये रणेऽन्या नुसानु नानेयमत्र हि 

हिमातङ्गादिवामुः च क कस्पिनमुपष्टतम्‌ ॥१२।।शक्ति.॥ 

मातद्खानङ्कविधिनाम्‌ना पादं तमूद्यतम्‌ । 

तङ्गयित्वा शिरस्यस्य निपात्याहन्ति रंहसा । १३।।हलम्‌ ॥ 

इतीक्षिता सुरेश्चक्रे या यमामममायया। 

महिषं पातु वो गौरी सायतासिसितायसरा ।1 १४11 रथपदम्‌।। 
(विशेषकम्‌) 


माहिपेति । मातद्ख ति 1 इतीति । सा गौरी वो युप्मान्पातु रक्षतु! यासुर 
रित्यमीक्षिता सती महिष यमाम यमगामिन मृतममायया च्छद्यना चक्र कृनवती । 


षि, ^ प्ये 


किभूता । आयतदीघरसिभिः सितो वद्ध आयोऽर्थागमो यस्तान्दानवादीन्स्यति ह्निस्ति 
या सा तथोक्ता । क्वेक्षिता । माहिपाख्ये रणे महिषासुरप्तबन्धिनि समरे । कथमीक्षिता । 


जक 


्रन्वय-सा (गौरी) व. पातु) या आयतासिसितायसा, माहिषाख्ये रणे, 
सच्र अन्यानु सानु (इति) नाना सुररीक्षिता (सती) हिमातङ्धादिव क कम्पिन 
उपष्लृतम्‌ अमु महिष यमाम चक्रे । (सा) अमुना मातद्धानद्धविधिना त उद्यत पाद 
त्ख यित्वा अस्य शिरसि रहसा निपात्य आहन्ति । 
कठिन शब्दों कै श्रथ 

माहिषाख्ये-महिषासुरमम्बन्विति । हिमातङ्खात्‌-हिमजनितपीडाया । क-- 
कुत्सितम्‌ । उपष्टृतम्‌-मदेनोद्धतम्‌ । मातद्खानद्खविधिना- सदप॑त्वात्‌ मातद्ध- 
(गज-) विधिना, सलीरुत्वात्‌ अनङ्ख-(काम-) विधिना । तद्धुयित्वा-- भ्रामयित्वा । 
यमाममू-यमगामिन, यमनगरीपथिकम्‌ । आयत-अति-क्षित-भाय-सा--दीर्बखद्ध ` 
अवरुदध-अ्थागमाना (दानवानाम्‌) हन्त्री 1 

महिषासुर के साथ संग्राम में प्रवृत्त मगवती गौरी को देखकर संशय 
होने लगता था कि यह गौरी है, अथवा कोई अभ्य 1! उस समय वे अनेक रूपों में 
दिखायी पडती थीं । अपने दीर्घं खड्गो से घन की संप्राप्ति को नांधने वाङ दानवो के 
विनाश्च से दक्ष गौरी ने सहिषासुर को अनायास ही यमनगर का अत्तियि बना दिया 1 


१३० कान्यारुद्धुमरः | कारिका १२-१४ 


नानानेकेप्रकारम्‌ 1 तदेव नानात्वमाह्‌--अन्या नु सा न्विति । नुवितकं । अच रण इय 
देवी किमन्या स्यादत सैव । भयानकलत्वादनिश्चय । तर्थववादिभिः सुररीक्षिता यथाम्‌ 
महिप क कुत्सितम्‌ । कम्पिन कम्पयुक्तम्‌ । कुत इव हिमात द्ुादिव हिमतंरिव । तथो- 
पप्लृत मदोद्रतमाहन्ति मारयति । केनाहन्ति । अमुना प्रत्यक्षदुष्टेन मातद्खानङ्ख- 
विधिना । सदरप॑त्वाद्‌गजविधिना, सलीरत्वादन ङ्घ विधिना । कि कृत्वा । त लोकप्रसिद्ध 
पादमुद्य तमत्पाटित तद्खयित्वा भ्रामयित्वा । तदनन्तर चास्य महिपस्य शिरसि रहसा 


[ देव्ता लोग इसं युद्ध को देखकर इस प्रकार संलाप करने लगे-- ] देखो यह्‌ नीच 


भर उद्धत महिषासुर इस धकार कापि रहा है, मानो सर्दी से आक्रान्त हो ! भगवती 
गौरी ने [दपंके कारण] हाथी की-सी चेष्टा से युक्त तथा [लीलाके कारण] काम- 
देव-सदृक्न मृदु चेष्टा से युक्त अपने पर को उठाकर तथा घुमाकर वेग से महिषासुर 
के सिर पर आघात करके उसे भार डाला, इस प्रकार [संलाप करते हए ] ववो से 
[ विस्मय के साथ] देखी जाती हुई भगवती गौरी आप सब की रक्षा करे । १२-१४। 


६. श क्तिवन्ध-श्लोक-तंख्या ९२ 

इस शक्ति-चित्र मे शर्वित के तीन भाग 
है-मध्यभाग, उपरिभाग भौर अधोभाग । 
उपरिभागमे एक शिखा है ओर अधोभागमे 
एक तीक्ष्ण प्रान्त मध्यभागमेपतमादहिः 
ये तीन अक्षर चित्रित है। शिखा-भागमे 
के" ओर तीक्षण प्रन्तमे नुसा'ये भक्षर 
चित्रित है) ऊपर ओर नीचे के दोनो भाग 
दो-दो खण्डो मे विभक्त है । इलोक को मध्य 
मागमे चित्रिताः से प्रारम्भ करते हृए 
नीचे की ओर अति रहै, फिर उपर की ओरं 
जाते है 1 इस प्रकार प्रान्त भाग में चि्ित 
"नु सा' अभर दूसरी वारभश्सानु्के रूपमे 
आवृत्त होते है । मध्य भागे चित्रित अक्षर 
हिमा त' इस रूप मे आवृत्त होते दै। 
शिखा-भाग मे चित्रित क अक्षर दौ वार 
आवृत्त होता है । इस प्रकार यह श्लोक पुणं 
रूप से उच्चरित हो जता है, 


"+ हि 
५ १ क 


कारिका १२-१४ 1 प्चमोऽध्याय. १३१ 


वेगेन निपात्य नि क्षिप्य 1 इत्यादि जल्पद्धि सुररीक्षिता यमाम चक्र इति सवन्धः । 
देवतास्तुत्या चैतदत्र सूच्यते-यथा प्रायेण चित्रस्य देवतास्तुतिविषयो न सरस काव्य- 
मित्ति। अत्राद्यश्लोकेन मध्यतन्वी तीक्ष्णप्रान्ता शवितरुत्पद्यते 1 तत्र 'हिमात' इत्यक्षर- 
त्रयं मध्ये, नुसा अध , क" उपरि । तत्र 'हि' द्विरावृत्ति", 'मातनूक' एते द्विरावृत्तयः । 
दितीयश्लोकेन हलम्‌ । तत्र हर्प्रविष्टेवाशल्यभागे 'त* चान्द , "मा" तस्य पृष्ठे, नामु 
फलतीक्ष्णाग्र, गनद्खविधि पाद तमृद्य' वर्णा. फकेऽनुखोमविलोमसेणिद्रयस्था", गयित्वा 
शिरस्यस्या इतीषग्याम्‌, 'निपात्या' हरोध्व भागे, हकारो हलोध्वेभागे कीलिकाद्यल्यमध्ये, 
हकारोध्वं "न्ति, हुकाराग्रे "र", हका रपृष्ठे "सा । मारारिप्रमखं रेभिरण्टभि. इखोकैरष्टार 
चक्रमूत्प्यते । अत्र पूर्वाधन्य्टाराः अन्त्यार्धानि त्वेका नेमि 1 माः शब्दो नाभि. 
सर्वसाधारण. । अ्घन्त्यिर्लोकान्त्याक्षराणि च । अउच्र च न चक्रे स्वनामा द्धुभूतोऽय ररोक. 
कविनान्तर्मावितो यथा - 


५, हलवन्ध, श्लो क-संस्या ¢₹ 

इस हर्चित्र मे हरु के ७ भाग है-(१) ईषाशल्य भाग, (२) ईषाश्चल्य 
भाग का पृष्ठभाग, (३) फठ का तीक्ष्णाग्र भाग, (४) फलके दँ ओरवाएकेदो 
खण्ड, (५) ईषाभाग, (६) ऊध्वंभाग, (७) ऊर्ध्वभाग मे कीलिका चल्य- इसके चार 
खण्ड है --(क) मध्य, (ख) ऊध्वं, (ग) दाँ ओौर (च) वाँ । इन भागो मे क्रमाः 
ये अक्षर चित्रित है- (१) त, (२) मा, (३) नामु, (४) "गान गविधि'तथाषा 
दतमुधः, (भ्)-गयित्वाद्ठिरस्यस्य, (६) निपत्या, (७) ह, न्ति, र, सा। इस 


प्रकार नामु" की आवृत्तिभ्ुनाके ल्पकी जाती दहै, तथा त ओर द" भी दो-दो 
वार आश्रत्त होते ह । 


१३२ काव्यारूङ्कारः [ कारिका १४ 


शक्ातानचन्दयपरास्येन  मटूवामुकयुनुना । 

साधित्तं सद्ररेनेदं सामाजा धीमतां हितम्‌ ॥\' 
अस्याथं --वामुकाख्यभटसृतेन कसतानन्द इृत्यपरनाम्ना रुद्रटेन कविना साधित रिष्पा- 
दितमिद चक्र काय्य वा) कीदशेन । सम गीतविशेषमजति ्राप्नोतीति सामाक्‌, तैन 


८, चक्रबन्ध, श्लोकसंख्या ६-2 र 

इस चक्र-चित्र मे एक नाभि है, जिसमे भा' अक्षर चिचधित है) चक्र का भीतरी 
भाग आठ अरोस युक्त है [इनके नीचे सख्या १, ३, ५, ७, €, ११, १३, १५ छ्गी 
है| चक्र का बाहरी भाग आठ नेमियो सेनिमितदहै। [इनके वाहरसद्या२, ४, ६ 
८, १०, १२, १४, १६ स्गीहेै।| अर ओर नेमि के सयोग-स्थरुभी सख्यामे आसह । 

इस चक्रचित्र मे आठ ज्खोक (सख्या ६-१३) चित्रित है । उन सभी श्लोको के 
प्रथमाद्धं आले अरोमे चित्रितं है ओर द्वितीयाद्धं आटो नेमियोमे सभी प्रथमार्धो 
काप्रारम्भमाःसेहोतारै, अत.ये सभी नाभि मे चिधित 'मा' से सम्बद्ध है) सभी 
प्रथमार्ढधो का अन्तिम अक्षरवहीदै जो समी द्ितीयार्दधो का आदिम अक्षर टै, अत. 
संयोग-स्थलो मे चित्रित आठो अक्षर दो-दो वार आवृत्त हृए है ! 


कारिका १५ | पचमोऽच्यायं १३२३ 


सामाजा । सामवेदपाकेनेव्यर्थ" तच्च । धीमता बुद्धिमता हितमूपकारकम्‌ । न्यासः । 
तृतीयश्छोकेन रथपदानि पूर्यन्ते । रथपदन्यायेनं युक्पादयोरावृत्तिनिवृत्तिभ्यां पाठः ॥ 
अथ तुरगपदु षाठः 
सेना लीलीलीना नाली लीनाना नानालीलीली । 


नालीनालीले नालीना लीलीली नानानानाली ।१५॥ 

सेनेत्ति 1 तत्र-सेना, टीरीखीनः, न, आरी, रीनाना, नानारीलीली, नः 
आलीनाटी, ईले, ना, आटीनाः, लीटीटी, नानाना, अनारी, इति पदानि । पदा्थस्त्वयं 
यथा--कष्चिदक्ति--अह ना पुरुप. सेना. पृतना ईर स्तौमि । ईड स्तुतौ" । वतंमानाया 
ए । सेना स्तौम्यहमिति संवन्ध । यष्टा परोक्षाया इर इति रूपम्‌ । बहुरुत्वादा- 
म्परत्ययाभाव 1 तत. कडिचन्ना सेना ईर 1 तुष्टवेत्यथं । कीह्दी. सेना. 1 खीला 
विद्यते येषां लीलिनस्तौतीच्येवनीखो ठीलीटी स इन स्वामी यासाता छीलीरीना । 
ना कीहश आलमनर्थोऽपसत्य वा विद्यते यस्यस आरी एवविधोन । तथा लीनानि 
सवद्धास्यनासि शकटानि गकटारूढा वा जना यस्य स लीनाना. । तथा नानाप्रकारा 
आल्य पक्तयो नानाल्यस्तासा खी ज्केपस्ता लान्ति गृह्णन्तिये ते नानाटीटलीलखा 

अन्वय- नारी, ना, खीनाना., ननाटीरीगी, नारीनाखी, खीलीरी, नाना- 
नानाली, खीलीलीना , आखीना सेना ईङे । 
करिन शृ्ब्दो के र्थ 

सेना -संन्यानि । 

रीखीखीना--ीलायुक्तपुरुषाणां 

स्तुतिकर्ता स्वामिना युक्ताः (द्वि° वहु०) । 

न-आलीो--न असत्यवक्ता । 

रीनाना--रकटारूढपुरुपोपेत । 

नाना-आरी-री-खी--अनेकप क्तिस्थित्तपुरुषाणा नायकः, व्यूहाश्ितनरनायक । 

-ारीन-अाली --न आश्रितानामन्थकर , सेवकानुक्ूल । ईले-स्तैमि । 


ना-पुरष । आलनाः-सबद्धा (द्वि° वहु °) । लीटीखी--सुखदायिन्याः भूमे 
अधिपत्िभि. नपैर्युक्त । 


नाना-ना-अनेकविधयपुरुषर्पेत" 1 

अनारी-न मूखं-, प्राज्ञ. । 

मै उस सेना कौ स्तुति करता हूं लिसका स्वामी अनेक लीलाएं करने वाला 
है, जो असत्य माषण नहीं करता, निसङी सेना मे अनेक रथादि है, जहा पर अनेक 
पुरुष सेना के व्धरूह बनाकर उसके सेनापति हैँ ! जिस सेना के राजा प्रजादत्वर है । जो 
सेना मे अनेक भूमिपतियो से-युक्त ह 1-जिस सेना में समी व्यक्ति बुद्धिमान्‌ है ।१५। 


१३४ ` कान्यालद्ारः [ कारिका १५ 


पुरुषा विद्यन्ते यस्य स नानालीलीटी । ब्मूहाभितनरनायक इत्यथे । तथा आकीना- 
नामाशितानामाली अन्थंकरः आलीनारी एवविधो न । सेवकानुकूल इत्यथ. । कोटरी. 
सेनाः 1 आलीना आरिरुष्टाः । ना कीट । खीलिनी टीलावती सुखितत्वादप्राणिना- 
मिला भूरयेपा ते लीजीखा नृपास्ते यस्य सन्तिस रीटीटी | तथा नानाप्रकारोना 
मनुष्यो यस्य स नानाना । तथा आली मखं उच्यते आलमस्यास्तीति वा न आली 
अनाटी। प्राज्ञ इत्यर्थः । अत्र तुरगपदपरिज्ञानाय रलेको यथा--'करज्ञनागभटाय 
तथबेवेव राघवे । षजेयाढेपचेमेठे दोणसछल्डेपडे 11" अमु शलोक सेनारी' इत्यादि 
प्रस्तुतर्लोकोपरिभागे यथाक्रमाक्षर लिखित्वा ततः एतच्छलोकगतमातृकापठ्ति- 
कादिवर्णक्रमानुमिततुरगपदक्रमेण प्रस्तुत रोक उच्चेय उति । 


णि तुरगपद्बन्ध, श्लोक-पंस्या ९५ 
इस तुरगपदवन्ध चित्र मे निर्दिष्ट १,२, ३, ४ आदि सख्याओ का क्रम तुरग 
के चारो पदोके धारणके सूचक है। ये संख्याएँ निम्नोक्त रूप मे निर्धारित की गयी 
है-दाई ओर दो अक छोड़कर नीचे का कोष्ठक अगरी स्या का सूचक है । [उदा- 
हरणाथं --१ के उपरान्त दो अक (३०, £) छोडकर नीचे का कोष्ठक संख्या "र है 1.| 
फिर दाई भोर दो जंक छोडकर उपर का कोष्ठक अगरी सख्या का सूचकं है 1 [उदा- 
हूरणा्थे अक २के उपरान्त दार्ई ओर के टो अक (२९, १०) छोडकर ऊपर का कोष्ठक 
३* है 1] इसके उपरान्त यथापूर्वं ५, ६, ७, ८ संख्याएं, पुन. ९, १०, ११. १२ सख्याए 
आदि तुरग के चारो पदो की सूचक हैँ 

द्न्वय- ये नानाधीनावा , धीरा , नावीवा. राधीराः [सन्ति], ते कि नानाड 
नाकं शं [आच्ङन्ते] । [ते] ते तेजोऽ नाशङ्धुन्ते 
किन शदो के ऋथं 

नाना आधि-इन-अवा -विविधमानसिकपीडायुक्ताः स्वामिनं. रक्षका. । 
चीर. सत्त्वयुक्ता. 1 न-अधी-वाः-न दृष्टवुद्धि-आश्चयिणः, निष्कपटमानसाः । 


कारिका १६ 1 पच्चमोऽध्याय. १३५ 


थ गजपदपाटमाह- 
ये नानाधीनावा धोरा नाधीवा राधीरा राजन्‌ । 


कि नानां नाकं दां ते नादंकन्तेऽशं ते तेजः 11१६] 
य॒ इति । अत्रये, नानाधीनावा., धीरा. न, अधीवाः, राधीराः, राजम्‌ कि, 
नाना, नाक , श, ते, न, आक्षदधुन्ते, अदय, ते, तेज. इति पदानि । पदाथस्त्वेवम्‌-- 
यया करिचद्राज्ञ. कस्यापि सेवकानसिनन्दति-हे राजन्‌, ये तदीयभूत्या एवगुणयुल्स्ते 
कि नाकस्थेद नाक स्वर्गसक्त श रिव सुसखमारङ्धन्ते 1 नन उत्तरत्र सबन्धः । किशन्द- 
काववावस्य तेपा स्वगसुख भवतीत्यर्थः। कीदशा ये ! नानाविधा आधयो यस्य स 
नानाधि. स चास्ताविनदच प्रगस्तमवन्ति विनाशा्रक्षन्तीति नानाधीनावा तथा धीरा. 
राधीरा--हिसकाना विनाशका. । नानाशम्‌--चिविधयुखाभिकषे पूणेम्‌ । नक-- 
स्वगंसम्बन्धि । श --रिवं, सुखम्‌ । ते--उपर्युक्त गुणविशिप्टाः सेवकाः । अस--दु ख 
रूपम्‌ ¡ ते-तव । 
कोई व्यक्ति किसी राजाके सेवकी की प्रशसा करते हए कहता है--हे 
राजन्‌ ! मपके उत्तम गुणों से शुक्त ये सेवक अनेकचिध आश्नां से पुणं स्वभेचुख 
मोगने के योग्य है; क्योकि ये विविध मानसिक तापो से पीडित राजाकी रक्षाकरने 
वाक्त ह" सत्त्व गुणयुक्त है तथा इनकी बुद्धि निष्कपर एवं पापरहितं है ! वे {हसक ` 
को दण्ड देनेवाकत हैँ तथा भाप से अमयदान पाकर सर्वथा आप्रवस्त है ।१६। 


लि 
न [खा न्थ ड थ [०३ 
ध 11 


४०. गजपद्‌-वन्ध, बलो के-संख्या 88 


यह्‌ चित्रवन्ध गजपद-क्रम का सूचक है} इसमे प्रत्येक पादको [यथाक्रम 
क्षरो के अनुसार पठने के अरिरिक्ति] निम्नोक्तं कोष्ठक संख्या के अनरूप भी यथा- 

वेत्‌ पठ्‌ सकते हे 

भयम पाद्--१, ६; १ €) द १ १, ४ ९ ए, 

दितीय पाद--५, ११, ६, १४, ७, १५, ८, १६ 

तृतीय पाद--१७, २५, १८, २६, १६९, २७, २०, २८ 

चतुय पाद---९१, २६ २२, ३०० २३, ३१, २४, ३२ 
सम्भवत्त. यह्‌ क्रमं गज के चारो पदोकैधारण का सुचकं 8 । 


त 


१३४ ˆ कान्यालद्धुारः [| कारिका १५ 


पुरुपा विद्यन्ते यस्य स ननालीटीखी । व्यरहाधितनरनायक इत्यर्थं । तथा आलीना- 
नामाश्ितानासारी अन्थंकरः आरीनाली एवविधो न । सेवकानुकूल इत्यथं । कीदशीः 
सेनाः । आलीना आरिरुष्टा. । ना कदल । लीलिनी रीकावती सुखितत्वास्राणिना- 
मिला भूयेपाते लीटठीला नमास्ते यस्य सन्तिस रीटीरी । तथा नानाप्रकारोना 
मनुष्यो यस्य स नानाना 1 तथा आदी मूर्खं उच्यते आलमस्यास्तीतिवा न आरी 
अनाटी । प्राज्न इल्यर्थ. । अत्र तुरगपदपरिज्ञानाय दलोको यथा-'कशज्ञेनागभटाय 
तथदेवेन राघवे । पजेयादेपच्तेमेठे दोणसछकडेपडे 1 अमु इखोक सिनारी' इत्यादि 
प्रस्तुतश्छोकोपरिभागे यथाक्रमाक्षर लिखित्वा तत. एतच्छलोकगतमात्रृकापठित- 
कादिव्णक्रमानुमित्ततुरगपदक्रमेण प्रस्तुत" ज्लोक उच्चय इति । 


न्‌ ६ | २५ |१ 
नासी | 
+~ 
तौ शी 


६. तुरगपद्वन्ध, श्लोक-तंस्या 2५ 

इस तुरगपदवन्य चित्र मे निर्दिष्ट १,२, ३, ४ आदि संख्याओं का करम तुरण 
के चारो पदोके धारण के मुचक है। ये संख्याएं निम्नोक्तं रूपमे निर्धारित की गयी 
है--दाई ओर दो अक छोडकर नीचे का कोष्ठक अगरी सख्या का सूचक है । [उदा- 
हरणाथं --१ के उपरान्त दो अक (३०, ९) छोडकर नीचे का कोष्ठक संख्या ^र' है ।| 
फिर दाद्‌ गोर दो अंक छोडकर उपर का कोष्ठक अगरी सख्या का मुचक है । [उदा- 
हरणाथं अक २के उपरान्त दार ओरके गे अंक (२९, १०) छोडकर ऊपर का कोष्ठक 
८३" है 1] उसके उपरान्त यथापूवं ५, ६, ७, ८ सख्याए, पूनः ९, १०, ११, १२ सख्याएं 
आदि तुरग के चारो पदों की सूचक दहै । 

छ्न्वय--ये नानाधीनावा, धीरा, नाधीवाः राघीराः [सन्ति], ते कि नानादा 
नाक श्च [आनङ्न्ते] । [ते] ते तेजोऽश नाश ्ुन्ते । 
कठिन शब्दों के प्रथं 

नाना आधि-इन-अवा --विविधमानसिकपीडाभक्ताः स्वामिनः रक्षका. 1 
धीरा. सतत्वयुक्ताः। न-अधी-वाः-न दृष्टवुद्धि-माश्चयिणः, निष्कपटमानसाः | 


कारिका १६ | पञ्चमोऽध्यायः १३ 


प्रथ गजपद्पार्याह- 
ये नानाधीनावा धोरा नाधीवा राधीरा राजन्‌ । 


कि नानारसं नाक शं ते नाशंकन्तेऽशं ते तेजः ॥ १६॥। 

य उति । अत्र-ये, नानाधीनावा, धीरा. न, अधीवा", राधीराः, राजम्‌ 
नाना, नाक, शं, ते, न, आशङ्ुन्ते, भस, ते, तेज. इति पदानि । पदार्थं स्त्वैवर्‌ 
यथा करिवेद्राज्ञ. कस्यापि सेवकानभिनन्दति--हे राजन्‌, ये तदीयभृत्या एवंगुणयुरह 
कि नकंस्येद नाक स्वगंसक्त श रिव सुखमाशङ्धन्ते । नम उत्तरत्र सं बन्धः । कि 
काक्वाब्रद्य तेपा स्वगंयुखं भवतीत्यथं. । कीटशा ये । नानाविधा जाधयो यरं 

नानाधिः स चासाविनड्च प्रभुस्तमवन्ति विनाशयाद्रक्षन्तीति नानाधीनावा तथा ध 
राधीरा--हिसकाना विनाशकाः । नानाशम्‌--विविधसुखाभिराषै. पूर्णम 1 नाने 
स्वगं सम्बन्धि । श --शिव, युखमू । ते--वपर्युक्त गुणविरिष्टा सेवकाः । अञ्च-- 
रूपम्‌ ! ते-तव । 

कोह व्यदिति किसी राजाके सेघकों की प्रशंसा करते हृए कहता है 
राजन्‌ ! आपके उत्तस गुणों से युक्त ये सेवक अनेकविध आओ से पुणं स्वर 
मोगने के योग्य है; क्योकि ये विविध मानसिक तपो से पीडित राजा की रक्षाः 
वाक है, सत्त्व गुणयुक्त हैँ तथा इनकी बुद्धि निष्कपट एवं पापरहित है । वे हि 
फो दण्ड देनेवाल ह तथा माप से अमयदान पाकर सर्वथा आश्वस्त है । १६। 


लातत 
१111 

11 
९०. गजपद्-वन्ध; श्लो क-संख्या ०8 


यहं चिन्रवन्ध गजपद-क्रम का सूचक है । इसमे प्रत्येक. पाद को [यथ 
अक्षरो के थनुक्तार पठने के अरिसिक्ति] भिम्नोक्त कोष्ठक सख्या के अनुरूप भी 
वत्तु पढ सकते हँ ; 

प्रश्रम पाद, €, २,१०.३, ११, ४१२ 

दवितीय पाद--५ १३, ६, १४, ७, १५, ८, १६ 

तृतीय पाद--१७, २५, १८, २६, १९, २७, २०, २८ 

चतुथं पाद--२१, २६९, २२, ३०, २३, ३१, २४, ३२ 


५, 


१३६ काव्याचद्ुरः | कारिका {७ 


सतवय 1 तथा दृष्टा वीचरद्धिरवरीस्तां वान्ति गच्छन््याश्चयन्त्यथीवा एवंविधा न । 
त्रा “राधो हिनायाम्रुः | राचिनो ह्िनिकास्तानीरढन्तीति राधीसतः। बं कोटयम्‌ । 
नानाविचा बाना. युखा्भिन्ापा यत्र तन्नानागम्‌ । किच ते तव नवन्वि यत्तंजस्तदय 
दु.-खल्ममिव्यव नानद्भुनने । प्रमृनजोतम्माक्र नागयिनि चेत्तसि नव कुर्दन्वील्यर्थः सत्र 
. गजमटन्या्रेन दोक उत्प्रे । सम च दोक्रगत्रथमनवमद्वितीयक्यमनृनीर्थैक्रादम- 
चतुर्थद्रादमाद्विक्रमेण उच्येय इति ॥। 
चरथ प्रतिल्तामानुनोमपाटं चरवद्वृत्तमाह- 
वेदापन्ने स॒ दाक्ले रचितनिजश्गुच्छेदयलनेऽरभेरे 
देवा्षक्तेऽमुदन्नो वलदमनयदस्तोददुगासिवासे 
सेवास॒र्गद्दस्तो ठयनमदलवक्नोदमुक्ते सवदे 
रेमे रत्नेऽयदच्छ गृश्जनितचि र्क्चे्सन्तेऽपदावे 11 १५७॥ 
वेदान्न इत्ति! म कव्विदुगुणिग्रियो रते गुणवति जने रेमे ननन्द । "जातौ 
जातौ यदरक्कछरष्ट तद्रल्न्मामिधीयत्त' । वेदानाप्रन्नो वेदापन्नस्नत्र 1 अवीत्तवेद इत्यथः । 
तथा छक्ल प्रियवदे। तशा रतित्त. छतो निजया राग पात्मिकाया ङ्जो वावाया 
गुच्छ उन्भूकने यत्नो यन तन्मिनचितनिजद्गृच्छेठयले । तथा न रमन्ते मुजनेषु चमं 
द्न्वच-स अमुदक्नो, वक्दमनयदः सवासर्गादुदन्तः, वेदापन्ने, गक्छे, रचित्त- 
निजगगृच्छदयत्ने, अरमेरे, देवानक्त, तोददुर्गान्निवाय, दयनमटख्वक्नोदमुक्त, स्वादे, 
ययदच्छ, गृरजनितचिरकछेलसन्ने, यपदावि रसे रेमे । 
कठिन शब्द के श्रथ 
वेद्रापरन्ने--अधीतवेदै । अवन्ठे--परि्यवदे । च्क्‌--रागद्रपात्मिका वाधा । 
जरम-इरे--यधार्मिक्रानाः दुर्जनानां विनायके । अमुनु-अक्नः-जितेन्िय, । वच-दरम- 
नयद.-- गक्ति-उपनमर्नीततिम्पदेप्टा । ताददु्गन्ि-वामे--दु खदुगं मञ्जकानामाश्रयभुते । 
तेवानर्गन्‌ उदस्तः-नेवात्रत्ती गिविखोत्माहः, स्वाधीनताप्रियः । दयन-मदद्व-भोद- 
मूक्ते--व्रनदानादिजनितगर्वचेनादु रहिते । स्रवादे-वादचानुरीसमृपेत, प्रमाण- 
गास््रने 1 रले--श्र पठे नरे । अग्रदच्छे--अनिगत-नंर्मत्ये, पवित्र-मानसे 1 गुस्जनिन- 
चिर-क्रन-सन्ने--गुरुजनयु् पा-जनित-श्रान्तिमुक्ते । अपदावे--उपताप-रहिते । 
वह्‌ जितेन्द्रिय, गक्ति बौर सामनीति का उपदेष्टा, स्वावीनवृत्ति पुख्व, उस 
गुणी ग्यव्तिसे प्रेम करता है, वेह व्यक्ति वेदवित्‌, मघुरमाषी, रागद्धेपादि चित्त 
वृत्तियों के उन्भरुलन मे तत्पर, दुजनो को सन्प्रेरणा देनेवाला, देवोपासक, चडे-वडे शर्य 
के आश्रयदाता, दानादि के गवं से सर्वथा श्रुन्य, शास्त्रप्रमाणन्न, श्युद्धाचार, गुखमो के 
सेवाकार्यं मे मासक्त मौर श्रान्तचित्त है 1१७। 


कारिका १८ | पच्चमोऽध्यायः १३७ 


वाये ते अरमा दुर्जनास्तानीरयति यस्तस्मिन्नरमेरे । तथां देवेश्वासक्तो देवासक्त- 
स्तस्मिन्देवासवते । देवपूजोद्यत इत्ययः । स कीदृश । न मोदन्ते प्रमोद यान्तीत्यमुन्दि 
अक्षाणीच्दरियाणि यस्य सोऽमुदक्षो जितेन्द्रिय । तथा वलदमनयद शक््युपडमनीतिदाता। 
रत्ने कौशे । तोदस्य ग्ययाया दुर्गा इव दुर्गा. परानभिभरूतास्तानप्यस्यन्ति क्षिपन्तीति 
तोददुर्गासास्तेषा वासे निल्ये । श्ुराणामपि चुरा यमाश्रिता इत्यथ. । स कीदृश. ! 
सेवाया परप्रणतौ सगं उत्साहस्तत उदस्तो निधरृत्तः । स्वाधीन इत्यर्थः । रत्ने कादृ्े । 
दयन दान रक्नावातेन यो मदल्वो गवेकणिका तेन य. क्षोद. परिकत्थनं तेन मक्त 
रहिते । श्रिय कृत्वाप्यग्ित इत्यथं । यद्रा अदयनेन निर्दंयत्वेन मदल्वेन गवं छेशेन 
क्षोदेन हिसया च मुक्ते । तथा सह्‌ वादेन वतते सवादस्तस्मिनू 1 प्रमाणशास्व्रज्ञ इत्यथे । 
तथा अयन्नगच्छन्नच्छो नं मल्य यस्य तत्रायदच्छ । शुद्धिमतीत्यथे तथा । गुरुभि. पूज्यं- 
जनितो यश्चिर क्कश. सुश्रूपाश्रमस्तेनंव सन्ने श्चान्ते । न त्वेन्येन । तत्र वा सन्ते सवते । 
तथा अपदान्पदश्रष्टानवतीत्यपदाव । यदि वापगतो दाव उपतापो यस्य॒ तर्मिन्तिति 
यथेवाय इलोक क्रमेण पय्यते, एवं व्यतिक्रमेगपीति प्रतिलोमानुलोम. ॥ 


त्रथाधभरममाह-- 
सरसायारिवीरालीरसनव्याध्यदेहवरा | 


सान. पायादरं देवी याव्यायागमदध्यरि ।१८। 
सरसेति 1 सा ईरवरा देवी गौरी नोऽस्मानर चीघ्र पायादव्यात्‌ । या अगमद्‌- 
गता । कथम्‌ । अध्यरि रिपुनयिक्ृत्य । कीदृक््यगमत्‌ । अन्याया विगत आयोऽर्थागमो 
यस्या सा व्याया, न व्याया अन्याया। सलाभेत्यथं । तथा अयनमाय, सरस. सरोष 
आयो रणे गमन यस्याः सा सरसाया, सा चासावरिवीराली च शत्रूसुभटपंक्तिस्तस्या 
रसनेनास्वादनेन हस्तया विषेण सक्तानामाधी्भंनोदु खान्यत्ति नाशयतीति सरसायारि- 
वी रालीरसनग्याव्यदा । यदि वा सरसाया अरिवीराल्या रसेन भावेन नव्या स्तुत्या । 
आध्यदा दु खनासिका । अर्घश्नमगादर्घश्नमोऽयम्‌ 1 न तु सर्वतोभद्रवत्सर्वत्र भ्राम्यति 1 
1 


अन्वय--सा ईश्वरा देवी नः अर पायान्‌, या अन्याया, सरसायारिनीराली- 
रसनग्याध्यदा अध्यरि अगमत्‌ । 
कठिन श॒ब्दो के अथं 

स-रस-जाया--| रणे | सरोषअभिगमन युक्ता । अरि-वीर-आरी-रसन-वि-आधि- 
अदा-शत्रुवीराणा हिंसया [भक्ताना| मनोदु खस्य विकोषेण विनाश्शिका । 

वह्‌ देवी गौरी हमारी शीघ्र रक्षा करे । वह वंभव-सम्पन्न है तथा सोषपूर्वक 
यद्ध के ल्थि अघे हृष्‌ शत्रु-वीरो के विनाज्ञ द्वारा सक्तो के मानसिक संताप को शान्त 
करते वाली है । वह्‌ सगवती गौरो शरमं के सम्प्रुख युद्ध पयं चली गयीं ।१८। 


१३८ कन्यालद्खुार | कारिका १६ 


रथ मुरजवन्धः- 
सरलाबहलारम्भतरलालिबलारवा | 
वारववहलामन्द्कर्ला बह्चासला 1१९1) 

सररति । सर्वभापाभिरमागधिकाभिः शरदणेने श्ोकोऽयम्‌ । तत्र कीद्नी 


ररद्रत॑ते । सरलो दीघं आ समन्ताद्वहुरेन प्रभूतेनारम्भेण तराना चञ्चल्ानामलि- 
वलनां ्रमरसंन्यानामारवः गनव्दो यस्यां सा सरकावहरारम्भतरलाखिवलारवा । तथा 


१ 2 2 छ १ 


20. चरग्रम-वन्ध, शलो क-संख्या १८ 
(प्रथम खण्ड) (द्वितीय खर्ट) 

यह्‌ चित्रवन्ध अद्धं्रम का सूचक दहै । उसचित्र केदो खण्ड है । इन दोनों खण्डो 
में प्रत्येक पाद के अद्धंभाग को [यथाक्रम अक्षरो के अनुसार पठने के अतिरिक्त] वाण- 
चिदह्नो एव कोष्ठक संख्या के अनुरूप भी यथावत्‌ पढ सकते है 1 अद्धं भ्रम जौर सर्वतोश्चम 
मे अन्तर जानने के लिए चिन्र-सख्या १३ देखिए 1 

न्वरय--सरलावहलारम्भतरलाच्विलछारवा, वारखावहका, अमन्दकरलखा, 

वहलामला । 
कठिन शरदो के रथं 

सरख-आवहक-जारम्भ-तरल-अलि-वल-आरवा- समन्तात्‌ प्रच्ररसमारम्भेण 
श्रमरसैन्यस्य वीधंगृजनश्षब्दं. युक्ता 1 वारलावहला--हृसीसमूहेन व्याप्ता । अमन्द- 
करखा--सोत्माहै नुपतिभि अधिष्ठिता । वहकमला-प्रकपेण निमय, यद्वा प्रभूत- 
आमल्कीफल. समृद्धा । 

यह्‌ शरद्‌ ऋतु सुदूर तक फलने वाल श्रमर-समुह्‌ के गुञ्जन से युक्त है । इस ऋतु 
मे हसिनियो के रण्ड दिखायी पडते हं । राजा छोग विजय-पात्रा के च्वि सोत्साह ह तथा 
पृथ्वी, दिज्ञा, आकाद्न आदि मेव, धूलि, पंक आदि उपद्रवो से रहित्त तथा निर्मल ह ।१६। 


कारिका १९ | प्चमोऽध्याय. १३६ 


वारखाभिहंसीभिर्वहुला सतत्ता । यदि वा वारेण परिपास्या छावो रुवन येषा तानि 
तथाविधानि हलानि हक्कृष्टघान्यक्षेत्राणि यस्या स्ता तथाविधा 1 तथा कर छान्ति 
गृह्णन्ति ये ते केरा नुपा. । अमन्दा यात्राया सोद्यमाः करला यस्यासा तथाविधा) 
तथा वहलानि प्रभूतान्यामलान्यामरुकौफलानि यस्या सा तथाविघा। यदि वा बहल- 
मत्यथंममला निमंला वहूखामला । अत्र मुरजत्यमधेमुरजौ चान्ते भवेत । न्यास. ॥ 


९ मुरजवन्ध, श्लोक -संख्या € 

मुरज कहते है ठोल को । उक्तं चित्र मे 'सररावहखा"**' आदि इरोक पुरा- 
का-पूरा तथा ज्यो-का-त्यो च्खिदेनेसे तीन मुरजतो वीचमे बन गये है ओर आधा- 
आधा मुरज दोनो सिरो पर । [ किन्तु हमे इस बन्ध मे कोई विशेष चमत्कार प्रतीत 
नही होत्ता । | 

्न्वेय-- [है| सार ! अतक्षर 11 तव रक्षत. [सत] तुसारसा साररसा 
स्तु । [हे] जायता । [सा] क्षतायसा, साताव। [अस्तु] । हे अत । [सा] अतासा 
[मवतु |) 
कठिन शृर्ष्दो कै त्रथ 

रसा--पृथ्वी 1 साररसा--उक्कृष्ट-रसोपेता ! [हे] सार--[हे] उत्कृष्ट ! 
[हि] जायताक्ञ ! विश्ालरोचन ! क्षतयसा--अर्यागमङ्ण्ठकाना चौराणां विनानी । 

सातावा - सुख-रक्षिका, श्र यस्करी 1 [हे] मत-[ नित्यम्‌] उद्यमी ! तव--भवतः। 

अतासा--अक्षया 1 रक्षतत - पालयत , तु, अस्तु--भवतु 1 [हे] अतक्षर--न तनूकतः 1 
पप्टिसम्पादकं ! 


१४० कान्यालङ्खारः [ कारिका २० 


ऋथ सवनोमद्रमाह- 
रसा साररसा सार सायताक् क्षतायसा । 
सातावात तवातासा रक्षतस्त्वस्त्वतक्षर ।२०।। 


[यमी नण भगिणीषीथषकिि 


कोई व्यवित राजा से कहता है--हे भूषश्िरोमणे ! प्रजापालक { आपके संरक्षण 
भें गह प्रथ्वी उत्छृष्ट वस्वुभओ से सम्पन्न हौ । ह विश्चालनेज ! आपके राज्य भं सम्पत्ति 
का नाक्च करने वाठ चोर-ठ्टेरों का चिन्न हो । यहं पुथ्नी सवका कल्याण-समस्पादन 
करती रहै । हे उच मशील रजन्‌ ! इस पृथ्वी की सम्पत्ति का कभी नाद्न हौ ।२०। 


र |खआ|सा९ २ [सा|सा|र्‌ 


ता | छ | न | व |स 

त |बा | त [ त] ग ता |स 
र |6 | त [सतवस्त र्‌ 
र [क्ष त [सस्त [र 
स [ताबा त [त [वा [ता [स 
य (ता|क्ष|क्ष 
र [लाल [र |र [शसा 


४२. सवतोमद्र वन्ध, श्लाक-तंस्या ९० 
सर्वतोभद्र से यहं तात्पर्य है सव भोरसे ग्राह्य। उप्त चित्र॑वन्यसे स्पष्टहै 
है कि इलोक का प्रत्येक पादं निम्नोक्त रूपमे पढ़ा जा सकता है-- 


प्रथम पाद-पहरी ओर आठवी पव्ित्तर्यां दाएंसे बाएं तथा 

दहितीय पाद-दूसरी ओौर सातवी पवितां वार्एंसे दाएं ओर 

नृतीय पाद-- तीप्नरी गौर छठी पक्त्तियां ऊपर से नीचे तथा 
चतुर्थं पाद -- चौथी ओर पांचवी पक््ि्यां नीचे से ऊपर 


"सर्वतोभद्रः चित्रम जिस प्रकार इतना अविक श्रमणः किया जा सकता 
है, “भद्धं्रम नित्रमे यह आवादही सम्भवदहै, जैसा किं उपर चिच्रसल्या ११. 
स्पष्ट है । 


कारिका २१ | पन्चमोऽध्याय. १४१ 


रसेति 1 केश्चिद्राजानमाह-है सार उक्कृष्ट, तवं रक्षतः पार्यत सतः सां 
रसा पृथ्वी साररसा उक्कृष्टरसास्तु भवतु । हे आयताक्ष दीवंरोचन, तथा सा क्षतायसा 
चास्तु 1 क्षतो नाद्वित आयोऽ्यागमो यस्ते क्षतायाद्चौ रादयस्तान्त्यत्यन्त नयतीति 
कृत्वा । तथा सात सुखमवतीति सातावा । श्रयस्करीत्यर्थं अरित्वति सवत्र योज्यम्‌ । 
हे अत । अतति नित्यमेवोद्यमं भजत इत्यर्थं. । तथा अतासा अक्षया रसा । भवत्वि- 
त्यत्रापि योग. । तुनियमे । रक्षत एव, न त्ववकिप्तस्य । तथा है अतक्षर तक्षण तक्षस्तनू- 
करण त राति ददातीति तक्षर , तक्षरोऽतक्षर । पृष्टिद इत्यथं । चतुदश वाच्यत्वात्‌ 
सवेतोभद्रोऽ्य शोकः ।। 

आदि्रहणसंश्हीतं प्चाधुदाहरणमाह- 

या पात्यपायपतितानवतारिताया 

यातारिपावपति वाग्भुवनानि माया । 
यामानिना वपतु वो वसु सा स्वगेया 


यागे स्वसायुररिपोजंयपात्यपाया ।२१॥ 
येति } सा इना स्वामिनी गौरी वो युष्मभ्य्र यामानष्टाकवि प्रहुरान्नित्य वसु 
धन वपतु जनयतु 1 या अपायपतितानापद्गत न्प्राणिन. पाति रक्षतीति । किभूता सती । 


श्रन्वय--सा इना वो यामानु वसु वपतु, या अवतारिताया, यातारिता अपाय 
पतितान्‌ पात्ति । [या] वाक्‌ भुवनानि आवपति । [या] माया, यागे स्वगे या, भसुर- 
रिपो. स्वसा, जयपा, अत्यपाया [अस्ति] । 
कठिन शब्दों के श्रथ 

अपायपतितान्‌-आपदृगतान्‌ प्राणिन । अवतारिताया--अर्थागमस्य प्रापिका, 
सपत्तिप्रदा । यातारिता--विगतचयत्रूभावा । आवपति-- व्याप्नोति । वाक्‌--वचनरूपा, 
वाणीरूपा 1 माया--ुर्वोषित्वात्‌ मायारूपिणी । यामानू--अष्टौ प्रहरन्‌ । इना-- 
स्वामिनी गौरी । वपतु--जनयतु 1 स्वगेया--आत्मर्नव स्तुत्या, वाग्रूपत्वात्‌ । स्वसा- 
भगिनी । अमुररिपो --विष्णो । जयपा-भक्ताना समृद्धिरक्षिका । अत्पपाया-- 
अनथंविध्वसकर्त्री | । 

वहं स्वामिनी गौरी आपको आटो पहर धन-सम्पत्ति से सम्पन्न करती 
रहै, जो वमव की प्रदत्री हैः श्रुमाव से सर्वया निमुक्त एवं नि्मल्सर है, आओौर 
विपदरग्रस्त भ्राणियो को रक्षा करने वालीहै। वह देवी गौरी वाग्रप होकर सारे भुवन 
मे व्याप्त है, अज्ञेय होने से माया-रूप है । स्वयं वाग्रूप होने से यज्ञ में अपनी स्तुति 
आप ही हैँ । [वह्‌ देवी गौरी | भगवानु विष्णु की वहिन हैँ । भक्तो के उत्कषं अथा 


¬ „> ~य 2 चतो > नथा धियि ॐ ~ 9); 


१.८२ कान्यालद्धुारः [| कारिका २१ 


अवतारितं प्रापित आयोऽ्थागमो यया सावतारिताया । तथा याता निश्रत्तारिता नरु- 
भावो यस्या सा यातारिता । निर्मत्सरेव्य्थ॑ः । या तथा वाक्‌ वचनरूपा सती भुवनानि 
जगन्त्यावपति व्याप्नोति । या च तत्त्वतो ज्ञातुमरक्यत्वान्मयेव माया । याच यागे 
यज्ञे स्वेनात्मनेव गेया स्तुत्या । वाग्रूपत्वात्तस्याः । तथा या चासुररिपोविष्णो. स्वस्रा 
भगिनी । या च जय सर्वोत्किपंवर्तन भक्ताना पाति रक्षतीति जयपा । तयातिक्रान्ता 


९४. प्र्यवन्ध, श्लोक-तंस्या २९ 

इस पद्मचित्र मे चार दलह) प्रस्तुत रखोक के प्रत्येक पादमे पहुला भौर 
अन्तिम वर्णं "या" है । इसे पद्मचित्र के मघ्यमे कणिका" रूपमे चित्रित कियागया 
है । प्रत्येक पाद के अन्तिम चार वेणं अगं पादके आरम्भिके चारवणं है, किन्तु 
विखोमरखूप मे 1 इसी प्रकार चौये पाद के अन्तिम चार वणं भी पह पाद के आरम्िक 
चार वर्णं है-विलोम रूपमे। इस प्रकार पूरा ञ्छोक पठ्नेसे भ्या" (कणिका) की 
आत्रृत्ति ८ वार हौ जाती है, तथा प्रत्येक पाद के अन्तिम चार वर्णं भी विखोम रूप 
से दो-दो वार आ्रत्तदहो जति)! भ्रतीतरे्रा होता है किमप्रत्येक दठमे १२-१२ 
वर्णं है, ओर इस प्रकार ४८ वणं होने चाहिए, किन्तु वस्तुतः है ३२ वर्णं । दे दर्वां वणं 
करणिका रूपमे है । १४ वर्णो वाके इस छन्द के कुर ५९ वर्णोमेसे ३३ वर्णं इस 
चिच में चित्रित है, नेप २२३ व्रणं आध्त्तस्पमेग्राह्यह। 


/ 
कारिका २२ | पन्चमोऽध्यायः १४३ 


अपाया अनर्था यया साव्यपाया । निरापदेत्यथं । इदमण्टदक पद्ममिति पूवं भणन्ति 
तन्न सम्यग्बुध्यते 1 चतुर्दर तु बुध्यते । यथा याः शब्दोऽत्र कर्णिका अष्टवारन्परा- 
व्यते । दरानि द्रादश्चाक्षरणि । तत्र पारश्ववत्तिनश्वत्वारस्चत्वारो वर्णां दलसधिगत- 
त्वाद्विरावत्येन्ते 1] 
प्रथानुलोमवरिलोमतिपयस्ताक्षपाठन श्लोकाच्छ.लोकानद्तेदत्तिमाह । 
तत्रा श्ल 


समरणमटहितोपा यास्तनामारिपाता 
वनरतिसरमाया वानरा मापसारम्‌ । 
म्रमरततवरालीमानमासाद्य नेदू 


रणमहिमतताशा धीरभावेऽसिराते ॥२२।। 

समरणेति । सुग्रीवाद्धदप्रभृतयोऽत्र वनरा वण्येन्ते- वानरा नेदु । जगदुरि- 
त्यथः । कीदृशा. ) समौ तुल्यौ रणमहौ संग्रामोत्सवौ येपा ते समरणमहा इन्द्रजित्रभृत- 
थस्ते विद्यन्ते येषा ते समरणमहिनो रावणादयस्तास्तुपन्ति {हिंसन्ति ये ते समरणमहितोपाः। 
तथा यान्ति गच्छन्तीति या अभियोगिनः, अस्तः परित्यक्तो नामो नतिर्यस्तेऽस्तनामा, 
याश्च तेऽस्तनामाङ्च ते च तेऽरयश्च शत्रेवदच तान्पातयन्ति नाशयन्तीति यास्तनामारि- 
पाताः । यदि वा समश्चब्द सर्वनामसु । तत्त समरणेपु सर्वसमरेपु महितः पुजित उपायो 
येषां ते च तेऽस्तनामारिपाताश्चेत्ति समास । तथा वने रतियषां ते वनरतयो मूनय- 


। छमन्वय--समरणमदहितोया , यास्तनामारिपाता" वनरतिसरमाया, रण- 
महिमतताशा वानराः भमरततवरालीमानम्‌ आसाद्य असिराते धीरभावे मापसारं नेदुः। 
करिन शब्दों के रथं 

सम-रण महि-तोपा --युढधमुत्सव च समानं [कलयता] (रावणादीन।) हिसका- 

(सुग्रीवादय ) । या-अस्तनाम-अरि-पाता--आाक्रामकाना, नमस्कारम्‌ अकुर्वता, शत्ृणा 
विनाशका । वनरतिसरमाया--वनेषु वासमभिरोचमानाना मृन्यादीना इन्तुभिच्छया 
उपसपता (राक्षसान) हिसका. । माऽपसारमू--परलायनेच्छा विहाय ! अमरततवराटी- 
सानस्‌- देवः दत्त वरस्मूहरूपमादरम्‌ ! नेदू.--शब्द कृतवन्त. । रणमह्मि-तत- 
अशा ग्रुद्रमाहात्म्येन व्याप्तदिशा. । अक्षिरति--खड्गेन दत्ते [सति] । 

युद्ध ओर उत्सव को समान समक्षनेवाकते मेघनाद आदि वीरों से युक्त 
रावणादि के हन्ता, युद्ध मे निर्भयं तथा हार न मानने बाते शान्नओ के विनाडाक, 
वनवासी भूनियो के घातक राक्षसो का नाश्च करने वाके बवानरगण देवो से वरदानं 


पाने का मान जत करके, खड्गहुस्त होने फे कारणं धर्थभाव मे आस्थित तथा युद्ध 
छमै चव्य चे अ= लिनः य लत्वे चन पविना ~ > ~ +) =) 


१.८४. कान्याक्द्धुार [ कारिका २३ 


स्तान्सरस्ति जिघासयाभिगच्छन्तीति वनरतिसरा राक्षसादयस्तान्मीनन्तीति कर्मण्यणि 
वनरतिसरमाया. 1 कथ नेदु । मापसारम्‌ । मा प्रतिपेधे ततश्चविद्यामानोऽपसारक्छेदो 
यत्र कर्मणि तन्मापसारम्‌ 1 कि कृत्वा नेदु । अमरंदवैस्तत्ा विस्तारिता दता या बरारी 
वरपरम्परा तया मान पूजा गर्व वासाद्य प्राप्य 1 तथां रणमहिम्ना युदढमाहात्म्येन तता व्याप्ता 
आरा दिशो यस्ते तथोक्ता । कदा नेदु । धीरभेवे धैयेऽसिना खड्धेन रते दत्तं सति ॥ 

अस्माच्छलोकादेकाक्षरव्यव धानेन द्रयोद्र योश्च विपयंयपाठेनायं इलोको निर्याति । 
यथा-- 

सरमणह्िमितोयापास्तमानारितापा 


वरनतिरसमावायानमारा परं सा) 
भ्रमत बत रामा लीनसामादयद्ने 
रमणदहितमताधीश्ारवे भासितेरा। २३) 


छ्रन्वय-सा रामा आद्यदूने जधीशारवे बत परम्‌ अरमत ! [यां] सरमण- 
हिमतोया, अपास्तमानारितापा, वरनतिः, असमा, अवा, अयानमारा, खीनसामा, 
रमणहितमता, भासितेरा [अस्ति] । 
किन शब्दों के अं 

सरमणहिमतोया--पत्तिरूपेण शीतकुजलनयुक्ता । 

अपास्तमान-अरि-तापा--मानरूपशत्रुजनित्तसंताप दूरीकृत्य । 

वरनति --श्वष्टप्रणतियुक्ता, [विगतमानत्वात्‌| प्रणामपरा । 

असमा--सवक्करिष्टा । 

अवा- स्वस्य पत्युर्वा रक्षिका । 

अयान-मारा--अविगतकन्दर्पा, अपरित्यक्तकामा । 

लीनसामा--संबद्धभियवचना, प्रियभाषिणी । 

आश्यदुने--गद्गदगप्र घाने, विशेपेण गद्गदिका-गृहीते [वचसि] । 

रमणहितमता- पत्यु" मद्खुराकांक्षिणी, प्रिया च । 

अधीश्षारवे--पत्यु वचसि । 

भासितेरा--शोभनया वाचा युक्ता, प्रियभाविणी । 

आइचयं को बात है कि वहु मानगविता मौ अपने प्रिय के सन्तप्त एवं गदगद 
वचन सुनकर परम प्रसन्न हो गयी है, क्रोकि वहु अधरे सन्तापहारकं प्रियरूप श्लीतछ 
जल से संयुक्त है 1 वह अपने मानरूपी शत्र द्वारा जनित्त ताप छोडकर पति से विनीतं 
व्यवहार करने ऊ्गीदहै, इसलिए वह सर्वेल्कि्ट है तथा अपनी या पतिकीरक्षामें 
तत्पर है 1 उसमे काम-विकार भी अपने पूणता पर हः प्रियभाषिणी होने के 


कारिका २४-२५ | पच्वमोऽध्यायः १४१५ 


सरमणेति ! काचिन्मानिनी प्रसन्नाच्र व्यते सा रामा युवतिरधीशारवे 

दयितवचसि परयतिश्येनारमत प्रीति कृतवती । वत विस्मये ! चित्रं मानिन्यपि प्रसन्ना 
यत्‌ 1 कीदशी ! रमणो दयित. सं एव संतापापहारित्वाद्धिमतोय नीहारजलम्‌, सह तेन 
वतेते यो सा सरमणहिमतोया । अत एवापास्तो निरस्तो मानारितापो गववंशच्रुजनितो- 
पतापो यथा सापास्तमानारितापा । तथा वरा श्रेष्ठा नतिमनिपरित्यागेन प्रणतियंस्याः 
सा वरनति. । यद्वा वरे भतंरि नति्यस्या । तथा असमा सर्वो्करिष्टा । तथा अवति 
रक्षत्यात्मान त्रियं वेत्यवा 1 न विद्यते यान गमनमस्येत्ययानः स्थिरो मारः कामो यस्याः 
सायानमारा । तथा रीन सम्बद्ध साम कोमल्वचन यस्याः सा रीनसामा। भिय 
भाषिगीव्यथः । कीदशेऽधीशारवे । आद्य प्रधानभूत" दुन उपतप्तो गद्गदः, आद्य्च 
दूनद्च तत्रादयदरूने । रामा कीहशी । रमणस्य प्रियस्य हिता च मता च । अनुकरुरत्वा- 
दिष्टेत्यथै. । तथा भासिता शोभिता इरा वाणी यस्याः सा भासितेरा ) मधुरवागित्यथे. । 
भस्माच्छलोकात्तथेव पूवंश्चोको निर्याति । एवमन्येऽपि चितरप्रकारा महाकाय्येभ्योऽवधार्याः । 
सर्वेषा स्वरूपदर्शनं कर्तुमराक्यमानन्त्यादित्ति । एतेषु यमकर्लेषचित्रोदाह्रणेषु व्यार्या- 
नान्तराण्यपि महामतिङृतानि दृष्टानि, परमेकंकमेव चावित्येकंकमेव लिखितम्‌ । यत्त 
उक्त सुधीभिः--व्याख्यानमनेकविध लिद्ध मबोधस्य धुम इव वह ` । स्पष्टं मागंमजा- 
नन्स्पृशत्यनेकान्पथो मुह्यन्‌" इति ॥ 

प्रथ य एते मात्राच्युतादयस्ते किमलंकाराः, उत नेत्याशङ्कयाह- 

मात्राबिन्द्च्युतके प्रहेलिका कारकक्रियागूढे । 


प्ररनोत्तरादि चाच्यत्कीडामातोपयोगमिदम्‌ ॥ २४ ॥। 
मात्रेति । च्युतकशन्दो गूढशब्दङ्चोभयत्र संबध्यते । ततस्च माव्राच्युतकविन्दु- 
च्युतकम्रहेखिकाकारकगूढक्रियागूढानि प्र्नोत्तरादि । च" समुच्चये । अन्यस्पूर्वाकारेभ्यो 
व्यतिरिक्त ततक्रीडामात्रोपयोगम्‌ । मात्रग्रहणेनाल्पप्रयोजनता सूचयति । अत्पप्रयोजन- 
` त्वदेवालद्धुारमध्ये न सगृहीतम्‌ । काग्येषु च दशं नादक्तव्यमिति । 
तल्लक्षणं यथाक्रममाह-- 
मात्राबिन्दुच्यवनादन्याथेत्वेन तच्च्युते नाम । 
स्पष्टप्रच्छन्ना्थां प्रहेलिका व्याहृतार्था च । २५ ॥ 
साथ-साथ पति की हितचिन्तका होने से वहु पति को प्यारी है । उसकी वाणी अत्यन्त 
मधुर है ।२३। 
मात्राच्युतक, विन्दुच्युतक, प्रहेलिका, कारक, क्ियागूढ, प्रनोत्तर आदि 


तथा इसी भ्रकार के अन्य रव केवल माच्र मनोविनोद के लिए ही होते है! [इसलिए 
मखंकारों मे इनकी गणना नहीं होती ] ।२४। 


१४८ काव्याल्द्युारः | कारिका २६ 


सदा न भवति । कान्त" कमनीयः । अत्तएव नयनानन्दी नयनानन्दकर' । भवर विन्दौ 
च्युतेऽ्थान्तिर भवति । इद काचित्सगरीमाह्‌-दहै वाले मुग्धे, कान्तो वल्छभो नयनानन्दीं 
दु.गरेन वलनेन भवति सदा । तस्मान्मन तिरस्कार्पीरिति गप" । व्यजञ्जनच्युतकाभर- 
च्युनकेट्यादिग्रहणात्म ग्रहीते तदृदाहरणे वप्यलयेव दिशा द्रष्टव्ये ॥ 


द्मश्र स्पष्ट ग्रच्छन्नाधग्रहलिकामाह- 
कानि निकृत्तानि कथं कदली वनवासिना स्वयं तेन 1 
कथमपि न हर्यतेऽसावन्वक्षं हरति वसनानि ॥२६९॥ 


कानीति । कदन्डीवनवामिना रम्मावनगतेन नरेण कानि निकृत्तानि कानि 
च्छिन्नानि। कथ केन प्रकारेणंति प्रध्नै । स्पष्टोऽपि प्रच्छनोऽथः। स चायभू- कानि 
लिसस्ि मस्तकानि निङ्त्तानि । कथम्‌ । कदलीव रम्भेव । केन । भत्तिना खद्धंन । 
कियन्ति । नव नवसख्यानि । स्वयमात्मना 1 तन दथाननन । कथदव्दोऽत्र विरमये 1 
चिव्रभिद ग्रस्त्वय तृणराजवदात्मनः चिरासि च्छिन्नानीत्यर्थः । प्रव्नोत्तरात्त्वस्या ययमेव 


1) "क षणी मणी णण मिप  कयाययकण्यायययिकन्काेिेननमककिे 


$ 


र्पष्ट-ग्रच्छुन्नायं प्रहलिक्रा का उद्ाहट्छ- 
द्मन्वय-- प्रथम टो पादं 

(प्र्न) कदखीवनवासिना तेन स्वय कानि कथं निक्रत्तानि । 

(उत्तरम्‌) कथ तेन स्वयं असिना नव कानि कदङ़ीव निकृत्तानि । 
द्रन्वय-- अन्तिम दो पाद 

यसौ अन्वक्ष वमनानि हरति, कथमपि न हभ्यते । 
कठिन पदों के अथं 

कानि-- करानि वस्तूनि ? चिरासि (कम्‌-गिरः) । निकृत्तानि-दहिन्नानि । 

कश्--केन प्रकारेण; अहो चित्रम्‌ 1 

कदी व--रम्भेव । अन्वक्षमू--प्रत्यक्षम्‌ । 
प्रथम दो पाद 

प्रथम त्रथं-- कदली वन-निवासी उस मच्रष्य ने स्वयं किस प्रकार षया वस्तु 
काट दीं। 

दूसरा ग्र्र- [रावण ने] स्तव्रय॑ही खद्ग द्वारा अपने नौ सिर कदली वृक्ष 
को मति काट द्ये । 
अन्तिम दो पादः 

वह्‌ कौनदहैनो आंखो के सामने ही वस्त्र च्रुरा ताह भौर दिखाई नो नही 
देता । (उत्तर = वायु) २६। 


कारिका ३० | पश्वमोऽध्याय. १४६ 


विशेषो यतप्ररनवाक्येनेवोत्तरदानम्‌। अथ व्याहूतार्थामाह--कथमपीत्यादि। असौ करचि- 
दन्वक्षं प्रत्यक्षमेव वसनानि वस्त्राणि हरति । अथ च कथमपि नं हस्यते नावरोक्थते । अतः 
कोऽय स्यात्‌ ! अत्रासाधारणविशेपणोपादानाद्रायुरिति गम्यते । नान्यस्य चौरादेरेवविधा 
शक्तिरिति । प्रश्नोत्तराच्चास्या वायुर्वाति. समीर इत्याद्यनियतकन्दत्व विशेषः ॥ 


प्रथ कारकगढमाह-- 
पिबतो वारि तवास्यां सरिति श्रवेण पातितौ केन । 
वारि शिशिरं रमण्यो रतिखेदादपुरुषस्येव ।३०॥। 


पिबत इति 1 करिचत्क चिदाह्‌- तवास्यां सरिति नद्या श्रवेण वधंमानकेन 
भाजनविशेषेण जक पिबत्त- केन पातितौ । कौ पातिताविति साकाडक्षत्वात्कमत्रि गूढम्‌ ! 
तच्चैवं प्रकटमू-हे एण मृग, तवास्या सरित्ति वारि पिबत केन शरौ बाणौ पातिता- 


कारकगरूढ का उदाहरण- 
श्न्वय-प्रथस दो पाद (कमगूढ) 
तव अस्या सरिति शरावेण वारि पिवत केन पातितौ ? 
कर्मस्पष्टता--एण' ¦ तव अस्या सरिति वारि पिबतः केन शरौ पातितै | 
अन्वय--अन्तिम दो पाद (क्ियागूढ) 
रमण्य. रतिखेदात्‌ शिर्षिर वारि अपुरुषस्येव । 
क्रियास्पष्टता--रमण्यः रतिखेदातु उषसि एव शिशिर वारि अपु. । 
कठिन पदों के अथं 
सरिति- नद्याम्‌ 1 
रारवेण--वधंमानकेन, पात्रविशेषेण । शरौ- बाणौ । 
एण-हे मृग 1 रिश्षिरम्‌-रीतलम्‌ । 
अपु पीतवत्यः । उषसि--प्रभाते । 
प्रथम दो पाद 


इस नदी से श्राव (पान्न) से तुम्हारे जल पी रहे होने पर किसने [ दोनो को] 
निराया 1 “किन दोनो को' इस आकांक्षा मे उत्तर है करिह भग ! वुम्हारे इस नदी में 
जल पी रहै होने पर किसने दो-बाण भिराये है ¦ 
अन्तिम दो पाद 


ग्रथम ्रथ--रमणियो ने रति-घस के कारण अपुरुष की भाति शीतल जक पिया । 


दूसरा अथ--रमणियो ने रतिम के कारण प्रातःकार ही शीतल जछ 
पिया 1३०। 


१४६ काव्यालद्खारः [ कारिका २६-२८ 


प्रच्छन्नत्वादवतस्तद्गूढे कारकक्रियान्तरयोः । 
प्रष्नानां च बहूनामृत्तरमेकं भवेद्यत्र । २६॥। 
प्रनोत्तरं तदेतद्‌ व्यस्तसमस्तादिभिभवेद्‌ बहुधा । 


मेदैरनेकभाषं* ˆ~" ~" व भिद्यते । २७ ॥ 
मात्राविन्दृच्यवनादिति । प्रच्छन्नत्वादिति । प्ररनोत्तरमिति माच्रायाः स्वरस्य, 

तथा विन्दोरनुस्वारस्य च्यवनाद्श्र शाद्धेतोरन्याथत्वेन भिन्नाभिषेयत्वेन तच्च्युते मात्रा 
विन्दुच्यूते भवतो नाम । प्रहैलिका द्धा 1 स्पष्टप्रच्छन्नार्था व्याहूतार्था च। तत्र 
स्पष्ट. पदारूढत्वात्प्रच्छन्तश्च प्रंरनवाक्य एवान्तगंतत्वेन भ्रमकारित्वादर्थो यस्याः सा 
तथाविधा । तथाक्नाधारणविरेपणोपादानादेवाधिगतत्वेनाग्याहूतः । साक्षादनुक्तोऽ्थो 
यस्या सा तथाभूता द्वितीया । तथा कर्वादिकारकाणा गूढत्वादप्रकटत्वात्कारकगूढम्‌ 1 
क्रियापदाना तु प्रच्छननत्वात्करियागूढम्‌ । तथा प्रदनोत्त रमेतद्यत्र वहूना प्रदनाना वचन- 
स्यातन्त्रत्वादेक्रस्य दयोर्वेकमेवोत्तर भवेत्‌ ! एतच्च प्रदनोत्तर व्यस्तस्षमस्तादिभि आदि- 
ग्रहुणाद्गतप्रत्यागतंकालापकप्रतिखोमानुलोमादिभिभदतहुधा भवेत्‌ । त्थंकभापत्वेनानेक- 
भापत्वेन च भिद्यते 

तरघुनैतेषामेव यथाक्रममेकैकमुदाहरसयं दिक्मदशंनार्थमाह- 

नियतमगम्यमहर्यं भवति किल चस्यतो रणोपान्तम्‌ । 

कान्तो नयनानन्दी बालेन्दुः खेन भवति सदा।। २८ ॥ 


मान्ना (स्वर) के रश्च [ह देने ] से जहां अथं बदल जाए उसे मात्राच्युतक 
कहते है, ओौर अनुस्वार के हटा देने से जहाँ श्रथं भिन्न हो जाए, उसे निन्दुच्युतकं 
कहते है, प्रहेलिका के दो भेद है--१. स्प्ट-प्रच्छन्ार्था गौर २. व्याहूतार्था ¦ जिसमें 
स्पष्ट होते हृए भी [प्रन रूप होने से] अथं गढ हो उसे स्पष्ट-प्रच्छन्तार्था कहते है । 
इसमे प्रद॑न वाक्य मे ही उत्तर छिया हज है ! जिसमे अर्थं स्पष्टतया न बतलाया जाए 
किन्तु उसमें एेसा असाधारण विक्ेषण दिया हुमा हो, जिसमे अर्थं स्वयं ध्वनित षो 
जाए उत्ते व्याहृतार्था प्रहेलिका कहते हैँ । इसमें ध्वनित होने वाक्ते अथं का वाचक 
दाब्दं नियत नहीं होता, उसका पर्यायवष्ची श्चण्द भी लिया जा सकता है । 

जिसमे कर्ता जादि कारक प्रच्छन्न हो उसे कारक गढ कहते है भौर जिसमें 
क्रिया गुप्त हो उसे क्रियागूढ कहते है 

जहां बहुत से प्र्नो का एक ही उत्तर हौ उसे भरश्नोत्तर कते ह । व्यस्तः 
समस्तं आदि (गतश्रत्यागत, एकाजापक, प्रतिलोमः, अनुलोम आदि) इसके अनेक भेद 
हैँ । सावाकी हष्टि से इसके [एकभाषागतः, | अनेकभाषागत कई भेद है ।२५-२५७। 


कारिका २८ | पच्चमोऽध्यायः १४७ 


नियतेति 1 चध्यतो बिभ्यतो नरस्य 1 किलेत्ति सव्ये । रणोपान्त समरनिकटं 
नियतं निरिचतमगम्यमप्राप्यसहदयमनवल्ोकनीय भवति । इत्येकवाक्या्थंः । अनच्र मात्रया 
ककारगनेकाररूपया च्युतयान्य एवार्थो भवति मात्राच्युतके च सवत्र मात्रापगमेऽप्य- 
कारान्तत्वावस्थितिः । उच्चारणार्थत्वादकारस्य । ततच्रान्योरऽ्थो यथा-- कलत्रस्य दाराणां 
तो रणोपान्त तो रणनिकट राजपथो नियतमम्यमहर्य च भवतति । कुखवभरुत्वादिति । 


विन्दच्युतकमाह-कान्त इत्यादि ! करचित्कचिदाह्‌-एष बाखेन्दुरपूर्णचन्द्रः खे वियति 
मेदो के उदाहर्स- 
चछस्वय-- प्रथम दो पाद 
त्रस्यतः किर रणोपान्त नियतम्‌ अगम्यम्‌ अहर्य भवति । 
माना-च्युति में अन्वय- 
` कलत्रस्य तोरणोपान्त नियतम्‌ अगम्यम्‌ अहस्य भवति । 
छ्रन्वय--अन्तिमि दो पादं 
कान्तः नयनानन्दी बालन्दुः ते सदा न भवति । 
विन्दुश्युति मे अन्वथ-- 
वाक्ते ! नयनानन्दी कान्तः सदा दु.खेन भवति 1 
कठिन पदों के अथं 
नियतम्‌--अवश्यम्‌ । 
रणोपान्त-समरसमीपेऽवस्थानम्‌ 1 
तोरणोपान्तमु-तोरण-निकेटम्‌ । 
कान्त.--सुन्दर , पति" ।! बाङन्दु.--अपूणं चन्द्रः । 
प्रथम दो पाद--, 
मीर मनुष्य के लिए युद्ध के समीप रहना अथवा उसे देखना भी कठिन तथा 
मयकारी होता हे! | 
किल" चान्द की इ' मात्रा हृटा देने पर द्वितीय अर्थ-- 
किसी कुलवतरु का नगरद्वार के पास राजपथ पर चलना कठिन होता है । 


एसे स्थान को देखने मात्रसे भी उसे र रगता है । 
अन्तिम दो पाद- 


नेनों को आनन्द देने वाला सुन्दर बाल-चन््रमा सदा आकाश मे नहीं 
रहता 1 


"बालेन्दु ' चन्द मे विन्दु (च्‌) हटा देने से हएितीय अर्थं-- 


है नाकं 1 नथनों के लिए आनन्ददायी नायक (पति) फठिनता से मिलता ह 
[ इसलिए कमी इसका तिरस्कार न करना] 1२८! 


१४८ कानव्यालद्ुर | कारिका २६ 


सदा न भवति । कान्त कमनीयः । अतएव नयनानन्दी नयनानन्दकरः । अत्र विन्दी 
च्युतेऽ्थान्तिर भवति । इट काचित्सखीमाह--हे वां मुग्धे, कान्तो वत्लमो नयनानन्दीं 
दु छेन क्लेनेन भवति सदा । तसमान्मेन तिरस्कार्पीरिति गेपः । व्यजञ्जनच्युतकाक्षर- 
च्युतकेत्यादिग्रहणास्स ग्रहीते तदुदाहरणे अप्यनर्यव दिया द्रष्टव्ये ॥ 


द्म स्पष्टगप्रच्छन्नाथ प्रहलिक्रामाह 


कानि निकृत्तानि कथं कदलीवनवासिना स्वयं तेन । 
कृथमपि न॒ हश्यतेऽसावन्वक्षं हरति वसनानि ॥२६॥] 


कानीति ! कदटीवेनवासिना रम्भावनगतेन नरेण कानि निकृत्तानि कानि 
च्छिन्नानि | कथ केन प्रकारेणेति प्रष्ने । स्पष्टोऽपि प्रच्छनोऽ्थ. । स चायमू-- कानि 
निरासि मस्तकानि निकृत्तानि । कथम्‌ । कदलीव रम्भेव 1 केन ¡ असिना खद्धन | 
कियन्ति । नव नवसख्यानि । स्वयमात्मना । तेन दनाननन । कथंयब्दोऽत्र विस्मये । 
चिच्रमिदं गरस्त्वय तृणराजवदात्मनः थिरसि च्छिन्नानीत्यधः । प्रच्नोत्तरातत्वस्या अयमेव 


[0 का 2 7 ह १ 7 7 । 


त्पष्ट-प्रच्छुन्नायथं प्रहलिक्रा का उद्ाहट्ए- 
छअन्वय-- प्रथम टे पाद्‌ 

(प्रच्न) कदटीवनवासिना तेन स्वय कानि कथं निकृत्तानि ! 

(उत्तरम्‌) कथे तेन स्वयं असिना नव कानि कदङीव निकृत्तानि । 
प्रन्वय-अन्तिसि दो पाद 

असौ अन्वधं चसनानि हरति, कथमपि न ह्यते 1 
कठिन पदों के अथं 

कानि-कानि वस्तूनि ? निरास्षि (कम्‌ =चिरः) । निक्ृत्तानि- छिन्नानि । 

कर्थ--केन प्रकारेण, अहो चिम । 

कदलरी व--रम्भेव । अन्व्म्‌--ग्रव्यक्तम्‌ । 
प्रथम दो पादं 

म्रधम अथ कदली वन-निवासी उस मनुष्य ने स्वयं किस प्रकार क्या वस्तुए 
काट दीं! 

दूसरा त्रथं-- [रावणे] स्वयदही खड्ग द्वारा अपने नौ सिर कदली वृक्ष 
की माति कार दिये! 
अन्तिम दो पाद 

वह्‌ कौन दहै जो जलो के सामने ही वस्त्र चुरा रेता है ओर दिखाई मी नहीं 
देता । (उत्तर = वधु) २६। 


व ~ 
॥) 1 1 हथ | 
। । 


कारिका ३० | पच्चमोऽध्यायः १४६ 


विक्ञेषो यस्प्रह्नवाक्येनैवोत्तरदानम्‌। अथ व्याहूतार्थामाह--कथमपीत्यादि । असौ करिच- 
दन्वक्षं प्रत्यक्षमेव वसनानि वस्त्राणि हरति । अथ च कथमपि नं दृश्यते नावलोक्यते । अतः 
कोऽयं स्यात्‌ 1 भच्रासाधारणविरेषणोपादानाद्वायुरिति गम्यते । नान्यस्य चौरादेरेवविधा 
दक्तिरिति । प्रश्नोत्तराच्चास्या वायुर्वातः समीर दत्याद्यनियतशन्दत्व विरेषः ॥ 


त्रथ कारकगरढमाह-- 
पिबतो वारि तवास्यां सरिति श्रावेण पातितौ केन ) 
वारि शिशिरं रमण्यो रतिखेदादपुरुषस्येव ।}३०।। 


पिवत इति ¡ करिचत्क चिदाहु- तवास्यां सरिति नद्या शरवेण वधंमानकेनं 
भाजनविशेषेण जर पिवत केन पातितौ । कौ पारतिताविति साकाइ्क्षत्वात्कर्मात्र गूढम्‌ । 


तच्चैवं प्रकटम्‌--हे एण मृग, तवास्या सरिति वारि पिबत केन शरौ बाणौ पातिता- 


कारकगरूढ क उदाहर्य- 
अन्वय प्रथम दो पाद (कमगूढ) 
तव अस्या सरिति शरवेण वारि पिवत केन पातितौ ? 
| कमस्पष्टता--एण ¦! तव अस्या सरिति वारि पिवत. केन शरौ पातितौ । 
अन्वय --अन्तिम दो पाद (न्ियागूढ) 
रसण्य रतिखेदापु शि्लिर वारि अपुरुषस्येव । 
क्रियास्पष्टता--रमण्यः रतिलेदात्‌ उषसि एव शिशिरं वारि अपु । 
कठिन पदों के अथं 
सरिति-नदयाम्‌ 
दारावेण-वधेमानकेन, पात्रविरेषेण 1 रारौ-बाणौ । 
एण-हे मृग । शिरिरम्‌-शीतलम्‌ । 
अपु--पीतवत्यः । उषसि-- प्रभाते । 
प्रथम दो पदि 


इस नदी भें शराव (पात्र) से तुम्हारे जल पी रहे होने पर किसने [ दोनो को ] 
गिराया 1 किन दोनों को' इस आकांक्षा सें उत्तर है किह भग] वुम्हारे इस नदी में 
जल पी रहै होने पर किसने दो. बाण गिराये है । 
अन्तिमः दो पाद 


म्रथम च्रथ-रमणियो ने रति-श्वम के कारण अपुरुष की माति शीतल जल पिथा। 


दूसरा अथ--रमणियो ने रतिश्रमके कारण प्रातःकाल ही शौतल जल 
पिया 1३०। 


१५० कान्यारद्धार | कारिका ३१-३२ 


विति । अथ क्रियागूढप्रू-वारि शिशिरमित्यादि । वारि जलम्‌, श्िनिरं शीतलम्‌, 
रमण्यो नार्यः, रतिदेदान्तिधुवनायासादपुरुपस्येव । भत्र क्रिया गुप्ता । सा चेयम्‌--रमण्यो 
रतिखेदाद्वारि रिशिरमृपस्येव प्रभात एवापु" पीतवत्यः ॥। 

अथ श्रद्नोत्तरमाह-- 

उद्यन्दिवस्करोऽसौ कि कुरुते कथय मे मृगायाञ्ु । 

कथयानिन्द्राय तथा कि करवाणि क्वणितुकामः | ३१।। 

ग्रहिणिवकमलदलारुणिण माणु पफुरत्तिण कंण। 

जाणिज्जई तरुणीश्रणस्स निद्धा (?) भण भ्रहुरेण ।३२॥ 

उद्यन्निति । अहिणवेति । करिचन्मूखंत्वेन मृगः सन्कचन पृच्छति- यथा मह्य 

मरमाय त्वं कृश्रय । एष दिवसकर. सूयं उद्यन्तुदय प्राप्नुवन्कि कुरुत इत्येक. प्रद्नः । यप- 
रमाह-अनिन्द्रायाक्राय मह्य कथय निवेदय । क्वणितुकामः शव्दितुकामः सन्नह 
किं करवाणि किं करोमीति द्वितीय. । उत्तरानुरोधेन चात्र मृगायेत्यनिचायेति च प्रभ्न- 
वाक्येऽभिहितमू । वक्तृवहूत्वख्यापना्थमनेकभाषत्वख्यापनार्थं तृत्तीयप्रश्नोऽय प्राकृते च 
यथा-अहिणवेत्यादि । करिचस्युहुदमाह-अ्भिनवकमर्दलारुणेन स्फुरता केन तरुणी- 
जनस्य मानो खक्ष्य इति भण वद । निद्धेत्यामन्तरणपदम्‌ (?) 1 अवर यथाक्रमं यथाभापं 


म्रश्नोत्तर का उदाहरख- 


श्न्वय--(प्रचनाः) मृगाय मे आच कथय, असौ दिवसकरः उदच्‌ कि कुरते ? 
तथा अनिन्द्राय (मे) कथय, क्वणितुकामः कर करवाणि 1 अभिनवकमल-दर-अरुणेन 
स्फुरता केन तरुणीजनस्य मानः जाणिज्जरई, निद्धा ! भण । (उत्तराणि-) 'अह्रेणः । 
कठिन शष्दों के ध्र्थ-- 

अनिन्द्राय--न इन्द्राय । क्वणितुकामः--शल्दितुकामः । 

भहरेण- 

१. अह्‌.-{एण- दिनम्‌, हे मृग ! 

२. अहरे-~-अण- हे अनिन्द्र (न इन्द्र), दाब्दं कुर । 

३. अह्रेण-अधरेण । 

(१) मन्न (मरगको) शीघ्र वतामो कि सूर्यं उद्य होकर क्याकरतादहै। 
(२) मृ्च अनिन्द्र (न इन्द्र) को वताभो कि शब्द करने ङे लिए इच्छक मे 
क्या फरू । 


(३) एक व्यवित अपने भित्र से पुता है-- नवीन कमक्दल के समान अरण 
तथा श्रोभायमान किसने तर्णियों के मान को लक्ष्य बनाया है । 


कारिका ३३ |] पच्चमोऽध्यायः १५१ 


चोत्तरमाह--अहरेणेति । तत्र--अहर्दिनम्‌ । एण हे मृग । तथा अहरेऽनिन्द्र । अण शब्दं 
कुरु । तथा प्राकृतोत्तरम्‌--अहरेणाधरेण । ओष्ठनेत्यथं. इत्युत्तरत्रयं युगपदुक्तम्‌ । एत- 
दनेकवक्तृकमनेकभाष ग्यस्तसमस्त च प्रदनोत्तरम्‌ । एकवक्तृक त्यादिभाप च प्रश्नोत्तर- 
जात्तमन्यत्रं विस्त रादवगन्तन्यम्‌ ।। 

अथाध्याययुप्हरन्नाह- 

इत्थं स्थितस्यास्य दिशं निशम्य सब्दाथं वित्क्षोदितचित्रवृत्तः । 


प्राखोच्य लक्ष्यं च महाकवीनां चित्रं विचित्रं सुकविविदध्यात्‌।।३३। 

इत्थमिति । अस्य चित्रस्येत्थ पूर्वोक्तप्रकारेण स्थितस्य दिश मागे निशम्य श्रुत्वा 
तथा महाकवीना छक्ष्यमुदाहरण चारोच्य विमृश्य तत सुकविरिचत्नमलकार चित्र नाना- 
विध विदध्यल्करर्याव्‌ । किविलिष्टः सन्‌ । शब्दार्था वेत्ति शब्दार्थवित्‌ । तथा क्षोदि- 
तानि पर्यालोचितानि चित्राणि नानाविधानि व्रत्तानि तनूमध्यादीनि येन स तथाविधः। 
यत किल न सर्वेण वृत्तेन सर्व चित्र कतु पायते । तथालोच्य वीक्ष्य, लक्ष्यमुदाहूरणम्‌, 
महाकवीना सुकवीनाम्‌ । चित्रकरणे किक लक्षणाभावाल्लक्ष्यदसंनमेव सहानुपाय इति 
छृत्वा ॥। 

इति श्रीरद्रटङते कान्यालकारे नमिसाधुविरचितरिप्पणसमेत. 
पञ्चमोऽध्याय. समाप्तः । 


दनं प्ररनो का उत्तर एक ही शब्द (अहरेण) मे यथाक्रम दिया गया हैँ ; 
(१) बहरेण (अहः +- एण) । 
ह भग { सुयं उदित होकर दिन करताहै। 
(२) अह्रेण (अहरे+-अण) 
है अहरे ! (अनिन्द्र) । अण (श्रब्द करो) । 
(३) महरेख (अधरेण) 
अर्थात्‌ ओष्ठ ने [्ुभ्बन दारा] तरुणियों के मान को लक्ष्य बनाया 
है ।३ १-३२। 


इति "अंगुप्रभा'ऽऽख्य हिन्दी-ग्याख्यायां पञ्चमोऽध्याय. समाप्तः । 


पठोऽध्यायः 


शब्दस्यालकारानभिधायेदानीं तहोपानाभिधिल्युदह- 
पदवाक्यस्थो दोषो वाक्यविरोषप्रयोगनियमेन । 
यः परिहूतस्ततोऽन्यस्तदतिव्याप्तिश्च संहिते 11१11 
पदवाक्यस्थ इति । पूर्वम्‌ 'अन्यूनाधिक-' (२।८) इत्यादिना ्रन्थेन काव्योपयो- 
गिनो वाक्यविशेषस्य प्रयोगे नियमेन यः पदस्थो वक्यस्थश्च दोप परिहूत ततो दोपा- 


षड अत्याय 


सद्रटने (का०अ० २/८ मे) वाक्यका लक्षण निर्दिष्ट करते हए कहाथा 
किं किसी वाक्ष्य मे त्युनपद अथवा अधिक पद नही होने चादििएु । अव वहु उक्तदो 
दोपों के अतिरिक्त कृतिपय अन्य दोषों की चर्चा करते है। 

इस प्रव्याय मे त्रसम्थं, प्रतीत, विसन्धि, विपरीतकत्पन, याम्य त्रोर 
देश्य नाम [पदगत दोषों तथा संकीरं, गर्भित च्रौर गतार्थं नासके वाक्य-दोपों 
का निरूपण किया गया हे, तथा दोप क्रिस स्थिति मेँ दोप नह रहते, इत पर 
भी किञ्चित्‌ प्रकाश डाला गया हे || 

काव्यशास्त्रीय ग्रन्थो मे भरतके समयसे ही दोष के सम्बन्ध मे चर्चा प्रारम्भ 
हो चटी थी । रद्रट से पूवं भरतने १० दोष माने थे, भामह ने २५, दण्डी ने १० भौर 
वामन नै २०1१ रद्रट नै २६ दोष गिनाये है 1२ इनके उपरान्त आनन्दवर्दन ने रस- 
विरोधी ९६ तत्त्व शिनाये> । महिम भट ने दोप के स्थान पर अनौचित्य' चन्द का प्रयोग 
करते हुए इसके दो प्रकार वताये--अन्तरंग (अ्थंविषयक) ओौर बहिरग (शब्दविषयक) । 
अन्तरग अनौनचित्य से उनका तात्पयं है--रसो मे विभाव, अनुभाव बौर व्यभिचारि- 
भाव का अनुचित विनियोग (प्रथोग) 1 वहिरग अनौचित्यं के अन्तगंत उन्होने पाच 
दोषो का निरूपण किया है ।* इनके उपरान्त मस्मट ने उक्त सभी आचार्यो से दोष- 
विषयकं सामग्री ग्रहण करते हुए उसे व्यवस्थित रूप प्रदान किया । उन्होने कुरु ७० 
दोष गिनाये है--१६ पदगत, २९१ वाक्यगत, २३ अर्थगत ओर) १० रसगत । ५ 
१. (क) नास्यशास् १।२७, ४७; ४1१; ५।६७, (ख) काव्यादशं २।१२६, (ग) काव्यालंकारषत्र 

२।१, २। 

, देखिए प्रस्तुत यन्थ २।८; ६।२, ४०, १९१।२। 
, ध्वन्यालोक ३।१८, १६ । 
„ व्यकितिविवेक र्य विमशं । 
, कान्यप्रकाश सप्तम उल्लास । [विशेष विवरण के लिए दैखिए काव्यप्रकाश सप्तम उल्लास] 


० ९४ ९ 


ह 


^ 


कारिका १ | वष्ठोऽध्यायः १५३ 


सुद्रट ने "दोष" का लक्षण कही भी स्पष्ट शब्दो मे प्रस्तुत नही किया । इनसे 
ूर्ववर्ती आचार्यो मे से भरत ने भी इसका स्पष्ट रक्षण प्रस्तुत नही किया । उनके 
कथनानुसार गुण दोपो से विपर्यस्त है । (नाट्यशास्त्र १७।६५), पर वामन की धारणा 
भरत से विपरीत है! इनके कथनानुक्तार द्यष का स्वरूपं गुण से विपयंय है : शगुण- 
विपर्य्याऽऽत्मनो सोषा. का० सू० २।१।१ 1 दण्डीने भी दोष का स्वरूप गुण के विप- 
रीत भाव पर अवस्थित किया है--“गुण यदि काव्य की सम्पत्ति अर्थात्‌ सौन्दयं-विधा- 
यक तत्त्व है तो दोष उसकी विपत्ति अर्थात्‌ सौन्दयं-विघातक तत्त्व है--'दोषाः 
विपत्तये तत्र गुणाऽसम्पत्तये यथा ।' (का० द०, प्रभारीका, पृष्ठ ३७४) आगे चरकर 
आनन्दवर्धन ने दोप कां स्वरूप रस के अपक्षं पर स्वीकृत किया । जो दोषरसका 
सदा अपकपं करता है, उसे उन्होने नित्य दोष माना ओरजो दोष रस का सदा अपकषं 
नही करता उसे अनित्य दोष माना । (ध्वन्यालोक २।११, ३।१८, १६) इनसे प्रेरणा 
प्राप्त कर मम्मटने दोपका लक्षण इस प्रकार स्थिर किया--मूख्याथहति्दषि. ।' 
यहाँ “मुख्य' शब्द रस का पर्याय है ओर "हति" शाब्द अपक्षं का । विश्वनाथ ते इस 
लक्षण को स्पष्ट शब्दो मे निरूपित किया--रसापकषंकाः दोषाः । 
दोप के संम्वत्धं मे एक शंका उपस्थित होती है कि क्या यह्‌ सदा अग्राह्य? 
इस सम्बन्ध मे आचार्यो का एकमत नही है । दण्डी के अनुसार कान्यमे दोषका 
रेर-मात्र भी सह्य नही है । इवेत कुष्ठ के एक [छोटे से] चिह्व के कारण सुन्दर शरीर 
भी अपनी कान्तिखोवैस्तादहैः 
तदेत्यमपि नोपेक्ष्यं काव्ये दुष्टं कथंचन । 
स्याद्‌ वपु. सुन्दरमपि दिवत्रेणेकेन इर्भगव्‌ ॥ का० द० १।७ 
इसी प्रकार केरवमिश्च ओर वाग्भट भी इसी पक्षमे है । केशवमिश्च के शब्दो 
मे-दोप रस का हानिकर होने के कारण सर्वथा त्याज्य है : "दोष. सवत्मिना त्याज्यो, 
रसहानिकरो हि स ।' (अक्कारशेखर ६।४०), ओौर वाग्भट के शब्दो मे--दोष विप 
के संमानः: 
इति दोषविषनिषेकरकलंकितमुज्ज्वलं सदा विबुध. । 
कविहूदवयसागरोत्थित्तममृतभिवास्वाद्ते कान्यम्‌ \। 
प्रस्तुत्त ग्रन्थकार सद्रट भी निरलकरृेत कान्य को भी मध्यम कान्य तभी मानने 
को उद्यत है जव वहु दोपरहित हो : 
यल्पुनरनलक्रारं निदोषि चेति तन्सध्यमभ्‌ ! का० अ० ६।४ 
किन्तु उधर भरत का दृष्टिकोण उदार ओर क्षमापूणे रहा । सदोप नाटक 
(कान्य) के सम्बन्व मे उनका कथन है कि दोषो के सम्बन्य मे किसी [माटोचक 
को अधिक मवेदनद्यीर नही हो जाना चाहिए, क्योकि ससार का कोई भी पदार्थं 


१५४ कान्यारुद्धारः [ कारिकां { 


गुणहीन अथवा दोपहीन नही हे : 
न च किचित्‌ गुणहीनं दोषैः परिर्वजितं न वा किचित्‌ । 
तस्मान्नाट्थप्रकृतौः दोषाः नत्यथतो ग्राह्या. ॥ नाद्यज्ञास्त्र १७४७ 


गौर आगे चलकर विदइ्वनाथ भी [वाहे उनका लक्ष्यं मम्मट के काव्यलक्षणका 
जान-वूदयकर वुरी तरह से खण्डन करना था] सदोप काव्य को सर्वथा अग्राह्य नही 
मानत्ते । अनार के दो-बार गर-सडे दानो के कारण सारा अनार फक नही दिया 
जाता । उनके कथनानुार यदि निदषिता को कान्य का अवक्ष्यक तत्त्व ठहराया 
जाएगा तो कानव्यया तो अविरल्विपय वन जाएगा अथवा निधिपय । वयोकि किसी 
कान्य का सवथा निर्दोप होना नितान्त असम्भव है--“किच एव कान्यमनिरल्विपयं 
निविपय वा स्यात्‌, सर्वधा निर्दोपस्यकान्तमसम्भवात्‌ | (सा० द० प्रथम परि० 
पृष्ठ १४) निस्सन्देह कोई भी अनतिवादी उ्दारचेता व्यविति भरत भौर विद्वनाथकी 
उक्त धारणाभो से असहमत नही होगा, गौर किसी अन्नात बाचायं के निम्नोक्त कथन 
से भी गायद सहमत न होगा कि अन्यो गुणोऽस्तु वा माऽस्तु, महन्‌ निदोषिता गुणः 

क्योकि एक तो निर्दोषता का निर्वाह एक अस्नम्भव-सा कायं है, गौर दुसरे शास्त्रीय 
दृष्टि से किसी रसयुक्त र्ना मे गुण के अभाव का प्ररन ही उपस्थित नही होता । 


दोष्-प्रस्तावना 

[ काव्योपयोसी | वाक्य-विद्ेष के प्रयोग के नियम से पदगत ओर वाक्यगतं 
दोषों के परिहार के सम्नन्थ मे पहर कहु चुके ह (देल्लिए २।८) 1 इन दोषों के अति- 
रिक्त अब अन्य [असमथं अप्रतीत आदि] दोषों जर उनकी अतिन्याप्ति के परिहार 
फे सम्वन्धमें कहा जाता हे ।९। 

'अतिन्याप्ति' से तात्पयं है वह्‌ तत्त्व जो अभीष्ट से अधिक कहा जाए । इस 
स्थल मे "अतिन्याप्ति' शब्द उस प्रसंगका सूचक प्रतीत होता है जहाँ ये असमथः 
अप्रतीतं आदि दोष 'दोष' नही रहते--क्योकि इस प्रसग की भी चर्चा इसी अध्यायमे 
कीगयीदहै। 

नमिसाधु ने यहा एक शका उपस्थित की है कि पहर (२) मे) वाक्यगतं दोप 
ही निर्दिष्ट किये है पदगत नही, अतः इस कारिका मे 'पदवाक्यस्थो दोप." एेसा कहना 
ठीक नही है । इसका उत्तर उन्होने यह्‌ दव्ियाहै किं यही दोष पदगतभी होतेह) 

प्रसंगवद्यात्‌ इसी आक्षेप के भी टीक्‌ विपरीत एक अन्य आक्षेप भी विचारणीय 
है किं वाक्यदोपो का अन्तर्भाव पददोपोमे दही किया जाना सम्भवदहै, क्योकि एकं 
तो पदसमूह का ही नाम वाक्य है: “दस्रमहो वाक्यम्‌", ओौर दूसरे, किसी भी वाक्य- 
दोप द्वारा वाक्य के अनिवायं ततत्तो--आकाक्षा, योग्यता ओर आसत्ति-मे से किसी 


कारिका २-३ | षष्ठोऽध्यायः १५५ 


दन्योऽसमर्थाप्रतीतादिकः समिति सप्रति ह्यते पररिंियते 1 तथा तस्मान्न्यूनादिकस्या- 
समर्थादिकस्य च दोषस्य यातिन्याप्तिरतिप्रसक्ति. सा च सद्धियते सकोच्यते । नयु पूर्वत्र 
वाक्यस्थ एव दोप. परिहृतो नं पदस्थस्तत्कथमिहोच्यते पदवाक्यस्थ इति ! सत्यम्‌ । 
अन्यूनाधिकविशेषणविशिष्टैः पदै्वाक्ियस्य नियमितत्वात्पदस्थोऽपि दोषस्तेन परिहृत 
एवेति 1 तहि पदग्रहणमच्र न कर्तव्यमाशङ्धानिरासार्थम्‌ 1 यततः करिचदाश येतत यथा 
वाक्यस्थ एव दोषस्ते परिहृतो न पदस्थ इति । तथा पदग्रहणाभावे ततोऽन्य इति । 
वक्ष्यमाणदोषोऽपि पदस्योक्तो न स्थादिति ! परथक्करण तु तस्य दोषस्य महीयस्त्वस्या- 
पना्थम्‌ । स्यूनाधिकादिदोपो हि नेत्रोत्पाटतुल्य । असमर्थादिकस्तु पटरनिभः ॥ 

प्रथ तनेवान्यान्दोषानाह-- 

प्रसमथंमप्रतीतं विसंधि विपरीतकल्पनं प्राम्यम्‌ । 

ग्रव्युत्पत्ति च देश्यं पदमिति स॒म्यरभवेद्‌ दृष्टम्‌ ।२।। 

अप्तमथंमिति । इतिशब्दो हेतौ, स च प्रत्येक संवध्यते । असमथंमिति हेतोः पदं 

दृष्ट भवेत्‌ । एवमप्रतीतभित्यादौ वोध्यमु ! सम्यक्‌शन्दो नियमाथं 1 अवद्य दृप्टमित्य्थ"। 
चराब्दः समुच्चये । अन्ये रनुक्त व्यृत्पत्तिहितं देद्यमसमर्थादिदोपमध्ये समुच्चीयतइत्यथः।। 

यथोदैशस्तथा लक्षणमिति पृव॑मसमयलक्षरमाह- 

पदमिदमसमथं स्याद्राचकमथंस्य तस्य न च वक्तुम्‌ । 

तं शक्नोति तिरोहिततत्सामर््यं निमित्तेन ।३॥ 


कोभी हानि नही पहैवती, जिससे शान्द-ज्ञानमे देर होने की सम्भावना हो जाए) 
इस आपत्ति का समाधान भी ^रस' की ही भनुक्करृष्टता पर जाधृतत है । साधारण 
वाक्यो की अपेक्षा कान्यगत सरस वाक्यो की वस्तुगत सामग्री गौर अ्थभ्रतीतिमे सदा 
विलक्षणता रहती है 1 वाक्यदोषो के उदाहरणं मे आकाक्षा आदि तीनो तत्त्वों के 
विद्यमान रहने पर भी वे रसोत्पादन मे समर्थं अनूक्ुलता से शून्य होते है : 

ननु कथममीषां दोषता, आकाक्लादिज्ञनसच्वे चाब्दज्ञानाविलम्बादिति चेन्न । 
वाक्यान्तरपेक्षया कव्ये सामग्रीचंलक्षण्यात्‌ ! अन्यथा प्रतोतिवंलक्षण्याऽनुपपत्तेः । तथा 
चाऽन्वयबोधानुक्रुलाकाकषासस्वेऽपिरसोत्पत्यमुद्रुलाकांक्षादिविरहमो दोष इति ध्येयम्‌ 1 

---अ० दो ५। पृष्ठ २० 

वाक्य-दोपो को पददोष भी नही कहं सकते है, बयोकि इन उदाहूरणो मे सभी 
पदो के निर्दोष रहते हुए भी वाचय सदोष होते है । 
पद्गत दोपों के नाय 

असमर्थ, प्रतीत, विसन्धि, विपरीत-कल्पन, ग्राम्य ओर भअव्युत्पत्िपरक 
देदय--ये (छह) पदगत दोष ह ।२ 


। 


॥ ^ 1 


१५६ कान्याखद्भुारः [ कारिका 


पदमिति । यत्पद तस्य निदिष्टाथस्य वाचकम्‌ । अयच तमेवार्थं ववतून 
दाक्नोति तदसमर्थम्‌ 1 वाचक चेत्कथं न दावनोतीव्याह--निमित्तेन केनचिच्छन्दान्तर- 
सवन्धादिना तिरोहितं स्थगित तत्रार्ये सामर्थ्यं वाचकत्व यस्य तत्तमभिवातु न दाकनो- 
तीति 1 एतेनावाचकत्वदोपादसामर्थ्यं दोपभेद उक्त ॥ 
सामान्येनाभिधायैतदेव वि्पेखाह- 
धातुविशेपोऽथन्तिरमुपसगं विशेपयोगतो गतवान्‌ । 
प्रसमथेः स स्वाथे सवति यथा प्रस्थितः स्थास्नौ 11८] 
धातुविशेप इति । ध तुविगेपस्तिष्ठत्यादित्पन्नगं विशेषेण प्रादिना योगतः 
सवन्धाद्धेतोरर्थान्तर गतिनिव्रत््यादिलक्षणादन्यमर्थ गत्तवान््राप्तः सन्स्वार्थेऽसमर्थो भवतति 
तमर्थं वक्तु न वक्नोतीत्व्थ" यथा प्रस्थितगन्दः स्थास्नावर्ने । विधेषग्रहणमुभयत्र त 
सर्वो धातु" सर्वेणोपसर्गेण सवन्ये सत्यर्थान्तर याति । यपि तु करिचिदेव कैनचिदेवेत्य- 
स्यार्थस्य सूचनाथंम्‌ । तथाहि प्रेण योगे तिष्ठत्यादिरेवार्थान्तिरं यातिन तु यातिप्रभृतिः। 
तथा तिष्ठतिरपि प्रण योगे न त्वनादिना । आकुलनिधनादीनि कधी तकार्तस्वरवच्छ- 


व्दान्तराण्येवं 1 न नामोपसगवोग उदाहतं ॥ 


2. श्रसमर्थ 

जो पद किसी अभीष्ट अर्थं का वाचक होता हुजा मी [किसी दूसरे शब्दं फे 
आ पड़ने के कारण ] अपनी शक्तिखो जनेसे उस अथंको कहने में समर्थं न रहै, 
वह असमथ" दोष होत्ता हं 1३1 


प्रमथ का विशेप निरूपण 

कोई विशेष घातु किसी विन्ञेब उपस्र्गके योगसे ञन्य अ्थको प्राप्तहौ 
जाती है, [किन्तु] उसका अपने ही अर्थं में [ प्रयोग] "असमर्थं" दोष कहता है । जैसे 
“प्रस्थितः शव्द का अथं [ ष्चल पड़ा न होकर ] “ठहरा हृभा' मानना ।४। 

धातु ओर उपसग कै साथ 'विनेप' विगेषण जोड़ने का अप्रिप्राय यहुहै कि 
कोई धातु किन्ही उपसर्गो के योग से अन्य अथं को प्राप्त नही भी होती । उदाहरणार्थं 
स्था धातु के साथ श्र' उपसगे अन्य यथं श्रस्थान' को सूचित करता है, किन्तुशया 
घातु के साथ श्र' उपसग कायोग उसीदही अर्थं जाना' (प्रयातिः प्रयाण) काही 
सूचक है किसी अन्य अथं का नही । स्वय उक्त श्था' धातु के साथ अव' उपसग का 
योग ठह्रने अर्थं का सूचक है जैसे--“भवतिष्ठते", न किं किसी अन्य अथं का 1 अस्तु, 
उक्त नियम सापवादहै। 


कारिका ५-६ | षष्ठोऽध्यायः १५७ 


प्रकार न्तरेशाचसथमाह- 
इदमपरमसामर्थ्य धातोयेत्पठयते तदर्थोऽसो । 


न च शक्नोति तमर्थं वक्तुं गमनं यथा हन्ति ।५॥ 
इदमिति । इदमन्यदसामर्थ्य धातो , यत्त दर्थोऽसौ धातु. पठ्यते न च त निदिषप्ट- 
मर्थं वक्तु' शक्नोति ) यथा हनु हिसागत्यो. इति पाठेऽपि । हन्तीत्युक्ते हिनस्तीति 
प्रतीयते न च गच्छतीति । यमकरकेषचिवेपु गवत्यर्थोऽपि दृश्यते । अतत एवात्पोऽय 
दोपः ॥ 
पनः प्रकारन्तरसाह- 
, शाब्दप्रवृत्तिहेतौ सत्यप्यसमथेमेव रूढिबलात्‌ । 


यौगिकमथं विशेषं पदं यथा वारिधौ जलभूत्‌ ।1६।। 

दाव्देति \ यौगिक संबन्धज क्वचिदथंविशेपेऽसम्थंमेवावाचकमेव पदम्‌ । तत्र 
तदर्थस्याभाव इति चेन्न । शब्दप्रवृत्तिहैतौ सत्यपि विद्य मानेऽपि । अपिविस्मये । चित्रमिद- 
मित्यर्थ. ! यदि शब्दप्रवृत्तिहैतुत्वं कथ तद्य सम्थंत्वमित्याह--रूडिवलालप्रसिद्धिवखात्‌ । 
क्वचिदेव किंचिदेव शब्दरूपं वाचकत्वेन रूढमतस्तव्रैव प्रवर्तते नान्यत्र । एवकारोऽवधा- 
रणे । असमथंमेव न तु समर्थम्‌ । उदाहरण यथा वारिधौ जलभूदिति। जकधारण- 


क्रियालक्षणे प्रवृत्ति निमित्ते सत्यपि जरुभरच्छन्दो वारिधि समृद्रमभिघातुमसमथं 1 मेघ 
एव तस्य ूडित्वादिति ॥ 


्रसम्थं दोष करा एष च्न्यरूप 

किसी जथं-चिरेष के लिए परित होने वाली भी जो धातु उस अर्थं को नताने 
मे असमथं होती है वहाँ [ भौ] असमथे दोष समाना जाता है 1 जसे हन्ति गमन 
अथं में ।५। 

यद्यपि हन्‌ धातु का अर्थं हिसा ओर गति दोनो है, किन्तु हिसा अमे ही 
इसका प्रयोग किया जाता है अत "हन्ति" का 'गच्छत्तिः अथं मे प्रयोग असमं दोप 
का सूचक है! हन्ति" शाब्द के मुनते ही "हिनस्ति का बोध होने लगता है । फिर भी 
गति अथं मे इस धातु का प्रयोग यमक, रलेप ओौर चित्र अककासेमे प्रायः देखा 
जाता है" जौर वहा यह दोष सह्य भी है । 
तमथ का एक च्रौर प्रकार 

किसी मये-विशेष के प्रतिपादन के श्ञब्द की योग्यता होने पर रूढि (भ्रसिद्धि) 
के फारण जव यौगिक चन्द अपने अमीष्ट अर्थं को बताने में असमथं सिद्ध होता है, 
वहां भौ असमं दोष होता है--जते "वारिधि" अथं सें 'जलभृत्‌" 1६1 


१६० काव्यारुद्खुार. [ कारिका १०-११ 


तदेवोदाहरसमाह-- 
सा सुन्दर तव विरहे सुतनुरियन्मात्रलोचना सपदि । 
एतावती मवस्थां याता दिवसेरियन्मातरैः । १० 


सेति 1 अव्रेयन्मात्रैतावच्छब्दौ महति स्वल्पे च वर्तेते । ततोभिनयेन विशेषप्रती- 
तियंथा--हे सुन्दर, सा सुतनुस्तव विरहे इयन्मात्ररोचना 1 प्रसृत्यभिनयेन विश्ाकलो- 
चनेति निर्चीयते 1 तथैतावतीमवस्थां यातेति 1 अवरोर्ध्वङ्ितकनिष्ठिकाङ्गुत्या कृशत्वं 
प्रतीयते 1 दिवसंरियन्माव्ररित्यत्र पञ्चाङ्गुक्िदेनेन स्वल्पत्व चेतति 1 
अऋथाप्रतीतमाह-- 
युक्त्या वक्ति तमर्थं न च रूढं यत्र यदभिधानतया । 


देधा तदप्रतीतं संशयवदसंरायं च पदम्‌ ११ 

युक्त्येति 1 तदप्रतीत यचुक्त्या गुणक्रियायोगेन त॒ विवक्षितमर्थं वविति प्रति- 
पादयति 1 अथ च तत्रार्थाभिधानतया वाचकत्वेन न रूढ न प्रसिद्ध तच्चाप्रतीत द्ेधा । 
कृथं संलयवदसशयं चेति । 


नमिसाधु ने इसी परसग मे दो उदाहरण प्रस्तुत कयि है 

परकरण--पपुत्रवान्‌ भी उस सहीभरत्‌ (पृथ्वी को धारण करने वाते) की हष्टि 
उस सन्तान पर (उसे देखने से) तृप्त न हुई ।' यहाँ प्रकरणसे न्ातहोजातादहैकि 
"महीभृत्‌ का अथं कोई राजा विष ने होकर हिमालय पर्वत है । (कुमारसम्भव १२७) 

शब्दान्तर क्रोध मे आकर मस्त हाथियोको हयेी के एक ही प्रहार से 
गिरा देने वारे हरि (सिह) कोमृगोंके साथ युद्ध करते मे भला कितनी कठिनाई 
होगी 1* यँ "हरि" शव्द हाथी, हरिण ब्दो के सन्निधान से सिह का वाचकं है । 
उदाहर्छा्थं 

हे सुन्दर { उस कोमलाद्धी के ने तुम्हारे वियोग में (हथो दिखाते हृष) 
तने विशाल हो गये है तथा (पांच उगलिया दिखते हृए) इतने दिनो मे उसकी 
अवस्था (कनिष्िक्ा उंगली दिखाते हृए) एसी हो गयी है ।१०। 

इन संकेतो के चिना यदि उक्त कथन कहा जाता तो वह अभीष्ट अभिप्राय 
को प्रकट करने मे असमर्थं" होता, किन्तु इन सकेतो के द्वारा अव इसमे यह्‌ दोष नही 
रहा 1 टथेखी दिखरने' से आंखो की विशालता, पाच उंगल्यों को दिलाने" से पाच 
दविनो- थोडे से दिनो--का, मौर कनिष्ठिका उगलो दिखाने" से कररता का वों 
होता ठै 1 
२ अप्रतीत 

जो पदं [युणओरक्रियाके] योगसेतो किसी भर्यं-विशेष क! प्रतिपादन 


कारिका १२-१ ३ | षष्टोऽध्यायः १६१ 


तत्र तंशायक्यथा-- 
साधारणमपरेष्वपि गुणादि कृत्वा निमित्तमेकस्मिन्‌ । 


यत्कृतमभिधनतयाथं संशयूवदयथा दहिमहा ।१२॥ 
साधारणमिति । यत्पदं गुणक्रियादिनिमित्तमुददिद्यान्येष्वप्यथेषु साधारणं सदे- 
कस्मिन्विशिष्टेऽर्थेऽभिधानतया संज्ञात्वेन कृत न तु विशेपणत्वेन तदनेका्थंतयेकत 
निह्चयानुत्पादनात्संशयवदप्रतीतम्‌ । उदाहरण यथा--हिमहेति। भत्र हिमहननलक्षणया 
क्रिययैतत्पद रवौ वह्नौ च साधारणम्‌ । अभिधानतया चैकत्रापि न रूढम्‌ । अत एकत्र 
प्रयुज्यमानं संशय कुर्वीति ! अथ किमेतत्‌ "चब्दप्रवृत्तिहेतौ सत्यपि" (६।६) इत्यनेनास- 
मर्थलक्षणेन न परिहृतम्‌ ! नेत्युच्यते । यतो यदेकत्र रूढमन्यत्र तु तद्थसद्धावेऽपि न 
प्रयोगा्ई तत्तस्य विषयः ! इह तु यत्ववचिदपि न रूढ युक्त्या च तदर्थ॑वाचकत्वं तदेक- 
त्रार्थेऽनुचितमित्ि स्फ़ट एव भेद" 1 तथा निश्चीयते न यस्मिन्‌" (६।७) इत्यस्याप्ययम- 
विषयः । यतस्तत्र विशेषणपदं सशयकारि निषेध्यम्‌ ॥ 
अथासंशयमाह- 
पदमपरमप्रतीतं यद्यौगिकरूढङब्दपययंः । 


कृत्पितमथं तस्मिन्यथादवयो षिन्मुखाचिष्मान्‌ । १२ 
पदमिति । अपरमिद पदमप्रतीत यद्यीगिकाना सवन्धजानामथ च रूढाना 
सज्ञात्वेन प्रसिद्धाना पययिस्तस्मिन्विवक्षितेऽयं कत्पितमभिधानतया प्रयुक्तम्‌ 1 यथा 


करे किन्तु वाचक रूप से प्रसिद्धन हो, चहु (अर्थात्‌ उसका प्रयोग) अप्रतीत [दोष 
कहाता है ।] इस दोष के दो मेद है--संश्यवत्‌ ओर असंशयवत्‌ ।२१। 

मम्मट ओर विश्वनाथ के अनुसार इस दोप का स्वरूप इससे किञ्चिद्‌ भिन्न 
है--भप्रतीतत्वमेकदेरामात्नप्रसिद्धत्वम्‌ ! 
उदाहरराथ 

ध्योगेन दल्िताशयः 1' आदाय" शब्द का चासना अर्थं मे प्रयोग योगदास्त्र 
मे ही हीता है । अतः अथ -प्रसगो में इसका प्रयोग अप्रतीत" दोष का सूचक है । 
(क) सं्यवड्‌ अप्रतीत 

जो पद गुण [क्रिया] ञादिको लक्ष्यमें रखते हृए जन्य [अर्थो] मे 
सामान्य होता हृजा मी भर्थं-विशेष मे अभिधानता (वाचकता) के लिए्‌ प्रयुक्त किया 
जाए, वहां संश्चयवद्‌ [ अप्रतीत दोष ] होता है, उदाहरणार्थं "हिमहा" ।१२। 

'हिमहा' का अथं है हिम हनन (नाश) करने वाला अर्थात्‌ सूर्यं अथवा अग्नि । 
-यह शब्द यद्यपि इन दोनों अर्थो मे रूढ नही है, परन्तु इसे प्रयुक्त कर च्या जाए तो 
यह्‌ संशय वना रहेगा किं यह शब्द सूयं का वाचकं है अथवा अग्नि का । 


१५८ कान्यालद्खारः [ कारिका ७ 


भूयोऽपि मेदान्तरमाह-- 
निश्चीयते न यस्मिन्वस्तु विशिष्टं पदे समानेन । 


ग्रसमर्थं तच्च यथा मेघच्छविमारुरोहाइवम्‌ ।1७।। 

निश्चीयत इति । यस्मिन्पदे तदर्थाभिधायिन्यपि विशिष्ट वस्तु न निरचीयते 
तदप्यसमर्थंम्‌ । कथ न निरचीयतत इत्याह-समानत्वात्‌ । समानस्तुल्यो मानः परि- 
च्छेदो विवक्ितेऽन्यत्र च वस्तुनि येन पदेन तत्तथा तद्धावस्तच्वम्‌ । तस्मादनेकार्थवाच- 
कत्वादि्यर्थः । यथा मेचच्छविमारुरोहाश्वमित्युक्ते मेघानामनेकवर्णाना दक्ंनान्न निर्चयः 
कतु पायते । यत्र तु निद्चयस्तत्समानाथंमपि साध्वेव । यथा-- 

"लक्ष्मीकपोलसंक्रान्तकान्तपत््रलतोज्ज्वलाः । 
दोदर माः पान्तु चः शोरेघनच्छाया महाफलाः ॥" 
अचर हि सौरि कृष्णवणे इति । 

'वारिधि' गौर 'जलभृत' ये दोनो यौगिक शब्द है ओर समाना्थंवाची (समूद्र- 
वाची) हो सक्ते है, किन्तु रूढि के कारण "जलभृतुः शब्द भेध'के अथेमे ओौर 
'वारिधि' शव्द समुद्र के अथं मे नियत है । 
प्रसमथ का एक चौर प्रक्र 

अभीष्ट अथं को वतन पर भी जिस पद में समानता कफे कारण विशेष चस्तु 
का निरचय न ह्यो सके, बहौ असमं दोष होता है । जेसे- उस व्यक्तिने मेधे 
समान वणं वाके अश्व पर रोहण किया 1७ 

उक्त वाक्य मे अर्व का वणं मेघ-सदन कहा गया है, किन्तु मेघं के अनेक वणं 
टे) अतं अद्व के वर्णं का निद्वय नही हो सकता । इसकिए यहाँ असमर्थं टोप है | 

इसी प्रसंग मे नमिंसाघु दारा प्रस्तुत इलोक “लद्मीकपोक'**ˆ*ˆ“ का अर्थं 
दै--रोरि (विप्णु) की भ्रुजा-रूपी वृभ आप सवं कौ रक्षा करे, जिनके सुन्दर पत्ते ओर 
रुताएं लक्ष्मी के कपो पर प्रतिविग्वित होने के कारण उज्ज्वल है, तथा जो धनो 
की छायाके समानं ह तथा फठ्दायक है । व 

ध्जौरि' गब्दकाञर्थरहकृष्ण, जोकि कृष्णवर्णं का सूचक है । यहाँ एक 
निर्दिचतत वणं का उल्लख दहै, अतः यहाँ असमथ दोप नही है । 

असमथ" नेप का स्वल्प परवर्ती आचार्यो मम्मट भौर विश्वनाथ कै अनुसार 
सक्षिप्त रूपमे इक्र प्रकारदहैः 

यसमथं यत्तदर्थं पथ्यते न च तत्राऽस्य शितः । (का० प्र° ७। १४४) 
वथा- 
कुञ्जं हन्ति शृश्ोदरी । (सा० द० सप्तम परि०, पृष्ठ २३५) 


कारिका ८-६ | षष्ठोऽध्याय. १५६ 


 इदानीसस्यैवासमर्थदोषस्यातिन्याति चंहतु माह 
यत्पदमभिनयसहितं कू स्तेऽथं विशेषनिश्चयं सम्यक्‌ । 
नैकमनेका्थंतया तस्य नत दुष्येदसामथ्यंम्‌ ॥८॥। 
यदित्ति । यत्पद विशेपणभूतमनेकार्थ॑तया विवक्षितविशिष्टाथेविज्ञेषनिशचयं 
सम्यक्छरुरते । किभूतं सदभिनयसहितभू । तस्य । सामर्थ्यं (निचीयते न यस्मिन" (६।४) 
इत्यनेन प्राप्त दोपाय ने भवतति ॥ 


नव्वर्थस्य शब्दो वाचको न त्वभिनथः, तक्तथं तेनाथेदिरोषनिश्च्यः 
कियत इत्याह-- 


राब्दानामत्र सदानेकार्थानां प्रयुज्यमानानाम्‌ । 


निर्चीयते हि सोऽर्थः प्रकरणशब्दान्तराभिनयेः ।।&॥ 

शब्दानामिति । हि यस्मादत्र कान्येऽनेकार्थाना राब्दाना प्रयुज्यमानानां सं विव- 
क्षितोऽयैः प्रकरणेन प्रस्तावेन रब्दान्तरसनिधनिन वाभिनयेन वा निद्चीयते तत्र प्रक- 
रणे यथा-- 

"मही भरतः पुत्रवतोऽपि हष्टिस्तसिमिस्नपत्ये न जगाम चप्तिद्‌' 

दूत्यत्र हिमवानेव महीभृदुच्यते । सब्दान्तरेण यथा-- 

'कोएादेकतल्ाघातनिपतन्मत्त दन्तिनः । 
हरेहंरिणयुद्धेषु क्ियार्व्याक्षेपविस्तरः \' 

अत्र॒ दन्तिहूरिणचन्दसनिधानास्सिह एव हरिनिश्चीयते 1 अभिनयने त्वथे- 
विशेष प्रतीताबुदाहूरणं सूत्रकार एव ॒दास्यत्ति ।! यत प्रकरण-शब्दान्तरे प्रसिद्धत्वादु- 
पमाने । अभिनयस्तु प्रस्वुतत्वादुपमेय. । तथा ताभ्या विवकिता्थनिदचयस्तथाभिनये- 
नापीत्यथं. ।। 

अर्थात्‌ असमं दोप उसे कहते है जह कोई पद उस अर्थम प्रयुक्त किया 
जाए जहां उसकी चक्ति (समथंता) न हो ! जसे "वह्‌ कृशोदरी कुञ्ज को जाती है ।' 
"हनू धातु का अथं "हिसा" ओर "गति" दोनो है, किन्तु "हन्ति रूप [प्रयोगाभाव के 
कारण | गच्छति" अथं को बताने मे असमर्थं है । 
प्रमथ दोप की अतिव्यास्ि क्रा संहर 

थदि किसी अनेकाथंक पद का असीष्ट अथं अभिनय के द्वारा चिश््वित हीने 
भे समर्थं हो जाए तो वहां मसमथं दोष नहीं होता, [ क्योकि ] अनेकार्थक र्द के 
भ्रगुक्त होने पर उनका अभीष्ट अथे प्रकरण (अर्थाव्‌ प्रसंग), शब्दान्तर (अर्थात्‌ अन्य 


शब्दो कौ समोपता) ओर अभिनय (हस्तचाक्न आदि) हारा भी निदिचत किया 
जाता है ।८,६। 


१६० कान्याज्ङ्धुारः [ कारिका १०-११ 


तदेवोदाहरणमाह- 
सा सुन्दर तव विरहे युतनुरियन्मात्रलोचना सपदि । 
एतावतीमवस्थां याता दिवसंरियन्सात्रंः ।।१०॥ 


सेति 1 भत्रेयन्मात्रतावच्छब्दौ महुति स्वत्पे च वत्ते ! तत्तोभिनयेन विशेषप्रती- 
ति्यंथा--हे सुन्दर, सा सुतनुस्तव विरहे इयन्मात्ररोचना । प्रसृत्यभिनयेन विकज्ञाललो- 
चनेति निङ्चीयते । तथंतावतीमवस्था यातेति 1 अच्रोर्घ्वीकरितकनिष्ठिकाङ्गल्या कृडात्व 
प्रतीयते । दिवसं रियन्मावरे रित्यत्र पञ्चाङ्गुलिदशेनेन स्वल्पत्वं चेति ॥ 


च्रथाप्रतीतमाह- 
युक्त्या वक्ति तमथनच रूढं यत्र यदभिधानतया | 
दधा तदप्रतीतं संशयवदसंशयं च पदम्‌ ॥११॥ 


युक्त्येति । तदप्रतीत यथुक्त्या गुणक्रियायोगेन तं विवक्षितमर्थं वक्ति प्रति- 
पादयति 1 अथ च तत्रार्थाभिधानतया वाचकत्वेन न रूढ न प्रसिद्ध तच्चाप्रतीत द्वेधा) 
कथ सशयवदसनय चेति ॥ 


यनु 


नमिसाधु ने इती प्रसमग मे दो उदाहरण प्रस्तुत कयि है-- 

प्रकरण--पूत्रवान्‌ भी उस महीभृत्‌ (पृथ्वी को धारण करने वा) की दृष्टि 
उस सन्तान पर (उसे देखने से) तृप्त न हई ।' यहाँ प्रकरण से जात दहो जत्ताहैकरि 
"महीभृत्‌ का अथं कोई राजा विरेप नं होकर हिमाकय पर्व॑त है । (कुमारसम्भव १।२७) 

रव्दान्तर-क्रोधमे आकर मस्त हाथियोको हथेटो के एक ही प्रहार से 
गिरा देने वाके हरि (सिह) को मृगोंके साथ युद्ध करनेमें भला कितनी कठिनाई 
होगी 1 यहां हरि" गब्दं हाथी, हरिण गबष्दो के सन्निधान से सिह का वाचक है । 
उदाहरणाय 

हे सुन्दर ! उस कोमलद्धीफेनेत्र तुम्हारे चियोगमें (हथेली दिखाते हुए) 
तने विशाल हौ गये है, तथा (पाच उगल्ां दिखते हए) इतने दिनों मे उसकी 
मचस्था (कनिष्ठिक्ना उंगली दिखते हृए) एसी हो गयी है !१०। 

इन सकेतो के विना यदि उक्तं कथन कहा जाता तो वह अभीष्ट अभिप्राय 
को प्रकट करने मे असमथ" होता, किन्तु इन संकेतो के द्वारा अव इसमे यहु दोप नही 

रहा 1 शह्थेटी दिखाने" से मसि की विश्ारुता, पाच उंगल्यो को दिखने' से पाच 

दिनो- थोडे से दिनौ-का, ओर "कनिष्ठिका उंगली दिखाने से कृदत्ता का बोध 
होता है 1 
२. भप्रतीत 

जो पद [गुण ओर क्रियाके] योगसे तो क्रिसी अथं-विशेव का प्रतिपादन ` 


कारिका १२-१३ | षष्ठोऽध्यायः १६१ 


तत्र पंशयक्यथा-- 
साधारणमपरेष्वपि गुणादि कृत्वा निमित्तमेकस्मिन्‌ । 


यत्करृतमभिधानतयाथं संशयृवदयथा हिसहा 11१२ 
साधारणमिति । यत्पदं गुणक्रियादिनिमित्तमृहिद्यान्येष्वप्यथषु साधारणं सदे- 
कस्मिन्विशिष्टेऽर्थेऽभिधानतया संज्ञात्वेन कृत न तु विशेषणत्वेन तदनेका्थतयकत् 
निद्वयानुत्पादनात्सश्यवदभ्रतीतम्‌ । उदाहरणं यथा--हिमहैति। अत्र हिमहननलक्षणया 
क्रिययेतत्पद रवौ वह्लौ च साधारणम्‌ । अभिधानतया चंकतापि न रूढम्‌ । अत्त एकत्र 
` प्रयुज्यमानं संशय कुर्वीत । अथ किमेतत्‌ ्ब्दभरवृत्तिदेतौ सत्यपि" (६।६) इत्यनेनास- 
म्थलक्षणेन न परिहृतम्‌ । नेत्युच्यते ! यतो यदेकत्र रूढमन्यत्र तु तदथंसद्धावेऽपि न 
प्रयोगा तत्तस्य विषयः 1 इह तु यत्क्वचिदपि न रूढ युकत्या च तद्वाचकत्वं तदेक- 
त्राथऽनुचितमिति स्पुट एव भेदः ! तथा "निस्वीयते न यस्मिन्‌" (६।७) इत्यस्याप्ययम- 
विषयः 1 यतस्तत्र विशेषणपदं सशयकारि निषेध्यम्‌ । 
त्रथासंशयमाह-- 
पदमपरमप्रतीतं यद्यौगिकरूढशब्दपययिः । 


कल्पितमथं तरिमिन्यथारइवयो षिन्मुखाचिष्मान्‌ । १३॥। 
पदमिति । अपरमिद पदमप्रतीतं यद्यौगिकाना संवन्धजानामथ च रूढाना 
सनज्नात्वेन प्रसिद्धानां पयविस्तस्मिन्विवक्षितेऽथे कल्पितमभिधानतया प्रयुक्तम्‌ । यथा 


करे किन्तु वाचक रूप से प्रसिद्धन दहो, वहु (अर्थात्‌ उसका प्रयोग) अप्रतीत [दोष 
कहाता दहै ।] इसं दोष के दो भेद है संशयवत्‌ ओर असंशयवत्‌ । ? १1 

मम्भट ओर विइवन्राथ के अनुसार इस दोप का स्वरूप इससे किञ्चिद्‌ भिन्नं 
दै--अप्रतीतत्वमेकदेशमान्नप्रसिद्धत्वम्‌ । 
उदाहरणाथ 

ध्योगेन दलिताकय. ।' "आद्याय" रन्द का वासना अर्थं मे प्रयोग योगचास्त् 
मे ही होता है । अतः अर्थ-पसगो मे इसका प्रयोग 'अध्रतीत' दोष का सूचक है ! 
(क) संशर्यवड्‌ अप्रतीत 

जो पद गुण [क्रिया] आदिको लक्ष्य मे रखते हुए अन्य [अर्थो] सें 
सामान्य होता हृभा मी अथं -विक्ेष मे अभिधानत्ता (वाचकता) के छिए प्रयुक्त किया 
जाए, वहाँ संश्ञयवद [ अप्रतीत दोष ] होता है, उदाहरणाथं "हिमहा' 1 १२। 

"हिमहा' का भथ है हिम हनन (नाश) करने वाछा अर्थात्‌ सूर्यं अथवा अग्नि । 
यह्‌ शब्द यद्यपि दन दोनों अर्थो में रूढ नही है, परन्तु इसे प्रयुक्त कर च्या जाए तो 
यह्‌ सशय वना रहैगा कि यह सन्द सूर्यं का वाचक है अथवा अग्निका । 


१६२ काव्याल्ङ्धूार [ कारिका १३ 


वडवाभूलानलशब्दे व च्येऽस्वथोषिन्मुखाविष्मानिति शब्दः । स द्यरििमुखसादुद्यादी 
वाग्नौ यौगिको रूहिरब्दस्च । तत्र वडवरापर्यायोऽस्वयोषिदिति, अनलस्याचिष्मानिति । 
मुखरान्दः स्वरूपेग प्रयुक्त. 1 केचित्त्वर्वयोपिद्वदनवद्भखिरिति पठन्ति । एवविधं पद 
विवक्षितमर्थं निर्विकल्पमेव प्रत्थापयति । केवल न तथा रूढमिति दुष्टम्‌} यथा 
माघस्य--(तुरङ्ककान्तापुखहुग्यवाहञ्चाकेव भित्वा जलभुल्लास' । अत्पश्चायं दोषः, 
महाकविभिरपि प्रयुक्तत्वात्‌। भय किमेतावेसमर्यप्रतीतदोषाववाचकस्वेन परिहूतौ । 
नेव्युच्यते । यतो ्यात्किचिदपि तमर्थं नाभिधत्ते तदवाचकम्‌ 1 इहं तु पदमर्थाभिधायक- 
मेव 1 केवर पदान्तरसंनतिधानादसामथ्येमरूढया चाप्रतीतत्वमागतमिति ॥। 


(ख) असंज्ञय अप्रतीत 
जो पद यौगिक अथवा रूट्‌ शब्दों फे पर्यायो हारा उस [ अभीष्ट ] अथं मे प्रयुतं 
हुआ हो उसे असंरशय अप्रतीत कहते हँ । जसे--"अश्वयोषिन्मुख्णचष्मानु" पद ।१३। 
अश्वयोषित्‌" का अथं ह अदेव की योपित्‌ (पत्नी) अर्थात्‌ अश्वा == वडवा । 
अचिप्मान्‌ का अथं अनल ! अतः सस्पुणं पद का अथं हुभा--वडवामुखानर । किन्तु 
वडवा ओौर अनल के पर्याय पदो के प्रयुक्त होते पर भी यह्‌ पद अभीष्ट अर्थं को 
नही वताता । प्रत" यहो अप्रतीत दोप है। 


नमिसाधु ने माघ के उपयुक्त पद्या तुरंग कान्ता"“*' के सम्बन्धमे कहा 
है कि यहाँ यह्‌ असदाय नामक दोप अत्पदटै, क्योकि एेसे प्रयोग महाकवियीं दारा 
प्रयुक्त होते रहै है--तुरगकान्ता = अश्वा वडवा कै मूख से निकली हुई हव्य- 
वाहु (हवि को खाने वारी अर्थात्‌ अग्नि) कौ ज्वाला के समान । पद्यांश का अथं है-- 
[वह्‌ द्वारिकापुरी] पानी को चीरकर इस प्रकार अवस्थित थी, जसे वडवा (अश्वा) के 
मुख से आग की कपटे उपर को उदी हुई दहौं। 


किन्तु मम्मटने रसे स्थलो मे व्िकुप्टता नामक दोष स्वीकार किया है। 
यथा-- 

अत्रिलोचनसम्भूतन्योतिरुद्‌गमसासिभिः सहशम्‌' अर्थात्‌ अ्रर्मनिविशेषस्य 
खोचनाच्‌ सम्भूत यज्ज्योतिश्चन्दरस्तस्योदुगमेनोदयेन भासिभिर्भासनशीकर. कुमुदं 
सदृशम्‌ । अत्निमूनि के नेत्रो से उस्पलन ज्योति अर्थात्‌ चन्द्रमा, उसके उदय से चमकने 
वाके अर्यातु कुमुदो के सटहेग । 

मम्मट ने अप्रतीत दोप वहाँ स्वीकार किया है जहाँ केवल किसी एक शास्त्र 
मे प्रगुगतत अर्व वाकं रान्द का प्रयोग इसी अर्यमे अन्यत्र भी कर दिया गाए- 
अप्रतीतं यक्छेयकले शास्त्रे प्रसिद्धम्‌ । यथा-- 


+ कनी च की च 


कारिका १४ | पष्ठोऽव्यायः १६३ 


श्रथ विसंधिपदमाह- 
यस्यादिपदेन समं संधिनं भवेद्धवेद्िख्धो वा| 


तदिति विसंधि स इत्थं मन्थरया भरत श्राहूतः । १४।। 

यस्येति । यस्य द्ितीयपदस्यादिपदेन सार्धं सधि. सधान न भवे्धवन्नपि विर 
द्वाथेत्वादिष्डधो वा भवेत्तसद विसधि 1 विरुद्धार्थो विजब्द । ननूुभया प्र यत्वात्सघेः 
किमिति द्वितीयपदमेव विस॒धि भण्यते, न त्वा्यम्‌ । स्यम । यतो द्वितीयपदे सत्येव 
विस वित्वमायाति 1 ततस्तस्य तदुक्तम्‌ । उभयत्रोदाह्रणमाह--स इत्यादि । स 
भरतो मन्थरया कुव्जयेत्थमाहूत आकारितः । स इत्थमिति, भरत आहूत इति चास- 
ध्यु राह॒रणमु 1 मन्थरया भरत इति तु विरुढसधिनिदशंनमु । सदहितापाठे सति पद- 
भद्ध वनान्मन्थरे याभे मं्ुने रत इति प्रतीपोऽर्थो गम्यते । 


सम्पग्त्ानमहाज्योत्तिदलिताक्यताचुषः । विधीयमानमप्येतन्न सवेत्कमं बन्धनम्‌ ॥ 

यहा आश्य शब्द का अर्थं वासना है, किन्तु यह अर्थं केवल योगशास्वरमेही 
प्रचरति टहै। इस प्रसगमे इस शब्दका प्रयोगं अप्रतीत दोष का वाचक है (काऽ 
प्र० ७१५१५) । 
२. विसन्धि ह 

जिस [ दितीय] पद की आदि पदके साथसन्धिनहो अथवाहोनेपरमी 
विरुद्धाथं वाली हो था विरुद्ध हो जाए, उत्त पद को विसन्धि कहते है । 

जसे "त इत्थं मन्थरया आहूतः, अर्थात्‌ इस प्रकार मन्थरा सै बुलाया हुमा दह्‌ 
भरत ।१४। 

नमिसाधु इस उदाहरण का समन्वय करते हृए कहा है शव इत्थम्‌ ।' "भरत 
आहूतः' ये दोनो असन्धि के उदाहरण है, तथा, “मन्थरया मरत' यह विरुद्ध सन्धि का 
उदाहरण है । क्योकि इस कथन को इस प्रकार का सन्धिपाठ--'मन्थर याभ-रतः 
मान कचे पर यदि इसके पदो का भंग किया जाए तौ मन्थरे याभे (मैयुने) रत." 
अर्थात्‌ "मन्द मश्ुन-कायं मे रत'--दइस प्रकार का विपरीत अर्थं प्रतीत होता है । 

किन्तु हमारे विचारमेनतो पाठक का ध्यान ठेस विरृष्ट प्रदभद्ध कीओर 
 जाताहेैमौरनदही इसप्रकार के पदभद्धो से किसी प्रकार की कान्य-चमक्कृति ही 
उपरुव्ध होती है । 

जहां तक विसन्धि के उक्त उदाहरणो का प्रन है, "स इत्थम्‌" ओौर (भरत 
गाहूत.' मे मी वस्तुतः सन्धि-नियम ही काग होते है! (तद्‌ शब्द के प्रथमा विभवित् 
के एकवचन के रूप सः" के विकस्षगं का छप "एतत्तदो सुलोपोऽकोरनन्‌समासे हिः 
से नित्यरूपसेहोतादहै गौर ूर्व्ासिद्धम्‌' सूत्र के अनुसार "स इत्थम्‌" मे पूनः 
सन्धि नही हो सकती } इसी प्रकार 'भरत आहत ` मे भी "भरत. के वरिसगे-रोप हो 


१६४ काव्यालद्धुारः [ कारिका १५-१६ 


नन्वेवं विसरंधिपदे दूषिते सति सवमेव प्ूवकषिलद्यं दु पितं स्यादित्या- 
श॒ङ्य विशेषमाह- 
तत्रासत्संधि पदं कृतमसकृदयुक्तितो भवेद्‌ दुष्टम्‌ । 


दूरं तु वजेनीयं विरुद्धसंधि प्रयत्नेन ।) १५॥ 
तत्रेति । तत्र द्यो्मध्या्दसधि तदसङृक्करत पून.पुनः प्रयुक्तमयुक्तितः पू्ोत्तिर- 
पदासंरकेपादुदृष्टं भवति ! यथा- 
"कान्ते इन्दुक्िरोरत्ने आदधाने उदश्चुनी । 
पातां वः श्ंभुशर्वाण्यावितो इ खाकूलान्वातु 11" इत्यादि । विरुढ- 
संधि पुन.पद दरमतिशयेन प्रयत्नतो वजंनीयमेव ॥। 


अथ विपरीतकल्पनमाह-- 
पूवरथिप्रतिपन्थी यस्याथंः स्पष्ट एव संभवति । 


विपरीतकल्पनं तवति पदमकायंमित््रमिव ।। १६॥ 
पूर्वथेति 1 यस्य पदस्य पूर्वाथंप्रतिपन्थी विवक्षिताथेविरोधी स्पप्ट एवान्याख्यात 
एवाथः सभवति तद्विपरीताथेप्रतिभासनाद्िपरीतकत्पनम्‌ । निदशेनमाह्‌--अकाययं मि्ल- 
मिवेति । अत्र ह्यकाययमठ़ृतरिमं मित्त्रमकारणवन्धुरित्ययमर्थो विवक्षितोऽप्थकार्यं पपे 


जाने के उपरान्त श्पवेवासिद्धम्‌' उक्त सूत्र से पन. सन्धि नही हौ सकती । 

इन दोनो-मसन्धि ओर विरुद्ध सन्धि में से 'असन्धि' का अनेक बार प्रयोग 
दोषपूणं होता है, क्योकि इसमे पूवं ओर उत्तर पदो का असंश्लेश् [ -सा प्रतीत होता | 
रहता है । विरुढ-सन्धि को तो प्रयत्नपुवेक दूर ही रखना चाहिय ।१५। 

उदाहुरणाथ--- "कान्ते इन्दुश्िरोरत्ते भआदधाने उदञयुनीः मे कही सन्धि नही की 
गयी, अतः यह्‌ स्थल असरिरुष्ट होने के कारण सस्कृत भाषा की प्रकृति के विपरीत 
प्रतीत होता है) 

स्पष्टत नमिसाधु द्वारा उदाहूत उक्तं पद्य कान्ते इन्दुरिरोरत्ते"““ मे निम्नोक्त 
तीन स्थलो पर सन्थि नही को गयी- कान्ते इन्दुशिरोरत्ने आदधाने उदंशनी । अनेक 
वार असन्धि सदोष है । प्रस्तुत प्च का अथं है-ऊपर को उठती हई प्रभासे युक्त 
चन्द्रमा-रूपी सुन्दर रत्न को सिर पर धारण करने वाङ भगवान्‌ शिव एवं देवी पावती 
इस दु.खसकुल ससार-वन्धन से आपकी रक्षा करे । 


£ विपरीतकरल्यन 
निसं पद का अथं अभीष्ट अयसे स्पष्टतः विर्डध हो उसे विपरीतकल्पन 


कारिका १७-१८- | षष्ठोऽध्यायः १६५ 


मित्नभिति विरोध्यर्थो क्लगित्येव प्रतिभाति । ननु विरुद्धसधित्वेन कि न परिहृतमेतत्‌ । 
न परिहृतम्‌ । तत्र हि पदद्यसधिविषयं पूर्वर्थवि रोधित्वम्‌, इह तु सध्यभावेऽपीति ॥। 


अथ मरस्य 
यदनुचित्तं यत्र पदं तत्तत्रेवोपजायते ग्राम्यम्‌ । 


तद्वक्तृवस्तुविषयं विभिद्यमानं द्विधा भवति ॥ १७॥। 
यदिति 1 यत्पद यत्र विषयेऽनुचितमयोग्य तत्तत्रैव ्राम्यमुपजायते। एतदुक्त 
भवतति, न स्वाभाविक पुरुषस्येव शब्दस्य ग्राम्यत्यम्‌, अपि तु विषयभेदेन । तच्च भ्राम्य 
वक्तृवस्तुविषयत्वेन भिद्यमान सदद्विधा द्विभेदं भवति । अत्र यदस्तुनि वक्तुमुचितं वक्तरि 
त्वनुचित तद्वक्तरविषयं ग्राम्यम्‌ 1 विपरीतं तु वस्तुविषयमिति ॥ 
तत्र कक्तयास्यमाह- 
वक्ता त्रिधा प्रकृत्या नियतं स्यादधममध्यमोत्तमया । 
तत्र॒ च कर्चित्किचिन्नंवाहंति पदमूदाहुतु म्‌ । १८॥ 
वक्तेति । वक्ताधममभ्यमोत्तसया प्रकृत्या स्वभावेन चिधा त्रिप्रकारो भवति । 
तत्राधमा हीनजातयो दासचेटादयः, मध्यमा. प्रतीहारपुरोहितसाथवांहादय, उत्तमा 


दोष कहते हैँ जसे--अकार्यमित्रप्रः पद क्ता अभीष्ट अयंतोहै "अकारण बन्धु" 
(सच्चा भित्र), किन्तु अथं निकलता है अकार्यो--पाप-कर्मो-- मे मिन्न-- सहायक ।१६। 

मम्मट ने "विपरीतकतल्पनः दोष को विरुद्धमतिकृतः' नाम दिया है, उनका 
उदाहरण भी यही है- 

अक्तायभित्रमेकोऽसौ तस्यं कि वर्णयामहे । का० प्र° ७।१६५ 
५. मास्य-- 

जो पद जिस तिषय में अनुचित हो, बह वहीं ग्राम्य दोष से दृष्ट हो जाताहै। 
इसके दो भेद है--वक्तरग्राम्य ओर चस्तुग्राम्य \ १७) 

नभिसाधरु के कथनानुसारं जौ पद वस्तु (वण्यं-विषय) मे तो उचित हो, किन्तु 
वक्ता मे उचितन हौ उसे वक्तृ-प्राम्य कहते है ओर जो वक्ता मेँ उचित हो, वस्तु मे 
अनुचित हो उसे वस्तुग्राम्य कहते है । 
वक्तृग्राम्य-- 

वक्ता के अधम, मध्यम ओर उत्तम प्रकृति से तीन सेद है! इन तीनोमेसे 
कोई भी स्वेच्छा से कोड पद नही बोल सकता ।१८। 

नमिसाधु के अनुसार अधम वक्ता हीन जाति वाले दास, चेट आदि होते है, 
मध्यम वक्ता प्रतिहार, पुरोहितः, सार्थवाह आदि, ओौर उत्तम वक्ता मुनि, भूपति आदि 1 


१६६ कन्यालद्खारः [ कारिका १६-२० 


मूनिनूुपतिप्रभृतय. ।! अथ वाख्युवनवरुदलक्षगादिकापि प्रकृतिः कि नोच्यते ! तत्रापि हि 
परस्पर ग्यवहाराद्यनौचित्यमस्त्येव 1 सत्यम्‌ । मथेविपयमेव तदुश्राम्यत्वमू 1 तच्च तव्रंव 
परिहरिष्यते श्राम्यत्वमनौचित्य व्यवहाराकारवेषवचनानाम्‌" इत्यनेन । तत्र तेप्वधमम- 
ध्यमोत्तमेपु वक्तृपु मध्ये कदिचद्रक्ता किचित्पदमुदाहतुः वक्तु नंवाहृति न योग्यो भवति ॥ 
तत्र दिडमात्रप्रदशंनायाह 
तत्रभवन्भगवन्निति नाहंत्यधमो गरीयसो वक्तुम्‌ । 


भटारकेति च॒ पुनर्नवेतानुत्तमप्रकृतिः ।! १६ ॥ 
त तच मवन्तिति । गरीयस उत्तमान्सुरमुनिप्रभृतीस्तत्नरभवन्भगवनच्दाव्दवाच्या- 
क नप्यधमो वव्तेतमादिभिः राव्दवेक्तं नाहंति न योग्यो भवति । वन्तृविपय्र पदमिदमनु- 
चितम्‌ ! तथंतान्गरीयसो भदारककब्दयोग्यानप्यन्य उत्तमस्वभावो राजादिर्वक्तु नाहंति । 
इतिशब्दौ स्वरूपनिदशार्था 1 चशषब्दोऽनुक्तस्वामिप्रभृतिगन्दसमुचयार्थः । भद्रारकेति 
स्वामिन्नित्यादि वेत्यथ ॥ 
इदानीं वस्तुविषयं मरास्यमाह- 
तव्रभवन्भगवन्तिति नेवाहेत्युत्तमोऽपि राजानम्‌ 1 
वक्तु नापि कथंचिन्मुनिमपि परमेरवरेशेति ॥ २०॥ 
तच मवन्निति । उत्तमो मुनिमन्ििप्रभूतिस्तव्रभवदादिपुजापदानि वक्तु योग्योऽपि 
राजानमेभि, पूजापद वक्तुं नाहंति । वस्तुविपयमेतदनौचित्यम्‌ । राजा हि परमेदवरादिभिः , 
गब्दर्वाच्योन तु तत्रभवदादिभिरिति। तथा स एवोत्तमो राजा मूनि तपोधनं परमे- 
दवरेशेत्यादिभिरामन्त्रणपदं. कदाचिदपि वक्तूं नार्हंति नियतविपया हि शाव्दास्तेऽन्यत्र 


सामान्य नियम यह्‌ है कि- 

अधम | प्रङ्गति वाला [ वक्ता [ देव, मुनि आदि] उत्तम वक्ताभोंको [सी] 
(तत्रमवनरु, "मगवनु" आदि सम्बोधन पदों से आसन्ति नहीं कर सकता ! इतसती प्रकार 
[ 'मदरारक' पद से सम्बोधन-योग्य होने पर मी ] इन उत्तम वक्ताओं को [राजा आटि] 
उत्तम प्रकृति बाला [वक्ता ] “भट्रारकः पद ते सम्बोधित नहीं कर सकता !१९॥। 
वस्तुविषय ग्राम्य 

उत्तम वक्ता (मुनि, मन्त्री) आदि 'तत्रमवनु, 'मगवनू" आदि सम्मानसुचक 
पदों के प्रथोग मे अधिकारी होने परमभी रजाको इन पदों से सम्बोधित नहीं कर 
सकता । [इसी प्रकार ] उत्तम-प्रकृति [राजा] भी मुनि को 'परमेऽवर', “ईशः आदि 
पदों से आमन्तित नही कर सकंता ।२० 

दरस सम्बन्ध मे विशेष विवरण के किए भरत-प्रणीत नाट्य्ाख्न १६।१-३७ 
द्रष्टव्यं है] 


कारिका २१-२२ | षष्टोऽध्यायः १६७ 


केलि विना प्रयुज्यमाना अनौचित्यन्नता गमयेयुरिति ग्राम्यत्वं तेषाम्‌ । अस्तां तावदधम 
उत्तमोऽपि नाहतीत्यपिशन्दाथं. । दिडमात्रप्र दशनं चंतत्‌ । विस्तरस्तु भरतादवगन्तन्य. ॥। 
भूयोऽपि यास्यविश्ेषमाह- 
पदमिदमनुचितमपरं सभ्यासम्या्थंवाचि सभ्येऽथं । 


तद्धि प्रयुज्यमानं निदधाति मनस्यसभ्यमपि ॥ २१॥ 

पदमिति 1 इदमपर पदमनुचित ग्राम्य यत्सभ्यासम्याथवाचक सत्सम्येऽं 
प्रयुज्यमानम्‌ । सभायां पर्षदि वक्तु योग्य समभ्यस्ततोऽन्योऽसमभ्योऽथ" } कूतऽनुचितमू । 
हेयस्मादर्थे । यतस्तस्प्रयुज्यमान सन्मनसि वचेतस्यसम्यमप्यर्थं निदधात्ति स्फुरयति । 
नन्वेवविघस्य पदस्थोभयार्थवाचकत्वादसम्योऽपि प्रयोगो न स्यात्ततस्चास्य प्रयोगोच्छेद 
एवागत. ! नैतत्‌ । अदृष्टो ह्यर्थो दुष्टेन दृष्यते न तु दुष्टः साधुतेति ॥ 

निदशंनमाह- 

वारयति सखी तस्या यथा यथा तां तथा तथा सापि । 


रोदितितरां वराकी वाष्पभरक्लिन्नगण्डमुखी । २२] 
वारयतीति ! तस्या नायिकाया. सखी यथा यथा तां वारयति तथा तथासा 
वराकी रोदितितराम्‌ । कीहरी । वाष्पभरेण क्लिल्नगण्डमाद्र कपोल मूख यस्याः सा 
तथाविधा 1 अत्र क्िन्नगण्डशब्दावाद्रं कपोले सभ्येभ्ये प्रयुक्तावपि पूययुक्तपिटकत्वलक्षण- 
मस्रम्यमप्यर्थ स्फुरत । यंतोऽसस्यद्वययोगाच्चात्र विरदेषणविगेष्यभावे सति दृष्ट- 
तराथत्वम्‌ 1 
ग्राम्य" दोष के विषय मे कू ओौर ज्ञातव्य- 
जहां सस्य आर असभ्य-- दोनों अर्थो के वाचक शाब्द का सभ्य अर्थंनें प्रयोगं 
किया जाट्‌ बह्म भी अग्राम्य दोष होता है, क्योकि एेसा प्रयोग सन में असभ्य अथं की 
भी प्रतीति कराता है।२१। 
उदाहर थ-- 
ससो उसे ज्यो-ज्यों रोकती है, त्थो-त्यों उस बेचारी का चेहरा लगातार रोनै 
के कारण क्लिन्न अर्थात्‌ आद्र बना रहता है ! २२। 
यहाँ 'ज्किननगण्ड' राब्द आप्र कपोलः इस सभ्य अर्थं मे प्रयुक्त होने पर भी 
ूययुक्तपिटकत्वलक्षणम्‌' (पीव से भरे फोडे रूप) असभ्य अथं की प्रतीति भी करता है । 
ग्राम्यत्व दोष का स्वरूप मम्मट के अनुसार इस प्रकार है--श्रम्यं यत्केवकते 
- लोके स्थितम्‌ । जो प्रयोग केवर सामन्य भाषा मे होते हो उनका साहित्य मे प्रयोग 
'्राम्यत्व' कहाता है 1 उदाहूरणाथ--"करिस्ते-हरते भनः- तुम्हारी कटि मेरे मन को 
आष्ट करती है" इस वाक्यं मे "कटि शाब्दे । 


१६८ कान्यालद्धुारः [ कारिका २३-२४ 


त्रथेतदतिव्यापिपरिह्निरया थमाह- 
श्रयं विहेषवशाद्र समभ्येऽपि तथा क्वचिदहिभक्ते्वां | 


ग्रनुचितभावं मुञ्चति तथाविधं तत्पदं सदपि ।॥२३॥ 

अर्थेति । ग्राम्य यत्पद तत्तथाविध ग्राम्य सदपि क्वचित्सम्येऽथं उचितभाव 
ग्राम्यत्वं मुञ्चति । कुतोऽयं विशेषवज्ाद्रा, विभक्तेर्वो । वाशब्द विकल्पार्थं । विरिष्ट- 
सभ्याथं प्रयोगाद्रा विभक्तिविशेपाद्वेत्य्थंः । अपिविस्मये सभावने वा । तथाशब्दः समुच्च 
यार्थः । पदमेतहोषाभावमध्ये समुच्चीयते क्वचिच्छन्दो विरख्त्वभ्रतिपादनाथं. । 
कृवचिदेवाथेविरेपे न सवंत्रत्यथं` ॥ 

निदशनमाह- 

कथमिव वेरिगजानां मदसलिलव्लिन्नगण्डसित्तीनाम्‌ । 


दुवारापि घटासौ विशांपते दारिता भवता ।र२४ 
कथमिति । निगदसिद्धम्‌ । अत्रा विदेपो गजो वीररसङ्च । कथं तहि नायि- 
काया बाहुल्येन हर्यते । यथा--्वूतविसवच्ये निधाय पाणा मूलमधिरूषितपाण्डु- 
गण्डलेखम्‌ । नृपसुतमपरा स्मराभितापादमधुमदालसलोचनं निदध्यौ \' काभमिनी- 


ग्राम्य दोप की अतिन्यप्ति का परिहार 

सम्य अथं मे प्रयुक्त प्रास्य-पद मी कर्ही-कहीं अथ-विकेष के कारण, अथवा 
विभक्ति के कारण ग्राम्यत्वं छोड देता है ।२३। 
उदाहरखाथ- 

है राजन { आपने मद्जल से विलनन (आद्र) गण्डस्थल वाले शत्रु के हाथियों 
कौ भयंकर घटा को किस भ्रकार विदीणं किया 1२४ 

विशांपते = विट्‌-प्रजा, उनका स्वामी, (सम्बोधन) है राजन्‌ ¦ | 

यहाँ वीररस के प्रसंग मे "क्लिन्न गण्ड" शाब्द ग्राम्यत्व का मूचक नही है । 

इसी प्रकार नमिसाधु-प्रस्तुतं उक्त ररोक, “धृततचिसवल्ये"“*“ मे भी 
गण्डः शाब्द प्राम्यदोष का सूचक नही है । किन्तु यह दोपाभाव यदि इस कारण माना 
जाए किं “पाण्डगण्ड**' मे पाण्डर राब्द के प्रयोग से अनुप्रास-जन्य सौन्दयं भागयाहैं 
तो यह्‌ उचित नही दै, क्योकि दंत्यस्त्रीगण्डरेखानाम्‌"**' मे भी "गण्ड" शव्द "पाण्डु 
गब्द के प्रयुक्त न होने पर भी ग्राम्य दोष का सूचक नही है । वस्तुतः वारयति सखी 
तस्या" ˆ" मे "विलन्नः शब्द के साथ प्रयुक्त होने के कारण "गण्ड" चव्द भ्राम्य दोषका 
सूचक वन गया है । यह्‌ प्रयोग स्वेत्र सदोष नही होता । निष्कर्षत. इस दोष की कसौटी 
है सहृदय की रुचि मे व्याघातं उत्पन्न होना । धृतविसवल्ये* “" इलोक का अर्थं इस 
प्रकार है- 


कारिका २५-२६' | षष्ठोऽध्यायः १६६ 


लक्षणोऽ्थविशेषोऽत्रापीति चेत्तहि वारयति सखी तस्याः' (६।२२) इति दुष्टत्वे कथ- 
मुदाहरणम्‌ । पराण्डुरान्दसनिधानादच्रानुप्रासत्वेन रम्यत्वाददोप इति नोत्तरमु । विनापि 
पाण्डकन्दप्रयोग दर्धेनातु । दत्यस्त्रीगण्डलेखाना मदरागविखोपिभिः' इत्यादिषु । 
तस्मात्पूवेकविलक्ष्याणा बाहूनां दुष्टत्वमायाति । अत्रोच्यते--क्छिन्नराब्दसनिधानादेव 
गण्डशब्दस्यासम्यत्वं स्फुरति न त्वन्यदा । इत्येतदेव दशयितुमुदाहुरणे तथेव प्रयुक्त- 
वानिति 1 विश्पते इत्यत्र षष्टीवहुवचनवशान्न विट्राब्देन विष्ठालक्षणोऽसभ्प्रार्थो 
मनसि निधीयते ॥ 

भूयोऽपि सास्यविदेषानाह- 

मञ्जीरादिषु रणितप्रायान्पक्षिषु च कूजितप्रभृतीन्‌ । 
मणितप्रायान्सुरते मेधादि गजितप्रायान्‌ ।२५॥ 
द्ष्ट्वा प्रयुज्यमानानेवप्रायांस्तथा प्रयुञ्जीत । 


म्रन्यत्रेतेऽनुचिताः शब्दार्थत्वे समानेऽपि ॥२६॥ (युग्मम्‌) 
मञ्जीरादिप्विति । दृष्ट्वेति । वाच्येऽथं तुल्येऽप्येतेष्वेतान्धातुन्पूवेकविभिः 
प्रयुज्यमानान्हष्ट्वा तेष्वेव निवघ्नीयात्‌ । नान्यत्र । यतस्तल्लक्ष्यमेवान्यत्र व्यवस्थाकारि 
मञ्जीर नूपुरम्‌ । आदिग्रहणाद्रदनाघण्टाश्रमरादिसग्रह । रणितप्रायानिति प्रायग्रहणं 
सरदाथंव्र्तिक्वणििल्नजिगुञ्जत्या्यथम्‌ । प्रभृतिग्रहण वाशव्यादघयर्थम्‌ । सुरतग्रहणं 
व्यापारान्तरनिवृत्त्यथेम्‌ । मेधादिष्वित्यत्रादिग्रहण सिहगजायथंम्‌ । प्रायग्रहणं ध्वन- 
त्याद्यथम्‌ । एव प्रायानित्ति ये शास्त्रेषु सामाग्येन पठ्चन्ते । अथ च विेप एव 
ह्यन्ते । यथा--हैषतिरद्वेषु । भणति. पुरुषेषु । कणत्तिः पीडितेषु । वातिर्वायौ । न 


क व + 12. च 


-शु५,-1ज- ग्कहिन 


त्वन्यत्र । नहि हश्यते पुरूषो वातीति । एवमन्येऽपि द्रष्टव्या । अन्यत्रैतेऽनुचिता. । 


एक अत्य रमणी काम-सताप के कारण पीतवणं कपो से युक्त मुख को चिस- 


केकण से भषित हाथ पर रखकर विना मधुपान के ही मदपूणं एवं निर्निमेष नेत्रो से 
राजपुत्र को देखने र्गी । 


ग्राम्य के विपय मे एक अन्य ज्ञातव्य विपय-- 

मुपुर [ रशना, घण्टा, भ्रमर | आदि ब्द के किए रणित [ दवणित, शिचस्जित, 
गुञ्जित ] आदि पद, पक्षियों के शब्द के लिए नित आदि पद, सुरत मे मणित प्रभृति 
पद, मेघ [ सिह गज ] आदि के इन्द के लिए गित आदि पदोंका भरयोग करना 
चाहिए 1२४) 

भयोगों की साधुता के लिए महाकवियों द्वारा काव्यो ने प्रयुक्त पदों को प्रमाण 
मानना चाहिए 1 इन सभी शब्दों के समाना्थेक श्व प्रयुक्त करना भी उचित नहीं 
होता ।२६। 


१७० कान्याुद्धुारः | कारिका २७-२य 


मेघादिषु रणत्यादय इत्यर्थं 1 अपिशब्दो विस्मये । वित्रमिद यच्छब्दाथं समनेऽपि 
ग्राम्यत्वमेषा वस्तुविपयेणंव । ग्राम्बत्वेनास्मिन्दोपे परिहूते पुनवचनं प्रपञ्चाथम्‌ ॥ 


तथ देश्यमाह-- 
प्रकृतिप्रत्ययमूला व्युत्पत्तिनास्ति यस्य देश्यस्य । 


तन्मडहादि कथंचन रूढिरिति न संस्कृते रचयेत्‌ ।२७॥ 

प्रकृतीति । विशिष्टदेशे भव देद्यम्‌ । महाराष्ट दिदेशप्रसिद्धम्‌ । देदीय पद 
सस्कृेते न रचयेत्‌ । यस्य पदस्य प्रकृतिप्रत्ययमूा व्युत्पत्तिनं विद्यते तच्च मडंहादि | 
तत्र मडह इहहो रणव्‌ घुरमकदोटएलहुक्कसयदर्यअरूवकुभुमार्वाणवालादिक यथाक्रमं 
सृक्ष्मश्रेऽठ-वस्त्रपटमण्डपपद्महरिद्राञ्जकिभुवणंक।रकुक्करटचौरसक्रादिवाचक कथचिदपि 
तव॒ रचयेदित्यथं । ननु देशयप्राकृतभेदत्वात्कय सस्ते प्रयोगप्रसद्धं इत्याह्‌--रूडि- 
रिति । रूहिश्रान्त्या न बध्नीयात्‌ । कशिचद्ध्यात्मदेशप्रसिद्धा्थं नन्दं सवेत्रायं वाचक 
इति मन्यमान प्रयुञ्जीत । ग्युत्पत्तियंस्य नास्ति" उति वचनात्त सन्युत्पत्तिके देयं 
कदाचित्प्रयुञ्जीतेत्युक्त भवति । यथा दूर्वया छिन्नोद्धनागनग्डः । ताक भरूमिपिशाच. । 


शिवे महानट । पृक्षेपरल्ुरुज । समुद्रनवनीत चन्द्रामृतग्रो. । जले मेधक्षीरदन्दः । 
एवमन्येऽपि ॥ 


प्रथ दोषानुप्ंहतु माह- 
इत्यं पददोषाणां दिङ्मात्रमुदाहूतं हि स्वेषाम्‌ 1 
तस्मादनयंव दिशा ततोऽन्यदभ्यूह्यमभियुक्तेः ॥२८॥। 


इत्थमिति । इत्यमनेन पूर्वोक्तप्रकारेण पददोषाणा रावंषा दिगेव दिडमात्रं हियं- 
स्मादुदाहूत निदर्शितं तस्मादनयैव दिशान्यदपि दोपजात स्वयमूहनीयम्‌ ॥ 


"द्य 

दश्च विश्ेध में रूढ उन 'मडह' आदि पदों का, जिनकी अञृति ओर प्रस्यय- 
मूलक व्युत्पत्ति नहीं है, सस्त भाषा मे प्रयोग च कियः जाए 1२७ 

किन्तु नमिक्षाधु के यनुसार जिन दाव्दो की प्रकृति-प्रत्यय-मुरक व्युत्पत्ति विद्य- 
मान दै, एसे देशीय शब्दो का प्रयोग किया जा सकता जैसे दूर्वा, तार, दिव ओर 
वृक्ष जब्दो के म्मे करमन. छिन्नोदुभवा, भूमिपिश्चाच, महानट, परञ्ुरुज आदि 
दाव्द । 

इस प्रकार सनी पदगत दोषो के सामान्य अवलोकनाथं उदाहरण प्रस्तुत क्रिये 
गए है 1 इसी रीति से विद्धान्‌ लेग स्वयं अन्य दोषोको मो जानल २८] 


कै $ भ 4.1 (मी ऋ > 
9 


कारिका २६-३१ | षष्टोऽध्यायः १७१ 
ूर्मुक्तमधिकपद्‌ वायं न प्रयोक्तव्यमथ च दश्यते क्वचिदसकृत्रयोगस्त- 
द्तिव्या्िसंहयरमाह-- 
वक्ता हषेभयादिभि राक्षिप्तमनास्तथा स्तुवन्तिन्दन्‌ । 
यत्पदमसक्रद्‌ ब्रूयात्तत्पुनस्क्तं न दोषाय ।२९॥ 


वक्तेति । वक्ता प्रतिपादको हषंभयादिभिराक्षिप्तचित्तः सन्यत्पदमेकसिमन्ने- 
वार्थे पुन. पुनवेक्ति तत्पुनरक्तत्व दोषाय न भवति 1 अपि त्वककारयेत्यथ. । आदि- 
ग्रहणाद्िस्मयज्लोकादिसग्रह्‌. । तथाशब्दः समुच्चये ॥ 


 निदर्थनमाह- 
वद वद जितः स रातरुनं हतो जल्पंस्व तव तवास्मीति । 
चित्रं चित्रमरोदीद्ा हेति परा हते पुत्रे ।॥३०॥ 
जय जय वैरिविदारण कुरु कुर पाद शिरःसु शत्रूणाम्‌ | 
धिग्धिक्तमररि यस्त्वामप्रणमन्स्वं विनाशयति ।1३१॥ 


वदेति । जयेति । अत्र वद वदेति । हरषे 1 त्वं तवास्मीति भये । चित्र चित्र- 
मिति विस्मये । हा हेति रोके । जय जयेति स्तुती । कुरू कुविति त्वरायाम्‌ ! धिग्धि- 


गिति निन्दायाम्‌ । अन्यलिगदसिद्धम्‌ ।; 


ष्णणशीषि री कि 7 ` 1 


अधिक्पदता दोष की च्रविन्याप्ति 

चक्ता हष, भय जादि से विह्वखुचित्त होकर स्तुति अथवा निन्दा करते हए, 
एक ही अथं मे किसी एक पद की नार-बार पुनरुदित करता है किन्तु यह दोषन 
होकर अखक्ार ही है \२९। 
उदाहरणा 

कहो, कहो ! जीत लिया उस्तशन्रुको? अरेक्या, भे तेरी्रणमेह्, जै 
तैरीक्षरणमे हः यहु कहने पर शनरु को सारा नही ? इस प्रकार पुत्रके मारे जाने 
पर हाय-हाय करता हुजा तथा आश्चयं मे पड़ा हुमा वह रोने कणा । हे शचरहुन्ता ! 
तुम्हारी जय हो, जय हो 1 दुम शन्रुभ के मस्तक पर पैर रसो, पेर रसो (अर्थात्‌ 
उन्हं अपने अवीन फरो) । उस शच्ुको धिक्कारदहैः जो तुम्हार अधीनता स्वीकार 
न करफे अपना निना चाहता है 1३०; ३१। 

इस पदमे कहो, कहो", भै तेरी शरणमे, शँतेरी हरणमे हु" ्टाय 
हाय,' "जय हो, जय हो, पर रखो, पैर रलो, आदि पद पुनस्त दोप से दूषित 
नही है। 


१७२ काव्यालद्धुारः | कारिका ३२-३३ 
भूयो .ऽप्याह-- 
यत्पदमर्येऽन्यर्मिस्तत्पर्यायोऽथवा प्रयुज्येत । 
वीप्सायां च पूनस्तन्न दृष्टमेव प्रसिद्धं च ३२] 
यदिति ! यत्पदमन्यमथमभिवातु द्विः प्रयुज्यते तत्‌ । तथा तस्य प्रयुक्तपदस्य 
पर्यायो वाचको यः प्रयुज्येत । तथा वीप्साप्रतिपादनार्थं वा यत्पुन. पद प्रयुज्येत तत्पदं 
न पुन शक्तदोपदृष्ट भवति । एव प्रसिद्ध च । इत्येवं वीप्सातुल्यह्पेण प्रकारेण यत्क- 
विलक्षयेपु प्रसिद्ध तदपि पुनरुक्त न दोपाय। यथा कलकलरणक्रादिकम्‌ ¡ तथेव 
लोके प्रसिद्धत्वादिति । ननु तुल्यपदस्य तत्पर्यायपदस्य वान्याथेत्वेन वीप्सावाचकस्य 
वीप्साप्रतिपादकत्वेन तदथंत्वादेव पुन रक्तिनं दुष्टा तत्किमनेनेति सत्यमु 1 कि तु 
करिचदतिमन्दमतिः पुन. प्रयोग हष्ट्वा दुप्टत्वमाशङ्क तेति । 
करमर निदशंनमा ह-- 
गजरक्तरक्तकेसरभारः सिहोऽत्र तनुरारीरोऽपि । 
दिशि दिदि करिकुलभङ्गं वारंवारं खरः कर्ते ॥३२॥ 
इसी प्रसंग मेँ चोर भी ज्ञातव्य-- 
पुनरक्त दोष वर्ह भी नहीं माना जाता--{ १) जरह कोई पद [अपने] अन्य 
अथं में प्रयुक्त हो, (२) जर्हां छिसी भयुक्त पद के पर्थायचाची पद्‌ का प्रयोग द्तिया 
जाए, अथवा जरह वीप्सा के कारण अथवा |[ कविजनों अथवा लोकें] प्रसिद्धि के 
कारण किसी पद की पुनरक्ति को जाए 1३२) 
उदाहरय 
हाथियों के रक्त से अपनी ग्रीवा के वालों को रक्त-बणं वनने वाला सिह 
आकारमे छोटा होने पर सी वार-तार अपने नखों से सर्वत्र हायिर्यो को विदीणं 
करता रहता है ।३३। 
(१) इस पद्य मे प्रयुक्त प्रथम रक्त गब्दतो “छूः कै अथं का वाचक ह 
भौर द्वितीय रक्त गब्द लाल रंग' अथं का, अत. यहाँ पुनरुक्त दोष्र नही है । 
(२) तनु गौर शरीर शब्द पर्यायवाची है, परन्तु यहां तनु का अर्थं छोटा 
ठे, अत. यहाँ पुनरुक्त दोप नही है । 
(३) “दिनि दिनि" मे वीप्सा (वलद्योतन) के कारण यह दोपनहीहै। 
(४) वारवारः रोक-परसिष् प्रयोग है, अतः उसमे भी यह्‌ दोप नही है ! 
खोक-प्रसिद्धि का एक अन्य उदाहरण--'मानिनीजनविलोचन- "*" नसिस्ायु ने 
भी प्रस्तुत किया दै, जिसका अर्थं है- 
मानिनी स्त्रियो के नेत्रो की सुन्दरता का पान करता हया तथा उनके गीतल 


कारिका ३३ | षष्ठोऽध्यायः १७३ 


गजेति । प्रथमेऽत्रं पादे रक्तशब्दावन्यार्थी । एको सधिरवाचकोऽपरस्तु रञ्जन- 
क्रियाभिधायी । तनुशरीर इ्यत्र तनुशब्दस्तानवाभिधायी तत्पर्यायः शरीरशब्द. काय- 
वाचकः । दिशि दिशीति वीप्सायाम्‌ ! सर्वस्या दिशीत्यथं । वारंवारमिति छोकप्रसि- 
ढम्‌ । अन्यदपि लोकप्रसिद्धं हर्यते । यथा- 
(मानिनीजनविलोचनपानानुष्णवाष्पकदुषा्प्रतिगृह्लन्‌ । 
मन्वमन्दमुदित. प्रययौ खं मीत भीत इव श्ीतमयूखः ॥1' 
तथा-- 
शता किपि फक्रिपि ता कहू वीञन्बो निमोलियच्छीहिष्‌ 1 
कडओसहं व पिज्जइ अहरो धेरस्य तरुणीहिमु ॥\' 
उद्धटस्तु सर्वत्रात्र पुनरुक्ताभासारकारत्वमाचष्टे | 


अश्रू-बिन्दुमो को ग्रहण करता हुमा चन्द्रमा मानो भयभीत-सा होकर धीरे-धीरे 

आका मे उदित हुमा 1 

यहा "मन्दं मन्दम" ओर "भीत भीत." शाब्दो मे पुनरुक्ति दोष नही है ! 

नमिसराधु ने इसी प्रसग के अन्त मे सकेत किया है कि उद्भट एसे सभी स्थलो 
मे पुनरुक्तवदाभास अलकार मानते है । उद्‌भट के उपरुन्ध ग्रन्थ कान्याकुकारसार- 
सग्रह मे इस अकार का रक्षण है- 

पुनर्क्तवदामासमभिन्नवस्त्विवोदुभासिभिन्नरूपपदम्‌ 1 

अर्थात्‌ जहाँ भिन्न रूपो वाके पद भी अभिन्न चस्तु (एक ही पदार्थं) के चयोतक- 
से प्रतीत हो वहाँ पुनरक्तवदाभास अलंकार होता है । प्रतिहारेन्दुराज (अथवा स्वय 
उद्भट ) नै उदाहरणार्थं निम्न पद प्रस्तुत किया है- 

तदाप्रमृति निःसद्धी नागक्ूञ्जरकत्तिभृत्‌ । 
शितिकण्ठः काल्गलत्सतीश्ोकानलव्यथः ।। 

तव से (सती के वियोग से ककर) नाग-कुञ्जर (श्रेष्ठ गज) के चम को धारण 
करने वारे नीलकण्ठ शिव नि.संगी (विषयो से परादमुख) ह, ओर काल दारा विनष्ट 
सती को विरहाग्नि से सतप्त है । 

यहां नाग' भौर कुञ्जर" शब्द हृस्तिवाची प्रतीत होते है ओर “शितिकण्ठ 
मौर कालगल शब्द महादेव-वाची । अत. यहा पुनरुक्तवदाभास अल्कार है ! 

नमिसाधु ने भसानिनीजन'**", तथा इसके अनुरूप ता किपि किंपि ता“ 
गौर शगजरक्तरक्तकेसरभार.““*" जैसे पद्यो के सम्बन्धमे कहा है कि उद्भट को एेसे 
स्थो मे '्ुनस्क्तवदाभास' अल्कार का चमत्कार मानना अभीष्टरहै, किन्तु इस 
प्रकार कौ स्पष्ट धारणा का उल्केख न तो उदुभट-प्रस्तुत उक्त कक्षण मे मिरूता है, 
गौर नं ही उनके (अथवा प्रतिहारेन्दुाज कै) उदाहरण मे उक्त तीनो पद्यो की अनुरूपता 


१७८ काथ्प्रादृद्भुरः [ कारिका ३४-३६ 


ग्र्या 2 
यच्च प्रतिपत्ता वा न प्रतिपद्यत धस्तु सछ्रदुकतम्‌ । 
तत्र पदं वाक्यं वा पुनस्व्तं नव॒ दोपाय ।।३५।। 
यद्विति । यद्टगनु सक्रटेकवारमुक्तं स्यनिपत्ता । वागन्टोऽववारणे । प्रतिषत्तव 
न प्रतिपद्येत तत्न वस्ननि वान्ये पद वाय वा नव दोषाय । च. समुच्चये | तच्च पदर 
निर्दोपरपदमव्ये समुच्चीयत टत्यर्थः ॥। 
उदाहरणमाह 
कि चिन्तयसि सने त्वं वच्मि त्वामस्मि पद्य पद्येदम्‌ । 
ननु क्रि न परद्यसीदुक्पर्य सखे सुन्दरं स्वर॑णम्‌ ।३५। 
किमिति । कयिचन्मित्रमाटू- द सवे, उदमीहक्मुन्दर्‌ रम्य सव॑ण स्व्रीस्रमूह्‌ 
पथ्येति । तेन च्वन्यगनचिन्तत्वान्न श्रृतमतः स॒ पृनराह- क्रि चिन्तयसीत्यादि। यव 
पयय पच्यति प्रदपीनरकन्थं नन्वित्यादि नु वाक्वपीनम्वत्यम्‌ । ननुरभिमृचरीकरणे ॥ 
च यारप्य्राह- 
प्रन्याभिवेयममि सत्प्रयुज्यते यत्पदं प्रलंसा्ेम्‌ | 
तस्य न दोपाय स्याढाधिक्यं पौनर्क्त्यं वा ।३६॥ 
ठन्येनि । प्र्गमनाटश्षणाद्रथदिन्यदरसिवेय वच्य यस्य पदस्य तद्ित्थंभरूतमपि 
ससप्रगसार्थं प्रयुज्यते यतस्तस्याधिक्यं पौनन्वत्यं वा दोपाय न भवति । अन्यार्भिवेय्स्य 


के सकत मिन्छेर्ह। सम्नवनः उम प्रकार की वारणा उदभटने अपने अन्य ग्न्य 


“भामटू-विवरण' मं प्रतत की होगी, जो वद्यावचि अध्राप्य है । 

दमी प्रकार जहां एक वार कटै जाने पर श्रोता वाच्यार्थ कोन समन्न सके 

हा [मी] पद थयवा वाक्य कौ पुनर्पित दोषावह नहीं होती ।3८ 

उदाहष्या्थ 

ह धिच ¡ वुमक्याखचद्हैहो ? मे तुम्ँं कुरहा ह । इधर देखो, इधर 
यरे तुम कथो न्ह देखते हो ? ह भित्र [ इन एसी सुन्दरी स्वरिथोको देलो ।३५। 
दमक अतिरिक्त 

ठन्य अशं का वाचक होने पर भी जो षद प्रकत पद कै साथ प्रक्ंत्ताके चिषए 
परधुष्त किया जाता ह, उसकी अधिकता सरवा-पुनरुवित स्वोष नहीं होती ।३६। 

जत्रे-"मृनिघ्द्र ट" वरदा चवा पद मुनि की प्रणमा के छि प्रयुक्त हभा 
दै, धनः उतम को दोय नही । उनी प्रकार केयपाल, न्रपपुंगवे, गोनाग, अथ्व- 


कजर, कदम्वन्रक्ष, मच्याचन्दर वाटि उदाहुरण जानने चादिषु । 


[1 


कारिका ३७-३८ | पष्ठोऽध्याय. | १७५ 


हि प्रस्तुतार्थानुपयोगिनः प्रयोगे सत्याधिक्य स्यात्‌ । पदान्तरेणेवोक्ततदथस्य तु पौन- 
सव्य स्यात्‌ । ननु यद्यन्याभिषेयं कथं प्रार्थ प्रयोग", प्रयोगकतवेन्नान्याभिषेयमिति । 
सत्यम्‌ । अन्याभिषेयस्यापि प्रक्षसार्थगमकतास्तीति । यथा मूनिदयार्दूर. कणंताक, 
केदापाराः, सृपपुगवः, गोनाग, अन्वकरुञ्जर. ) तथा चूतवृक्ष, मलयाचल, इत्यादिषु 
शादु खादि-शब्दानां व्याघ्रादिवाचित्वेनान्याभिवेयत्वेऽपि, वृक्षादीनां तु पदान्तरोक्तार्थ- 
त्वेऽपि प्रक्चसार्थगमकत्वेन न दुष्टतेति ॥। 

निदश्नमाह- 

तासी रोद्धतधूलीधवलितसकलारिकैशहस्तस्य । 


ग्रविलङ्कयोऽयं महिमा तव मेरुमहीधरस्येव । ३७॥ 
नासीरेति 1 नासीर सन्य तदुत्वातधूल्गा धवक्िताः सककरारीणा केशहस्तः 
केशककापा येन तस्य तवाविलद्खुनीयो महिमा । कस्यैव । मेरुमही धरस्येव मेरूपवंतस्य 
यथा । अत्र हृस्तशब्दस्य पाणिनाचकष्यान्या्थेस्यापि नाधिक्यम्‌ । महीधरनब्दस्य च 
मेरुपदान्तरेण गतार्थेस्य न पौनस्क्त्यम्‌ । परश सार्थंत्वादिति ॥ 
परस्परं संवेबपदं वाज्यं प्रयुन्जीतिति यदभ्यधायि तदतिव्याप्तिप्रजिरहीष दह 
यस्मिन्ननेकमर्थं स्वयमेवालोचयेच्तदर्थानि । 
जत्पन्पदानि तेषामसंगतिनव दोषाय ॥३त।। 


ऽदृब्हण 

तुम्हारी सेना के चलने ये उढटी हृदे धुलि ने श्रान्रुओं के केशोंको धवल नना 
दिया दहै) सचमुच तुम्हारी महिमा मो मेर पर्वत के समान अल्इघ्य है, अर्थात्‌ 
वणनातीत है ।३७। 

नासीर-सेना, वै.दहुस्त--केशकलाप । 

गसिसाधु ने केशहुस्त' के सम्बन्ध मे कहा है कि "हस्त" शव्द हथः का वाचक 
होता इभा भी यहां कलाप का सुचक है, अत यहाँ पुनरुक्ति नही है । किन्तु हमारे 
विचार मे यहाँ पुनरुक्ति का विषय प्राप्तही नहीरहै। हा, उनके कथनानुसार 
भिरुमहीधर' मे पुनरुक्ति अवदय प्राप्त थी, क्योकि मेर" कह्ने से मेरु पर्व॑त" का वोध 
स्वत. हौ जाता है, किन्तु यहां महीधर चव्द का प्रयोग प्रशस्ता अर्थात्‌ गौरव का सूचक 
होने के कारण पुनरुवित दोषयुक्त नरी है । 

पीले (६1१) कह अयेदहै किवाक्यका प्रयोग विशेष नियमों के अधीन 
करना चादिए-- चाक्यविकशेप-प्रयोगनियमेन', अर्थात्‌ वाक्य असंगत नही होने चाहिए, 
किन्तु कमी यह असंगति भी दोष नही होती-- 

जिस वाक्य में वक्ता अनेकां वाचक पदों को वोकते हुए स्वये उनके अनेक 


1 


१७६ काव्यालद्धारः | कारिका ३६-४० 


यस्मिन्निति । यस्मिन्वाक्ये वक्तानेका्थवाचकानि पदानि जत्पन्स्वयमेवानेकम्थंमा- 
रोचयति तेषा तद्वाक्यपदानामसगतिनव दोषाय । विवक्षावगेन हिं शब्दाः प्रयुज्यन्ते । 
वक्ता चेत्स्वयं विलक्षणमनेकमर्थ ववतुकामोऽन्योन्यमसं बद्धानि पदानि ब्रते तक्तिमसा- 
गत्यम्‌ 1 असवदढत्वाच्च दोषाश्चङ्धा चेति स्वयंग्रहुणाद्यरेण यत्र प्रतिपाद्यस्तत्रासंगतिदु 
ष्ट्व 1 यथा-- 
आषाढी काततिकी माघी वचा हग हरोतको । 
पहयततन्महच्चित्नसायुमंर्माणि छन्तति । 
उदाहररखमाह- 
कुसुमभरः सुतरूणामहो नु मलयानिलस्य सेव्यत्वम्‌ । 
सुमनोहरः प्रदेरो रूपमहो सुन्दरं तस्याः ॥३६॥। 
कुसुमभर इत्ति । एतत्कदिचक्तामी मल्योद्याने तरुणी दृष्टा स्वयमेव पर्याखिच- 
यति । तन्तिगदसिद्धम्‌ ॥ 
इदानीं वात्र्यदोषमाह-- 
वाक्यं भवति तु दृष्टं संकीर्णं गितं गतार्थं च। 
यत्पुनरनलंकारं निर्दोषं चेति तन्मध्यम्‌ ।।४०॥ 
अर्थो को आलोचित करता है, उन पदो की असंगति दोषपूणं नहीं होती क्योकि इसमें 
वक्ता स्वयं ही अनेक अथं बताने की इच्छा षे परस्पर असंबद्ध पदोंका फथन 
करता है।३८। 
उदाहरराथं 
अहा ! ये सुन्दर पेड़ किस प्रकार पलों से रदे हृए है 1 यह्‌ शीतल मलयानिल 
कितना रुचिकर जान पड़ता है } कितना सुन्दर है यह प्रदेश्ष, ओर उस सुन्दरी के रूप 
कातोकर्हनादहौ क्या 1३६। 
वस्तुतः हमे यर्हा कोई असगति प्रतीत नही होती । यह तभी होती जब एकं 
ही विषय को प्रकारान्तर से वार-बार कहा जाता, किन्तु उक्त पद्य मे प्रत्येक वाक्य 
विभिन्न विषयो का सूचक है । 
वास्यदोष 
सक्तीणं गमित ओर गता्थं--इन तीन सूपो से वाक्य दोषपुणं होता है । 
जिसने न तो अलंकार हौं मौर न दोष एेसा वाक्य (मध्यम वाक्य' कहुलाता है 1४० 
अर्थात्‌ सक्रीणे, गमित जौर गतार्थं ये तीन वाक्यदोष हैं । 
जिस वाक्य मे कोई दोषनहोओौर कोई अरुंकारभीन हो वहु मध्यम वाक्य 
कहाता है । 


५ 


कारिका ४१-४२ | षष्ठोऽध्यायः । ९१७७ 


वाक्यमिति तु. पुनरथ } वाक्य पून सकीणंगभितगता्थेरूप दुष्ट भवति । 
ननु वाक्यस्य पदात्मकत्वात्पदद्वारेणेव तहोष उक्त इति कि पुनरुच्यते । सत्यम्‌ । कि तु 
सन्ति तादृशानि वाक्यानि येषु पददोषाभावेऽपि वाक्यस्य दृष्टता मवति । यथा-- 
गौरीक्षणं भूधरजाहिनाथः पत्त्र तृतीयं दथितोपनीतम्‌ । 
यस्याम्बरं हादशलोचनाख्यः काष्ठायुतः पातु सदाशिवो वः ॥ 
कुसुसभर इत्यादौ वाक्याथनिामसगतिरिह तु वाक्यानामिति विशेपः । ननूपादे- 
यत्वादलकारनिदेश एव न्याय्य , ततोऽन्यत्सर्वमनूपादेयमिति सेत्स्यति, कि सकी्णादि- 
लक्षणोक्तिप्रयासेनेत्यतत आहु--यत्पुनरित्यादि 1 यदलकारसून्य निर्दोषं च तन्मध्यम- 
वाक्यम्‌ । एतदुक्तं भवति--यदि हियोपादेयपक्षद्वयमेव स्यात्तदाकारनिर्देड एव ) 
यावत्ता तृतीयं मध्यमपि वाक्य विद्यत एवेति सवमेव वक्तग्यमू 1 
तथ संकाौरलक्षरखमाह-- 
वाक्येन यस्य साकं वाक्यस्य पदानि सन्ति मिश्राणि) 
तत्संकीणं गमयेदनथंम्थं न वा गमयेत्‌ ।४१॥ 
वव्येनेति । यस्य वाक्यस्य वाक्यान्तरेण सह मिश्राणि पदानि भवन्ति तत्सं- 
कीणं नाम । किमित्येतावता तस्य दुप्टत्वमत आह--गमयेदन्थम्‌ 1 यत. करणाद्िवक्षित- 
स्थं वा न गमयेत्ततस्तदुदुष्टमित्यथ. 1 
उदह््यमाह- 
किमिति न पश्यसि कोपं पादगतं बहुगुणं गृहाणेनम्‌ । 
ननु मुञ्च हृदयनाथं कण्ठे मनसस्तमोरूपम्‌ ॥४२।। 
किमिति । काचित्सखी मानिनी वक्ति-किमिति । -कस्मात्पादगतं हृदयनाथ 
प्रियं बहुगुण न परयसि । ननु मनसस्तमोरूप कोपं मुञ्च त्यज ! एन च प्रिय कण्ठे 
संकीरं 
जिस वाक्य के पद अन्य पदो के साथ मिभित हो जाएं उसे संकीणं दोष कहते 
है [इसके दो परिणाम होते है | इसि [ अथं के स्थान पर] अनथं कणी प्रतीति होती 
है, अथवा अथं कौ प्रतीति होती ही नही ।४१। 
उदाहरण 
अरो क्या तु अपने पैरों पर पड़े हए, गुणक्ञाली हृदयेशय को नहीं देखती । भन 
तु मन की तामसिक वृत्ति-रूप कोप का परित्याग करके प्राणनाथ कहो गले लगा ।४२। 
इस पद्य का निम्न अथंभी हो सकताहै- पैरो परप्डे हृएकोपको तु क्यो. 
नही देती । इस कोप को गुणरूप मे ग्रहण कर तथा हदय से तमोरूप हृदयनाथ 
चत्छभे को छोड । अत. यहाँ सकीणं दोप है | 


1 


१७८ काव्यालद्धारः [ कारिका ४३-४४ 


गृहाण 1 इत्येवविधो वाक्योऽत्र विवक्षितः। पदानां तु भिश्रत्वादुदुष्टोऽ्थो गम्यते । 
यथा-- पादपतित कोपं कस्मान्न पर्यसि । एनं च कोप वहुगुणं गृहाण 1 मनसो हृदः 
याच्च तमोरूपं हृदयनाथं वल्लभं मुञ्च त्यजेति ॥ 


गर्भितमाह- 
यस्य परविशेदन्त्वाक्यं वाक्यस्य संगताथंतया । 


तद्गभितमिति गमयेन्तिज मर्थं कष्टकल्पनया ।\४३।। 
यस्येति । यस्य वाक्यस्यान्यद्वाक्यं समृ द्वाथेत्वेनान्तमेध्ये प्रविशेत्तद्गभितं नाम । 
का तस्य दष्टतेत्याह-गमयेन्निजम्थंमभिघेयं कष्टकल्पनया करे शेनेत्ति ॥ 


निदशनमाह- 
योग्यो यस्ते पुत्रः सोऽयं दशवदन लक्ष्मणेन मया । 


रक्षेनं मृत्युमुखं प्रसह्य लघु नीयते विवदाः ।४४।। 
योग्य इति । अद्खदमुखेन लक्ष्मणो रावणमाह-हे दशवदन, योग्यो यस्ते तव 
पुत्रः सोऽय मया लक्ष्मणेन प्रसह्य हठान्मृत्युमुख विवशः परवद: संल्लधु रीघ्र नीयते 


संकीणं के स्वरूप-निदंड मे मम्मटनेरद्रटकाही अनुकरण किया है । उनके 
कथनानुसार “जहाँ एक वाक्यं के पद दूसरे वाक्य मे प्रवेश कर गये हो, उसे 'सकीणं' 
कहते है--यत्र बाक्यान्तरस्य पदानि वाक्यान्तरमनुप्रविशन्ति ! का० प्र० ७।२३६ 

दस दोप का उदाहरण भी उन्होने उक्त रद्रट-प्रस्तुत ही दिया है। विरवनाथ 
ने मम्मट के अनुकरण पर निम्नोक्त उदाहरण का निर्माण कर दिया है- 

चन्द्र॒युञ्च कूरगाल्ि परय मानं नभोऽद्धने 1 सा० द० ऽपर परि० 
गर्भित 

जहां एक वाक्य | दुसरे वाक्य के साथ] घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण इसरे 
वाक्य के मध्य मिल जाए ओर अपने अथं का फठिन कत्पना से बोध कराए उसे 
गभत कहते है ।४३। | 
उदाहर 

हे रावण ! जो वुम्हारा पुत्र मुश्च लक्ष्मण के हाथों से वलपुरवेक मृत्यु के मुल 
रं ल जायाजा रहाहै, उसकी रक्षाकर खो 1४। 

यह्‌ वाक्य लक्ष्मण अद्खुद हारा रावण के प्रत्ति कहकताहै।! इस प्यमें 
"रक्षनम्‌" पद्‌ को, जो मधघ्यगत है, पृथक्‌ निकार देने पर ही वास्तविक अथं समन्लमें 
माता है । यदि इसे निकालक्रर पृथक्‌ न किया जाएुतो मूर अर्थं को समन्नना कृठिनं . 
हो जात्ता हे 1 


कारिका ४५ | षष्ठोऽध्यायः १७९ 


तस्माद्रक्षनम्‌ । अत्र रक्ष॑नमिति गभवाक्यं यावन्मध्यान्नोद्धत्य पृथक्छृत तावन्मूखुवाक्य 
कष्टकल्पनयार्थं गमयति ॥। 


गतार्थमाह- 
यस्यार्थः सामर््यादन्या्थेरेव गम्यते वार्वयंः । 
तदित्ति प्रबन्धविषयं गताथंमेतत्ततो विद्यात्‌ 1 ५५।। 


यस्येति । यस्य वाक्यस्यार्थोऽभिधेय प्रयोजनं वान्याभिषेयैवियिगेम्यते । एव- 

कारो भिन्क्रमे 1 गम्यत एवेत्येव द्रष्टव्यम्‌ । कथं गम्यते सामर्थ्यात्‌ । अन्यार्थानामपि 

तदर्था्भिधानशक्तियुक्तत्वादित्यथं. । तदित्येवंप्रकार वाक्य गताथंम । अथ कथमत्र नोदा- 

हृतभित्याह्‌--तदेतत्परबन्धविषय विपुलग्रन्थगोचरमतस्तत" प्रबन्धादेव विच्याज्जानीयात्‌ । 

नान्यथाख्यातु दाक्यत इति । प्रबन्धे दश्यते यथा किरातार्जुनीयकाव्ये हिमाचलव्णने-- 
मणिमयूखचयांशुकमासुराः सुरवधूपरिभुक्तलतागृहाः । 
दधतमूच्चशिलान्तरगोपुराः पुर इवोदितपुष्पवना मुवः ग 


संकीणे का मम्मट-सस्मत स्वरूप भी खुद्रट से प्रभावितं जान पडता है-- 

गमितं यत्र वाक्यस्मर मध्ये वाक्यान्तरमनुप्रनिशति । 
उदाहरणाथ- 

परोपकारनिरतंदु जनः सह संगति 

वदामि मवतस्तस्वं न विधेया कदाचन ॥ का० प्र° ७।२४० 

यहा तृतीय पाद के अन्य वाक्यो के बीचमे भाजने से 'सकीर्णे' दोषहै। 
गतार्थं 

इसरे वाक्यो मे आए शब्दों के वल पर निस वाक्य का अभिप्राय स्वयंही 
प्रकट हो जाए उसे गताथं कहते ह । यह्‌ प्रबन्ध कान्य का विषय है । भतः इसे यहाँ 
उदाहूत चहं किया जा रहा, इते वहीं से जान केना चाहिए ।४५। 

नभिसाधु नै उदाह्रण-स्वरूप किरातार्जुनीय के 'मणिमयूख" ˆ ˆ“ “* ' प्च 
को उदुधृत किया है--हिमाख्य पवेत का भूभाग पुर के समान है! यहा की भूमियां 
मणियो के किरणजाल-रूपी दुपटटे से जाज्वल्यमान है, यहां के कताशृहौ मे अप्सरा 
' निवास करती है, यहां की ऊँची-ऊॐची रिकाएः गोपुर के समान है, तथा यहाँ पर 
पुष्पो के वनं उदिते ह । 

इस वणंन से यह्‌ अथं सात होता है कि मणियो, सुन्दर नारियो भौर उद्यानो 
से समन्वित यह्‌ पवत नगर के समान सेग्य है किन्तु यह्‌ अर्थं स्पण्टत. कहा हुमा नही 
दै, अवगमित है, अतः रुद्रट के मत मे यहाँ "गतार्थ" नासक दोष है । किन्तु हमारे विचार 
मे यदि एसे स्थलों को सदोष माना जाएगा तो कान्य "वार्ताः के सामान्य धरातर प्र 


१८० कान्यालद्धुारः [ कारिका ४६ 


दत्यनेन दंरोकेन मणयोऽप्सरस्र उद्यानानि च सन्त्यतः सेन्योऽयं पर्व॑त इति प्रति- 
पाद्यते । एतच्चान्यास्वार्थवव्यान्तरैरेव कथितम्‌ । त्यथा-- 
रहितरत्नचयास्न क्शिलोच्चयानपलतामवेना न दरीभुवः। 
विपुलिनाम्बुरुहा न सरिद्रधूरकुसुमान्दधतं न महीरुहः । 
दिव्यस्त्रीणां सचरणलाक्षारागा रागायाते निपतितपुष्पापीडाः। 
पीडाभाजः कुसुमचिताः साश्सं शंस्न्त्यस्मिन्सुरतविक्ञेषं शय्याः ॥ 
छ्रत्र यदेतन्मध्यम वाज्रयसुक्तमेतक्तविना कि कतव्यमुत नेत्याह- 
पृष्टा्थालंकारं मध्यममपि सादरं रचयेत्‌ 
गामभ्याजेति यथा यत्किचिदतोऽन्यथा तद्धि ।४६॥। 


उतर आएगा, ओर ध्वनि-काग्य के प्रायः समी उदाहरण "गतार्थ" दोपसे दूषितदहो 
जाएगे 1 सम्भवतः यहीकारण है कि मम्मट ने इसी प्रसगके उवत दोनों दोषो-- 
सकीणं ओर गभित को स्वीकार करते हुए भी अपने ग्रन्थमे इसे स्थान नही दिया । 

इसी प्रकार नभिसराघृ-प्ररतुत "रहितरत्नचयान्न-"““ इलोक से भी यही गतार्थं 
होता है किं यह पर्व॑त सेवनीय है । इस इलोक का अथं है- 

वर्ह पर पर्वत रत्नविहीन नये, गूफा की निकटवर्ती भूमि रुता-भवनो से 
रहित न थी, सरिता-रूपी वध्र अपने रेतीले किनारो पर कमलो से न्य नदी थी गौर 
वृक्ष पुष्पों से विरहित नही ये । 

यही स्थिति दिन्यस्त्रीणा"““' श्लोककी भी है। इससे गताथं होता दहै कि यह्‌ 
पर्वत प्रेमी-जनौ के रए तो विनेपत्. सेवनीय है, क्योकि इस पवंत पर पददलितं पुष्पो 
की शय्या देवाद्खनायो कै सुरतकर्म की सूचना देती है, क्योकि उन पर उनके चरणो 
की महावर के चिद्व है गौर प्रेमावेश मे चने पर धारण किए हृए फलो के गुच्छे व्हा 
विश्लरे पडे है । 
मध्यमः वाक्य क्री उपादेयता- 

पुष्टाथं (सुन्दर अर्थ) से विश्रूषितं सध्यम्‌ वाक्य की भी रचना आदर-स्हितं 
करनी चाहिए 1 इससे विपरीत [ अपुष्टार्थं वाक्य एसा जादर का पात्र] नहीं होता । 
जसे गामभ्याज--इस पदमे न तो कोई शन्दार्थंगत्त दोषहै गौर नही कोई यलंकार 
है! यह्‌ पुष्टाथं मी नही है । अततः न इसका आदर है ओर न अनादर! [हा केथा कौ 
संधि ओर संहार के छवि यह्‌ उपयोगी है 11 1४६ 

देवदत्त ! गामभ्याज बुवछां दण्डन' नमिसाघु द्वारा प्रस्तुत इस कथन का अर्थं ' 
दै--हे देवदत्त ! अथने ण्डे से इस युक्छवणं वानी गाय कोर्हाक ले जाभमौ । यह"एक ` 
व्यम वाक्यै निरककार एवे निदोपि वाक्य होने के कारण एसे वाक्य नि्सन्देह 


कारिका ४७ 1] षष्ठोऽध्याय. १८.१ 


, पुष्टेति ! मध्यममपि वाक्यं सादरं रचयेत्‌ । किमविशेषेण नेत्याह--पुष्टो 
हूदयावजंकोऽ्थं॑एवारुकारो यस्य तत्तथाभूतम्‌ । एतदुक्तं भवत्ति- यद्यपि वक्रोक्त्या- 
दयोऽलकारा न सन्ति तथापि तद्धिवक्षितीऽथैः सरस उक्छृष्टो वा विघेयः । यथा-- 

श्न भेदो गुणितदिचरं नयनयोरम्यस्तमामीलनं 
रोद्ध श्िक्षितमादरेण हसितं सौनेऽभियोगः कतः । 
धेयं कतु मपि स्थिरोहृतमिदं चेतः कथंचिन्नया 
बद्धो मानपरिग्रहे परिकरः सिद्धिस्तु दवे स्थिता ॥ 
अपिशब्दो मध्यवाक्यध्यादुष्टवाक्यमध्ये समुच्चयार्थ. । अन्यारुकारविरहात्तव 
केस्यचिदनादर. स्यादिति सादरग्रहणम्‌ । अथ करिमित्यपुष्टार्थं मध्य नाद्रियत इत्याह-- 
यक्किचिदित्यादि । हि यस्मादत. पृष्टार्थाककाराच्यदन्यथान्याहश्मयपुष्टाथं तच्चत्किचित्‌ । 
नात्यादरणीयमिव्यथं । किमिव । यथा-गामभ्याजेति। देवदत्त गामभ्याज शुक्लां 
दण्डेन" इत्यत्र न रन्दाथंदोषो नापि कृटिचदकरकारो न चेतत्पुष्टा्थमतोऽत्र नादरो नाप्य- 
नादरः । विषयस्त्वस्य कथासधिसहारौ । यथा--श्रियः कुरूणामधिपस्य पारनीमूः 
इत्यादि ! यथा च-इति व्याहृत्य विबुधान्विर्वयोनिरस्तिरोदषे' इत्यादि ॥ 


अथ सवैपामेव शब्द्दोषाणां विषयविशेषे साधुतं दशयितुमाह- 
ग्ननुकरणभावमविकलमसमर्थादि स्वरूपतो गच्छन्‌ । 
नभवति दुष्टमतादृग्विपरीतविलष्टवर्णं च 11४) 


काव्यनहीदहैः किन्तु यदि कोई माध्यम वाक्य पृष्टाथं-संयुक्त हो तो वह्‌ निस्सन्देह 
उपादेय है 

इसी प्रसंग मे नमिसाधु हारा श्रूभेदोगुणितरिवरम्‌" "` पद्य विचारणीय है-- 

मैने कटाक्षपात पर नियन्त्रण किया है। नेत्रो को बहुत देर तक बन्द रखने का 
अभ्यास किया है, अपने को रोकना सीखा है, आदरपूर्वक हंसने की शिक्षारी दहै, मौन 
का अभ्यासमभी कियादहै, धेयं को धारण करनेके किए चित्तकोभी किसी तरह 
स्थिर किया है, इस प्रकार [मने] मन धारणकी पूरी तयारी करली है किन्तु इसमें 
सफलता-असफकरता दंवाधीन है । 

प्रस्तुत पच मे नमिसाधु के अनुसार ययपि स्पष्टतः कोई शन्दालकार मथवा 
अर्याक्कार नही है, तो भी यह पुष्टाथे सयुक्त होने के कारण उपादेय है, किन्तु हमारे 
विचारमे इम प्रकारकेषद्योको मध्यमकोटिका वाक्य स्वीकार करना वांछनीय 
नही है । इसमे चिरहिगी नायिका के 'मान' की तैयारी काव्यचमत्कारपूणं है । 
समी मरकर के दोर्पो का साधुत्व 

यदि [कोड पद अथवा वाक्य ] पुणंतया अनुकरण किया जा रहा हो तो चाहे वह्‌ 


१८२ कान्यालद्धुारः [ कारिका ४७ 


अनुकरणेति । असमर्थादिदोपैदुष्टमपि पदं वाक्यं वाविकलं परिपूर्णं स्वरूप- 
तोनुक्रियमाणं दोषाय न भवति । अर्थभेदेन शब्दान्तरत्वादिति भावः । अनुचिकीर्षया 
परयुक्तमथ च प्रतिपादनायासमर्थं तदविकलग्रहुणेन दुष्टमिति दद्यंते । तथा तारशषा 
भिन्नस्वरूपत्वादसदहना विपरीता दुष्टक्रमाः विरुष्टा चुप्ता वर्णा यस्य तत्तथाविवम्‌ । 
तदपि पदं न दोपाय । यथा विकटनितम्बायाः पतिमनुकुर्वाणिा सखी प्राहु-- 

"का म।पं सस्ये मासं वदति दकासं यश्च सकाकाम्‌ । 


उषरं लुम्पत्तिरंवापं वा तस्म दत्ता विकटनितम्वा ।॥ 
इत्यादि ॥ 


इति श्रीरद्रटकृते कान्याककारे नभिसावुविरचितरिप्पणसमेतः 
पष्टोऽध्यायः समाप्तः । 


[रि 


भसमर्थं आदि दोषों से युक्त हो, यदि उसके वर्णो का क्रम असह्य हो, अथवा विपरीत 
हो, अथवा वणं क्लिष्ट अथवा लुप्त हो, तो भी वहा कोई दोव नहीं होता 1४७। 

विद्वनाथ का उस सम्बन्ध मे सिद्धान्तकथन इस प्रकार है-- 

अनुकारे च सर्वेषां दोषाणां नव दोषता । स्ा० द० ७।३१ 

नमिसाधु ने इसी प्रसंग मे अत्यन्त रोचक उदाहरण प्रस्तुत किया है-- 

कोई सखी 'विकटनितम्बा' के पति का अनुसरण करती हुई कहती दै किं उस्न 
(वचर मूखं) को विकटनितम्बा व्याह दी गयी है जो काक्वाचक "मास" कोतो भाप 
कहता है, गौर उडदवाचक माप को "मांस", 'सकान' को "गकास' कहु देता है । उष्ट्‌ के 


उन्वारणमेकभीर्कालोपकरदेतादहै,तोकमभीष्‌ का) अर्थात्तु कभी “उष्ट' कहता 
गीर कभी "उद्‌" । 


इति 'वणुप्रभाऽऽख्यहिन्दी-व्याख्याया पण्ठोऽध्यायः समाप्तः । 


सप्तमोऽध्यायः 
शब्दार्थो काव्यमिद्यक्तम्‌ । त्न शब्दलक्षरग्रमे दालंकार दोपा अरभिहिताः। 
इ्दानीमथस्य तान्विवन्नुराह-- 
प्रथः पुनरभिधावान्प्रवतंते यस्य वाचकः शब्दः । 
तस्य भवन्ति द्रव्यं गुणः क्रिया जातिरिति भेदाः ।१॥ 


अथं इति ! पुन.शन्दो लक्षणविभागाथं । वणं समुदायात्मक. राव्द. । अभिहितो- 
ऽथैः पून. । स यस्य वाचकोऽभिधायक शाब्द प्रवर्तंते । इत्यनेन त्वथंस्य शब्दवाच्यत्वाभि- 


सप्तम अन्याय 


"साब्दार्थौ काव्यम्‌" इस काव्य-कक्षण के अन्तर्गत शब्द' पर प्रकाश डालने के 
उपरान्त अव सद्रट अर्थ" पर प्रकाश डाक्ते है । 

इस अध्याय में अथं का लक्षण श्रौर काचक शब्द के चार मेदों-द्रन्य, 
गुण, त्रिया अर जाति के निरूपण के उपरान्त चर्थालंकार्टे के चार व्गो- 
वास्तव, प्रोपम्य, च्रतिश्चय श्रौर श्लेष करा उल्लेख किया गया है, तथा वास्तव- 
गत ९२ अलंकारो के लक्षा तथा उदृाहररु प्रस्तुत किये गये है । 
अरथंका लक्षण श्रौ वाचके शब्दकेभेद 

अथं श्रमिधावानरु होता है! इसका वाचक (कोरई-न-कोई) उब्द होत्ता है । 
इस वाचक राब्द के चार भेद ह--्रव्य, गृण, क्रिया गौर जाति ।१। । 

राब्दशक्तर्यां तीन स्वीकार की गयी है--अभिधा, रक्षणा ओर व्यञ्जना । 
इन्दी के आधार पर शब्दके तीन रूप स्वीकार क्रिये जाते वाचक, रक्ष्यक भौर 
व्यञ्जक । ये तीनो शब्दके रूप है, इसके प्रकार अथवा भेद नही है, क्योकि एक ही 
शब्द अपनी शक्ति के अनुसार-- कभी केवर वाचक कहाता है, कभी वाचक भौर 
लक्ष्यकं दोनो ओर कभी वाचक, रक्ष्यक ओर व्यञ्जक तीनो । 

रुद्रटके इस प्रसगमे केवर वाचक की चर्चा है। अत यहाँ हमारा विवेच्य 
केवर वाचक शब्द है । इसके स्वरूपं एव विभिन्न भेदो की चर्चा प्रस्तूत है : 

वाचक शब्द का सम्बन्ध भिधा राक्तिके साथरहै) अभिधा शक्ति वाच्य 
अथं का निदक्ष करतीहै) इस शक्तिके द्वारा वाच्य अथं को वत्ताने वाला शव्द 


वाचकं कहक्तात्ता है । मम्मट के कथनानुसार जो साक्षात सकेत्तित मथ को वताता ङ, 
उसे वाचक शब्दं केहते है-- 


१८४ कान्यालद्धुारः [ कारिका १ 


धानेन शब्दार्थयोभिन्नत्वं वाच्यवाचकभावश््च दशितो भवतति । श्रोत्रेन्द्ियग्राह्यो हि 
दन्दः । तदन्येन्द्रियय्राह्यस्त्वथैः 1 शब्दे चोच्चारिते सत्यथ: प्रतीयत इत्ति । तथा शब्दाथौ 
काव्यमित्युक्तमु, अतरचशयुनिकोचनमूर्धकम्पाङ्गुक्िदिशेनादिप्रतिपादिताथंस्य काव्यत्व- 
निब्रुस्यर्थं प्रवतेते यस्य वाचकः शब्द इत्यक्तम्‌ । वाचकस्यापि वाच्यसिद् यर्थ विशेषण- 
माह-अभिधा प्रतीति. सा विद्यते यस्य स तथा । ध्वनौ हि प्रतीयमाना्थंसभव इति । 
प्रतीतिश्च यस्य यो विद्यमानस्तेन य ॒सन्सोऽथेः 1 यस्तु न विद्यते तत्र प्रतीत्वभावान्ना- 
सावथं इत्युक्त भवति । लक्षणमभिधाय प्रभेदानाहू--तस्येत्यादि । इति परिसमप्त्यथेः । 
तस्याथेस्यं तावत्त एव द्रव्यगुणक्रियाजातिलक्षणाइचत्वार' प्रभेदाः ॥ 


साक्षात्संकेतितं योऽथ मभिधत्तं स वाचकः } का० भ्र० २।६ 
वाचके राब्द के सम्बन्ध मे मम्मट-प्रस्तुत शास्त्रीय चर्चा पर आधारित निम्नौक्त 
तथ्य उत्लेखनीय है 1 इनसे विषय के स्पष्टीकरण मे सहायता मिलेगी- 

(क) प्रत्येक उच्चरित नाद तब तक शव्द' (वाचक शब्द) कहाने का अधिकारी 
नही वनता, जव तक वहु किसी 'सकेत' का ग्रहण नही करता, परिणामत इस नाद 
अर्थात्‌ व्वनि-मत्रसे किसी अर्थं की प्रतीति नही होती उदाह्रणाथ--गृह शब्द 
हमारे किए सार्थक होता हया भी भारतीय भाषाभो से अनभिज्ञ किसी विदेशी व्यक्त 
के लिए शेव्द-विेष न होकर नाद' मात्र है) 

(ल) हा, जव चह नाद किसी सकेत का ग्रहण करता है तव वह्‌ किसी अर्थ 
विशेप का प्रतिपादन करता है, ओर तभी वह नाद शब्द" कहने का अधिकारी 
बनता है! 

(ग) जिम शब्द से व्यवधान के विना जिस अथं का सकेत-ग्रहण होता ह वह्‌ 
दाघ्द उस अर्थ का वाचक कटाता है-- 

इहाऽयृहीतसंकेतस्य शब्दस्याऽर्थप्रतीतेरभावात्‌ संकेतसहाय एव अब्दोऽथविदोषं 
प्रतिपादयति इति यस्य यत्राऽन्यववानेन संकेतो गद्यते स तस्य वाचकः । 

-कृ० भ्र २1७ वृत्ति 
निप्करपतः वाचक चहु गन्दं कट्खाता है जिसके द्वारा किरी अ्यं-विदेप का 
नकेन-ग्र हण सदा मौर्‌ एक-समान हौ मके । यहाँ “ज्किष्ट' ब्दो के सम्बन्धमे भका 
कीजास्नक्ती है फि चे एक-ममान अये के वाचक संदा नही होते, वे विभिन्न अर्थाके 
याचक दोतते ६ै। किन्तु यह्‌ गेकारी निर्म है 1 एकः शब्दः एकार्यवाचक." "एकः 
शाब्दः सषृद्‌ एकमेवायं गमयते" इन नियम के अनुमार टिर्ष्ट ब्द भी प्रननानुमार 
एक नमयमे केवन्द णक द्वी चच्ट के वाचकः होति दै--एक साथ दो-दो, तीन-तीन जादि 
सर्वो कैः वाचक नरी देत्ति ! अन्तु! 


कारिकार२ | सप्तमोऽध्यायः १८१ 


तेषां च यथोदेशं लक्षणं वाच्यमिति करा द्रव्यस्य तावदाह-- 
जातिक्रियागुणानां पृथगाधारोऽत्र मूतिमद्‌ द्रव्यम्‌ । 
दिक्कालाकाञ्ञादि तु नीरूपमविक्तियं भवति ॥२।॥ 


जातीति । उत्र॑तेपु मघ्ये द्रव्य ॒मूतिमदिन्द्रियग्राह्यमुच्यते । गुणस्य द्रन्यत्व- 
निवृ्यथंमाह--पृथकप्रत्येक जातिगुणक्रियाणामाधार आश्रय. । जात्यादयो हि न कदा- 
चिदपि द्रव्य विना भवन्तीति पृथग्ग्रहण तु केवकानामपि जात्यादीनामाधारतवे द्रग्यत्व- 


रुद्रट ने वाचकं शाब्द के उक्त चार भेद गिनाये है । इन्ही का उत्कंख कर महा- 
भाष्यकार पतञ्जलि नै भी [वाचक] शब्द के चार भेद शिनाये थे-- जाति, गुण, क्रिया 
गौर यह च्छा : चतुष्टयी शब्दानां परवृत्तिः जातिशब्दाः, गुणज्ञब्दाः, क्रियाशञ्वाः, यहच्छा- 
कब्दा्चतुर्थाः (महाभाष्य हितीय आल्िक, ऋटृक' सूत्-प्रसग) । वाचक के चार 
भेदो का उल्छेख रद्रट के अतिरिक्त मम्मट, विश्वनाथ आदि आनचार्योतेभी कियादहै। 
मम्मटनेतो यही भेद स्वीकार कयि है, किन्तु रुद्रट ओौर विश्वनाथ ने यहच्छाः के 
स्थान पर रव्य शब्द का प्रयोग किया है । 

द्रन्य 

द्रव्य, गरुण, क्रिया मौर जाति में द्रव्य मूतिमानु है । जाति, गुण जौर क्रिया 
प्रत्येक का पृथक्‌-पृथक्‌ आधार है । दिका, काल, आकाल आदि [भी द्रव्य है, यद्यपि 
ये ] नीरूप अर्थात्‌ अमतं ह मर इसी कारण वे अविकारी है ।२। 

द्रव्य मूतं पदाथ को कहते है, अर्थात्‌ ये द्रव्य इन्िय-ग्राह्य होते है। हमारी 
इन्द्रियां इन द्रव्यो को छ, देख, सून ओौर सूं सक्ती है । इसके विपरीत जाति, गुण 
ओर क्रियाये सभी मूतं नही होते, तथा इनका आधार काई-न-कोई द्रव्य होता है। 
प्रत्येक द्रन्यमें इनमे से प्रथम दये अथवा तीनो विद्यमान रहते है, किन्तु यह्‌ सदा 
आवर्यक नही कि किसी द्रव्यमे ये तीनो ही विद्यमान हो । उदाहरणा्थ-पाषाणमे 
पापाणत्व जाति ओर इवेत, रक्त अथवा श्याम वर्णं गुण तो विद्यमान है, पर उसमे 
कोई क्रिया विद्यमान नही है, बह सदा निरचर रहता है । किन्तु फिर भी इसे द्रव्य ही 
कहेगे इन सभी मूततिमान्‌ द्रव्यो मे विकार अर्थात परिवर्तन हो सक्ता दै । 

केवल मूतं पदाथ ही द्रव्य कहलाते है-- वस्तुत यह परिभाषा अव्याप्त है । 
कुछ एसे पदाथं भी हँ नोद्रव्यतो है परवे मूतं नही होते, जैसे दिशा काल, आकारा 
आत्मा, मन आदि । इसके अतिरिक्त इनके आकार-प्रकार मे किसी तरह कृ विकार 
अर्थात परिवतन भी नही होता । 


अतः द्रव्य कौ परिभापा वही होनी चाहिए जो आज हम सज्ञा की करते है 
कि जिससे किसी व्यक्ति, जाति अथवा भावकावोध हो| 


१८६ काव्यालङ्कारः [ कारिका ३ 


प्रतिपत्त्यर्थम्‌ । अन्यथा हि समुदितानामेव य आधारस्तदेव द्रव्यं स्यात्‌ । ततश्च 
निण्क्रियत्वात्पाषाणादीना द्रव्यत्वं न स्यात्‌ । मूतिमदिति वचनादिगादीना द्रव्यत्वं न 
स्यात्‌ । अथ वेष्यतेऽत आह--दिक्कारेत्यादि । तुः पूवस्माद्विशेपे 1 मूर्त द्ग्यमुच्यते । 
दिक्कालाकादात्ममनासि पनर्नीक्पाण्यपि द्रन्यमित्यथं । तत्र नीरूपत्वादविक्रिय भवति । 
मूतिमत्पुनः सविकारमर्व ॥ 

अथ द्रव्यभेदानाह- 

नित्यानित्यच राच रसचेतनाचेतनबेहुमिः । 

भेदेविभिन्नमेतद्‌ द्विधा हिधा भूरिशो भवति 11३ 


अगली कारिकामे द्रव्य के भेद वताये गये है, जिनसे इस कथन की पुष्टि 
होती है। 
द्रव्य के भेद-- 
तत्य श्रर अनित्य, चर ओर भचर, चेतन ओर अचेतन, स्थलज ओर जलज 
भ्रादि दो-दो भेदों से द्रव्य के अनन्तमभेदहो जाते है 1३ 
नित्य--परमात्मा, आत्मा ओौर प्रङृति अथवा परमात्मा गौर आत्मा । 
अनित्य-मानवकृत सभी पदाथं गृह्‌, घट, पट आदि । चर ओर चेतन--चल्ने- 
फिरने वाक प्राणी 1 अचर ओर गचेतन--जड पदाथ । [किन्तु वक्षो को अचर--चेतन 
मानना चाहिए क्योकि ये चेतन होते हए भी अचर' है ।] 
"आदि" शव्द से नमिसाधु ने निम्न प्रकार के चाब्द-युगरू भी गिनाये है- 
(१) सवचन ओर अवचन [सम्भवत. 'सवचन' से तात्पयं है उच्चरित पदार्थं 
गौर इसके विपरीत "अवचन" से तात्पयं है केवर विचारापन्न पदार्थं जिन्हे अभी 
उच्चरित रूप नही भिरा ।| 
(२) व्यक्त ओौर अव्यक्त । इनसे तात्पयं है कथित ओर अकथित अथवा 
हश्यमान ओर अहर्यमान पदार्थ । यदि सवचन ओर अवचन से कथित भीर अकथित 
अर्यं अभीष्टदहै तो व्यक्त ओर अग्यक्त से केव हरयमान ओर उह्यमानं अर्थं ग्रहण 
करना चाहिए । व्यक्त, जसे-- सूयं, चन्द्रमा, पृथ्वी, ग्रहं जादि (दृश्यमान पदार्थं), 
धव्यक्त, जंसे-- वायु (अरर्यमान) 1 
(२) स्थुल ओर मुम, जसे--क्रमङा. पार्थिव पदाथं ओर परमाणु । 
(४) नक्तंचर ओर दिवाचर, जसे कमण. निनाचर (राधस-विगेप) ओर 
सामान्य प्राणी । 
(५) स्थलज ओर जलज, जँमे क्रमश. मानव, पद्यु, पक्षी ओर मकर, मत्स्य 
भादि । 


शशि क््फः 


{ न 


कारिका ३ |] सप्मोऽध्यायः १८७ 


नित्येति । एतद्ुद्रव्य नित्यानित्यादिभिभेदंवंहुभिद्धिधा द्विधा विभिन्न सद्‌ भूरिशो- 
ऽनेकशो भवति । आदिग्रहणात्सवचनावचननव्यक्ताव्यक्तस्थूलसूक्ष्मनक्तंचरदिवाचरस्थरुज- 
जलजप्रभूतयो भेदा गृह्यन्ते । बहूग्रहणमानन्त्यप्रतिपादना्थंम्‌ । न च वाच्य चराचरयोः 


सचेतनाचेतन योश्च न विशेष इति 1 वृक्षादयो ह्यचरा अपि सचेतनाः ॥ 


दरव्यके ही प्रसग मे यहच्छा' की चर्चा करना भी अपेक्षित है! इस शब्दका 
व्युत्पत्तिपरक अथे है- यद्‌ ऋच्छयते--गम्यते (अवगम्यते इति यावत्‌) इति यहच्छा, 
अर्थातु जो स्वत प्रचक्तित हौ जाए उसे 'यदच्छा' कहते है ¡ महाभाष्यकार ने इसके 
उदाहुरण.स्वरूप "लृतक, ऋफिड, ऋषि, लृफिड, लृफिड़' शब्दो को, तथा मम्मट ने 
उन्ही के अनुकरण मे “डित्थ' शब्द को प्रस्तुत किया है । ये सभी निरेक होते हृए भी 
विभिन्न व्यक्तियोके एेसेन्ामोका सकेत करतेहै जो स्वतः चर पडेहो। इधर 
विदवनाथ इसी प्रसंग मे एक पग ओौर अगे बह है । उन्होने "यहच्छा' के स्थान पर 
द्रव्य" को ही स्वीकार करते हुए “डित्थ, उवित्थ' आदि निर्थंक सन्नाओ के अतिरिक्त 
"हरिहरः आदि सार्थक सन्नाभो को भी द्रव्य" के उदाह्रण-स्वरूप प्रस्तुत किया है- 
द्रव्यश्ञब्दाः एकध्यक्तिवार्चिनो ह्रिहर-डित्थ-उवित्थादयः । 
--सा० द° २।४ वृत्ति 
इस प्रकार रुद्रट के अनुसार द्रव्य चाब्दसे अभिप्राय है-एकन्यक्तिवाची 
अभिधानो को छोडकर शेष सभी मूतं एव अमूर्तं पदाथ, ओौर विश्वनाथ के अनुसार 
इसका अभिप्राय है-एकव्यक्तिवाची अधिधान चाहे वे निरर्थक हो अथवा साथैक । 
किन्तु हमारे विचारमेद्रव्यके अन्तर्गत रुद्रटः ओर विश्वनाथ-सम्मत सभी पदां 
अन्तभूत करने चाहिए- मूतं गौर अमूतं दोनो, ओर मूर्तं द्रव्यो के अन्तर्गत न केवल 
जातिवाचक गृहीत होने चाहिए, अपितु व्यक्तिवाचक सज्ञाएं भी, तथा व्यक्तिवाचक 
सनज्ञाभो के अन्तर्गत निरर्थकं भौर सार्थक दोनो प्रकार के अभिधानो का ग्रहण करना 
चाहिए 1 उदाहरणाथे--(१) गौ, वालक, पर्व॑त आदि सूते पदार्थ; (२) डित्थ, 
हरिहर, हिमालय भादि मूर्तं पदाथं तथा (३) आकाश, वायु, आत्मा, मन आदि भमूरतं 
पदाथ, ये सभी द्रव्य है] इनमे से प्रथम वर्गं के शब्द जातिवाचक है, द्वितीयं वेगं के 
व्यक्तिवाचक है, तथा तृतीय वं के शब्दो को भी व्यक्तिवाचक मानना चाहिए, क्योकि 
गौ, वारक आदि के समान ये किसी एक जाति का बोध नही करते, अपितुएक ही 
पदार्थे का बोध कराते है । जका भक्षी रूपमेतो एक है ही, वायु, आत्मा गौर मन 
कोभीअशीकेख्पमे एक ही मानना चाहिए 1 
उपर्युक्त शब्दो के अतिरिक्त अव भी कुच एसे शव्द वच रहते है जो वक्ष्यमाण 
गुण, क्रिया ओर जाति के अन्तत नही आते, जैसे- वाल्य. यौवन, वाक्य, लावेण्य, 


2 ` न 


१८८ काव्यालङ्कारः [ कारिका ४ 
थ गुखाः- 
द्रव्यादपृथग्भूतो भवति गुणः सततमिन्द्रियम्राह्यः 1 
सहजाहार्यावस्थिकभाववि्ेषादयं त्रेधा 11४1) 
द्रव्यादिति । द्रव्यादपुथग्भूतौ द्रन्यसमवायौ गुणो भवति । जातिक्रिययोद्रं व्य- 
स्थत्वाद्‌ गुणत्वं स्थादित्याहु--पततमिच््रियग्रा ह्य. सवंदंव प्रत्यक्षगम्यः। नानुमेय इत्यथ. । 
जातित्रिये तु न प्रत्यक्षगम्ये । गुण च केचिदुत्पाद्य सहजत्वेन द्विघेति ब्रू वते तन्तिरासाथं- 
माहू--सहजेत्यादि । तत्र सहजो गुणो यथा-क्षत्िये शौयम्‌ । काके काण्ण्यम्‌ । 


आहार्यो यथा--सास्त्राम्यासात्पाण्डित्यम्‌ । पटे रागः भावस्थिको यथा - फलाना 
लौहित्यम्‌ 1 केशाना शौक्ल्यम्‌ 1 


माधुयं आदि । द्रव्य तो उक्तरूपमे मूतं भौर अमूतं पदार्थोका पर्याय मानलनेकी 


स्थिति मे इन शाब्दो को भव्य के अन्तगेत मानना समुचित नही है । ये किसी-न-किसी 
भावके नाम का वोधकेराते है । अतः इनकेल्िएया तो एक अलग पाँचवाँ शब्द-परकार 
“भाव्‌" नाम से मानना पडगा याद्रव्य को सज्ञा का प्याय मानते हए द्रव्य कौ परि- 
भाषा वही करनी होगी जो आधुनिक हिन्दी-व्याकरण ग्रन्थोमे सज्ञा की स्वीकार 
की जाती है--"जिससे किसी व्यक्ति, जात्ति अथवा भावक्रा वोधहो, ओौर इसी के 
यही तीन भेद--व्यक्ति, जाति ओर भाव मानने चाहिए 1 अधिक समुचित यह्‌ रहेगा 


किं द्रव्य अथवा यच्छा के स्थान पर सज्ञा नामके दाब्द-प्रकार ही स्वीकार कर 
लिया जाए 


य 

गुण द्रव्यं से कमी पृथक्‌ नहीं हो सकता तथा यहु सारा इच्ियग्राह्य होता है 1 
सहज, आहायं तथा आवस्थिक भाव से इसके तीन भेद होते हैँ \४। 

गुण द्रव्य पर अनिवा्यत. आधारित रहता है । इसका द्रव्य के साथ नित्य 
सम्बन्ध रहता है ! प्रव्येक द्रव्य किसी-न-किी गुण से अवश्य सम्पन्न होगा । गुण 
इच््रिय-ग्राह्य है । वह अनुमान का विषय नहींहै। इसके तीन भेद है--सहजः 
आहायं तथा अवस्थिक । सहज गरुण से तात्पयं है नित्य धमे ! उदाहुरणाथं--अग्नि 
मे उष्णता, कौए मे कृष्णता आदि । आहायं गण कहते है उपरन्ध गुण को, जसे 
रास्व के अभ्यास से पाण्डित्य अथवा वस्त्रमे रंगं आदि) जो गुण अवस्थानुसार 


परिवेतितं हौ जाते है, उन्हे आवस्थिक गुण कहते है, जसे फलो का लाल रग, केरौं 
को शुक्कता आदि । 


कारिका | सप्तमोऽध्यायः १८६ 


प्रथ करिया-- 
नित्यं क्रियानूमेया द्रव्यविकारेण भवति धात्वथः । 


कारकसाध्या दधा सकमिकाकमिका चेति ॥५॥ 


नित्यमिति । धात्व्थः क्रिया भवति 1 क्रियाभावो धातुः इति वचनात्‌ । 
सातु न प्रत्यक्षा । कितु द्रव्यस्य तण्डलादेविकारेण वैक्छेदादिनानुमेया । गमनादिका 
तु देलान्तरप्राप्त्यादिनेति ! सा च कारकैः कतरकर्मादिभिः साध्या निष्पाद्य यदुक्तमू-- 
स्वेकारकनिरवर्त्या कलं क्मदयाश्चरया । 
आख्यातश्ञब्दनिर्देश्या धात्वर्थं: केवल क्रिया ॥\ 


करिया 

क्रिया का अनुषान दव्यके निकारसे होतादहै! यहं धात्वथं होतीहै। 
कारकों [कर्ता, कर्मं आदि] हारा यह्‌ निष्पन्न हाती है। सकसिका चक्रिया मौर 
अकसिकाक्रियाये दो इसके मेद है 1५1 


क्रिया का अनुमान द्रन्यके विकारसे होता) द्रव्य के विकारसे तात्पयं है 
प्रदाथं कौ कोई चेप्टा। वही चेष्टा उसी नाम की क्रिया कहाती है । क्रिया सदा "धाव्वर्थं" 
होती है, अर्थात प्रत्येक क्रिया अपनी धातुकेही भूर अथं से सम्बद्ध रहतीरहै। 
उदाहरणार्थ-- पचति, गच्छति, स्वपित्ति, जागतति आदि रूप क्रमदा. पच्‌, गम्‌, स्वप्‌ 
ओर जागर धातुओं के अर्थो से सम्बद्ध है । 


नसिसाधुने क्रिया का [अन्योक्त] लक्षण (स्वंकारकनिर्वर्स्या-' रूप से 
प्रस्तुत किया है, जिस्तका तात्पयं है किं क्रिया धात्वर्थं होती है, अर्थात्‌ धातु का प्रयोग 
(पठति, अपठत्‌, पिपठिषति आदि) क्रिया कहाता है । वह्‌ आख्यात चब्द से निदिष्ट 
होती है, वह कारको से निष्पाद्य होती है तथा कर्ता ओौर कमं के अधीन रहती है, 
अर्थात्‌ क्रिया मुख्य रूप से कतूंवाच्य अथवा कर्मवाच्य से सम्बद्ध होती है । 

यहां यह उल्केखनीय है कि मम्मट ओर विभ्वनाथने क्रिया से तात्पर्यं 
पचति, गच्छति" आदि न ठेकर "पाक, गमन" आदि च्या है। यहाँ 'पाक' आदि 
दाब्द समग्र क्रियाककाप के सूचक है : पूर्वापरीभूताऽवयवः क्रियारूपः (का० भ्र 
र्य उ०), अर्थात प्रारम्भ से लेकर अन्त तक पाक-सम्बन्धी सभी प्रक्रिया । उदा- 
हरणा्थे, भोजन-विषयकं कच्ची सामग्री से पूरित पात्र को आग पर चढाने से लेकर 
उसे नीचे उतारने तक का नाम पाक है: अधिश्चयणाऽधःधरयणपयन्तः क्रियाकलापः 


पाक-शन्देनोच्यते (महाभाष्य) । इनसे पूवे यास्क ने इसी अथं के किए आख्यात" शब्द 
कां प्रयोग किया था- 


१६० कान्यारुङ्ारः [ कारिका 


सापि सकर्मिकाकममिकात्वभेदेन दधा । आद्या ग्रामं गच्छतीत्यादिका । द्ितीया 
आस्ते देते इत्यादिका ! नियतानियत्तकमिकात्वसमुच्वयार्थच्चव्दः । तत्राद्या कटं 
करोतीति दिितीया वहति भारम्‌, वहति नदी ॥ 

पूर्वापरीभूतं सावमाख्यातेनाऽऽचष्टे ब्रजति, पचतीत्युपक्रमप्रभृत्यपवगपयन्तम्‌ । 

-निर्क्त ११११ 

यद्यपि यास्क को 'आद्यात' शब्दसे क्रियाके अत्तिरिक्त गौणरूपसे द्रव्य (यच्छा 
राव्द) भी अभीष्टहै, किन्तुक्रिया की प्रवानता रहनेके कारणवे अच्यातको ही 
भावप्रचान मानते है 1 भव" गच्द यहाँ क्रिया का पर्यायवाची हैः 

(क) भावप्रधानमाद्यातम्‌ ! 

(ख) तदं यत्रोमे भावप्रधाने मवतः । (निरुक्त १।१।६.१०) 
सर्पात्‌, (क) ञास्यायते प्रधानभवेन च्रिया (भष्वः); मौणत्वेन द्रव्यं च यत्रे तदु 

अस्यातन्‌ । 
(ख) वात्ये ह्या्यातं प्रधानं तदथेत्वात्‌, गुणीभूतं नास तद्थंत्य मावनिष्पत्तौ 
अद्धभूतत्वात्‌ ! (निरुक्त १।१।१०, दुर्गाचायं व्याख्या) 

मम्मट के अनुसार ये दोनो रूप--'पचत्ति' ओर पाकक्रिया ह । यास्क के 
लनुल्प मम्मटभी क्रिया भौर भाव को परस्पर पर्यायवाची शव्द मानते है 1 उनका 
यह मन्तव्य वैयाकरणो वारा भी अनुमोदित है--घात्वर्थो हि क्रिया ज्ञेयो साव इत्य- 
निधीयते 1 (वाक्यपदीय) अस्तु ! ये दोनों रूप क्रियां अयवा भाव कहति है । 

मम्मटने भावके दो प्रकार गिनये ह-सिद्धावस्थापन्नभाव ओौर साध्या- 
वस्थापन्न भाव | तु से निमिन "पाकः गन्द को उन्होने सििद्धावस्यापन्न भावं 
कह है, जीर पचत्ति' को साव्यावस्यापन्न भाव । इधर साध्य को उन्होने गुण अर्थात्‌ 
विनेषण का पर्याय मानादै1 मम्मट के अनुसार "पचति" को इस आवार पर साध्य 
(गुण) मनिना चाहिए किं पचति शव्द स्वयं एक विनेपण है, क्योक्तिं ऽसमे प्रयुक्त 
“ति' प्रत्यय पच्‌ चातु का विनेपण है! 'पचत्ति का अयं है एककनृंक चतमानकालिक 
पाक | इनं प्रकार सम्मट जादिके चिकार मे पाक" भीर "पचति" आदि दोनो प्रकार 
कै ख्मक्िया (भाव) ई--एक सिद्ध दहै आर दूनरा स्नाध्य । 

किन्नु इस सम्बन्ध मे हमारा विचार ह किः यदपि शावः, गमन" आदि शब्दो 
म क्रिया का--यायो कटिम्‌ भावं का--अंथ निहिते दैः नो भी विचय के स्पष्टीकरण 
पे न्वित रने धरिया नरी कुना चाहिग्‌ । उच्‌ साघुनिक हिन्दी-व्याकरणो के सनृटप 
नभाक, सौर अविक न्पष्ट शथ्दामन्ह तो नावचाचक नना, कटना चाद्टएु, त्या 
"पयति, गच्खति' तदिन्याको से न्नाम मे वभिद्धिति करना चाहिए । 

मेप स्हा वारदात ्प्य्नं । जना क्रि उग्र किय बनि हु 'जास्यात्तः 


[0 


कारिका ६ | सप्तमोऽध्याय. १६१ 
ग्रथ जातिः-- 
भिन्नक्रियागुणेष्वपि वहुषु द्रव्येषु चित्रगातरेषु । 
एकाकारा ुद्धिभेवत्ति यतः सा भवेज्जाति; ।।६॥ 


यास्क के अनुसार दोनो रूप ग्रहण किये जाते है- प्रधान रूप से क्रिया, ओर गौण रूप 
से द्रव्य (अर्थात्‌ कर्ता) । इसका कारण यह्‌ है कि "पचति" कह्ने से भर्थाववोध तो 
होताहीदहै, साथदही क्रिया की प्रधानता ओर द्रव्य (कर्ता) की गौणता भी रक्षित 
होती है, किन्तु इसके विपरीत “राम ` अथवा भसौ" आदि द्रन्यवाचक (सज्ञा अथवा 
स्वंनामवाचक) राव्दो के कह्ने से अर्थाववोध तक नही हो सकता, क्योकि इनमे क्रिया 
समाविष्ट नहीहै। इस प्रकार इन दो उदाहरणो के आधार पर कह सक्ते हँ किं 
अकेले द्रव्यवाचक शब्दो मे अभिव्यक्ति की क्षमता नही होती, जबकि गकेके क्रिया- 
वाचक शब्दो मे यह क्षमता होती है । इसी आधार पर यह फलित माना जाता है कि 
पचति, गच्छति" आदि शब्दोमे क्रिया की प्रधानता माननी चाहिए, ओर द्रव्य की 
गौणता । टीक इसी प्रकार "पाक, गमन" आदि शब्दों को भी आख्यात कह सक्ते है 
वयोकि इनसे क्रिया की प्रतीति तो होती है, साथ ही पकाने वाखा, जाने वाला" आदि 
कर्ताभो की ओर भी अनायास ध्यान चला जाता है । अस्तु ! 
निष्कषंत. यास्क के अनुसार यद्यपि आख्यात से तात्पयं है--प्रधान ल्पसे 
क्रिया (अथवा भाव) ओर गौण रूप से द्रव्य, जैसे पचति ओर पाक । क्िन्तुफिरभी 
विषय के सुगम अववोध के लिए "पचति" को क्रिया कहना चाहिए, ओर "भाक" को 
भाववाचक सन्ञा । यास्क, मम्मट आदि के अनुसार क्रिया गौर भाव शब्द पर्यायवाची 
है, किन्तु आज इनका प्रचकित अथं भिन्न-भिन्न है । 
जाति 
“ भिन्न क्रिया ओर गरुण वाख [होने के कारण ] अनेक प्रकार के शरीर वालं 
भी बहुत से द्रन्यो मे जिस तत्त्व के कारण समान बुद्धि पेडा होती है उसे जाति 
कहते ह ।&। 
कदं वारको अथवा गौ अथवा पर्वतो मे गुण ओौर अथवा क्रियाके कारण 
यद्यपि विभिन्नता रहती है, तो भी इनमे एक तत्तव (तथ्य) समान है, वह है इनकी 
वाककत्व जाति, गोत्व जाति अथवा पर्व॑तत्व जाति, जिसके कारण ये इन्ही नामो से 
पुकारे जने है । इसी तथ्य को मम्मट ने दूसरे प्रकार से कहा रै--गुण, क्रिया जओौर 
यदहच्छा शब्द वस्तुत होते तो एक है किन्तु आश्चय-मेद से इनमे भेद प्रतीत होता है । 
~ उदाहरणार्थं, एक ही मुख का प्रतिविम्ब दर्पण, तेर आदि में भिन्न-भिन्नसूप से 
दिखाई देता है : 


५ भेषकोनणे १५७०५ 


व 
~~ 
{.. 
॥ ५, 


१६२ काव्याल्द्धुारः | कारिका ६ 


भिन्नेति । वहुषु द्रव्येपु यतो यदचादेकाकारा समाना वृद्धिर्भवति सा जातिभ- 
वेदिति 1 कदाचित्स्रमानगुणक्रियायोगात्सा वुद्धिभवेदित्याह--िन्नेव्यादि । भिन्नौ 
विदखक्षणौ क्रियागुणौ येषु तप्वपि । कदाचिदत्यन्तमवयवसारस्याद्ा सा स्वादित्याह- 
चिच्रगात्रेप्िति । चित्रं नानारूपं काणकृगकूव्जादिके गात्रे येपां तेपु । सा च जातिस्ि- 
ष्ठपि द्रव्यक्रियागुणेपु समवेतेति च्याश्चया ॥ 


गृणक्रियायहच्छाशब्दानां वस्तुतः एकरूपफाणासप्याश्रयनेदाद्‌ सेद इव लक्ष्यते । 
यथैकस्य मुखस्य खड्गमुकुरतैलाघयालम्बनमेदात्‌ 1 (का० प्र २।१० वृत्ति) ौर यही 
तथ्य भवुंहरि ने अपनी विनिष्ट ्न॑टीमे निम्न शब्दोमे प्रकट क्रिया है--किसीपरुको 
जो स्वल्पसेगौ है यह्‌ नही कह सकते कि वहु गौदहै'' गौर न यह्‌ कह सकते है किं 
वह गौ नही ह 1" फिर भी यदि उसे गौ कहते है' तो उसमे [संकेतित | गोत्व जाति 
के ही सम्बन्य से-- ॥ 

न हि गीः स्वरूपेण गौः नाप्यगौः 1 गोत्वाऽनिसम्बम्धात्त्‌ गौः 1 (वाक्यपदीय) 

'जात्ति' के प्रग मे एक अन्यं चर्चा भी विचारणीयदटै। मम्मट जीर विशव 
नाय न कुछ विद्रानो का मन्तन्यं उत्लिखित करते हुए कटा है कि वे विद्धान्‌ सकेतित 
(वाचक) ब्द कै उक्त चार मेद--गुण, क्रिया, द्रव्य गौर जात्ति-न मानकर केवल 
एकं भद स्वीकार करते ह्‌ "जात्ि--संकेत्ितश्चत्रुभदी जात्पादिर्जात्तिरेव वा (का० 
भ० १।१०} । उम सम्बन्यम उनकातक यह हैकि जाति तो 'जाति' दहै दी, गुण, 
क्रिया भौर द्रव्य इनतीनोमे भी "जातिः सत्ता विद्यमान है । उदाहरणाय - 

१. हिम, दुर्य, यख आदि का जुक्छ वर्णं (अर्धात्‌ गुण) मूतः भिन्न-भिन्न 
ह,तोभी ये श्ुकठ काते ह, क्वोकि ठन मव म “जुक्लत्व' जाति विद्यमान हं । 

२. इसी प्रकार गुड, तण्टन्ठं आदि या पाक (मर्थान्‌ क्रिया) यद्यपि भिन्न 
भिन्न प्रकारकालेतादहैतो भी 'पाकत्व' जतिकेही कारण गे सभी भिन्न चिविरयां 
"पारः फटन्याती दह 1 

२. अव द्रव्यके तौमरे भेदद्रव्य को टखीचिए। इस प्रमगमे तीन तथ्य 
तप्रैष्णीय ई 

(5) यदि कनी एक चाद, पक बद यीर्‌ एक नोने दासा उच रिति किरी 
स्वित्‌ तुम गदत्व' नाम रने उच्यारणा म भिन्ने भिन्न प्रकारका राता 

(ग) यदि र्य दित्य नामत कोः व्यति क्षपाशय मे पदिवनित हनि र्नं 
परभी 'रित्दणनाममे री पन्तय तना, भीर्‌ 

(ग) नि "दित्थं नामके अनेकः व्यस्त पकनदूनरन भिननलने हए नमी 


द ¢ ११ {1२1 11 ष्ट द्‌ ष ॥८4४। + न 


१, द्म तभ्यो कट ने प्ररनुत नहु सिणा। 


कारिका ६ | सप्तमोऽध्यायः १९३ 


ह 


मीर 


(रा 
--तो इसका एकमात्र कारण “डित्थत्व' जातिदहीदहै। इसी प्रकार स्वय 
जातिवाचक बाक्क, गौ आदि शब्दो कीभी यही स्थिति है । अनेक वालक अथवा 
गँ परस्पर भिन्न होते हृए भी यदि वारक, गौ दिही काते हैँ तो इसफा 
कारण भी बाककत्व ओर गोत्व आदि जाति ही है 1 अत संसार-भरके सभी संकेतित 
दाब्द केवल (जात्ति' नाम सेही पुकारे लाने चाहिए द्रव्य, गुण ओौर क्रिया नाम 
से नही । 
निस्सन्देह इन तर्को मे सूक्ष्मता है, गौर इन्ही पर आधारित उक्त मान्यता 
नितान्त अस्वीकारभी नही की जा सकती, किन्तु फिर भी यहु मान्यता व्यवहारिक 
न होने के कारण मनस्तोषक नही है, क्योकि यदि सभी प्रकारके शब्दो को जातिः 
लाम से पुकारा जाएगा तो फिर वाचक शब्दो का वर्गीकरण करनेसेक्या काभ ? 
तब तो वाचक (संकेतित) शब्द ओौर जाति को पर्यायवाची ही मान केना चाहिए । 
किन्तु व्यवहार एव सुविधा दोनो हप्टियो से ससार भर के वाचक शब्दो का वर्गी 
करण करना अत्यन्त अनिवायं है, विशेषतः तभी जबकि भारतीय प्रज्ञा इसदिशा मे 
अत्यन्त जागरूक एव दक्ष है, ओर इस जागरूकता तथा दक्षता का प्रमाण यहुहैकि 
भारतीय आचार्यो ने प्रायः सभी सास्वीय ्रसगो को अनेक भेदो-उपभेदो, रूपो-उप- 
रूपो मे वर्गङित एव विभाजित किया है । 
उवत रूप मे जाति-सम्बन्धी शास्त्रीय चर्चा प्रस्तुत करने के उपरान्त एक 
शंका उत्पन्न होती है किं शब्द-विभाजन-प्रसग मे इस शास्त्रीय (जातिः को आव- 
क्यकता है भी 1 यदि "जाति" से तात्पयं "बालकत्व, गोत्व" आदि तब तो उसकी 
आवश्यकता नही है, क्योकि अपने इसी पारिभाषिक अथं के सूचक ये ब्द व्याव- 
हारक भापा मे प्रयुक्त नही होते, ओर इसी प्रकार की शास्तीय चर्चामो मे जव 
ये "वाककत्व, गोत्व' आदि श्ञब्द प्रयुक्त किये जाते हँ तो वस्तुत ये "वाल्क, गोः 
आदि द्रव्यो के भाव है--भाव से यहाँ तात्पयं वही है जो उपर्युक्त “भाववाचक' सज्ञा 
के (भावः राब्द का है, अर्थात्‌ "ए्स्टरक्ट' । भौर यदि "जाति" से तात्पयं "बालक, गोः 
मादि शब्दोसेहीहै, तो फिर इनका अन्तर्भाव द्रव्यं (अथवा सज्ञा) मे करिया जाना 
चाहिए । हमारा विचार है किं जाति नामक शब्द-प्रकार स्वतन्त्र रूप से स्वीकार न 
किया जाकर इसे द्रव्य (सज्ञा) का ही एक भेद मान केना चाहिए, क्योकि पतञ्जलि, 
मम्मट आदि की जाति" वस्तुत. द्रव्य की--"जातिवाचक सज्ञाओः-की निणगयक 
आधार ही है, स्वय कोई स्वतन्त्र शञव्द-प्रकार नही है ! अस्तु ! 
इस प्रकार वाचक शाब्द दे शेष तीन प्रकार स्वीकार कर छने के उपरान्त 
अन्यय' शब्द वच रहते हँ । हमारा विचार है किं वाचक शब्द कै जितने वगं (ओौर 
उनके भेद-उपभेद) वन सके उनमें इसे विभक्त कर देना चादिए 1 इस हष्टि से आधू- 


ऋः 


१६४ काव्यालद्ारः [ कारिका ७ 


अथासामेव द्रव्यगुरुक्रियाजातीनामन्यथात्वनियममाह-- 
सर्वः स्वं स्वं रूपं धत्तेर्भ्यो देरकालनियमं च। 
तच न खलु बध्नीयान्तिष्कारणमन्यथातिरसात्‌ ॥७॥ 


सरवे इति । सर्वोऽर्थो द्रव्यगुणक्रियाजातिलक्षणः स्वं स्वमात्मीय स्वभावं देरकाल- 
नियम च धत्ते । नियते क्वापि देके काठ च नियताकारश्चार्थो भवतीत्यर्थ. । तत. 
किमित्याह- त चेत्यादि । चशब्दो हेतौ । खल्ववधारणे । ततः कारणात्तम्थेमन्यथा 
नैव बधघ्नीयादिव्यर्भ. 1 तत्र ये नित्या भावास्तेषा वत॑मानेन निदेशो न्याय्यः । अतीताना 
तु भूतेन । अनागताना भविप्यत्कार्न । एव चराचरसचेतनाचेतनादिपु द्रष्टव्यम्‌ । 
देरकारनियमश्च यथा--हिमवति हिमस्य सदा सद्धावोऽन्यत्र तु गीतकार । एवमन्य- 
दपि 1 निष्कारणग्रहण कारणसद्धावेऽन्यथात्वस्यादुष्टत्वख्यापनाथेम्‌ । यथा शुकसारिका- 
दीनां व्यक्तवचनत्वे मनुप्यभ्रयलनः कारणमिति । कृतः पुननिष्कारणस्यान्यथाभिषान- 


निक हिन्दी-व्याकरणो के वाचक ब्द के निम्नोक्त छ भेद अत्यन्त उपादेय है-सन्ञा, 
सर्वनाम, विनेषण, किया, क्रियाविरेपण ओर अन्यय । हा, यदि चाहेतो सन्ना, 
सर्वनाम ओर विश्लेषण को यास्क के अनुसार पहङे केवर “नाम' भी कहु सकते है- 

सत्त्वप्रधानानि नामानि 1 (निरुक्त १।१1९) 

[ठगसंख्ययोरत्र सदरमावः इति सत्त्वम्‌ \ पकृत्तिः, प्रत्ययः, चिमक्तिरिति चरधा 

चिमज्जमानम्‌ एतावदेवंतन्नाम । | -दुर्गाचायं व्याख्या 

अर्थात्‌, लिग ओर संख्या तया विनक्ति ये तीनों एकन संज्ञा, स्वनाम ओर 

विज्ञेषण से सम्बद्ध रहते है, क्ता से नहीं । 
वाचक शब्दां का यथावत्‌ प्रयोग 

यह सव अर्थं अपने-अपने रूप को तथा देशकाल फे नियम को धारण करता 
है 1 इसका निष्कारण प्रयोग नहीं करना चाहिए । इनका अन्यथा (कारण-विहीन, 
समनग, निरर्थक) प्रयोग अत्तिरस क कारण होता ह ।७। 

यहां "सव अर" से त्ात्पयं है मथं के चारो-के-चारो रूप द्रव्य, गुण, क्रिया 
जीर जात्ति | इतन कारिका का अभिप्राय यहरहै कि इन चारो रूपो का प्रयोग अपने- 
अपने रूप के अनुनार तया देन, काल के अनूक्तार करना चाहिए । जंसे--जो नित्य 
प्रनंग द उनका निदन दत्तमानेकालमे करना चाद्दिए 1 (यथा पृथ्वी वतुखाकार है, भादि) 
सौर जो मनित्यदहँतो अतीतं से सम्बन्ध होने पर उनका निदं भूतकाल से करना 
नादहिए्‌ सौरः भवित्यमे सम्वन्व होने पर भविप्यक्तारू से । इसी प्रकार देव-कारू विप- 
गन्ह नियम मी जानने चाहिए । जम हिमाच्य पर्‌ सदा हिम की विद्यमानता होती दै, 
टप स्थानो पर्‌ केवल भीतकार मेही 1 अतः इस नियम को ध्यान मेँ रसकर हीं 


1, 


कारिका ८ | सप्तमोऽध्यायः १६५ 


प्रसद्ध इत्याह्‌--अतिरसादिति । अतिरसहृतहूदयाना हि प्रायो मर्यादोत्ल्खनमपि 
भवति । एतद्क्तम्‌- । 
गणयन्ति नापन्ञब्दं न बृत्तमङ्क क्षयं न वार्थस्य । 
रसिकत्वेनाक्किता वेहयापतयः कुकवयदच ॥ 
यद्यत्यथात्वं निव्पिंते तहि कथ दिगाकाशादिष्वमूतषु मूतधर्माः कविभिववंण्यन्ते । 
यथा-निर्मला दिदः 1 नि्मंल नभ इति । 
तथा विचेतनेषु सवेतनधर्मा इत्याह- 
सुकंविपरम्परया वचिरमविगोततयान्यथा निबद्ध यत्‌ । 
वस्तु तदन्यादशमपि बध्नीयात्तत्प्रसिद्धयं व ।। ८] 
सुकवीति । पूरवंसुकवीना परम्परया समूहेन चिर बेहुपुवेकारेऽविगीततयावि- 


गानेन निदषितयेति यावत्‌ यदस्त्वन्यथा निबद्ध तदन्यादशमयपि तत्प्रसिद्धयेव बध्नीयात्‌ । 
न त्वात्मवकलेन । महाकविप्रसिद्धिरेवात्र प्रमाणमित्ययंः ॥ 


रचना करनी चाहिए । यदि कही कथा-प्रसा से इन नियमो का भग॒ करना पड़जाए 
तो वहां कारण उपस्थितं केर देना चाहिए, ज॑से--ञुकसारिका आदि हारा सानव-वाणी 
का प्रयोग कराना हो तौ इसका कारण मानव-प्रयत्न को देना चाहिए अथवा यह बताना 
चाहिए किं यह्‌ पुरवंजन्म मे मानव था 1 
' "अतिरसातु' शब्द कौ व्याख्या मे नमिसाधु ने गणयन्ति नापर्चन्दभु"*"' यह्‌ 
कथन उद्धूत कियादहै किं तथा कूकवि (अप्रवीण कवि) ओरं वेश्यासक्तजनें न अप- 
शब्द (सदोष प्रयोग, पक्ष--गाज्यो) की चिन्ता करते है, न छन्दोमङ्ख (पक्षे--नियम- 
भग) की, ओौर न अर्थक्षय (पक्षे--घनहानि) की, क्योकि वे रसिकता से आकू होते है । 
नमिसाधु का तात्पयं यह है कि इन व्यवितयो द्वारा अतिरसिकता के कारण 
नोरते समय अथंहीनता की भी चिन्ता नही की जाती, किन्तु इस प्रकार के प्रयोग लोक 
भौर कान्य दोनो मे स्वाभाविक, अतएव श्राह्य ही सम्नने चाहिए । वस्तुत प्रसगानुसार 
एसे प्रयोग करना समुचित ही माना जाता है, गौर अतिरसताः (अतिरसिकता) भी 
निस्सन्देह्‌ प्रसग ही है । हा, प्रसग-विहीन एसे प्रयोग निस्शन्देह दोपसूचक दै । 
परम्परापुष्ट विपरीत-वरंन मी मान्य 
यदि किसी विषय-बस्तु का विपरीत-वर्णन इस आधार पर किया गया हो 
किं सुकविर्यो ने इसे चिरपरम्परा से अविगीत (निर्दोष) माना हुमा है तो बहु इस 
प्रकार का [विपरीत ] बणन भी प्रसिद्धिके कार सुवद्ध कर छेना चाहिए \८1 
उदाहरणाथं, कविजन दिशा, ` आकाश आदि अभूतं पदार्थो का वणंन भी मूतं 
पदार्थो के अनुरूप करते चले अये है । जैसे- निर्मल दिशाँ निम आकाश मादि । 


१९६ कान्यालङ्धार. | [ कारिका £ 


सप्रमेदम्थंमभिधाय सांप्रतं तदलंकादरनाह- 
ग्रथंस्यालंकारा वास्तवमोौपम्यमतिरयः इलेषः 1 
एषामेवं विशेषा भ्रन्ये तु भवन्ति निःशेषाः ।1€।॥ 


अर्थस्येति । उक्तलक्षणस्याथंस्य वास्तवादयस्चत्वारोऽकंकारा भवन्ति । चतुभिः 
प्रकारेरसौ भूष्यत इत्यथः । नन्वन्येऽपि रूपकादयोऽुकाराः सन्ति तत्किमिति चत्वार 
एवोक्ता इत्याह--एषामेवेद्यादि ! तुतौ । एषामेव सासान्यभूताना चतुर्णा ते भेदा 
यतस्ततो मूरुभेदत्वेन नोक्ता इत्यथः ।। 


ठेसे प्रसग "कविसमय-स्याति" काते है : निहृतुता तु श्यातेऽ्थे दोषतां नैव गच्छति । 
व्यात्‌ अर्थात्‌ कवियो द्रा स्वीकृत अर्थं मे निहतुता दोष स्वीकार नही किया जाता । 
| विशेप विवरण के लिए देखिए साहित्यदपण ७।२२-२५ 
श्रलंका्रो का वगकिरर 
वास्तव, ओौपभ्य (उपमा), अति्ञय ओर इडेष--ये चारों अथं के अलकार 
ह । अलंकारो के शेष भेद इन्ही सृलभूत चार अलंकारो के विभिन्त प्रकार ह ।६। 
रुद्रट ने उपयुक्त कारिकामे अक्कारो को चार वर्गो मे विभक्त किया है-- 
वास्तव, ओपम्य, अतिशय ओर रकेप । इनका यह वर्गीकरण अपने प्रकार का नवीन 
एव मौलिक प्रयास है । इनसे पूवं यह प्रयास भामह, दण्डी भौर उद्भटनेभी किया 
था, किन्तु उनका वर्गकिरण अत्यन्त सामान्य कोटि काथा। 
सामन्यितः अलंकार को वाणी का उच्छवास कहा जाता है । वाणी का यह्‌ 
उच्छवास विविव प्रकारकाहोने से अलकारो की संख्या का निश्चय ओर उसका समू- 
चित वर्गकिरण करना प्रायः असम्भव ही है। दण्डी का यह्‌ कथन-ते चाद्यापि 
चिकेत्प्यन्ते कस्तान्‌ कात्स्येन वक्ष्यति । (का० द० २/१) अकल्कार कौ व्यापकता 
का घ्योतके है 1 उसी प्रकार आनन्दवद्धन भी इसी ओर सकेत करते है-- 
यश्चायमुपमाशकेषादिरलकारमार्गः प्रसिद्धः स॒ मणितिवेचिन्यादुपनिबध्यमानः 
स्वथमेवानर्वाधिवरधते पुनः दातश्षाखतामू । (ध्वन्याोक ४1७ वृत्ति) 
अर्थात्‌ यह्‌ जो उपमा तथा इलेष आदि का प्रसिद्ध अकंकार-मागं है, वह्‌ कथन 
की विचिव-योजना से स्वय संकडो असीम क्ाखाओ मे विस्तृत टोता है। 
कन्तु फिर भी मनेक आचार्यो ने नास्त्रीय निर्वाह के चियि अलकारोके वर्ग 
करण का प्रयास कियाहै 1 रद्रटसे पूवं भामहने वाणी के समग्रव्यापारको दो वर्गौ 
मे विभक्त किया है--वक्रोवित्त ओर स्वभावोक्ति उन्दने वक्रोर्वित्त' को कान्य-चमत्कार 
को वीजं माना भौर स्वभावोचित्ति को "वार्ताः मात्र कहा। दण्डी ने समस्त वादूमय 
को भामह्‌-सम्मते उक्तं दोनो वगो मे विभक्त करते हुए भी स्वभावोर्वित के प्रति 


॥। 


कारिका & | सप्तमोऽध्यायः १६७ 


अपना समादर प्रकट किया भौर उसे एक अलंकार स्वीकार करते हए अलंकारो मे 
प्रथम स्थान दिया । 
इनके उपरान्त बहुत आगे चरकर आचार्यं भोजराज ने वाङ्मय को तीन 
वर्गौ मे विभक्त किया--वक्रोक्ति, स्वभावोचित्ति गौर रसोषित (सन्क०्भ०) 1 स्पष्ट 
है कि यह्‌ वर्गीकरण अकारो का न होकर समस्त वाड्मय का है । अर्कारो को सवं- 
-प्रथम वर्गीह्कित करने का प्रयास उद्भट के कान्यालकारसारसश्रह' मे मिल्ताहं। 
उन्होने इस ग्रन्थ को निम्नोक्ति छः वर्गो में विभक्त किया है-- 
प्रथम वगं-- पुनरुक्तवदाभास, छकानुप्रास, वृत्यनुप्रास, छाटानूप्रास, दीपक, उपमा, 
प्रतिवस्त्रुपमा । (८ अर्कार) 
दितीय वर्ग-आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति, अतिक्षयोक्ति, 
यथास्य, उ्प्रक्षा, स्वभावोक्ति । (€ अक्कार) 
तृतीय वर्ग--यथासख्य, उत्प्रक्षा, स्वभावोर्वित । (२ अकार) 
चतुर्थं वगं--ग्रेयस्वत्‌, रसवतु, ऊर्जस्वी, पर्यायोक्त, समाहित, उदात्त, दिलष्ट । 
(७ अकार) 
पञ्चम वर्गं--अपह्व ति, विशेषोक्ति, विरोध, तुल्ययोगिता, अप्रस्तुतप्रशसा, व्याजस्तुति, 
निदरेना, सकर, उपमेयोपमा, सहोक्ति, परिवृत्ति । (११ अल्कार) 


षष्ठ वगं--सन्देह्‌, अनन्वय, संखष्टि, भाविक, कानव्यालिग, हष्टान्त । (६ अलकार) 


दन में चतुथं वे को छोडकर शेष वर्गो के अककारोमे कोई आधार-साम्य 
रक्षित नही होता, जिसके व पर उन्हे पृथक्‌ वर्गोमे रखने का कारण बतायाजा 
सके ! चतुथं वगं मे भी प्रेयस्वत्‌, रसवत्‌, उजेस्वी ओर समाहित के अतिरिक्त उदात्त 
भौर पर्यायोक्ति अलकारो को विषय-साम्य के आधार पर एक्‌ साथ रखा जाना युक्ति- 
सगत प्रतीत होताहै। पर इसी वगंमेदही श्लेष अरकारको स्थानदेनेका कारण 
समञ्ञ मे नही आता । इस प्रकार उद्भट के इस वर्गीकरण का महत्व केवर एेति- 
दासिकदहीहै) परवर्ती आचार्योने नत्तोईइसे अपनाया ओरन इसका आधार 
ग्रहण किया है । 
अलंकारो को सर्व॑प्रम यथासम्भव व्यवस्थित रूप मे वगीङ्रित करने का श्रेय 
आचायं स्द्रट्‌ कोही है। उनकी अरकार-सख्या उस समय तक के सभी आचार्यो से 
अधिक है । उन्होने सर्वप्रथम अकारो के मूलतत्त्वो पर विचार करते हृए स्व-निरूपित 
अर्थाकारो को उक्त चार वर्गोमे विभक्त किया है । वस्तुस्वरूप-कथन को "वास्तवः 
„ कहते है 1 सहोक्ति, समुच्चय, जाति, यथासख्य आदि अकार वस्तुगत है 1 उपमेय 
ओर उपमान की समानता का नाम 'ओौपम्य' है । उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपकं आदि भल- 


१६८ कान्यारुङ्धारः [ कारिका ६ 


कार इसके अन्तरगत है । अथं ओर धमं के नियमो के विपयंय को अतिशयः कहते है । 


पूवं, विरोष, उत्प्रक्षा, विभावना आदि अत्तिशयगत अरुकार कहाते है 1 अनेकार्था का 
ताम ^इरष' है । अविशेष, विरोध, अधिक आदि दिक्ष्ट अरुकार है । 

सद्रटने कुछ अल्कारोको दो-दोवर्गोमेभी रखादहै। जसे उत्तर ओर 
समुच्चय अकार वास्तवेगत भी है ओर ओपम्यगत भी; विरोध ओर अधिक अतिशय- 
गत भी है ओौर ररेषगत भी; उस्प्रक्षा मौपम्यगतमभी है ओर अतिश्यगत भी। विषम. 
वास्तवगत भी है ओर अतिरयगत भी) 

सद्रट्‌ के पदचात्‌ रुय्यक ने अक्कारोंका वर्गकिरण किया। एकावली के 
कर्ता विद्याधरने रुय्यक का प्राय. अनुकरणं किया । एकावली की तरल टीकाके 
कर्ता मल्लिनाथ ने रुय्यक ओौर विद्याधर के वर्गकिरणं का विशेष रूप से स्पष्टीकरण 
करते हुए पाठ्कोके किए "उसे सुबोध रूपदे दिया! मल्लिनाथ के अनुसार उक्त 
आचायंहय का वर्गकिरण इस प्रकार है- 

१. साहद्यमूलक अरकार वगं-- 

(क) भेदाभेदप्रघान--उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय ओौर स्मरण । 

(ख) अभेदग्रधान-(अ) आरोपमूला-- रूपक, परिणाम, सन्देह आदि । 

(आ) अध्यवसायमूला--उस्परक्षा ओर अतिशयोक्ति । 

२. ओपम्यगभं अरकार वमं-- 

(क) पदार्थगत-तुल्ययोगिता ओर दीपक । 

(ख) वाक्यार्थंगत--प्रतिवस्तुपमा, दृष्टान्त, निदशेना । 

(ग) भेदप्रधान-- व्यतिरेक, सहोक्ि, विनोक्ति । 

(घ) विशेषणविच्छित्ति--समासोक्ति, परिकर । 

(ङ) विशेष्यविच्छित्ति-परिकराक्षर । 

(च) विशेषण-विशेष्यविच्छित्ति-दंलेष 1 

(छ) समासोक्ति से विपरीत होने के कारण अप्रस्तुतप्रशंसा को; अर्थान्तर- 

न्यास मे अप्रस्तुतप्रशसा के समानं सामान्य-विशेष की चर्चा होने के 
कारण भर्थन्तिरन्यास को; गौर गम्यप्रस्ताव के कारण पययोक्त, व्याज- 


स्तुति भौर अक्षेपको भी ओौपम्यगभं अकुकारवगंमे स्थान दिया 
गया है ¦ 


३. विरोधगभं अककारवगं--विरोध, विभावना, विशेषोक्ति आदि । 

४. भ्खखाकार अककारवर्ग--कारणमाला, एकावदी, मालादीपक, सार । 
५. न्यायमूलक बककारवग-- 

(क) तकेन्यायमूरुक--कान्यङ्गि, अनुमान । 


कारिका १० | सप्तमोऽध्यायः १६६ 


यथो हेश्स्तथा लक्षणमिति वास्तवलक्षखाह- 
वास्तवमिति तज्ज्ञेयं क्रियते वस्तुस्वरूपकथनं यत्‌ ! 


पुष्टाथमविपरीतः निरुपममनतिङयमदलेषम्‌ ।॥ १०॥ 

वास्तवमिति 1 यद्रस्तुस्वरूपकथनं क्रियते तद्रास्तवमिति ज्ञेयम्‌ । वस्तुन इद 
वास्तवमिति कृत्वा । इतिशब्दोऽर्थनिदशे । वास्तवश्न्दवाच्यः सोऽर्थं इत्यथः । पृष्टाथं- 
ग्रहणमपुष्टाथनिव्रत्य्थम्‌ । तेन- 


(ख) वाक्यन्यायसूरुक-यथासख्य, पर्याय भादि । 

(ग) लोकन्यायमूक--प्रत्यनीकः, प्रत्तीप आदि । 

६. गुढाथभ्रतीतिमूखक अरूकारवगं --सृक्ष्म, व्याजोक्ति भौर वक्रोक्ति१ । 

विद्याधर के पञ्चात्‌ विद्यानाथ ने रुद्रट, रय्यक ओर विद्याधर से सहायता 
ते हुए अर्थालकारो को प्रमुख चार प्रकारोमे विभक्त कियाद, ओर फिर इन प्रकारो 
के कुल भिाकर निम्नकिखितं ९ भेद गिनाये है 12 

प्रमुख प्रकार--{१) प्रतीयमान वस्तुगत, (२) प्रतीयमानौपस्य, (३) प्रतीय- 
मान रसभावादि, (४) अस्फुट प्रतीयमान । 

अवान्तर विभाग-(१) साधर्यमूल (भेदप्रधान, अभेदप्रधान, भेदाभेद- 
प्रधान), (२) अध्यवसायमूक, (३) विरोधमूक, (४) वाक्यन्यायमूल; (५) रोक- 
व्यवहारमूक; (६) तकन्यायमूक, (७) शख खावेचिन्यमूक, (८) बपह्ववमूर, (€) 
विभेषणवंचित्र्यमूर | 

दरष्टन्य--एकावली अष्टम उन्मेष (सम्पूर्णं ) तरक टीका सहित ।] 

सस्कृत-कान्यज्ास् मे विभिन्न आचार्यो वारा उपयु क्त वर्गीकरण किसी सीभा 
तकं तकंपूणं होते हए भी एकान्तरूप से स्वीकायं नही हौ सकते । फिर भी व्याव- 
हारिक दृष्टि से अरुकार-अध्येता के लि ये वर्गीकरण उपादेय अवश्य है । 
वास्तव 

जहां वस्तु के स्वरूप का कथन हौ किन्तु वह्‌ पुष्टां हो, अविपरीत हो, तथा 
उपमा, अतिशय ओर इलेष से भिन्न हो ।१०। 

"पुष्टाय" से तात्पयं है--सुन्दर 1 उदाहरणार्थं यह्‌ बैर की सन्तान बरीवदं 
मुख से घास खाता है, दिर्न से मूत्र विसर्जित करता है, ओर अपान से गोवर । यह्‌ 
१. इन अकारो के अतिरिक्त एकावली ग्रन्थ मे निम्नल्िकित अलंकारो का निरू- 

पणतोहैः पर इन्द किसी वग मे सम्मिलित नहीं किया गय{-- स्वभावोक्ति, 
भाविक, उदात्त, संकर, संसृष्टि । 
२. प्र° २० भू° पृष्ठ ३३७-३३८ । 


भकः 


२०० कान्यालद्धूारः [ कारिका ११-१२ 


गोरपत्यं बलीवर्दस्वृणान्यत्ति मुखेन सः । 
मूत्रं मुञ्चति श्िषनेन श्रषनेन तु गोमयम्‌ ॥ 
अस्य वास्तवत्व न मवति । अविपरीतग्रहण विवकषितविपरीताथेस्य वास्तवत्व- 
निवरत््यथम्‌ । यथा-- 
दन्तान्निर्दलयद्रसां च जडयत्ताल्‌ द्विधा स्फोटयन्‌ 
नाड्यः संघटयद्‌ गलदुगल्विलादान्त्राणि सकोचयतु । 
इत्थं निर्मलक्षक रीस्थमसहप्रालयवाताहतं 
नाधन्याः प्रचुरं पिबन्त्यनुदिनं प्रोन्पुक्तधारं पयः ॥1 
यत्र हि पयसः शीतर्त्वमाह्लादकत्वं च विवक्षितम्‌ 1 तद्वेपरीत्यं च प्रतीयते 1 
तिरूपमादिग्रहण त्वनुवादमात्रम्‌ ! न तूपमातिशयद्केषाणा वास्तवत्वनिवृत्तये । पृथगुपा- 
दानादेव तेषामन्यत्वसिद्धेः | 
प्रथ वास्तवप्रमेदानाह- 
तस्य सहोक्तिसमुच्चयजातियथासख्यभावपर्यायाः । 
विषमानुमानदीपकपरिकरपरिवृत्तिपरिसंख्याः ।११॥ 
हेतुः कारणमाला व्यतिरेकोऽन्योन्यमत्तरं सारम्‌ । 
सूक्ष्मं लेगोऽवसरो मीलितमेकावली भेदाः ।॥१२॥ 


(युग्मम्‌ 

वस्तु का स्वरूप-कथन तो है किन्तु पृष्ट (सुन्दर) रूप मे प्रस्तुत नही किया गया । 

अविपरीत से तात्पयं है विवक्षित अथं का प्रतिपादक । उदाह्रणाथ- 

वे जन अधन्य नही है, अर्थात्‌ धन्य है जो इस उन्मुक्त धारा वाते जरू को 
प्रतिदिन पीते हैजोकिर्दति को तोड़ता हुमा, जिह्वा को जड़ वनाता हृ, ता्‌ 
के दो टुकड़े करता हुमा, नाडियों को परस्पर मिलाता हुभा, अति को सकूचित करता 
हा, स्वच्छ सुराही मे स्थित ओर तुपारयुक्त वायु से शीत्तर है । 

यष्टा कवि को अभीष्ट तो है जल कौ शीतकता की आल्लादकता का वणन 


केरना, परन्तु प्रतीत होता है उसमे विपरीत अथं--अत्यधिक दीतखता के कारण 
कष्टप्र दता 1 


वास्तव के र मेद 

सहोक्ति, समुच्चय, जाति, यथासंख्य, भाने, पर्याय, विषय, श्रनुमान, दीपकः 
परिकर, परिवृत्ति, परिसंख्या, हेतु, कारणमाला, भ्यत्तिरेक, अन्योन्य, उत्तर, सार, 
सुक्ष्म, केश, अवसर, मोलिति ओर एकावली 1११-१२। 


कारिका १३-१४ | सप्तमोऽध्यायः २०१ 


तस्य वास्तवस्य वक्ष्यमाणलक्षणाः सहोक्त्यादयस्वरयोविदत्तिरिमे भेदा भवन्ति ॥ 
साम्म्रतमेपां परिपाय्वा लक्षणमाह । तत्र सहोक्ति -- 
भवति यथारूपोऽथंः कुवेन्नेवापरं तथाभूतम्‌ । 
उवितस्तस्य समाना तेन समं या सहोक्तिः सा । १३॥ 
भवतीति । योऽथः कवरं भूतः प्रधानं यथारूपो याटगात्मा यद्गुणयुक्तो भवति । 
कथं भवति--अपरमन्यमर्थं कर्म॑लक्षणमप्रधान तथाभूतम्‌ । तथाान्दः प्रकारे 1 तथा- 
प्रकारमात्मगुणसज्च कुर्व॑न्नेवेति । एवकारोऽन्यकालनिवृ्यथं । कूवेन्नेव भवति 1 न तु 
भूत्वा करोति, कृत्वा भवतीत्यथंः अतस्तस्य कूर्वतोऽथंस्य तेन कायं णा्थेन समं समाना 
तुल्या योक्तिः सा सह साधैमुक्तिः सहोक्तिः ! हेतुहेतुमदावोऽन सहार्थः । एकंवचन- 
मिहातन््रम्‌ । तेन बहूनामप्य्थना सहोक्तिभंवतीति ॥ 
निद्शंनमाह- 
कष्टं सखे क्व यामः सकलजगन्मन्मथेन सह्‌ तस्याः । - 
प्रतिदिनमूपेति वृद्धि कुचकलशनितम्बभित्तिमरः ।॥ १४ ॥ 
कष्टमिति । कदिचद्विरही मित्रमिदमाह-हे सखे, कष्ट क्व ब्रजाम. 1 यतस्त- 
स्यास्तरण्या स्तनकलडभरो नितस्बभित्तिभरश्चानुदिन सकलस्य जगतो यो मन्मथस्तेन 
सह वृद्धिमूपंति । ता प्रति कामो वधत इत्यथ. । अत्र प्रधानभूतः कुचकलशनितम्बभि- 


त्तिभरो वृद्धिगरुणयुक्तोऽपरमर्थं मन्मधाख्य बुद्धियुक्त करोतीति । ततस्तस्य तथा कु्वेतः 
सहीक्तिरिति लक्षणयोजना ।) 


९. सहोक्ति 

जो अथं जिस गण से युक्त हो, वहु यदि इसरे अथं को भी उसी गुण से युक्तं 
कर दे" तो [इस प्रकारः] उस्र [अथं ] के उस [दूसरे अथं ] के साथ समान (तुल्य) 
कथन को सहोक्ति कहते है ।९३। 

इस लक्षण का स्पष्टीकरण करते हए नमिसाधु ने कहा है किं पहला बर्थ कतु - 
भूत अर्थात्‌ प्रधान होना चाहिए ओर दूसरा अर्थं कर्मभूत अर्थात्‌ अप्रधान । 
उदाहरण - । 

कोई विरही जपने मित्र से कहता है--हे मित्र ! कहो ! हम कहाँ जाए, 
क्योकि उस [कामिनी [ का स्तनकलशद्रय ओर अतिशय भारी नितस्ब-माग जगदु- 
व्यापी काम के साय-ही-साथ बढ़ रहा है ।१४। 

दोनो पदार्थो का एक साथ वदना सहोक्ति अकार का सूचक है । 


२०२ कान्यालद्भुारः [ कारिका १५-१६ 


द्मस्या एव प्रकारान्रमाह- 

यो वा येन क्रियते तथव भवता च तेन तस्यापि । 

ग्रभिधानं यत्क्रियते समानमन्या सहोक्तिः सा ॥ १५॥ 

य इति| योऽथः कर्मभूतो येन कत्र भूतेन क्रियते तस्य कर्मभ्रुतस्य तेन 
कतृं भूतेनार्थेन । कीदणेन । तथव ताण वर्मयुवतेन भवता 1 स्रहाभिधान यत्क्रियते 
सान्या सहोक्तिः । वाशब्टः प्रकारार्थ. 1 प्रकारान्तरेण सहोक्तिरिच्यथ" ॥। 


उदह्ह्यनवाह- 
भवदपयधैः सार्धं सतापो वधैतेतरां तस्याः | 
क्षयमेति सा वराकी स्नेहेन सम त्वदरीयन ।। १६॥ 


भवद्विति 1 कस्यादिचन्मानिन्याः मखी नायकमन्यचित्तमिदरमाहू--तस्यास्त्वत्का- 
न्तायाः संत्तापस्त्वदीयापरार्वः सहाततीव वर्वते । अतएव सा वराकी त्वदीयेन स्नेदैन 
सार्धं क्षयं गच्छति । भवर सतापस्य वराकीक्षयस्य च शब्देन प्राधान्यम्‌ । अपराव- 
स्नेदयोस्तु तत्कारणयोरप्राधान्यम्‌ । अत एव वतीया । तत््वतस्तु भवदपराधा वर्वन्ते 
तस्याः सतापेन स्ह 1 भवच्स्नहष्च कीयते तया सहेति । यदा त्वेवमुच्यते तदा पूर्वव 
सहाक्तिरित्ति । पुवरयां कतु : प्रावान्य क्रियमाणस्य गुणभावः । इह तु क्रियमाणस्य 
प्राधान्यं कुर्वतस्त्वप्रावान्यमिति भदः ॥ 
सहौक्ति का भन्य प्रकार-- 

जिस [भप्रधान | अथं का जिस [प्रधान] वर्थ के साय उसी [गुण अथवा 
धमं ] से युक्त करके सहफथन होता है, बहा [मी] सहोक्ति मलंकार होता है । १५ 

इसका तात्पर्यं यहद कि एक पदार्थं के गुण अथवा धर्मं को दूसरे पदां के 
साथ [उसस्‌ सम्बद्ध गृण अथवा वमं के यनुप] सम्बन्य जोड़ने को भी सहोक्ति टकार 
कहते ह! 
उदाहरण- 

किसी मानिनी नाविका की सली अन्यस्त्री मे भास्नक्त उसके पत्ति को कहती 
= 

यापक जपराधो के साय ही उसका सन्ताप भी वदृताजा रहा है मौर तुम्हारे 
स्नेह फे साय-ही-साथ वह्‌ वेचारो मी क्षीण होती जा रही है ।१६। 


कारिका १७-१६ | सप्तमोऽध्याय. २०३ 


प्रक्रान्वर्सया€-- 
ग्रन्योन्यं निरपेक्षौ यावथविककालमेकविधौ | 


भवतस्तत्कथन यत्सापि सहोक्तिः किलेत्यपरे 1 १७ ॥। 

अन्योन्यमिति । यावर्थौपूर्वोक्तसहार्थाभावात्परस्पर निरपेक्षावेकविधौ समानधम- 
युक्तौ तुल्यकारं भवतस्तयोयेत्सहकथनं सापि किर सहौक्तिरित्यपरे केचित्‌ । किलशब्दो- 
ऽत्रारुचौ । अरुचिश्चोत्त सहार्थाभावादिति ॥ 


निदशंनमाह- 
कूमुददलंः सह संप्रति विघटन्ते चक्रवाकमिथुनानि । 


सह॒ कमलैलंलनानां मानः संकोचमायाति | १८ ॥ 
कुमददलैरिति । प्रदोषवणंनमेतत्सुगममेव । अत्रन कमुददरृश्चक्रवाकाणां 
तरवा तेषा विघटना क्रियते! अपितु कालेन! तथान कमछर्मानस्यं मानेन वा तेषां 
सकोचो जन्यते । अपि तु रात्र्या, शक्िना वा । ओपम्य न विवक्षितम्‌ ॥ 
अथ समुच्चवयमाह-- 
यत्रैकत्रानेकं वस्तु परं स्यात्सुखावहाद्य व ! 
ज्ञेयः समुच्चयोऽसौ त्रेधान्यः सदसतोर्योगः 11 १६ ॥ 
यत्रेति । यत्र समुच्चये एकव्राधारेऽनेक वस्तु दरव्यग्‌णक्रियाजात्तिलक्षण परमुत्कृष्टं 
सहोक्ति का एक भन्य प्रकार-- 
एक-दूसरे से निरपेक्ष (अप्तम्बद्ध) होते हृए मी जो दो [प्रधान जौर अप्रधान] 
अथं एक काल मौर एक विधि ते कहे जाएं उसे [भी ] कई [आचार्यं ] सदहोक्ति अल- 
कार मानते है । १७। 
जसे- 
कुमुद प्नं के विघटन (चखिलने) के साथ-साथ चक्वो के जोड़ों का भी निघ- 
टन (चियोग) होरहाहै भौर कमलो के संकोच के साथ कामिनियोका मानमी 
संकुचित हो रहा है ! १८। 
९. समुच्चय 
जहा [एक ही आवार पर] अनेक सुखदायक आदि वस्तुर्भ का एक साथ 
कथन किया जाए वहां समुच्चय अलंकार होता है ! सतू (पदार्थो) ओर असत्‌ पदार्थो 
के योग से इसके तीन भेद होते है ।१६। 


नमिसाधु ने भादि" शब्द से तात्पयं छिया है दु खदायक । उनके अनुसार इस 
अककार के तीन भेद इस प्रकार है-- 


9, भी 


कोकनदः । 


२०४ काव्यालङ्धारः [ कारिका २० 


शोभनत्वेन वा स्यात्स समुच्चयः! तथा सुखावहायेवेति । सुखमावहत्थुत्पादयतीति 
सुखावहम्‌ । आदिग्रहणाद्‌ दु खावहादिपरि ग्रहः! एवशन्दः समुच्चये । सुखावहादि च 
यत्रानेक द्रव्यादि स्यात्सोऽपि समुच्चय इत्यथः । तथा त्रैधान्यः सदसतोर्योगिः त्रेधा 
तरिविधः, अन्य प्रकारान्तरेण समुच्चय. ! कीट्श. । सदसतोर्योग इति । सतोः सुन्दर- 
योर्योग इत्येकः । असतोरसुन्दरयोर्थोग इति द्वितीयः । सदसतोः सुत्व रासुन्दरथोर्योग- 
स्तृतीयः 1 अत्र च सदसता योग इति बहुवचनेन निर्दशे न्याय्ये द्विवचननिदंशो द्वयोरेव 
सतोरसतोः सदसतोर्वा समुच्चयो नान्यथा इति स्यापनाथेः । 


एतद्दाहरणानि कमेणाह- 
दुगं त्रिकूटं परिखा पयोनिधिः प्रश्देशास्यः सुभटाश्च राक्षसाः । 


नरोऽभियोक्ता सचिवैः प्लवंगमेः किमत्र वो हास्यपदे मह{दयम्‌।।२०॥ 
दुरगंमिति । निगदसिद्धमेव । अत्रक वस्त्वत्र शब्दवाच्यम्‌ । अनेक तु च्रिक्रूट- 
दुर्गादिकम्‌ । रोभनतवेनोत्कृष्टं यथा-- 
उसा वधुभवान्दाता याचितार इमे वयस ! 
इत्यादि अशोभनत्वेन यथा-- 
क्टीबो विरूपो संश्च मर्महा मत्सरान्वितः 1 ` 
चित्रं तथापि न धनौ दुभेगः खदु मानवः \1 इति 


(१) दो सत्‌ (सुन्दर) पदार्थो का एक साथ वणेन । 

(२) दो असतु (असुन्दर) पदार्थो का एकं साथ वर्णेन । 

(३) सत्‌ ओर असत्‌ पदार्थो का एक साथ वणन । 
उदाह्रण- 

जिुट पवत तुम्हारा दुगं है, सागर परिखा (खाई) है, महापराक्रमी रावण 
स्वामी है" ओर विकराल राक्षस चीर योद्धा हु । (इन सबका) प्रतिद्रन्दध है एक मनुष्य 
(रास), जिसके सहायक है चानर । एसी हंसी की वातत पर पुम्हँ क्या डर है ? अर्थात्‌ 

व्यवितिसे डरने की कोई बात नहीं है ।२०। 

यहाँ एक आधार (राम) को लक्ष्य मे रखकर अनेक पदार्थो (रावण के उप- 
करणो) का वणेन करने से समुच्चय अलकार है । 

नमिसाधु ने इस प्रसंग मे दो अन्य उदाहरण प्रस्तुत किये है-- 

(१) “उमा वधर्भवान्‌""" "` अर्थात उमा (पावती) वधर है, आप दाताहं 
ओर हम [उसके विवाह के लिए] प्राना करने वाख ह । (कु० स० ६1४) 

यहाँ सभी रोभन पदार्थो का समुच्चय है । 

(२) “श्लीवो विरूपो मू्वेङ्च `" "*“““ अर्थात यह्‌ बेचारा ग्यक्ति नपुसक्‌, 


कारिका २१-२३ | सप्तमोऽध्यायः | २०५ 


गुणाद्ुत्कषोदिाहरणानि स्वयमूह्यानि । 
पुखावहाचुदाहर्खान्याह- 
सुखमिदमेतावदिह्‌ स्फारस्फुरदिन्दुमण्डला रजनी । 
सौधतलं काव्यकथा युहूदः स्निग्धा विदग्धाड्च ।।२१।। 
सुखमिति । एष सुखावहुद्रन्यसमृच्चय आधारोऽतरेहशब्दवाच्यः 1 वस्तूनि सित 
रजनी प्रभृतीनि ॥ 
तरलत्वममालिन्यं पक्ष्मलतामायति सुमाधुयेम्‌ । 
प्राधास्यन्नस्वरत्वं मदनस्तव नयनयोः कुस्ते ॥२२॥ 


तरलत्वमिति । कामस्त्वदीयनयनयोरस्त्रत्व केरिष्यस्तररत्वादीनि कुरुत इति 
तात्प्यथिः 1 एष गणसमुच्चयः । तरलत्वादिगुणाना सुखावहाना नयनाधारे समुच्चित- 
त्वादिति ॥ 


भरस्फुरयन्नधरोष्ठ गात्रं रोमाञ्चयन्गिरः स्खलयन्‌ । 
मण्डयति रहसि तरुणी: कुसुमदरारस्तरलयन्नयने ।२३।। 


परस्फरयन्नित्ति । एष क्रियासमुच्चय । तरुणीष्वाधारेषु स्फुरणादिक्रियाणा 
समुच्चितत्वादिति । द्रग्यादीना तूहशो वस्तुग्रहणेन कृतः! जातिसमुच्चयस्तु न सभवति । 
नह्य कवानेका जातिविद्यते । दु खावह इत्याद्यदाहरणानि तु- 


कुरूप, मूखं, मर्मघाती भौर ईर्प्यालु होने के साथ-साथ निधन भी है | 
यहां सभी अरोभनं पदार्थो का समुच्चय है । 
सुखदायक वस्तुओ का एक साथ कथन-- 
पणं चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से धवक्तित निश्चा, प्रासाद तल मे निवास, काष्य 
की सरस कथाएं ओर स्निग्ध एवं चतुर मित्रो की गोष्टी--ये सब संसार में भुखद 
वस्तुं है \२९। 
कामदेव तुम्हारे नेत्रो को अस्त्र बनने की इच्छा से उनमें चञ्चलता, 
निर्मलता, पलकों रूपी लता, विलाता तथा मधुरता का आधान करता है \२२। 
उक्त दोनो पद्यो मे सुखावहं पदार्थो का समुच्चय है 1 
अनेकं क्रियाओं का समुच्चय-- 
कामदेव एकान्त में युवतियों के अधरों को फड़फड़ाकर, शरीर को रोमांचित 


करके, शदो को मटपटा बनाकर भौर नेत्रो को चञ्चल करते हुएु उन विभ्रुषित 
करता है 1२३। 


२०६ काव्यालद्खारः [ कारिका २४-२५ 


राज्यश्नश्चो वने वासो दूरे साता पिता मृतः। 
एकंकमपि तद्दुःखं यदचव्िमपि सोषयेत्‌ ॥। 
इत्यादीनि द्रष्टव्यानि ।। 


श्रथ -ततता्यागः-- 

सामोदे मधु कुसुमे जननयनानन्दने सुधा चन्द्रे । 

क्वचिदपि रूपवति गुणा जगति सुनीतं विधातुरिदम्‌ ।२४।। 

सामोद इति । सष्टुरिदं सुनीत सुरतं भद्रकं यत्सामोदकुसुमादिषु मध्वादीना 
सता योगः त इत्यध" ॥। 

तअधास्ततोर्यागः- 

प्रालिद्छिताः करीरैः शम्यस्तप्तोषपांसुनिचयेन । 

मरूतोऽतिखरा ग्रीष्मे किमतोऽन्यदभद्रमस्तु मरो ।२५। 


आलिद्धिता इति । ग्रीष्मकाङे मरुदेशे यत्करीर. रमीवृक्षा मिश्रीभरूताः । तथा 
तप्तानामूपपासूना चयं मिश्वा- प्रचण्डा वायवः 1 किमतोऽन्यदपरमभद्रमरिवम्‌ । इत्य- 
सत्तो्यागिः ।) 


रुद्रट ने समुच्चय अकार के प्रसग मे ससुखावह्‌ जादि" शब्दं का प्रयोग किया 
है । "आदि" शब्द से नमिसाघु ने "दु.खावह्‌' अथं च्या है 1 अव वे दु खावह्‌ पदार्थो 
के समुच्चय का उदाहरण प्रस्तुत करते दहै-- 

'"राज्यश्नसो चने वासो" "”" अर्थात्‌ राज्य से भ्रष्ट होना, वनो मे निवास 
करना, माता का दूर [अयोध्यामे] होना तथा पिता की मृत्यु--इन सवमे से एकं 
दुखभीसमृद्रको सुखादेने की शक्ति रखता दहै । 
सुन्दर पदार्थो का एकं साथ कथन - 

विधिने संसार में यह्‌ अच्छाही काहे कि सुरभित पुष्प में मधु, लोगों के 
ननौ को आह्वादित करने वाठ चन्दर में गप्रृत ओर किसी-किसी रूपवानु में गुण भर 
द्यि दहु \२४ 
असुन्दर पदार्था का एकं साथ कथन- 

ग्रीष्म काल मे इस मरस्य मे शमीघृक्ष करील के काटोंसे धिरेहृएहै भौर 
तपौ हई वाद्‌ को उड्ाती हई प्रचण्ड ठ्‌ चर रही है, इससे बढ़कर ओर क्या भनर्यं 
हो सकता ह २२५। 


कारिका २६२८ |] सप्तमोऽध्यायः २०७ 


अथ सदप्ततोर्याग-- 
कमलवनेषु तुषारो रूपविलासाद्ालिनीषु जरा । 
रमणीष्वपि दुश्चरितं धातुलक्ष्मीदच नीचेषु ॥२६।।८ 
कमलेति । सुगममेव योजनम्‌ ॥ 
म्रकारान्तरम्पह-- 
व्यधिकरणे वा यस्मिन्गुणक्रिये चेककालमेकस्मिन्‌ । 
उपजायेते देशे समूच्चयः स्यात्तदन्योऽसौ ।२७॥। 
ष्यधिकरण इति 1 वाशल्द एवशब्दाथं भिन्नक्रमः । ततश्व यस्मिन्समूच्चये 
गुणक्रिये भिन्नाधिकरणे एकरिमन्देशे समकालमूपजायेते असौ समूच्चयस्तदन्यः । तत 
पूवंसमुच्चयादपर इत्यर्थ. । गुणक्रिये एव व्यधिकरणे इत्यवघारण तु गुणक्रियाधिकरण- 
योवंस्तुनोदंशाधिकरणमेकमेवेति छृत्वा ॥ 
निदशेनमाह- 
विदलितसकलारिकुलं तव बलमिदमभवदान्ु विमलं च । 
प्रललमूखानि नराधिप मलिनानि च तानि जातानि।।२८।। 


विदल््तिति । अत्र नैमेत्यगुणस्य बलमाधारो माकििन्यस्य तु खखमुखानीति । 
चराव्दावेककारत्वसूचनाथौ 1 एव गुणसमुच्चय. ॥। 


लमु 


सुन्दर ओर असुन्दर पदार्थो का एक साय कथन-- 

कमलवनों मे हिमपात, रूप भौर विलासयुक्त रमणियों मेँ बृद्धावस्था भौर 
नीच जनों को लक्ष्मी की प्राप्ति--यह सव धाता (विधाता) की ही नीचता [का 
परिरणस] है \२६। 
समुच्चय का एकं अन्य प्रकार-- 

निस मिनन स्थानों में स्थित गुण ओौर क्रिया एक देन में एक ही समय अवेः 
उसे समुच्चय भल कार कहते ह ।२७। 
गुण-समुच्चय का उदाहरण-- 


हे राजन ! इधर तुम्हारी सेना रिपुकुल का विध्वंस करके विजय की प्रसन्नता 


से विमल भकार धारण कर रही है, उघर तुम्हारे श्रम के मुख मलिन पड़ 
गये है !२८। 


विमल होना अमीर मलिन" पड़ना--यहां इन दोनो गुणो का समुच्चय है ! 


२०८ कान्यालद्खारः [ कारिका २६-३० 


क्रियासमुच्चयस्तु यथा- 
देवादहमत्र तया चपलायतनेत्रया वियुक्तश्च । 


्रविरलविलोलजलदः कालः समुपागतर्चायम्‌ ।२६॥ 


दैवादिति। अत्र वियोगक्रिया वियोभिनि स्थिता, समुपागमनक्रिया तु 
चर्षाकाङ़ 


प्रथ जातिः- 


संस्थानावस्थानक्रियादि यद्यस्य यादु भवति । 
लोके चिरप्रसिद्ध॒तत्कथनमनच्यथा जातिः ३० ॥ 


संस्थानेति 1 य॑स्य पदार्थस्य यत्संस्थानादि याददां भवति तस्य यदनन्यथा 
तेनैव प्रकारेण कथनं सा जात्तिरिति योगः । यच्छन्दस्तु सर्वेनामत्वात्सामान्येन सर्व- 
सग्रहार्थः । विशेषरूपतया हि तत्सस्थानादि कथयितुमानन्त्यान्न शक्यते 1 अनुक्त तहि 
कथ कविना ज्ञातव्यमित्याहु-रोके चिरप्रसिद्धमिति ! यद्यपि पुराणादिपु किचिदुक्त 
तथापि लोकरूदिवक्ात्सम्यक्तदवगम इति । तत्र संस्थानं स्वाभाविकं रूप॒म्‌ 1 यथा-- 


एतत्पुतनचक्मक्रमञतग्रासार्धंभुक्तेदु का- 
मुत्पुष्णत्परितो नृमांसविधसेराघघंरं क्रन्दतः । 
खजर रदर.मदध्नजद्ख मसितत्वग्बद्धविष्वक्तत- 
स्नायुग्रन्थि घनास्थिपञ्जरजरत्कङ्धालमारोक्यते 1} इत्यादि । 
अवस्थास्थानं स्थानकादि 1 यथा- 
स दक्षिणापाद्धनिविष्टमुष्टि नतांसमाकुञ्चितसन्यपादम्‌ । 
ददश चक्रीकृतचारुचापं प्रहर्तुमस्परुयतमात्मयोनिम्‌ ॥ 
इत्यादि । क्रियान्यापारो यथा- 
पहुरकमपनीय स्वं निदित्रासतोच्चंः प्रतिपदमुपहूतः केनचिज्जागृहीति । 
मुहुरविशदवर्णां निद्रया शुन्यदरुन्यां दददपि गिरमन्तर्बुंढचते नो मनुष्यः ॥ 
इत्यादि । आदिग्रहणादिभववेपादिकं च द्रष्टव्यम्‌ । यथा-- 


क्रिया-समुच्चय का उदाहूरण-- ^ 


इधर भाग्यहीन मे उस चञ्च अर चिश्षाक नेन्ो वाली प्रिया से वियुद्त हमा 
उधर निरन्तर उमडती हई घटां से युक्त वर्षाकाल आ पहुंचा ।२६। 
२. जाति 

जिस पदाथ का जो संस्थान, अवस्थान एवं क्रिया आदि जिसके सहश होता है 


(च # 1 
=, 


कारिका ३१-३२ | सप्तमोऽध्यायः २०६ 


वल्लीवत्कपिनद्धधूसरहिराः स्कन्धे दधद्‌ दण्डक 
ग्रीवाङस्वितमूर्मणि. परिकुथत्कौपीनवासाः हशः । 
- एकः कोऽपि पटच्चरं चरणयोनंद््‌वाध्वगः भन्तवा- 
नायातः क्रमुकत्वचा विरचितां भिक्षपुटोमुद्रहच्‌ ॥\ 
इत्यादि 1 अथ वास्तवस्य जातेश्च को विशेष , यो वृक्षस्य धवस्य च । वास्तव 
हि वस्तुस्वरूपकथनम्‌, तच्च सर्वेष्वपि तद्ध देषु सहोवत्यादिषु स्थितम्‌ । जातिस्त्वनुभवं 
जनयति । यत्र परस्थं स्वरूपं वण्यंमानमेवानुभवमिवेतीति स्थितम्‌ । 
त्रथेतद्विेषप्रतिपादनाथंमाह-- 
शिशयुमूग्धयुवतिकातरतियक्संभ्रान्तहीनपात्राणाम्‌ । 
सा कालावस्थो वितचेष्टासु विरोषतो रम्या ।३१। 
शिदिति ! सा जातिः शिचुप्रभृतीना या. कालोचिता अवस्थोचितादच चेष्टा. 
क्रियास्तास्वतिशयतो रस्या भवति ।। 
तत्र शियुनां यथा-- 
घलीधूसरतनवो राज्यस्थितिरचनकत्ितेकनृपाः ! 
कृतमुखवायविकाराः क्रीडन्ति सुनिभंरं डम्भाः ॥२३२॥। 
उसे उसी रूप मे कहना 'जात्ि' नम से लोक मे चिरकाल से प्रसिद्धे है)! तथा यह 
जाति क्यु, मुग्धा युवतियो, कातर [व्यक्तियों], त्ियंक्‌ [योनि के प्राणियों ] तथा 
सम्श्रान्त (नव-विलसित) एवं हीन पानो की कालोचित तथ अवस्थोचित चेष्टां 
में विदेषतः रमणीय होती है ।३०-३१। 
नमिसराघु ने इस प्रसग मे सस्थान (स्वाभाविक रूप) अवस्थान (स्थान), 
क्रियाव्यापार आदि ("आदिः से उन्होने 'विभववेपादि' भथं ग्रहण किया है 1) के 
उदाह्रण प्रस्तुत किये है 1 यहाँ केवल "सस्थान का उदाहरण अनूदित किया जा रहा है- 
`एतत्पूतनचक्रमक्रमकृतग्रास" ° "ˆ ' अर्थात अतिदाय त्प्णास्तेयियि गये कौर 
से जमीन पर आधा भिरे हुए नरमास के खाने से अवरिष्ट भागो से चारो गोर कुछ 
थर शब्द के साथ चिल्लति हुए भेदय को पृष्ट करता हु, खन्नुर के पेड 
जसी रम्बी जांधवाला, काले चमडेसे वावी गयी अर चारो तरफ व्याप्त नसो के 
सन्विभागो मे निविड अस्थिपजर वाक जीणं ककालों से युक्त यह पि्ाच आदिय का 
समूह्‌ देखा जा रहा है । 
(क) वच्चो की चेष्टा, जैसे- 
भुलिष्रुसरित शरीर वारे बच्चे अनेक प्रकार से मुंह वनाते हए जौर | सीदी 
के समान ] वाजा-सा वजाते हुए भग्न. होकर खेर रहै ह । [ इसी खेल में उन्होने ] एक 


1 


२१० काव्यालद्खारः [ कारिका ६३ 


धूरीति 1 एपा शिूनामवस्थोचिता चेष्टा 1 कारोचिता तु स्वयं दरष्टन्या ।। 
मुगधयुवतीनां यथा- 
हरति सुचिरं गाढारलेषे यदङ्ककमाकुला 
स्थगयति तथा यत्पाणिभ्यां मुखं परिचृम्बने | 
यदतिबहुशः पृष्टा फरिचिद्ब्रवीत्यपरिस्पुट 
रमयतित्तरां तेनेवासौ मनोऽभिनवा वधूः ॥३२।। 
हरतीति । एषा मुग्धयुवत्तीनामवस्थोचित्ता चेष्टा 1 मुग्धग्रहुणं मुग्धयुवतीनामेव 
जातिसौन्दर्य न प्रौढाना चेष्टास्विति ज्ञापनार्थमिति । काताराचुदाह्रणानि ग्रन्था- 
न्तराद्‌ द्रष्टव्यानि । 
नष्टं वर्ष वरमनुष्यगणनामावादङ्व्वा त्रपाम्‌ 
मन्तः कञ्चुकि कञ्चुकस्य विशति जासादयं वामनः । 
त्रस्यन्िः सहसा निजस्य सहं नाम्नः किरातः ङतं 
कुजा _नीचतयेव यान्ति शनक रात्तेक्षणाङद्धिनिः॥ _ _- 
राञ्य की स्थिति को रचना करते हए एक [ बालक ] को राजा लना दिया ह 1३२) 
(ख) मुग्ध युवतियो की चेष्टा, ज॑से-- 
गाढ आलिद्घन के समय यह व्याकुल होकर अपने अङ्कः (शरीर) को हय 
स्ने की चेष्टा करतो है । चुस्बन के समय दोनों हाथों से भुल ठक ठेती है, ओर वहत 
वार पुछने पर कुछ अस्पष्ट वचन वोलतौ है--इन्हीं बातों से ही नव-विवाहिता पत्नी 
मत कोर भी प्रमुदित करती है ।३३। 
नमिसाधुने इसी प्रसग मे कतिपय अन्य उदाहरण भी प्रस्तुत किये ह। 
प्रथम पद्य मे कातर व्यक्तियों की चेष्टा का वर्णन है-- 
“नेष्ट वषंवरोर्मनुव्यगणना" * * * **" 
मनुष्यो मे गणना न होने से हिजड लज्जा छोडकर भाग गये 1 भयत्रस्त यहं 
वीना कद्की के अगरखे के भीतर घुस गया 1 भयात्तुर किरातो नै अपनेनाम के 


अनुरूप ही जाचरण किया । अपने देख चि जने के भय से कुवडे ल्के होने के कारण 
धीरे-धीरे जा रहै है। 


निम्नोक्त पच मे एक घोड़े का वर्णेन है-- 

"“उर्लाय दपं चक्तिन" ˆ" ˆ “` + 

अपनी ददंभरीचाङसे रस्सी के साधथही कीर कोभी उखाडइकर तथा 
[पकड़ने के छिए] यत्न करते हए व्यक्तयो सेन पकडे जाने वाङ घोडेने एक 
[दूसरे] भागते हए धोड़ के पी भागते हुए गीघ्र ही सेना को व्याकर कर दिया । 


कारिका ३४ |] सप्तमोऽध्वायः २११ 


एषा कातरचेष्टा । तिरद्चा यथा- 
उत्लाय दर्पचरितिन सहैव रज्ज्वा कीलं प्रथत्नपरमानवदुग्र हेण । 
आकुल्यकारि कटकस्तुरगेण तुणं म्वेति विद्र तमनुद्रवतान्यश्दवम्‌ ॥। 
अतकितोपनत भयसुखदु.खकूतुहंरादिहूतचित्ताना स्रान्तानां यथा- 
परसाधिकालम्बितमश्रपादमाक्षिप्य काचिद्द्रवरागमेव । 
उत्युष्टलीकाभतिरागवाक्षादलक्तकाङ्ां पदवीं ततान ॥ 
दत्यादि । हीनपात्राणा यथा- 
उत्छृत्योकृत्य कृत्ति प्रथससय पृथृष्छोप्ठूयांसि मांसा- 
न्यं सस्फिक्पृष्ठपिण्डाद्यवयवसुल मान्युश्रपुतीनि जग्ध्वा । 
जातेः प्यस्तनेत्रः भरकटितद्शनः प्रेतरङ्कः करङ्धाद्‌ 
अङ्मस्थादस्थिसंस्थं स्थपुटगतमपि क्रन्यमन्यग्रमत्ति ।। 
एवमन्यदपि द्रष्टव्यमिति ॥1 
श्रथ यथातस्तंख्यमाह- 
निदिश्यन्ते यस्मिन्तर्था विविधा ययेव परिपाट्या । 


पुनरपि तत्प्रतिबद्धास्तयेव तत्स्यायथासंख्यम्‌ । ३४ 
निदिस्यन्त इति । यत्र विविधा नानारूपा अर्था ययैव परिपाय्या येनैव क्रमेण 


इस पद्य पे एक सम्घ्रान्तं विकासिनी का वणंन है-- 

'प्रसाधिकालम्वितम्‌" °“ “"" 

किसी रमणी ने प्रसाधन करने वारी सेचिका द्वारा गृहीत एव गीरी महावर- 
वाकं चरण को उसमे खीचकर भौर अपनी विलासपुणं गति छोडकर खिड़की तक सारे 
मां को महावर के चिह्धौ से अकित कर दिया । 

इस पद्य मे एक हीन पात्र (दरिद्र पि्ाच) का वर्णन है-- 

1 "उत्कृत्योत्कृत्य त्योत्कद्य**** °" 

व्याकुल, इधर-उधर देखता हुआ, गौर दतत को दिखाता हुमा यह्‌ दसिव्र 
पिज्ञाच पहर शव के चमडे को काट-काटकर तदनन्तर बहुत शोथ से युक्त॒ उत्कट 
दुगन्ध वारे, कन्धे, करिस्थ मासपिण्ड, पीठ आदि विला अवयवो मे सुखभ मासो 
को खाकर अपनी गोद मे पडे हुए हव के किर की हही मे विद्यमान ओौर ऊॐँचे-नीचे 
स्थानो मे चिपके हुए मासि को भी धैपूरवंक खा रहा है । 
८. यथासंख्य ॑ 

जिन्त अलकार मरं विविध अर्थं (वस्तुएं) निस क्रमसे निदिष्टक्यिगये हो, 
उसी क्रम से फिर [ उन्हीं पुवं निदिष्ट अर्थो के ] अनुयायी पदार्थो का लिरेषण-चिशेष्य 


२१२ काव्यारुद्खार [ कारिका ३५-२३७ 


र्वं निश्यन्ते पुनरपि तयैव परिपाथ्या ततसमत्िबद्धास्तेषु पूरवेनिर्दिष्टेषु विरेष्यस्य विरे- 
षणभावेन प्रतिवद्धास्तदनुयाथिनो निदिषश्यन्ते तच्यथासख्य स्यात्‌ । अर्था इति बहुवचन 


स्थातच्तरत्वाद्‌ दयोरपि यथासख्यं भवतति । यथैव परिपास्यं ति परिपाटी कवे. क्रमविवक्षा 
गृह्यते । 


च्थैतस्येव बिशेषाथंमाह-- 

तद्द्विगुणं त्रिगुणं वा बहुषूर्िष्टेषु जायते रम्यम्‌ । 

यत्तेषु तथेव ततो दयोस्तु बहुशोऽपि बध्नीयात्‌ ।\३५।। 
तदिति । तचथासख्यं वहृषूदिष्टेपु प्रधाना्ेपु यद्स्माद्‌ द्विगुण वा रम्य जायते, 


त्मादधेतोस्तेषृदिष्टेषु तथैव द्विस्त्रिर्वा बध्नीयात्‌ नाच्यथा । दयो. पुनरुदिष्टयोवं हृशोऽपि 
बध्नीयात्‌ 1 सुखावहत्वादिति ॥ 


तत्र तियुखोदाहर्खमाह-- 

कञ्जलहिमिकनकस्चः सुपणंवृषहुसवाहनाः रां वः । 

जलनिधिगिरिपद्यस्या हरिह्रचतुराननाः ददतु ॥३६॥ 
कञ्जरृति । अत्र दरिदस्रह्याणस्व यं उदहशिनः । त्रिविरेषणयोगाच्चं ँगुण्यमू ॥ 

दयाव्हृयुखादाहट्यमाह--- 

दुःधोदधिशेलस्थो सुपणेवृषवाहनौ घनेन्दुरुची । 


मधुमक्ररध्वजमथनौ पातां वः शाङ्खंशूलधरौ ॥२३७1 


भाव से कथन यथासंद्य अलक्रार कहाता है । ३४ 

वह्‌ यथासंख्य बहूत्त-से प्रधान अर्थो सें दो-दो अथवा तीन-तीन [ कमब | 
विशेषणो से बहुत रमणीय हो जाता है, अतः उनम उसे दो-दो अथना तीन-तीनं निशे- 
षणो से जखकृेत करना चाहिए 1 जहाँ प्रधान अथं वो हों, वह बहुत से विहेषणों से 
भी उपे विज्ञेषत करना चाहिपे ।३५। 
तीनो गुणो का उदाहरण- 

] क्रसक्ञः] कज्जल, हिम ओर कनक के ससान कान्ति वाक्ते [ क्रमश्ञः] गच्डः 
चैल ओर हत्त की सवारी करने वारे, तथा [ क्रमशः] समुद्र, [ कौलाश्च ] पर्वत ओर 
पद्य सें निवास फरने वाले [ कमदः [ विष्ण्‌, महादेव ओरं द्रह्ण आपके किए कल्याण- 
कारी हों \३६। 
दो गुणो का उदाह॒रण- 

क्षीरसागर मे निवास करने वाले गरुड्वाहुन, सेध के समान कान्ति वार, 
मधुदशेन, शाद्ध -घनुषधारी भगवान विष्णु तया कंलाज्घासवासी, वृषभवाहन, चद््रो- 


कारिका ३८-३६ | सप्तमोऽध्यायः २१३ 


दुग्धेति । अत्र मधूमथनमकरध्वजमथनौ दाचुदेशिनौ, चत्वारि तद्िशेषणानीति ॥। 
प्रथ भाव -- 


यस्यः विकारः प्रभवन्नप्रतिबद्धेन हेतुना येन! 


गमयति तदभिप्रायं तत्प्रतिबन्धं च भावोऽसौ ।३८।॥। 

यस्येति । यस्य विकारवतो येनाप्रतिवद्धेनानैकान्तिङरेन हेतुना विकार कायं प्रभव- 
न्तुत्पाद्यमानस्तस्य विकारवतः सबन्धिनिमभिप्रायं प्रतिपत्तृगेमयति, तथा स एव विकार- 
स्तयो्धिकारहैतुविकारयो प्रतिवन्धं च कार्यकारणमाव गमयति, असावेवरूपो भावनामा- 
ऽरुकारो भण्यते । भदत्यस्मादभिप्रायनिश्चय इति कृत्वा ¦ ननु विरुद्धमिदम्‌ 1 अप्रति- 
बद्धरचेत्कथं हेतुरथ हेतुः कथमप्रतिबद्धो नाम । अपि च योऽप्रतिबद्धेन हैतुना जन्यते स 
कुतस्तस्रतिवन्धं गमयति, विद्यते चेत्प्रतिवन्धो न तदयं प्रतिबद्धो हेतुरिति । सत्यमेतत्‌ 1 
कि तु महाकविलक्ष्यमेवविध ह्यतेऽनुभूयते च । न च दृष्टे किचिदनुपपन्न नाम ॥ 

निदशंनमाह-- 

ग्रामतरुणं तरुण्या नववजञ्जुलमञ्जरीसनाथकरम्‌ । 

पश्यन्त्या भवति मुहूनितरां मलिना मुखच्छाया ।।३६॥। 

ग्रामत्ति ) कस्यादिचत्तरण्या नववञ्जुरुमजञ्जरीसनाथकर ग्रामतरुण पश्यन्त्या 
मुखमालिव्यमभवदित्यर्थ. । वञ्जुलो वृक्षविशेषः । अत्र विकारो मूखमाङ्िन्य तस्य 


हेतुरवेञ्जुलमञ्ज रीदशंन तच्चाप्रतिवद्धम्‌ । सवंदा तदृशंने तदभावादिति 1 तच्च माल्िन्य 


ज्ज्व कान्ति बाल, कामसंहारक, चरिश्ुखधारी शिव तुम्हारी रक्षा करे ।३७। 

[इस पद्य का अथं करते समय-पूदोक्ति प्य के असमान-- विशेषण क्रमा- 
नुसार विष्णु जौर दिव के साथ सयुक्त कर दिये गये रहै युविन्च पाठक यहँभी 
यथासख्य अरुकार समक्ष गये होगे । | 
२. भाव 


निस [ विकारयुक्त ] का विकार (कायं, चेष्टादि) उत्पन्न होकर जिस अनं- 
कान्तिक हेतु से उस [विकारयुक्त] के अभिप्राय ओर प्रतिबन्ध का कारण निन्नायु 
पर प्रकट कर देता है, उसे भाव कहते है ।३०८। 
उदाहरण-- 

अशोक वृक्ष की मजरी को हाथमे लिए हृए ग्रामयुवक को देखकर युवती 
के मुख की कान्ति मलिन हो रही है, अर्थात्‌ उसका मुख उदास हो रहा है 1३९। 

सकेतस्थान पर यवती किसी कारणवश स्वयं न पहव सकी, किन्तु जव 
उसने ग्रामयुवक (नायक) को अशोक वृक्ष की मजरी को हाथमे ल्यि देखा तो समक्न 
गयी करि वहुवर्हांसे होआयादहै तो उसकी मुख-कान्ति फीकी पड़ गयी । खद्रटने 


२१४ काव्यालद्धारः [ कारिका ४०-४१ 


तरण्या भावं प्रतिपत्तः प्रकादायति । नूनमनया तस्य तरुणस्य वञ्जुन्गहने संकेतोऽकार, 
कर्मान्तरव्यासद्धाच्च न तत्र सप्राप्ता, तं च मञ्जर्यां गतभ्रत्यागत विज्ञाय सुखादल्वि- 
तास्मीति खिन्ना संपन्ना 1 मूखमालिन्यं चास्य मजञ्जरीसनाथकरत्वस्य प्रतिवन्धं गम- 
यत्ति ! अन्यथा कथं तटुक्तनेन तदुत्पद्यते ॥ 
प्रकारान्तरमाह 
ग्रभिधेयमसिदधानं तदेव तदसदुशसकलगुणदोपम्‌ । 
ग्रथन्तिरमवगमयति यद्ाक्यं सोऽपरो भावः; ॥४०॥ ` 
अभिषेयमित्ति । यद्ाक्य कत्र, तदेव पदारूढमेवाभिवेय वाच्यमभिधानं प्रति- 
पादयत्सदर्थान्तरं वक्रभिप्रायरूपं गमयति सोऽपरोऽन्यो भावभेदः । कीषशमर्थान्तिरम्‌ । 
तेन पदारूढेनार्थेनासदश्ा विलक्षणा गरुणदोपा विधिप्रतिषेधादयो यस्य तत्तथोक्तम्‌ 1 
एतेन चान्योक्तिसमासोक्तयोर्भावत्व निषिद्धम्‌ । तत्र हीतिवृत्तसाहर्यं वतते 1 भौपम्य- 
भेदात्तयोरिति ।। 
निद््शनमाह- 
एकाकिनी यदबला तरुणी तथाहु- 
मसिमिन्यृहे गृहपतिश्च गतो विदेदाम्‌ । 
कि याचसे तदिह वासमियं वराकीं 
रवश्रूमंमान्धबधिरा ननु मूढ पान्थ ॥४१॥। 


यर्हा भाव अकार माना है, क्योकि मलिन-मूख छाया से उसके प्रतिन्ना-अनिर्वाहि की 
तथां विप्रलम्भ की प्रतीति होती है। 

मम्मट ने एसे पद्यो को गरणीभूतव्यग्य के उदाहूरण-स्वरूप प्रस्तुत किया है । 

यहां व्यंग्याथं यह्‌ है कि युक्ती सकेतस्थल पर नही पहं सकी, किन्तु इसकी 
अपेक्षा वाच्यार्थं का चमत्कार कही मिक है--उसकी मिन मुखकान्ति दारा उसका 
विप्रलम्भ सूचित होत्ता है, 
भाव का बन्य प्रकार-- 

जो वाक्य वाच्यां को वताकर उत्त [वाच्यां] से भिन्न गुण-दोष (विधि. 
निषेध भादि) से युक्त वक्ता फे अभिप्राय का बोध कराताहै, उसे [द्वितीय] भाव 
कहते है 1४०। 
उदाहुरण-- 

भरे मखं पयिक } क्या तुम यहं निवासत करने के किए प्राना करते हौ ? 


कारिका ४२-४३ | सप्तमोऽध्यायः २१५ 


एकाकिनीति । तरुणपथिकस्य वास याचमानस्य काचित्साभिराषा योषिदिदं 
प्रकटप्रतिपेधा्थं वाक्यमाह । एतेन चोक्तपदाथन विलक्षणो वासानुमतिविधिलक्षणो 
भावोऽवगम्यते ।। 


प्रथ पर्यायः-- 
वस्तु विवक्षितवस्तुप्रतिपादनशक्तमसदुशं तस्य । 


यदजनकृमजन्यं वा तत्कथनं यत्स पर्यायः ।४२।। 

वस्त्विति । यद्वस्तु विवक्षितस्य मनोगतस्य वस्तुतः प्रतिपादनसमर्थं तस्य कथने 
यत्स पर्यायोऽलकारः । समासोक्त्यन्योक्त्यो पर्यायत्वनिध्रच्यथंमाह-असहश्च तस्य । 
तस्य वाच्यस्य वस्तुनोऽसदृशमतुल्यम्‌ । भावसूक्ष्मयोः प्ययोक्तनिधृ््यथंमाह--अजनक- 
मजन्य वेति । अयम्थंः--प्रथमभावे विकारलक्षणेन कायण विकारवतोऽभिप्रायो यथा 
गम्यते तथा स्वजनकेन सह प्रतिवन्धश्चेति गमकस्य जन्यतास्ति । दहितीयमावसूक्ष्मयोस्तु 
वस्त्वन्तरप्रती तिजननाज्जनकतेति तेषा व्यवच्छेदकमिद विशेषणद्वयम्‌ । इह तु विवक्षित- 
वस्तुप्र्तिपादक वस्तु न तथाभूतम्‌ । वाच्यवाचकभावसुन्यमित्यथं. । द्ितीयभवे हि 
वक्तुरभिप्रायरूपमर्थान्तर वाक्येन गम्यते । सूक्ष्मे तु युक्तिमदर्थोऽपि शन्दोऽर्थान्तरमुप- 
पत्तिमद्‌ गमयति ! इह तु स एवाथः पययिणोच्यते । न त्वभिप्रायरूपार्थान्तिरप्रतीतिरिति ॥ 


उद्ाहट्यमाह-- 
राजज्जहासि निद्रां रिपुबन्दीनिबिडनिगडशब्देन । 
तेनव यदन्तरितः स कलकलो बन्दिवृन्दस्य ।1४३।। 


| पर तुम यहाँ कसे रहोगे क्योकि ] मँ अबला तरुणौ इस घर में मकेली रहती है । 
मेरे पतिदेव विदेश गये हए हँ ओर यह्‌ वेचारी मेरी सास बहरी तथा अन्धी है ।४१। 
यद्यपि वाच्यां रूप मे भ्रामयुवत्ती ने पथिक को उसके घरमे निर्वास करने 
के रए प्रकटत निषेध किया है, किन्तु वस्तुत वह उसे विधिरूप मे आमन्तित कर 
रही है 1 अत. यहाँ द्वितीय भाव अलकार है । 
इस प्रकार के पदयो मे मम्मटने ध्वनि का चमत्कार स्वीकार किया दहै) 
१, पर्याय 
जहां जो अथं विवक्षित अथं के प्रतिपादन में समयं हो यदि उससे एेसे अर्थं 
का फथनहो जाएजोन तो उसके समान हो भौर न उसका उत्पादक अथवा उससे 
उत्पन्न हो, बहा पर्याय अलंकार माना जाता है ! ४२ 
उदाह्रण-- 


है राजन्‌ 1 कंदी शत्रुओं के [हाथ-पंरो में पड़ी] शङ्खाभं के शब्द से आप 


२१६ काव्यालङ्धरः [ कारिका ४४-४५ 


राजन्निति ! राक्ञद्चाटुवचनसिदम्‌ 1 अत्र बल्दीनिगडरवेण तिद्रामोक्षकथनं 
यद्स्तु तस्य तावन्मात्रमेव न तात्पयंमपि तु त्वया रिपूञ्जित्वा तन्नार्यो हृता इति 
निखिरुरिपूविजयः पययिण प्रतिपाद्यते ।। 


प्रकारान्तरमाह 

यत्रैक मनेकस्मिन्ननेकमेकत्र वा क्रमेण स्यात्‌ । 

वस्तु सुखादिप्रकृति क्रियेत ॒वान्यः स पयायः ।1४४।। 

यत्रेति 1 अनैकस्मिन्नाधारे क्रमेणेकं वस्तु यत्र स्वयमेव स्यात्स पयिः । अथ- 
वंकसिमिन्नाधारेऽनेक यत्न स्यात्सोऽपि पर्यायः । कौटलमेकमनेक वा वरस्त्वित्याह्‌ - युखा- 
दिग्रकृति । सुखदु खादिस्वरूपमित्यथेः । स्यादिति कत्र निद शात्कमेण्यप्राप्तं पयायत्वमाह-- 
क्रियेत वेति । तदेव चतुविधः पर्यायः ॥ 

उदहर्यमाह-- 

केमलेषु विकासोऽम्‌दुदयति भानावुपेत्य कुमुदेभ्यः । 

नभसोऽपससार तमो बभूव तस्मिन्नथालोकः ।(४५। 


कमरष्विति । अ्र॑को चिकासोऽनेकस्मिन्वस्तुनि कुमुदकमखाख्ये क्रमेण भवति । 
तथेकस्मिन्नमसि तमः प्रकाशर्च ! अनेकवस्तु सुखरूपमू । एते कतय दाहरणे ।। 


। (हि शि भन्कने, 


निद्रारथाय करते ह ओर्‌ इसी शब्द से चारणं लोगों हारा क्रिया हुभा कलकल (भरमात- 
वेला का स्तुत्तिमान) भी दब गया हि ।४३। 

स्तूतिपास्क चारणके इस कथन से ज्ञात होतादहै कि इस विजयी राजाने 
वहुत अधिकं यृद्ध-वन्दी बना रखे है । यह खदरट ने पर्याय' अलकार्‌ का चमत्कार माना 
है, क्योकि स्तुतिपास्के का यह्‌ कथननतो इसत आङ्यका जनकटहै ओर नं उक्त 
कथन मे भौर इस आशय मे परस्पर कोई सदुराता है । 
पर्याय का प्रकारान्तर- 

जहां सनेक आधारो में एक, अथवा एक आधार भे अनेक युखडःखादिरूप वस्तु 
क्रमसे हो, उसे [ द्वितीय] पर्यायं अलकार कहते है \४८। 
उदाहरण-- 

सूर्यं के उदय होने पर कुमुदो का विकास कमलो पर आ गया! अआकाशसे 

अग्धक्तार क्षीण हो गया भौर वरहा प्रकार खा गया !४५। 

यहां "एकः विकास को कुमुद भौर कमर से सम्बद्ध किया गया ह, तथा "एकः 

कादा को अन्धकार तथा प्रकारा से 1 अत्त.दितीय पर्याय भरकार है। 


कारिका ४६-४०५ | सप्तमोऽध्यायः २१७ 


कर्मरयाह-- 

म्राच्छिद्य रिपोलेक्ष्मीः कृता त्वया देवे भृत्यभवनेषु 

दत्तं भयं द्विषद्भ्यः पूनरभयं याचमानेभ्यः ।।४६।। 

आच्छिद्येति । अत्रंका लक्ष्मी रनेकत्र रिपुषु भृत्येषु च कृता । तथंकस्मिन्दिषल्लक्षणे 
वस्तुनि भयाभये च दुःखसुखरूपे क्रमेण दत्तं । पूवेत्र पययजन्दस्य शब्दान्तरेण कथ- 
नमथः । इह्‌ तु परिपाटी ॥ 

प्रथ विषममाह-- 

विषम इति प्रथितोऽसौ वक्ता विघटयति कमपि संबन्धम्‌ । 


यत्राथयोरसन्तं परमतमाशञङ्कय तत्सत्त्वे ।४७।। 
विषम इति । असावरकारो विषम इति प्रथितो विषमनामा प्रसिद्धो यत्राथेयो. 
सबन्ध घटना वक्ता प्रतिपादको विघटयति । कीट सनन्धम्‌ । असन्तमवियमनम्‌ । 
ननु यदच्यसन्सबन्धस्तहि स्वय विधटित एव किमस्य विघटनीयमित्याह-तस्य सत्त्वे 
सद्भावे परमत पराभिप्रायमाक्च ङ्य । परमतेन सन्त कत्वेत्य्थै. ॥। 
उद्ह्र्यमाह- 
यो यस्य नैव विषयो नस तं कुर्यादहो बलात्कारः । 
सततं खलेषु भवतां क्व खलाः क्व च सज्जनस्तुतयः ॥४८।। 
उदाह्रण-- 
हे राजन्‌ 1 आपने शत्रु से लक्ष्मी छीनकर उसे अनुजीवियों के घरों में प्रतिष्ठित 
केर दिया । क्ञच्रुओं को मयं प्रदान किया, ओर [उनमें से] क्षमा भागने वालो को 
भ्रभयदान दे दिया ।४६। 
७. वपम 
निषम अलंकार वहाँ होता है जरह वक्ता गे अर्थो (वस्तुओं) मे अविद्यमान 
| भी ] सम्बन्ध कौ कल्पना किसी दसरेके मतसे करके [पुनः उसे] तोड देता 
है ।४५७। 
उदाह्रण- 
एकं व्यक्तिने दूमरे व्यक्तिसे कहा कि अमुक दुर्जन ने उस सज्जन की स्तुति 
को है । दूसरे व्यक्ति ने पके व्यक्ति को उत्तर दिया कि-- 
जो निसके अधिकार की वस्तु नही, उसे वहु नहीं करनी चाहिए ! आपका 
तो दुष्टो के प्रतिबड़ा बलात्कार (पक्षपात) है । भला कहां इष्ट व्यक्ति भौर कहू 
सज्जनो की स्तुति ? ४८ 


२१८ कान्यारद्भुमरः | कारिका ४६-५० 


य इति । केनचित्तस्यचिदग्रे उक्तममूना खलेनासौ सज्जनः स्तुति इति । स 
त्वसहमानस्तमाह--अहो भवता खरप दुंजंनविपये बलात्कारः पक्षपातः । यतस्तदनुकुकं 
रूथ । कस्मात्ते तत्स्तुति न कुर्वन्तीव्याह--यस्य खलस्य यो न विपयः सज्जनस्तवादरिः 
सतं नैव कूर्यात्‌ । किमिति खलाना निष्टस्तवादिनं विपय इत्याह--क्व खलाः क्व च 
सज्जनस्तुतय इति 1 भत्र खछेस्तुत्यो रसनन्नेव संवन्धः परमते सत्त्वादाद्धुया विघटित. । 
ददं चाघ्रोदाहुरणम्‌- नि गदु्बोधिमवोध विक्लवाः क्व भूपतीनां चरितं क्व जन्तवः। 
इत्यादि ॥ 

ग्रक्रान्तर्माह- 
ग्रभिधीयते सतो वा संबन्धस्यार्थंयोरनौ चित्यम्‌ । 


यत्र स॒ विषमोजन्योऽयं यत्रासंभान्यभावो वा ।।४६॥) 
अभिधीयत इति । यत्रार्थयोधि्यमानस्य सम्बन्वस्य केवरमनौवित्यमुच्यते 
सोऽन्योऽय निपमाख्योऽलकारः ! अथवा यत्रासं भाव्यस्य भाव सत्ताभिधीयते सोऽपि 
विषमः । अनुचितार्थाञत्र विपमदान्दः 1) 
उदाहर्सयमाह-- 
रूपं क्व मधुरमेतत्‌क्व चेदमस्याः सुदारुणं व्यसनम्‌ । 
इति चिन्तयन्ति पथिकास्तव वेरिवधूं वने दुष्ट्वा ॥५०॥। 
इसका माय यह इ क दुन सज्जनो क सङ्घ कर्नल चक्र जकर 
किए यह्‌ भनविकार-चेष्टा है। य्ह दो व्यक्तियो के अविद्यमानं सम्बन्ध की कल्पना 
कीगयीदह। 
इकी प्रकार नमिसाधु-प्रस्तुत 'निप्तगेदुर्वोधि"“““““" मे भी विपम अलकार है- 
कर्तो राजामो कास्वभावसे ही दुर्बोध चरित्त गौर कहं अनान-पीडित 
[हम-जंसे ] जीव ! 
विषम का प्रकारान्तर-- 
जहां दो अर्था में विद्यमान सरत्रन्ध का अनौचित्य प्रकट किया जाता हं, जयवा 
असस्मव वस्तु की सत्ता वतकल्ायी जाती है, वहां हितीय विम अलंकार होता है 1४९ 
उदाटुर्ण- 
आपके शुकी वघूको वनम निराश्रय देखकर पयिक उसकी दशा पर 
करणाद होकर इस प्रकार कहते हका तो इसकी अदृश्रुन स्पच्छटा मीर कहा इस 
पर यह दारण विपत्ति 1५०। 
विपम के भेद- 
विषम मठंकार के चार नेद्‌ ईह--न्हा कर्ता किसी कायवहय (१) भोड़ा-सा 


कारिका ५१-५२ | सप्तमोऽध्यायः २१६ 


रूपमिति । अत्र रूपन्यसनयोरथंयोरेकत्र रिपुस्त्रिया विद्यमानयोरनौचित्यम्‌ । 
यत्रहिरूपन त॒त्र व्यसनम्‌ । यदाहु-"जरस्यसोकामिभवेयमाङृति ' इति । अथवा- 
संभाव्यस्य रूपस्यातिन्यसनस्य च भावोऽत्र कथ्यत इति साधारणमेकपदाहूरणम्‌ ॥ 

भूयोऽपि मेदान्तदारयाह- 

तदिति चतुर्धा विषमं यत्राण्वपि नेव गुवंपि च कार्यात्‌ । 

कार्यं कृर्यात्कर्तां हीनोऽपि ततोऽधिकोऽपि न वा ॥५१॥ 

तदिति । तद्िपममिति वक्ष्यमाणेन प्रकारेण चतुर्धा चतुष्प्रकारम्‌। कथ- 
मित्याह-यत्र कतरिचत्कायद्धितोरण्वपि स्वल्पमपि कार्यं कर्तां नेव कुर्यादित्येकः 
प्रकारः! गुदवंपि कुर्यादिति दहितीय. । अत्र च हीनाधिकत्व कर्ता नापेक्षते । तथा हीनो- 
ऽाक्तोऽपि कर्ता तत्कार्यं कुर्यादिति तृतीय । तथाधिकोऽपि न वा नैव करर्यादिति चतुथं. । 
सत्र कायंयोरण॒त्वगुरुत्वपेक्षा न कर्तव्या ! कार्यादिति च सवेषु योज्यम्‌ ! अस्यत्र 
वेषम्यनिरासार्थम्‌ । अपिशनब्दा विस्मयार्था । चनव्द समूच्चये पूवपिक्ष । अत्रानौचित्य- 
मदाक्यकतृत्व च विषमशब्दाथ" । विषममिति नपुसकनिद॑शो विषम।लकारयुक्तकाव्या- 
पेक्षयेति ॥ 

एतटुदाहरणानि चत्वार्या्यद्रयेनाह- 

त्वद्भृत्यावयवानपि सोढुं समरे क्षमानतेक्ुद्राः। 

` अ्रसिधारापथपतितं त्वं तु निहन्या महेन््रमपि ।॥५२॥ 


मी कायं नहीं करता, (२) बहुत-सा कां करता है, (३) हीन होता हृजा भी कायं 
करदेता है, तथा (४) समर्थं होता हज भी कायं नहीं करता ।५१। 

इन चारो भेदो को नभिसाधुने निम्न प्रकारसे दिखाया है- 

प्रथम प्रकार--किसी कारणसे कर्ता छोटा (सुकर) भीकामन करे 

दितीय प्रकार-- किसी कारणसे कर्ता बडा काम मी करे; 

तृतीय प्रकार-किसी कारण से अशक्त होतेपर भी कर्ता काम करे, 

चतुथं प्रकार--किसी कारण से सशक्त होने पर भी कर्ताकामन करे। 
उदाह्रण-- 

[हे राजन्‌ ! तुम्हारे] वे नीच शत्रु युद्ध में तुम्हारे साधारण संनिकोंकोमी 
नहीं सहं सकते । 

पतो खड्ग चते समय सामने जये हृए्‌ देवर इन्द्रको मी मार 

सकते हु । 

भाप चस दूर ठहरे रहिए, आपके साधारण संनिक ही शच्रुमो को भार देगे ! 


[1 ीरौीणीणेणीणिागीणीषणीगीणणीरीणणरगीीयीषो पिं विरि 


२२० काव्यालङ्धारः [ कारिका ५३-५५ 


त्वं तावदास्स्व दूरे भृत्यावयवोऽपि ते निहन्त्यहितान्‌ । 

का गणना तः समरे सोढुं शक्रोऽपि न॒ सहस्त्वाम्‌ ॥५२॥ 

प्वदिति 1 त्वमिति । अव्राणुत्वद्यापनार्थोऽवयवरशव्द. । ततोऽण्वपि भूत्यावयव- 
सहनलक्षण कार्यं रिपव. कर्तृमद्यक्ताः । वरपमयाज्नद्धनात्कायद्धितोः । तथा ग्ेपि 
गक्रहटूनन कार्यात्स्वान्मृपेण क्रियते । तथा हीनोऽपि भत्यावयवो रिपुवधं कायं तेजस्वि- 
चृपसंपकत्की्व्यगिया वा करोति । तथाधिकोऽपि चक्रः कर्ता राजसहनलक्षण तनदधयात्‌ 
कार्यान्ति करोति ॥ 

मयो.ऽप्याह- 

यत्र॒ क्रियाविपत्तेनं भवेदेव क्रियाफलं तावत्‌ । 

कर्तुरनर्थंर्च भवेत्तदपरमभिधीयते विषमम्‌ ॥५४।। 


यत्रेति । यवर क्रियाचिपत्तेः कमेनागाद्धेतोनं केवखं तावत्क. क्रियाफलं न 
भवेयावतानर्थद्च भवेत्तदपरमन्यद्विपमभिधीयते } दारुणाथदचात्र विपमगव्दः 1 यथा- 
'विपममिदं वनम्‌' इति ॥ 


निद्शंनमाह-- 
उत्कण्ठा परितापो रणरणकं जागरस्तनोस्तनुता । 
फलमिदमहो मयाप्तं सुखाय मृगलोचनां दष्ट्वा ।५५।। 


उकक्रण्ठति 1 अत्र सुखाय मृगलोचना स्तविय दष्ट्वा न केवकं सुखं न प्राप्तं 
यावदनयं उकत्कण्ठादिकः प्राप्तः । क्रियाविपत्तिरत्र दर्जनच्छेद । 


समर-नूमि मे तुम्हारे क््रुमो क्तो तुम्हारे साम्ने व्हरने की क्याश्क्तिहै? 
[षहा तक फ्रि] इच्छ भनी आपके सामने नहीं ठहर सकता ।५२-५३। 

उपर्युक्तं नार्‌ वाव क्रमण. चारो भेदोके उदाहरण 
विषम का प्रनारान्तर्‌-- 

जहा पायक ना्हौ जनके कारणकर्ताफो नकेचलन््यिकाफरटही 
न निन्दे अपिनु अनयं मी दहो जए, उसे विषम कदत ह 1५८ 
उच्नप-- 

उम पृमनयनोकतोदेतातो घादुण्केत्तिए्‌, र्न मुच्ते जो एक मित वहू 
र--ररष्टाः मन्ताप, नप, अनिद्रा भ्तैर्‌ शरीर फौ दुवसता ।४५। 


कारिका ५६-५७ | सप्तमोऽध्याय. २२१ 


अथानुमानचा€-- । 
वस्तु परोक्षं यस्मिन्साध्यमूपन्यस्य साधकं तस्य । 
पूनरन्यदुपन्यस्येद्धिप रीतं चैतदनुमानम्‌ । ५६ ॥ 


वस्त्विति ! साध्य परोक्षं वस्तु यत्र प्रथममुपन्यस्य पुनस्तस्य साधकं हेतु कवि- 
रपन्यस्येत्तदनुमानमखकार. ! तथापि विपरीत चेति पूर्वं साधकोपन्यासः परचात्साध्य- 
निर्देशो यत्र तच्चानुमानम्‌ । वास्तवलक्षणेनवापुष्टा्थस्य परिहूतत्वादग्निरत्र धुमादित्य- 
रंकारत्वं न मवति! साधकमिति जातावेकवचनम्‌ । तेन हयोबेहुषु च साधकेषु भवति । 
यथा-- 
स्पष्टाक्षरसिद यत्नान्मधुरं स्त्रीस्वभावत. । 
अत्पाद्धुत्वादनिरह्धादि सन्ये वदति सारिका ॥\ 
साधकग्रहणादेव वस्तुनः साध्यत्वे कब्पे साध्यग्रहणमवस्तुत्वेन सिद्धस्याभाव- 
स्यापि वस्तुत्वग्रतिपत्त्यर्थ॑म्‌ । यत्साध्यं त-दावरूपमभावरूप वा भवत्विति क्त्वा प्रत्यये- 
नेव पुनःजञब्दाथ रव्ये साध्यसाघकयोर्च विलक्षणत्वादन्यत्वे सिद्धे पुलरन्यपदग्रहण बहूना 
साधकानामुपन्यासे सत्यनुमानोज्ज्वलत्वख्यापनार्थ॑स्‌ । साधकमुपन्यस्येत्पुनदचान्यदुपन्य- 
स्येदिति रान्दशक्त्यव वा भूयस्ताप्रतीति" ।। 
उवाह्र्यमाह- 
सावज्ञमागमिष्यन्नूनं पतितोऽसि पादयोस्तस्याः । 


कथमन्यथा ललाटे यावकरसतिलकपडि. क्तरियम्‌ ।। ५७ ॥। 
८ अनुमान 

जहा कवि पहल परोश्च साध्य वस्तु (कायं) फो बताकर फिर उसका साधक 
(कारण) बतलाए्‌, अथवा इसके विपरीत करे (अर्थातु पहर कारण का प्रतिपादन 
करके पनात परोक्ष स्ाध्यवस्तु का निर्देश करे), वहां अनुमान अकार होता है १४६ 

उदाहरणाथं नमिसाधु-प्रस्तुतत उक्त पद्य मे साधको (कारणो) के निर्देश द्वारा 
साघ्य (कायं) का अनुमान होना वताया गया है-- 

मेरा विचारदहै कि यह्‌ मैना बोर रही रहै, क्योकि शिक्षा आदि अस्यास के 
कारण अक्षरस्पष्टरहैः स्त्री होनेस्े आवाज मधुरै ओौर शरीर छोटा होमे से वह 
[आवाज] सूक्ष्म अथवा कोमल है ¦ 
उदाहरण- \ 

तुम कुछ चिन्न-से दिखायी पड़ते हो, अवद्य ही कान्ता के चरणों पर सिर 
रखक्तर आये हो, अन्यथा तुम्हारे साथे पर यह मेंहदी का त्तिक केते छया ? ।५७। 

यहा कायं पहर वताया गया है मौर उसका कारण वाद मे । 


२२४ कान्यालद्धुारः [ कारिका ६४-६६ 


प्रथ दौीपकम्‌-- 
यत्रैकमनेकेषां वाक्यार्थानां क्रियापदं भवति । 
तद्रत्कारकपदमपि तदेतदिति दीपक द्वेधा | ६४॥ 


यत्रेत्ति । यच्रामेकेपा वाक्यार्थानामेक क्रियापदं भवति तद्रत्कर्त्रादिकारकपद वा 
तदित्यमुना प्रकारेण दीपक टधा । क्रियादीपकं कारकदीपकं चेत्यर्थः ।! 


त्रथास्यान्वथैमेदान्दशंयितुमाह-- 
ग्रादौ मध्येऽन्ते वा वाक्ये तत्संस्थितं च दीपयति । 
वाक्यार्थानिति भूयस्तिधेतदेवं भवेत्षोढा ॥६५॥। 


आदाविति । तदिति द्विविध दीपकं पद्यादिलक्षणवाक्यस्यादौ मध्येऽन्ते वावस्थित 
वावयार्थान्दीपयत्ति प्रकाशयतीत्यन्वथैवलादादिदीपकं मध्यदीपकमन्तदीपक चेति 
त्रिविधम्‌ । एव चतत्षोढा षड्विधं भवेदिति ॥ 
तद्दाहरखानि यथाक्रममाह-- 
कान्ता ददाति मदन मदनः संतापमससमनुपशमम्‌ । 
संतापो मरणमहौ तथापि शरणं नृणां सेव ।६६॥ 
६. दीप्र 
जहाँ अनेक वाक्यार्थो का एक ही क्रियापद श्रयवा कारकपद होता है, वहां 
दीपक अलंकार होता है! [इस प्रकार] इसके दो भेद होति है--क्ियादीपक जर 
कारकदीपकं 1६४। 
यह्‌ द्विविध दीपक (क्रियादीपक जओौर कारकदीपक) वाक्य के आदि, मध्य 
अथवा अन्त में आकर वाक्यार्थो को प्रकालिते करता है ! इस प्रकार दीपक के छः 
भेद ह 1६५} 
क्रियादीपक के तीन भेद--आदिगत, मध्यगत ओर अन्तगत्त । 
कारकदीपकं के तीन भेद--आदिगत, मघ्यगत गौर अन्तगत । 
इस प्रकार कुक छः भेद हुए । 
आदि क्रियादीपक का उदाहरण- 
कान्ता कामकोदेने वाजी है, अर्यात्‌ कामोहीपक है, कामदेव विषम मौर 
असाध्यं सन्ताप देते वाला है ! सन्तपपसे मृत्यु होती हैः फिर भी भनुष्प कान्ता की 
श्ररण में आति ह 1६६। 


कारिकां ६७-७१ | सप्तमोऽन्यायः २२५ 


कान्तेति । इदमादिक्रियादीपकम्‌ ॥ 
तारुण्यमाद्चु मदनं मदनः कुरुते विलासविस्तारम्‌ । 


सच रमणीषु प्रमवजञ्जनहूदयावजेनं बलवत्‌ ॥६७।। 
तारुण्यमिति 1 इद मध्यक्रियादीपकम्‌ ।। 


नवयौवनमङ्खेषु प्रियसङ्गमनोरथो हि हूदयेषु । 


ग्रथ चेष्टासु विकारः प्रभवति रम्यः कुमारीणाम्‌ ॥६८॥। 
नवेति । इदमन्तक्रियादीपकम्‌ }) 


निद्रापहरति जागरमुपङशमयति मदनदहनसंतापम्‌ । 


जनयति कान्तासंगमयुखं च कोऽन्यस्ततो बन्धुः ।६६।। 
निद्रति । इदमादिकतृ दीपकम्‌ । 


स सयति गात्रमखिलं ग्लपयति चेतो निकाममनुरागः। 


जनमसुलभं प्रति सखे प्राणानपि मक्ष मृष्णाति ।७०॥ 
सर सयतीति । इद मध्यकतृं दीपकम्‌ ॥ 


दूरादुत्कण्ठन्ते दयितानां सनिधोौ तु लज्जन्ते 
त्रस्यन्ति वेपमानाः शायने नवपरिणया वध्व. ।७१॥।। 


मध्य क्रियादीपक का उदाहरण- 

युवावस्था तुरन्त ही काम को उत्पन्न करती है, काम अनेकं प्रकार के विलासो 
को जन्म देता है । वह्‌ [ हावः, भाव आदि विलास] रमणियों में उत्पन्न होकर लोगों 
के हृदयो को बलात्‌ भाक्रृष्ट कर ठेते हैँ 1६७ 

जन्तं क्रियादीपक का उदाहूरण- 

कुमारियों के हरीर मे नव-यौवन, हृदय में धरिय से मिलने का मनोरथ ओर 
चेष्टाओं मं ललित विकार जन्म केता है !६८! 
आदि कतृंदीपक का उदाह॒रण-- 

निद्रा जागरण का हूरण करती है, कामाग्नि के सन्ताप क्रो दर करती है ओौर 
कान्ता के साथ समागम का सुख अन्ुमव कराती है \ नींद से बकर वन्धु भौर कौन 
होगा \६&€। 
मध्य कतृदीपक का उदाहूरण- 

अनुराग समस्त शरीर को शिथिल गौर चित्त को अत्यन्त चिन्न कर रहा 
है 1 हे भित्र! प्रिया के दुम होने से यह्‌ अनुराग ज्ञी प्राणोंको ह्रने वाखा है ।७०। 


तयन 


२२२ काव्यारद्धुारः | कारिका ५८-६० 


सावज्ञमिति । अत्र पादपतन साध्यमुपन्यस्य ऊलाटगतयावकरसतिरकपटिक्त. 
साधकमुपन्यस्तमु ॥ 

तथा- 

वचनमुपचारगभं द्रुरादुद्गमनमासनं सकलम्‌ ! 

इदमद्य मयि तथा ते यथासि नृनं प्रिये कुपिता । ५८ ॥ 

वचनमिति । अत्र वचनादीनि पूर्व साधकान्युपन्यस्तानि परङ्चात्कपितत्व साध्य- 
मिति वेपरीत्यम्‌ ॥ 

प्रथ मैदानशरयाह- 

यत्र बलीयः कारणमालोक्याभूतमेव भूतमिति । 

भावीति वा तथान्यत्कथ्येत तदन्यदनुमानम्‌ ।। ५६ ॥] 

यत्ति । यत्रालकारे वल्वत्तरकारणदर्ननेनान्यदिति कायंमभरुतमेवानुत्पन्नमेव 
भूतत्वेन भावित्वेन वा कथ्येत तत्तथेति पूर्ववद्यथापूर्वं॒साघ्यमुपन्यस्य साधकोपन्यासः 
साधकं चोपन्यस्पर साघ्योपन्यासर इत्येवं चतुर्था तेदन्यदपूर्वोक्तादपरमनुमानम्‌ ॥ 

उद्ाह रखान्याह-- 

म्रविरलविलोलजलदः कुटजाजु ननोपसुरभिवनवातः । 

भरयमायातः कातो हन्त मृताः पथिकगेहिन्यः ।६०॥ 

अविरलेति 1 अत्रादौ वख्वत्त कालस्य साघकस्योपन्यास पश्चात्साध्यस्य मरणस्य 
भाविनोऽपि मृता इत्ति भूतत्वेन निर्देगः । 


हे धिये । भज तुम्हारा कुर भ्रदन पूना, दूर से अगवानी के लिएु आना, 
भासन देना, आदि, यह सव इस प्रकार लगता है, जसे तुम कुपित हो रही हो 1५८। 

यहां पहर कारण बताये गये ह, फिर उनका कार्यं निदिष्ट किया गया है। 
अनुमाने का अन्य प्रकार-- 

जहां कारण के प्रवर होने से अभत (अनुस्वन्न), भुत (उत्पन्न) अथवा भावि 
(उत्पन्न होने वाके) रूप से कायं का वर्णन हो, वहां अनुमान अलंकार होता है ।५९। 

इममे भी [उपर्युक्त छा रूप मे] पहले साव्य, फिर साधकः अथवा पहले 
साधक, फिर साव्य नि्दिषटकरमेका क्रम रहत्ता हे । 
उदाहरण- 

यह घनघोर एवं उमङ़ती हृ घटाभों फो स्यि हृषु तथा कुटज, अदन मौर 
कदम्ब फो सुगन्धि से युक्त पवन वाला वर्षाकाल मा पटु है । ह! ! भरोषित-भचरं कामों 
(वियोगिनी स्तयो) फो क्या दन्ना होगी !६०। 


कारिका ६१-६३ | सप्तमोऽध्यायः २२३ 


पथा-- 
दिष्ट्या न मृतोऽस्मि सखे नूनमिदानीं प्रिया प्रसन्ना मे । 
ननु भगवानयसुदित्तस्त्रिमुवन मानन्दयन्निन्दुः ।६१॥ 


दिष्ट्येति । अत्र श्रियाप्रसादस्य साध्यस्य भाविनो भरतत्वेनादावुपन्यासः 
पर्वाच्चन्द्रोदयस्य बलवतः साधनस्येति भूतोदाहरणम्‌ । 


भाविन्याह- 
यास्यन्ति यथा तूणं विकसितकमलोञ्ञ्वलादमी सरसः। 
हंसा यथेवमेतां मलिनयति घनावली ककुभम्‌ ।॥६२॥ 


यास्यन्तीति । अचर हस्गमनस्य साध्यस्यादौ भावित्वेन निदेशः पर्चात्साधनस्य 
बलवतो घनावन्दीलक्षणस्येत्ति ॥ 


तथा-- 
वहति यथा मलयमरु्यथा च ह्रितीभवन्ति विपिनानि । 
प्रियसखि तथेह न चिरादेष्यति तव ॒वत्लभो नूनम्‌ ।।६२३।। 


वहतीति । अथ पूर्वं बल्वतो मल्यवातादिकस्य साधकस्य निदेशः । पश्चादल्ल- 
भागमनस्य साध्यस्य भावित्वेनेति ॥। 


कि 


यहां बवान कार-रूप कारण का निदं पहने किया है मौर मरणरूप अभूत 
कायं का निदश्च बादमे। 

है भित्र ¡ सौमाग्यसे मै अभी जीवित हु! मेरी श्रिया भी अब अवद्य प्रसन्न 
है, ओर भगवानु चन्तरदेव तीनों लोकों को आनन्दित करते हुए उद्य हो गये हैँ ।६१। 

चन्प्रोदय-रूप प्रवल कारण के उपरान्त उक्त दो कायं हुए है । अतः चन्द्रोदय 
भूत कारण है, जिसका निदेश वादमे हमा है मौर कार्यो का पहले हुवा है । 

ये हंस विकसित कमलो से उज्ज्वल इस तालाब से शीघ्र चले जागे, क्योकि 
मेघमाला इस दिशा को मलिन बना रही है ।६२। 

यहां भावी कायं पह निष्ट हभा है भौर उसका प्रवर कारण बाद मे | 

है धिय सलि ! दक्षिण दिक्ञा की सुगन्धित पवन चलने छगी है मौर वन-उप- 
चन हरे होने लगे है--इसलिये तुम्हारे भिय शीघ्र अने वाके है !६३। 


यहाँ प्रवल कारण का निदंश पहर हुमा है ओर भावी कायं का निर्देश 
वाद मे। 


२२४ काव्यारृद्धुारः [| कारिका ६४-६६ 


प्रथ दीप्कम्‌- 
यत्नैकमनेकेषां वाक्यार्थानां क्रियापदं धवति 
तद्रत्कारकपदमपि तदेतदिति दीपकं दधा 1 ६४॥ 


यत्रेति 1 यत्रानेकेषां वाक्याथनिामेकं क्रियापदं भवति तदत्कर्वादिकारकपदं वा 
तदित्यमुना प्रकारेण दीपक देषा । क्रियादीपक कारकदीपक चेत्यथं. ।। 


त्रथास्यान्व्थमेदान्दशेयितुमाह-- 
ग्रादौ मध्येऽन्ते वा वाक्ये तत्स्थितं च दीपयति । 
वाक्यार्थानिति भयस्त्रिधेतदेवं भवेत्षोढा | ६५।। 


आदाविति । तदिति दिविध दीपक पद्यादिलक्षणवाक्यस्यादौ मध्येऽन्ते वावस्थित 
वाक्यार्थान्दीपयत्ति प्रकाशयतीत्यन्वर्थवखादादिदीपक मध्यदीपकमन्तदीपकं चेति 
त्रिविधम्‌ 1 एव चंतस्पोढा षड्विधं भवेदिति । 


तद्‌ दाहर्ानि यथाकरममाह- 
कास्ता ददाति मदनं मदनः संतापमसममनुपशमम्‌ । 
संतापो मरणमहौो तथापि शरणं नृणां संव ॥६६॥ 


६. दीपक 

जहा अनेक वाक्यार्थो का एक ही क्रियापद श्रथवा कारकपद होता है, वहां 
दीपक अलंकार होता है । [इस प्रकार] इस्केदो भेद होते है--क्रियादीपक ओर 
कारकदीपकं 1६ ४। 

यह्‌ द्विविध दीपक (क्रियादीपक जीर कारणूदीपक) व्य के आदि, मध्य 
अथवा अन्त में अकर वाक्यार्थो को प्रकाशित करता है । इस प्रकार दीपके छः 
भेद हु 1६५) 

क्रियादीपक के तीन भेद-आदिगत, मध्यगत ओर अन्तग । 

कारकदीपक के तीन भेद--आदिगत, मध्यगतं गौर अन्तगतं । 

इस प्रकार कुर छः भेद हुए । 
आदि-क्रियादीपक का उदाहरण- 

कान्ता कामकोदेने वाली है, अर्थात्‌ कामोरीपक है, कामदेव विषम मौर 
असाध्य सन्ताप देने वाला है ! सन्ताप से मयु होती हैः फिर भी मनुष्य कन्ता का 
शरण में मति ह 1६६। 


न 


कारिका ६७-७१ | सप्तमोऽभ्यायः २२५ 


कान्तेति । इदमादिक्रियादीपकम्‌ । 
तारुण्यमालु मदनं मदनः कुरूते विलासविस्तारम्‌ । 


सच रमणीषु प्रभवजञ्जनहुदयावजेन बलवत्‌ ॥६७।। 
तारुण्यमिति 1 इदं मध्यक्रियादीपकम्‌ ।। 


नवयौवनमद्खेष॒ श्रियसङ्कमनोरथो हि हुदयेषु | 


ग्रथ चेष्टासु विकारः प्रभवति रम्यः कुमारीणाम्‌ ॥ ६८1 
नवेति । इदमन्तक्रियादीपकम्‌ 1 


निद्रापहरति जागरमुपरासयति मदनदहनसंतापम्‌ । 


जनयति कान्तासंगमयुखं च कोजन्यस्ततो बन्धुः ।६६।। 
निद्रेति । इदमादिकतृं दीपकम्‌ ।। 


सख सयति गात्रमखिल ग्लपयति चेतो निकाममनुरागः। 


जनमसुलभ प्रति सखे प्राणानपि मक्ष मुष्णाति 11७०1 
सर सयतीति । इद मध्यकतु दीपकम्‌ ॥ 


दूरादुत्कण्ठन्ते दयितानां सनिधौ तु लज्जन्ते | 
त्रस्यन्ति वेपमानाः शयते नवपरिणया वध्व" 11७ १।। 


मध्य क्रियादीपक का उदाहरण- 

युवावस्था तुरन्त ही कामं को उत्पन्न करती है, काम अनेक प्रकार के विलासो 
को जन्म देता है 1 वह [ हाव, भावं आदि विलास ] रमणियों मे उत्पन्न होकर लोगों 
के हृदयों को बलात्‌ भाङ्ृष्ट कर कते हँ । ६७। 
अन्त क्रियादीपक का उदाहरण- 

कूमारियों के शरीर में नव-यौवन, हृदय मेभ्रिय से मिलने का मनोरथ ओर 
चेष्टाओं में लकित विकार जन्म छेता है 1६८ 
आदि कतृंदीपक का उदाहरण-- 


निद्रा जागरण का हरण करती है, कामाग्नि के सन्तापको दूर करती है ओौर 
कान्ता के सायं समागम का सुल अनुमव कराती है) नींद से बढ़कर बन्धु भौर कौन 
हयोगा \६&1 
मध्य कतृदीपक का उदाहूरण-- 

अनुराग समस्त शरीर को शिथिल ओर चित्त को अत्यन्त खिन्न कर रहा 
है। है मित्र! श्रिया के दुलंम होने से यह्‌ अनुराग शीघ्र प्राणो को ह्रने वाला है 1७०1 


नान को 


२२६ कान्याद्रुारः | कारिका ७२ 


दूरादिति । द्दमन्तकतरं दीपकम्‌ ॥ एवं कर्मादिषु कार्केपूदाहरणानि द्रष्ट- 
व्यानि । अस्य च दीपकस्य प्रायोऽरकारान्तरे. समविन उष्यते | तथा द्याद्ययोशुदा- 
हरणयोः कारणमालायाः सदरूमावः । वृतीयचतुर्रपञ्चमेपु वास्तवस्षमुच्चयस्य । पष्ठ 
जातिः ॥ 

प्रथ परिकर- 

साभिप्रायैः सम्यग्विरोषणंरवस्तु यद्िरिष्येत । 


द्रव्यादिभेदभिन्नं चतुविधः परिकरः स इति ॥७२॥ 

सत्ति । यदुद्रव्यगुणक्रियाजातिठक्षण चतुविवं वरतु माभिप्रार्यविधेपणेः सम्य- 
ग्वि्िष्येत स द्त्यमूना प्रकारेण चतुष््रकार. परिकराक्कारो भवति । सानिग्राय- 
ग्रहण वरतुस्वरुपमाव्राभिधानकत्पित्ताना विनेपणानां निरासार्थम्‌ । यथा-- 

न्यस्ताक्षरा धातुरसेन यत्र मुजत्वचः कुञ्जर विन्द्श्नोणाः 1 

टव्यत्र भूर्जत्ववा कुन्जरविन्दुमोणा टत्ति वि्ेपण वस्तुस्वर्पमाव्राख्यापक- 
मित्ति 1 सम्यम्प्रहणतु कविविवक्षितामिप्रायाप्रत्यायकवियैपणानां नितृच्यथम्‌ । तस्य 
भवन्ति द्रव्यमित्याद्र्थवातुिव्याभिवानादेव ततत्वावगमे सति द्रव्यादिभेद्भिन्न चततुविध 
ति यच्छरृत तक्कंश्चिक्करियाया अवस्तुत्वमृवत्त च्रिविधद्च परिकरोऽम्यधायि तन्मत- 
निराप्ना्थमिति ॥ 

यन्त कर्तरृदीपक का उदाहुरण-- 

नव विवाहित स्त्रिणां पत्तिके द्रुर होनै पर उत्कण्ठित भीर समीपदहोने पर 
ठनम्नित होती ह । पति के साथ कयन करने मे कापती गीर भयाकुलं होती ह ।७१। 

टमी प्रकार कमं जादि अन्य कारको कफे भी उदाहरण सम्भव ह। नमिसाधु 
के यनुमार कारक-दीपक का अन्य अल्कारो मं बन्तर्भाव दो सक्रनाहै। जंसे-प्रथम 
दो उदाह्रणो का कारणमाछा मे, नृतीय, चतुथं भीर पच्चम का वास्तवगत समुच्चयं 
मेतथाच्ठे का जातिमे। 
?०. परिकर 

[ विक्नेष] अभिप्राय से युक्त चिक्ञेपणों से निसे विक्नेषित किया जाए, उसे 
परिकर हते हई । द्रव्य, गुण, क्रिया सीर जाति--पे इसके चार भेद ह ।७२। 

विदोपण साभिप्राय होने चाहिए इसका तात्पयं यह है कि किसी वस्तुके 
स्वषूप-मात्र के निर्दक्च के लिए विभेपण प्रस्तुत नही कर देने चाहिए, जपे कि नमि- 
साधु-प्रस्तुतत निम्नोक्त कथन म- 

जिस [हिमालय पर्वत] पर्‌ [रिक वादि] बातुभोके रत्न से भोजपत्रो पर 
यक्षरक््तिगयेरहै, वे [भोजपच्] हार्यियो के [गरीर पर वयोवृद्ध के साथ-साथ 
स्वतःभंकित पद्मक नामक ] विन्दुभो के समान रक्तवणं है । 


= १ री 


कारिका ७३-७४ | सप्तमोऽध्याय. २२७ 


तदुदाहरणानि यथाक्रममाह- 
उचितपरिणामरम्यं स्वादु सुगन्धि स्वयं करे पतितम्‌ । 
फलमूत्सृज्य तदानी ताम्यसि मुग्धे मूधेदानीम्‌ ।७३॥। 
उचितेति । काचित्सखीमाह- है सुरे स्वत्पप्रजे, एव विधं फर तदानीमृत्सुज्ये- 
दानी मुर्घव वृथंव ताम्यसि खिद्यस इत्यथं ! अव्र फल्वस्तुनो विशेपणानि साभिप्राया- 
णि। अय चामिप्राय-योग्यपरिपाकसुन्दरता सुस्वादुरसता सौगन्ध्य स्वय हस्तपतन 
चैकौकमपरिस्यागकारणम्‌ । त्वया त्वेतत्सकलगुणयुत फल त्यजन्त्या स्वय जानन्त्यव 
महाननुतापोऽद्खीकृत एव । तक्किमिदानी खेदेनेति । अथवात्रेदमुदाहरणम्‌-- 
कर्ता द्यूतच्छलानां जतुमयमवनादीपनो योऽभिमानी 
कृष्णा्ेश्रोत्तरीयन्यपनयनपद पण्डवा यस्य दासाः । 
राजा इःलासनदेगु ररनुजश्तस्याङ्खराजस्य भित्र 
क्वास्ते दूर्योधनोऽसो कथय न तु सुषा द्रषटुमगश्यागतो स्वः ॥ 
इदं द्रव्योदाहरणम्‌ ॥ 
कार्येषु विष्नतेच्छ विहितिसहीयोपराधसंवरणम्‌ । 
प्रस्माकमधन्यानामाजंवमपि दुलंभं जातम्‌ 1७४) 
कायष्विति ! मानिनी नायकमिदमाहु । अच्राजंव गुणस्तद्विेषणान्यन्यानि 
साभिप्रायाणि । तथाह्याजेवे सति मुग्धतया यदेव कायेषु सुरतेषु युप्मदादिरिच्छति तदेव 
क्रियते 1 तथा महीयसा गुरूणामपराधाना सषवरणमाच्छादन भवति 1 तच्चाजंवमस्मा- 
द्रव्य परिकर का उदाह्रण-- 
कोई सखी अपनी सखी से कहती ै--है मुग्धे ! उस समय तो तुमने सुन्दर, 
पके हए, स्वादु, सुगन्धित जौर अनायास-पराप्त फल को फेंक दिया णा, अब क्यो च्थं 
ही दुःखी होती है ।७३। 
द्रन्यगत परिकर का एक अन्य उदाहरण नमिसाधु ने भी प्रस्तुत किया है-- 
जुएमे छर करने वाखा, खाक्षागृह को जलाने वाला, अभिमानी, द्रौपदी के 
केशो भौर वस्त्रौोको खीचने मे निपुण, पाडवो को दास बनाने वाका, दु श्ासन 
आदि का शासक, सौ भाद्यो मे वडा तथा अद्धदेशाधील कणं का मित्र वहं दर्योवन 
कहाँ है ? बताओ ! हम दोनोयोंदही उसने मिलते अयि है, क्रृड होकर नही । 
गुण परिकर का उदाह्रण- 
एकं मानिनी नायक से कहती है--अपनी इच्छा तथा अनिच्छा का अनादर 
करके सुरत आदि में प्रदत्त कराने वाली, दडे-बडे अपराधो पर परदा डालने वाली 
यह सरलता भो सन्न जंसी हतमाचिनी के चष दुलभ हो रही है 1७४ 


२२८ कान्यालद्धुारः [ कारिका ७१५-७९ 
कमधन्यानां दुष्प्रापं जातम्‌ । जयमभिप्रायः- नाहमृज्वी येनंताना्जंवगुणान्मवि संभाव्य 
मां प्रस्रादयसीति ॥ 

क्रियापरिकरस्तु- 

सततमनिवृ तमानस्षमायाससहस्रसंकटविलष्टम्‌ । 

गतनिद्रमविर्वासं जीवति राजा जिगीषुरयम्‌ ॥७५।। 


सततमिति । अत्र जीवतीति क्रिया ! तद्िभेपणान्यनिवर तमानसमित्यादीनि । 
र्माभप्रायो राज्यगर्हादिकः । एवविधं राज्ञो जीवन गहिप्तमित्यथैः ॥ 
+त जातिपरिकामाह-- 
ह त्रव्यन्तमसहुनानामूर्शक्तीनामनिध्नवृत्तीनाम्‌ । 
एकं सकने जगति स्पृहणीयं जन्म केसरिणाम्‌ ॥७६॥ 
' सत्यन्तमिति 1 अव्र केसरिणामिति सिहुजात्तिः । तद्धिनेपणान्यसहनानामिव्या- 


नि) 
अभिप्रायस्तु तेः सिदहानां महतत्वप्रतिपादनमेव । कथमन्यथा तज्जन्मनि स्पृहा 
मवेत्‌ 1 मेथवातव्रवमृदाहूरणम्‌- 


अभिप्राय यह है कि मून्े इतनी प्ररु भत समञ्लना किरम तुम्हारे च्सिमे 
7 जाऊंगी । 
कऋरया-परिकर का उदाहुरण-- 

दिग्विजय कौ इच्छा करने वाके इस राजा का मन निरन्तर अवराम्त रहता है । 
हारो संकटों एवं दुविघा्भो के कारण इस. वेचारे को नींद मी नहं माती । शत्रु के 
मय से यह्‌ किसी पर चिदवास नहीं करता ओर इस प्रकार यह जीवन के दिन काट 
रहा है । अर्थात पसे राजा का जीवन निन्दनीय ह ।७४। 
जाति परिकर-- 

सारे संसार में केवल सिह काही जन्म प्रशंसनीय ३, क्योकि वे असहनगील 
होते ह" अयति किसी का समना सहन नहीं कर सकते ! वे महादाक्तिद्षाी तथा 
स्वाधीन-प्रकृति होते है ।७६। 
नमिसाचु-प्रस्तुत जातिगत पर्किर का एक यन्य उदाहुरण- 

कृण शरीर, काना, रगडा, कटे हए कान वाला, विना पछ का, भ्रू से 
दुर्बल, बृढ, तृषा से पीडित कण्ठयुक्त, दुर्गन्वपूणं रिसते हुए घार्वौ तथा कीडोसे 
भरा हुमा, बहुत सोने वाला कुत्ता भी कुत्तिया का भनुतस्ररण करता है, कामदेव उसे 
भी काम-विह्रु वनाता है 1 


= # 


2.2) 


कारिका ७७-७६ |] सप्तमोऽध्यायः २२६ 


कृ काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलः 
क्षुध्षामो बुद्धः पिठरककपालादितगलः । 
तरणं. पतिकिलिन्नः कृमिकूुलचितः स्वापबहुलः 
श्युनीमन्वेति एवा तमपि मदयत्येन मदनः ॥ 
त्थ परिवृत्तिः- 
युगपहानादाने भ्नन्योन्यं वस्तुनोः क्रियेते यत्‌ । 
क्व चिदपचर्येते वा प्रसिद्धितः सेति परिवृत्तिः ।॥ ७७ ॥। 
युगपदित्ति । यदन्योन्य परस्पर वस्तुनोयु गपत्समकाकं दानादाने त्यागग्रहणे 
क्रियेते सेत्यमुना प्रकारेण परिवरृत्तिनमिककारो भवति । अथवा क्वचिदसती दानादाने 
यद्पचरयते सा परिव्रत्ति. । कथमसत उपचार इत्याह्‌--प्रसिद्धित. । प्रसिद्धा हिन 
किचिदपि विरुध्यते । अन्यथा गगनादीनामपि मूर्तधमंवणंनमयुक्त स्यादिति भावः ॥ 
उदाहरणे द्यभ्यामार्याधिम्यामाह-- 
दत्तवा ददंनमेते मत्प्राणा वरतनु त्वया क्रीताः । 


कि त्वपहूरसि मनो यहदासि रणरणकमेतदसत्‌ ॥ ७८ ॥ 

दत्वेति 1 कदिचद्व्यसनी वक्ति। इदमत्र दशंनसमकालमेवे प्राणक्रयस्तथा 
चित्तहरणसमकालमेव हूदयीत्ककिकादानमूपचरितम्‌ ॥! 

श्रथ परितंख्या- 

पृष्टमपृष्टं वा सद्गुणादि यत्कथ्यते क्वचितुल्यम्‌ । 

ग्रन्यत्र तु तदभावः प्रतीयते सेति परिसंख्या ॥ ७९ ॥ 
०९. परिवृत्ति 

जहां परस्पर दो वस्तुओं का एक ही समथ त्याग ओर ग्रहण किया जाय, 
वहां परिवृत्ति अलंकार होता है 1 कही-कहीं [ त्याग ओर ग्रहण न होने पर भी ] प्रसिद्धि 
के कारण [भो] एेसा कर दिया जाता है 1 वहं भौ परिवृत्ति अकार होता है 1७७1 
उदाहूरण- 


एक कामी नायिका से कह रहा है- हे सुन्दरि ¡ तुमने दकशंन देने के साथही 
मेरे प्राण तररीदच्िर्है, किन्तु भव बह विरह की उत्कण्ठा देकर तुम मेरे चित्त का 
अपहरण कर रही हो, यह उचित नहीं है ।७८। 
४२. परिसंख्या 


जहां गुण, क्रिया, जात्ति रूप वस्तु कहीं तो तुल्य (साधारण रूप से) 
मान, अर्थात्‌ अन्य स्थानों पर भी विद्यमान, कही जातौ है, मौर कहं पर 


२२८ काव्यालद्धुारः [ कारिका ७५-७६ 


फमधन्यानां दुष्प्रापं जातम्‌ । अयमभिप्राय-नाहमृज्वी येनं तानाजेवगुणान्मयि सं भाग्य 
मां प्रसादयसीति ॥ 


क्रियापरिकस्तु-- ` 
सततसनिवृ तमानसमायाससहस्रसंकटक्लिष्टम्‌ । 
गतनिद्रम विवासं जीवति राजा जिगीषुरयम्‌ ॥७५।। 


सततमिति । अत्र जीवतीति क्रिया । तद्धिशेषणान्यनिवरं तमानसमित्यादीनि । 
तेषामभिप्रायो राज्यगर्हादिकः 1 एवविध राज्ञो जीवन गहि्तमित्यथंः । 
श्रथ जातिपरिकरमाह-- 


ग्रत्यन्तमसहनानामुरुशक्तीनामनिष्नवृत्तीनाम्‌ । 


एकं सकले जगति स्प्हणीय जन्म केसरिणाम्‌ ।७६।। 
अत्यन्तमिति । भत्र केसरिणाभिति सिहजातिः । तद्विरेपणान्यसहनानामित्या- 
दीनि) 


अभिप्रायस्तु तं" सिहाना महत्वप्रतिपादनमेव । केथमन्यथा तज्जन्मनि स्पृहा 
भवेत्‌ । गथवा्रवमुदाहरणम्‌- 


अभिप्राय यह्‌ है किं मुने इतनी सरल भत समदना किँ तुम्हारे क्षसिमे 
आ जागी । 
क्रिया-परिकर का उदाहरण-- 

दिग्विजय की इच्छा करने वाले इस राजा का सन निरन्तर अशान्त रहता है । 
हजारो संकटो एवं दुविधा के कारण इस, बेचारे को नींद भी नहीं भाती 1 श्रु के 
भय से यहु किसी पर विश्वास नहीं करता ओर इस प्रकार यह जीवन के दिन काट 
रहा है 1 अर्थात्‌ एेसे राजा का जीवन निन्दनीय है ।७५। 
जाति परिकर-- 

सारे संसारमे केवल सिहोकाही जन्म प्रशंसनीय है, क्योकि वे असहनशील 
होते है, अर्थात्‌ किसी का सामना सहन नहीं कर सकते ! वे महाशकितश्षाखी तथा 
स्वाधीन-प्रकृति होते ह ।७६। 
नभिसाघु-प्रस्तुत जातिगत परिकर का एक अन्य उदाहुरण- 

कृश शरीर, काना, रगडा, कटे हए कन वाखा, विना पुंछ का, भूख से 
दुख, ब्रढा, तृषा से पीडित कण्ठयुक्त, दुगेन्धपुणं रिसते हए घावौ तथा कीडोसे 
भरा हमा, वहत सोने वाखा कुत्ता भी कुतिया का अनुसरण करता है, कामदेव उसे 
भी काम-विह्वल बनाता है । 


"ॐ ~“ "^ 


न क "~ ष्ठ छनः छ क्ष्व हिक = ज्व न्क क कन्व 


कारिका ७७-७६ | सप्तमोऽध्यायः २२६ 


कुश. काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलः 
क्षुधाक्षामो वृद्धः पिठरककपालादितगलः । 
व्रणे. पुतिकलिन्नः कृमिकुलचितः स्वापबहुलः 
श्युनीमत्वेति वा तमपि मदयत्येन भदनः ॥ 
त्रथ पशिवत्तिः- 
युगपहानादाने अ्रन्योन्यं वस्तुनोः क्रियेते यत्‌ । 
क्वचिदृपच्येते वा प्रसिद्धितः सेति परिवृत्तिः ॥ ७७ ॥। 
युगपदिति 1 यदन्योन्य परस्पर वस्तुनोयु गपत्समकाक दानादाने त्यागग्रहुणे 
क्रियेते सेत्यमुना प्रकारेण परिव्रत्तिनमिककारो भवति । मथवा क्वचिदसती दानादाने 
यदृपचयेते सा परित्रेत्ति । कथमसत उपचार इत्याह्‌- प्रसिद्धितः । प्रसिद्धचा हिन 
किचिदपि विरुध्यते । अन्यथा गगनादीनामपि मूर्तधमंवणेनमयुक्त स्यादिति भावः ॥ 
उदाहरणे द्यम्यासार्याधिभ्यामाह-- 
दत्त्वा दश्ेनमेते सत्प्राणा वरतनु त्वया कताः । 


कि त्वपहूरसि मनौ यह्दासि रणरणकमेतदसत्‌ ।! ७८ ॥ 
दत्त्वेति । करिचद्ग्यसनी वक्ति । इदमत्र दशंनसमकालमेव प्राणक्रयस्तथा 
चित्तहरणसमकारुमेव हूदयोत्कक्िकादानमूपचरितम्‌ ।॥। 
प्रथ परितंख्या- 
पृष्टमपृष्टं वा सद्गणादि यत्कथ्यते क्वचितुल्यम्‌ । 
म्नन्यत्र तु तदभावः प्रतीयते सेति परिसंख्या ।॥ ७९ ॥ 
९. परिवृत्ति 
जहां परस्पर दो वस्तुजों का एक ही समय त्याग ओर ग्रहण किया जाय, 
वहा परिवृत्ति अककार होता है । कही-कहीं [ त्याग ओर ग्रहण न होने पर भी ] प्रसिद्धि 
कै कारण [मी] एेसा कर दिया जता है! वह्यं मी परिघ्रत्ति अकार होता है 1७७ 
उदाहुरण-- 
एक कामो नायिका से कहु रहा है- हे सुन्दरि 1 तुमने दशन देनेकेसायही 
मेरे प्राण च्ररीद च्विः किन्तु अब वह्‌ विरहं कौ उत्कण्ठा देकर तुम मेरे चित्त का 
अपहरण कर रही हो, यहु उचित नहीं है ।७८। 
०२. परिसंख्या 
जहां गुण, क्रिया, जाति रूप वस्तु कहीं तो तुल्य (साधारण रूप से) विद्य- 
मान, अर्थात्‌ अन्य स्थानों पर मी विद्यमान, कही जाती है, भौर कहीं पर उसका 


२३० कान्यालद्खुारः [ कारिका ८०-८२्‌ 


पृष्टमिति ! यदुगुणादि गुणक्रियाजातिलक्षणं वस्तु क्वचिन्नियतकवस्तुन्याधारे 
विद्यमानं कथ्यते । कीहशम्‌ । सत्तृत्यं साधारणम्‌ । अन्यत्रापि विद्यमान सदि्यरथं 
यदयवं कस्मात्वचित्कथ्यतं इत्याह्‌-- अन्यत्र वस्त्वन्तरे तस्याभावः प्रतीयते! कथने 
करते सति तच्च क्वचित्पृष्ट कथ्यते क्वचिदपृष्टमिति द्विधा 1 पृष्टम्रहण वाक्ये 
पर्नस्योपादानाथेम्‌ । सेत्यमुना प्रकारेण परिसंस्या भण्यते ॥ 

उदाहर्ानि यथा- 

कि सुखमपारतन्त्यं कि धनमविनाि निमेला विद्या 1 


कि काय सतोषो विप्रस्य महैच्छता राज्ञाम्‌ ।८०॥। 

किमिति । अत्रे सुखो गुणं धन त्वविनारित्वगुणयुक्त पुष्टम्‌ 1 तथा कि कयि- 
मित्यत्र द्विजनृपकतृ का क्रिया पृष्टा । तेषा चान्यत्र सत्तवेऽप्यपारतन्त्ये विद्यायां सतोषे 
महेच्छताया च सद्भावः कथित. ! अन्यत्र तदभाव एव प्रतीयते । अपारतच्न्यमेव सुल- 
मित्याद्यवधारणप्रतीतेरिति । जातौ तु के ज्नाह्यणा येषा सत्यमित्यादि द्रष्टन्यम्‌ ॥ 

च्रप्रएोदाहररमाह-- 

कौटिल्यं कचनिचये करचरणाधरदलेषु रागस्ते । 

काछिन्यं कुचयुगले तरलत्वं नयनयोवेसति ।। ८१ }) 

कौरिल्यमित्ि 1 इद कौटिल्यादिषु गुणेष्दाहरणम्‌ । द्रन्यक्रियाजातिषु तु स्वय 
द्रष्टव्यानि 1 लक्षणयोजना च कतंग्येतति ।। 

प्रथ हतुः- 

हेतमता सह॒ हेतोरभिधानमभेदक़ (टू वेद् । 

सोऽलंकारो हेतुः स्यादन्येभ्यः पृथग्भूतः ।॥ ८२॥ 
अभावं होता है, उसे परिसंख्या कहते है \ पृष्ट (प्रइनात्मक) तथा अपुष्ट ये इसके, 
दो भेदं ह 1७€६। 


पुष्ट परिसंख्या का उदाहरण-- 
सुख क्या है ? स्वाधीनता सुख है । अक्षय धन कौन-सा है ? निपरल चिदच्ा। 


क्या फरना चाहिये ? न्नाह्यण को सन्तोष ओर राजां को महृत्त्वाकांश्षा 1८०1 
अपुष्ट परिसचख्या का उदाह्रण-- 

तुम्हारे केशपाश मे फुटिकता, ह, पर गौर होगे पर लाली, स्तनयुगल में 
कठिनता भौर आंखो मे चंचरता निवास करती हं ।८१। 


कनः 
. ४ 


| 8१ ॥ 1 ९ च्छ [| ३; 
जरह कायं के साथ कारण का असेद से कथन हो वहाँ यह्‌ अन्य अकक्ारों से 
विलक्षण हतु नामक अन्कार होता हे ।८२। 


कारिका ८२-८४ ] सप्तमोऽध्यायः २३९१ 


हेत्विति । हेतुमता कायण सह हेतोः कारणस्य यचाभिधानमभेदकृदभेदेन 
भवेरस हेतुर्नामालकार. । अन्येम्योऽलकारेभ्य- पृथभूतो विलक्षणः । अत्र वाकारग्रहूणम- 
न्येभ्य. पृथरभूत इति च परमतनि रासार्थम्‌ । तथा हि नाम हेतुसृकष्मरुशानामरुकारत्वं 
नेष्टम्‌ । एषा चारकारत्व विद्यते । वाक्यार्थाङकरणान्न चान्यत्रान्तर्भावः शक्यते 
कर्तुमिति ॥ 

उदइश्यमाहइ- 

ग्रविरलकमलविकासः सकलालिमदश्च कोकिलानन्दः । 


रम्योऽयमेति संप्रति लोकोत्कण्ठाकरः कालः ।८३। 
अविरकेति । अविरलाना कमलाना विकासहैतूत्वाद्रसन्तकारू एव तथोच्यते । 
एवं सककाङिमदश्चेत्यादावपि द्रष्टव्यम्‌ 1 त त्वविरकाना कमछाना विकासो यत्रेत्यादि 
वहुव्रीहिः कर्तव्य" । तदा त्वभेदौ न स्यात्‌ । उदाहरणदिभियम्‌ । इद तुदाहरण यथा-- 
आयुष तं नदी पुण्यं भयं चौरः सुख च्रिया। 
तरं यतं गुरतं श्रेयो ज्रह्यणपुजनम्‌ ॥। 
अथ काश्यमाला- 
कारणमाला सेयं यत्र यथापूवंमेति कारणताम्‌ । 


म्र्थानां पूर्वार्थद्धिवतीदं स्वंमेवेति ॥८४॥। 

कारणेति ! सेयं कविप्रसिद्धा कारणमाला यस्यामर्थानां मध्या्यथापूर्वं यो यः 
पूवं सस उत्तरेषामथनि कारणभावं याति 1 कथ याति पूरवस्मादर्थादिदमुत्त रोत्तरा्थंजात 
स्वमेव भवतीत्यमूना प्रकारेणेति ।। 
उदाहरण-- 

यहु सुन्दर समय (वसन्त) अव ओ गयादहैः जो कमल्वनोंका चिकसरहै, 
मोरों की मस्ती तथा कोयलों का आनन्द है भौर खोगों के मन की उत्कण्ठा काआकरार 

॥८३। 

क नमिसाधु-प्रस्तुत निम्नोक्त कथन मे भी हेतु अरकार है-- 

घृत आयु है, नदीस्नन पृण्यदहै, चोर भयदहै, प्रिया सुखदहै, जञ वैर ह 
गुरु ज्ञान है, भौर ब्राह्मण पूज्य कल्याण है । 

इस अकार से सम्बद्ध विशेष विवरण कै किए देखिए ७।१०३ व्याख्या-भाग | 
7४. कारणमाला 

जहाँ अर्थो के बीच पूर्बर्तो अथं परवर्तो अथं का कारण बन जाता है मौर यह्‌ 

[पद्धति] सकल रूप से होती है, अर्थात आगे मी निमती जाती है, वहं कारणमाला 
अकार माना जाता है 1८1 


२३२ कान्यारद्खारः [ कारिका ८५-८६ 


उदाहरख्माह-- 

विनयेन भवति गुणवान्गुणवति लोकोऽनुरज्यते सकलः, 
ग्रभिगम्यतेऽनुरक्तः ससहायो युज्यते लक्ष्या ।॥८५।॥। 
विनयेनेति । अत्र पूवं पूर्वो विनयादिरत्तरोत्तरस्य गुणवत्त्वादेनिमित्तम्‌ ॥ 

अथ व्यतिरेक-- 

यो गुण उपमेये स्यात्तत्प्रतिपस्थी च दोष उपमाने । 
व्यस्तसमस्तन्यस्तौ तौ व्यतिरेकं त्रिधा कुरुतः ॥८६॥। 


य इति ! उपमेये यो गुण. स्यादुपमाने च तस्य गणस्य प्रतिपन्थी विष्ढो यो 
दोषस्तौ गुणदोषौ व्यतिरेकमलरुद्धारं त्रिधा चरिविध कुरुतः । कथमित्याहु-- व्यस्तसम- 
न्यस्ताविति । तत्र गुण एवोपमेये न्यस्यते न तूपमाने दोष इत्येक प्रकारः ! तथोप- 
मने दोपो न्यस्यते, न तूपमेये गुण इति द्वितीयः 1 एव व्यस्तभेदौ दौ । तथोपमेये 
गुणोऽपि न्यस्यते, उपमाने च दोपोऽपीति समस्तन्यासे एक एव प्रकार इति चर विध्यम्‌ । 
गुणदचात्र हृदयावजंकार्थविरेषो गृह्यते, न तु द्रव्यगुणक्रियाजातिपु प्रसिद्ध. । दोषोऽपि 


उदाहूरण- 

मनुष्य चिनय से गुणवान बनता है, गुणी मनुष्यं पर लोगों का अनरुराय बता 
है, अनुराग बढ़ने पर सहायक तथा अनुचर मिलते है सहायक मिलने पर मनुष्य लक्ष्मी 
का कृपापान्न नता है ।८५। 
९५. व्यतिरेक 

जो गुण उपमेयमे हो यदि उस [गृण] करा विरोधी दोष उपमान से [ वणितं 
हो, तो वरहा व्यतिरेक अल्कार होता है ।] ये दोनों--गुण जौर दोष-व्यस्त-न्यस्त 
जोर समस्त-न्यस्तके स्पे व्यतिरेक गलकार को तीन मागोमे विभक्त करते 
है ।८६॥ 

ये तीन भेद इस प्रकार है- 

१. जव उपमेयमे तो गुण हो किन्तु उपमनमे दोषन दो। 

२. उपमानमे दोप हो किन्तु उपमेयमे गुणन दहो) 

ये दोनो व्यस्त व्यतिरेक के भेद रह। 

२३. समस्त-न्यास् काएक ही भेद है-उपमेयमे गुण हो ओर उपमानमे 
दोपदहो) 

य्ह गुण से तात्पयं है--हूदय को चमत्कृत करने वाटा अर्थं-विशेप । दोष 
दससे विपरीत माना जाता है। 


कारिकां ८७-८६ | सप्तमोऽध्यायः २३३ 


चोक्तगुणविपक्ष एव 1 न चात्रौपम्यारद्भारभेदत्वमाशद्धनीयम्‌ । साहर्याभावात्‌ । 
उपमानोपमेयपदोपादान तु व्यतिरेकसिद्धयर्थम्‌ । नद्यन्यथा सघटते गुणिनः सदोषेण 
सहौपम्यविधटनं व्यतिरेक इति कृत्वा ।) 

तदुदाहरयान्याह-- 

सकल ङ्कुन जडेन च साम्यं दोषाकरेण कोदृक्ते । 


ग्रभुजंगः समनयनः कथमुपमेयो हरेणासि ।८७॥ 
सकलङ्ख नेति । सकलद्धु त्यार्यधिम्‌ । अत्रोपमाने दोषन्यास उपमेये गुणवत्ता 
प्रतीयते । अध्ुजग इत्याद्यत्तरार्धम्‌ । अत्रोपमाने सदोषत्व गम्यते ॥। 


तरलं लोचनयुगलं कुवलयमचलं किमेतयोः साम्यम्‌ । 


विमलं मलिनेन मखं शशिना कथमेतदुपमेयम्‌ ।८८।। 
तररमिति । अत्रोपमेये गुण उपमाने दोषश्च न्यस्त इति समस्तो भेद ॥ 
मेदान्तरमाह- 

यो गुण उपमाने वा तत्प्रतिपन्थी च दोष उपमेये । 

भवतो यत्र समस्तौ स व्यतिरेकोऽयमन्यस्तु ।८६॥ 


व्यस्त व्यतिरेकं (उपमान मे दोष) का उदाह्रण-- 

कलङ्ुयुक्त, जड एवं दोषो के आकर (दोषाकर) च के साथ तुम्हारी क्या 
तुलना ? ओर सपो से रहित तथा दो आंखों वारु होने से तुम्हारी उपमा भूजंगवेष्टित 
जिनयनधारी शिव से कंसे दी जा सकती है 1८७ 

इसी प्रसग मे नमिसाधु-प्रस्तुत एक उदाहरण- 

जिस प्रकार रसिकता मे मग्न वेइ्यासक्त रोग अपराव्द (गाकियो), चरित्रनाश 
ओर धन-हानि की परवाह्‌ नही करते, उसी प्रकार कुकवि (अप्रवीण कवि) भी शब्दो 
के दृष्ट-प्रयोग, छन्दोभग तथा अभीष्टाथं प्रतिपादन की परवाह नही करते । 
समस्त व्यतिरेक (उपमेय मे गुण तथा उपमान मे दोप) का उदाह्रण-- 

तुम्हारे नेनयुगल चञ्चल हैँ ओर कमल स्थिर है- इन दोनों की परस्पर 


क्या समता ? ओर तुम्हरे निल मुख की सलिनि चद्रसे क्या उपमा दीजा 
सकती है ? ।८०। 


व्यतिरेक का अन्य प्रकार-- 
जब उपमान में गुण ओर उपमेयमे गुणका विरोध दोषहोतो वहां भी 
व्यतिरेक अकंकार होता है किन्तु ये दोनों समस्त रूप मे [वणित] होने चाहिए \८६। 
यहाँ समस्त से तायं यह है कि उपमानगत गुण ओौर उपमेयगत तद्विरोधी 


२३४ काव्यारुद्धुारः [ कारिका ६० 


य इति । सोऽय व्यत्तिरेकोऽन्यः पूरवंविलक्षण", यत्नोपमाने गुणस्य न्यास उपमेये 
च दोषस्य तौ समस्तौ न्यसनीयौ । व्यस्तयोरपि केचिदिच्छन्ति । यथा- 


अभ्यणंचति दाह्य वस्तु तदानीं विदह्याग्निः । 

शाम्यति यस्तेन कथं समो ननु स्पाल्रियाचिरहः 1 
तथा-- 

स्वदन्नेव तदात्वेऽपि वाधितोऽपि न शाम्यति! 

यः स॒ दासेरकः शुदरक्ष्वेडतुल्यः किमुच्यते ॥ 


तदेतयुक्तम्‌ 1 पूर्वेणेव सिद्धत्वात्‌ 1 सर्वो्प्यात्मीयधर्मोतकिर्षो गुण । स चात्रोप- 
मेये विद्यत इति ।। 


उदहच्यमाह- 
क्षीणः क्षीणोऽपि शशी भूयो भूयो विवधेते सत्यम्‌ । 
विरम प्रसीद सुन्दरि यौवनमनिवति यातु तु ।९०]] 


क्षीण इति । मच शद्युपमान क्षीणोऽपि वृद्धिगुणयुक्तो निदिष्टः । यौवन तूपमेय 
क्षयदोपयुक्तमिति ॥ 


| 1 


दोष एक ही कायं से सम्बद्ध हो! पर नमिसाधु ने इनके व्यस्त होने पर भी इस अल 
कार की स्थिति स्वीकृत की है । यथा-- 

(१) अभ्यणेवति दाह्य वस्तु" `" अर्थात्‌ समीप मे स्थित जलने योग्य वस्तुभो 
को जाकर जो अनिनि रान्तहो जातीदहै, प्रिया का वियोग भला उस्र [अग्नि] के 
समान कँसे हो सक्ता दै? 

यहा उपमानं (अग्नि) मे अन्ततः शन्त हो जाने काजो गुण वणित है उपमेय 
मेउस गणका विरोधी दोप-शान्तिकी प्राप्तिन होना-वणितदहै। ये दोनो 
कायं समस्तन होकर व्यस्त है। 
उदाहरण 

चनमातो क्षीण होक्तर मौ फिर बृद्धि को प्राप्त कर लता है, किन्तु गया 
हुमा यौवन फिर वापस नही भाता । इसक्एि हे सुन्दरि ! [भव] प्रसन्न हौ [कर 
मान जा [ ।६०। 
क्षीण चन्द्रमा (उपमान) कौ बुद्धिसीरुता एक गुण है, किन्तु क्षीण-यौवन 
(उपमेय) मे इस गुण का विरोवी दोष-एक वार चरू जाने पर उसका पुनराव्त॑न न 
होना, क्षीण होते चर जाना--विद्यमान है 1 ये दोनौ कायं एक ही तत्त्व से सम्बद्ध 
है, अतः समस्त ह । इसी कारण यह व्यत्तिरेक अल्क्रार ह । 


कारिका ९१-६२ | सप्तमोऽध्यायः २३५ 


द्थूवन्यस्यमाह- 
यत्र परस्परमेकः कारकभावोऽभिघेययोः क्रियया । 
संजायेत स्फारिततत््वविदेषस्तदन्योन्यम्‌ ।1९१।। 


यत्रेति । यत्राभिषेययो. पदार्थयोः परस्परमन्योन्यं क्रियया हेतुभूतयेको निवि- 
लक्षणः कारकभावः कर्त्रादिकारकत्व सजायेत ¡ कीहदा । स्फारित. परिपोषितस्तत्त्व- 
विशेषो विशिष्टघर्मो येन स तथाभूतः । तदन्योन्यमरुद्धार' । परस्परग्रहण-- 
सिंहः प्रसेनमवर्धत्सिहौ जाम्बवता हतः । 
इत्यन्योन्यनिवृत्यथम्‌ । एकग्रहणं तु- 
कष्णद्रं पायनं पाथः सिषेवे शिष्यवत्ततः । 
भसावध्यापयत्तं तु विं थोगसमन्विताम्‌ ॥ 
इत्येतन्निवृतत्यथेम्‌ ॥ 
उदाहरणमाह 
रूपं यौवनलक्षम्या यौवनमपि रूपसंपदस्तस्याः । 


योन्यमलंकरणं विभाति रारदिन्दुसुन्दर्याः ।९२॥ 

रूपमिति । अव्र इपयौवनयोरलद्भुरणक्रिययक कारकभाव कतु त्वलक्षणः । 
९६. अन्योन्य 

जहां वो पदार्था में परस्पर क्रियाके द्वारा विशिष्टता (व्िज्ञेष अथं) को 
परिपुष्ट करनेवाला एक कारक भाव (कारकत्व) हो, उसे अन्योन्य कहते ह ।९१। 

नमिसाधु ने उसी प्रसग मे दो प्रत्युदाहूरण प्रस्तुत किये है- 
सिह (१) सिह. प्रसेनम्‌*"*' अर्थात्‌ सिह ने प्रसेनकोमारा ओौर जाम्बवान्‌ ने 

ह को। 

अन्योन्य के उक्त छक्षण मे परस्परम्‌" शब्द का प्रयोग किया गया है । सिह 
परसेनमू "ˆ" मे प्रसेन ओौर सिहं की परस्पर एक-दूसरे द्वारा मृत्यु न होने के कारण 
अन्योन्य अककार नही है। 

(२) %@ृष्णद्रं पायन पाथं" ˆ *“" अर्थात तव शिप्य के समान अर्जुन ने कृष्ण 
द॑पायन व्यास को सेवा की । भगवान्‌ व्यास ने उसे योगविपयक विद्या सिखायी । 

यहां भी अन्योन्य अल्कार नही है, क्योकि सेवा करना प्रौर विद्या सिखाना 
ये दोनो क्रियाँ एक न होकर परस्पर भिन्न है 1 
उदाह्रण- 

वारतकालीन चन्द्रमा के समान उस सुन्दरीका रूप यौवन को अलक्त कर 
रहा है ओर यौवन रूप को \६२। ध 


२२६ कान्यालद्धुारः [ कारिकां ६३-६४ 


तेन च रूपस्य दीधेनयनत्वादिको विदोषः स्फारितः । यौवनस्यापि वपुविभागङ्चतुरस्र- 
दोभादिकत्व विशेष. स्फारित. ॥ 


प्रथो तरम्‌-- 
उत्तरवचनश्चरवणादुन्नयनं यत्र पूवंवचनानाम्‌ । 
क्रियते तदुत्तरं स्यास्प्रनादप्युत्तरं यत्र ।॥९३॥ 


उत्तरेति । उत्तरवचनानि श्रुत्वा यत्र पूवंवचनानि निश्वीयन्ते तदृत्तरम्‌ । तथा 
प्रहनाच्चोत्तर यत्र स्यात्तदप्युत्तरम्‌ ! इति हिधेदम्‌ 1 अस्य चादयोत्तरभेदस्यानुमानस्य 
चाय विशेषो यत्तत्र सामान्येन हेतुहेतुमद्भावः साध्यते । अच्रतुन हैतुहेतुमद्भावो 
वाक्ये निवध्यते । कितु श्रोता श्रुत्वोत्तरवचनानि तदनुसारेण पूर्वेवचनानि निर्दिच- 
नोतीति ॥ 


उदाहररम्‌-- 
भण सानमन्यथा मे श्रुकूटि मौनं विधातुमहमसहा । 


रकेनोमि तस्य पुरतः सखिन खलु पराद्मुखीभवितुम्‌ ।॥६४॥ 
भणेति । अ्रास्मान्नायिकोक्तादुत्तरात्ससीवचनान्युच्चीयन्ते । नूनमस्या. सखी- 
भिरुक्त यथा सापराधस्य प्रियस्य भ्र कूटिमौनपराइमूखी भावान्कुरुष्वेति ॥ 


यौवन भौर रूप एक-दूसरे कौ शोभा-वृद्धि कर रहैहै। यहाँ एक क्रिया 
"विभाति" दारा उक्त दोनो पदाथं एक-दूसरे के कारकभाव को प्राप्तकर रहै है, अर्थात्‌ 
यौवन कर्ताहैतो रूप कर्म है, ओर रूप कर्ताहं तो यौवन कमं । 
2७. उत्तर 

जहो उत्तर कै श्रवण से पु्वंकथित चचनों (प्रश्न) का निद्चयहो, तथा 
प्रश्नो ते उत्तर का निश्चय हो, वहं उत्तर अलंकार होता है ।€३। 

इस प्रकार उत्तर अलंकारके दो प्रकार हृए- 

(१) उत्तर से प्रश्न का निङ्चय, 

(२) प्रदनपू्वेक उत्तर 1 
(१) उत्तर से प्रश्न के निद्चय का उदाहूरण-- 

है सखि ! मक्षे मान करनेका भौर कोर उपाय बताओ, क्योकि मै उसके 
सामने भ्रुकुटि चदाकर, भौन रहकर तथा पराइमुख होकर भी देख चुकी ह--इनमें से 
कोई उपाय काम नहीं देता !€४। 

नायिका के इस उत्तर से यह्‌ निरिचित हौ जाता है कि सखी ने उसे मान करने 
का उपाय वताया होगा । 


॥ 


कारिका ६५-६६ | सप्तमोऽध्याय. २३७ 


द्ितीयोदाहर्यमा्- 
कि स्वर्गादधिकसुखं बन्धुयुहृत्पण्डितंः समं लक्ष्मीः । 
सौ राज्यमदुभिक्ष सत्काव्यरसामृतास्वादः ॥६५॥ 


किमिति ! इति प्ररनादृत्तरमु । अधास्य परिसख्यायार्चायं विशेषो यत्तत्र 
नियमप्रतीतिरेतदेवात्रैव वेति इह तु प्रदनादुत्तरमात्रम्‌, न तु नियमप्रतीतिः ॥ 


त्रथ सारम्‌- 
` यत्र यथासमुदायाद्यथेकदेशं क्रमेण गुणवदिति । 
निधर्यिते परावधि निरतिशयं तद्धवेत्सारम्‌ ॥६६॥ 


यत्रेति । यो यः समुदायो यथास्रमुदायम्‌, यो यं एकदेदो यथेकदेशमित्यग्ययी- 
भाव । यथासमुदायाद्यथेकदेन क्रमेण निर्व्यिंते पृथविक्रयते । कथम्‌, परावधि । परमू- 
तकृष्टतममेकदेलमवधि कत्वा । निर्धारण च गुणक्रियाजातिभि" सभवति । अत आह-- 
गुणवदिति । गुणवच्वेन, न तु क्रियाजातिभ्याम्‌ । क्रमेणेति चाक्रमनिवृत्त्यथम्‌ । तेनेह 
सारत्व म भवति । यथा- 

नदीषु ग्धा नयरीबु काञ्ची पुष्वेषु जाती रमणीषु रम्भा। 
सदोत्तमत्वं॒पुरुषेषु विष्णुर रावणो गच्छति वारणेषु ॥। 

नह्यत्र हु लाकेटकवन्निर्धारणम्‌ । कस्तह्य पोऽककार. साराभास इत्युच्यते । 
सर्वत्र हि सपूणंलक्षणा भावे आभासत्व कविभिव्यंवस्थापितम्‌ । निरतिशचयप्रहणमति- 
यार कारत्वनिवृक्त्य्थम्‌ । अन्यल्पत्वात्तस्य । सारत्वमूत्कषेस्तत्र चातिशयालक्रा राश- 
द्धः ति! अथवाप्याक्षेपिकगुणवत्त्वनिव्रत्त्यर्थमित्ति।। 
(२) प्रश्नपूर्वकं उत्तर का उदाहरण-- 

स्वगे से वदृकर अधिक सुखकर क्या है ? वन्धु, नित्र तथा विद्वानों की संगति, 
लक्ष्मी अच्छा राज्य, दुर्भिक्ष का अभाव ओर सत्काव्य के रसाभृत का आस्वाद ।६५। 
7८. तरार 

जहा समुदाय मेते एकदेश्को क्रमसे पथक्‌ करके गुण-सम्पन्न होने से 
उस्तका उक्छृष्टता की चरम-सौमा निश्चित की जाती है उसे सार कहते है ।६६। 

इसका तात्पयं यह है कि किसी एक पदार्थं से सम्बन्धित अनेक सारवान (गुण- 
युक्त) वस्तुओ मे ये किसी एक का निर्वाचन करके पुन उससे सम्बन्धित किसी एक 
सारवान वस्तु का निर्वाचन करते हए इसी पद्धत्ति को निभाते चलना सार अलकार 
कहता है । नमिसाधु ने इसी तथ्य को स्पष्ट करते हृए ^नदीपु गंगा- ˆ -" पद्य के सम्बन्ध 
मे कहा है कि यहाँ सार अरूकार कौ स्वीकृति न होगी--"नदियो मे ग्धा, नगरियो मे 


[भी 


२३० काव्याल्दुमरः [ कारिका €७-९९€ 
उदाहरम- 
राज्ये सारं वयुधा वसुंधरायां परं पुरे सोधम्‌ | 
सौधे तत्पं तल्पे वराद्धनानङ्घसवंस्वम्‌ | ६७।। 
राज्य इति । यत्र सप्ताद्धराज्यप्तमुटायाद्रमुवार्पेकटेगस्य, ततोऽपि पूरस्येद्यादि- 
गणवत्तवेन निर्धारणम्‌ ।। 
्रथदचूक्मच्- 
यच्रायुकितिमदर्थो गमयति सब्दो निजा्थंसंवद्धम्‌ । 
ग्रन्तिरमुपपत्तिमदिति तत्संजायते सृध्मम्‌ ।६८॥। 
यत्रेति । प्रतिपाचेऽ्थे यस्य युक्तिर्न विद्यतेऽप्नावयुक्तिमटथंः गव्वौ यत्रात्मीयःथ- 
संवद्धमर्थान्तिर्‌ गमयति प्रत्यापयत्ति तत्सृक््मम्‌ । ननु यस्य निजार्थऽपि युवितर्नारिति तस्य 
कुतस्तत्सवन्धे स्यादिव्याह्‌ -- उपपत्तिमदिति । उतिहती । यतोऽर्थान्तरे तत्संवद्धं घटना 
विद्यते । यत एव मुध्मावगमकारणात्मृकष्ममिति नाम ॥ 
उदाहरणमाह 
ग्रादौ प्यति बुदिव्यवसायोऽक्ालहीनमारभते । 
धैर्य व्यूढमहाभरमूत्साहः साधयत्यर्थ॑म्‌ ।६&।। 
आदाविति । व्यवसाय. कर्मण्वुद्योगः । वेयमसमोहः 1 उत्साहः शक्तिः । अउत्र 
पूनर्वुदर्गनम्‌, व्यवसायस्यारम्भ, रधयंस्य भरवहनम्‌, उत्माहरय च साघनमचेतन- 
काची, पुष्पो मे जाति पुष्प, स्त्रियो मे रम्भा, पृस्पोमे विष्णु, मौरदहाथियौ मे एेरावत 
सर्वश्रेष्ठ ह 1' क्योकि यहां एक-के-वाद एक उक्छृष्ट पठार्थो का निर्दे नही हुमा । 
उदाहश्य । 
गाज्यमे भूमि सारहोतीहें। भनि पर नगर सार होते है; नगर में महल 
सार होतेह, महर मे युन्दर य्था सार होती है मौर य्या पर कामदेव कौ सर्वंस्व- 
भुत सुन्दर कामिनी सार होती ह 1६७ 
€. सूेम 
प्रतिपाद्य अथं मे युक्तिविहीन भ्यं बताने बाला शब्द जव अपने श्र्थं से सम्बन्ध 
रम्बने वाले युक्तियुक्त अर्थान्तर का बोध कता ह, तो यहु सुधम भचंकार होता ह \€०। 
उदाहुरण-- 
बुद्धि पिस वस्तुको देखती है । उचछछोगसमयको नोते हृष कार्यको 
सरम्न करता । चयं कायं मे पड़ने वाटे विघ्नो को सहता हट गर उत्साह उस 
फायं फो सिद्ध करता ह ।९६। 


चि ~र” 


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| 


कारिका १००-१०२ | सप्तमोऽध्यायः २३९ 


त्वान्न घटते ! इत्येते शब्दा यथोक्तेऽथऽनुपपन्नाः ! करणभावो द्यषा षटते, न करतू- 
त्वम्‌ । बुद्धचादिसंवद्धे तु देवदत्तादौ सवं मुपपद्यत दति कृत्वा । यदा बुदधिमानर्थं पश्यति 
तदा वुद्धि" पर्यतीत्याद्यच्यत इति ॥ 

अथ लेश.-- 

दोषीभावो यस्मिन्गुणस्य दोषस्य वा गुणीभावः) 


ग्रभिधीयते तथाविधकमनिमित्तः स लेशः स्यात्‌ ।॥१००॥ 

दोपीभाव इत्ति ! यस्मिन्गुणस्य दोषभावी दोषस्य च गुणभावो विधीयते । 
कीहग । तथाविध गुणस्य दोषीकरण दोपस्य गुणीकरण वा कमं निमित्त यस्यस 
तथोक्त । वाशब्द एकयोगेऽपि लेश्चत्वख्यापनार्थः । अन्यथा यत्रौभययोगस्तत्रैव स्यादिति ॥ 

उद्ाहर्फमाह-- 

ग्रन्यैव यौवनश्रीस्तस्याःसा कापि दंवहतिकायाः । 

मथ्नाति यया यूनां मनांसि दूरं समाकृष्य ।१०१॥ 

अन्येति । अत्र यौवनस्य ग्रुणस्यापि यूवचेतोमथनाहोषौभाव ॥ 

र थ दोषस्य गुरामावोद्ाहटल्छमाह-- 

हदयं सदेव येषामनभिज्ञ गुणवियोगदु.खस्य । 


धन्यास्ते युणहीना विदग्धगोष्ठीरसपेताः ।१०२। 


इस कथनं मे सूक्ष्मता यह्‌ दै कि बुदधिमनि काययंसिद्धिके किए सभी कार्यं 
करता है । 

इस अरुकार्‌ के विशेप विवरण के छिए देखिए ७११०२, व्याख्या-भाग । 
२०. लेश 

जिस [कमं] में गुण को दोष-र्पसे ओर दोषको गरुण रूपसे वर्णित किथा 
जाता है, एेसा कम "लेश" अलंकार का कारण वनता है \१००। 
गुण का दोष मे परिवर्तित होने का उदाहरण - 

उस अभागिनी को यौवन-शोमा अवश्य कुछ सौर ही प्रकार की है, जिसे 
वहु युवकों के मन को दुर से लीचकर मथ डाच्ती है 1१०६९ 

यहाँ यौवन-हू्प गण का यह्‌ दोप बताया गया है किं वह्‌ युवकोक मन को 
मथ डालता है) 
दोष का गुण मे परिवत्तित होने का उदाहरण- 

जिन करा हृदय गुणों के वियोग के दुःख से अनभिन्न है ओर जिन्हे विदानो की 
गोष्ठी के जानन्द का अनुभव नही, एेसे गुणहीन छोग धन्य हैँ । १०२1 


२४० काव्यालद्धारः । कारिका १०२ 


इसी अध्याय की निम्नोक्त कारिकाओ मे कमल देतु, सूक्ष्म ओर ठेश 


अल्कारों का निरूपण प्रस्तुत किया गया है--८२-८३, ९६८-६६, १००-१०२ । ये 
तीनो अकार भामह कै समयसे ही विवादग्रस्त रहे है। भामह ने इन्हे अरकार- 
रूप मे स्वीजृत नही कियाथा। उनके सतसे इनका विपय काव्य से सम्बद्धन 
होकर "लोक-वार्ताः से ही सम्बद्ध है। विन्तुदण्डीने इन्हे वाणीके भूषणसरूपःमे 
स्वीकार किया} वागे चकर प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रणेता रद्रटने इनं तीनो अलकारोका 
निरूपण किया, किन्तु इनके द्वारा सम्मत हेतु का जक्षण दण्डि-सम्मत लक्षण से भिन्न 
हो गया। दण्डीने कारण ओर कायं के एक साथ वणेन को हेतु-अककार मानाथा, 
किन्तुरद्रटने कारण ओौर कायं की एकता को हैतु-अलकार कहा है ! आगे चकर 
सद्रट-सम्मत हितु-अकार का मम्मटने खण्डन प्रस्तूत किया दहै! उनके खण्डन का 
मुख्य आधार यह्‌ है इसमे 'वैचित्य' का अभाव रहता है, तथा इसका अन्तभवि इन्होने 
काव्यछिग अक्कारमेक्ियारहै।! किन्तु मस्मट की यह्‌ धारणा चिन्त्य है। एक ओर 
'आयुषूतंम्‌'-- जसे वाक्यो मे उनके कथनानुसार वंचित्य के अभाव के कारण हेतु-अल- 
कार'के सद्भाव का प्रश्न ही उपस्थित्त नही होता, [यचपि आयुतम्‌ मे उन्होने 
स्वय “सारोपा लक्षणाः की स्वीकृति की है], गौर दूसरी गोर अविररुकमख्विका्ष.' 
जसे पदो मे प्रथम तो उक्त अभाव के कारण हेतु" अकार नही है, ओर यदि स्वीकृत 
करभीचयाजाए्‌ तो उनके हारा सम्मत कान्ययिग अकार ही हतु" है) किन्तु 
उनके ये दोनो कथन परस्पर-चिरोधी है । जव तथाकथित श्तु" अरकार के उदाहूरणों 
मे 'वैचित्य का अभाव" मान ल्या गया तो उन्हे काव्यस्गि का उदाहरण मानना समु- 
चित प्रतीत नही होता 1 अस्तु ! 
लेन अक्कार कारस्वरूपदण्डीनेदो रूपो मे प्रस्तुत किया था- 
(१) केश (स्वल्प) मात्र भी प्रकट वस्तुके सूप करो छिपाना, अथवा प्रकट 
वस्तु को केश (व्याज) द्वारा छिपाना । 
(२) रेगत" (व्याज से) स्तुति हारा निन्दा, गौर्‌ निन्दा दारा स्तुति करना 1 
आगे चकर अप्पयदीक्चित्तने उक्त दौनोलख्मोमेसे प्रे हप की चर्चा नही 
कौ । दूसरे ल्प की चर्चा अव्य की है, किन्तु उत्तेरे नाम नही दिया } इसके पहले 
प्रकार को व्याजोक्ति माना दै गौर दूसरे को व्याजस्तुति । 
सुद्रट ने सवप्रथम इसन अकार्‌ का सम्बन्ध उक्त रूपमे गुण एव दोपके साथ 
जोडा ओर इसका यही रूप भोजराज एव अप्पयदीक्षित ने भी स्वीकृत किया । 
मृक्ष्म गक्कार्‌ फा स्वल्पदण्डी से केकर अप्पयदीक्षित-परयन्त अधिकतर 
अखकारिको ने रगभग एकत्तमान प्रस्तुत किया है 1 इसके जो उदाहरण दिये गये वे 
दरतने अधिक चमक्कारपूर्ण है कि इसे भामह के अनुरूप अकार न मानने का प्रदन 


५ [41 1 


) २.१५ 
 । 1 १ ण ह ५ 


कारिका १०३-१०५ | सप्तमोऽध्यायः २४१ 


हृदयमिति । सुगममेव ॥ 

अधावप्रटः- 

ग्र्थान्त रमूक्करष्टं सरसं यदि वोपलक्षण क्रियते । 

ग्रथंस्य तदथिधानप्रसङ्खतो यत्र॒ सोऽवसरः ॥ १०३ 

अर्थान्तरमिति 1 तत्राथेस्य स्युनस्य यद्यक्छष्टमुदात्त सश्र ्धारादिक वार्थन्तिर- 
मुपलक्षण क्रियते सोऽवस्रालकारः । किमथं क्रियत इत्याह-तस्योक्छृष्टत्वादेरभिधान- 
परसद्खन । उत्कृष्टत्वं सरसत्वं वा न्युनस्याभिघातुभित्य्थः ॥ 

उदाहरणम्‌ - 

तदिदमरण्यं यस्मिन्दशरथवचनानुपालनन्यसनी । 


निवसन्बाहुसहायङ्चकार रक्षःक्षयं रामः । १०४ 

तदिति । अत्र साक्ाद्रामवासस्तत्छृतर्च राक्षसक्षय उक्कृष्टो वनरयोत्कृष्टत्व- 
ख्यापनायोपलक्षणत्वेन कृत. ॥ 

द्वितीयोदाहरणमाह- 

सा सिप्रानामनदी यस्यां मड: क्षूमंयो विशीयंन्ते । 

मज्जन्मालवललनाकचकुम्भास्फालनव्यसनात्‌ ।॥ १०५॥ 
ही उपस्थित नही होता । सर्वाधिक चमत्कारपूण उदाहरण मम्मट प्रस्तुत है-- 
वक्तरस्यन्दिस्वेदविन्दुप्रबन्धेदृष्ट्वा भिन्नं कृकुमं ववापि कण्ठ । 
पुस्त्वं तन्ग्या उषड्जयन्ती वयस्या स्मित्वा पाणौ खड्गलेखां लिलेख ॥ 

--का० प्र०° १०।५३० 


[इन तीनो अक्कारोके विश्रेष विवरण के किए देखिए . हमारा ग्रन्थ- 
काव्यशास्त्रीय निवन्ध 1 | 


२९. अवसर 

जहां च्ून अथं के प्रसद्ख मे उल्षष्ट तथा रत्तपुर्णं सरे अर्थं का प्रतिपादन 
किया जाए वहां अवसर नामक अकंकार होता है ।१०३। 
उदाहूरण- 

यह्‌ वही वन है जहाँ द्शरथ के वचनों का पालन करने मे एकनिष्ठ राभ 
ने अपने भुजबल से राक्षसो का विनाल क्रिया था! १०४। 


यहां केवल वन को उत्कृष्टता निर्दिष्ट करने के उटेकयसे ही उक्त प्रसंगकी 
मवत्तारणा की गयी है । 


अन्य उदाहरण- 
थह सिप्रा नामक नदो है, जिसकी छहर स्नानं करती हई भाक्न दे की 


२४२ कान्याल्ङ्ारः [ कारिका १०६-१०८ 


सेति । अत्र मार्वतरुणीलक्षण सभ्युद्धार वस्तु सरसत्वाभिधानायोपलक्षणं 
सिप्राया. कृतम्‌ । 

श्रथ मीलितम्‌-- 

तन्मीलितमिति यस्मिन्समानचिह्न हषंकोपादि। 

ग्रपरेण तिरस्क्रियते नित्येनागन्तुकंनापि । १०६] 


तदिति । तन्मीलितमित्यलंकारः, यत्र हषंकोपभयाद्यपरेण वस्तुना हर्षदि- 
तुल्यचिह्लं न स्वाभाविकेन कृत्रिमेण वा तिरस्क्रियते । अपिविस्मये । इतिः प्रकारे 1 


उदहष्यच् 

तियंक्परक्षणतरले सुस्निधे च स्वभावतस्तस्याः | 

ग्रनुरागो नयनयुगे सन्नपि केनोपलक््येत ।।१०७॥। 

तियेगिति । अत्र नयनयुगस्य स्वाभाविकतियंक्परक्षणादियुक्तस्य याही चेष्टा 
तादश्येवानुरागयुक्तस्येत्यसौ नित्येन तेनापहुमूयते ॥। 

मदिरामदभरपाटलकपोलतललोचनेषु वदनेषु । 


कोपो मनस्विनीनां न लक्ष्यते कामिभिः प्रभवन्‌ ।॥१०८।। 
मदिरेति । अत्र कोपसहगचिह्ध न मदिरामदेनागन्तुकेन कोपस्तिरस्क्रियते 1 


स्त्रियों के कठोर स्तनकलश् के आघात से शीघ्र बिखर जाती हं ।१०४। 
९२. मीलित 

जहो हष, कोप आदि को इन हषं, कोप आदि के समान चिह्धुः चाह 
वे नित्य (स्वाभाविक) हों, अथवा आगन्तुक (कृत्रिम) हो, तिरस्कृत कर देते है, वहां 
मीक्तित अलकार होता है ।१०६। 
उदाह्रण-- 

तिच्छी हृष्टि के कारण स्वभावतः चंचल ओर सरस उस कामिनी के नैतन 
युगल मे अनुराग रहने पर भी [उसे] कौन जान सकता है 7१०७) 
अन्य उदाह॒रण-- 

मद्यपान के मद से अरणित, मानिनियों के कपोल, नेत्र ओर मुखो पर उमडते 
हृए क्रोध को कामी लोग नहीं देख पाते । १०८ 


(अर्थात वै समन्ते है कि उनका मुख क्रोध से नही प्रत्युत मद्यपान से ही अरुणित ह ।) 


कारिका १०६-१११ | सप्तमोऽध्यायः २४३ 


त्रथेकाव्ली-- 
एकावलीति सेयं यत्राथंपरम्परा यथालाभम्‌ | 


ग्राधीयते यथोत्तरविशेषणा स्थित्यपोहाभ्याम्‌ ॥ १०९॥। 

एकेति 1 सेयभेकावलीनामाककारो यत्रार्थाना परम्परा यथालाभमाधीयते 
न्यस्यते 1 कीहकी सा । यो य उत्तरोऽथ स स पूर्वेस्य विशेषण यस्या सा तथाविधा । 
एतेन समुच्चयस्यंकावरीत्व निपिद्धम्‌ । कथ यथोत्तरविरेषणा, कथ वाधीयत इत्याहु-- 
स्थित्यपोहास्यासिति । स्थितिविधिरपोहो व्यवच्छेदस्ताम्यामिति 1 

यथाक्रममुदाहरणे- 

सलिलं विकासिकमलं कमलानि सुगन्धिमधुसमरढानि । 

मधु लीनालिकूलाकूलमलिकूलमपि मधुररणितमिह्‌ ।॥ ११०॥ 


सलिकमिति 1 अत्र सकिलाय््थंपरम्परा यथोत्तरकमलादिविदेषणा यथाकाम 
विधिमुखेन निर्दिष्टा ॥ 


नाकुसुमस्तरुरस्मिन्नु्याने नामधूनि कृसूमानि । 


नालीनालिकुलं मधु नामधुरक्वाणमलिवलयम्‌ ।१११।। 
नेति । अत्र निषेपरूपेण तर्वादिकार्यपरम्परा यथोत्तरकुसूमादिविनगेपणा निहितेति ॥ 


इति श्री रद्रटकरते कान्यालकारे नमिसाधुविरचितटिप्पणसमेतः 
सप्तमोऽध्यायः समाप्त । 


२२. एकावली 

जिस अलकारमे मर्थो की परम्परा उत्तरोत्तर उत्कृष्ट रखी जाती है, उसे 
एकावली अलंकार कहते हैँ । इसमें आगे आनेवाखा अथं अपने से पूर्ववर्ती अथंका 
विक्ञेषण होता है, इस अलंकार मेँ कहीं विधि-रूप से, ओर कहीं निषेध-रूप से वणेन 
होता है ।९०६। 
विधि रूप से कथन का उदाहूरण- 

जल में कमल विल रहे है, कमलो भें पराग ओर सक्तरन्द मे भरे चिषटै हए 
है, मौर भोरे मधुर गुंजन कर रहे है ।११०। 
निप रूप से कथन का उदाहरण-- 

इस उपवन मे एसा कोई पेड़ नहीं है, जिस पर एक न च्दे हो, एेसे एर भी 
नहीं है, जिनमे मघु न सरा हो, एेसा मधु भी नहीं है, जहाँ मौरे न लिपटे हों, ओर ठेसे 
मोरे भी नही हैः जो मधुर गुञ्जारन कर रहे हों \१११। 

इति “अंशुप्रभा'ऽऽखल्य-हिन्दीन्वाख्याया सप्तमोऽध्याय. समाप्त 1 


अष्टमोऽध्यायः 


वास्तवं सग्रभेदमास्यायेदानीमौपम्यमाह-- 
सम्यक्प्रतिपादयितु स्वहूपतो वस्तु तत्समानमिति । 


वस्त्वन्तरमभिदध्याद्वक्ता यस्मिस्तदोपम्यम्‌ ।1१। 
सम्यगिति । यत्र प्रस्तुतं वस्तु स्वरूपविशेषेण सम्यगनन्यया प्रतिपादयितु वस्त्व- 
न्तरमप्रस्तुत वक्ताभिदध्यात्तदौपम्यं नामाककारः 1 ननु वस्त्वन्तरोक्त्या कथं वस्तुस्वरूपं 
विशेषतः प्रतिपाद्यत इत्याह--तत्समानमित्ति । इति हेतौ । यतो वस्त्वन्तरं प्रकृतवस्तु- 
सहशमतस्तेन तत्सम्यवप्रतिपाद्यते 1 (सर्वैः स्वं स्व रूपम्‌' (७।७) इत्यादिना सम्यक्त्वे 
क्वे सम्यग््रहुणं वििष्टस्नम्यक्त्वारथेम्‌ । अभिदध्यादिति । कत पदेनंव वक्तरि र्षे 
वक्तृग्रहण रक्तविरक्तमध्यस्थादिवक्तृविशेषप्रतिप्यर्थेम्‌ 1 तेन यो यादसो वक्ता येन 
स्वरूपेण वक्तुमिच्छति ताहश्मेव वस्त्वन्तरमभिदध्यातु तदोपम्यम्‌ । रक्तो यथा-- 
अपृतस्येव कुण्डानि युखानामसिच राशयः। 
रतेरिव निधानानि योषित. केन निमिता. 
इत्यादि 1 विरक्तो वथा-- 
एता हसन्ति च रुदन्ति च कार्यहर्तोविह्वासयन्ति च नरं न च विश्वसन्ति । 
तस्मान्नरेण कुलशीलससन्तितेल वेश्याः रमशानसुमना इव चजनीयाः ॥। 
इत्यादि । मध्यस्थस्तु स्वरूपमात्रं वक्ति यथा-- 
दश्शनदेव नव्वद्धरन्ति हृद्यं स्तरिथः। 
सुविद्रवस्तेऽप्यचिशवस्ता भवन्ति च चरा इव 1 
यत्रोपमानोपमेयभावः श्रौत प्रातीतिको वा तदौपम्यमिति तात्पर्यम्‌ 1 तेन सखश्यादयो 
ऽप्येतद्ध दा एवेति ।॥। 


अष्टम अन्याय 


तप्तम श्ध्याय मेँ चर्थालंकारो को चार्‌ वगो मे रिभाजित शिया गया 
था--वास्तव, आपस्य, तअतिशिय चौर श्लेष । उसी ध्याय मेँ वास्तवमूलक 
गर्धालंकारो के निरूपस॒ के उपरान्त इद अध्याय मेँ त्रोपस्यमूलक्र २ त्रलंकरासें 
का निरूपण प्रस्तुत हे । 
दरोपम्य 

जितम चता किसी वस्तु के स्वल्प का सम्यक्‌ प्रतिपादन करनेके किए 
उपक सबन दूरी वस्तु का वर्णन करे उसे भौपम्य कहते हैँ । १ 


कारिका २-५ | अष्टमोऽध्यायः २४५ 


सामान्यमभिधाय तद्ध दानाह- 

उपमोत्प्र्षारूपकमपहुनुतिः संरायः समासोक्तिः । 

मतमृत्तरमन्योक्तिः प्रतीपमर्थान्तरन्यासः ॥२॥ 

उभयन्यासभ्रान्तिमदाक्षेपप्रत्यनीकरष्टान्ताः । 

पूवंसहोक्तिसमृच्चयसाम्यस्मरणानि तद्धेदाः ।\ २1 

उपमेति । उभयेति । तस्यौपम्यस्योपमादय एते एकविरातिभंदाः ॥ 

यथो देशस्तथा लक्षर्मिति परवमुपमालक्षरमाह- 

उभयोः समानमेकं गुणादि सिद्धं भवे्य्थंकत्र । 

म्र्थेऽन्यत्र तथा तत्साध्यत इति सोपमा त्रेधा ।४॥ 

उभयोरिति । उभयोः प्रस्तावादुपमानोपभेययोः समान साधारणमेकमद्वितीयं 
गुणादि गुणसस्थ्रानादि यथा येन प्रकारेणैकत्रोपमाने सिद्ध प्रतीतम्‌, तथा तेनव प्रकारे- 
णान्यत्रार्थं उपमेये साध्यत इत्येव प्रकारोपमा ! सा च तरेधा--ववक्योपमा, समासो- 


पमा, प्रत्ययोपमेति । अभिधानस्य मानभेदेनेत्यत्र चंकवरेति सामान्योक्तावपि श्रसिद्धमुप- 
मानम्‌" इति न्यायादुपमानं रम्यते ॥ 


अथेतद्ध दत्रयमाह- 
वाक्योपमात्र षोढा तत्र त्वेका प्रयुज्यते यत्र । 
उपमानमिवादीनामेक सामान्यमुपमेयम्‌ ॥५।। 
ओपम्यगत मरुकार-- 

ओपम्यके ये सेद, अर्थात्‌ ओपस्य से सम्बदढये अलकार ह--उपमा, 
उत्प्रक्षा, रूपकः, जपहुनुति, संशय, समासोक्ति, मत, उत्तर, अन्योक्ति, प्रतीप, 
अर्थान्तरन्यास, उमयन्यास, आान्तिमाच्‌, आक्षेप, प्रत्यनीक, दृष्टान्त, पुर्वं, सहोकति; 
सपुच्चय, साम्य मौर स्मरण ।२-३। 
६. उपमा 

उपमान मौर उपमेय के एक स्वीकृत समान गुण को जसा उवमान में कहा 


जाए, वंसा यदि उसे उपमेय में कहा जाए, तो वहां उपमा अक्ंकार माना जाता है \ 
उपमा तीन प्रकार को होत्ती है \४। 


वाक्योपमा 
नाक्योपमा छः प्रकार की है । जहां उषभान ओर उपमेय की समानता "इवः 
आदि नाच शब्दों कै हारा कही जाती है, चह पहली चक्योपमा मानी जाती है 1५ 


२४६ काव्यालद्खुारः | कारिका ६-७ 


वाक्येति । श्रत्रोपमा्यां वाक्योपमा तावत्पटुप्रकारेति । एतच्च त्र्‌ वतां वाक्यो- 
पमा प्रथमेत्युक्तं भवति । तेन पृथगुदेशाभावो न दोषाय । तत्र तासु पट्सु मध्याद्‌ 
इयमेका प्रथमा, यस्यामूुपमानः प्रयुज्यते । तथेवादीनामिववत्सहशयथातुल्यनिभादीना 
साम्यवाचकाना मध्यादेकमू्‌। तथा सामान्यमुपमानोपमेययोः साधारणघर्माभिधायकं पदम्‌। 
तथोपमेयमिति चतुष्टयम्‌ । तुशब्दो लक्षणान्तरेभ्योऽस्य विशेषणार्थः । ननु यदीवादी- 
तामेकमेव प्रयुज्यते कथं तहि दिने दिने सा परिवधंमाना' इत्यादिष्वनेकेपां प्रयोगः । 
सत्यम्‌ । ओौपम्यानामनेकत्वात्‌ । भ्रव द्यनेक कारकमुपमानोपमेयतया निदिष्टम्‌ । यथा-- 
ततः प्रतस्थे कौवेरी भास्वानिव रधुदिक्ाम्‌ । 
ाररुलं रिवोदीच्यान्रदधरिष्यत्रसानिव ॥ 
म्रत्रेवादीनामपि बहूना प्रयोगो न्याय्य. । एव हि परिपूणंमौपम्यं भवति । यत्रतु 
वहुनामप्यौपम्य एक एवेवादिः प्रयुज्यते तत्र गता्थंत्वादप्रयोगो वोडग्यः 1 यथा-स 
भूधराणामधिपेन तस्याम्‌" इत्यादी । अव हि नीताविव मेनायाम्‌, उत्साहुगुणेनेव नगेन, 
संपटिव पावती जनितेति व्याख्यानम्‌ । इत्य विस्तरेण ॥ 
उदाहरखमाह- 
कमलमिव चारुवदनं मृणालमिव कोमलं भृजायुगलम्‌ । 


ग्रलिमालेव सुनीला तवेव मदिरेक्षणे कबरी ।।६॥। 

कमलमिति । अवर करटिचित्कामी मूखादिके वस्तु सम्यक्स्वरूपतः कमलादिगततचार- 
त्वादियुक्तं प्रतिपादयितु वस्त्वन्तर कमलादिक तत्समानत्वास्प्रयुक्तवानित्यौपम्यम्‌ । 
तथोभयो. कमलमुखयोः समानमेके चारुत्व यथंकत्र कमले सिद्ध तथोपमेये मुखे साध्यत 
इत्युपमालक्षणम्‌ । तथ। कमलमूपमानम्‌, इवशब्दः, चावित्ति सामान्यम्‌, वदनमुपमेयमू, 
इति चतुष्टयं समस्तमिति वाक्योपमालक्षणम्‌ । एवमन्यत्रापि लक्षणयोजना करतेग्या | 

प्रथ द्ितीयामाह-- 

इयमन्या सामान्यं यत्रैवादिप्रयोगसामर््यात्‌ । 

गम्येत युग्रसिद्धं तद्राचिपदाप्रयोगेऽपि॥७॥ 
उदाह्रण-- 

है मदिरेक्षणे ! तुम्हारा मुखं कमल फे समान सुन्दर हैः भुजां मृणाल कै 
समान कोमल ह, तथा तुम्हारी वेणी श्रमरपक्ति के समान अतिशय काली है 1६1 
दूसरी वाक्योपमा-- 

जहाँ सुप्रकिद्ध समान धमं अपने वाचक कन्दो सेन कहा गया भी इव" आदि 
वाचक शब्दके प्रयोगे बलसेज्नातं हो जाए, वहां दूसरी वाक्योपमा मानी 
जाती ह ७) 


कारिका ८-१० | अष्टमोऽध्याय. २४७ 


हइयभित्ति । इयमन्या द्वितीया वाक्योपमा, यस्या सामान्य साधारणो धमेस्तदया- 
चिपदाभ्रयोगेऽपि गम्यते । नन्वप्रयुक्तस्य पदस्य कथमर्थो गम्यत इत्याह्‌--इवादिप्रयो- 
गसामर्थ्यात्‌ 1 इवादयो हि कस्य साृश्यप्रतिपादनायं प्रयुज्यन्ते । यदि च प्रुक्तरपि 
तैरसौ न गम्यते तदान्थंकस्तेषा प्रयोगः स्यात्‌ । यद्येवमृच्छेद एव सामान्यपदप्रयो- 
गस्येव्याह-सुप्रसिद्धमिति । लोकप्रसिद्धमेव गम्यते नान्यदिति ॥। 

उदाह्ट्यमा€- 

रारिमण्डलमिव वदनं मृणालमिव भृजलतायुगलमेतत्‌ । 


करिकूम्भाविव च कुचौ रम्भागर्भाविवोरू ते॥८।। 

शशीति । अत्र यथाक्रमं चारत्वकोमर्त्वोत्त्‌ द्त्वगौरत्वान्यनुक्तान्यपि प्रसिद्धत्वा- 
तप्रतीयन्ते 

तरतीयामाह- 

वस्त्वन्तरमस्त्यनयोनं सममिति परस्परस्य यत्र भवेत्‌ । 


उभयोरुपमानत्वं सक्रममूुभयोपमा सान्या 11९1 

वस्स्वन्तरमिति । अनयोवंस्तुनोवस्त्वन्तर सम तुल्य नास्तीत्यत. कारणाचस्या- 
मुभयोरूपमानोपमेययो क्रमेण परस्परमुपमानघ्वं स्यात्सोभयोपमा । भ्रन्या पूवं विलक्षणा । 
इयमपि सामान्यस्य प्रयोगाप्रयोगाभ्यां दहिविधा ॥ 

म्रयोगोदाहरण स्वयमाह-- 

रारिमण्डलमिव विमलं वदनं ते मुखमिवेन्दुविस्बमपि । 


उदाह्रण- 


हे सुन्दरि ! तुम्हारा मुख चन्द्रमण्डल के समान है, ओर भुजा मृणार के सरश्च 
है । तुम्हारा स्तनयुगल हाथी के मस्तक के समान है, तथा जंघे कदली वृक्ष के समान है 1०। 

यहां क्रमश. सुन्दर, कोमल, कठोर ओौर वर्तु समानधर्मो का यद्यपि कथन 
नही किया गया, तो भी प्रसिद्ध उपमानो के प्रयोग के कारण ये स्वत गभ्यदहै। 
तीसरी वाक्योपमा-- 

कोई अन्य वस्तु हन दोनों वस्तुओं (उपमेय ओर उपमान) के समान नहीं 
है--इसी कारण जहा इन दोनों की क्रमशः एक-हसरे से समता बताएयी जाए, वहां 
उभयोपमा [नामक तीसरी वाक्योपमा] होती है ।€। 
उदाह्‌ रण-- 


तुम्हारा नि्मलभुख चन्द्रमण्डल के समान है, गीर चन्द्रनिस्ब तुम्हरे मुख ऊ 


२४८ काव्यालङ्कारः [ कारिका ११-१२ 


ररिमण्डलमिति । अप्रयोगे तु यथा-- 

खसिघ जल जलमिव खं हस इव शशी शशाङ्क इव हंसः । 
कुमुदाकारास्तारास्ताराकाराणि कुमुदानि ॥ इति ॥ 

चतुर्थामाह- 

सा स्यादनन्वयाख्या यत्रैकं वस्त्वनन्यसदशमिति । 
स्वस्य स्वयमेव भवेदूपमानं चोपमेयं च ।११॥ 


सेति । न विद्यतेऽन्वयो वस्त्वन्तरानुगमो यस्यामित्यनन्वयसंज्ञा सोपमा, यस्या- 
मेकमेव वस्तु स्वयमेवोपमानमुपमेय चात्मन एव भवेत्‌ । कस्मात्‌, अनन्यसहशमिति 
हेतोः । ननु यद्यन्यस्यात्रानुगमाभावस्तत्कथमौपम्यलक्षणमूपमालक्षण वा घटते । नेष 
दोषः । यतोऽनन्यसमत्वे लक्षण वस्तुन. सम्यक्स्वरूपं च यदा युगपद्विवक्षति वक्ता तदा 
सम्यक्स्वरूपप्रतिपादन वरस्त्वन्तराभिधानं विना न घटते । तदभिधाने चानन्यसमत्व 
दुधेटमिति छत्वंकमेव वस्तूपमानोपमेयरूपतया विभिद्य वक्ति । मरतः सामान्यमौपम्य- 
सक्षणमुपमालक्षण चास्ति । वस्त्वन्तरानन्वयर्चेत्यनन्वयोपमालक्षणम्‌ । 

पुश्लिणएमृदाहरसमाह- 

प्रानन्दयुन्दरमिदं त्वमिव त्वं सरसि नागनासोर |. 


इयमियमिव तव च तनुः स्फारस्फ़ुरदुरुरुचिप्रसरा ।1 १२ 
आनन्देति । हे करिकरोर, त्वमिव त्वं सरसि गच्छसीत्या चन्वय- ॥ 


समान है) तुम्हारी मुस्कान कुमुद की तरह श्युश्रहैः ओर यह शुर द्ुघरुद बुम्हारी 

मुस्कान के सहश्च है 1१०1 

जिन पदार्थो का आपस मे उपमान-उपमेय कूप मे प्रयोग होतादो उन्हे ही 
रचना मे स्थान देना चाहिए, अन्य अभ्रयुक्त पदार्थो को नही । जसे नमिसाधुप्रस्तुत 
इस उदाहरण मे- 

पानी आकान्न के समान है, आकाश पानी के समान है, चन्रमा हंस के समान 
है, हस चन्द्रमा के समान है, तारे कुमुदो के समान है, कुमुद तारो के समनदहै। 
चौथी वाक्योपमा-- 

जहां एक वस्तु की इूसरी से सहदाता न हो, [ ओर चह ] स्वथं ही अपनी उप- 
मान ओर उपमेय हो, बहा अनन्वथोपमा [ नासक चौथी वाक्योपमा [ होती है । ११। 
उदाह्रण-- 

है गजशुण्ड-सहश जाधो वाली ! तुम अपने ही ससान बडे तालाब में आनन्द 
एवं सुन्दरता के साथ प्रवेश कर रही हौ । जाज्वल्यमान एवं भतिज्ञय कान्तिमान्‌ 


कारिका १३-१५ | अष्टमोऽघ्यायः २४६ 


पञ्चमीमाह-- 

सा कल्पितोपमास्या यैरपमेयं विशेषणेयु क्तम्‌ । 

तावद्धिस्ताद्भ्मिः स्यादुपमानं तथा यत्र ॥१३)। 

सेति ! यंर्यादशेयत्सख्यरच विशेषणयु ्तमुपमेयम्‌, ताहम्भिरेव तत्सस्येश्चोप- 
मानमपि युक्त यस्यां सा कत्पितोपमाख्या । कल्पिता चासाुपमा च तथाविधाख्या 
सन्ञा यस्या इति ! विशेषणं रित्यतन्त्रम्‌ 1 तेनकस्य दरयोरच सग्रह- ) कि तु वहुभि- 
रौज्ज्वल्यं भवति ॥ 

उदाहरणम्‌ 

मुखसापू्णेकपोलं मृगमदलिखिताधेपत्तरलेखं ते । 


भाति लस्त्सकलकलं स्फुटलाञ्छन मिन्दुबिम्बमिव ।। १४।। 
मुखमिति 1 अत्र मुखमूपमेयं परिपुणेकपोक मृगमदिखिताधंपत्वरुखमिति 

विरोषणद्योपेतम्‌ । शरिविम्बमुपमानमपि स्फुरत्वोडशकर स्फुटकलद्धुं चेति ॥ 
पष्ठीमाह-- 


प्रनुपममेतद्रस्त्वित्युपमानं तद्विशेषणं चासत्‌ । 
संभाव्य सयद्यर्थं या क्रियते सोपमोत्पाद्या ।१५॥ 


तुम्हारा यह्‌ शरीर अपने सदृ्हीहै। जर्थात्‌ तुम तथा वुम्हारा शरीर स्वयं अपने 
ही तुल्य हं ।१२। 
पाचिवी वाक्योपमा-- 

जहां जिस प्रकार के [गौर जितने] चिज्ञेषणों से युक्त उपमेयं, यदि 
वसे ओर उत्तने उपमान हों तो वह कत्पितोषमा [नामक पांचवीं वाक्योपमा] 
होती है \ १३1 
उदाहरण- 

भरे हए कपोले से यक्त तथा कस्तुरी से आधी पन्न-रचना किथा हभ तुम्हारा 
मुख कलापुणं एवं लाच्छनयुक्त चन्द्रमण्डल की भोति शोभित हो रहा है \ १४। 

यहां मुख ओर चन्द्रमा दोनो एकसमान विरेषणो से युक्त ह ! 
छरी वाक्योपमा-- 

किसी अनुपम वस्तु (उपमेय) का कोई [सम्भव] न होता हुमा मी उपमान 
'सय्यं" के दारा [ उपयुक्त ] विजेषणों से सम्भावित कर दिया जाए बहो उत्पाद्या 
[ नामकं छठी वाक्योषमा ] हत्ती इई 1१५! 

'सयद्यर्थे' यदि, चेद्‌ आदि राब्दो के प्रयोग को कहते है ! 


२५० कान्यारुङ्खारः | कारिका १६-१७ 


अनुपममित्ति उत्पात इत्युतपाद्या । उत्पाद्यानामोपमा सा, या क्रियने । कि 
कृत्वा 1 उपमानमूपमानविरेषण च सभाव्य संभवि कृत्वा । कुतः । अनुपममुपमानः- 
विकनमेतद्रस्त्विति कारणात्‌ ! कीटशम्‌ । उपमान मसदविद्मानम्‌ । असतः कथ संभव 
इत्याह्‌-सयदयर्थं यदिचेदादिशब्दसहितमित्यथं. उपलक्षणं च सयदय्यथंशब्दः 1 यस्माद- 
भुतपूर्वासंभवादिप्रयोगेऽपि भवतति । यथा माघस्य- 
भरुणालसुत्रामलमन्तरेण स्थितश्ष्चलच्चामरयोद्र यं सः । 
भेजेऽभितःपातुकसिदडढ सिन्धोरमुतपूर्वा स्चमम्बुरात्ोः ॥ 
इत्यादि 1 
उद्हव्यद् 
कुमुददलदीधितीनां त्वक्संभय च्यवेत यदि ताभ्यः । 


इदमुपमीयेत तया सुतनोरस्याः स्तनावरणम्‌ ।१६॥ 
कूमुदेत्ति । अनर कुमुददलदीधितित्वमुपमानम्‌, तद्िशेषण व्ययेन च द्वयमपि 
सयद्यथं सभावितम्‌ । तथा-- 
सुवृत्तमुक्ताफलजालचित्रितं सवेदखण्ड यदि चन्द्रमण्डलम्‌ । 
श्रसाम्बुचिन्दत्करराजितं ततो मुखं रतावित्युपमीयते श्रिये ॥। 
"ततो मुख तेन तवोपमीयते' इति वा पाठः 1 अत्र पूणं चन्द्रमण्डलस्य सुवृत्त- 
मुक्ताफलजारचिच्धितत्व विशेषणमेव सभावित्तमिति ॥ 
एवं वाक्योपमां षड्कधामभिधायेदानी समासोपमामाह- 
सामान्यपदेन समं यत्र समस्येत तूपमानपदम्‌ । 


ग्रन्तभृतेवार्था सात्र समासोपमा प्रथमा । १७) 
 उदाहरण-- 

यदि कुमुदो के कान्तिमान्‌ पत्तों की त्वचा (दार) एकत्रित हो जाए, ओर 
उन [ त्वचाओं] से [रस] सतहोनेलगे तो इस सुन्दर शरीर वारी [सद्यःस्ताता 
नायिका] के स्तनावरण की उपमा उससे दी जा सकती हे ।१६। 

इसी प्रकरण मे नमिसाधुने भी एसा ही एक अन्य पद्य उदुधृतत कियाहैः 

यदि अखण्डित चन्द्रमण्डरू गोल-गोक मोत्तियो से जच्ति हो, तमभीहे प्रिये! 
रतिकारुमे श्रमवद् पसीने कौ वदो से शोभित तुम्हारे मुखं की उपमा उस [चन्द्रमा] 
सेदीजा सकती है) 

किन्तु हमारे विचार मे सयद्यथं' के प्रयोग का यह्‌ तात्पयं कदापि नही है 
किं इसीके वरु पर असम्भव परिकल्पनाएं भीकर दी जाएे। अत" उक्त दोनों 
उदाहरण संहूदय-हूदयावर्जक नही दै 1 


कारिका १८-२० | अष्टमोऽध्यायः २५१ 


सामान्येति ! उपमानपद चन््रकमलादिक सामान्यपदेन सृन्दरञब्दादिना यत्र 
समस्येत सा समासोपमासु मध्ये प्रथमा । तुविगेषे 1 विशेषस्तु वाक्योपमातः समासक्त 
एव । यद्युपमा कथमिवादिपद न श्रूयत इत्याह-अन्तर्भूत इवा्थं ओौपम्यं यस्या सा 
तथोक्ता ॥ 

उदहष्युच- 

मख मिन्दुसुन्दरमिदं बिसकिसलयकोमले भुजालतिके । 

जघनस्थली च सुन्दरि तव दोलरिलाविरालेयम्‌ ।१८॥ 

मुखमित्ति । अत्रेन्दुरिव सुन्दरमित्यादिविग्रह्‌. ॥ 

ग्रकार्न्तरचादह-- 


पदामिदमन्यपदाथं समस्यतेऽथोपमेयव चनेन । 


यस्यांतुसा द्वितीया सवेसमासेति सपूर्णा।॥१९। 
पदमिति ! इद पूर्वाक्तं सामान्योपमानसमासपदमथानस्तरमुपक्नेयवचनेनान्य- 
पदाथ यत्र समस्यते सा स्वंपदसमासात्संपूर्णा समासोपमा द्वितीया ।। 


उदाहरणम्‌- 
रारदिन्दुसुन्दरमुखी कुवलयदलदीघेलोचना सामे । 


दहति मनः कथमनिशं रम्भागर्भाभिरामोरूः ॥२०॥ 

समासोपमा 

जहां उपमान पदं का सामान्य पद (समनधमं सुचक पद) के साथ समास 
करके "इन" अदि वाचक रन्दो को [उसी समस्त पद में] ही अन्तभरत किया जाए, 
वहां प्रथमा समासोपमा होती है 1 १७1 
उदाह्रण- 

हे सुन्दरि ! पुम्हारा यह मख चन्द्र [के समान] सुन्दर है, दोनों भुजलतां 
कमलनाल [के समान | कोमल ह, तथा जिं पवत की शिका के समान विशाल ह ! १८। 

यहां “इन्दुसुन्दरम्‌' ओौर विसकिसल्यकोमले' इन दोनो समस्त पदो मे 'इवः' 
वाचक रान्द स्वत गृहीत है । 
अन्य प्रकार : सम्पूणं समासोपमा- 

जहां पूर्वोक्त [ उपमान-ससान्य समस्त] पदों का उपमेय-वचनों के साथ 
एक अन्य पदाथं [के रूप ] में समास कर दिया जाए, वहं सब पदों के समस्त होने 
कै कारण दूसरी सम्पूर्णा समासोपमा होती है \१&। 
उदाह्रण- 

शरत्कालीन चन्रमा के समान सुन्दर मुखवाली, कमलपत्न के समन विश्चाल 


२५२ कान्यारुद्खारः [ कारिका २१.२२ 


शरदिति । अत्र शरदिन्दुशग्दभुन्दरशब्दयोः पूवंवत्समासं त्वा ततो मूखेनो- 
पमेयेन सह नायिकायामन्यपदाथं समासः 1 

भुयः प्रकारान्तरमाह 

उपमानपदेन समं यत्र समस्येत चोपमेयपदम्‌ । 


ग्रन्यपदार्थं सोदितसामान्येवाभिधेयान्या ।॥२१॥ 

उपमानेति । उपमानपदेन सह यत्रोपमेयपदमन्यपदा्थेन सह॒ समस्यते सान्या 
समासोपमा 1 चः पूनरथं भिन्नक्रम. । सा पुनः समासेनोक्तौ सामन्यमिवाथंश्च यस्या 
सा तथोक्ता ।1 


उदाहरखम्‌- 
नवचिकसितकमलकरे कूवलयदललोचने सितांशुमूखि । 


दहसि मनो यत्तत्कि रम्भागर्भोर युक्तं ते ॥२२॥ 
नवेति । अत्रे नवतिकसितकमलमिव रम्यौ करौ यस्या इति बहुत्रीहिः ॥ 


तेनो से युक्त तथा कदलीवृक्ष के समान सुन्दर जांघों बाली यह्‌ रमणी क्यों रात-दिन 
„ भेरे मन को जला रही है 1२९1 

यहा शशरदिन्दुसुन्दरमुखी' मे उपमान, समान धमं ओर उपमेय इत सवका 
समास है । यह्‌ सम्पूणेपद नायिका (अन्य पदार्थ) का वाचक है। इस समस्त पदमे 
"इव" शाब्द स्वत.गृहीत है 1 
अन्य समासोपमा-- 

जहो उपमान के साथ उपमेय का समासं अन्य पदाथं [के स्प]मं किया 
जाए, तथा सामान्यं अर्थात समान धमं [स्वतः] कथित हो जाए वहाँ एक अन्य 
समासोपमा मानी जाती है ।२१) 
उदाहूरण-- 

हे चन्द्रमुखि ! नवविकसित कमल के ससान [ सुन्दर] हाथों वादी ¡1 कमल- 
दल के समान [ कोस | जोचनों वालो ! तथा कदली वृक्ष के समान [ वतुं र ] जोघों 
वाले ! क्या मेरे मन को जलाते रहना तुम्हें उचित है 1२२1 

हाँ नवविकसितकमरूकरे', षककुवर्यदकखोचने' ओर 'रम्भागर्भोर' इन समस्त 

पदो मे उपमान ओर उपमेय का समास अन्य पदाथ-नायिका-का वाचक है इन 
पदो मे समान धमे का स्वतःग्रहण है) 


कारिका २३-२५ | अष्टमोऽध्यायः २५३ 


द्रथ प्रत्ययोपमामाह-- 
उपमानात्सामान्ये प्रत्ययमुत्पा्य या प्रयुज्येत । 


सा प्रत्ययोपमा स्यादन्तभरू तेवशब्दाथां ।२३।। 

उपमानादिति । उपमानादूपमानपदादन्यतो बा धात्वादिकातप्रत्यय सामान्येन 
साधारणध्मनिषय उत्पाद्य या प्रयुज्यत्ते सा प्रत्ययोपमा । सा च प्रत्ययान्तशषब्देऽन्त- 
भूतेवशन्दा ॥ 

उद्हर्यष्- 

पद्मायते मुखं ते नयनयुगं कूवलयायते यदिदम्‌ । 

कुमुदायते तथा स्मितमेवं शरदेव सुतनु त्वम्‌ ॥ २४ 


पद्मायत इति 1 पद्ममिवाचरतीत्यादि वाक्यम्‌ । एव धातो. प्रत्यये उष्कोशी- 
त्यादि द्रष्टन्यमिति ॥ 


एव युपमात्रयममिधायेदानमितद्धे दान्सामान्येनाह- 
मालोपमेति सेयं यत्रैकं वस्त्कव्नेकसामान्यम्‌ । 
उपमीयेतानेकंरुपमानैरेकसामन्यः | २५।। 


प्रत्ययोपमा 

जहां उपमान शब्द का समिान्यसुचक शब्द के साथ प्रत्यय लगाकर समसि 
करने पर “इवः आदि वाचक चाब्दं का अथं [उस समस्त पद में ] अन्तभ्रूतहो जाए 
वहा प्रत्ययोपमा हत्ती है ।२३। 
उदाहरण- 

है सुन्दर शरीर वाली 1 तुम तो साक्षात्‌ शरत्‌ हो ! [क्योकि ] वुम्हारा सुख 
कमल के ससान आचरण करता है, आंखें नील कमलल के सणान आचरण करती है, 
तथा तुम्हारो मुस्कान कुमुदसहश्च आचरण करती है ।२४। 

यहां भश्चायते", %करवक्यायते" ओौर (कमुदायतते' पदो मे क्यङ्‌ प्रत्यय का प्रयोग 
क्रिया गया है] 
मालोपमा 

जहा भ्रनेक सामान्यो (समान धर्मो) वाली एक [उपमेय | वस्तु की उपमा 
मनेक सामान्यो बाले अनेक उपमानों के एक-एक सामान्य के साथ दी जाए बहुं 
मालोपमा होती है ।२५। 

इसी प्रसंग मे नमिसाधु-प्रस्तुत "गायन्ति किन्नरगणा.* ˆ" पद्य का अथं है-- 
किन्नरगण किन्नरियो के साथ हिमाचरू के उच्च रिखरोकी कन्दराभोमे तुम्हारा 


२४ काव्यालङ्कारः | कारिका २६ 


मालोपमेति । यत्र॑कमुपमेयं वस्त्वनेकसामान्यमनेकवमंकमेकसामान्यंरेकंकधमं- 
युक्ते रनेकौरुपमानं सपमी यतते सेयमित्यमुना प्रकारेण मालोपमा । अजथाय कोऽलंकारः-- 
गायन्ति किनरगणाः सहं किनरीचिरत्‌ ङ्ङ कुहरेषु हिमाचलस्य । 
क्षीरेन्दुकुन्ददलग्द्ख मृणाल नालनीहारहारहरहास सितं यश्चस्ते ॥ 
मालोपरमँवेत्याहु । यत्त एकत्वेऽपि शौव्ट्यस्यानेकसामान्यं विद्यत एव ! तस्या- 
निकरूपत्वादन्याहनमेव हि तच्छल्ञेऽन्याहनं चन्द्रादौ तच्च सर्वं यजत्ति विद्यत इति । 
केचित्तु मालोपमाभास् इत्याहुः ॥ 
उदाह्ट्यभ्ा 
दयामालतेव तन्वी चन्दरकलेवातिनिर्मला सामे) 


* भ = $ 
हंसीव कलालापा चेतन्यं हरति निद्रेव ।२६॥ 
दयामाक्तेति 1 अचोपमेया कान्ता तनुत्वा्यनेकवमेयुक्ता 1 व्यामालतादीन्ये- 
कं कवर्मयुक्तान्युपमानानि । एपा वाक्योपमा । अन्ये त्िमे-- 
नवद्यामालतात्तन्नी शलरच्यन्द्राञुसप्रसा । 
मत्तहुसीकलालापा कस्य सा न हरेन्मनः 1 
समासोपमेयम्‌- 
ारच्चनद्रयते वर्तौ त्वं कृतान्तायसे युधि 1 
दाने कर्णायसे राजन्मुनीतो मास्करायतसे । 
प्रत्ययोपमेयम्‌ 11 


य गति है, जो [यज्ञ] इव, चन्द्र, कुन्दपव, गंख, कमख्नार, पाका, मुक्ताहार गौर 

निच कें अद्हासर के समान व्वेतत है । 

इस पद्य मे यय' की उपमा दूव, चन्र आदि कई दवेत पदार्थो्ते दी गयी है, 
मतः यहां मालोपमा" दै । किन्तु कई आचायं यर्हा मालोपमाभाम' मानते है वयोकि 
उक्त पदार्था की दवेतता एक-समाच नही है, जवकि इनके उपमेयं यनः को केवि-ख्यात 
वेता का एक निदिचत स्प ही माना जाना चाहिए । 
उदाहरण-- 

वहु सुन्दरी श्याम छता के समान कोनर, चरका की भात्ति अति निर्मल, 
हंसिनी के समान मयुर बोलनेवारी तथा निद्रा के सहद्य चेतना को हरेवली है 1२६ 

दसी प्रसग मे नमिस्नावु-प्रस्तुत ढो पद्य विचारणीय हु-- 

(१) नवश्यामल्तातन्वी " `ˆ" अर्थात्‌ नवीन गौर श्यामनर कता के समानं क्षीण 
कटि वारी, लरत्कालीन चन्द्रकी किरणो के समान सुन्दर, मस्त हृसिनी के समान 
मधुर बोलने वानी चहु क्रिसकता मन हरण नही करती ? 


कारिका २७-२८५ | सष्टमोऽध्यायः २५५ 


मेदान्तरमाह-- 
म्र्थानामौपम्ये यत्र बहूनां भवेद्यथापूरवेम्‌ । 


उपमानमृत्तरेषां सेयं ररनोपमेत्यन्था ॥२७॥। 
अ्थनिामिति । अत्रार्थनिामुपमानोपमेयाना बहूना साहदेये सति तेषामेव 
मध्याद्यथापूर्वं यो यः पूर्वैः स स उत्तरेषामुपमान भवेत्सेय रशनासाहश्याद्रशनोपमे- 
त्यन्या । यथा रशनाया परस्परमाभरणाना ह लाकटकवत्सम्बन्ध एवमिहाथनामिति 
पूववतु । 
उदाहरणम्‌ - 
नभ इव विमलं सलिलं सलिलमिवानन्दकारि शारिबिम्बम्‌ । 


दरशिबिम्बसिव लसद्द्यति तरुणीवदनं शरत्कूर्ते ॥२८॥॥ 
नभ इत्ति । अत्र गगनादिरथं पुवं उत्तरेषा सलिलादीनामूपमानमू । एषा वाक्य- 
रशनोपमा 1 अन्ये त्विमे-- 
शरतप्रसन्नेन्दुुकान्ति ते मुखं सुखि लोलाम्बुजमम्बुजारणो । 
करौ करश्रीरवतंसपल्लवो वरानने पल्लवलोहितोऽधरः ॥ 
समासरशनोपमेयम्‌ । 
चन्द्रायते शुक्लश्च हंसो हंसायते चारगतेव कान्ता । 
कान्तायते तस्य मुखेन वारि नारीयते स्वच्छतया विहायः ॥ 
प्रत्ययरशनोपमेयम्‌ ॥ 

(२) "शरण्चन्द्रायसे""“* अर्थात्‌ हे राजनु ! तुम आकारमे ( सुन्दरता मे). 
दारत्काखीन चन्द्र के समान, युद्ध मे यमराज के समान, दनमे कणं के समान ओर 
सुनीति मे सूयं के समान हो 1 

इन दोनो पदयो मे क्रमश. समासगता माखोपमा ओर प्रत्ययगता मालोपमा 
माननी चाहिए । 
रशनोपमा 

जहां अनेकं अर्थो (उपमान-उपमेयों) की सशता होने पर [उन्हीं मे से] 
पुववर्तो अथं [ उपस्नेय | को उत्तरवतीं अथं का उपमान बनाते चके वहाँ रश्षनोपमा 
होती है 1२७१ 
उदाहरण-- 

जल आकाल्च के समान स्वच्छ है, चन््निभ्ब जल के समान आनन्ददायी है, 
तथा चन्द्रनिम्ब के समान तरुणी का कान्तिपुणं मुख शरद्‌ ऋतु बना रहा है ।२०। 

नमिसाघु ने समासगता ररनोपमा का भी निम्नोक्त उदाहरण प्रस्तुत किया है-- 


२५६ कान्यालद्खारः . | कारिका २६-३० 


भूयोऽपि मेदान्तरमाह- 
क्रियतेऽथेयोस्तथा या तदवयवानां तथंकदेरानाम्‌ 1 
परमन्या ते भवतः समस्तविषयेकदेिन्यौ ।२६। 


क्रियत इति ! अथंयोर्पमानोपमेययोरवयविनोस्तदवयवाना च सहजाहार्यो- 
भयरूपाणा या क्रियते, न त्ववयविनोः, एपन्या एकदेकविपया 1 इति हितीयः 
प्रकारः ॥ 


उद्ाह्त्यद्- 
ग्रलिवलयैरलकेरिव कुसुमस्तबकेः स्तनैरिव वसन्ते | 
भान्तिलता ललना इव पाणिभिरिव किसलयः सपदि 11३० 


अलिवचख्यंरिति। अत्र ठल्ता छलना अवयविन्योऽखिवलयादयदरचावयवाः सवं 
एवोपमिताः । इत्येपा समस्तविपया ॥ 


सरत्प्रसन्नेन्दुसुकान्ति" "** अर्थात्‌ हे सुन्दर आननवाखी ! तुम्हारा मुख शरत्‌- 
कालीन नि्मंर चन्द्रकी कान्तिको धारण करतादहै, मूख की कान्ति लीला-कमल के 
सहन ह । दोनो हाथ कमल के समान लार है, हाथोकी शोभा कर्णंभूपण [केरूपमें 
धारण किये जाने वाक्त | पल्लव के तुल्य है, ओौर अधरकी कान्ति पल्क्व के समान 
अरुण हे । 

मुख--मुखश्री, अम्बुज--अम्बुज, कर-करश्री, पत्कव- पल्लव इनका 
उत्तरोत्तर प्रयोग रशनोपमा का सूचक ह । इसके अतिरिक्त यहां समस्त पदोकाभी 
प्रयोग है ) | 
एक अन्य प्रकार-- । 

जहा [ अवयवीभूत ] दोनों अर्थो (उपमान ओर उपमेय) को, तथा उनके एक- 
देशीय मचथवों की परस्पर उपमा दी जाए, वर्ह एकं अन्य उपमाः होत्री है 1 इसके दो 
प्रकार ह-समस्तदिपया भौर एकदेशिनी 1२६ 
उदाहरण (समस्तविपया)- 

वन्त चतु मे ये उताएं ललनामो के समान हं, [व्योकि ] इनके अरमरसमूह्‌ 
केदापाश के समान हु, पुष्पगुच्छ स्तनो के समान है मौर पत्रहाथों के समान ह 1२०1 

इस पद्य मे कताएं गीर कल्नाएं अवयवी है, तथा श्रमर-समूह्‌ ओर केदापाद 
आद्वि मवयव है 1 इन दोनों का उल्केख किया गया है । 

[इस पद्य मे सपदि" शब्द षादपुत्यंथं प्रयुक्त है 1| ध 


र 1 लकृ 


कारिका ३१ | अष्टमोऽध्यायः २५७ 


कमलदलेरधररिवं दरनेरिव केसररोविराजन्ते । # 


ग्रलिवल्यैरलकौ रिव कमटे्वैदनैरिव नलिन्यः ।३१।। 
केमरुदरछरिति । अत्रावयवानामेव कमल्दलादीनामौपस्य न त्ववयविन्या 
नलिन्या. प्रतीयते । [वास्या] इत्येषेकदेशविषया । द्विविधापि वाच्योपमेयम्‌ 1 अन्ये 
त्विमे- 
मृणाकलिकाकोमलबाहुयुग्मा सरोजपन्नारणपाणिपादा । 
सरोजिनीचारतर्नुवमाति प्रियालिनीलोज्ज्वलकुन्तलासौ 1! 
तथा-- 
पद्यचारुमुखी भाति पद्यपल््ायतेक्षणा । 
दशनः केसराकारंरलिनीलशिरोरुहां ॥ 
समासोपमेयं दधा । 
लतायसेऽतितन्वी त्वमोष्ठस्ते पत्लवायते । 
सितपुष्पायते हासो भ्ज्धायन्ते शक्ििरोरुहाः ॥ 
मुखेन पद्मकत्पेन भाति सा हंसगामिनी) 
दोर्स्या समणालकल्पाभ्यामलिनीकेः शिरोरुहैः ॥ 
प्रत्ययोपमेयं द्विधा ।। 
उदाहरण (एकदेरिनी)-- 
कमलिनी के पन्न होंठों के समान, केसर दांतों की माति, भ्रमरसमूहं केशो के 
सहश तथा कमल मुखो के समान शोभायमान है ।३१। 
इस पद्य मे कमलिनी की उपमा नायिका (अवयवी) सेदी गयीहै, किन्तु 
उसका उल्लेख नही किया गया है, केवर पत्र भौर होठ आदि अवयवो का उल्लेख 
किया गया दहै) 
नमिसाधु ने निम्नोक्त चार उदाहरण प्रस्तुत विये है- 


(१) उस प्रिया के बाहुयुग भणालिनी के समान कोमल है, उसके हस्त ओौर 
चरण-कमर पत्र के सहश [मृदु] है, उसका शरीर कमलिनी की भांति कमनीय है, ओर 
उसके केश भ्रमरो के समान काके ओर चमकदार है । 

(२) उस रमणी का मुख कमल के समान सुन्दर है, नेव कमल-पत्र के समानं 
विशार है, उसके दांत केसर की माति है, गौर केश भ्रमरवत्‌ काके है । 

इन दोनो पदयो मे समस्त पदों का प्रयोग है, तथा ये दोनो एकदेिनी मालोपमा 


के उदाहरण दै, क्योकि यहां मवयवो के तो उपमान प्रस्तुत किये गये है, अवयवी (नायिका) 
का उपमान प्रस्तुत नही किया गया । 


२५८ कान्यार्ङ्धुारः | कारिकां ३२-३३ 
अथोत्मक्षा- 
ग्रतिसारूप्यादेक्यं विधाय सिद्धोपमानसद्धावम्‌ । 


ग्रारोप्यते च तस्मिन्नतद्गुणादीति सोत्प्रक्षा ।३२।। 
अतिसारूप्यादिति । उपमानोपमेययोरतिसादृश्याद्धेतोरेक्यमभेदं विधाय । 
कीदृश तत्‌ । सिद्ध उपमानस्थेव, न तूपमेयस्य, सद्भावः सतत्वं यत्र॒ तत्तथाविधम्‌ । 
अनन्तरं च तस्मिन्तुपमाने तस्योपमानस्य ये गुणक्रिये न सभवतस्ते समारोप्येते यत 
सा 1 इत्यमूना प्रकारेणोत्पर्षा भण्यते । चशन्दोऽतदुगुणा्नधघ्यारोपितस्यापि समुच्च- 
याथ. । येने सिद्धोपमानसद्धावे तयो रभेदमात्रेऽप्युत्प्रक्षा दृर्यते 1 यथा-- 
तं वदन्तमिति विष्टरश्रवाः श्रावयन्नथ स्षमस्तमूभरतः। 
व्याजहार दरानांद्युमण्डलब्याजहारशवल दधटपुः ॥ 
इत्यादि ॥ 
उद्ाह््यच्‌- 
चम्पकतरुरिखरमिदं कूसुमसमूहच्छलेन मदनरिखी । 


ग्रयमुच्चेरारूढः परयति पथिकान्दिधक्षुरिव ॥२३॥ 
चम्पकेति । यत्रोपमेयदचस्पकराशिरुपमानं मदनाग्निस्तयोर्छीहिव्येन सारूप्या- 
दैक्य सिद्धोपमानसद्धाव विधाय ततोऽनेयं हुरंन मचेतनत्वादसंभवि तदासोपितमिति ॥ 

(३) अत्यन्त कृद [कटिवारी | तुम रता के समान हो, तुम्हारा होठ पल्छ्व के 
समान है, तुम्हारी मूस्कान रवेत पुष्प-जेसी है ओर केड भौरो-जैसे है । 

(४) वह॒ हंसगमना पद्म-समान मूख से, मृणाल-तुल्य भुजा से तथा भ्रमरो 
के समान करेकेशोसेदोगितहोरहीदहै। 

ये दोनो उदाहरण प्रत्ययगत एकदेशिनी मालोपमा के है 1 
२. उस्यक्षा 

जहां उपभान के प्रसिद्ध होने के कारण तथा [ उपमान गौर उपमेय में ] अति 
सादृश्य होने के कारण अभेद की स्थापनाहो, तथा [उपमानके] गुण [अथवा 
क्रिया] के [उपनेय भे ] सम्भवं न होने पर उनका उपमेय मे मारोप दो, वहू उत्प्रक्षा 

अरङंकार होता है ।३२। 

उदाहरण- 

यह चम्पक चक्ष का किर पुष्पसमृूहं कफे व्याज से कामाग्नि के समान ॐच 
चढ़कर वियोगियों को जलने को इच्छा से देख रहा हं ।३३। 

यहाँ चम्पक वृक्ष उपमेय है । कामाग्नि उपमनदहै। इनदोनोमे खाल रंग 
की समानता के माधार पर दोनो मे एक धमं-देखने को इच्छा-- क्री कल्पना कौ गयी है । 


क क को" ११७० ५७ 


^ ~^ > क + ^ 


कारिका ३४-३६ | अष्टमोऽध्यायः २१५६ 


ग्रकारान्तरमा€- 
सान्येत्युपमेयगतं यस्या संभाग्यतेऽन्यदूपमेयम्‌ । 
उपमानप्रतिबद्धापरोपमानस्य तत्वेन । २४] 


सेति । इतीत्थ सान्योत्ेक्षा यत्रोपमेयस्थमुपमेयान्तरमुपमानप्रतिबद्धस्योपमा- 
नान्तरस्य तत्त्वेन ताद्र प्येण सभाग्यते ॥ 

उदाह्यय्‌ 

म्रापाण्ड्गण्डपालीविरचितमुगनाभिपत्त्ररूपेण । 


दराशिशङ्कयेव पतितं लाञ्छनमस्या मुखे सुतनोः ॥३५॥ 
आपाण्ड्गण्डति । अत्र शदयुपमान तत्प्रसिद्धमपर छाञ्छनमुपमानान्तरम्‌ । 
तत्साहदयेनोपमेय नायिकामुखगतमन्यदुपमेय मृगनाभिपत्नलक्षण सभावितमिति | 
भूयोऽपि भेदान्तरमाह- 
यत्र विश्चिष्टे वस्तुनि सत्यसदारोप्यते समं तस्य । 


वस्त्वन्तरमुपपत्या संभाव्यं सापरोत्प्रेक्ना ।॥३६॥ 
यत्रोल्खक्षायां रो भनत्वेनाश्चोभनत्वेन वा विशेषणेन विशिष्टे वस्तुन्युपभेयशूपे 


इसी प्रसग मे नमिसाघु ने एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत किया है--'त वदन्त- 
मिति विष्ठरश्रवा ** ""अर्थातु उसके एेसा कहने पर भगवान्‌ विष्णु ने दातो से तिकल्ती 
ई [स्वच्छ] किरण-समूह्‌ के व्याज से शरीर को मानो हार से विचित्रवणं बनति हुए 
तथा सव राजाओ को सुनाते हुए इस प्रकार कहा । 
अन्य प्रकार-- 

जहां उपमान से सम्बद्धं अन्य उपमान-तत्व के साथ उपमेय से सम्बद्ध अन्यं 
उपमेय की सहता की सम्मावना की जाएु वहां भन्य उत्प्रक्षा होती है ।३४। 

दस सुन्दरो के शुर कपोल-प्रदेश पर कस्तुरी से बनी हुई पत्र-र्चना एसे 
[ विराजित है] जसे चन्द्रमा पर अवस्थित कलंक ।३५। 

यहां चन्द्रमा उपमान है तथा [उससे सम्बद्ध] करक एक अन्य उपमान है । 


इनको सदृक्षता नायिका-मुख तथा [उससे सम्बद्ध कस्तुरी-पत्र रचना] से निदिष्टकी 
गयी है 1 


एक सन्य भेद- 

जहां किसी, [ अच्छे भयवा बुरे | विशेषण से युक्त वस्तु (उपमेय) मे [एेसी] 
अविद्यमान समानता का आरोप किया जाता है, [ जिसके विषय सें] अन्य वस्तुकी 
सम्मावना किसी युक््तिसे कर दी जाती है, वह्यं एक अन्य उत्रक्षा होती है ।६६। 


२६० कान्यालद्खारः [ कारिका ३७ 


सत्यविद्यमानमेव वस्त्वन्तरभूपमानलक्षणं समं समानमारोप्यते सापरान्योतपरक्षा । ननु 
यद्यविद्यमानं कथं सममित्यारोपस्तस्येत्याह-उपपत्त्या युक्त्या संभाव्यं सावसरत्वा- 
त्संभावनायोग्य यत इत्यथः ॥ 
उ्दहच्णद्- 
ग्रतिघनकूङ्कूमरागा पुरः पताकेव द्द्यते सध्या । 
उदयतटान्तरितस्य प्रथयत्यासन्नतां भानोः ।३७।। 
अतिघनेति । अचर विरिष्टं संध्याख्ये वस्तुन्यसदेव वस्त्वन्तर पताकास्यं 
साम्यादारोपितम्‌ 1 तच्च युक्त्या भाव्यम्‌ । यतो रविरथे पताकया भाव्म, साप्यु- 
दयाचरुग्यवहितस्य रवेह दयमाना सती नैकटच' प्रकटयति 1 भय यत्र साम्यमात्रे सति 
विनवोपपत्त्या सभावना भवति न चोपमान्यवहारस्तत्र कोऽरंकारः । यथा- 
यश्चाप्सरोविश्रममण्डनानां सपादयित्री क्िखरेविमति । 
वलाहकच्छेदविभक्तरागामकालसंध्यामिव धातुमत्ताम्‌ ॥ 
तथा-आवजिता किचिदिव स्तनाभ्याम्‌" इत्यादिषु । अत्र ह्यकारसंध्यादीना 
सभावने न काचिदुपपत्तिनिदिष्टा । न चाप्युपमाग्यवहारः । यतः सिद्धमुपमानं भवति । 
न वा कार सिद्धत्वम्‌ । तथा यद्यर्थश्रवणान्नाप्युत्पाद्योपमान्यवहारः 1 न चाप्यतिश्यो- 
सपरक्षा संभवोऽस्ति । अवोच्यत्ते--उपमायामसभव उत्परक्षायां त्वनूपपत्तिरत उभयत्रापि 
लक्षणस्य न्यूनतायामुपमाभासो वा स्यादुल्प्रक्षाभासो वा । एवम्‌ पृथिव्या इव मानदण्ड.' 
दुत्यादावपि द्रष्टग्यम्‌ 1 सूवरकारेणानुक्त भेदान्तरमपि चास्या विद्यते- 
कतु रपमानयोगः सत्यौपम्येऽनिवादिरपि यन्न ¦ 
संभान्यतेऽनुरोधद्िज्तेया सा परोत्परक्षा॥ 
उदाह्रण- 

वहत घने कूकुम राग से अरग यह [प्रातःकालीन] सन्ध्यां [रवि-रथ की| 
पताका के समान शोमितदहो रही है" गीर [मानो] उदयाचच को मरमं दिप सुं 
की समीपता को सुचित कर रही है 1३७1 

उसी प्रसंग मे नमिसाधु-प्रस्तुत तीन उदाहरण अवलोकनीय है-- 

१. “यदचापस्रोविश्रम"“*" अर्थात्‌ जो [हिमालय] अपने शिखरो पर अप्सराभो 
की विकास-प्रसाथन सामभ्री को प्रस्तुत करने वाटी [गैरिक ादि] वातुभोको ड्य 
प्रकार वारण करता है, मानो मेधो के खण्डां से विभक्त हए रगो वाटी भकाल- 
सन्ध्या हो । 

२. जहां उपमा होने प्ररभी कर्ताके उपमानमे इव आदिका प्रयोगन दहो, 
उसमे एक अन्य [प्रकार को] उत्प्रेक्षा जानना चाहिए 1 जैसे- 


कारिका ३८-३६ | अष्टमोऽध्यायः ` २६१ 


यथा-- 
थः करोति वधोदर्का निःश्रेयसकरीः क्रिधाः। 


ग्लानिदोषाच्छिदः स्वच्छाः स मूढः पड्धयत्यपः 1 
तथा-- 
अरण्यहदितं कतं शवशरीरमभू्टतितं स्थलेऽन्नमवरोपितं सुचिरमूषरे वर्षितम्‌ । 
दवयुच्छमवनामितं बधिरकर्णजापः कृतः कतान्धमूलमण्डना यदबुधो जनः सेवितः 11 
छथ ह्पकय्‌-- 
यत्र गणानां साम्ये सत्युपमानोपमेययोरभिदा | 
प्रविवक्षितसामान्या कल्प्यत इति रूपक प्रथमम्‌ ।। ३८1 
यत्रेति । यत्रोपमानोपमेययोगु णानां साम्ये तुल्यत्वे सति विद्यमाने भ्रतीतिपथ- 
वारण्या भिदा तथोरक्य कल्प्यते तदित्यमूना प्रकारेण रूपक प्रथमम्‌ । उत्तरत्र 
समासग्रहणादिह प्रथमश्षब्देन वाक्यरूपक विवक्षितम्‌ । उत्प्रक्षायामप्यभेदो विध्यते, तत- 
स्तन्तिरासार्थं माह-अविवक्षितसामान्येति । सदप्यत्र सामान्य न विवक्ष्यते । सहो देवदत्त 
इति । उत्प्रक्नाया तु छलक्ष्मव्याजग्यपदेशादिभि. शाब्दं रपमानोपभमेययोरभेदो भेदङ्च 
विवक्षित इति । परमाथंतस्तूभयत्राभेद एवेत्ति 1 
उदाहरखम्‌- 
साक्षादेव भवान्विष्णुर्भार्या लक्ष्मीरियं चते। 
नान्यदभूतसुजा सृष्टं लोके मिथुनमीद्कम्‌ ॥३६॥ 
साक्षादिति 1 सुगममेव ॥ 


"य : करोति वधोदर्काः" "` अर्थात्‌ जो व्यत्रित ज्युभ कार्योको भी घातक वना 
देता है, वह्‌ सूखं श्वम आदि कष्ट को दुर करते वाके निर्मल जरु को मकिनि करता है । 

३. अरण्यरुदित कृतम्‌" अर्थात्‌ जिस व्यक्ति ने मूखं की सेवा की, उसने 
[मनो] अरण्यरोदन किया, शव के शारीर को उवटन गाया, स्थर पर कमकत उगाने 
की चेष्टा की, देर्‌ तक वजर भूमिका सिंचन किया, कृत्ते कीपुछको ज्ुकानेकी 
चेष्टा की, बहुरे से बाते की गौर. उन्धे के मुख का प्रसाधन किया । 
२. रूपक 

जहां उपमान जौर उपमेय के गुणो कौ समानता होने पर एेसा अभेद कल्पित 
किया जाता है जिसके समान धमं का निदेश नहीं किया जाता, वहाँ प्रथम रूपक 
गलकार होता है 1३८1 
उदाहरण-- 

आप साक्षात्‌ विष्णु हु । आपकी यह पत्नौ [साक्षात्‌] लक्ष्मी है । संसारे 
विधाता ने अन्य किसी एसे दम्पती की सृष्टि नहीं कौ ।३९। 


छ 


२६२ केन्यारुद्धुारः [ कारिका ४०-४१ 


प्रथ मेदान्तरमाह-- 
उपसजंनोपमेयं कृत्वा तु समासमेतयोरुभयोः । 
यत्तु प्रयुज्यते तद्रूपकमन्यत्समासोक्तम्‌ ।\४०॥ 


उपसजनेति । एतयोरुपमानोपमेययोः समासं कृत्वा यत्पुन. प्रयुज्यते तदपर 
समासोक्त रूपकम्‌ । समासोपमाया रूपकत्वनिवृत््यथेमाह-उपसर्जनमप्रधानमूपमेय 
यत्र । यया--दुजंन एव पन्नगो दुजेनपन्नग । समासोपमाया तुपमानमुपसजनम्‌ 1 
यथा--शशीव मुख यरयाः सा रानिमुखी । तु दाब्दः समूच्चये । उभयग्रहण नियमाथम्‌ । 
उभयोरेव समासे, न तृतीयस्यापि सामान्यपदस्येत्यथः ॥ 


सामान्यं रूपक्रभदद्रयमेतद्भिधायेदानीमेतद्ियेषानाह-- 
सावयवं निरवयवं संकीणं चेति भिद्यते भूयः । 
हयमपि पुनर्िपेतत्समस्तविषयेकदेरितया ।४१॥ 


सावयवमिति । एतद्राक्यसमासलक्षणं हूपकद्रय भूय सावयवं निरवयव सकीर्णं 

चेत्यमूना प्रकारेण चरिवा भिद्यते । पनन्च हयमपि वाक्यसमासलक्षणमेतद्र पकं समस्त- 

विपयतयेकदेरितया च द्विधा भिद्यते । न तु सावयवादिभेदभिन्न सत्‌ ।! निरवयवादिपु 
सवेत्रासंभवात्‌ 1 तेनात्र भेदद्रये सावयवादिप्रमेदानुप्रवेशो यथास भवमेव भवतीति ॥ 


यहां उपमान भौर उपमेय के एेक्य-कथन मे किसी समानधमं का निदेश नही 
किया गया। 


एक अन्य प्रकार (समासरूपक)- 

जहां उपमान गीर उपमेय का समास करफे उपमेय को अप्रधान रूपमे 
प्रयुषत किया जाता ह, उसे एनत अन्य प्रकार का रूपक्--समासरूपक कहते है ।४०। 

नमिसाथु ने समासरूपक आओौर समासोपमा मे भेद निर्दिष्ट करते हुए कहा है 
कि समास्रर्पक मे उपमेय की अप्रधानत्ता रहत्ती है गौर समासोपमा मे उपमान की । 
जते--(१) दुर्जन दै पन्नग-दुजेनपन्नग. (पक) । (२) यि के समान मूख है 
जिक्रका-सयिमुशखी (उपमा) । 
रूपक के भेद-- 

समास के [तीन] भेद है--सावयवच, निरवयव भौर संकीर्णं । [ इनमे से प्रथम ] 
दीनो के दो-दो नेद ह-तमस्तविपय भीर एकदेशी 1४९। 


कारिका ४२-४३ 1 अष्टमोऽध्यायः २६३ 


ङ्दानीमेपामेव लक्षरमाह- तत्र सावयवम्‌- 
उभयस्यावयवानामन्योन्यं तद्देव यत्क्रियते । 
तत्सावयवं त्रेधा सहजाहार्योभियेस्तेः स्यात्‌ ।।४२।। 
उभयस्येति । उभयस्योपमानोपमेयलक्षणस्य येऽवयवास्तेषा परस्पर यद्रपण 
तद्वदेवेति समस्तोपमावत्क्रियते तत्सावयव रूपकम्‌ । यथा समस्तोपमायामुपमानोपमेय- 
योस्तदवयवाना चौपम्यम्‌, एवमिहापि रूपणमित्यर्थ. ! तच्च सहज राहार्रुभयदच तंर- 
वयवेस्त्रेवा स्यात्तरिविध भवेत्‌ 1 
उद्ह्च्- 
ललनाः सरोरहिण्यः कमलानि मुखानि केशरेदंरनेः। 


ग्रधरेदेलैश्व तासां नवबिसनालानि बाहुलताः ॥४३।। 

लखना इत्ति । एतद्वाकयरूपक सावयव समस्तविषय सहजावयव च 1 आहार्या- 

वयव तु यथा- 
गजो नगः कुथा मेघाः श्गृद्खुला पन्नगा अपि । 
यस्ता सिहोऽसिक्ञोमन्ते ्रसरा हरिस्तथा ॥। 

सावयव रूपक-- 

जहां उपमान ओर उपमेय कै अवयवो का परस्पर अभेद वणित हो, वहां 
सावथव ङपक्‌ होता है \ यह्‌ सावयव रूपक तीन प्रकार का है--सहज, आहायं तथा 
उभय (सहजाहायं ) ।४२। 

सहज से तात्पयं है स्वाभाविक, ओौर आहायं से कृत्रिम । 
सावयव समस्तविषय सहजरूपक का उदाहरण- 

वे काभिनियां कमलिनी है । उनके भूख कमल है, दाति केसर है, अधर पत्रः 
जौर बाहुताएं नवीन मृणालदण्ड है । ४३ 

यहां कामिनी उपमेय है, कमलिनी उपमान । इनके क्रमक. अवयव है-- मुख, 
दति, अधर गौर वाहुः, तथा कमक, केसर, पन्न ओौर भणाल-दण्ड । यहा इन सभी 
अवयवो का परस्पर सहज अभेद निरूपित है । 

नमिसाधु ने इस प्रसग मे तीन उदाहरण प्रस्तुत किये है- 

(१) गजो नग कुथा.*" अर्थात्‌ हाथी, पर्वे, दरी (एक विदौने का वस्त्र), 
वादक, श्भा, साप, सारथी, सह्‌, भौरे तथा हरिण शोभित हो रहै है 1 

(२) यस्या वीजमहछृतिर्गृरुतर**" अर्थात्‌ [मेरे दारा की गयी आपकी स्तुति 
भीर सेवारूप कुल्हड से आप मेरी तृष्णारूपी उस क्ता को काट दीजिए, महकार 
जिसका वीज है, भेरा-मेरा' इस प्रकार का आग्रह जिसकी मज ब्रूत जड है, सदा उसको 


२६४ काव्यालङ्कारः | कारिका ४४ 


उभयावयवं यथा-- 
यस्या वीजमहूंफृत्तिगुं रुतरं लं ममेति ग्रहो 
नित्यं तु स्मृतिरदकुरः सुतयुहुञजञात्यादयः पल्लवाः । 
स्कन्धो दारपरिग्रहः परिभवः पुष्पं फल इुगंतिः 
सा मे त्वत्स्तुतिसेवया परश्चुना वृष्णालता दृयतास्‌ 1 
इदानीं समासरूपक सावयवं समस्तविषयं सहजावयवमुदाहूर्तृमुचितम्‌, ्रन्थकृता 
तु नोदाहृतम्‌ 1 तच्चेत्य यथा- 
वचनमधु नयनमधुकरमधरदलं दशनकेसरं तस्याः 
मुखकमलमनुस्मरतः स्मरहतमनसः कृतो निद्रा 11 


समासखूयकाहार्यादाहरणमाह-- 
विकसितताराकूमुदे गगनसरस्यमलचद्दरिकासलिले । 


विलसति रारिकलहंसः प्रावृड्विपदपगमे सद्यः ॥४४।। 

विकसितेति 1 अत्र गगनमूपमेय सर उपमानम्‌ 1 तयोर्च समासः 1 तारा- 
ज्योत्स्नाशरिनो गगनस्याहार्यावयवा. । उपमानस्य तु ते याहशास्तादशा भवन्तु | 
नात्र तदिवक्षा । प्राव्रृडि वपदिति रूपकमपि नोदाहूरणत्वेन योज्यम्‌ । अवयवत्वाभावात्‌ ॥ 


स्मृति रहना अंकुर है, सन्तान, मित्र तथा सम्बन्धी आदि जिसके पत्ते है, पतनी जिसकी 
दाादहै, सासारिक परिभवं (अपमान आदि) जिसके पुष्प ह, ओर जिसका फर है 
द्गति । 

यह्‌ सावयव समस्त ॒विपय सहजाहायं रूपक का उदाहरण है । व्रष्णा-रूपी 
र्ता का वीज यहूकार है-यह अभेद कथन तो सहज (स्वाभाविक) है, किन्तु भेरा- 
मेरा' इस प्रकार के आग्रह्‌ को दृढ जड कहना आहायं अभेद-कथन है | 

(३) 'वचनमधुनयनमबुकरम्‌' “ˆ भर्थात्‌ उस रमणी का सम्भाषण मघुदहै, 
आख मधुकर है, होठ पल्लव है, दात केसर हँ ओर मूख कमलदहै, उसे स्मरण करते 
हए मु कामपीडित को नीद कहा { 

नमिसाधु द्वारा प्रस्तुत उसपद्यमे सावयवं समस्त विपय सहज रूपक का 
उदाहरण नमास-ल्प मे पस्तुत कियागयादहै। 
आद्यं समासख्पक का उदाह्रण-- 

वर्घाङ्पी विपत्ति के नद्धा होने पर चन्द्रह्पो कलहं चमकते हए नक्ष्नररूपी 


फुम दयार ओर निर्मल चांदनी ल्पी जलवा आकाक्ञ-सरोवर मे विहार कर रहा 
है \४४। 


कारिका ४५-४६ | अष्टमोऽध्याय. २६५ 


अथ समासरूपकोमयो दाहर्खमाह- 
प्रलिकूलकन्तलभा राः सरसिजवदनाश्च चक्रवाककूचाः । 
राजन्ति हंसवसनाः सम्प्रति वाणीविलासिन्यः ।४५॥ 


अखीति । अत्र वाप्य उपमेया विकासिन्य उपमानभूता. । तयोः समासोऽत्र । 
वाप्या अलिकूुलचक्रवाकहंसा । कृत्रिमा अवयवाः । सरसिजानि तु सहजा विवक्षिताः । 
विलासिन्यङ्च यथातथा भवन्तु ! न तद्धिवक्षा ॥ 


अथ निरक्यवमाह-- 
मक्त्वावयवविवक्षां विधीयते यत्तु तत्त निरवयवम्‌ । 


भवति चतुर्धा शुद्धं माला रदना परम्परितम्‌ ।४६॥ 
मुक्त्वेति 1 यत्त्ववयवविवक्षा त्यक्त्वा विधीयते तन्निरवयव रूपकम्‌ । तच्चतुर्धा । 
कथमित्याहु--शुद्धमित्यादि ॥ 


इस उदाहरण मे आकाश उपमेय ओर सरोवर उपमान है । तारे, चांदनी ओौर 
चन्द्रमा आका के आहायं अवयव है, सहज" नही । 
सहजाहायंगत समासशरूपक का उदाहरण- 

[ये] बावलो-हूपी रमणियां श्रमरकुल-रूपी केहभार को धारण किये हए, 
कमल-रूपी मुखना, चक्वे रूपी कुचों वाली तथा हंसरूपी वस्त्रों को घारण करती 
हुई शोभित हो रही है ।४५। 

यहाँ वापि्यां उपमेय है ओर विलासिनियां उपमान । इनके करमन. चार-चार 
अवथव है--अलिकुरु, कमर, चक्रवाक तथा हस, ओौर कुन्तरभार, मुख, कुच तथा 
वस्व 1 इनमे से उधर कमर ओौर इधर मुख तथा कुच ये तीन सहज अवग्रव है भौर 
रेष पाच आहायं अवयव है । 
निरवयव रूपक-- 

अवयव को चिवन्ञा से विसुक्त रूपक निरवयव कहुलाता है । उसके चार उप- 
भेद है-शयुदध, भाला, रना गौर परम्परित ।४६। 
निरवयव रूपक के चार भेदौ का लक्षण- 

[निम्नोक्त श्ोक मे उक्त चारो भेदो के लक्षण एक साथ प्रस्तुत कयि गये रहै 
जो स्वत अस्पष्ट है । यहाँ नमिसाधु की टीका भी पूर्णत" सहायक नही है । इन चारो 
का स्वरूप ग्रन्थकार एव टीकाकार के अनुसार प्राय. इसं प्रकार है-] 

(१) जहां उपमेय भौर उपमान का अभेद हो, किन्तु उनके अवयवो का 
कथन न हो, वहां शुद्ध' निरचयव रूपकं होता है । 


२६६ कान्याकद्धार | कारिका ४७-४८ 


प्रथ तन्नक्षरय्‌-- 
रुद्धमिदं सा माला रदनाया वेपरीत्यमन्यदिदम्‌ ! 
यस्मिन्नुपमानाभ्यां समस्यसुपमेयमन्याथं 11४७।। 


शुद्धमिति । इदमिति “मुक्त्वावयवविवक्षाम्‌" इति पूवेलक्षणकं सा मारुति । 
यत्रैक वस्त्वनेकसामान्यम्‌ । 'उपमीयेतानेकं रुपमानं रेकसामान्ये.' इत्येतदुपमालक्षणं यत्र 
रूपके तदित्यथ. । रजनाया वेंपरीत्यमिति । यो य. पूर्वोऽथे. स सर उत्तरेषामुपमानमिव्यु- 
पमालक्षणवेपरीत्यम्‌ । रूपकरक्नाया हि यी य पूर्वोऽथ. स स उत्तरेपामुपमेय इति । 
पञन्यत्परम्परितमिदं वक्ष्यमाणलक्षणकम्‌ । तदेव लक्षणमाह--यस्मिन्तित्यादि । य॒त्र 
दाभ्यामुपमानाम्या सहैकमुपमेयमःयस्य द्ितीयस्योपमेयस्याथं वतमान समस्यते । यत्र 
हि दे उपमाने तत्रावर्यमुपमेयद्वयेन व भाव्यमिल्युपमेयाथं उपमेय समस्यते 1 यथा-- 
रजनिपुरध्िरोघ्रतिलकर्चन्द्र इति ॥ 

एतेपामुदाहर्खानि चतवारि यथाक्रममाह-- 


कृ. पूरयेदशलेषान्कामानुपरामितसकलसंतापः । 


्रखिलाथिनां यदि त्वंन स्याः कल्पद्र्‌ सो राजन्‌ ।\४८।। 


(२) अहाँ एक उपमेय के अनेक उपमान हो, वह माला [निरवयव ] रूपक 
होता है । 

(३) जहां इस [माला | के निपरीन बात हो, अर्थात्‌ पूर्व-पर्वं उपमेय उत्तर- 
उत्तर का उपमान बनता जाए वहां रक्ननोपसा [निरवयव ] रूपक हीता है । 

(४) जहां दो उपमानों के साथ एक उपमेय अन्य उपमेय की अपेक्षा स्वे, 
श्र्थातु दो उपमानां के साथ दो उपनेयो का होना आवश्यक हो, वह परभ्परित रूपक 
होता है ।४७। 
शुद्ध निरवयव रूपक का उदाहरण-- 

है राजनु ! यदि तुम सन जीवों के संताप को शान्त करने वाके कल्पवृक्ष न 
होभो तो कौन सव याचकों की अभीष्ट कामनाभों कौ पूणं करे ।४८। 

यहां राजा गौर कल्पवृक्ष का अभेद-कथनतो है, किन्तु प्रजा, शाखा आदि 
इनके अवयवो का निदेण नही है । अत निरवयव रूपक है । यहाँ माला, रडना ओर 
परम्परित भी नही है, अतः गुदढ है! 

नमिसानु हारा प्रस्तुत ^नीचोऽपि"“-' पद शुद्ध निरवयव समास-रूपक' का 
उदाहरण हे । क्योकि पाद भौर पद्मयुगक मे अभेद-कथन के कारण शुद्ध निरवयव- 
रूपक है, तथा पाद-पश्चयुगल' मे समास है- 

इस रोकं मे आपके चरणकमलों मे रहने पर नीच, मन्दबुद्धि, अकुलीन, भीरः, 


कारिका ४६-५० | अष्टमोऽध्यायः २६७ 


क इति । अत्र राजा शाखादिभिरवयवंविना केत्पद्र्‌ मेण रूपितः । एतच्छुदं 
वाक्यरूपकम्‌ । ससासरूपक तु यथा-- 


नीचोऽपि मन्दमतिरप्यकलोद्धनोऽपि मीर- शठोऽपि चपलोऽपि निरुयमोऽपि । 

त्वत्पादपद्मयुगशके भुवि युप्रसन्ने संहश्यते ननु सुरंरपि गौरवेण ॥ 

सयालासमा€- 

कूषुमायुधपरमास््र लावण्यमहोदधिगुणनिधानम्‌ । 

प्रानन्दमन्दिरमहो हदि दयिता स्खलतिमे शत्यम्‌ 11४९] 
कुयुमेति । अत्रंका दयित्ता विरहिहूदयदारणायनेकवमेयोगात्कुसुमाथुधपरमा- 


ऽस्त्रादिभिरनेकौरुपमानं रेकंकधमयुक्तं रूपिता 1 अत्र वाक्यमेव । रशनापरम्परितयोः 
समास एव संभव इति ।॥ 


र शनालूपकसाह- 
किसलयकरेलंतानां करकमलैः कामिनां जगज्जयति । 
नलिनीनां कमलमूखंमृखेन्दुभिर्योषितां मदनः ॥५०॥ 


किसलयकररिति । अत्र यो य" पूर्वोऽथं किसलयादिक स स उत्तरेषा करादी- 
नामूपमेय इति ॥ 


दृष्ट, चंच तथा आलम्ती मनुष्य को भी देवता लोग सम्मान से देखते है । ॥ 
माखारूपक का उदाहरण - 

कामदेव की परम "अस्त्र, सुन्दरता की सागर, गुणोंको कोकः आनन्द का 
निकेतन यह्‌ प्रिथा मेरे हृद्य मे श्चुल फकती है 1 ४९€। 

यहां उपमेय (श्रिया) का अनेक उपमानो के साथ अभेद-कथन है । अत. यहाँ 
'माङारूपक' है । 
रदनारूपक का उदाहूरण-- 


रताओ कै किसलय-रूपी हाथों से ओर कामियों के हाथरूपी कमलो से 
जगत्‌ वन्दनीय है, ओर कमलिनियों के कमल-रूपी मुो से तथा कामिनियों के मुल- 
रूपी चमा से कामदेव धन्य है ।५०। 

यहां पहर जो उपमान-ल्प मे वणिर्त है, वे वार्दमे उपमेयसू्पमे वणित 
है । अत. यहां रदाना-रूपक हँ । किंसख्यकर' मे किसलय (कमर्‌ पत्र} उपमान है तो 
'करकमल' मे उपमेय 1 इसी प्रकार कमलमुख' मे मुख उपमान है तो 'मृचेन्दु' मे 
उपमेय \ 


२६८ कान्यारुङ्धाररः | कारिका ५१-५२ 


परम्परितमाह- 

स्मरशवरचापयष्टिर्जयति जनानन्दजलधिश्लिलेखा । 

लावण्यसलिलसिन्धुः सकलकलाकमलसरसीयम्‌ ।५१।। 

स्मरेति 1 अतव्रंक. स्मर उपमेयो द्वाम्यामुपमानाभ्यां दावरतापयष्टिभ्यामन्यस्य 
नाथिकालक्षणस्य पदा्थस्या्थं समस्यते । स्मरस्य शवर उपमानम्‌, नायिकायार्चाप- 
यष्टिः । स्मर एव इावरस्तस्य नायिका चापयष्टि. । यथा शवरङ्चापयष्टचा हूरिणा- 
दीनि विध्यति, एव स्मरस्तया कामिन इत्यथ. । एवमन्यत्रापि योज्यम्‌ । 

संकीरामाह-- 

उपमेयस्य क्रियते तदवयवानां च साकमुपमानः। 

उभयेषां निरवयवेविनेयं तदिति संकीर्णम्‌ ॥५२॥ 

उपमेयस्येति 1 उपमेयस्योपमेयावयवाना च सहजाहार्योभयरूपाणामुपमानं - 
रुभयेषामपि निरवयवः सह्‌ यद्र पण क्रियते तत्सकीर्णं नाम ज्ञेयम्‌ 1 एवं च सहजा- 


दयवयवभेदजत्वात्‌ त्रिधा भवति । उभयेपामित्यनेनोपमेयस्तदवयवाईच नि दिदयन्ते ॥ 


परम्परित पक का उदाहरण- 

यह्‌ [नायिका] कामदेव रूपी भील का धनुष है । यहु लोगों के आनन्द रूपी 
समद्र के किए चन्द्रकला के समान है, ओर लाचण्यरूपी जल का सागर है, तथा सम्पण 
कलारूपी कमलो का सरोवर है ।५१। 


"इयं स्मरदावरचापयष्टिः' का अर्थं है कि यह्‌ [नायिका] कामदेव ङ्पी शवर 
का धनुप है । नायिका (उपमेय) को चापयष्टि तभी कहा जा सकता है जव नायिका 
से सम्बन्धित किसी वस्तु को "चापयष्टि से सम्बन्वित्त वताया जाए, अत यर्हा स्मर 
(नायिकासे सम्बन्धित वस्तु) का उपमान जवर (चापयष्टि से सम्बन्धित वस्तु) 
वनाया गया है । अत. यहाँ परम्परित रूपक है। इस समग्र पद्य का भाचाथं यह्‌ दै 
कि जिस प्रकार शवर धनुपसे मृग अदिका वध करतारहै, उसी प्रकार कामदेव 
नायिकाकेद्वारा कामी पुरुषो कावध करता है। 


[ जहा | उपमेय का तया उसके अवयवो का उपमानों के साथ [साह्य 
बताया जाए, किन्तु यह साहङय उपमेय ओर उपमान] दोनों के अवयवो के साथ 
घटित न ह, [वहा ] संकीणं रूपक जानना चाहिए ।५२। 


नमिसाधु के अनुसार अवयव सहज ओर आहार्य दोनो प्रकारके हो सकते है 1 


कारिका ५३-५५ | अष्टमोऽध्यायः २६९ 


उदाहर्खानि- 

लक्ष्मीस्त्वं मुखमिन्दुनेयने नीलोत्पले करौ कमले । 
केशाः केकिकलापो दशना श्रपि कुन्दकलिकास्ते ॥५३॥ 
लक्ष्मीरिति । नायिकात्रोपमेया । तदवयवाङ्च सहजा मुखादय. । लक्ष्मीचन्द्र- 


प्रभृतीनि चोमयेपामुपमानानि निरवयवानि । नहि लक्षम्यादचन्द्रादयोऽवयवा. । उपमेय 
सावयवमूपमानेपु विपर्यय इति सकीणंत्वमिति । 


त्रथाहायावयवो दाहर्खमाह-- 
सुतनु सरो गगनमिदं हंसरवबो मदनचापनिर्घोषः। 
कु मुदवनं हरहसितं कुवलयजार दृशः युदुशाम्‌ । ५४1 
सुतन्विति । हे सुतनु, इद सर शरदि नि्म॑त्वाद्विस्तीणंत्वाच्च गगनसहश- 
मित्यर्थ. । अत्र च गगनकामधनूर््वनिहरहसिततरुणीहशो निरक्यवोपमानानि । उपमेय 
सर. । तदवयवा हसरवक्रमुदवनक्ूवल्यजाकान्याहार्याणि विवक्षितानीति ।। 
अथोभयावयवमाह-- 
इन्द्रस्त्वं तव॒ बाहू जयलक्ष्मीट्ारतो रणस्तम्भो । 
खडगः कृतान्तरसना जिह्वा च सरस्वती राजन्‌ ।५५॥। 
उदाहरण (सहजावयव)- 
हे नायिका ! तुम लक्ष्मीहो ! तुम्हारा मुख चन्द्रमा है, अखि नील कमलदहै, 
दोनों हाथ कमल हैँ 1 तुम्हारे के मोरपंख है ओर रदति कुन्दकली हें ।५३। 
यहाँ नायिका उपमेय है ओौर लक्ष्मी उपमान है, किन्तु नायिका के मुख, 
नयन आदि सहज अवयवो की सहशता जिन (उपमानावयवो) सेदी गयीदहै, वे 
लक्ष्मी के साथ सम्बद्धनहीहै। 
उदाहरण (आहायं अवयव )-- 
है सुन्दरि ! थह तालाब आकाश है। इसमे हंसों का शब्द कामदेव के धनुष की 
टकार है, कुभुदवन महादेवजी का शश्र हास है ओर नीरे कमल सुन्दिरियो के नेत्र ह । ५४! 
यहां ताव उपमेय है ओर आकाश उपमान, किन्तु तारावके हट्‌सरव, 


कुमुदवन आदि आहायं अवयवो की सहशता जिन उपमानावयवोसे दी गयी है, 
वे आकाश से सम्बद्धे नही है। 


उदाहरण (सहज एव आहायं )-- 
है राजन्‌ ! तुम देवराज इन्द्र दहो! तुम्हारी भुजां विजयद्ार के तोरण- 
स्तम्भ है \ खड्ग महाकाल की जिह्व है ओर तुम्हारी जद्धा सरस्वती है \५५। 


२७० कान्यालद्धारः [ कारिका ५६-५७ 


इन्द्र इति । अत्र राजोपमेयः । तदवयवाईच वाहुवडगजिहवाः सदह्जाहाया. । 
इन्द्रजयलक्ष्मीद्ारतो रणस्तम्मादीनि निरवयवोपमानानि 1 एतेपु वाक्यभेद एवेति ॥ 
समस्तविषयरूपकं निरूप्य दानीमेकदे शिरूपकमाह- 
उक्तं समस्तविषयं लक्षणमनयोस्तयेकदेशीदम्‌ । 


कमलाननेनलिन्यः केसरदरानं. स्मित चक्रुः ॥५६। 
उक्तमिति । अनयोर्वाक्यिससासरूपक्रयोयंत्समस्तविषयं लक्षण तत्सावयव रूप- 
यद्धिरुक्तम्‌ । तथकदेशीदमार्योत्त रार्धेनोदाद्धियते । यथा--क्रमरेत्याद्वि । भत्रावयवा- 
नामेव कमक्केसराणा मूखददानं रूपण कृतम्‌, न तु पद्यिन्या अद्धनयेत्येकदेशित्व- 
मिति ! अन्यदपि रूपके सगत नाम विद्ते । यत्र सगताथेतया रूप्यरूपकभावः यथा 
काठिदासस्य-- 
रावणावगश्रहुकष्लन्तमिति वगभतेन सः 1 
अभिवृष्य मरत्सस्यं इृष्णमेघस्तिसेदधे ॥ 
अत्र न सावयवादिन्यपदेश । तत्‌ क्वेदमन्तभेवतीव्युच्यते--सामान्ये रूपकरक्षणम- 
भिधाय तस्य वाक्यसमासभेदौ व्यापकौ उक्तौ । तयोश्च सावयवादिभेदा यथासभव 
योज्या । ततस्तस्मिन्‌ मूभेदद्रये सगताद्यनुक्तभेदानामन्तर्भावः।। 
प्रथापहूनुतिः- 


ग्रति साम्यादुपमेयं यस्थामसदेव कथ्यते सदपि । 
उपमानमेव सदिति च विज्ञेयापहुनुतिः सेयम्‌ ।५७॥ 


एकदेशी रूपक-- 

समस्त-विषयी रूपक का स्वरूप-नि्देश कियाजा चुका है। अनं इन दोनों 
[उपमेय ओर उपमान] के एकदेशी [रूप का उदाहरण प्रस्तुत] है-- 

कमकिनियों ने कमलरूपी मुखो से [तथा] परागरूपी दतां से स्मित 
किया ५६। 

यहो कमल तथा मख ओौर पराग तथा दति-अवयवोकादी निदश है। 
अत. एकदेशी रूपक है । 
नमिसाधु हारा प्रस्तुत रूपक का एके अन्य उदाहूरण- 

रावणरूपी अनाब्ृष्टि से म्लान देवतारूपी कपि पर अपनी व।णीरूपी अमृत 
से वर्पां करके विष्णु रूपी [कृष्ण] मेव अन्तर्धान हये गये ! 
४. च्रपदरूनुति 

जहां अति साह्य के कारण सत्य [होने पर भमी उपमेय को असत्य कहकर 
उपमान को सत्य ] सिद्ध किया जाता है वहां अपटहनुति अककार होता है ।५७। 


1 


#। 
: 


कारिका ५८६० |] , अष्टमोऽध्याय. २७१ 


अतिसाम्यदित्ति। यस्यामुपमानोपमेययोरत्यन्तसाम्यादूपमेय प्रस्तुत वस्त्वविच्य- 
मान कथ्यते, उपमानमेव सत्तया, सेयमपहनुतिर्नाम । उत्प्क्षाया व्याजादिशब्देरूपमेयस्य 
सत्त्वमप्युच्यते, इह नु सवंयवापह्वव इति विशेष ॥ 

उदाहरखम्‌- 

नवविसकिसलयकोमलसकलावयवा विलासिनी संषा । 


प्रानन्दयति जनानां नयनानि सितांशुलेखेव ।५८॥ 


नवेति । अव्रात्तिसादद्याद विखासिनीमूपमेयमपहूनुत्य शरिकलाया उपमानस्येव 
सावः कथित. ।। 


रथ संशयः- 
वस्तुनि यत्रैकस्मिन्ननेकविषयस्तु भवति संदेहः । 
प्रतिपत्तुः साद््यादनिश्चयः सशयः स इति ।५६।। 
वस्तुनीति 1 यत्रैकस्मिन्वस्तुन्युपमेये प्रतिपत्तुरनेकविषय साहश्यात्सदेहो मवति, 
अनिश्चयान्त. स इत्येव प्रकार" सशयनामालकार । तुविशेषे ॥ 
उदाहरणवा 
किमिदं लीनालिकरुलं कमलं किं वा मुखं सुनीलकचम्‌ ! 
इति संशेते लोकस्त्वयि सुतनु सरोवतीर्णायाम्‌ ॥६०॥ 
उदाहरण- 
नये कमलपन्न के समान कोमल अंगों वालो यहं विलासिनी रोगों के नेत्रोंको 
चन्द्रकला के समान आनन्द देने वाली है ।५८। 
रद्रट-प्रस्तुत यह्‌ उदाहरण वस्तुत अपह्नुति के स्वरूप का सम्यक्‌ द्योतक नही है । 
इसके किए विक्वनाथ-प्रस्तुत निम्नोक्त पद्य अवलोकनीय है-- 
नेदं नभोभण्डलमम्बुराशिर्नताक्च तारा नवफेनमङ्धाः । 
नायं शश्च कुण्डलितः फणीन्द्रो, नासौ करकः शयितो मुरारिः ॥ 
यहं जाकारमण्डल नही है, सागर दहै, ये तारे नही हैँ [सागर के जरू पर| नयी- 
नयी ज्ञागकेक्णदहै, यह्‌ चन्द्रनहीरहै, कुण्डली मारे हुए शेषनाग है, यह [चन्मे 


स्थित | कलक नही है, भगवान्‌ [कृष्णवणं | मुरारि हायन कर रह है ! 
५. संशय 
जहां किसी व्यक्ति को साद्य के कारण एक वस्तु (उपमेय ) मेँ अनेक विषयों 
का सन्देह हो जाएु बहा अनिश्चय नामक संशय अलंकार होता है । *६। 
उदाह्रण-- 
है सुन्दरि ¡ जव तुम तालाब मे प्रवेश करती हो, लोग तुम्हारे भख को देख 


२७२ कान्याकद्धूारः | कारिका ६१-६३ 


किमिति 1 अत्र॑कस्मिन्मूखे कमरमुखविषय, साटृश्यादनिश्चयसंशयः ॥ 


अ्रकरान्वरमाह-- 

उपमेये सदसंभवि विपरीतं वा तथोपमानेऽपि । 

यत्र स निरचयगभंस्ततोऽपरो निश्चयान्तोऽन्यः ।६१। 

उपमेयं इति । यत्रोपमेये यद्वस्तु तेव सभवति तत्सत्कथ्यते, विपरीत वा 
यत्सत्तदसमभवि कथ्यते, अथोपमाने यदसभवि तत्सत्‌, यच सत्तदसभवि कथ्यते स निङ्चय- 
गभषख्यि. सशयो भवति ! ततोऽन्यथा तु यत्र पर्य॑रते निर्चयो भण्यते सोऽन्यो निश्चया- 
स्ताख्यः सशयो हितीयः । पूर्वोक्त सामान्यं सक्चयलक्षणमुभयत्र योज्यम्‌ 1 


निश्चयग्भादाहर्यमाह-- 

एतत्किं शरिबिम्बं न तदस्ति कथं कलङ्कुम _्केऽस्य । 

कि वा वदनमिदं तत्कथमियसियती प्रास्य स्यात्‌ ।\६\२॥ 

कि पुनरिदं भवेदिति सौधतलालक्ष्यसकलदेहायाः । 

वदनमिदं ते वरतनु विलोक्य संशेरते पथिकाः ।६२।। 
(युग्मम्‌ ) 


एतदिति । कि पुनरिति । अत्रोपमानि राशिनि सभविनः कल द्खुस्याभाव, उपमेये 
त्वसभविनः प्रभावाहुत्यस्य सद्धाव उक्तः । वंपरीत्यं तु नोक्तम्‌ । तदन्यत्र द्रष्टव्यम्‌ । 


कर संशय करते हँ कि क्या यहु रमरगभित कमल है अथवा कृष्ण केशों से युक्त 
मुख है ।६०। 
अन्य प्रकार-- 

जहाँ उपमेय मे असम्भव वस्तु की निद्मानता बतायी जाए, अथवा इसके विप- 
रीत [सम्भव] वस्तुं की अविद्यसानता बतायी जाए, [इसी प्रकार] उपमानमेमी 
[यही दोनों रूप बत्तये जाए], वहां निश्चयं नामकं संशय अलंकार होता है, [ओर 
यदि जन्त में निश्चय हौ जाए, तो वहो | निश्चयान्त संशय अलंकार होता है ।६९। 
उदाहरण (निश्चयगमे)-- 

व्या यह्‌ चन््रनिस्बहै ? यदिदहैतो इसमे कज्ड्‌ क्यों नही है ? क्था यहु भख 
है? यदि यह्‌ मुखै तो इसकी इतनी प्रमाकंसेहै? फिर यहंक्याहो सक्ता? 
हे सुन्दरि ! महल की छत पर तुम्हारे सारे शरीर के दिप जाने के कारण केवल 
तुम्हारे मुख को देखकर पथिक लोग इस प्रकार सन्देह कर रहै है !६२-६३। 


ठ १ 


कारिका ६४ | अष्टमोऽध्यायः २७३ 


निश्चयानतमाह- 

किमयं हरिः कथं तद्गौरः किवा हरः क्व सोऽस्य वृषः । 
इति संराय्य भवन्तं नाम्ना निरिचन्वते लोकाः ।६४॥ 
किमिति । अत्रोपमाने कृष्णे गौ रत्वमसभति विद्यते । हरे च सभविनो वृषस्या- 


भावः । नामग्रहणाच निश्चय. । अस्मिन्नि्चयान्ते सशयगर्भलक्षणापेक्षा नं कायति । 
तेन “उपमेये सदसभवि' (८६१) इत्यादिलक्षणाभावेऽपि मवति । यथा माघस्य-- 


क्रि तावत्सरत्ति सरोजमेतदारादाहोस्विन्मुखमवमासते तरुण्याः । 
संश्चय्य क्षणमिति निश्चिकाय करिचद्धि्नोकं्ब कंसहवासिनां परोक्षः ॥ 
इति । अन्येऽपि सरायभेदा विद्यन्त एव ! यथा- 
यन्नोक्तेऽपि निवतेत सदेहो नेव साम्यतः. । 
संशयोऽन्य. स विज्ञेय. शेषगभेः स्फुटो यथा ॥ 
पत्यग्राहितचित्रवणं कृतकच्चछायो सयाद्यक्षित 
सौधे तत्र स कोऽपि कः पुनरसावेतन्न निश्चीयते । 
चाक्थं वक्ति न वक्त्रमस्ति न श्णोत्यसावरम्विश्नुति- 
इचश्चुहमांडच निरीक्षते न विदितं तत्स रुवं पथवः ॥ 


उदाह्‌रण-- 

क्या यहु हरि? नही, यह तो गौरवेण ह! तोक्या यह्‌श्िवर्हैः नही, 
इसके पास बल कहां है ? हे राजन्‌ ! इस प्रकार लोभ आपके विषय में संश्षय करते 
है, ओौर आपके नाम से ही आपका निद्चय करते है 1६४ 

नमिसराधुने इसी प्रसगमे सङयके विभिन्न रूपो से सम्बद्ध निम्नोक्त चार 
उदाहरण प्रस्तुत किये दै- 

१. “कि तावत सरसि""*" अर्थातु यह्‌, सरोवर मे दुर से दीखमे वाखा कमल हैः 
अथवा युवती का मूख शोभित होरहारहै? इस प्रकार थोडी देर संशय मे पडकर 
किसी [कामी] ने बगुरो के सहवर्ती [कमले] के अप्रत्यक्ष (अविद्यमान) विलासोसे 
निदचय कर च्या [किं यह युवतीकाही मुख है] । 

२. जहां कह्‌ देने पर भी, साह्य के कारण सन्देह दुर नही होता, उसे शेष- 
गभं नामक सराय का एक अन्य प्रकार जानना चादिए 1 यथा- 

"्रत्यग्राहितचित्नवणे* “ˆ अर्थात्‌ मने आज महल मे किसी को देखा, उसकी 
विचित्र वणं की कृत्रिम कान्ति थी । वह्‌ कौन था इसका निर्चय नही हमा 1 वह्‌ विनां 
मुख के बोल रहा था, उसके कान कन्धो तक फंङे हुए (विशार) थे, किन्तु वह्‌ सुन नही 
रहा था, नेत्रयुक्त होने पर भी वह्‌ देख नही रहा था 1 अहो, जान छिया, वहु राजा धा । 


२७४ काव्यालद्धुारः [| कारिका ६५ 


तथा-- ` 
उपमेयमपह्ल.व्य॒संदेश्युरयत्र कथ्यते 1 
उपभानमसावन्य' संक्ञयो हर्यते यथा ॥। 
थो गोपीजनवल्ल्मः स्तनतटन्यासङ्खलन्वास्पद- 
इछायारान्नवरक्तको बहुगुणद्िचित्रहचवुहुस्तकः । 
कृष्ण सोऽपि हताक्या ग्यपहूतः कान्तः कयाप्यद्य मे 


{क राधे मधुसुदनो नहि नहि प्राणाधिकडचोलकः ।। 
तथा-- 
भतिशयकारिविेषणयुक्त यन्नोपमेयमुच्येत । 


साम्यादुपमनगते सदेह सशयः सोऽन्य. ॥ 
यथा-- 


भुजतुलिततुद्ध मुभरत्स्वविक्रमाक्रान्तमूतलो जयति । 
किमयं जनार्दनो नहि सकल्जनानन्दनो देव. ॥ 
एवमन्येऽपि संशयप्रकारा लक्षणानुसारेण बोद्धन्या इत्ति ॥ 
भूयोऽपि मेदान्तरमाह्- 
यत्रानेकव्राथं संदेहस्त्वेककारकत्वगतः । 
स्यादेकत्वगतो वा साद्र्यात्संलय. सोऽन्यः ।1६५।। 


[ण 


३. जही सन्देह करने वाले मे, उपमेय को छिपाकर उपमान का वणन कर 
दिया जाए, वर्ह सशय का एक अन्य प्रकार होत्ता है । जंसे- 

"्यो मोप्रीजनवत्टम ˆˆ-" अर्थात्‌ वहु गोपियोका प्रियदहै, उनके स्तनोका 
सम्पकं उसे प्राप्त है, सुन्दर कान्ति से युक्त दै, रागपूणं (रगा हृञा, अनुरागथुक्त) है, 
अनेक गुणो (तागो) से युक्त है, विचित्रहै, चार हाथ परिमाणकादहै, मेरे उस सुन्दर 
कृप्ण का किसी दृष्टा ने अपहरण कर लछियादहै। ह रावे । क्या मधुसुदन का [अपहरण 
कर किया? | नही, नही, मेरी प्राणाधिक चोटी का । 

४. जर्हा उपमान-विपयके सन्देह होने पर साह्य के कारण उपमेय को अति- 
दायोक्तिपुणं विदेपश्मो से युक्त कहा जाए, वर्ह मनय का एक भौर प्रकार होता है । जंसे- 

भरुजाभो से ॐत्रे-ऊचे पवतो को वारण करने वाक गौर अपने विक्रम [पादा- 
क्षेप] से भुवन को व्याप्त करने वा्लेकौो जयदहो। क्या जनार्दन कृष्ण की ? नही, 
तरी, सव लोगो को आनन्दित करने वारे महाराज की । 
अन्य प्रकार-- 

जहां साहश्य के कारण उपमान ओर उपमेय में [कर्ता आदि] क्रारक्ते से 
सम्बद्ध [इस प्रकारका] सन्देहलो कि [किसी क्रियाका] कारक [उपमान है 


॥, 


कारिका ६६-६७ | अष्टमोऽध्याय. २७५ 


यत्रेति 1 सोऽयमन्य. संशयो यत्रानेकच्ोपमानोपमेयलक्षणेऽथं कर्वादिकारकत्व- 
विपय सयो भवतति । अस्या. क्रियायाः किमुपमान कारके स्यादुतोपमेयमित्ति, इत्थं यत्र 
भ्रान्तिरित्यथैः । तथंकत्वगतो वेति यत्रोपमानोपमेययोरक्ये सभाव्यमान एकस्य तात्विक- 
मन्यस्यातात्तविकमिति सदेह इत्यथ. ॥ 

उदाहरण्द्रयमप्याययेकमाह-- 

गमनमधीतं हसेस्त्वत्तः सुभगे त्वया नु हसेभ्यः। 

किं शिनः प्रतिबिम्बं वदनं ते कि मुखस्य शरी 11६६॥। 

गमनमिति । अच्राद्यार्धेऽभ्ययनक्रिया प्रति कतु त्वसंदेहं उक्तः । द्वितीये तु मूख- 
दारिनोस्तात्तिकातात्त्विकत्वमेकच् सदिग्धमिति । अथाय कोऽलकारः । यथा भारवेः 
"रञ्जिता नु विविधास्तरुलला नामित नु गमन स्थगित नु! पूरिता नु विषमेषु धरित्री 
सहता नु ककुभस्तिमिरेण ।+ ओौपम्याभास दति केचित्‌ । उत्प्रेक्षवेयमित्यन्ये ॥ 

पथ ससासोक्ति- 

सकलसमानविरदेषणमेकं यत्राभिधीयमानं सत्‌ । 


उपमानमेव गमयेदुपमेयं सा समासोक्तिः |} ६७\। 

सक्ति 1 यत्रेकमुपमानमेवोपमेयेन सह्‌ सकलसाधारणविशेषणमभिधी यमानं 
सदुपमेय गमयेत्सा समासोक्ति. । ' सकरग्रहण मिश्रत्वनिवृत््यथंम्‌ । एकग्रहण तुपमेय- 
वाचिपदप्रयोगनिवृत््य्थम्‌ । सद्ग्रहण प्रतिपादनस्मर्थत्वख्यापना्थंम्‌ ॥ 
अथवा उपमेय |; वहां एक अन्धं प्रकार का संशय अलंकार होता है 1६५। 
उदाह्रण- 

हे सुन्दरि ! क्या हंसो ने तुम्से तुम्हारी चाल सीखीदहै, यातुमने हंसोसे 
उनकी चाल सीखी है ? क्या तुम्हारा भुल चन्रमा का प्रतिनिम्बदहै, या चन्द्रमा तुम्हारे 
मुख का प्रतिबिम्ब है २६६। 

यहाँ कर्ता कारके के विषयं मे सन्देह है । 
नमिसाधु-प्रस्तुत एक अन्य उदाहरण- 

वेया अन्धकार ने अनेक वृक्षो भौर पवतो को रग दिया? क्याआकाश्को 
[पृथ्वी तक] जुका दिया है ? क्या आका को आच्छादित करदियादहै? क्या ऊचे- 
नीचे स्थानो को भरकर पृथ्वी को समतरु बना दिया रहै, क्या दिल्ाभोका कोप केर 
दियादह। 
१. समासोक्ति 

जहां कोई उपमेय उपमान से घटित होने योग्य विहेषणो से कथित होने के 
कारण उपमान की प्रतीति कराए वहा समासोक्ति अलंकार होता है ।६७। 


२७६ काव्यालद्धुारः [ कारिका ६८-७१ 


<दहश्ययाह- 
फलमविकलमलघीयो लधुपरिणति जायतेऽस्य सुस्वादु ] 
प्रीणितसकलप्रणयिप्रणतस्य सदुन्नतेः सुतरोः॥६५॥ 
फलमिति । फलमाभ्रादिकम्‌ । हष्टार्थश्चेत्यत्र तरुरुपमान गुणसाधम्यत्सित्पुरुष- 
मेव गमयत्ति ॥ 
त्थ मतम्‌- 
तन्मतमिति यचोक्त्वा वक्तान्यमतेन सिद्धमुपमेयम्‌ । 


बरूयादथोपमानं तथा विशिष्टं स्वमतसिद्धम्‌ ।।६६॥ 
तदिति 1 तत्मतनामारकारः 1 इत्यमूनां वक्ष्यमाणप्रकारेण 1 यत्र वक्तान्यमतेन 
पराभिप्रयेण सिद्धं लोकप्रतीतमुपमेयमुवत्वा प्रतिपाद्योपमान ब्रयात्‌ । किभूतम्‌। 
तथाविशिष्टमुपमेयधर्मंसदशम्‌ । पूनस्च कीहकम्‌ । स्वमतेन स्वाभिप्रायेण तथोपमानत्वेन 
सिद्धम्‌ । उपमेयमेव तत्त्वतस्तदित्यथ- । 
उदाहरमाह-- 
मदिरामदभरपाटलमलिकुलनीलालकालिधम्मिल्लम्‌ । 
तरुणोमुखमिति यदिदं कथयति लोकः समस्तोऽयम्‌ 11७०॥ 
मन्येऽहमिन्दुरेष स्पुटमुदयेऽरुण रुचिः स्थितैः पञ्चात्‌ । 
उदयगिरौ छद्यपरेनिशातमोभिगु हीत इव ।७१॥ (युग्मम्‌) 
उदाहरण-- 
सव प्रेमियों को प्रसन्न करने वाले शरेष्ठ उन्नति रूपी इस सुन्दर पेड का फल 
मी सुन्दर, बडा, स्वादिष्ट एवं शीघ्र पचने वाला होता है 1६८ 
यहां वणित फ्दार वृक्ष से किसी सत्पुरुप की भी प्रतीत्ति होती है । 
० मत 
जहां वक्ता अन्यो के मत से सिद्ध (लोकप्रसिद्ध) उपमेय का वर्णेन कर [उसी 
फे समानधर्मा होने से] अपने अभिप्राय को सिद्ध करने के चिए उपमान का वर्णन 
करे वहां मत नामक अलंकार होता है । 1६६। 
उदाहरण-- 
मदिरा के मदं से कुकु लार गीर च्रम-समूह्‌ के समान काले चालो की 
वेणी वाक्त यह्‌ तरणो का मुख है -एेसा सभी जोग कहते है, किन्तु मेरा चिचारहै कि 
यह्‌ चन्रमा है मर अमी-अभमी उदय होने से कु-करुद् जाल है, तथा उदयगिरि पर 
स्थित रात्रि के कुटिकं अन्वकार ने इसे सम्मवतः पी से पकड़ रला है ।७०-७६९। 


५७: न्क्व केक = "कद का ह ति 
पि ति त, सकनथैनन चनम कन ७१ “ध्‌ त 


कारिका ७२-७३ 1] ` अष्टमोऽध्याय 2७७ 


मदिरेति ! मन्य इति 1 अत्र मुखमुपमेयं छोकमतेनोक्त्वा स्वमतेनेन्दुमाह । 
विक्ञेषणानि तुल्यानि । तथा हि मूख मदिरामदभरेण लोहितमिन्दुर्दयारुणकान्ति" । 
मुखं कृष्णकेशकलपेन युक्त शरी निशातमोभिः ॥ 

्रथोत्तरम्‌ - 

यत्र ज्ञातादन्यत्पृष्टस्तत्त्वेन ववत तत्तुल्यम्‌ । 

कार्यणानच्यसमख्यातेन तदुतरं ज्ञेयम्‌ ।।७२॥ 

यत्रेति । यत्न वक्ता ज्ञातात्प्रसिद्धादुपमानलक्षणादन्यदुपमेयभूत वस्तु पृष्टः 
सस्तत््वेन तद्भावेन तत्तृल्यमुपमानसहश वक्ति । तत्तृल्यतापि कुत इत्याहं-करा्येण ! 
कीदृशेन । अनन्यसमेन स्यातन च । तदुपमान वजंयित्वान्यत्राविच्यमानेन । तत्र च प्रसिदे- 
नेत्यर्थ. । अथ परिसंख्याया वास्तवोत्तरस्यास्य चोत्तरस्य को विशेष" । उच्यते-परि- 
सख्यायामज्ञातमेव पृच्छति नियमप्रतीतिद्चौपम्यामावश्च । कि सुखमपारतन्त्यम्‌' 
(७1८०) इत्यत्र ह्यपारतन्न्यमेव सुखं नान्यदित्यथं । इह तु ज्ञातादन्यत्पृच्छयते, न च 
नियमप्रतीत्तिरस्ति, ओौपम्य च विद्यते । यथा “क्रि मरणम्‌" (८।७३) इत्यादि । वास्त- 
वोत्तरे तरु न नियमप्रतीतिनप्यौपम्यसद्धाव । केवर प्रदनादुकत्तरमात्तकथनमेव 1 यथा 
लक्ष्मीसौराज्यादि तत्र कथित्तम्‌ ।। 

अथो दाहरणमाह-- 

क्रि मरणं दारिद्र को व्याधिर्जीवितं दरिद्रस्य । 

कः स्वर्गः सन्मित्रं सकलत्रं सूप्रभुः सुसुतः ।७३। 

किमति । अतरमररणासप्राणत्यागसकाशात्प्रतीतादन्यत्पृष्टो वक्ता कार्येणाकिचि- 


' कतकरत्वदु.खकारित्वादिना तत्तुल्य दारिद्र मरणमिव कथितवान्‌ ॥ 


८ उत्तर 


जहां प्रसिद्ध उपमान से पथक्‌ उपमेय के विषय में प्रदन किये जाने पर वक्ता 
अनन्य समान (उपमान को छोड़कर अन्यत्र अविद्यमान) तथा प्रसिद्ध उपमान के 
संह उत्तर देता है, वहां उत्तर अलंकार होता है ।७२। 
उदाह्रण-- 

मृत्यु क्याहै ? दरिद्रता । रोगक्यादहै? दरिद्र का जीवन । स्वगं व्याह? 
अच्छा मिज, सुलक्षणा स्त्री जौर भेष्ठ स्वामी ।७३। 


मृत्यु क्या है--इसका उत्तर दाता प्राणो का निकर जना, किन्तु वक्ताने 


मृत्यु-तुल्य किमी अन्य पदाथं (दरिद्रता) का उत्तर दियाहै। इसी प्रकार अन्य प्रन 
एवं उत्तर भी ज्ञातन्य है । 


२७८ कान्यालद्ुारः [ कारिका ७८-७६ 


त्रथान्यीक्तिः-- 
ग्रसमानविरेपणमपि यव समानेतिवृत्तमुपमेयम्‌ । 


उक्तेन गम्यते परमुपमानेनेति साऽन्यो क्तिः ।७४।। 
असमानेति । यत्रासाधारणविदेपणमप्युपमेयमूपमानेनोक्तेन पर केवरं गम्यते 
प्रतीयते से्युक्तेन प्रकारेणान्योक्तिर्भवति । यनु यद्यसमानविगेपण तत्कथ तेन गम्यत 
इत्याह्‌-समानेतिवृत्तमित्ति । समानं सदुजमितितवरृत्तम्थेव रीर यस्य तत्तथोक्तम्‌ । यत 
उपमानतुल्यव्यवहारमुपमेयमतस्तेन गम्यत इत्यर्थं । अपिच्चव्दाक्किचित्समान विशेषणत्वेऽपि 
क्वापि भवतीति मूच्यत इति ॥ 
उद्ाहरणमाह- 
मुक्त्वा सलीलहंसं विकसितकमलोज्ञ्वलं सरः सरलम्‌ । 


वकल्‌लितजलं पल्वलमभिलषस्ि सवे न॒ हंसोऽसि ।७५।॥ 
मुक््वेत्ति । भत्र हुंसेनोपमानेनोक्तेन सज्जन. प्रतीयते । विनेपणानि चात्र 
सरी ल्ह सादीन्यसमानानि । नहि पुरुप. सरो मुक्त्वा पत्वरूमभिखुपति । इतित्रृत्त त्रु 
समानम्‌ । यतस्तस्य लिष्टजनाविष्ठित्त स्थान त्यजत. खेकमन्थं चाध्चयत्तस्तत्तल्य उषा- 
लम्भ इति ॥ 
त्थ प्रतीपमाह-- 
यत्रानुकम्प्यते सममुपमाने निन्यते वापि । 
उपमेयमतिस्तोतु दुरवस्थमिति प्रतीपं स्यात्‌ 11७६1) 


६. अन्याक्ति 

जटां कथित उपमान के हारा एसे उपमेय की प्रतीति हो जो [उपमान के| 
विज्ञेषणों के असमान होता हृभा भी समान इतिचत्त वाला हो, वर्ह अन्योकिति अलंकार 
होता है ॥७४। 
उदाहरण- 

हे मित्र ! क्रीडाकरते हए हंसों वाले, चि हए कमलो ते शोभायमान, निमल 
जलपूर्णं सरोवर को छोडकरचुम बगुलो से मलिन किये जा रहै जक वाले जीहड पर 
जाना चाहते हो । निश्चय ही वुम हंस नहीं हये ।७५। 

यहाँ टस उपमान है, मौर कोई सज्जन उपमेय 1 यद्यपि हस मौर सज्जन के 
विपण एकसमान नही दै, तथापि इनका इतिवृत्तं एकममान है ! 
००. प्रतीप 

जहर उपमेव को भ्रति स्तुति करने के लिए उक्तकी वुल्ना उपसानसे करते 


कारिका ७७-७९ 1 अष्टमोऽध्यायः २७६ 


यत्रेति 1 यत्रोपमेयमनुकम्प्यते निन्यते वा तत्प्रतीप नामाककारः । कस्मात्तस्य 

निन्दानुकम्पे क्रियेते इत्याह--समसुपमाने इति कृत्वा । यत उपमानेन तुल्यमतो निन्दा- 
नुकम्पे तस्येत्यथं. ! ताहश तहि किमथंमूपमान क्रियत इत्याह--अतिस्तोतु सातिञ्ञय- 
मुपमेयं ख्यापयितुम्‌ । ननु यदि सातिरय तह्य -पमनेन सह साम्य नास्तीत्याह-- 
` दुरवस्थभिति 1 इतिर्हतौ । यतो दुष्टामवस्था प्राप्तम्‌ । उपमेयमूपमानेन समम्‌, अत 
एव निन्यतेऽनुकरम्प्यते वेत्यर्थ । अपिविस्मये । एतदेव चारुकारस्य प्रतीपत्व यदन्ये- 
नान्यद्गम्यते ।। 

उदाहर्णम्‌- 

वदनमिद सममिन्दोः सुन्दरमपिते कथं चिरं न भवेत्‌ । 


मलिनयति यत्कपोलौ लोचनसलिलं हि कञ्जलवत्‌ ।७७।। 
वदनमिति 1 अघ्राञ्जनवारिमलिनत्वान्मुखेस्य दौ रवस्थ्यम्‌, अत एवेन्दुनोप- 
मीयते । अनुकम्प्यते । तत्त्वतः स्तुतिमुंलस्य कृता ॥ 
निन्दोदाहरयमाह-- 
गवेमसंवाह्यमिमं लोचनयुगरेन वहसि कि भद्रे । 
सन्तीदृशानि दिशि दिशिसर.यु ननु नीलनलिनानि ॥७८।॥। 
गवेमिति । अत्र॒ बाहुल्योपकम्यमाननलिननिभनयनवत्तेया गवंवंहनान्निन्दा 
स्तुतिप्रातीतिकी 1 दुरवस्थं कस्मादपि कारणाद्रोद्ग्यम । 
प्र्थान्तरन्यासमाह-- 
धरमिणमथंविशेषं सामान्यं वाभिधाय तत्सिद्धये । 
यत्र॒ सधमिकमितरं न्यस्येत्सोऽर्थान्तरन्यासः 1७६ 


हुए उसकी इरवस्या को अनुकम्पा (स्तुति) अथवा निन्ग की जाती है, वहां प्रतीप 

अलंकार होता है 1७६। 
उदाहरण (अनुकम्पा)-- 

तुम्हारे इस सुन्दर मुख कौ चन्रमा से क्यों न उपमा दी जाए, क्योकि तुम्हारी 
जलो का कञ्जल-मिश्नित्त जल वुष्हारे कपोलों को मलिन (कलद्खुपूणं ) बना रहा है ।७७। 
उदाहरण (निन्दा)- 

हे चुस्दरि ¦ तुम क्यो व्यथं अपनी आँखों की सुल्दरता का अखं गवं करती हो ? 
तुम्हारी ओंलो-जंसे नीलकमल तो परस्येक दिक्षा में तालानों के मोततर विचमान है ।७८। 
22. च्र्थान्तरन्यास 

जहां [ उपमेयं के ] विशेष अयवा सामान्य धमं को कहकर उसके समर्थन के 


२८० काव्यालद्धारः | कारिका ८०-८२ 


ध्मिणमिति । यत्रोपमेयं धर्मिणमथं विशोषरूप सामान्यरूप वा केनचिद्धमंण परो- 
पकारादिना युक्तमभिधाय तस्य धममस्य हदीकरणाथेमितरं यथक्रममेव सामान्य विक्षेष- 
रूपं च समानधमंकमुपमानभरूतम्थं कचिन्येस्येत्सोऽ्थन्तिरन्यासोऽरंकारः ॥ 

उदाह्स्यमाह- 

तुङ्कानामपि मेघाः दोलानामुपरि विदधते छायाम्‌ ¦ 

उपकतु हि समर्था भवन्ति महतां महीयांसः ॥८०॥ 

तुद्धानामिति । अन्रोपमेयविशेषं मेघपवंताख्यं तुङ्धत्वादि युक्तमभिधाय 
सामात्यमुपमानं महल्लक्षणमुपन्यस्तम्‌ 1 

द्वितीयमाह-- 

सकलमिदं सुखदुःखं भवति यथावासनं तथाहीह । 


रमयन्तितिरां तरुणीनंखक्षतादीनि रतिकलहे ।॥८ १॥ 
सकरमिति । अवर सामान्यरूपेणेव सुखदु.लादियुक्तं सकरमुपमेयमुक्त्वा ततो 
विशिष्टं नखक्षताद्यपमानमुक्तम्‌ ॥ 
अय चार्थान्तरन्यासः साधम्यं प्रयुक्तसामान्यविशेषद्रारेण चतुचिधो भवति । तत्र 
साधम्यण भेददयमुक्तम्‌ 1 वंधम्यणाह- 
पूवेवदभिधायेकं विरोषसामान्ययोहितीयं तु| 
तत्सिद्धयेऽभिदव्याद्विपरीतं यत्र॒ सोज्योऽयम्‌ ॥८२॥ 


किए वेसा इतर सधर्म (क्रमकः सामान्य अथवा चिशचेष अथं वाला उपमान) कहा जाए 

वहा भ्र्थान्तरन्यास अलकार माना जाता है ।७६। 
उदाहरण (विशेप कथन का सामान्य कथन दारा समर्थन)-- 

अत्युन्नत पवतो पर भी मेघ अपनी छाया करते हैँ । बडे लोग वजँ का उप- 
कार करने मे पूणं समथं हुआ करते हैँ ।८०। 
उदाहरण (सामान्य कथनं का विशेष कथन द्वारा सम्थ॑न)-- 

सव सुखदुःख अपने-भपने स्थान पर ठीक होता है 1 रत्ि-कलह मे किये हुए 
नखक्षतं युन्दरिथों को आनन्दित करते है 1*१। 
अन्य प्रकार-- 

जहां विशेष भौर सामान्य में से किसी एक धमं (विशेष अथवा सामान्य) 
का पूर्ववत्‌ (७।७६ की माति) वणन करके उसके समर्थन फै लिए उससे विपरीत 
(सामान्य जयवा विशेष) धमं का कथन विपरीत रूप में किया जाए वहाँ अन्य प्रकार 
का मर्यान्तरन्यास अलंकार होता है 1*२। 


कारिका ८२-८४ | अष्टमोऽध्यायः २८१ 


पूर्ववदिति । यत्र विशेषसामन्ययोमंध्यादेकं पू्ववत्केनचिद्धमंणोपेतमुक्त्वा तत- 
स्तदमंसिद्धये द्वितीय सामान्यं विदेष वा विपरीत विधमेकं कविब्रयात्सोऽन्योऽयमर्थान्त- 
रन्यास. ॥। 
। उदाहर्यमाह- 
ग्रभिसारिकाभिरषिहतनिबिडतमा निन्यते सितांशुरपि । 


प्रनुक्लतया हि नृणां सकलं स्फुटमभिमतीभवति ॥८३॥ 

अभिसारिकाभिरिति 1 अत्र शशी अभिसारिकाश्च विशेषावुपमेयोौ पूवमुक्तौ, ततो 

नृणा सकलमिति सामन्य वंधम्यणोक्तम्‌ । निन्यत इत्यस्य ह्यभिमती भवतीति विरुद्धम्‌ ॥ 
द्वितीयमाह-- 


हदयेन निवृ तानां भवति नृणां सवमेव निवृ तये । 


इल्दुरपि तथाहि मनः वेदयतितरां प्रियाविरह ।।८४॥। 


हृदयेनेति । सत्र सामान्यमुक्त्वा विक्ेषो वंधम्पंणोक्त॒ अथाय कोऽलकारः। 
यथा-- 


त्रियेण संग्रथ्य विपक्षसंनिधावुषाहितां वक्षति पीवरस्तने । 

खजं न काचिद्िजहौ जलाविलां वसन्ति हि प्ेस्णि गुणा न वस्तुनि ॥ 

नद्यत्रौपम्यसद्धावोऽस्तीत्य्थन्तिरन्यासाभास इति त्रमः। भामहादिमतेन 
त्व्थन्तिरन्यास एव । अथंद्वयस्य न्यास. सोऽर्यान्तरन्यास. इति तदीयलक्षणात्‌ ॥। 


उदाहरण (विशेष का सामान्य दारा समर्थेन . विपरीत रूप से)- 

अभिसारिकाएं गहन अन्धकार का नाश करने वाले चन्द्रमा कीभी निन्दा 
करती है, क्योकि लोगों को अपनी अनुकूल वस्तु ही अभिमत होती है । ८३ 

यहां पहला कथन विहेप है ओर दसरा कथन सामान्य, तथा “निन्दा करने' 
का समर्थन अभिमत होने" दारा-विपरीत रूप से--किया गया है 
उदाहरण (सामान्य का विशेष द्वारा समेन : विपरीत रूप से)- 

जिनका हृद्य प्रसन्न है, उन्हें समी वस्तुएं आनन्द प्रदान करती हैँ । प्रिया के 
वियोग मे चद्धमा मी मन को अत्यन्त उद्धिरन बना देता है 1८४। 

विपरीत रूप-आनन्द प्रदान करना : उद्िग्न बनाना । 

नमिसाधु द्वारा प्रस्तुत एक अन्य उदाहरण रीजिए । यदह वे "अर्थान्तिर- 
न्यासाभास' स्वीकार करते है-- 

प्रतिपक्षी की उपस्थिति मे प्रियके हारा गृंथी हुई ओर पीन स्तनो से शोभित 
वक्ष स्थर पर पहनायी हृदं जलाद्रं पृष्पमाा का उस रमणी ने त्याग नही किया, 
क्योकि प्रेममे गुण होते है, वस्तुमे नही । 


२८२ कान्याल्ड्ारः [ कारिका ८५-८७ 


अथोमभयन्यासमाह-- 

सामान्यावप्यथौ स्पफुटमुपमायाः स्वरूपतोऽपेतौ । 

निदिद्येते यस्मिन्तुभयच्यासः स विज्ञेयः ।८५।॥। 

सामान्यावित्ति । यत्र प्रकट विद्यमानसामान्यावपि हावर्थी तुल्यकक्षतया कृत्वा 
तथाप्युपमाया यत्स्वरूपं ततो व्यपेतौ निदिश्येते । उपमाया हि सामान्यस्येवादेश्व 
प्रयोग. इह तु नं वेत्यर्थः 1 स उभयत्यासो चेय. । 

उदाहरखमाह- 

सकलजगत्साधारणविभवा भुवि साधवोऽघुना विरलाः । 

सन्ति कियन्तस्तरवः सयुस्वादुयुगन्धि चारुफलाः 11८ ६॥ 

सकरेत्ति । अत्र साधव उपमेयास्तरव उपमानानि तेषा तुल्यकक्षतया निद्ग. । 
न तु सताप्युपमानोपमेयभावेनेति !। 

अथ म्रान्तिमान्‌- 

ग्रथं विशेषं परयन्नवगच्छेदन्यमेव तत्सदृशम्‌ । 

निःसंदेहं यस्मिन्प्रतिपत्ता भान्तिमान्स इति ॥८७।। 


अर्थेति । यत्र प्रतिपत्तार्थविदेपमुपमेयलक्षण पदयंस्तत्साद्द्यादन्यमेवार्थंमुपमा- 
नलक्षणं नि.संशयमवुध्येत स इत्यमुना प्रकारेण भ्रान्तिमान्नामारकार. ॥ 


९. उमयन्यास 

हां दो पकट सामन्य अर्थो को उपमा के स्वरूप से विभिन रूपमे निदिष्ट 
किया जाता है, उसे वहां उमयन्यास अलंकार जानना चाहिए 1८ ५। 

अर्थान्तरन्यास अलंकार के विपरीत यहाँ सामन्यका सामान्यद्वारा समर्थन 
किया जाता है) 
उदाहरण- 

आजकल संसार मे सवबलोगोसे कम सम्पत्ति रखने वालेसधु विरलहीर्ह। 
स्वादु, सुगन्धित आर सुन्दर फलों बाल पेड हँ हौ कितने ? अर्थात्‌ थोड़े है ।८६। 

यहाँ सामाय्य कथन का सामान्य कथन द्वारा समथेन किया गया है । 
०२. भराम्तिमान्‌ 

जहां कोई व्यित किसी अयं -चिकञेष (उपमेय ) को देता हुजा उसी के सदृक्न 
किसी अन्य अर्थं (उपमान) को चिना किसी सन्देहं फे जानं ले, वहां जान्तिमाचु 
सखंकार होता ह 1७) 


कारिका ८८-९० | अष्टमोऽध्यायः २८३ 


उदाहररस्‌- 
पालयति त्वयि वसुधां विविधाध्वरध्ममालिनीः ककुभः । 
पश्यन्तो दूयन्ते घनसमयाशङ्धुया हसाः ॥८त।॥ 


पालयतीति । अत्र यज्ञधरुमधारिण्यो दिव उपमेया. । वषार उपमानम्‌ । 
तत्रं वावगत्ति" ॥ 


द्रथाक्षेप - 
वस्तु प्रसिद्धमिति यद्विरुदधमिति वास्य वचनमाक्षिप्य । 
ग्रन्यत्तथात्वसिद्धयं यत्र ब्रयात्स आक्षेपः ॥८€॥। 


वस्त्विति । यत्र वक्ता यत्किमपि लोके प्रसिद्धमिति विरुद्धसिति वां कारणाद्रस्तु 
भूतं वर्तेते, अस्य वचनमाक्षिप्य ततइचान्यद्वस्त्वन्तर तथात्वसिद्धेयं तस्य स्वरूपस्य 
९ ० १, 
सिद्धूयथं ब्रयारस आक्षेपो नामारुकार. 11 


तत्र प्रसिद्धस्योदाहर्यमाह-- 
जनयति संतापमसौ चन््रकलाकोमलापि मे चित्रम्‌ । 


ग्रथवा किमत्र चित्रं दहति हिमानी हि भूमिरुहः ।९०॥ 
जनयतीति । अत्र चन्द्रकखाकोमलरुत्वेनापि सतापकत्वे सति विस्मय. । अथ च 
विरहे तथेत्र प्रतीयमानत्वाष्टस्तुत्व प्रसिद्धम्‌ । ततरच किमत्र चित्रमित्येतेनाक्षिप्य तथा- 
त्वसिद्धो हिमानीलक्षणमूपमानमुक्तम्‌ ॥ 
उदाह्रण- 
अपके शासन मे अनेकं यज्ञो के धुएं से व्याप्त दिक्षां को देखकर हंस वर्षा- 
गमन को आश्चंकासे व्याकुल हो रहै हं ।८न। 
४. क्षेप 
जहां [यक्ता] किसी परसिद्ध अथवा विरुद्ध वस्तु (उपमेय) को कहकर इस 
वचन का आक्षेप करते हुए उसके समर्थन के लिए अन्य वस्तु का कथन करे वहा 
आक्षेप अलकार होता है ।* €! 
उदाहरण (प्रसिद्ध) - 
आश्चयं हं कि चन्द्रकला के सहश कोम वह कामिनी भी भक्ते संताप देती 
है, अथवा इसमे आदचयं कौ कोई बात नही, क्योकि हिमवृष्टि मी तो वृक्षों को जला 
देती है ।& ० 
यहो पहर कथन का--जो कि प्रसिद्ध है--सम्थेन दूसरे कथन द्वारा करिया 
गया है ! ओरसाथ ही, इन दोनो के वीच “इसमे क्या अवयं है? इस वचनद्वारा 


२८४ काव्यालद्धुारः [ कारिका ६१-६३ 
, 


प्रथ विरुदोदाहर्छमाह-- 
तव गणयामि गुणानहमलमथवासत्प्रलापिनीं धिड्माम्‌। 


कः खलु कुम्भैरम्भो मातुमलं जलनिधेरखिलम्‌ ॥€१॥ 
तवेति ! अन्न समस्तगुणगणनमशक््यत्वाद्विरदधमथवेव्यादिनाक्षिप्य तदिरुढत्व- 
सिद्धुयर्थंमन्यदुपमानमुक्त क इत्यादिना ॥ 


छथ व्रत्यनीकम्‌-- 
वक्तुमुपमेयमृत्तममुपमानं तचज्जिगीषया यत्र । 


तस्य वि रोधीत्युक्त्या कल्प्येत प्रत्यनीकं तत्‌ ॥९२॥ 

वक्तुमिति । यत्रोपमेयमूत्तमं वक्तु तज्जिगीषयोपमेयविजयेच्छया हैतुभूतया 
तस्योपमेयस्यं विरोधीति विपक्भूतमित्युपमान कल्प्येत तत्प्रत्यनीकनामाल्कारः । ननु 
विरूढयो. कथमौपम्यमित्याह - उक्त्या वचनमात्रंण चिरोधो न नतत्वत. । उपमेयस्तुति- 
स्त्वत्र तात्प्यथिः ॥ 


उदाहरणस्‌-- 
यदि तव तया जिगीषोस्तद्वदनमहारि कान्तिसरवेस्वम्‌ | 
मम तत्र किमापतितं तपसि सितांशो यदेवं माम्‌ ॥९३॥ 


"आक्षेपः भी किया गया है, 
उदाहरण (विरुड )- 

मै तुम्हारे गुणों की गणना करती हुं । नर्ही-नहीं मुक्च असत्यवादिनी को 
धिक्कार है! क्याकभी कोई घडो से समुद्र का सस्पुणं जल माप सक्ता है २६१। 

गुणों को गणना कर सकना विरुद (असम्भव) कथन है । असत्यवादिनी करो 
धिक्कार है--यह्‌ आक्षेप-वचन है । 
०५. ग्रत्यनीक 

जहो उपमेय को उत्तम बनाने के लिए उपमेय कौ विजय की इच्छा से उस 
उपमेय के विरोधी उपमान की कल्पना कर खी जाती है, वहाँ प्रत्यनीक अलंकार 
होता है ।६२। 
उदाहरण- 

तुम उस [नायिका] के मूखको जीतने के इच्छक थे, किन्तु यदि उसने 
तुम्हरो सर्वस्व कान्ति का अपहरण कर ल्याहै तो इसमें मेरा क्या अपरावहैकि 
तुम इस प्रकार से भुन्चे सन्तप्त करते हो । ६३ । 


नण 
ह ४५ 


कारिका ६४-६६ | अष्टमोऽध्यायः | २८१५ 


यदीति । अत्र मुखमृत्तमं वक्तु तज्जिगीषया शशी उपमान कल्पितः । एतच्च 
वचनमात्रेण, न तत्त्वत ॥ 

सथ दए्ान्त- 

प्रथं विशेषः पूर्व थादुङ्‌ न्यस्तो विवक्षितेतरयोः । 

तादृश्चमन्यं न्यस्ये्त्र पुनः सोऽत्र दष्टान्तः 11&४। 

अर्थंति । विवक्षितेतरयो प्रस्तुताप्रस्तुतयोरथंविशेषयोमंध्याद्यादश्चौ येन धमेण 
युक्तोऽथंविशेष पूरवमादौ न्यस्तो भवेत्तादृ् तद्ध मंयुक्तमेव पुनस्तमथंविरोषमन्य यत्र 
वक्ता न्यस्येत् दृष्टान्तो नामारकार । विशेषग्रहणमर्थान्तरन्यासादस्य भेदस्याप- 
ना्थेम्‌ । तत्र दहि सामास्यविशषेषयोमध्य्रादेकमुपमानमन्यदुपमेयम्‌ । इह तु यमपि 
विशेषरूपमिति । उभयच्यासस्यास्मात्सत्सामान्यत्वादिविशेष ॥ 

विवक्षितोदाहर्समाह- 

त्वयि दुष्ट एव तस्या निर्वाति मनो मनोभवज्वलितम्‌ । 


ग्रालोके हि सितांशोविकसति कुमुद कुमृद्रत्याः।६५।। 
त्वयीति । ्नत्रा्थंविशेषो नायिकामनोलक्षण पूर्वं कान्तदशेनान्निवृ त्तिधमंयुक्तो 
याशो निर्दिष्ट. पुनस्ताहशमेव चन्द्रदशंनात्करमुद विकासयुक्तमिति ।। 


त्रविवक्षितीदाहररम्‌-- 
लोक लोलितकिसलयविषवनवातोऽपि मङ्क्षु मोहयति । 
तापयतितरां तस्या हद्यं त्वद्गमनवार्तापि ॥&६।। 


यहाँ मुख को उत्तम कहने के किए उसके हारा चरि (उपमान) को जीतने की 
कल्पना की गयी है । 
०६. दन्त 

जहा वक्ता प्रस्तुत-अप्रस्तुत [के बीच से निस ] अथं-विश्ेष को पहकते रखकर 
पुनः उसी के सहन्ञ किसी अन्य तत्त्व का उपस्थापन करता है, वहाँ दृष्टान्त अलंकार 
ह्येता हे ।६४। 
उदाहरण (प्रस्तुत)- 

हे नायक ! तुम्हं देख लेने पर उसका कामाग्ति से दग्ध मन शान्त हो जाता 
है, क्योकि चन्द्र के दद्रन से कुमुद्वती के कुमुद सिखने छगते है \६५। 
उदाहरण (अप्रस्तुत)- 

चंचल एवं विषक्तं किसल्यवन की वायु भी जोगों को श्नीघ्र भूच्छित कर देती 
है । तुम्हारे जाने की बात ही उसके हृदय को सुतरां सन्तप्त कर देती है \६६। 


२८६ कान्यालङ्ारः [ कारिका ६७-६६ 


लोकमिति । अत्राप्राकरणिकस्य विपवनवातस्य मोहूकत्ववर्मयुक्तस्य पवमुप- 
न्यासः । पर्चास्पस्तुतस्य त.पकारित्वयुक्तस्य [गमनवृत्तस्य | अथंवेधम्यण हष्टान्तंः कथ 
नोक्त. । असभवादिति ब्रम. । यत्र हि विशिष्टोऽर्थो विधमंकर्च द्ष्टान्तस्तादश लक्ष्य 
न परयाम । दुष्यते चेत्तदा समुच्चय एव जेय. ॥ 

त्रथ पूवम्‌-- 

यत्रैकविधावथौ जायेते यौ तयोरपूर्वेस्य । 


प्रभिधानं प्रागभवतः सतोऽभिधीयेत तत्पूवेम्‌ ।1 &७।। 

यत्रेति । यत्र ावर्थाबुपमानोपमेयलक्षणावेकविधौ तुल्यकर्मकौ यौ जायेते भव- 
तस्तयोर्म॑ध्यादपूवेस्य सह॒ पर्चाद्धाविनो वाथंस्योपमेयस्य प्राकपूर्व भवत्तः सतोऽभिघानं 
क्रियेत तदपूर्वं नामारद्खार' ॥ 

उदाहरणम्‌ 

काले जलदकुलाकुलदशदिशि पूवं वियोगिनीवदनम्‌ । 


गलदविरलसलिलभरं परचादुपजायते गगनम्‌ ॥६८।। 
काल इति । अत्राथां गगनवदनलक्षणौ । तत्र वदनमुपमेयम्‌ । तन्व गगनसम- 
कार पश्चाद्वा गरुत्सक्िलभर भवतति । अथ च विरहासहत्वप्रतिपादनार्थं प्रागुक्तम्‌ ॥। 
प्रथ स्येति - 
सा हि सहोकितियंस्यां प्रसिद्धदूराधिकक्रियो योऽथः । 
तस्य समानक्रिय इति कथ्येतान्यः समं तेन ।॥९९।। 
# पूवे 
जहा दोनों अथं (उपमेय ओर उपमान) एक-से (एक-साथ) ही हो, [किन्तु 
उनमे से उपमेय का, जो वस्तुत. उपमान से| पहल न हृ हो, पहले होना बताया 
जाए, वहाँ पूवं जल कार माना जाता है 1६ ७। 
उदाहरण-- 
वर्षाकाल से जब मेघसमूहसे दसो दिश्षाएं व्याप्तहो जाती हैः तव पहले 
चियोगिनी का मुख अविरत बहते हृए अश्रजल से भर जाता है, तत्पश्चात्‌ वर्षा की 
फुहारों से आकाक्ञ भरता है ।६८। 
यहं उपमेय ओौर उपमान दोनो एक-साथ हुए है, किन्तु उपञ्ैय का होना पहर 
वतायागयादहे। 


४८, सहोक्तिं 
जो अथ (उपमान) प्रसिद्ध एवं अत्यधिक किया नालाहो, उस्तीके समान 


उपमेय को बताना सहोक्ति अलकार कहाता है ।६९। 


कारिका १००-१०२ ] अष्टमोऽध्यायः २८७ 


सेति । उति वक्ष्यमाणप्रकारेण सा सहोक्तिर्नामाककार. 1 यस्या प्रसिद्धा दूर- 
मतिश्चयेनाधिका क्रिया यस्य स तथाविध उपमानलक्षणो योऽथस्तेन साधेमन्य उपमेया- 
थंस्तस्योपमानस्य समानक्रिय इत्यमुना प्रकारेण कथ्येत इति ! अथ वास्तवसहोक्तेर- 
स्यास्व को विशेप । उच्यते- तत्र कार्यकारणभाव प्रौपम्याभावदइच समस्ति । भस्या 
तु तद्विपयेय ॥ 

उद्ाहर्यमषह- 

मधुपानोदढतमधुकरमदकलकलकण्ठदीपितोत्कण्ठाः । 


सपदि मधौ निजसदनं मनसा सह याच्त्यमी पथिकाः ।।१००।। 
मधुपानेति 1 अत्रोपमानं मन. सीध्रगमनक्रियया दूराधिकमपि पथिकं सह्‌ 
समानक्रियमुक्तम्‌ ।। 
मेदान्तरमाह- 
यत्रंककतर का स्यादनेककर्माधिता क्रिया तत्र] 
कथ्येतापरसहितं कर्मक सेयमन्या स्यात्‌ । १०१] 
यत्रेति 1 यत्रंककतकरनेककर्माधिता क्रिया भवत्ति, ततर चैकं प्रधानमूपमेयाख्यं 
कर्मापरेण क्मणोपमानेन सहोच्यते सेयमन्या पुन सहोक्ति. । 
उद्ाहट्यय्‌-- 
सत्वां बिभति हृदये गुरुभिरसंख्यैम॑नोरथेः साधम्‌ ¦ 
ननु कोपनेऽवकाशः कथमपरस्या भवेत्तत्र ॥ १०२।। 
उदाह्रण- 
वसन्त ऋतु मे सधुपान से उद्धत श्रमरोंके मदपुणं कलकल स्वरसे इन 
प्रव॑न्तियो की उत्कण्ठा अत्यन्त प्रञ्ज्वलिति हो गयी है, ओर ये शीघ्रता से मन की गति 
के साथ अपने-अपने घरों कोजा रहे हैँ 1 १००। 
मन को गति की तीत्रता प्रसिद्धदहै, इसी के साथ-साथ प्रचासियो का गमन 
सहोक्ति अल्कार का सूचक दहै। 
अन्य प्रकार-- 
जहां एसो क्रिया का वणन किया जाए जिसका एक कर्ता हो ओौर अनेक कर्मं 
ही, [तथा इन्हीं कर्मो मेसे] एक [प्रधान क्रिया अर्थात्‌ उपमेय को अन्यकर्मोके 
साथ कहा जाए, वहां मन्य सहोक्ति अलंकार होता है !१०१। 
उदाह्रण-- 
है माभिनि ! वहु [नायक] असंख्य वडे-बडे मनोरथो के साथ तुम्हुं हदय 
मे घारण करता है, फिर भका बहा किसी ओर [ रमणी | के लिए स्थान ही कहँ है ?१०२। 


२८८ काव्यालद्खुारः [ कारिका १०३-१०४ 


स इति । अत्रेका क्रिया धारणलक्षणानैकं कमं नायिका मनोरथांस्वाश्चिता । 
तथैक एव नायकस्तस्यां कर्ता । प्रधानमेकं चात्र कमं नायिकाष्यमुपमेयमपरेर्मनोरथे- 
रुपमानः सहं कथितम्‌ ।। 

त्थ समुच्चयः- 
सोऽयं समुच्चयः स्याद्यत्रानेकोऽथं एकसामान्यः । 


प्रनिवादिद्रेव्यादिः सत्थुपमानोपमेयत्वे ।॥१०३।। 

स इति । सोऽयं समृच्चयो नामालकारो यत्रानेकरत्यादिकोऽथं उपमानोपमेय- ` 
लक्षणो द्रव्यादिद्रंन्यगुणक्रियाजातिरूप एकसामान्य एकेन साधारणेन धमेण युक्तः 
स्यादिति । उपमायाः समुच्चयत्वनित्रत्यथंमाह-अनिवादिः 1 उपमायामिवादिशव्द- 
प्रयोग इत्यथः } एवमपि रूपकत्व स्यादित्यत श्राह॒-सत्युपमानोपमेयत्व इत्ति । रूपके 
ह्यभेद एव हेतुभेदः । तयोरनेकग्रहणमत्र व्या्यर्थपरिग्रहार्थ॑म्‌ । त्रिचतुराः पञ्चषा वा 
यत्रार्था निदिश्यन्ते स समुच्चयः शोभामावहतीति भावः ॥ 

उदाहरणम्‌- 

जालेन सरसि मीना हिखेरेणा वने च वागुरया । 


संसारे भूतसृजा स्नेहेन नरास्च बध्यन्ते | १०४] 
जालेनेति । अत्र जालादीना करणाना सर प्रमुलाणामधिकरणानां हिख्रादीना 
कतु णा वहूनामुपमानोपमेयभावे वन्धनमेक सामान्यमिति ॥ 

धारण करना--एक क्रिया, नायक-- एक कर्ता, कर्द मनोरथ--अनेक कमं । 
इन्दी कर्मो के साथनायिकाको भी घारण करना सहोक्ति अकंकार का सूचकं ह । 
८६. सयुच्चय 

जहां उपमान ओौर उपमेय के रूपमे द्रव्य आदि (द्रन्य, गुणः क्रिया ओर 
जाति) अनेक अथं एक सामान्य (एक क्रिया) वाके हय, [ओर जहाँ | इव भादि 
का प्रयोग न किया जए, बहो समुच्चय अलक्षार [होता है !१०३। 
उदाह्रण- 

{हिसकों हारा तालाब में मखछल्यां जाल से, वन मे भगपाश्से ओर ब्रह्याके 
हारा संसार भे भानव स्नेह से बधि जाते ह ।१०४। 

पहा हसक ओौर व्रह्मा इन कर्ताओ का, ताङाव, वन ओौर संसार इन अधि- 
करणो का, मछरिया, मृग गौर मानव इन कर्मो का, जार, पाञ्च ओर स्नेह इन 
करणो का-एक ही क्रिया वापि जाते हः के साथ सम्बन्ध है। इनमे से व्रह्मा, ससार 
मानव गीर स्नेह उपमेय है, तथा जेष सभी उपमान ! इन सवका एक-साय वर्णन 
समुच्चय अकार का मुचंकं है । 


कारिका १०५-१०७ | अण्टमोऽध्यायः २८६ 


त्रथ सास्यम्‌- 
प्रथेक्रियया यस्मिन्नुपमानस्यंति साम्यमूपमेयम्‌ । 
तत्सामान्यगुणादिककारणया तद्धवेत्साम्यम्‌ ॥१०५।। 
अथंक्रिययेति । तयोरूपमानोपमेययोयेत्सामान्य साधारण गुणक्रियासस्थानादि 
तत्कारण यस्यास्तया तथाविधयाथक्रियया यत्रोपमानस्योपमेयसाम्यमिति तत्साम्य 
भवेत्‌ ॥ 
उदाहररम्‌- 
ग्रभिसर रमणं किमिमां दिशमनद्रीमाकुलं विलोकयसि । 
रारिनः करोति कार्य सकलं मुखमेव ते मुग्धे ॥१०६॥। 


अभिसरेति । अत्र शश्युपमान मुखमुपमेयम्‌, प्रकार्यमथक्रियासामान्य कान्ति- 
मत्त्व गुण. 1 


मेदान्तरमाह-- 
सर्वाकारं यस्सिन्नुभयोरभिधातुमन्यथा साम्यम्‌ । 
उपमेयोत्कषेकरं कुर्वीत विशेषमन्यत्तत्‌ । १०७ 


सर्वाकारमिति । यस्मिन्नुपमेयोत्कषकराद्विशेषादन्यथा प्रकारास्तरेणोभयोरप- 
मानोपमेययो. सवकिारं सर्वात्मना साम्यमभिधातुमूपमेयोत्कषंकरविशेष कचन कवि. 
कुर्वति तदन्यत्सास्यमलुकारः ॥ 


९०. साम्य 

जहां उपमेय सामान्य गुण आदि कारणों वालो अ्थं-क्रिया के हारा उपमान 
को समानता प्राप्त करता है वहां साम्य अखंकार माना लाता है ।१०५। 
उदाह्रण-- 

अरो मुग्धे { तुम अपने पति से रमण करो । क्यो व्याकुल होकर पुवं दिशा को 
देख रही हो । तुम्हारा मुख ही चन्द्र का सारा कायं सम्पादन कर रहा है 1 १०६। 

मुख (उपमेय) द्वारा चन्द्र (उपमान) का कायं-सम्पादन 1 


अस्य प्रकार-- 
जहां उपमान ओर उपमेय मे सर्वात्मना साम्य इसीलिए कहा (दिखाया) 
जाए कि जिससे उपमेय को उत्कषंता-दयोतक चिक्ञेषता ज्ञात हो, वहां अन्य प्रकारका 
साम्य अलंकार होता है \ १०७1 


२६० काव्यालृद्भुारः | कारिका १०८-११० 


उदाहरणय-- 
मृगं मृगाङ्कः सहजं कल द्धं विभति तस्यास्तु मुखं कदाचित्‌ | 
प्राहा्यमेवं मृगनाभिपत्त्रमियानरेषेण तयो विश्चेषः | १०८॥ 
मृगमिति 1 अत्राहार्यकाद्राचित्कमृगनाभिपत््ररप्कान्कारमभणनविगेपेणोपमयदय 
मृखम्योत्कपं. प्रतिपादित. । अन्यथा तु नयनाह्वादनादिग्णेः सर्वथा साम्यमुक्तमिति ॥। 
चरथ स्मरखम्‌-- 
वस्तुविशेषं दुष्ट्वा प्रतिपत्ता स्मरति यत्र तत्सदृशम्‌ । 
कालान्तरानुभूतं वस्त्वन्तरमित्यदः स्मरणम्‌ ।१०९॥ 
वस्त्विति । अत्र प्रतिपत्ता वििष्ट वस्तु किचनावलोक्य काखान्तरानुभरूत 
वस्त्वन्तर स्मरति, अद एतत्स्मरण नामाच्कार. । भय श्रान्तिमतोऽस्य च को वि्पः। 
उच्यते--तव्रोपमानावगतिरेव न तूपमेयावगतिः । टद्‌ तूपमानस्मरणमात्रं न॒ आान्ति- 
रिति। 
उदाह्ह्एम्‌-- 
तव॒ भवने पर्यन्तः स्थूृलस्थूलेन््रनीलमणिमालाः । 
भूभृन्नाध मयूराः स्मरन्त्यमी कृप्णसर्पाणाम्‌ ॥११०॥ 
तवेति । अवरेद्नीखमणिमालादर्मनात्तत्सदृ् कृष्णमपि वस्त्वन्तरं मगरूरा. 
स्मरन्तीति कक्षणद्रोजना ॥ 
इति श्रीरद्रटक्रते काव्यांकारे नमिसाधुविरचित्तटिपणसमेतो- 
ऽष्टमोऽच्याय- समाप्तः । 
उदाहुरण-- 
चन्रमा स्वाभाविक स्पसे मगकोकठंकके स्प मे धारण करतार, जीर 
तुम्हारा भूख आहायं रूप से अर्थात कमी-कमी पृगकी नाभिसे उद्ुमूत कस्तुरी ते 
पत्ररचना धारण करता है वप्त इतना इन दोनो में अन्तर ह । १०८} 
९६. स्मर 
जव कों व्यक्ति किसी चिद्रष वस्तुको देखकर उसी के सदृश किप्ती अन्य 
काल मे अनुभूत बस्तु का स्मरण करताहै वहां स्मरण अककार होता ह।१०६। 
उदाह्रण-- 
है राजेन ! तुम्हारे भतन में वहत स्थर इच्छनी मणियो की भाला को 
देखकर ये मोर फार सपि का स्मरण करने चगते ह ।११०\ 
इति “अश्ुप्रमाऽऽदख्य-हिन्दी-व्याख्यायामश्टमोऽध्याय. समाप्तः । 


पि `  । दिके पे 


नवमोऽध्यायः 


अथ क्रमप्राप्तमतिशयालकारं वक्तुमाह-- 
यत्राथधमेनियमः प्रसिद्धिाधाद्धिपयंयं याति । 
कृरिचत्क्वचिदतिलोकं स स्यादित्यतिशयस्तस्य ॥१।। 


यत्रेति । यत्राङकारेऽ्थ॑धमेयोनियमो नियत स्वरूप विपयंयमन्यथात्वं गच्छति । 
नियमश्चेत्कथं विपययेय यातीत्याह-प्रसिद्धेरुष्ण दहतीव्यादिकाया. सख्यातेर्यो बाधो 
वाधन तस्माद्धेतोः । स इत्यनेन प्रकारेणातिशयो नामाककारः स्यात । ननु यदि निय- 
मस्यान्यथात्वमतिशयस्तहि स नास्त्येव नियमस्यान्यथाभावादिव्यत आह-कर्िचत्क्व- 
चिदित्ति। न सवै. सर्व॑त्रत्यर्थ. ! कथं विपयंय यातीत्याहु-अतिलोक लोकातिक्रान्तं 
यथा भवति 1 अत एवातिशयनामकत्वम्‌ । तस्येत्युत्तरेण सबन्ध ।। 


अथ सामान्यस्येव विशेषानाह- 
पूवेविरेषोत्प्क्षाविभावनातद्गुणाधिकवि रोधा. । 


विषमासंगतिपिहितव्याघाताहतवो भेदाः ॥२। 
पूवे ति । एते तस्य पूर्वादयो द्वादश भेदा. ॥ 


नवमोऽध्यायः 


रद्रट-सम्मत वास्तव ओर त्रौपम्य नामक वर्गो के उपरान्त इस अध्याय 
म अतिशय नायक तीरा वगं निरूपित है। इसके अन्तर्गत उन्ह्यैने र 
अर्थालंकार का स्वस्प निर्दिएकिया है| 


अतिशय 

जहाँ कही कोई अथं ओर धमं का नियम अपनी प्रसिद्धि (ख्यात स्थिति) 
के बाध के कारणं लोकातिक्रान्त विपरीतता को प्राप्त होता है, वहां अतिशय" माना 
जाता है । उसके [ निस्नोक्त भेद हें] \१। 


उस [अतिक्य] के ये भेद है--१ पुवं, २. विशेष, ३. उत्प्रक्षा, ४. विभा- 


वना, ५. तदुगुण, ६. अधिक, ७. विरोध, ठ विषम, ६. असंगति, १०. पिहित, 
११. व्याघात, १२. अहेतु ।२। 


२६२ कान्यालद्भुारः [ कारिका ३-५ 


तन्न पवस्य तावत्लक्ररमाह-- 
यत्रातिप्रवलतया विवक्ष्यते पूरव॑मेव जन्यस्य 


प्रादुभावः पर्काञ्जनकृस्य तु तदद्धवत्पूवन्‌ ।1२॥। 

यत्रेति । यत्र प्रागेव जन्यस्य कायस्य प्रादुर्भावो विवध्यते जनकस्य तुं कारणस्य 
पञ्चात्तूर्वं नामालकारः । विवक्षापि कथ तश्रा भवतीत्याहु--यतिप्रवर्तया [है 
भूतया । तत्र जनक्रव्यापार विना जन्योत्पत्तिरिति जन्यस्यातिप्रवक्ता 1] जन्य जन- 
यित्वा रवयमूत्पद्यत्त इति जनकस्याप्रवलठता । विवध्यत्त इत्यनेन विवक्षामात्रमेत्तन 
परमाश्रत उति मूचयति ॥ 

उदाहर्यम-- 

जनमसुलभमभमिलपततामादो दन्दह्यते मनो यूनाम्‌ । 


गुषरनिवारप्रसरः पङ्चान्मदनानलो ज्वलति ।।४॥ 
जनमिति । अचर दाहः कार्य पूर्वं जातम्‌, मदनागिनिज्वलनं तु दाहुकारणं पच्चा- 
दिति चरिन्ेपकक्षणम्‌ 1 ज्वलितोऽग्निर्दहूतीस्येव विधल्च योऽर्थवर्मनियमः स क्वचिदेव 
कामिनि विपर्यय यात्त उतीद सामन्यलक्षणम्‌ । अव्र चातिप्रवलत्व हतुः ॥ 
श विरोप्ाहू 
किचिदवदयावेयं यस्मिन्नभिधीयते निराधारम्‌ । 
तादुगुपलभ्यमानं विनेयोऽसौ विशेष इति।॥५।। 
जर्हा जति प्रबलता के कारण उत्पन्न [पदार्थ] का चर्णन पटहे तथा उसके 
उत्पादक [पदाथ | का वाद मे किया जाता ह वर्ह पूवं अलककार होता है ।३। 
उदाह्रण-- 
दुलभ काभिनी कौ इच्छा करने बाले युवकौ का मन तो पटुक दग्ध होने कगता 
है, भौर इसके पञ्चात्‌ तीत्रता से फलने बाली मीषण कामाग्नि प्रज्ज्वकित हीती ह 1४1 
२. विदय 
जहां निशिचि्त माधार वात्न नी कोई वस्तु आधार के चिना वणित की 
जाती हैः [सीर इतस्तकी ] यह्‌ [निराघारता] उपलभ्यमान हत्ती है, बर्हा चिक्ञेष मल- 
कार होत्ता ह 1५1 
निर्चित याधार वाके किसी पदर को निराधार-ह्पमे वणित करना दोप 
माना जागा न क्रि बरकरार 1 भत. यहां ^तादृगुषम्यमान' गव्द का प्रयोग किया 
गाद कि वहु षाथ निरावार भी दहो सकता ह । 


3 


कारिका ६-ठ | नवमोऽध्यायः २६३ 


किचिदिति । यस्मिन्नछकारे किचिद्रस्त्ववश्यावेयमिति विद्यमानाधारमेव सन्नि- 
राधारभिव्यमिधीयते स इत्यनेन प्रकारेण विशेषनामारकारो ज्ञेयः । ननु तथाभरुतस्या- 
त्यथाकथन दोष एव स्यान्न स्वककार इत्याह-ताहगुपलभ्यमानमिति 1 तथा दरेनान्न 
करचिदनुपपन्नमित्यर्थः । वस्त्वन्तरेभ्यो विशिष्टधर्माभिधानाद्विशेषसजा ॥ 

उदाहर्यम्‌- 

दिवमप्युपयातानामाकल्पमनत्पगुणगणा येषाम्‌ । 

रमयन्ति जगन्ति गिरः कथमिह कवथो न ते वन्याः ।६॥ 

दिवमिति । अत्र गिर आषेयाः । प्राण्याश्रितत्वात्‌ । अथ च विनापि कवि- 
निराधारं रमयन्तीच्युपरुन्ध्या कथितम्‌ ॥ 

ग्रकारानर सपाह 

यत्रैकमनेकस्मिन्नाधारे वस्तु विद्यमानतया । 


यगपदभिधीयतेऽसावत्रान्यः स्याद्विरेष इति ।७॥ 

यत्रेति । यत्रानेकस्मिस्त्यादिक आधारे वस्तु सत्तया कथ्यते सोऽत्रान्य. प्रकारान्त- 
रेण ॒विशेप इति । कदाचिद्रस्त्वप्यनेकं स्यात्तत्रातिशयत्वमित्यत आह-एकमिति । 
एकमपि पययिणानेकत्र तिष्ठत्येवेतति न विशेष इत्याह्‌-युगपदित्यादि ॥ 

उदह्ल्छच्- 

हदये चक्षुषि वाचि च तव संवाभिनवयौवना वसति ¦ 


वयसत्र निरवकाशा विरम कतं पादपतनेन ।८॥ 


उदाहरण-- 
स्वगंमे चले जानेपर मौ वेकवि धन्य है, जो अपने असंख्य गुणों को युग-युगों 
तक स्थिर कर गये हैँ । [उनको | बाणी अजब भमी संसार को आनन्दित फर रही है ।६। 
केवि ओर उसको वाणी मे जाधार-आधेय सम्बन्ध निरिचत है, किन्तु कवि 
की मृत्यु के उपरान्त भी उसकी वाणी स्थित रहती है-- यह निराधारता भी उप- 
लम्यमान हे । इसकी निराघारता का निदेश यहां विपम अल्कार का योतक है । 
प्रकारान्तर-- 


जहां एक वस्तु अनेक आधारो मे युगयदू कही जाती है बहुं अन्य विज्ञेष अल- 
कार होता हे 1७1 
उदाहरण-- 

[कोई सानिनी नायिका नायक से कह रही है] तुम्हारे हृद्य, नेन ओर वाणी 
मेँ वह्‌ नवयौवना निवासत कर रही है, अब मेरे लए तुम्हारे पास कोई स्थान नहीं 
रह गया ! वहं रहो, मेरे पांव मत पडो \5) 


२६९४ कान्यालङ्ारः [ कारिका ६-११ 


हृदय इति । अंका तरुणी युगपदनेकस्मिन्नाधारे हृदयादिके वसन्ती कथिता 
अत एव परस्या निरवकाशत्वम्‌ ।। 
भूयोऽपि मेदान्तरमाह- 
यत्राच्यत्कूर्वाणो युगपत्कार्यान्तरं च कुर्वीत । 


कतु शक्यं कर्ता विज्ञेयोऽसौ विशेषोऽन्यः ।1€॥। 

यत्रेति । श्रस्ावन्यो विरेषो ज्ञेयः, यत्र कर्तन्यत्कमं कुर्वाणः सन्कर्मन्तिरं कुर्वीत । 
पययिणान्यदपि करिष्यति कोऽतिशशचय इत्यत आह--युगपत्समकालमिति । एवमपि 
हसन्पठतीत्यादिवद्द विष्यत्ति तत्किमत्रातिंशयत्वमित्याह्‌-कतु मशक्यमिति । अशक्य 
क्रियान्तरकरणादतिशय इत्यथः ॥ 
उदहर्यय- 
लिखितं बालसुगाक्ष्या सम मनसि तया शरीरमात्मीयम्‌ । 


स्फुटमात्मनो लिखन्त्या तिलक विमले कपोलतले । १०1 

लिखितमिति । अत्र नायिकया कर्त्या निजकपोके तिरुककेखनं दुर्वाणया तर्दव 
कतु मश्ञक्यं नायकचित्ते ररीररेखनलक्षणं कर्मान्तर कतम्‌ ॥ 

प्रथोखेक्षा- 

यत्रातितथाभूते संभाव्येत क्रिया्स्ंभाव्यम्‌ । 

संभूतमतद्रति वा विज्ञेया सेयमूत्प्रश्ना 1११ 

हृदय, नेत्र ओर वाणी --इन तीनो आधारो मे कामिनी (आचेय) की स्थि 
वर्णित होने के कारण यहाँ विषम अरुकार है । 
अन्य भेदान्तर-- 

जहां कर्ता किसी एक कार्यं को करता हृभा किसी एसे अन्यकोमी साथही 
करदेताहै जिसे वह करने भे असपथं होता है वहो विषम अकार होता है \&। 
उदाहरण- 

मुगन्चावक के समान चचलनयना उस युवती ने अपने विमल कपोल पर तिलक 
क्या वनाया, मेरे मन पर अपने शरीर का चिन्न बना डला 1१०) 

तिलक गाने के साथ-ही-साथ नायक के मन पर नायिकाके दारीर कां चित्र 
वन जाना जसा अश्चक्य कायं भी वणित होने के कारण यहां विपम अकार दहै। 
३, उत्प 
| #॥ ) जहौ कसी पदाय के अतिशय होने पर उसमे किसी असम्भव क्रिया का 
सम्मव होना वताया जाए, वहाँ उत्परक्षा हत्ती है, तथा (२) जहा अविद्यमान क्रिया 
विध्यमान दिखलायी गयी हो, बहा मी उत्पर्षा होती है ।११। 


कारिका १२-१४ | नवमोऽध्यायः २६५ 


यत्रेति ! यत्रासंभाव्य क्रियादिक वस्तुनि क्वापि सभाव्यते सेयमुलरक्षा । यद्यत्र 
न सभवति कथं तत्र सभावनेत्याहू--अतितथाभूत इति । अतिश्येन तथाभूते । तथा- 
त्वमस माग्यसभावनायोग्य प्रकारं प्राप्त इत्यर्थः । प्रकारान्तरमाह संभूतम त्तिवेति । 
यत्र॒ वा वस्तुन्यतद्रत्यविद्यमानतत्करियादिकेऽप्यस भाग्य क्रियादि तथाभ्रूतत्वात्सभूत- 
मेवोच्येत सान्योत्प्रक्षा ॥ 

म्रथमोदाहर्खमाह- 

घनसमयसलिलधौते नभसि शरच्चन्द्रिका विसपेन्ती । 

म्रतिसान्द्रतयेह नणां गात्राण्यनुलिम्पतीवेयम्‌ ।।१२।। 

घनेति । अत्र चद्दिकाया अनुरपनमसभाग्यमेव संमावितमनुलिम्पतीवेति 
ने मत्यान्नमभस. घनत्वेन च तस्यास्तथाभूतत्वम्‌ ॥ 

द्वितीयोदाहरखमाह-- 

पल्लवितं चन्द्रकरेरखिलं नीलारमकृद्िमोर्वीषु । 


ताराप्रतिमाभिरिदं पुष्पितमवनीपतेः सौधम्‌ ।१३। 
पल्लवितमिति । अत्र सौधाख्ये वस्तुन्यपल्लवितेऽ्पुष्पिते च चन्द्रतारकाप्रति- 
विम्बसपर्कात्तयोग्ये सत्यसभाग्थमपि पल्लवितत्व पुष्पितत्व च सभूत कथितम्‌ । इव थंर्च 
सामर्थ्याद्‌ गम्यते ॥। 
ग्रकारानतर्माह-- 
न्यनिमित्तवश्ा्यदययथा भवेद्रस्तु तस्य तु तथात्वे । 
__ __ हित्वन्तरमतदीयं  यत्रारोप्येत सान्येयम्‌ ।१४॥ 
उदाहरण-- | 
वर्षाकाल कै जल से धुले हुए आकाक्ञ में फंलती हई यह शरतुकालीन चन्द 
को चांदनी बहुत गाढ़ी होने से मानो लोगों के शरीर पर खेप कर रही है \१२। 
चन्द्रिका द्वारा अनुरेपन असम्भव कायं है, किन्तु य्ह उसे सम्भव बताया है, 
ओर इसका कारण दिया गया है- वर्षाकाल दादा आकाश की अति स्वच्छता । 
उदाहुरण- 
राजमवन के नीखी मणयो के बने हुए फरल पर जव चन्रमा की किरणें पड़ती 
हैतो एेसा गता है, जसे पत्ते उग भये हौ, ओर तारों का भ्रतिविम्ब पड़ने से वहाँ 
फूल लगे दिखायी देते है 1१३ 


प्रका रान्तर-- 
जहां जो वस्तु क्रिसी अन्य कारण से जिस रूप को प्राप्त करती है-- उस वस्तु 


के वसा होने मे उससे भिन्न किसौ अन्य कारण का जारोप किया जाए वहं अन्य 


२६९६ कान्यालङ्धारः [ कारिका १५-१७ 


अन्येति । सेयमन्योत्प्रक्ना यस्यां तदस्त्वन्यनिमित्तवरात्कारणाचथा येन रूपेण 
भवति तस्य वस्तुनस्तथा भवने तत्स्वरूपतोत्पत्तौ कारणान्तरमतदीयं यत्तस्य सक्तंन 
भवति तदारोप्येतेति ॥ 
उदाहरणम्‌ 
सरसि समुट्लसदस्मसि कादम्बवियोगदूयमानेव । 


नलिनी जलप्रवेशं चकार वर्षागमे सद्यः ।१५॥ 

सरसीति । अव्र नलिन्या जखप्रवेे निजं जलोल्कासाख्य कारणं विमुच्य हंसः 
वियोगाख्य हैत्वन्तरमारोपितम्‌ । या किकन्यापीष्टेन वियुज्यते सा प्रायो जलप्रवेशार्दिं 
कुरुते ।। 

त्थ विभव्रना- 

सेयं विभावनाख्या यस्यामुपलभ्यमानमभिघेयम्‌ । 


ग्रभिधीयते यत्तः स्यात्तत्कारणमन्तरेणंव ॥।१६॥। 
सेति । सेयमेपा विभावना, यस्यामभिघेयः पदार्थो यतः कारणान्निजाद्धेतोभेवति 
स पदार्थस्तत्कारणमन्तरेणाप्यभिधीयत इति । ननु तत्कारण चेत्कथं तरदविनोत्पत्तिरि- 
त्याहू--उपलभ्यमान दृश्यमानमिति । अत एवातिशयत्वमिति ॥ 
उद्ाहर्खम्‌- 
निहतातुलतिमिरभरः स्फारस्फुरदुरुतरप्रभाप्रसरः। 
__ शं वो दिनक्ृदिश्यादतंलपुरो जगदहीपः॥१७॥ 
उत््रक्षा होती है ।१४। 
उदाहरण - 
वर्षा ऋतु आने पर पानी से लवालव मरे हृए ताव मे सानो हंस के वियोग 
से सत्तप्त होकर कमलिनी ने तुरन्त जल में प्रवेश किया । १५। 
कमलिनी वर्पाऋछतुमे जक की वहता के कारण ताराव मेउगअतीदहै, 
किन्तु यहां अन्य कारण प्रस्तुत किया गयादरहै। 
£. विभावना 
जहा कोई ेश्यमान पदाय किसी कारण के चिना कहा जाए वहां विभावना 
अकार हत्त ह \ १६ 
उदाह्रण-- 
अत्यन्त गाढ अन्धकार का नाहम करने वाक्त, अपनी अति समुज्ञ्वर परमाका ` 
प्रसार करने चाले, तररदहित, जगु के दोपक सूर्यं मगवानू तुम्हारा क्रत्याण करे 1१७1 
मूर्यं को दीप कहते हुए भी अतंलपुर कहना विभावना" है । 


कारिका १८-२० | नवमोऽध्यायः २९६७ 
अत्राभिघेयं दीपलक्षण यतः कारणात्तराख्या(द्धवति तर्हिनापि कथितमतंरुपूर 
इति । अत्र च दीपं इवं दीप इति सत्यपि रूपकत्वेऽतंलपूर इति विभावनाविभागः ॥ 
ग्रकराचतरमाह-- 
यस्यां तथा विकारस्तत्करारणमन्तरेण सुव्यक्तः । 
प्रभवति वस्तुविशेषे विभावना सेयमन्या तु ॥१८॥ 


यस्यामिति । सेयमेषान्या विभावना, यस्यां तथेति यत. कारणादिकारः क्व- 
चिद्रस्तुनि प्र मवति तत्कारणमन्तरेणापि सुव्यक्तः प्रकट स विकार" कथ्यत इति ॥। 


उद्ाह्र्यय्‌- 
जाता ते सखि सांप्रतमश्रमपरिमन्थरा गतिः किमियम्‌ । 
कर्मादभवदकस्मादियममधुमदालसा द्ष्टिः ॥ १९ 


जातेति । अत्र गतिहष्टिलक्षणं वस्तुविशेषे मन्थरत्वारुसत्वलक्षणो विकारो यतः 
कारणाच्छममधुमदलक्षणा दभूवति तेन विनेवोक्त । अथ पूरवंतोऽस्याः को विशेषः । 
उच्यते--पूरवताभिषेय कारणमन्तरेणोक्तमिह तु विकार इति ॥ 

भूयोऽपि मेदान्तरमाह-- 

यस्य यथात्वं लोके प्रसिद्धमथंस्य विद्यते तस्मात्‌ । 

ग्रन्यस्यापि तथात्वं यस्यामुच्येत सान्येयम्‌ ॥२०॥ 


यस्येति । यस्यार्थस्य यथात्व यादुग्धमेत्व कोके प्रसिद्ध ततोऽ्थदिन्यस्यापि 
तथात्वं ताद्र्धमंता कथ्यते सेयमन्या विभावना ॥ 


प्रकारान्तर- 
जहां किसी वस्तु का विकार, विकार करने वाके कारण।के बिना ही प्रकट 
3 जाता है वहां मन्य विभावना होती है 1 १८। 
सदाहरण-- 
हे सखि ! विना किसी श्रम के भी तुम्हारी गति क्यो हिथिलहोरहीहै भीर 
मधुपान के तुम्हारी अखं क्यों सहसा अलसा रही हैँ । १९ 


॥ 


जितत अर्थं का जो यथात्व (धमं) लोक मे प्रसिद्धै व॑साही [घर्म] किसी 
~ अन्म्‌/का बतलाना अन्य विमावना है ।२०। 


[` ५५५ / 


युत्त संगं लक्ष्यारूपावस्यन्दध्यतयोक्रती ।। 


२९५ कान्याखद्भुारः [ कारिका २१२ 


स्फुटमपरं निद्रायाः सरसमचेतन्यकारणं पृंसाम्‌ | 

ग्रपटलमान्ध्यनिमित्तं मदहैतुरनासवो लक्ष्मीः ।२१॥ 

स्फुटमिति । अत्रार्च॑ततन्यनिमित्तत्वं निद्रायाः प्रसिद्रम्‌ । आन्ध्यहैतुत्वं पटदकश्य । 
मदकारणत्वमामवस्य । वथ चान्यरयाश्ररय खक््मीदक्षण्रस्योक्तमिति ॥ 

द्रथ तद.गुयः- 

यस्मिन्नेकगणानामर्थानां योगलश्ष्यरूपाणाम्‌ । 

संसग नानात्व न लक्ष्यते तद्गुणः स इति ।२२॥ 

यरिमन्निति । यत्राभिन्नगुणानामर्धाना स्वन्थे स्रति नानार भेदोन गयत 
ट्युच्यते स तद्गुणो नामाककार्‌. स्यात्‌ । म्न एव गुणो यत्ति छृत्वा। ननु दुग्ध- 
तक्रादीना ससग नानात्व न लक्ष्यत्त एव तक्िमतिलयत्वमित्याह्‌--योगदध्यरूपाणा- 
मिति। यत्र योगे सति रूप लक्षचितु गक्यमथवा छक्ष्यमिति कथ्यत इत्यथः ॥ 

उदाहर्खम्‌- 

नवधौतधवलवसनाश्चन्िकया सान्या तिरोगमिताः | 

रमणभवनान्यशङ्रु सर्पन्त्यभिसारिकाः सपदि ।२३॥ 

नवेति । यवर ज्योत्स्नािसारिकाटध्षणावथविकेन सहुनाहार्येण युक्छगुणेन 


उद्ादुरण-- 

निद्रावस्था को मुरता मे मनृष्यों को चेतनाचुन्तदहौ जाया करती है, किन्तु 
ल्मी आसवन होते हृए भी मनुष्यो को विना बिं वन्द कयि मदे अन्धा वना 
देती टै ।२१ 
५. तद. गर 

जहा एक गुण वाले उन मर्थो (पदार्थो) के संसग में नी विभिन्नरूपा 
छित नहीं होती, जिन्हं परस्पर योगरूप में (एक साथ) देखने पर्‌ छक्षित हो जाती 
है, वहा 'तदुगुण' मलंकार होता है ।२२। 


समिसारिकाएं निर्मल द्यक्लं वस्त्र पहनने के कारण गहरी चदिनी में अल- 
क्षित हो निःक रप से अपने प्रेमियों के धरो मे द्रूतवेगसेप्रवेश्च कर रही ह ।२३ 

युक्ठ चरर ओर्‌ चद्धिकामं युप गुण ममान, परन्तु डन द्रोनों कौ एक 
माय दसन प्र्‌ नकी युक्ता मं भिन्ना व्छक्निन दो जानी दै, किन्नु वर्ह मभिन्न 


 ,_ ,\ +£ +, 4. 3 च ~+ # 


कारिका २४-२६ ] नवसोऽध्यायः २६९ 


मेदा न्तरमाह-- 

ग्रसमानगणं यस्मिन्नतिबहलगुणेन वस्तुना वस्तु । 

संसृष्टं तद्गुणतां धत्तेऽन्यस्तद्गुणः स इति ॥२४। 

समानेति 1 यत्र वस्तुनान्येन संमृष्ट वस्तु तद्गुणता धत्ते तदीयगुण भवतीति 
कथ्यते स इत्यन्थस्तद्गुणः । कदाचिदेकगुणता तयो विष्यति, अतो नातिश्चयत्वमि- 
त्याह--अतिबहर्गुणेनेति । अतिबहुगणता तदुगुणत्वहेतु. क्रियत इत्यथः 

उदाहरयमा€- 

कूठ्जकमालापि कता कातंस्वरभास्वरे त्वया कण्ठं | 

एतत्प्रभानुलिप्ता चम्पकदामश्रमं कुरुते ॥२५। 

कुल्जकमालरेति ! अत्र शुक्लगुणा कुभ्जकमाका गौरवणंकण्ठेन सपृक्ता गौरमेव 
वर्णं धत्ते 

तअथाधिकम्‌- 

यत्रान्योन्यविरुद्धं विरुद्धबलवत्कियाप्रसिद्ध वा । 


वस्तुद्रयमेकस्माज्जायत इति तद्धवेदधिकम्‌ 11 २६।। 
यत्रेति 1 यव्रंकस्मात्कारणा्रस्तुद्रयमृत्पद्यत इत्युच्यते तदधिकम्‌ 1 किमेतावता- 
तिशश्यत्वमित्याह-अन्योन्यविणद्धम्‌ । परस्परविरुडढस्वभावमित्य्थः । प्रकारान्तर- 
माह्‌--विरुद्धाम्या वल्वतीभ्या क्रियाभ्या प्रसिद्ध वा यत्रेकस्मात्कारणाद्रस्तुद्रय जायते 
तदप्यधिकम्‌ 11 
दिखाने से (तद्गुणः है । 
अन्य प्रकार-- 
जहां अनेक गुणो से युक्त वस्तु के सम्पकं से कोई वस्तु [अपने असमान] 
तथा उसके समान गुण को धारण कर केतो है वहाँ मन्य तद्गुण अलंकार होता है ।२४। 
उदाहरण- 
तुम्हारे स्वणं के समान उज्ज्वल कण्ठ मेँ पड़ी हुई यह श्ुक्छ कुव्जक पुष्पों की 
माला कण्ठ की प्रमा के सम्पकं से चस्पकमाला की ्राम्ति उत्पन्न कर रही है ।२५। 
¢. अधिक 
(१) जहां एक ही कारण से अन्योन्य-विरुदध अर्थात्‌ परस्पर-विरुद्ध स्वभाव 
वाङ पदाथं उत्पन्न हों वह्यं अधिक अलंकार होता है) (२) जहाँ एक ही कारणसे 
एसे दो पदाथं उत्पन्न होते है जिनकी क्रियां परस्पर चिरद्ध बर (परिणाम) वाल 
प्रसिद्ध है, बह्म मी अधिक अकार होता ह ।२६। 


३०२ कान्यालङ्कारः [ कारिका ३२-३४ 


वि रोधश्च 1 अत एव तन्नामानः । तथा तेभ्यः सजातीयेभ्योऽन्येपां विजातीयाना पुन- 
विवीयमानस्य पञ्च भेदा भवन्ति । यथा द्रन्यगुणयोद्रं व्यक्रिययोर्गणक्रिययोर्गणजात्योः 
क्रियाजात्योश्चेति ॥ 

ननु द्रव्यजाप्योरपि पष्ठो भद्‌, समसि तत्कथं पन्वेत्युकतं तत्राह-- 

जातिद्रव्यविरोधो न संभवत्येव तेन न पडते । 

प्न्य तु वक्ष्यमाणाः सन्ति विरोधास्तु चत्वारः । ३२॥। 

जातीति । नित्यमेव द्रव्याध्रितत्वाज्जातेनं जातिद्रव्ययोतिरोध इ्यर्थः। एव 
नवभेदाः । तथाच्रास्ये वक्ष्यमाणास्वत्वारो विरोवा. सन्ति ।। 

तद्यथा- 

यत्रावश्यंभावी ययोः सजातीययोभेवेदेकः । 

एकत्र वि रोधवतोस्तयो रभावोऽयमन्यस्तु ।। ३३ ॥। 


यत्रेति । यत्राधारे विरुद्रयोः सजातीययोरर्थयोमध्यादेकोऽवद्यंभावी निरहिचतो 
भवति, तयोर्योरप्यभावो यत्र कथ्यते सोऽपरो वि रोघञ्चतुर्वा द्रव्यगुणक्रियाजाभेदेन । 
इत्येवं चरयोदगसख्योऽय विरोधारंकारः॥ 


त्रथेपामेव यथाक्रमभदाहर्खान्याह- 
म्रत्ेन््रनीलभित्तिषु गुहासु शले सदा सूवेलास्ये । 
श्रन्योन्यानभिभूते तेजस्तमसी प्रवर्तते | ३४॥। 


[1 [गभीरम 0 7०५१ 


जाति गौर द्रव्यका विरोध सम्मव नही है 1 अतः यहु [ विजातीय विरोध 
पच होते ह] छः नहीं! [इन नौ भेदो के अतिरिक्त] विरोधके चारमभेदभीरमी 
होते है ३२ 

जहा दो खजातीय परस्पर-विरोधी च्च्य गदि [अर्थो] येसेकिसीषएकका 
रहना अवदहयस्मावी हो, पर उन दोनों का अभाव निदि किया जाए तो बहा [ विरोध 
अलंकार के इन्हीं नामों फे चार] भेद होति ई ।३३। 

इस प्रकार कुर € -{-४-- १३ भेद हुए 1 
उदाहरण ` सजातीय (दो विरोधी द्रव्यो की एकव स्थिति) -- 

दस सुवेल नामक पवत की इन्द्रनील मणि जटित गुफामों में तेज भौर अन्धकार 
अविरुद्ध भाव से स्थित्त है 1३४1 


+> 


कारिका ३५-३८ 1] नवमोऽध्यायः ३०३ 


अत्रेति । अत्र तेजस्तमसोतिरुद्धद्रव्ययोरेकत्र गुहा धारेऽवस्थितिरुक्ता ॥। 

सत्यं त्वमेवं सरलो जगति जराजनितकुञ्जनभावोऽपि । 

ब्रह्यन्परमसि विमलो वितताध्वरधूममलिनोऽपि ।२३५।। 
सत्यमिति 1 अत्र सररत्वकुब्जत्वादिविरुद्धगुणावस्थितिः ॥। 

बालमृगलोचनायार्चरितमिदं चित्रमत्र यदस माम्‌ । 

जडयति संतापयति च दूरे हदये चमे वसति । ३६॥ 
वातेति 1 अत्र जडीकरणस्षतापनादिक्किये विरुद्धे । 

एकस्यामेव तनौ बिभति युगपन्न रत्वसिहत्वे । 

मनुजत्वव राहत्वे तथेव यो विभरुरसौ जयति ।॥ ३७ ॥ 
एकस्यामिति । अत्र नरत्वादिजातिविरोध ॥। 

अथ विजातीयोदाहरखान्याह-- 

तेजस्विना गृहीतं मादेवसुपयाति परय लोहमपि । 

पात्रं तु महद्विहितं तरति तदन्यच्च तारयति ॥ ३८॥। 
तेजस्विनेति । अवर कठिनस्य रखोहुद्रव्यस्य मार्दंवगुणस्य च विरोषेऽप्येकत्राव- 


स्थिति. 1 अत्र लोहुद्रग्यस्य तरणक्रियायास्च विरोधेऽवस्थितिः ॥ 


उदाहरण (दो विरोधी गुणो की एकव स्थिति)- 

है ह्यनु { तुम च्द्धावस्था के कारण कुबडे होते हृए मी सरल (सीधे) हो 
सौर सतत हो रहे यज्ञो के धूम से मलिन होकर भी परम निर्मल हो ।३५। 
उदाहरण (दो विरोधी क्रियाओ की एकत्र स्थिति)- 

उस बा मृगनयनी का चरित्र कितना अद्भुत है, वह मुञ्ञे शीतल भी करती 
है भौर सन्तक्त भौ । वह गक्षसे दूरभीहै भौर हव्य में स्थित होने से निकट भो ।३६। 
उदाहरण (दो विरोधी जातियो की एकत्र स्थित्ति)- 

उस निभुकौजयहो, जो एकह श्रीर्‌ मे एक साथ नरत्वं ओर सिहूत्व 
(मरसिहाबतार } नरत्व ओर वराहुत्व (बराहावतार) धारण करता है !३७। 
उदाहरण : विजातीय (विरोधी द्रव्यं जौर गुण की एकव स्थिति)-- 

बर्वानु पुरुष के हाथों में लोहा मी कोमल हो जाता है तथा वंज्ञानिक दारा 
माचिष्छृत छोहै का यान स्वयं जल मे तरता है ओौर इसरों को भी तराता है 1३८) 


३०० काव्यालङ्कारः [ कारिका २७-२६ 


उदाह्रखस्‌- 
मुञ्चति वारि पयोदो उ्वलन्तमनलं च यत्तदाश्चयंम्‌। 


उदपद्यत नीरनिर्धेविषममृतं चेति तच््चि्िम्‌ ।२७॥ 

मुञ्चतीति । अत्र पूर्वां एकस्मान्मेषादस्तुद्रय वारिज्वलनरक्षणं विरुद्ं जाय- 
मानमृक्तम्‌ । उत्तराधं त्वेकस्मात्समुदराद्रस्तुदयं विपामृतलक्षणमन्योन्यविरुदधक्रियमूक्तम्‌ । 
विपामृतयोहि न परस्पर विरोध. । किंतु मारणजीवनक्रियि विरुदे । इत्युदाहुरणदय- 
मेतत्‌ 1 

भेदान्तरमाह-- 

यत्राधारे सुमहत्याधेयमवस्थित तनीयोऽपि । 

भ्रतिरिच्येत कथंचित्तदधिकमपरं परिज्ञेयम्‌ ।।२८॥। 

यत्रेति । यत्र सुमहत्यप्याधारेऽतिशयवत्यप्याधेयं वस्त्ववस्थितं कुतदिचत्कारणान्न 
माति तदपरमधिक वोद्धन्यम्‌ ।। 

उदाहर्यपस- 

जगद्विराले हदि तस्य तच्वी 

प्रविश्य सास्ते स्म तथा यथा तत्त्‌ । 
पर्याप्तसास्रीदखिलं न तस्यास्त- 


जावकाशस्तु कूतोऽपरस्याः 11 २९ ॥ 
उदाहुरण- 

आश्चयं है कि मेच जलवृष्टि के साथ अग्नि (चिद॒त्‌) भी षंदा करताहै। 
समूद्र से चिषओर अमृत की उत्पत्ति मी आश्चयं मे डालने वाटी है ।!२७। 

(१) जल भौर अग्नि-ये दोनों पदाथं मेघ से उत्पन्न होते है! 

(२) विष ओर अमृतये दोनो पदाथं सागरसे उत्पन्न होते है। जल 
ओर अम्निमे परस्पर विरोवदहै, किन्तु विष भौर अमृतमे परस्पर विरोधवतो नही 
है, पर इनकी क्रियाएं परस्पर-विसोधी है । एकमे मारणकी शक्तिद भौर द्रूसरेमे 
जीवन की । अतः इन दोनो वक्यो मे अधिक अकार है । 
अन्य प्रकार- 

जहाँ सुविकश्चाल आधारम मीकिसीकारणसे छोटी वचस्तु नहीं समाती दह 
वहाँ दूसरा अधिक अकार जानना चाहिए ।२०८॥ 
उदाहरण-- - 
वह कोमलांगी उसके जगद्‌ विशाल हदय में किसी तरह कठिनता से भ्रवेदा 


कारिका ३०-३१ | नवमोऽध्यायः ३०१ 


जगदिति । भत्र जग्टिस्तीर्णऽपि हृदये आधारे तन्वीलक्षणमाधेय स्वल्पमपि न 
माति । तस्यास्तत्रामानमनुरागाद्‌ वहिरपि सवव दशनात्‌ । तन्वीति साभिप्रायमत्र 
नाम ॥ 

अथ विरोधः- 
यस्मिन्द्रव्यादीनां परस्परं स्वेथा विरुद्धानाम्‌ । 


एकत्रावस्थानं समकालं भवति स विरोधः ।॥ ३० ॥ 

यस्मिन्नति । यत्र द्रव्यगुणक्रियाजातीना विरुद्धानामेक्राधारेऽनस्थानं भवति 
स विरोधः । परस्परमन्योन्यम्‌ । न त्वाधारेण सह । तथा सवंप्रकार सजातीयं विजाती- 
येरच सहेत्यथं । समकालमिति युगपत्‌ 1 अत एवातिशयत्व भवति ॥ 

एवं सवथा विपे सति कियन्तो मेदा इति तत्संस्यामाह-- 

ग्रस्य सजातीयानां विधीयमानस्य सन्ति चत्वारः । 

भेदास्तन्नामानः पञ्च त्वन्ये तदन्येषाम्‌ | ३१॥; 

अस्येति ! अस्य विरोधस्य सजातीयाना द्रव्यादीना विधीयमानस्य चत्वारो 


भेदा सन्ति । यथा द्रव्ययोविरोधो द्रव्यविरोध. । एव गुणविरोध. क्रियाविरोवो जाति- 


पा सकी थी, क्योकि उसके ठहरने के क्तिए स्थान पर्याप नहीं था । वहां किसी जौर 
कामिनी के प्रवेश कातो प्रश्न ही नहीं उख्ता ।२६। 
७. विरेध 

जहां एक ही समय एक ही स्थान (आधार) पर परस्पर-विरुढध द्रव्यादि 
(द्रव्य, गरुण, क्रिया मौर जाति) का अवस्थान हो वहाँ विरोध अककार होता है 1३० 
विरोघ के भेद-- 

सजातीय द्रव्य आदि ह्यारा कयि गये विरोधके इसी नामके चार भेद होते 
है, किन्तु सजातीय से इतर [अर्थात्‌ विजातीय द्रव्यादि द्वारा किये गये विरोधके] 
पांच भेद होते हँ 1३१ 
सजातीय- 

[१. दोद्रव्योमे, २. दोगुणोमे, ३ दोक्रियाभोमे, ४. दो जात्तियो मे| 
विजातीय- 

[१ व्रन्यजौरगुणमे, २. द्रव्य ओौरक्रियामे, ३. गुण ओौरक्रियामे, ४. 
गुण ओर जाति मे ओर ५. क्रिया ओर जाति मे ।| 

इस प्रकारये ९ भेद हुए} 

दसं प्रकार एक विजातीय रूप शेप रहता है: द्रव्यका जातिके साथ 
विरोध । इसके सम्बन्ध मे नमिसाधु का कहना है कि-- 


िानन- 


३०२ कान्याल्ङ्कारः [ कारिका ३२-३४ 


वि रोधद्च । अत एव तन्नामानः । तथा तेभ्यः सजातीयेभ्योऽन्येपां विजातीयानां पुन- 
विधीयमानस्य पञ्च भेदा भवन्ति । यथा द्रन्यगुणयोद्र व्यक्रिययोर्गणक्रिययोर्गृणजात्योः 
क्रियाजात्योर्चेति ॥ 

ननु द्रम्यजात्योरपि पष्ठो भदः समस्ति तक्रथं पञ्वेद्युकतं तत्राह-- 

जातिद्रव्यविरोधो न संभवत्येव तेन न षडेते । 

ग्रन्ये तु वध्यमाणाः सन्ति विरोधस्तु चत्वारः। ३२॥। 

जातीति । नित्यमेव द्रव्याधितत्वाज्जातेनं जातिद्रव्ययोतवियोव इत्यर्थ. । एवं 
नवभेदाः 1 तथाच्रान्ये वक्ष्यमाणाज्चत्वारो विरोधा. सन्ति ॥ 

त्था- 

यत्रावदयंभावी ययोः सजातीययोभवेदेकः ! 

एकत्र वि रोधवतोस्तयोरभावोऽयमन्यस्तु ।। ३३॥ 


यत्रेति । यत्राघारे विरुद्धयोः सजातीययोरर्थयोर्मध्यादेकोऽचश्य भावी निडिचितो 
भवति, तयोद्धंयोरप्यभावो यत्र कथ्यते सोऽपरो वि रोवद्चतुर्था द्रव्यगुणक्रियाजाभेदेन । 
इत्येवं च्रयोदशसंख्योऽयं विरोधाकंकार ॥ 

त्रथेपामेव यथाक्रमगरदाहरणान्याह- 

म्रत्रेन्रनीलभित्तिपु गृहायु दने सदा सुवेलास्ये । 

ग्रन्योन्यानमिभूते तेजस्तमसी प्रवर्तते । ३४।। 


वि कि । ॥ ए. त  , क ० क 1 [णी 


जाति ओर द्रव्य का विरोध सम्भव नहीं है । अतः यह्‌ [विजातीय विरोध 
पाचदहोतेहै] छः नहीं! [इनन भेदो के अतिरिक्त] धिरोधरङे चारभेदभीरमी 
होते हं \३२। 

जहां दो सजातीय परस्पर-चिरोधी द्रव्य आदि [अर्थो] मंसे क्रिसीषएकका 
रहना अवद्यम्मावी हो, पर उन दोनों का अमाव निर्दिष्ट किया जाए तो बहुं [ विरोध 
अलंकार के इन्हीं नामों के चार] भेद होते ह ।३३। 

इस प्रकार कुक € -{-४-- १३ भेद हुए ! 
उदाहुरण : सजातीय (दो विरोधी द्रव्यो की एकत्र स्थिति)- 

इस सुवेल नामक पर्वत की इन्द्रनील मणि जटित गुफामं में तेज गीर अन्धकार 
सविर्द्ध भाव से स्थित रह ।२४। 


कारिका ३५-३८ | नवमोऽध्याय. २३०३ 


अत्रेति । अत्र तेजस्तमसोविरुद्धद्रग्ययोरेकनत्र गुहाधारेऽवस्थितिरुक्ता ॥ 

सत्यं त्वमेवं सरलो जगति जराजनितकूब्जभावोऽपि । 
ब्रह्यन्परमसि विमलो वितताध्वरधूममलिनोऽपि ॥३५॥। 
सत्यमिति । अत्र सरख्त्वकून्जत्वादिविरुद्गुणावस्थिति ॥ 
बालमृगलोचनायास्चरितसिदं चित्रमत्र यदसौ माम्‌ । 
जडयति संतापयतिच दूरे हदये चमे वसति । ३६॥ 
तारेति । अत्र जडीकरणसतापनादिक्रिये विरुदे 

एकस्यामेव तनौ बिभति युगपन्नरत्वसिहत्वे । 

मनुजत्वव राहत्वे तथेव यो विभुरसौ जयति | ३७ ॥ 
एकस्यासिति । अत्र नरत्वादिजात्तितिरोधः ॥ 

अथ विजातीयोदाहरयान्याह-- 

तेजस्विना गृहीतं मादेवसमुपयाति परय लोहमपि । 

पात्रं तु महदिहितं तरति तदन्यच्च तारयति । ३८ । 


तेजस्विनेति । अत्र कठिनस्य लोहुद्रव्यस्य मादेवगुणस्य च विरोषेऽप्येकत्राव- 
स्थित्तिः । अत्र लोहुद्रव्यस्य तरणक्रियायाद्च विरोषेऽवस्थितिः ॥ 


उदाहरण (दौ विरोधी गुणो की एकत्र स्थिति)- 

है ब्रह्न ! तुम बुद्धावस्था के कारण कुबडे होते हृए भी सरल (सीधे) हो, 
ओर सतत हो रहे यज्ञो के धुम से मक्तिन होकर भी परम निर्मल हो \३५। 
उदाहरण (दो विरोधी क्रियाओं की एकत्र स्थिति)- 

उस बाल मृगनयनी का चरित्र कितना अड्भुत है, वह्‌ मक्षे शीतल भी करती 
है ओर सन्तप्त भी ! बह मु्चसे दूरभीहै ओरहदयमे स्थित होने से निकट मी \३६ 
उदाहरण (दो विरोधी जातियो की एकत्र स्थिति)-- 

उसविभरुकोजयदहो, जोएकही शरीर मे एक साथ नरत्व ओर सिहत्व 
(म्ासिहावतार) नरत्व ओर वराह॒त्व (वराहावतार) धारण करता ह ।३७1 
उदाहरण ˆ विजातीय (विरोधी द्रव्यं ओौर गुण की एकत्र स्थिति)-- 

वलवान्‌ पुरुष के हाथों मे लोहा मी कोमल हो जाता है तथा वैज्ञानिक हारा 
जाविष्कृत लोह का यान स्तयं जल में तरता है ओर दूसरों को मी तराता है ।३८। 


३०४ काव्याछद्धुारः | कारिका ३६-५८२्‌ 


सा कोमलापि दलयति मम हृदयं पश्यतो दिशः सकलाः । 
ग्रभिनवकदम्वधृलीधृसरशुश्रश्रमद्‌श्रमराः ।।३६॥ 
सेति । अत्र कोमदगरुणस्य दलनक्रियायाय्च विरोवेऽप्यवस्थितिः । यत्र भ्रमर 
जातिः गुङ्कत्वगुणस्य च विरोधः ॥ 
वरतनु विरुद्रमेतत्तव चरितमहष्टपुवमिह लोके । 


मथ्नासि येन नितरामवलापि वलान्मनो यूनाम्‌ ।।४०॥ 
वरतन्वित्ति । अव्रावटत्वजातेर्मथनक्रियायाद्चं चिरोवः॥ 
ग्रन्ये तु मेदाश्चवारः तन्तीद्युक्तम्‌ । ते पायुदाहट्छान्याह-- 
ग्रविवेकितया स्थानं जातंन जलं न च स्थलं तस्याः । 
प्रनुरज्य चलप्रकरतौ त्वय्यपि भर्ता यया मुक्तः ॥४१॥ 
यविवेकितयति । अत्र द्रव्ययौर्जटस्यल्योविरोधित्वादेकस्याभावेऽवद्यमेवेतर- 
स्यावस्थानेन भाव्यम्‌ \ मत्र चोभयोरप्यभाव उक्तः । 
न मृदु न करिणमिदं मे हतहृदयं पर्य मन्दपुण्यायाः । 
_ _ यद्िरहानलतप्तंन विलयमुपयाति नच दाढ्च॑म्‌ ॥४८२।॥ 
उदाहरण (विरोधी गुण गौर क्रिया की एकत्र स्थिति) - 
कदम्ब के नव-पराग से मलिन हो रहै सफ़ेद भरो के गंजन से व्याप्त दिल्ली 
को देखते हए मेरे हृदय को वहु कोमछाङ्खी तरुणी विदीणं कर देती है ।३६। 
उदाहरण (विरोधी जाति गौर क्रिया कौ एकत्र स्थिति)- 
है सुन्दरि ! वुम्हारा चरित्र संसार में निराला है, क्योकि उसमें परस्पर-विरोधी 
गुण ह । तुम निपट अवला होकर भी थुवकों के चित्त को वलपुर्वक मथ देती हो ।४०। 
जव विरोध अककार के अन्तिम चार भेदो के उदाहरण प्रस्तुत कि जाते दै- 
उदाहरण (दोनों विरोधी द्रव्यो का अभाव)-- 
तुक्च जैसे च॑चल-प्रकृति से प्रम करके जिसने मूखंतावल् अपने स्वामीका भी 
त्याग करदियादहै, उन्ेनतोस्थलमेंश्रणदहै मौर न जकर में ।४१। 
स्थल भौर जक--ये दोनो विरोधी द्रव्य है। इनमे से किसी एक के अभावमे 
दूसरेमेदी [नायिका की] स्थिति होनी चाहिए, किन्तु यहाँ दोनो दन्यो का अभाव 
वताया गया) 
उदाहरण (दोनों विरोधी गुणो का अभाव)-- 
मक्ष मन्दमागिनी का यह्‌ इष्ट हृद्य नतो भृडुहै मौर न कोर, क्योक्रि यदि 
मृदु होता तो विरहं कौ अग्निमे सन्तप्त होकर पिधल जाता, यदि कठोर द्ोतातीो 


कारिका ४३-४५ |] नवमोऽध्याय ३०५ 


नत्ति । यदि मदृहूदय मृदु भवेत्ततो विरहाग्नितप्त जतुवद्टिलीयेत्त | कठिन 
स्यात्ततो धनवदद्रहिमानमाप्तुयादिति । अत्र मादवकाटिन्ययोर्गणयोरेकस्याप्यभावः ॥ 

नास्ते नयाति हस. पर्यन्गगन धनश्यामम्‌। 

चिरपरिचिता च बिसिनी स्वयमुपभुक्तातिरिक्तरसाम्‌।।४३।। 

नेति 1 यथा पूर्वत्र गुणयोरेवमन्र क्रिययोरासनगमनलक्षणयोविरुद्धयोमंध्यादेकस्या 
अप्यभाव इति ।। 

नस्त्रीन चायमस्त्री जातः कुलपांसनो जनो यत्र । 


कथमिव तत्पातालं न यातु कूलमनवलम्बितया 11४४] 
नेति । कुरुपासन । कूरनासन इत । भतपि स्त्रीत्व दुषपतर जात्योर्विरद्ध- 
योमध्यादेकस्या अप्यभाव ॥ 


अथ विपसमाह- 
कायस्य कारणस्य च यत्र विरोधः परस्पर गुणयोः । 
तदत्करिययोरथवा सजायेतेति तद्िषमम्‌ ।1४५।। 


कायस्येति । यत्र कायेकारणसवन्धिनोर्गणयोः क्रिययोर्वा परस्परमन्योन्य विरोधो 
भवेत्तद्धिपमनामालक्रार. । ननु यदि वस्तुनोः कायकारणभावः, कथ तद्गुणयो क्रिययोर्वा 
विरोध । सत्यम्‌ 1 अत एवाति्चायत्वम्‌ 1 


रोहे को भाति ओर अधिकं कठोर बन जाता ।४२। 
उपयुक्त पद्य (४१) के समान यहाँ भी परस्पर-विरोधी दोनो गुणो- मृद भौर 
कटोर-का अभाव बताया गया दहै। 
उदाहरण (दोनो विरोधी क्रियाओ का अभाव)- 
स्वयं [ हंस ] हारा ही उपभुक्त होने के कारण अति रसहीन, चिरपरिचित कमलिनी 
को ओर मेधर्यामल आकाश्च देखते हए यह हंस न तो बहूरता है ओर न जाता है ।४३। 
यहाँ परस्पर-विरोधी दोनो क्रियाओ--ठहरना ओौर जाना--का अभाव है । 
उद्राहरण (दोनो जात्तियो का अभाव) - 
जहां इस जसा क्रुल्घातो पदाहो, जो नस्त्रीहै, न पुरुष, बह वंशक्योन 
रसातल को प्राप्त हो 1४ 
यहो परस्पर-विरोधी दोनो जातियो-- स्त्री मौर पुरूष--का अभाव है । 
८. विपम 
जहां कार्य ओर कारण से सम्बद्ध गुणो अववा क्रियाजो का परस्पर-विरोध 
“ उत्पन्न हो, बहुं विषम अकंकार होता है ।४१५। 


४. 
प्च च 
॥ 


उदाहरण (गुणो मे परस्पर विरोध) - 


॥ 


२०६ कान्यालद्धारः | कारिका ४६-४८ 


उदाहरर्म्‌-- 

भररिकरिकूम्भविदारणरुधिरारुणदास्णादतः खङ्खात्‌ । 

वसुधाधिपते धवलं कान्त च यशो बभूव तव ।४६। 

अरीति। अत्र कारणस्य खड्गस्य गुणौ लौहित्यदारुणत्वे, ' का्थंस्य यशसो 
धवलत्वकान्तत्वे, तेपा चान्योन्यं विरोधः ॥ 

तथा- 

म्रानन्दममन्दसिमं कुवलयदललोचने ददासि त्वम्‌ । 

विरहस्त्वयेव जनितस्तापयतितरां शरीरं मे।।४७।। 


आनन्देति । अच्र कारणस्य नायिकाया. क्रिया अआनन्ददानम्‌, कार्यस्य तु 
विरहस्य तापनम्‌, तयोद्चान्योन्यं विरोधः । 


उअथातंगतिः- 
विस्पष्टे समकालं कारणमन्यत्र कायंमस्यतरे । 
यस्यामुपलभ्येते विज्ञेयासंगतिः सेयम्‌ ।1४८॥ 


विस्पष्ट इति ¡ सेयमसगतिबद्धिग्या, यस्या विस्पष्टे प्रकटे समकालमेव च 
कायंमन्यत्रोपकभ्यते कार्य वान्य्ेत्ि, अत एवासगतिर्नामि, अतिरायत्वं च ॥ 


[गौरि {1 ए क । 


है राजन्‌ । अरि-सेना के हाथियों के मस्तक्-विदारण से निकले रक्त से खाल 
ओर कठोर तुम्हारे इस खडग से पवेत ओौर सुन्दर यश्च उत्पन्न हुआ ।४६। 

यहां खड्ग कारण है, इसके दो गुण है रक्तता ओौर दारुणता । इसका कायं 
है-यश, जिसके दो गुण है--ष्वेतता ओौर युन्दरता। ये दोनो गुण उक्त दोनोके 
विरोधी है] 
उदाहरण (दो क्रियागो मे परस्पर विरोव)- 

है फमलख्पन्न के समान सुन्दर नेत्रवाटी ! तुम मुक्षे अतु भानन्द देती हो 
किन्तु तुम्हारा विरह मेरे चरीर को अत्यन्त सन्तप्त एरता है 1४७ 

यहां नायिका कारण है, उसका विरह कायं है । कारण की क्रिया आनन्द देना 
है ओर कायं की क्रिया सन्ताप देना । ये दोनो क्रियाय परस्पर-विरोधी है। 


६. श्रसंगति 
जहा स्पष्टतः एक ही काल मे कार्यं कही भौर कारण कहीं बणित हो, वहां 
संगति अलकार होता हं ।४८। 


कारिका ४६-५१ | नवमोऽध्याय ३०७ 


उदाहररम्‌-- 
नवयौवनेन सुतनोरिन्दुकलाकोमलानि पूर्यन्ते 


ग्रङ्खान्यसंगतानां यूनां हदि वर्धंते कामः ।४६।। 
नवेति 1 अत्राद्खपूरणास्य कारण तन्वीस्थम्‌, मदनवधन कार्यं युवश्थ विस्पष्ट - 
मेवोपलभ्यते ।। 


अथ पिहितम्‌- 
यत्रातिप्रबलतया गुणः समानाधिकरणमसमानम्‌ । 


प्र्थन्तिरं पिदध्यादाविभू तमपि तत्पिहितम्‌ ॥५०॥ 
यत्रेति । यत्रैकाधारमर्थान्तरं कर्मभूत गुणः कर्तातिप्रवल्तया हैतुभूतया 
पिदध्यात्स्थगयेत्तत्पिहित नामालकारः ! ननु तुल्य गुष्णन्तर स्थग्यत एव किमतिश्यत्व- 
मित्याह-असमानम्‌ । असदकमित्यथंः ! कदाचिदसमानमप्यरुव्वपाटव स्यादित्यत 
आह--भाविरभूतमपीत्यथं. । असमानग्रहणेन प्रथमाततद्गुणालकारादिशेष ख्याप्यते, तत्र 
ह्य कगुणानामर्थानां संसगं नानात्व लक्ष्यत इत्युक्तमूं । द्वितीयात्तहि कोऽस्य विशेषः । 
उच्यते--तत्रासमानंगुण वस्तु वस्त्वन्तरेण प्रवलगुणेन ससुष्ट तद्गुणता प्राप्यते, न त- 
द्विधीयत इति । मीक्तितार्ताहि कोऽस्य भेदः 1 उच्यते--असमानचिह्घत्वमेव । तत्र हिं 
समानचिद्ध न वस्तुना हषेकोपादि तिरस्क्रियत इति सर्वं समञ्जसम्‌ ।। 


उदाहर्खम्‌- 

प्रियतमवियोगजनिता कृशता कथमिव तवेयम ङ्खेषु । 

लसदिन्दुकलाकोमलकान्तिकलपेषु लक्ष्येत ।*५१॥ 
उदाहरण- 


सुन्दरी के चन्रमा की कला के समान कोमल अगोको भरतातो है नवयौवन, 
ओर काम बढता है विरही नवयुवको के हृदय मे ।४&। 
९०. पिहित 

जहां कोई गुण अपने गौरव से किसी एसे अन्य गुण को अयने गौरव से आच्छादित 
करने जो फि समानाधिकरण नाला, अर्थात्‌ उसी गुणे ही आधार से उत्पस्न 
(सम्बद्ध), होता हआ भी, उसके समान न हो, तथा स्पष्टतः प्रकट मी हो \५०। 
उदाह्रण- 

चन्द्रसाकी सरस कला के पतमान तुम्हारे इन कोमल भोर कान्त भगोँमे 
प्रियतम के वियोग को एकता कंसे दिखायी दे सकती है 1५१1 


३०८ कान्यालद्भुार्‌ [ कारिका ५२-५४ 


प्रियेति 1 अत्र कान्तिगुणेनार्थान्तरं कृथतास्यमेकाधारमसमानगुणमतिप्रवल- 
त्वात्पिहितमिति ॥ 

रथ व्याषतिः-- 

प्रन्यैरप्रतिहतपपि कारणमूत्पादनं न कार्यस्य । 

यरिमन्नभिधीयेत व्याघातः स इति विनेयः ॥५२।। 

अन्थैरिति । यत्र कारण कायंस्याजनकमूच्येत स कापेव्याघातास्योऽलद्भारः। 
कदाचित्कारणं केनचिस्प्रतिहतं भविप्यतीत्यत अद--अन्यैः कारणेरप्रतिहतमपीति । 
बत एवातिकयितमिति ॥ 

उदाहर्यमाह- 

यत्र सुरतप्रदीपा निप्करञ्जलवतंयो महामणयः । 

मात्यस्यापि न गम्या हूतवसनवध्‌ विसृष्टस्य ।५३। 

यत्रेति 1 भत्र दीपः कारणं कार्यस्य केज्जरुस्य नोत्पादकम्‌ । तच्च कारणं 
कारणान्तर्माल्यादिभिरप्रतिहतमिति ।। 


धाहितु-- 
वनवति विकारहेतौ सत्यपि नंवोपगच्छति विकारम्‌ । 
यस्मिन्तरथंः स्थं्यान्मन्तव्योऽसा वहेतुरिति । ५४॥ 


वलवतीति 1 असावहेतुनामालकारः, यचार्था विकारमन्यथात्वं नायाति । कदा- 
चिद्धिक्रियाक्रारण न स्यादित्याहु--व्रिकारहैतौी सत्यपि । कदाचिदसौ हेतुः प्रवो न 
स्यादित्याहु--वक्वतीति 1 अत एवातिनयत्वसिति । कथ नायाति, स्थर्यादिति ।। 


८. व्यराश्रात 

अन्य किसी कारणके विरोधीन होने षर मी जहां कारण कार्य को उत्पन्न 
नहीं करता वहा व्याघात अरकार जानना चाहिए 1५२ 
उदाहरण-- 

जहां पर राति में महामणि्ां चिना कज्जल भीर वत्तीकेही सुरत समयका 
दीपक होती ह, मौर चस्त्रव्रिहीन वु हारा [मणि्यो के ऊपर] डाली हई पुष्पमाला ने 
मी उनका प्रकाल्य मन्द नहीं पड़ता ।५३। 
८९. श्रन्‌ - 
नर्हा जो अर्यं स्थिरता कँ फारण वलवान्‌ कारण के होने पर मी विकार को 
प्राप्त्‌ नहीं करता वहं महेत मल्छार मानना चाहिए 1५४ 


कारिका ५५ | नवमोऽ ३०९ 


उदाहरण्म्‌-- 
रक्षेऽपि पेशलेन प्रखलेऽप्यखलेन भूषिता भवता । 


वसुधेयं वभुधाधिप मधुरमगिरा परुषवचनेऽपि ॥५५।। 
रूक्ष इति । अत्र रूक्नादिके बेरवति विकारकारणे सत्यपि विकारमपेरारुत्वादिकं 
राजा महासत्तवान्नायातीति । 


इति श्रीरुद्रटङृते कान्यारुकारे नमिसाधुविरचित्रिप्पणसमेतो- 
नवमोऽध्याय समाप्त. । 


उदाहूरण- 
है राजन ¡ आपने रूक्ष (उद्ण्ड) व्यविति के साथ कोमलतासे, दृ्टके साथ 
सज्जनता से व्यवहार करके तथा कठेरभाषी के साथ भी मधुर वचन बोकरते हए इस 
पृथ्वी षो अलङ्गत कियाद 1५५1 
रूक्षता आदि बरवानू कारणो के होते हुए भी अपेश्चर्ता (कठोरता) रूप कायं 
न होकर पेशलता (कोमलता) रूप कायं होने के कारण यहां अहैतु अलकार है । 


इति 'अश्ुप्रमाऽऽख्य-हिन्दो-ग्याख्यायां नवमोऽध्यायः समाप्त. । 


11 


दनम{ऽध्याय 


वास्तवौपम्यातिशयान्व्यास्यायाधुना क्रमग्राततं लेप व्याचिद्याश्चराह-- 

यत्र॑कमनेकार्थर्वाक्यं रचितं पदरनेकस्मिन्‌ । 

ग्रथं कुर्ते निश्वयमथंरलेपः स विनेयः ।॥ १ ॥ 

यत्रेति । य््र॑कमेव वाक्य रचित्त सदनेकस्मिन्नर्थं निभ्चग्र कुर्ते सौऽथव्छेपो 
विनेयः । नन्वेक चेद्राक्य कथमनेकार्थनिष्चय करोतीत्याह--गनेकाथं. पदं रचितमिति 
करत्वा । एक वाक्यमिवयेक्ग्रहण गब्ददनेपादस्य विनेपस्यापनार्थम्‌ । तत्र हिं धुगपदनेक 
वाक्य यत्र॒ विधीयेत्त म ज्छेपः (४१) इत्युक्तम्‌ । कि च तत्र गब्दानां च्टरेषः, अत्र 
त्वथनिमिति ॥ 


1. + 0 न= 1 [1 | ति 1, शि 2. 0 त 1 [ग 


वदाम जघ्याच् 


॥ 1 1 ए 11 विपी [ ष्णी परिरं 


वास्तव, श्रौपम्य श्रीर्‌ तअरतिशिय नामक श्रत्रकार-वर्गो क उपरान्त इस 
दभ्याय में एलेप नामक श्रलरार्‌-वगं का निरूपरसु करिया गया हे | वस्तुतः ह्यं 
रुद्रटने श्रथश्लेपके ही दक्त सण का खस्य प्रस्तुत क्रिया हं । इनके उपरान्त 
प्रलंकरारे के श्वि श्रौ शंकरः छपे की चर्वाकरी गयीहं। 
श्रधश्लष 

जर्हा भनेकाथेक पदो से रचित एक वाक्य अनेक अर्थो का निश्चय (दयोतन) 
करता है वा अर्थरलेष अलंकार जानना चाहिए ।९। 

गन्ददकेप के प्रकरण (४।१) म कहा गयाथा कि जब्दण्ठेपमे ण्कसाथ दौ 
वाक्य कह जाते है, किन्तु यहां एक ही वाक्य रहता है । इसके अतिरिक्त गब्दष्टेपमे 
दाब्दं का दलप रहताहे चिन्त अथदक्पमे अर्थो का) देष अलकरार उभे कते दै जो 
अनेकार्थना के वआाधार्‌ पर्‌ करान्य-चमत्कार्‌ उत्यन्न करता है । इयके दो शूप माने जाते 
दै--णन्दश्क्य गौर अरथश्ेप । दान्दश्केपके दो भेद है- सभग ओर अभग। 

च्छेप कै उक्त स्वष्प तथा भेदो के सम्बन्ध मे कतिपय स्पष्टीकरण अपेधित्त 


प्रर यथन्छपमे वया अन्तर दहै? 
चप अल्दारुकार्‌ हं अथवा बर्धाङिकार ? 


३. एकप अकार का मर्भिधा, ठक्षणा तथा व्यजना नामक बब्द-णक्तियोसे 
क्या सम्बन्ध द? 


कारिका १ |] दशमो ऽध्यायः ३११ 


१. शब्दरकेष गौर अथशकेष भे अन्तर 
ररेष अल्कारके दो रूप माने जाते है--रन्दररष ओर मथरकेष । इम दोनों 
रूपो का निर्णायक आधार है--अन्वय-व्यत्तिरेक-सम्बन्ध । जिसके होने पर जो रहे 
उसे “अन्वयः कहते है, ओर जिसके न होने पर जो न रहै उसे "्यतिरेक' कहते है-- 
यत्सस्वे यत्स्वम्‌ अन्वय. । यदसत्त्वे यदसत्व व्यतिरेकः । 
राब्दरछेष मे एक अथवा एक से अधिकं अनेकाथंक शब्दों के कारण कानव्य- 
चमत्कार रहता है ! इनके स्थान पर किसी अन्य प्र्यायवाची शब्दके रखदेनेसे वह्‌ 
चमत्कार नष्टहो जाताहै, किन्तु इसके विपरीत अथंर्केष मे किसी अनेकाथंके शाब्द 
का प्रयोग नही होता, अपितु एक अथवा करई एका्थंक शब्द स्वाभाविक सूपसेदो 
अर्थो का कथन करते है, तथा इसमे किसी चन्द के स्थान पर उसका पर्यायवाची शाब्द 
रख देने से किसी प्रकार की चमत्कार-हानि भी नही होती । उदाहरणार्थ-- 
करन कलित है चक्र नित्त पीततास्बर छवि चार । 
सेवक जनं जडता हरन हरि { धिय करहु अपार ॥ 
पहला अर्थं है--हे हरि अर्थात्‌ हे विष्णु ! आपके करन' अर्थात्‌ हाथोमे 
नित्य [सुदर्शन] चक्र शोभितं रहता है, पीर अम्बर (वस्त्र) दारा आपकी शोभा अति 
सुन्दर है, तथा आप सेवक जनो की मूखंता को हूरने वाक्ते है, अप हमे अपार लक्ष्मी 
प्रदान करे 1 
दुसरा अथं है-हे हरि अर्थाव्‌ हे सूयं । आप 'करन' अर्थात्‌ किरणोके दारा 
[काल रूपी | चक्त से सुशोभित है, तथा पीले अम्बर अर्थात्‌ आकाश से आपकी छवि 
सुन्दर है ।* ˆ "इत्यादि । 
इस पद्य मे "करन", “अम्वर' तथा हूर" शब्द द्रधर्थक है, ओर इन्दी के कारण 
कान्य-चमत्कार है । इनके स्थान पर इनके पर्यायवाची शव्दोके रखदेनेसे यह 
चमत्कार नष्ट हो जाएगा । अत यह शब्ददेल्पं का उदाहूरण है । किन्तु इधर इसके 
विपरीत- 
र॑चहि सौ ऊचे चढ़ र्चहि सौ घटि जाहि) 
तुला-कोटि खलल दुहन की यही रौति जग माहि ॥ 
अर्थात्‌, इस जग मे तुला की डण्डी तथा खल दोनो की गति एक-समान है, क्योकि ये 
दोनों थोडे मात्र से ऊचे चढ़ जाते है भौर थोडे मात्रसे घट जाते है। इस पद्यमे किसी 
अनेकार्थक गन्द का प्रयोग नही किया गया, “रचहिसौ ऊँचे चढौ, रंचहिसों घट 
जाहि," इन एका्थक शब्दो का दूसरा अथं अरिकृष्ट पदो के प्रयोग के विना--स्वाभा- 
रूप से--ही कथित हुभा है, तथा इनमे किसी शब्द के स्थान पर उसका पर्यायवाची 
शब्द रख देने से पद्य का कान्य-चमत्कार भी नष्ट नही होता 1 अत" यहां अथेरकुंष दै । 


३१२ काव्याक्ुार्‌ | कारिका १ 


णमी 


॥ , षीय 


दब्दन्चेप को गब्दार्कार्‌ माना जाता है, ओर्‌ अच्केप को मर्धथलिकार्‌ | 
२ अभंग रष : शन्दालकार अथवा अर्थाककार 

गव्दष्लेपके दो भेद माने जाते ह सभग भौर अभग) भभग सम तात्ययं है 
जर्हा दूमरे मधं का बोध जव्दको भग करने पर ही प्राप्त हो, भौर अभग' ते तात्यय 
है जर्हाजव्दका भगतन करना पडे, स्वय उम नव्दके भथंहीएकस अधिको 
उद्ाहरणाश्र--दे पुतनाभारण में सुदक्षः । यहा कृष्ण पक्षमे अधं है--“जो पूतनाके 
मारणमे निपुण! है, तथा रामके पमे बधं है-"्जो पूतनामा अर्थात पवित्र नाम 
वास्मादै, नथारणमे निपुण है ।' यहाँ "पूतनामारणः मे स्रभगव्छेप है । अभग-व्टयप 
का उपर्गुद्रून उदाहरण है--"करन कलित है चक्र नितः" "1" (देखिए पृष्ट ३११) 

कतिपय आचार्यं सभम इकेप कोनो गव्दालकार मानने रहै, किन्तु वर्भंय ग्लप 
को अर्थाक्कार मानत दै । केव स्भेग त्नेष को ननब्दारंकार्‌ स्वीकृत करने का कारण 
यह्‌ दिया जात्ता है कि 'जतुकाष्ठ-न्याय' के समान सभग रेप के परसग मे पहले गन्द 
पर दसरा गन्द विभिन्न हीति हुए भी उम प्रकार चिपक्रा रहता है जिय प्रकार्‌ काष्ठ 
पर जतु (गोद), गौर य दोनो गन्द स्वर गौर प्रयत्न के उच्चारणकी हष्टिमे परस्पर 
भिन्न होते हृए भी एक दी प्रतीत होते दै। यदि ूतना-मारणमे मुदः काण्ठदहै, 
तो श्ूृतनामा, रणमे सुदक्ष' जतु, किन्तुये दोनो विभिन्नन दौकर एक है-- 
परस्पर मरिकष्ट ह । अतः एसे पदो को नब्ददेखेप का उदाहरण मानना चाद्िप्‌ । 

इसके विपरीत अभग वचैप को अर्थारुकार मानने का यह्‌ कारण दिया जाता 
है कि डयमेदो गनब्दोका नही भपितुदोभर्थोका ही संश्छेप रहतादहै। एक दी 
"पीताम्बर" गब्द के दोनो अध--'पीला वस्त्रः ओीर पीडा आकान', परस्पर सश्किष्ट 
टै । अत इसे अर्थाङकार मानना चाहिए नकिं गन्दारुकार । र्हा संदिदप्टता दो अर्था 
कीरहैनकरिदो शब्दौ की अतः यहु अर्थश्छपकाही विपय दै, गन्दन्छेप का नही । 

किन्तु मम्मट आदि परवर्ती आचायं उक्तदोनो ख्पोको शव्दश्छेपका ही 
विपथ मानततेदै। मभेंगक्केपतो गव्ददल्पदहैही अभग ज्छपके सम्बन्वमे भी 
उनका कथन है कि गब्दगतता गौर भ्रगतता का निर्णायक आधार उपर्युक्त भन्वय- 
व्यततिरेक-म॒म्बन्य' ही है। उदाहरणाथं उक्त "पीताम्बरः पद को रब्दर्केप का 
विपय मानने का आधार भी उक्त सम्बन्वदही दै । "पीताम्बर" श्रव्द को टटाकर इसके 
स्थान पर इसके पर्यायवाची गव्दं पीखा वस्त्र" अथवा पीटा आकाग' रख देने परं 
ठ्खेप का चमत्कार न्ट हो जाएगा । अत. अभंग दलंप भी बन्दन्लेपदी ह! 

वादी काकथनथा किन प्रसगोमदो भर्थोकास्नञ्छ्पटहैनक्रिंदो ब्दो 
का! किन्तु इधर ये परवर्ती आचाय अ्थंभेदेन शब्दभेदः (अर्थात्‌ अर्थभेदके कारण 
एक अन्य नन्द की स्वीकृति कर्‌ छेनी चाहिए) तथा श्रत्यथं शब्दनिवेश ' (अर्थात्‌ 


[ 1 7 1 {अ क । 0 कि १ 7. | प 7 क 1) मो 


कारिका १ | दशमोऽध्याय. ३१ 


1 


प्रत्येक अथं पृथक्‌ राव्द का सूचक रहता है) के आधार पर "पीताम्बर' शब्दको एक , 
शव्द न मानकर दो पृथक्‌-पृथक्‌ गन्द ही स्वीकार करते हैँ। वस्तुतः देखा जाए तो 
वादी का उक्त आक्षेप सभग न्छष पर भी एक दष्ट से घटित हो जाता है। यदि सभंग 
रेष मे दो पृथक्‌ दव्दो का सन्केप होतादहैतो वहां अभग इ्केषके समान दो पृथक्‌ 
अर्थो का सर्खेपभीहोताहै। इस्त हृष्टि से वहाँ भी शब्दगतता भौर अथंगतता दोनो 
पक्ष समान ख्पसे ही प्रवल है, अत वर्ह किसी एक पक्ष का समथन करना समृचित 
नही है । अस्तु । इस रनि्णेयकाएकदही आधार रहै, ओौर वह्‌ है-अन्वय-व्यतिरेक- 
सम्बन्ध 1 यही कारण है कि अनूप्रास, यमक आदि अल्कारोको भी, जिनमे अथंकी 
भी अपेक्षा रहती है, शब्दाकारो मे परिगणित किया जातादहै, न किं अर्थारुकारोमे। 
इसी प्रकार अर्थरकेप का निर्णायक तत्व भी उक्त सम्वन्व ही है। उदाहरणार्थ-- ` 

स्तोकरैनौन्नतिमायाति स्तोकेनाथात्यघोगतिस्‌ 
अहो सुसहशी वृत्तिस्तुलाकोटे; खस्य च ॥ 

इस पद्य मे तुला तथा खल की तुलनामे जिन शन्डो का प्रयोग किया गया है उनके 
पर्यायवाची शब्द रख देने पर भी रंलेष का चमत्कार यथावत वना रह्‌ जाता है, अत 
यह्‌ अर्थैररेष का विपयदहैन कि दाव्दर्छेष का । 

निष्कर्पत  अभंग-ज्ल्प के समान सभग-दलेपकोभी शब्दाल्कार मानना 
चाहिए । 

३ देष अलंकार ओर शग्दश्क्ति 

रकष अलंकार ओर अभिधा शब्देज्ावित-अभिधा दोब्दशवित से मूख्यार्थं 

(वाच्यार्थ) का वौधहोतादहै। एकाक राब्दोके मृख्या्थं-बोधके सम्बन्धमे तो 
अभिधा शक्ति की स्थिति स्पष्ट है, किन्तु दिष्ट अर्थात्‌ अनेकार्थक शब्द के किस अर्थं 

का ग्रहण अभिधा दाक्तिद्रारा किया जाए गौर किसका नही, इसके निर्णयके छिए 

निम्नोक्त "विनेष-स्मृति-हेतु" अर्थात्‌ निर्णायक तत्त्व स्वीकृत किये गये है-- 

सयोग, विश्रयोग, साह्चयं, विरोधिता, अथ॑, प्रकरण, छिग, अन्य हान्दकी 
सन्निधि, सामथ्यं, ओचि्य, देश, काक, व्यक्ति, स्वर आदि । उदाहरणार्थ--"नग सूनो 
चिन मूंदरी' कथन मे नगः शब्द के अतिरिक्त रेप शन्दो के वाच्याथं का बौध अभिधा- 
मक्तिद्वारा दोनेमे कोई वाधा नही है, किन्तु दिरूष्ट "नगः शब्द का वाच्यार्थं यहां 

"पवत" ग्रहण किया जाए अथवा "रत्न-विशेष', इसका नणय 'साहुचयं' नामक विशेष- 

स्मृति-हेतु (निर्णायक तत्त्व) के आधार पर किये जाने पर नग' शब्द का वाच्यार्थं 

'रत्न-विशेप' ही छया जाएगा, (पर्वतः नही । अव यह्‌ गृहीत अथं “उखेषः का विपय 

नरी रहा, केवल अभिधा शब्दरक्तिका ही विषय बनकर रह गया है, क्योकि श्छेष 

मे सदव एकाधिकं भअर्थोका ग्रहण कियाजातादहै) हा, जिनप्रसंगोमे दोनो अर्थं 


१ 


1 


३१४ कान्यालङ्खारः | कारिका १ 


ग्रहण करना अभीष्ट रहता है वहु श्छेष अकार का विषय है, किन्तु वहाँ भी दोनो अथं 


'वाच्याथ" ही होते है, अत. उन दोनो अर्थो का ग्रहण भी अभिधा शक्तिद्वाराही होता 
है । (उदाहुरणाथं, देखिए अगे--"करन कलित है चक्र नित" “ˆ "* पृष्ठ ३११) । 
निष्केषे यह्‌ कि चाहे शब्द एकार्थक हौं अथवा अनेका्थंक, उसका वाच्यार्थं 
अभिधा चक्ति द्वारा गृहीत होता है । अनेकाथ शब्दो मे जह संयोग आदि के आधार 
पर केवर एकं अथं का ग्रहण किया जातादहै, अथवा इरेष के आधार पर 
जहाँ कवि को दोनो अथं अभीष्ट रहते है-ये सव वाच्यार्थं होने के कारण अभिधा- 
रक्तिसेही हीत होते है। 
रलेष अलकार तथा लक्षणा राष्दशक्ति- लक्षणा शव्दशक्ति द्वारा ज्ञात टशक्ष्याथं 
न अभिधा शव्दशक्तिकाविषयदहै ओरन इकेषका, क्योकि अभिधा शक्ति केवल 
वाच्यां का बोध कराती है, किन्तु लक्ष्यां का बोध वाच्याथं के उपरान्त होतादहै, 
यद्यपि यह्‌ अलग वातं है कि वह उससे सम्बद्ध रहता है, पर होता उससे भिन्न ही है । 
लक्ष्यां शेप का विषय भी नही है, क्योकि एक तौ इरेप अकार मे जिन दो अर्थों 
का वोध होता है वे दोनो वाच्याथं होते है--अर्थात्‌ अभिधा शक्ति दारा गृहीत रहते 
है, ओर दूसरे, ये दोनोदी कवि को अभीष्ट रहते है, उदाहरणार्थं देखिए--"करन 
कित है चक्र नितः*ˆ “` ` पु० ३११, किन्तु इसके विपरीत लक्षणा के प्रसगमे प्रथम 
अथं तो मभिधा गक्तिद्वारा गृहीत रहता है किन्तु दूसरा अर्थं लक्षणा शक्तिद्वारा) 
इसके अतिरिक्त कवि को केव लक्ष्यां ही अभीष्ट रहता है, वाच्यार्थं नही । 
उदाहरणाथं-- "गगा पर अश्वमदहै यहं कवि को केवल गंगाका खक्ष्याथं श्गंगाका 
तीर अथं ही अभीष्ट है, उसका वाच्याथं नदी का जलप्रवाह अभीष्टनहीदहै। 
दलेष अकंकार ओर व्यंजना शब्ददाविति--टीक यही स्थिति ग्यंजना शब्दबक्ति 
कीभीदहै। इस शक्तिद्वारा जात प्रतीयमान अ्थंनतो अभिधा श्क्तिका विषयहै 
ओरन इलेप का, क्योकि अभिधा शक्ति केवल वःच्या्थं का बोध कराती है, किन्तु 
व्यंग्याथं की प्रतीति वाच्याथं के वोच के उपरान्त हती है, भौर वह अर्थं वाच्याथंसे 
नितान्त भिन्न होता है । व्यग्याथं इ्लेष का विषय भी नही माना जाता, वयोकिं ररेष 
अककारमे जिन दोनो अर्थोका ग्रहणदहोतारहै वे दोनो वाच्यार्थं होते रै भर्थात्‌ 
अभिधा चक्ति द्वारा गृहीत होते है, तथा दोनो समान स्तर पर अवस्थित रहते है, किन्तु 
व्यजना शक्तिके प्रसंग मे पहला अर्थं वाच्यार्थं होताहै जो अभिधा शक्तिसे ग्रहीत 
होता है ओर दूसरा अथं व्यग्याथं होत्तादहै जो व्यंजना शयित द्वारा गृहीत रहतादहै। 
इसके अतिरिक्त ये दोनो अथं समान स्तर'पर भी अवस्थित नही दहोते। कविको 
वाच्यार्थं अभीष्ट नही रहता, केवर व्यग्या्थं ही अभीष्ट रहता है । 
इसी प्र्तग मे मभिवामूला-व्यजना शब्ददाक्ति पर सी किचितु प्रकार डाक्ना 


कारिकार२ | दक्षमोऽध्याय ३१५ 


त्रथास्यैव मेदानाह- 
ग्रविशेषविरोधाधिकवक्रव्याजोक्त्यस्ंंभवावयवाः । 


तत्वविरोधाभासावित्ति भेदास्तस्य शुद्धस्य । २॥ 
अविेपेति । तस्य इरषस्य जुद्धस्याविशेपादयो दन भेदाः 1 इतिराब्द समा- 
प्तयर्थो निदेशार्थो वा । जुद्धग्रहणं परमतनि रासा्थेम्‌ । यतः कैदिचतु "तत्सहोक्त्युपमा- 
हेतुनिर्देशात््रिविधम्‌' इति सकीरणंत्वेन त्रेविध्यमृक्तमिति शुद्धस्यैव सतोऽस्य दल भेदा. 
अल्कारान्तरसस्पर्शंऽनन्ता इत्यथ. ।। ____ 
अपेक्षित है 1 जिन अनेका्थेक शब्दो के दोनो अथं कवि को अभीष्ट रहते है वह्‌ इष 
अकार का विषयदहै, ओरये दोनौ अर्थं अभिधा शाब्दशक्ति द्वारा बोधित होते है, 
तथां जिन अनेकार्थक शाब्दो का सयोग, विप्रयोग आदि उक्तं नियामक हितुञओ हारा 
केवल एक अर्थ ही गृहीत रहता है वह भी अभिधाशक््ति का विषय है, यहु ऊपर कहं आये 
है । किन्तु एसे स्थर भी होते है जहाँ उत्त नियामक हेतुओ दारा केवर किसी एक अर्थं 
के गृहीत दहो जाने परभी दसरा अर्थं प्रतीयमान रूप मे, व्यर्या्थक रूप मे, चात होता, 
है । यह विपय न तो अभिधा शब्दश्क्तिकारहै ओौरन रटेष का, अपितु अभिधामूला 
व्यजना शब्दशक््ति का है। उदाहूरणार्थ-- 
मुखर मनोहर इयाम रंग बरसत मुद अनुरूप । 
क्षमत मतवारी स्षमक्रि वनमाली रसरूप॥ 
यहां वनमारी अर्थात्‌ मेघ-विषयक प्रसषग के अन्तर्गत इस पद्य का सयोग आदि दारा 
एक अथं नियत दहो जनि पर भी 'वनमारी' अर्थात्‌ कृष्ण से सम्बद्ध अथं भी प्रतीत 
हो रहा है, जिसका व्यग्याथं यहहै कि मेधङ्ृप्ण के समानरहै। यह्‌ विषय नतो 
अभिधः शव्दरक्तिकाटहै ओर न इष अकार का, अपितु अभिधामूला व्यंजना 
शन्दञक्ति का हे । 
श्लेपके मेद 
इस शुद्ध इष के--अनिज्ञेष, विरोध, अधिक, वक्र, व्याज, उदित, असम्भव, 
वयव, तत्त्व तथा विरोधामास ये दस भेद है ।२।५ 
यहां "गुद रकेष से स्वय रद्रटका अभिप्राय क्याथा, इसका निर्णय करना 
कठिन है 1 इस सम्बन्ध मे नमिप्ताघु ने उपयुक्त सकेत दिया है--शुद्ध ग्रहण `- ˆ“ 
त्ंविध्यमुत्त.म्‌ 1" अर्थातु शुद्ध-ग्रहण' शब्द का प्रयोग दूसरो के मत का निरास करने 
के किए किया गया है, क्योक्ति दूसरो (भामह आदि) ने इकेष को सहोक्ति, उपमा ओौर 
हेतु--इनके निदेश से तीन प्रकार का माना है । भामह का यहं प्रसग जातव्य है-- 
दरषादेवाऽ्थवचसोरस्य च क्रियते भिदा । 
तत्सहोक््युपमाहेतुनिदंशात्‌ चिचिधं यथा ॥ 


[रो कि क) [1 


३१६ कान्यानद्भुार. [ कारिका र 
(क ) छायाचन्तो गतव्यालाः स्वारोहाः फलदायिनः । 

मागदरमा महान्तस्च परेषामेव भुतये \! 
(ख) उन्नता लोकदयिता महान्तः प्राज्यवषिणः। 

रमयन्ति क्ितेस्तापं सुराजानो धना इव ॥ 
(ग) रत्ननच्वादगाधत्वातु स्वमयदिऽचिलङ्खनात्‌ 

वहुतस्वाश्रयत्वाच्च सदहश्स्त्वभुदन्वता ॥ 

काव्यारकार (भामह) ३।१७-२० 

[दूमरे अकारो की तुलना मे] इस [दर्ष| अर्कार का अन्तर अनेका्थेक 
ववनसेदी [जाना जाता] है। सदोक्ति, उपमा गौरदहेतुके निदेगके कारण इस 
अछ्कारके [ये] तीन प्रकार दै) 

इनं तीनो प्रकारो के निम्नोक्त उदाहरण है- 

(क) सहोदितगत श्लेष- मागं के वृक्ष भीर महान्‌ पुरुष दूसरोकी भूति 
(सुख-सुविधा) के लिए ही होते है, [क्योकि वक्ष छायादार होते है ओर महान्‌ पुरूष 
आश्रय-युक्त । त्रक्ष व्यार-(सपं-) रहित होते दहै, गौर महान्‌ पुरुप व्याल-(दुष्ट-)रहित । 
तर्न सु-भारोह (सरल्तापू्वंक चदढ़ने योग्य) होते है, मौर महात्‌ पुरुष॒ मु-आरोहं 
(सरखतापूवंक पहुंचने योग्य) होते दै 1 

भामह ने यहां सदोक्तिगत वकेप माना है, किन्तु वस्तुत. उसे सरमुच्चयगत 
ठ्टछेप मानना चाहिए । 

(ख) उपमागत शलष- ये प्रेष्ठ राजा वादलो के समान दै, क्योकि ये दोनो 
उन्नत होते दै, दोनोखोगोके प्रिय होते टै, महान्‌ (वड़े, पक्षे- रवे) होते है। 
अत्वधिके [धन-वान्य, पक्षे -जन्य] की वर्प करने वाङ होते हैः तथा पृथ्वीकेताप 
| द-ख, पक्षे--उष्णता | को शान्त करते ह । 

(ग) हेतुगन इकष--[हे राजन्‌] तुम समृद्रके सरश हो--रतनवानु होने के 
कारण, अगावदहोनेके कारण, अपनी मर्यादाका उन्छधन न करनैके कारण तथा 
वहुजीवो को आश्य देने के कारण । 

इन उदाहरणो को देखकर यह्‌ प्रन स्वभावत. उत्पन्न होता है कि उक्त पद्य 
करमन. समुच्चय, उपमा मर्‌ हेतु अलकारो के उदाहरण ह अथवा र्ङेप अङंकार के । 
दूसरे शब्दो मे यह्‌ प्रन्न इसल्पमे उपस्थित कियाजा सक्तादहै कि श्केष अलंकार 
स्वतन्त्र रूप से रह्‌ सकता है अथवा नही 1 उस सम्बन्ध मे व्वनि-पूर्व॑वर्ती गौर ध्वनि- 
प्रवर्त माचारया के वीच मतभेद हे -" 

१. विक्ेष विवरण के क्िएु देखिए- काव्यप्रकाश, नवम उल्लास, साहित्यदर्पण, 
दाम परि०, काव्यानुज्ञासन (हेमचन्द्र), प० २३१-३२ । 


कारिका २ | ] दनमोऽच्याय ३१७ 
उद्मट ओर रुय्यक का मन्तव्य है कि रलेष अकार स्वतन्त्र रूपसे कभी नही 
रहता, शास्वीय शब्दावी मे कहे तो इकेप अलङ्कार अन्य अल्ङ्खारोसे विविक्त 
(रदित) कभी नही रहता । जहाँ इसकी स्थिति होगी वहाँ कोरई-न-कोई अन्य अल्ड्धार 
अनिवायेत रहेगा, किन्तु इनका चमत्कार अन्य अलङ्कारो के चमत्कार को वाधित कर 
देता है, अतः वहाँ रकष अल ्धार स्वीकृत किया जाता है । 
इस सम्नन्ध मे उनका प्रमुख तकं यह है किं यदि श्कषके होते हृए अन्य 
अलकार मने जाएंगे तो इकेप अकार निविपय हो जाएगा, अर्थात इसके उदाहरण 
नही भिरेगे । यद्यपि ये आचायं काव्यलास्त्र के [अथवा किसी भी अन्य शास्त्र के] इस 
नियम से मखी-भांति परिचित है कि "जो सवसे अन्तमे प्रतीत हो वही प्रधान, पोष्य 
एव उपस्कायं माना जाता है, तथापि उनके विचारमे इष अककार के प्रसगमे यह्‌ 
नियम शिथिर करना पड़ेगा, अन्यथा किसी अन्य अलकार की स्वीकृति करने पर 
इरेप सदा अप्रधान (पोपक) बना रहने के कारण अखकार-पद से च्युत हो जाएगा । 
किन्तु इधर मम्मट भौर विदवनाथ इस स्थिति को सदा स्वीकार नही करते । 
इनके मत मे इरेष अङकार कमी अन्य अकारो से स्वतन्त्र रहता है भौर कभी नही 
रहता । जहां वह स्वतन्त्रे नही रहता वहं कभी तो इसका चमत्कार अन्य अरुकारो 
के चमत्कारको बाधदेतादहै ओौर केभी स्वय वाधितं होकर उसका पोपक वन जाता 
है! इस प्रकार इन आचार्योके सतमे इरेप अलकार की स्थिति तीन विकत्पोमे 
सम्भव है-- 
१ इकेप स्वतन्त्र रूपमे रहता है 1 
२ इरे अन्य अलकारो का वाधक बन जात्तादहै। 
३. इरेष अन्य अक्कारो करा पोषक बन जाता है। 
इनमे से प्रथम दो विकल्प ही इरेष-अलकार से सम्बद्धदहै) 
सर्वेभ्रथम एसे उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे है जह केवर रेष अल्कार का 
चमत्कार है-- 
(१) है पूतनामारणमें सुदक्ष, जघन्य काकोदर था विपक्ष! 
की किन्तु रक्षा उसकी दयालु, शरण एसे प्रभु है कृपालु 1 
अर्यात्‌ [राम ओौर कृष्ण] ये दोनो प्रभु, शरण देने वाङ ओौर कृपालु है । राम 
पूतनामा अर्थात्‌ पवित्र नाम वङेहै, मौर रण मे सुदक्ष (निपुण) है, कृष्ण पूतना- 
मारण मे सुदक्ष (निपुण) हं । राम अपने विपक्षी काकोदर (इन्द्र के पत्र जयन्त) की 
रक्षा करने वाङ ह, ओर कृष्ण अपने विपक्षी कारीय सपंकीभी रक्षा करने वाके है । 
इस पद्य मे उद्धट ओर र्य्यक के अनुसार व॑स्तुत्तः तुल्ययोगिता नामक गलकार 
होना चाहिए था, गेयोकति इसमे दोनों श्रकृतो का, राम ओौर कृष्ण का, एक धर्म मे 


३१८ कान्यालङ्खुारः | कारिका २ 
सम्बन्य वताया गया है, पर च्कप का चमत्कार तुल्ययोगिता के चमत्कार पर आच्छ- 
दित हौ गया है। अतः यहां इछेष अककार है । 
किन्तु मस्मट ओर विन्वनाथ के मत मे यहो केवल इकेप का ही चमत्कार है । 
यहाँ तुल्ययोगिता अकार प्राप्त ही नही है । प्रथमतो राम गौर कृप्ण इन दोनो प्रकृत 
पो का यहा एक धमं से सम्बन्ध स्थिर ही नही किया गया। जसे राम ्पूतनामा 
ओौर रण मे सुद" है, तो कृपण "पूतना-मारण मे सुदक्ष है, इत्यादि । ओर दूसरे, इस 
पद्मे कवि कों उक्त दोनो पक्षो के वाच्याथं अभीष्ट ओर यही र्केप का विपय दै 
अत य्ह श्छेप अलकार पूणंत. स्वतन्त्र रूपमे ही है] 
इसी प्रकार का एक अन्य उदाहूरण प्रस्तुत है-- 
(२) येन ध्वस्तमनोभवेन वक्िजित्कायः पुरास्त्रीकृतो । 
यत्चोदुवृत्तथुजमहारवल्योगद्धां च योऽधारयत्‌ ॥ 
यस्याहुः शक्तिमच्छिरोहुर इति स्तुत्य च नामामरा. । 
पायात्‌ सं स्वयमन्धक्षक्षयकरत्त्वां स्व रोमाधवः 1 
-- अलकारसवस्व पृष्ठ १२२, सा० द° १०।१२ (वृत्ति) 
इसपद्यमेभी कवि को दोनो पक्षो [माघव भर्थातु विष्ण्‌, भौर उमाधव अर्थात्‌ उमा 
का धव (पति) अर्थाव्‌ महादेव] के अथं अभीष्टरै, मौर ये दोनो ही वाच्यार्थं है । इसके 
अतिरिक्त यहां कोई अन्य अलंकार भी नही है। अत यहाँ मम्मट भौर विङ्वनाथ के 
मत मे रेप अरकार है | 
उधर उद्भट ओौर रुय्यक के मतमे भी यहाँ दरुप अलकार है, यद्यपि वस्तुत. 
यहा तुल्ययोगिता अलंकार प्राप्त था, क्योकि दो प्रस्तुत विपयो का एक धमं से सम्बन्ध 
वत्ताया गया दै । जसे, दिप्णुषक्न मे--अगं गां च योऽधारयत्‌, जिसने [कष्णरूप से |] 
अग (गोवद्धन पवत) को, ओर [कूर्मरूप से] गो (पृथ्वी) को धारण कियाथा। महा- 
देव-पक्ष मे--गगां च योऽधारथतु, जिसने गगाको धारण क्रिया था किन्तु तुल्य- 
योगिता का यह्‌ चमत्कार इकेप के चमत्कार द्वारा वाधित हो जाताहै। 
निप्कषंतः दोनो प्रकार के आचाय यहाँ च्छेप अखकारदही स्वीकार करते ह 
किन्तु अपने-अपने दृष्टिकोण से । 
अव दूसरे प्रकार के ठे उदाहरण प्रस्तुत ह जं किसी अन्य अलकार के रहते 
हए भी श्केप का चमत्कारं प्रमुखत. स्त्रीकार किया जाने के कारण उन्हे क्रेप अरकार 
का ही उदाहरण माना जाता है-- 
नीतानामकुलीमावं लृन्धमु रिशिलोमूखैः 1 
सहे वेनबरद्धानां कमलानां तदीक्षणे 1) सा० द० १०।११ (वृत्ति) 
भर्थाव्‌, इस [सुन्दरी] की अखि कमलो अर्थात परमो ओर हरिणियो के सदृश ह (मृग- , 


कारिका > | दशमोऽध्याय ३१९ 


भेदेऽपि कमक" इति मेदिनीकोग.) । एक ओर पद्म अनेक लुन्ध (लोभी) शिलीमुखो 
(भ्रमरो) से आकुरीभाव (सकुलुता) को प्राप्त वन (जल) मे बहे हुए है, ओर दूसरी 
भोर मृग भधिक रिलीमुख (वाणो) वाक लुब्धो (शिकारियो) द्वारा अकरुलीभाव 
(त्रासभाव) को प्राप्त है, तयथा वन (जग) मे पडे हुए है | 
उद्धट ओर रुय्यक के अनुसार इस प्यमे भी यद्यपि तुल्ययोगिता भलकार 
प्राप्त है, क्योकि यहाँ दो अ्रकृतो पद्म भौर हरिणी का एक धमं से सम्बन्ध स्थापित 
किया गया है१, किन्तु श्कप का चमत्कार इस अलकरार के चमत्कार को अग्च्छादित 
कर देता है । तुल्ययोगिता का चमत्कार इलेषके भगे गौणहै, वह इस अलककार के 
चमत्कार का पोपण करता है 1 अतः यहाँ इरेष अलकार है 1 ठीक यही स्थिति मम्मट 
ओर विद्वनाथ को भी स्वीकृत है } 
इस प्रकार रकष की इस दूसरी स्थितिमे ये दोनो प्रकार के आचार्यं परस्पर 
एक ही आधार पर सहमत है । 
मव तीसरे प्रकार के उदाहरण छीजिए जरह मम्मट ओर विश्वनाथ के मतमे 
ञरष स्वय गौण बनकर किसी अन्य अल्कारकी पुष्टि करताहै। विरोधाभास ओौर 
परिसख्या अलक्रारो के उदाहरण इसी श्रेणी मे अते ई-- 
(क) सन्निहितवाकान्धकारा भास्वान्मूतिह्च । 
इस कथन मे विरोघ यहहंकि वार (अप्रौढ) अन्धकार जिसके पास रहतादहै, एसे 
; भास्वान्‌ (सूयं) की मूरति, ओर इसका परिहार यह है कि वह्‌ [सुकन्या] बार (केश) 
। रूप अन्धकार जिसके पास रहता है एसी भास्वत्‌ (चमकदार) मूरति वाली है । इस 
प्रकार यर्म 'बाक' ओर भास्वत्‌" रब्दोमे रउरेष का चमत्कार विरोधाभास के चम- 
त्कार का पोपक है! अत्त य्ह केपः की स्वीकृति न होकर वियोधाभास अरुकार 
माना जाता दहै । इसी प्रकार- 
(ख) यस्मिंश्च राजनि जितजयति चित्रकर्मसु वणं संकराश्चापेषु गुणच्छेदः 
>< > >, इत्यादि 
अर्थात्‌, जगत्‌ को जीतने वाने उस राजाके राज्यमे चित्रकारीमे ही वर्णो 
(रगो) का सकर (सम्मिश्रण) होता था [अन्यधा वर्णसकर' नहीथा|, धनूुपोमेही 
गुणों (रस्सियो) का विच्छेद होता था [अन्यथा गुणो का केही नाञ्च नही होता था।] 
इस कथन मे भी रेप का चमत्कार परिसख्या के चमत्कार का पोषक है । अततः यहाँ 
परिसख्या अक्कारदहीदहै। 


१. साहित्यदर्षण,की शालग्राम विमला टीका मे इसे दीपक श्रकंकार का उदाहूरण 
बताया गया हे । 


३२० कान्याल्खुारः | काकार 


इसी प्रसग के सन्दभं मे अव रुद्रट का निम्नोक्त कथन उत्छेखनीय ह} इससे 


त्रिपय के स्पष्टीकरण मे एक नयी दिना मिकगी-- 
स्फुटमर्थालकारवेतावुपमासमपूुच्चयौ कितु । 
आधित्य कन्दमाच्र सामान्यमिहयपि संभवत. ॥ काण प्र° ८।३२ 
अर्धात्‌, यद्यपि उपमा गौर समुच्चय ये दोनो स्पष्टतः अ्थक्िकारर्हैः किन्तुये दोनो 
अकार [प्रकृत गौर अप्रकृत दोनो पभो के लियि] मामान्य भयति एक-समान ब्दो 
को धारण करते हुए भी सम्भव होति ह| 
उसका तात्पयं यह्‌ है कि यद्यपि उपमा गीर समुच्चय अर्थालकार है, किन्तुये 
दोनो जल्दमत समानता पर [भी] माधारित रहते है 1 रद्रटके इसी कथन को उदृत 
करते हुए मम्मट गौर उनके अनुकरण पर विष्वनाशथ ने यह निष्कं निकाखा कि उपमा 
अलक्रार के अन्तर्गत उपमेय भौर उपमानमे गण ओरक्रियाका साम्यतो होतादही 
दे, साध ही उनमे गब्द-साम्य भी रहता है । उदाहरणार्थं -- 
सकलकल पुरमेतज्जातं सम्प्रति सुधांुविम्नभिव) 
अर्थात्‌, यह्‌ नगर अव चन्र-विम्ब के समान हौ गया है, [क्योकि एक ओर] चन्द्रविम्व 
सकल-कल' है, अर्थात्‌ सकर काभ से युक्त टै, [तो दूसरी ओर] यह्‌ नगर भी 
'सकलकल' अर्थात्‌ कलकरु (गोर) सै युक्त दै। 
यह्‌ उदाहरण रुद्रट-प्ररतुत्त नही है, इसे मम्मट ओर विदवनाथ ने प्रस्तुत करते 
हए कहा है कि यहां उपमा अककार मानना चाहिए, उप अलकार नही । यह्‌ उपमा 
'सकरुकर' इस शब्द-साम्य पर्‌ आधारित है । किन्तु हमारा विचार है कि यहाँ रकष 
काही चमत्कार टै। निस्पन्देहु य्ह कविका उहिष्ट उपमां की स्थापना है, किन्तु 
सहृदय वच्छप मे ही चमत्कृत टोता है, उपमा का चमत्कार उसे गौण प्रतीत होता दहै, 
यहा तक कि मुरुचिपूर्णं पाठक को एमे स्थलो मे उपमा हास्यास्पद-सी प्रतीत होती है। 
वस्तुत. कवि की विवक्षा से वकर सहृदय का भावोदूवेन ही कान्यगत सौन्दयं का 
निर्णायक होता है । अतः उक्त कथन मे उपमा अख्कार के स्थान पर ररपं अखकार 
ही मानना चाहिए । वस्तुत यर्हीभी वदी स्थिति मान्य दहै जिषे “नीतानामाकुलो- 
भावम्‌""* ` ' उपयु क्त पद्यम्‌ दोनो प्रकारके आचार्योने स्वीकार कैरते हुए तुल्य 
योगिता क स्यान पर्‌ भ्नेप का चमत्कार माना था! अस्तु 1 हा, सकलकलम्‌" " "^ 
इस कथन म यदि हम चाहे तो व्नेप को उपमापुष्ट, उपमाधित, उपमाजन्य, उपमा- 
मुक, उपमा्गाभित आदिमे किसी एक विनेपण के साथ समन्वितं कर सकते हं । 
जव उ्छेपमूरुक विरोधाभास, परिसरस्या भादि अनेक अलकार स्वीकृत किये जातेैतो 
उपमामूलक दरपमूकार स्वीकृत करने मे भी कोई भापत्ति नदीं होनी चाहिए । 
ठीक यही स्थिति रहीम के निम्नोक्त दोहेकौमभीदहै। यहाँ भी उपमाके स्थान पर 


[॥ 


[म 


[ [ , ए [1 


ररेप अककार ही मान्य है- 


कारिकार२ | दशमोऽध्याय ३२१ 


ज्यो रहीम मति दीप की, कुल कुत गति सोय । 
वारे उजियारो करे बदरं अधरो होय ॥ 
वस्तुत मम्मट ओर विश्वनाथ को उक्त उद्धत कारिका से पूवं स्रट की इससे 
पहरी कारिका नी उद्धृत करनी चाहिए थी-- 
भाषारकेषविहीनः स्पृश्चति प्रायोऽन्यमप्यल कारम्‌ \ 
घत्ते वेचित्यमयं सुतरामुपमासमुच्चययोः 1 क ० अ० ४३१ 
अर्थात्‌ "भाषा-ञकेप को छोडकर [भपने इतरं प्रकारो से युक्त | यह्‌ [इरुष अरकार्‌ | 
अन्य अलकारोका भी प्राय स्प करता है, [ओर जब वह्‌] उपमा ओर समुच्चय का 
[स्पशं करता है तो अत्यधिक) वंचिच्यं (चमत्कार) को धारण कर छता है । वस्तुत. 
सद्रट यह दण्डी के इस कथनसे ही प्रभावित है किं रेप अलकार भराय सभी वक्रो- 
क्तियो (अर्थात्‌ अकंकारो) की रोभाको वडा देता है--श्लेषः सर्वासु पुष्णाति प्रायः 
वक्रोक्तिषु भियम्‌ ! (का० द° २।२६३) 
इस प्रकार हमने देखा किं सद्रट के उक्त कथनमे मूल प्रसग र्छेपकाहे 
ओर इसीके ही अधिकं चमत्कारणशरण करने की चर्चा उन्हु अभीष्ट है । स्वय उनका 
उक्त उदाहरण--सुरचितवराहवपषस्तव च हरेश्चोपमा घटते" इसी तथ्य की पुष्टि 
करता ह कि य्ह उपमामूलक दकष है--प्रस्तुत नु¶१ ओर अप्रस्तुत विष्णु के भौपस्यं 
से वढकर यहाँ इरेष का ही चमत्कार सहृदय -हृदयहारी है । 
इसी प्रसग से सम्बद्ध एक शका मम्मट एव विश्वनाथ ने उपस्थित की दहै कि 
यदि "सकलकलम्‌" ^“ ` इत्यादि स्थरलो मे उपमा के स्थान पर शब्द-रकेप का चमत्कार 
माना जाए तो "कमलमिव यख मनोज्ञमेतत्‌" इस उदाहरण मे पूर्णोपमा कै स्थान पर 
अर्थ्केष ही मानना चाहिए, क्योकि मनोज्ञ" शब्द दचर्थक न सही, पर कमर की 
“मनोज्ञता' भौर मुख की “मनोज्ञता'मे तो अन्तरद्धैही, अर्थश्केष की परिभापाभी 
यही है-- 
शब्दैः स्वभावादेकार्ये शलषोऽनेकाथंवाचनम्‌ । (सा० द० १०।५८) 
स्पष्ट है कि "मनोज्ञ शब्द का यहं 'सौन्वये'की ओरसकेतटहै जोकि कमर्गत 
सौन्दयं ओर मुखगत सौन्दयं दोनो का वाचक है । इन दोनो सौन्दर्थो मे निस्सन्देह 
पाथेक्य एव अन्तर है । अते जिस प्रकार (सकलकलम्‌ - “* इस उपयु कत उदाहूरण 
मे उपमा को गौण समञ्चकर गञ्दञ्छेष माना जात्ता है, उसी प्रकार 'कमरूमिव मुख 
मनोज्ञम्‌" में भी उपमा को गौण समञ्चकर अर्थदरेप मानना चाहिए । किन्तु मम्मट का 
गृह तकं अत्यन्त सूक्ष्म होते हए भी इस दृष्टि से अमान्य है कि यहां भी सहृदय का 
भावोद्वेलन ही निर्णायक आधार है । स्वय मम्मट भौर विष्वनाथ के अनुसार 'कमल- 


३२२ कान्यारद्धुार. | कारिका ३-४ 


यथोदेशस्तथा लक्षणमिति कत्वा पृवेमषिरप' लक्षथितुमाह-- 
प्रविरेषः इलेषोऽसौ विज्ञेयो यत्र वाक्यमेकस्मात्‌ | 


म्र्थादन्यं गमयेदविरिष्टविशेषणोपेतम्‌ ॥३॥ 

अविशेषं इति । असावविशेपर्केपो ज्ञेयः, यत्र वावयमेकस्मात्प्रक्रान्तादन्यमर्थं 
गमयेत्‌ । कीरशम्‌ 1 अविशिष्टः समाने विशेषणे स्पेतं युक्तम्‌ । यादु शानि चंकस्य विशेष- 
णानि तादुशषान्येवापरस्यापीत्यथे. । ननु प्रकृतानुपयोग्यर्थान्तरमुन्मत्तवाक्यवदसनद्ध मव- 
गतमपि क्वोपयुज्यते । सत्यम्‌ । एतदेवास्यारकारत्वम्‌ । एव हि सहुदयानेजेकत्वमस्य । 
अत्र च महाकवय एव प्रमाणम्‌ ॥ 

उद्हर्यच 

रारदिन्दुसुस्दररुचं सुकूमारां सुरभिपरिमलामनि्म्‌ । 

निदधाति नात्पपुण्यः कण्ठे नवमालिकां कान्ताम्‌ । ४॥। 

रारदिति । नवा प्रत्यग्रा माला यस्यास्तां नवमालिकां कान्ता प्रियतमामत्प- 


1 षसं 


भिव मखं मनोज्ञम्‌" मे यदि उपमा अलंकार का चमत्कार मान्यहै, ओौर निम्नाकितं 
पद्य- 
स्तोकेनोर्नतिमाघाति स्तोकेनायात्यघोगतिम्‌ । 
अहो सुसुहली वृत्तिस्तुलाकोटेः खस्य च ॥ 
मे अथर्केष का, ({ यद्यपि दोनो मे सास्यता-तत्त्व क्गमग एक समानदहै, तो इसका 
एकमात्र कारण सहूदव का भावोद्वेलन हीह । अत. केवल इसी आधार पर 
सकलकलम्‌ ` '* * ' आदि कथनोमे कवि द्वारा साम्यताके उरिष्ट रहने पर भी सहुदय 
का पङ्डा अत्यधिक भारी मानकर शब्दर्लेष स्वीकार करना चाहिए, उपमा नही । 
निष्कषत.- 
१. शेष अर्कार का क्षेच स्वतन्त्र भी रहता है, तथा अन्य अरुकायोसे 
युक्त भी । 
२ जहां शेष के साथ अन्य अककार रहते है वहां कभी यह्‌ उनसे पुष्ट होता 
है ओर कभी उनका पौषक रहता है । 
३. किन्तु उक्त तीनो स्थित्तियो का निर्णायक आधार सहुदय का भावोद्वेखन 
है, न कि कवि कौ विवक्षा । 
४. प्रविरोप लेप 
जिस चाक्य मे एक अथं से दूसरे अथं की प्रतीति [इस आधार पर] हो [कि 


ये दोनों अथं ] एक-समान विक्ेषण से युक्त हों तो वह अविक्षेष दरेष अलंकार जाना 
जाता ह 1३1 


ह क) 


कारिका ५-६ | दशमोऽध्यायः २२३ 


पुण्य कण्ठे न करोतीति । एतल्परकृेत वाक्य कान्तानवमाकिकिाश्ञब्दयोरनेकाथेत्वादिद- 
मर्यान्तर गमयति 1 यथा-नवमाक्िकाख्या सुमनोजाति कान्ता हूयामत्पपुण्य कण्ठ 
न कुरुत इति । शरदिन्दुसुन्दररुचमित्यादीन्यविशिष्टानि विक्षेषणानि ॥ 


प्रथ वितेधश्लेष :- 
यत्र विरुद विशेषणमवगमयेदन्यदथंसामान्यम्‌ । 
प्रकरान्तमतोऽन्याद्‌ग्वाक्यश्लेषो विरोधोऽसौ ॥५। 


यत्रेति ! असौ विरोधाख्यदरेप , यतर प्रक्रान्तवाक्यमन्यदथंसामान्य विरुद विश्ञेप- 
णमवगसयेत्‌ । कीटहग्वाक्यम्‌ ! अततोऽ्थन्तिरादन्यादशम्‌ । विनेपलूपमविरुदध चेत्थं । 
तेन यत्र प्रक्रान्तोऽथंविक्ेपोऽन्यदथंसामान्य विरुदढधविशेपणमवगमयति स विरोधश्केप 
इति तात्पर्यार्थः ॥। 
उदस्य 
संवधितविविधाधिककमलोऽप्यवदलितनालिकः सोऽभूत्‌ 


सकलारिदाररसिकोऽप्यनभिमतपराद्खनासङ्खः ।।६॥। 


उदाहुरण-- 

तारत्कालोन चन्द्रमा के समान सुन्दर, सुकुमार, सुगन्धित द्रव्य धारण करने 
वाली एवं नवमालिका पुष्पों की नाला से भूषित प्रिया को मन्दभाग्य पुष गते नहीं 
लगा सकता ! 
दूसरा अर्थं-- 

शरच्चन्द्र के समान धवल, कोमल, पराग ओौर मकरन्द से युक्त, सुन्दर, ताजी 
गृधी हई साला को सन्दभाग्य पुरुष नहीं पहन सकता ।४। 

यहाँ कान्ता (प्रिया) ओर नवमाक्िका के विशेपण एक समान होने के कारण 
एक अ्थसे दूसरे अथं की प्रतीतिदो रहीदहै। 
२. विरोध श्लेष 

जह प्रक्रान्त (अभीष्ट) वाक्य जन्य अथं की समानता वाक्ते विरुद्ध विश्ञेवण- 
युवत अपने से भिन्न [वाक्य] की प्रतीति कराए वहं चिरोध शेष [माना जाता] 
है ।५। 
उदाहरण-- 

कठिन शब्दो के अथं : नाकिकः- मेस (मूखं व्यक्ति), पक्षे नालिका-कमल 
की नालिक। । दार-नारी, पक्षे विदारण । अनभिमत-अनिष्ट, पक्षे अनासक्त ! 


। प्रकृत अथे-- 
` ^ इस राजाने निकष प्रकषरसे ल्कध्मीका संवर्धन कियाह मीर रूर्खलोका 


२२४ काव्यब्गृदुमरः | कारिका ५-८ 


संवरधितैति 1 यत्रायं प्रक्रान्तोऽ्थः--ग कच्चिद्राजा एरवंविधोऽभूत्‌ । यथास्व 
वित्तनानाग्यधिकररमीकोऽत्रदनिितमूर्वंठव । तशा रकटयवरुविदारणरमिकोऽनिष्टपदररतरी- 
सद्धदचेनि । ददतु विर्द्रमश्मामान्यं गम्यरते--यद्धि संवधितानि विविधान्यचिकें कम- 
खानि पद्यानि येन, कथमव्रददित्तानि नादिकराति पश्रनि तर्नवेत्ति। तथा यद्वि सक- 
ठेप्वरिद्रारेषु जनके रसिकः कशरमनभिमत्तपसद्धनायद् ठति । सामान्यरूपता 
वास्य विचेप्याविगेपणादविति ॥ 
द्रशाधिक्रश्लेषः-- 
यत्राधिकरमार्धादस्मानविग्पणं तथा वावथम्‌ | 
प्रधन्तिरमवगमयेदधिकदलेपः स विनेयः ॥५॥ 
यत्ति । यव वाक्यं कन भूतमार्वास््तरतादन्यदर्थान्नरमवरिकमूत्करष्ट 
गमये्मोऽधिकर्केपः । मविनेपथ्ठेपद्रस्य चिन्नप्रमादू--असमानविधपणमित्ति। तत्रद्धि 
समानाध्रनि वितेपणान्थुक्तानि ॥ 
°द्हरखम्‌-- 
प्रेम्णा निधाय मूर्धनि वक्रमपि विभति यः: कलावन्तम्‌ । 
भूति च वृपारूढः स एव परमेश्वरो जयति ॥८॥ 
प्रम्णति । यः कवावन्तं विदध वक्रमनृजुद्दयमपि विभक्ति, प्रेम्णा प्रीत्या 


1) 0 0 । । ^, , ति |, ए ।, | | 


तिरस्फार फिया है । भपने समस्त धात्रुभों फा लिना करने मे तत्पर इतस राजाकी 
अपने अनिष्ट प्राच्रुभों कौ स््तियों में मासविति द 1६ 
विरुद्धाश्र-- 
दभ्र राजानि विविध कमलो फा संवर्धन किया तथा कमतो को पददलित करियादः 
रधु फी स्त्रियों में आातक्त है, तथा क्ध्रुमों फी रिरो के संगते दमे भनसकिति द । 
२. श्रधिक श्ल 
जहा [प्रुत] वाक्य मार्य (अर्थात्‌ प्रछत भर्थं) से भन्य रेने मथं फो वताता 
जो [प्रदृत अर्थ] से अधिक तथा अक्तमान-विननिपर्णी वाका होता ट्‌ वहां अधिक 
दरकेष सछफार होता ह 1७1 
अविशेष ज्छयमे विपण समानं रहन £ विन्त य्ह अमनमान रहते द । 
उदाहरण-- 
कटिन चच्दो कै अश्रं : वक्र--कृटिखमति, पक्षं तिरछा । कलावरानु--विष्रानू, 
पक्षो चद्द्रमा । भ्तिमू- पयव, पक्षे राण । वृए--धम्‌, पक्षे व्रृषभ (रं) । 
जो फुटिट काचानु (विदान) का भी प्रेमधूर्वक भादर करने वाला मौर 
समृद्धिशाली एवं धर्मात्मा है, वही राजा प्रद्ंसनीय ह । 


[ कि | ।। । 0 प । ति, 1 ॥ क क 2, 1 ग ' षि त त । ण 1 


५ 


[य , हि, । 


[ध 
ऋक्‌ „ इन 1. 6 क. _ 9 9 


कारिका ६-१० | दरामोऽघ्याय. २२५ 


शिरसिङ्कत्वा । तथा भूति समृद्धि च विमति । कीदृक्षः सनु । वपे धमं समारूढः । स 
एव परमेद्वरो नायको जग्रति । एतत्परकृत वाक्यमिद तृक्कृष्टम्थन्तिर ग मयति-यथा 
स एव परमेदवरो महादेवो जयति, यः कलावन्त चन्र वक्र करशिषमपि परेम्णा मन्न 
निधाय वहति । भूत्ति च भस्म वहति । वृषे परषभे' समाखूढ इति । उक्कृष्टत्व चात्र देव- 
वणंनात्‌ । नृभ्यो हि देवा अधिकाः । विशेषणान्यपि भिन्नार्थान्यतरेति ॥ 

प्रथ वक्रश्लेपः- 


यतार्थादन्यरसस्तत्प्रतिबद्धश्च गम्यतेऽ्योऽथः । 


वाक्येन सुप्रसिद्धो वक्रदलेषः स विज्ञेयः 11&| 
यत्रेति । यत्र वाक्येन स्वमर्थ त्र वतान्योऽथेः प्रासद्धिको गम्यते । कीदुराः। 
प्रकृतादन्यरस. । तथा तेन प्रकृता्थेन प्रतिबद्धः । प्रतिवद्धता चंकविषयत्वेन । तथा सुप्र 
सिद्धस्तस्प्रतिबद्धत्वेन सुष्टु प्रतीत. ।॥ 
उदाहरयय्‌- 
माक्रम्य मध्यदेशं विदधत्सवाहनं तथाङ्खानाम्‌ । 


पतति करः काञ्च्यामपि तव निजितकामरूपस्य ।१०॥ 
आक्रम्येति । तव निजितकामहूपाख्यजनपदस्य सवन्धी करो नृपदेयभागः काञ्ची- 
नाम्नि यावदशे पतति 1 काञ्च्यपि त्वया जितेत्यथं कि कृत्वा । मध्यदेश कान्यकुन्जा- 
दूसरा अथं- 
वक्त चन्रमा को प्रेमपु्वंक सिर पर नंठाने ताले, सन्दी वृषभारोही एवं भस्म- 
धारी भगवान्‌ क्षिव की जयहो 15 
यहां प्रकृत अथं (राजा) की अपेक्षा अप्रकृतं अर्थं (महादेव) अधिकः है, 
क्योकि मानवो की अपेक्षा देवो को मधिकं माना जाता हे। 
£. वक्रश्लेप 
जिस वाक्य से [ प्रकृत | अथं से इतर एसा अथं प्रतीतं होता है जो उस भक्त से प्रतिबद्ध 
(सम्बद्ध) होता हमा भी अन्य रस का वोधक हो वहाँ वक्रद्छष अकंकार होता है ।&। 
उदाह्रण-- 
है राजनु, तुम कामरूप देश के विजेता हो । कांची देश वाङ तुम्हे कर देते है । 
मध्यदेश ( कान्यक्कुन्जादि ) ओर अंगदेश पर भी आक्रमण करके तुमने उन्हें अपने 
अधिकारमे कथाह) 


दूसरा अथ-- 
तुम कामदेवके रूप का तिरस्कार करनेचलेहो। तुम्हारा हाथ उदर षर 
्‌ पड़कर अंगों का मर्दन करता हृभा कांची (रशना) पर पड़ता है 1 १०। 


३२६ काव्यालद्ुारः | कारिका ११-१३ 


दिकमाक्रम्याभिभ्रूय । अनन्तरम द्खाना देगविगेपाणा सवाहनमुपमदन कूवन्निति । अथ 
गम्यमर्यान्तिरं भण्यते--यथा तव तिरस्कृतमदनरूपस्य करो हस्तः काञ्च्या रसनाप्रदेभे 
पतति । मध्यदेशमुदरमात्रम्‌ । अद्धानामुरूस्तनादीनां सवाहन परिमटन कुर्वेन । अय 
चार्थ श्ृद्धाररसयुक्त. । एकविपयत्वेन च पूर्वार्थप्रतिवद्ध. 1 पूर्वत्र तु रसो वीराभिधः॥ 
अथ व्याजश्लेषः- 
यस्मिन्निन्दा स्तुतितो निन्दाया वा स्तुतिः प्रतीयेत । 


ग्रन्था विवक्षिताया व्याजइ्लेषः स विज्ञेयः ।११॥ . 
यस्मिन्निति 1 यत्र सतुतेषिवछिताया अन्या प्रासङ्जिकी निन्दा प्रतीयते निन्दाया . 
वा विवलिताया. प्रासद््खिकी स्तुति स व्याजन्छेष. 1 । 
उदह््यमाह- 
त्वया मदशरं समुपेत्य दत्तमिदं यथा भोगवते शरीरम्‌ । 
तथास्यते दूति कृतस्य शक्या प्रतिक्रियानेन न जन्सना मे 11१२ 
स्वयेनि । भत्र कयापि नायिकया दूत्ती दयिततपाश्वं प्रेपितता ! सा तु तत्र स्वार्थं ` 
कृतवती 1 समागत्य चापधररभतादिक्मुहिभ्योत्तर दत्तवत्ती यथाह तत्र त्वदर्थे गता सती ' 
सपण दष्टा, पर वैँयं श्चिक्रित्सितेत्ति जीवित्ता । तत्तस्ता कृतदोपा दूती नायिका स्तुत्ति- , 
दारेण निन्दति स्वयेत्यादिना । भोगवते इत्येकत्र सर्पाय, अन्यत्र विक्लासिने । प्रतिक्रिया ` 
त्वे कत्नौपकारः, अन्यत्रापकार ॥ 
निन्दास्तुतिमाह- 
नो सीतं परलोकतो न गणितः सवं; स्वकोयो जनो 
मर्यादापि च लज्जिता न च तथा सुक्तान गोतवस्थिति. | 
भृक्ता साहसिकेन येन सहसा रज्ञां पुरः पयता । 
सा मेदित्यपरः परं परिहृता सवंरगस्येति या 1! १३॥ 


यहां प्रकृत अथं वीररमसे स्म्वद्धहै किन्तु अप्रकृत अथं श्युगार रससे। 
५. व्याजश्लेप : 

' जहां [प्रकृत वाक्य मे | स्तुति को विवक्षाहो, पर निन्दा प्रतीत हो, अथवा 
निन्दा की विवक्ना हो तो स्तुत्ति पतीत हो, वहाँ व्याजरकेष जानना चाहिए । ११ | 
उदाहरण (स्तुति स प्रतीयमान निन्दा)-- 

है इति ¦ तुमने मेरे लिए अपने रीर को उस मोगौ (साप) के अर्पण कर 
दिया, सँ तुम्हारे इस उपकार (अपकार) का ऋण इस जन्म मे नही चुका सकती । १२ , 
वस्तुत केप ठारा प्रतीयमान अर्थं यह है कि तुमने उन भोगी (विन्ासी) को{ 


[ आ क । 


कारिका १४-१५ | ददामोऽध्याय ३२७ 


नो इति । अत्र निन्दा तावत्‌--या सवं रेव लोकं रगम्यत्वात्परिहूता सां मेदिनी 
शिल्पिविदोषनारी येन साहसिकेन राज्ञा पुरत" सहसंव भुक्ता । तेन किं कृतम्‌ । न पर- 
रोकादरीतम्‌, न स्वजनो गणितः, मर्यादा च रद्धित, गोत्रस्थित्तिमु क्तेति । अतोऽपि 
निन्दायाः प्रासद्धखिकी स्तुत्तिरेव गम्यते । यथा--सा मेदिनी भूयन साहसिकेन राज्ञां 
पुर पर्यतां सहसा भुक्तात्मवशीकृता । या सर्वरेव राजभिदु गं मत्वाह्‌.र परिहृता । तेन 
किं कृतम्‌ । परखोकत. शवरृलोकान्नो भीतम्‌ । तथातिबलवत्तवादात्मीयजनोऽपि साहाय्ये 
नापेक्षितः ।! तथा मर्यादा स्वदेशसीमा लद्धिता । तथा गोत्रा. पवेतास्तेषु स्थितिर्व 
मुक्ता दुर्गं मुक्तमित्यथं ॥ 
चरथो क्तिर्लेषः - 
यत्र विवक्षितमर्थं पुष्यन्ती लौकिकी प्रसिद्धोक्तिः। 


गस्थेतान्या तस्मादुक्तिरलेषः स विज्ञेयः १४॥। 
यत्रेति यत्र तस्माद्विवक्षितार्थादन्या लोकप्रसिद्धो कितिवंचन गम्यते स उक्तिरलेषः। 
का तह्य स्यारुक्रियेत्याह - विवक्षितमर्थं पुष्यन्ती 1 एतदुक्त भवति-प्रकृतोर्थो रम्यौ 
भवतु, मा वा भूतु, लौकिकी चेदुकिति्ंम्यते त्य॑व तस्य पोष क्रियत इति ॥ 
उदाहट्यमाह- 
कलावतः संभृतमण्डलस्य यया हसन्त्येव हृताञ्यु लक्ष्मीः । 
नृणामपाङ्खेन कृतश्च कामस्तस्याः करस्था ननु नालिकश्रीः ।। १५॥। 


शरीर अपंण कर दिया । मतः तृञ्ले धिक्कार है। 
उदाहरणं (निन्दा से प्रतीयमन स्तुति)- 

निन्दा-इस दुःसाहसी ने अगम्या मेदिनी {कलित्पीकी स्री) से सव राजाओं 
के सामने ही बलात्कार करते हृए परखोक का भी ध्यान नही किया, अपने सम्बर्धियों 
की परवाह नहीं को ! अपने वज्ञ ओर मर्यादा की मवहेलना की । 

स्तुति- इस साहसी राजा ने अन्य वीरों से इुराक्नाम्य पृथ्वी को सब राजाओों 
के होते हए अपने अधीन किया । वह्‌ शनुजों से मयसमीत न हआ, अपने स्वजनों की 
सहायता की अपेक्षा न करके जके ही इसने राज्य सीमा का अतिक्रमण किया ओर 
दुगं छोड दिया ।१३। 
१ उक्तिश्लेष 

जहां विचक्षित अथं को पुष्ट करती हृई [शेष दारा] किसी लोकप्रसिद्ध 
उक्ति की प्रतीति हो वहां उक्तिर्लेष' जानना चाहिए 1१४। 
उदाह्रण- 

इस [ नतंको | ने अपने मुस्कराति हुए मुख से पुरणं मण्डल से युक्त चन्द्रमा की 


३२८ कान्यरानङद्भुारः | कारिका १६-१७ 


कलावत इति । कस्यारिवद्र्‌ पवणन क्रियते--कलावतदचन्दरस्य पूर्णविम्वस्य यया 
हसन्त्यैवाशु शीघ्र लध्मी सोभा हूताभिभूता । चरणां चापाद्खन कटाक्षेण काम. इत 
तस्या नाक्किश्ची" पद्क्षोभा कर॑स्थैव । यथा मूखेनाखण्ड. जनी जितस्तया हस्तगोभया 
पद्ममपि नून जीयेतेव्यर्थं इति । एपोऽत्र विवश्ित्तोऽथै. । एतस्यैव परिपोपं क्र्बाणान्या 
लौकिकी प्रसिद्धोवितिगम्यते । यथा--यया नतक्या करावतो विदग्धस्य समभृतमण्डलस्य 
ससहायवन्दस्य हसन्त्येवव्लेशञेनवानु लक्ष्मीहूं ता घन भक्षितम्‌ । नृणा चापाद्धन 
देखयंव काम. कृत । तस्या नाकिकश्चीमूं धजनसपत्करस्थितंवेत्ति। एप एव चत्र 
ूर्वाथपोपो यल्लोकप्रसिद्धयोक्त्यवगम इति ॥ 
त्रथासंमव श्लेपः-- 
गम्येत प्रक्रान्तादसंभवत्तद्विरोषणोऽन्योऽधेः | 
वाक्येन सुप्रसिद्ध. स नेयोऽसंभवश्लेषः । १६॥ 
गम्येतेति । सोऽसंभवद्लेपो ज्ञेय , यत्र॒ वाक्येन प्रक्रान्ताद्थदिन्योऽप्रस्तुतोऽर्था 
गम्यते । कीदृ: । असभवत्तद्विगेषण इति । असभवन्ति तस्य प्रस्तुतार्थस्य संवन्धीनि 
विनेपणानि यस्य स तथौक्तः । तथा सुप्रसिद्धः ख्यात इत्ति ॥ 
उद्ाहरयमाह-- 
परिहूतथजंगसगः समनयनो न कुरुषे वृषं चाधः । 
नन्वन्य एव दृष्टस्त्वमत्र परमेइवरो जगति ।। १७ ।] 
छवि का हरण किया, अपने कटाक्षे लोगों को फाम-विह्वुल क्रिया, इसके हाथ 
कमलोंकोश्मोभाको धारण कर रहै, 
दूसरा अर्थ-- 
इस नर्तकी ने अपनी मधुर मुस्कान से गोष्ठी में इस काचिन्न पुरुष की लक्ष्मी 
का अपहरण करचल्ियाहै। अपने कटाक्षसे जोगोंको काम-विवकश् करदियारहै, 
भोले-माले लोगों कौ सम्पत्ति तो इसके हथमेही हं १५ 
यहाँ "नाकिकिश्ची' शब्द के दो अथं है- नालिका (पद्म) की शोभा भौर नाक्िका 
भस अर्थात्‌ मूर्खं व्यकितियो की सम्पत्ति । 
मुखं व्यव्ितियो की सम्पत्ति नतकी के हाथ मे होती है--यहँ इछेप दाय इस 
लोकोक्ति की प्रतीतिदहोरहीदै। 
४. श्रप्तम्भवश्लप 
निक्त वाक्य से प्रकृत अथं की भवेक्षा एसे अन्य अथं कौ प्रतीति हयो जिसके विशेषण 


[प्रकृत अर्थ ] के साय घटित न हो सक वहां असस्मव्छेष जानना चाहिए । १६ 
उदाहरण-- 


है राजन्‌ ! आपतो महादेव से निन्त जान पडते है, क्योकि महादेव भुनग ` 


== 


॥ ॐ 


ह । । क | 


कारिका १०८-१९ | दरमोऽध्याय. ३२६ 


परिहृतेति । अत्र प्रकृतान्नृषलक्षणादर्थादन्योऽर्थो महादेवलक्षणोऽसभवद्िञेषण. 
प्रसिद्धो गम्यते । महादेवो हि विध्मानवासुकिस ङ्ध स्तिनयनो वृषवाहनश्च । राजा तु 
दू रीकृतविट समदुष्टि" पूजितधमंश्च 1 भस्य चालकारस्यान्यं व्यतिरेक इति नाम कतम्‌ ! 
अत्तु न व्यतिरेकरूपेण साम्य प्रतिपिपादयिषितम्‌ । अन्यत्वमेव विशेषणान्तरयुक्त- 
मिति । रूपकताशङ्धाप्यत्र न कार्या । साम्यस्य स्वयमेवाप्रकृतत्वादिति ॥ 

त्रथाक्यवश्लेषः- 

यत्रावयवमुखस्थितसमुदायविशेषण प्रधानाम्‌ । 

पुष्यन्गम्येतान्यः सोऽयं स्यादवयवदलेषः 11 १८ ]। 

यत्रेति । यत्र प्रधानार्थ पष्यन्प्रकृतार्थपोष कुर्वाणोऽन्योर्थो गम्यते सोऽवयवर्लेष । 


कीदृश प्रधानार्थम्‌ । अवयवमुखेनावयवद्रारेण स्थितानि समुदायस्य विशेषणानि यत्र 
तत्तथोक्तम्‌ ॥ 


उदाहरण म्‌- 
भुजयुगले बलभद्रः सकलजगत्लद्भुने तथा बलि जित्‌ । 
म्रक्रूरो हदयेऽसौ राजाभूदजुनो यशसि) १६॥ 


भुजयुगक इति । स राजा भुजयुगके वलेन हेतुना भद्र श्रेष्ठ. । तथा सकलस्य 
जगतो रद्धुने आक्रमणे कतंग्ये बिन रक्तानपि जयत्यभिभवतीति बङिजित्‌ । तथा 


०9 =-= न 


धारण करते है, किन्तु अपने भुजंगो (इटो) का संग छोड दिया है । महादेव विषभनेत्न 


(तीन नेनो वाले) ह किन्तु आप ससनयन (सबसे एक समान व्यवहार करने वाल) 
है । क्षिवजी नन्दी वृषम पर सवारी करते है, किन्तु आप कभी चष (घमं) को [सवारी 
के लिए] नीचा नहीं होने देते \१७। 
८, अवयव इलेप 

जहां एसा अप्रज्ृत अथं भ्रतीत हो जो उस प्रकृत अर्थं का पोषण करे जिसका 
समग्र विशेषण [ विहेषण के एक भाग के दवारा] अवस्यित्त हो 1१८} 
उदाहुरण- 

चह राजा अपनी दोनों भुजाभोंमे बलकेकारणभ्रेष्ठदहै, सरेसंसारका 
उल्लंघन (विजय) करते हुए बलवानों को जीतने बाला है । उसका हदय क्रूरन 
होकर भृदु-स्वभाव है ओर उसका धवल यज्ञ सर्वत्र प्रसृत हो रहा है । 
दूसरा अथं-- 

वह राजा भरुजवबल मे बलभद्र (बलदेव) है। सारे जगत्‌कोनाप नेमे 
(जत ठेते मे) वहु बलिजित्‌ कृष्ण है । हृदय की कोमलता में बहु साक्षात्‌ अक्रूर है 
ओर अपने श्युश्र यज्ञ के कारण बहु महाचीर भञ्जन प्रतीत होता है \१६। 


कोक = मे 


॥ 


३३० काष्थार्डारः | कारिका २०-२१ 


हृदये मनस्यक्नूरो मृदु । यशसि चाजुंन शुक्लः । अत्रेतानि विशेषणान्यवयवद्वारेण 
समुदायस्य स्थितानि । यस्मान्नात्र वलभद्रत्वादिक भ्रुजादीनामू 1 अपितु राजेव यदा 
भुजयुगले वलेन भद्रस्तदा स एव वलभद्र इल्युच्यते । तथा सकर्जगत्छ द्भुने वलिजय- 
नाद्रकिजिन्‌ । एव हृदयस्याक्कूरत्वात्स एवाक्रूर. 1 यनसोऽजु नत्वात्स एवाजु न इति । 
एव प्रधानार्थं पोपयन्नयमन्यौऽरथोऽवगम्यते । यथा--वरभद्रो हृक्धर. । वलिजिद्रासुदेवः। 
अक्रूरो वृष्णिविदेप. 1 अजु न. पाण्डव. । एप एव चात्र प्रधानार्थेपोपो यदन्येपा यानि 
नामानि तान्येवास्यान्वर्थन प्रनसाकारीणीति । 

त्र तच्छश्लेपः-- 

यरस्मिन्वाक्येन तथा प्रक्रान्तस्य प्रसाधयत्तत्त्वम्‌ । 

गस्येतान्यद्वाच्यं तत्वइलेप. स विनेयः २०॥ 

यस्मिन्निति । यत्र वाक्येन पुवंवल्प्रक्रान्तस्याथंस्य तत्वं परमार्थं प्रसाधयदल- 
कुवांणमन्यद्राच्यमर्थान्तिर गम्यते स तत्त्वश्लेपो विज्ञेय ॥ 

उदाहररमिदम्‌-- 

नयने हि तरलतारे सुतनु कपोलौ च चन्द्रकान्तौ ते। 


ग्रधरोऽपि पञ्चरागस्तरिभुवनरत्न ततो वदनम्‌ ।२१॥ 
नयन इति । हे सुतनु, तव नयने चञ्चलकनीनिके 1 कपोलौ च चन्द्रवत्कान्तौ । 
पद्मवल्लोदित ओष्ठ । ततो वदनं मुख व्रिभ्रुवने रत्न सारम्‌ । जातौ यचद्क्क्ृष्ट तत्तदर- 


यहां राजा को भ्ुजयुगके वकभद्र धादि चार विशेषणो से युक्त वताया मया 
है ये सभी विश्ेपण समभ्ररूपसे राजाके साथ घटित होते ह, किन्तु उन विदोपणो 
का एक-एक अवयव (वल्भद्र, वकिजिनु, अक्रूर ओर अजुन) अप्रकृत अर्थं का द्योतक 
दोता हुभा प्रकृत अर्थं का पोपण करता है । 
६. ततत्वश्लेप 

जहो वाक्य के हारा एसा मन्य अथं प्रतीत्तहो जो प्रकृत अर्थंके तत्वका 
प्रसाधन [पोपण ] करे, वहाँ तत्त्वरलष जानना चाहिए ।२०। 
उदाह्रण-- 

हे सुन्दरि ! तुम्हारी आंखो की पुतलिर्यां चञ्चर है, तुम्हारे कपोल चन्रमा के 
समान सुन्दर ह" तुम्हारे होठ कमल की रक्तिमा धारण कर रहे है भौर तुम्हारा मुख 
चरिभ्रुवन का श्रेष्ठ रत्न--चिन्तामणि ह ।२९। 
दूसरा भभथ-- 

नयन चचल तार (हार-मन्यसणि)के समान, कपोल त्कान्तमणि के समान, 
जधर पद्मराग के समान, गौर चदन तरिभ्रुवन रत्न अर्थातु चिन्तामणि कै समान । 


कारिका २२-२३ | दशमोऽध्याय ३३१ 


त्नमुच्यते । एनमर्थ प्रसाधयन्नयमन्योऽर्यो गम्यते । तव नयने तरख च तारे च । तरलो 
हारमध्यमणि । तथा चन्द्रकान्तो मणिभेद , पद्मरागश्च । यतस्वतेऽवयवा रतरूपास्ततो 
वदन चरिभुवनरत्न चिन्तामणिरेव 1 अस्माच्च पूर्वत्र विशेषोऽवयवमुखस्थितसमुदायवि- 
रेषणत्वसिति ॥ 


अथ विरोधाभासः-- 
स इति विरोधाभासो यस्मिन्नथंढयं पृथग्भूतम्‌ । 


प्रन्यद्राक्यं गसयेदविषश्द्ध सद्धिरुढमिव ।२२॥ 

स इति । स इत्यनेन प्रकारेण विरोधाभासोऽरुकार , यरस्मिन्नेकमेव वाक्थमन्य- 
दथंद्वय पृथग्भूत गमयति । कीदुकषमथंद्रयम्‌ । स्वरूपेणाविरुदढमपि विरुद्धमिव लक्ष्य- 
माणम्‌ ॥। 

उदहष्यमाह-- 

तव दक्षिणोऽपि वामो बलभद्रोऽपि प्रलम्ब एष भुजः। 

दुर्योधनोऽपि राजन्युधिष्ठिरोऽस्तीत्यहो चित्रम्‌ ॥२३।। 

तवेति । हे राजन्‌, तव वाहूर्भक्तान्प्रत्यनुकूकत्वाहक्षिणोऽपि शचुन्प्रति प्रतिकूल- 


तया वाम उत्यविरुद्धमथंद्रयम्‌ । तथा सं एव वलेन भद्रोऽपि प्रलम्बो दीर्घं" । तथा दु खेन 
योध्यत इति दुर्योधनोऽपि युधि समरे स्थिरोऽचञ्चल इत्यविरोध । विरोधप्रत्तिभासइच 


| ए.) [0 [गिण 


यहा दूसरा प्रतीत अथं प्रकृत अथं के प्रत्येक तत्व का पोषण कर रहा है- 
मुख को चिन्तामणि कहना तभी सम्भव हुआ दै, जब मूख के तत्त्वो (अवयवो ) नयन 
आदि को ्हार-मध्यमणि' आदि कहा गया है | 


०. विसेधामास श्लेप 

जहां एक ही वाक्य दो एसे पथक्‌ अर्थो का निदेश करताहै जो [परस्पर] 
विस न होते हृए मी विरुद्ध-से प्रतीत होते है बहौ विरोधाभास रेष होता है ।२२। 
उदाहरण -- 

विरुद्धा्थे--है राजनु ! वुम्हारौ भुजा दक्षिण (दई) होती हई [भी] बाम 
(बाई ) है ! बलभद्र (बलदेव) होती हई भी प्रलस्ब (बलदेव का शत्रु प्रलम्बायुर) 
है । दुयोधन होती हई मी युधिष्ठिर है--कितना आद्चयं है । 

अविरुढाथ--हे राजन्‌ { [ सक्तो की रक्षा करने वाली ] तुम्हारी दक्षिण भुजा 
[शत्रुओं को सन्तप्त करने के कारण | चाम दहै" ध्रौर बल ते श्रेष्ठ [ बलदेव ] तथा लम्बी 
[ प्रलम्बासुर | है । युद्ध में कठिनता से डती हई भी (दुर्योधन होकर मी ) अविच 
भाव से स्थिते (युधिष्ठिर) है।२३। 


३३२ कान्यारुद्धुारः (| कारिका २४-२५ 


दक्षिणवामयो. सब्येतरल्पयोरन्यलवात्‌, तथा वलमभद्रप्रकम्बयोहंक्वरासुरयोरन्यत्वात्‌, 
तथा दुर्योधनयुधिष्ठिरयोधति सष्ट्‌पाण्डवयोभिन्नत्वाद्लक्ष्यते । अथ विरोवादस्य को 
वि्नेषः । उच्यते--ततरे यादग्विशेपणमादौ निर्दिष्टं तत्प्रत्यनीक पुनरूच्यते । यथा सव- 
धितकमन्दरोऽप्यवदकलितनाकिक इत्ति । यत्र तु वाक्यान्तराथपर्यालोचनया विरोवच्छाय्रा- 
स्तीति । भत्रापि भवति, यदि दुर्योधनोऽपि धुयोधन इत्युच्यते 1 अत एव विरोधाभास- 
संना।) 

टवं श्ुदानलंक्रादयन्तप्रमेदानास्यायाधुना परवंकरतरिलद्यसिदव्ं संकी 

सानाह-- 

एषां तु चतुर्णामपि संकीर्णानिां स्युरगणिता भेदाः। 

तन्नामानस्तेपां लक्षणमंशेषु संयोज्यम्‌ ॥ २४॥ 

एपामित्ति । एपा चतुर्णा वास्तवीपम्यातिलयकपाणा संकीणनिा मिश्राणां मेदाः 
स्युर्भवन्ति । कियन्त इत्याहू--अंगणिता. बाहुल्यपरमेतद्चनम्‌ । संख्या तु विद्यते । एपां 
त्विति तुरवधारणे । तेपामेव नात्यदलकारजातमस्तीत्यर्थः । कि तेपा भेदानां नामे- 
त्याहू-तन्नामान इति । येपामलंकाराणा मिश्रभावस्त एव मिलितास्तेपा नामेत्यथः । 
यदि स॒होक्तेः समुच्चयस्य च सकरस्तदा सदहोवितसमूच्चय इति नाम । उत सहोक्तेव्यं- 
तिरेकस्य च तदा सहोक्तिग्यत्तिरेक इति नाम । एवमन्यत्रापि दृष्यम्‌ । कि तेपा तर्हि 
खक्षणमिद्याह्‌-तेपामित्यादि । तेपा सकरभेदाना लक्षणमनेपु भगेपु सयोज्यम्‌ 1 
यस्यारुकारस्यं योऽनस्तदीयमेव तत्र कक्षणसित्यथं ।) 

प्रथ संकरस्येव भेदानाह- 

योगवज्ञादेतेषां तिलतण्डलवच्च दुग्धजलवच्च | 

व्यक्ताव्यक्तांश्त्वात्सकर उत्पद्यते दधा ।२५॥ 
त्रलैकरारे की परस्पर-तंकीरता 

इन चार (वारतव, श्रोपम्य, भतिक्षय भीर इष) के परस्पर संकौणं (मिश्रण) 
होने मे अलकारों के अर्गाणत भेदहोतेर्ह। वक्यके जिसअंडशमेंजो अलंकार हो 
उसका नाम तया लक्षण उसमे जोड़ देना चाहिए ।२४ 
मकरके दाभेद- 

तिल-तण्डु भौर दूध-पानी के योग से व्यदत भीर श्रव्यवत अंक्नोके कारण 
संकर दो प्रकार का होता है।२५। 

एकः से अविक मलकारो के परस्पर-मिश्रणको पकर कहते है। सकर दो 
प्रकार का हाता है--तिरख-तण्टरक' के मिश्रण के समान व्यकवत बल्लो का सकर 'व्यवेताद 
सक्रर' करहाता है, भौर (भीर-नीर' के मिध्रण के चमान अन्यरयनान संकर कहाता है । 


कारिका२६ | दशमोऽध्यायः ३३३ 


योगवशादित्ि । एतेषा वास्तवादीना सकरो व्यक्तव्यक्ताशत्वाद्धेतोदर घा द्वि- 
प्रकारो भवति 1 व्यक्तान्यक्ताशत्वमपि कुत इत्याह्‌--योगवशात्‌ । तथाविधसबन्ववशा- 
दित्यर्थ. । केषां यथा स स्यादित्याह-तिरतण्ड्लवदित्यादि । तिलतण्डलाना यथा 
व्यक्ता सकरः, दुग्धजलयोइचाव्यक्ताशस्तद्रदेतेषामपीत्य्थंः । 


त्त्र हि दिङमात्रप्रद्थनाथमाह-- 
प्रभियुज्य लोलनयना साध्वसजनितोरुवेपथुस्वेदा । 
प्रबलेव वैरिसेना नृप जन्ये भेञ्यते भवता ।॥२६।। 


अभियुज्येत्ति 1 त्वया सेनाभियुज्याक्रम्य भज्यते भद्ख नीयते । कीदशी । भय- 
वशास्छोलनयना चञ्चङाक्षी । तथा साध्वसेन भयेन जनित उरमंहान्वेपथु कम्पः 
स्वेदस्च यस्या । अत्रावरेव सेनेति । यथा येन केनचिद्रनिता भज्यते सेव्यते तेनाभि- 
युज्याभिसस्यादो ततो भज्यते । तथा सापि प्रथमसमागमवश्ाच्चञ्चखनेत्रा भवति । 
तस्या अपि साध्वसेनोवेविपयुस्वेदौ भवत इति । इहावकवेव्येप उपमाविभाग । अभि- 
युज्येत्यादिकस्तु इरेषविभाग. 1 तयोरुक्षणं स्वधिया योज्यम्‌ 1 एतौ तिकतण्डरुलवत्प- 
कंटौ । 
तथान्यदप्यत्रेवाह- 
सन्नारीभरणो भवानपि न कि कि नाधिरूढो वृषं 
कि वानो भवता निकामविषमा दग्धाः पुरो विद्धिषाम्‌। 
उदाहरण (व्यवतांश सकर)- 
हे राजन्‌ ! जापकी ज्ञनुसेना अबला स्त्री के समानहै। उसकी अखि मयसे 
चचल ह । वहु डर के कारण कपि रही है ओर पसीनेसे तरबतरहो रहीहै।! आप 
युद्ध में उस पर आक्रमण करके उसे तितर-नितर कर रहै ह ।! (पक्षे--उस्से समागम 
कर रहे है) \२६। 
यहाँ अवखरेव" उस व्यक्त अन मे उपमा अरकार है, ओर नेप व्यक्त अनोमे 
ररष अककार है । 'तिल-तण्डुरः के समान इन दोनो अरुकारों का सकर है। 
अन्य उदाहुरण-- 
हे लोकव्यापके राजन { आप ओौर महदेव-दोनोके स्वभाव ओर कायं 
एक जसे है । महदेव श्रेष्ठ नारी (उमा) के पतिर्हैः क्याञआपक्रेष्ठस्त्ीफे भर्ता 
नहीं है ? अथवा युद्ध में तन्नु के हाथियो को मारने वाके नहीं है । क्षिवजी वृषारोही 
है । क्या आप वृष (धरममागे) पर आरूढ नहीं ह ? क्िवजी ने शत्नुमों के विषम 
(तीन) पुरोको जलाया था! क्या ञापने भी श्न्रुभों के विषम (अजेय) दुर्गो को 


। 


३३४ कान्यालच्धुार [ कारिका २७-२८ 


इत्थं द्रौ परमेश्वराविह शिवस्त्वं चंकरूपस्थिती 
तत्कि लोकविभो न जातु कुरुषे सद्धं भृजगेः सह्‌ ॥२७॥ 
सन्तारीति । हि लोकविभो राजन्‌, इत्थमुक्तप्रकारेण त्व हरञ्च परमेदवरौ । 
यस्मदेकरूपस्थिती तुत्यस्वभावन्यवहारौ 1 तत्करदाचिदपि भुजगं. मह सद्ध न कुरूप । 
तदेव तुत्यत्व वक्ति-सदहिहुरः सती नारीमूमाख्या त्रिमत्ति धारयति! भवानपि 
गोभना नारी 1 विभत्ति पोपयत्येव । अथवा सन्ना अवसाद गता अरीभा रिपुकरिणो रणं 
यस्य स तथाविव । हरो वपं जरद्गवमधिरूढ । भवानपि वरप धमम्‌ । तथा हरेण 
विद्धिपा त्रिपुरवासिना विपमास्तिस्च पुरो दग्धा । भवतात्यन्तदुर्गाः गत्रूणा पुरो दग्धा. । 
सवत्र किंशब्दः प्रदे । तथा तस्य परमेदवर इति सज्ञा ! त्वमपि परम उक्करष्ट ईदवरो- 
ऽथेवान्‌ । एव याहो हरस्ताहयो भवानपि । तद्यथा तेन भुजगे. सह॒ सपकं कृतस्तथा 
त्वयापि खिद्धं कथन कृत इति व्यतिरेकस्य दर्पस्य चात्र सकर । साधारणविशेपण- 
योगात्‌ (इरेपणयोगान्‌) ब्लेपसद्‌भाव. । हरे उपमाने भरुजङ्ख सङ्घस्य दोपरस्य सत्त्वाद्रा- 
जनि चासत्त्वा दृगुणत्वे सति व्यतिरेकसदुभाव एतौ चात्र तिकतण्डरलवत्प्रकटौ ।। 
इदानी मन्यक्तसंकरोदाहर्यमाह-- 
ग्रालोकनं भवत्या जननयनत्नन्दनेन्दुक रजालम्‌ । 


हूदयाकषंणपाराः स्मरतापप्रशमहिमसलिलम्‌ ॥२८।। 
आलोकनमित्ति । भवत्या आोकन जननयनानन्दनेन्दुकरजानमेवेति रूपकम्‌ । 
गुणाना साम्ये सत्युपमानोपमेययोरभिदेति ल्पकरक्षणात्‌ । अथवा भवत्या आलोकन 


0 8 1 ए ०7 11 [1 त १ 


दग्ध नहीं किया है ? शिनजी परमेश्वर है । आप भी परम एेऽ्वयं वाते है । क्षिवजी 
भुजंगो को अपने पस रदते ह किन्तु हे राजन्‌, जाप मुजगो (इष्टो) को अपने पास 
वथो नहीं रखते ? 1२७) 
र्हा भी, तिक-तण्डुल-न्याय' से इकेप ओर व्यतिरेक अकारो का सक्र है। 
उदाहुरण (अव्यक्त मकर) - 
हे ुन्दरि ! वुन्हारा दक्ञनलोगोकी ओंखों को आनन्ददेनेमे चन्माका 
बीत किरणजारूहीदहैः अथवा उसके समान । यह्‌ हदय को आह्ष्ट करने में 
पाशहीहै, अथवा पाश के समान है, तथा कामक्तन्तापको शान्त करने से शीतल जल 
है, अथवा शीत जक के समान है ।२८। 
यहां "जननयनानन्दनन्दुकरजाल्मु मे रूपकभी है गौर उपमाभी। यही 
स्थति "हूदयाकर्पणपाज.' तथा स्मरतापप्र्ममहिमसलिलमू" की भी है 1 इन स्थलों 
भन्यक्त अगोम ही येदोनां अलकार हं । यहां १०।२६९ में 'अवलेवः इस व्यव 
अथ के समान स्थित्ति नही ह । 


कारिका २६ | दङमोऽघ्यायः ३३५ 


जननयनानन्दने इन्दुकरजार्मिवेत्युपमा । एतौ चाङंकारावव्यक्तासौ । अचर प्रमाणा- 
भावादेकत्रानिश्चयः । दोपाभावाच्चोभयमप्याश्चयिन्‌ योग्यम्‌ । एव हृदयाकषणपाश- 
एव पार इव वा । स्मरतापगप्रदामने हिमसक्िलमेव तदिव वेति । रूपकोपमास्षकरो- 
ऽ्यमरूकार. ॥। 
तथा-- 
म्रादौ चुम्बति चन्द्रविस्वविमलां लोलः कपोलस्थलीं 
संप्राप्य प्रसरं क्रमेण कुरूते पीनस्तनास्फालनम्‌ । 
युष्मद्वेरिवधृजनस्य सततं कण्ठे लगत्युल्लसन्‌ 
किवा यरन क रोत्यवारितरसः कामीव वाष्पः पतन्‌ ।२६॥। 
मादाविति । हे नृप, युष्मद रिव धुजनस्य सबन्धी वाष्प पतन्प्रसरन्कामीव कि 
वा यन्न करोति! वा इवाथ । किमिव यन्न करोतीव्यथः। वाष्पस्तावत्पत्तन्प्रथम 
कृपोलस्थद्ी चुम्बति 1 कामुकोऽपि तथैव । ततो वाप्प प्रसर प्राप्य क्रमेण पीनस्तना- 
स्फालन कुरुते । काम्यपि तदेव । ततः कण्ठे च द्वावपि रगत । ततदचावारितरसो 
वाष्प कामीव किमिव न कुरते । जघनस्थरमपि स्पृरातीत्यथं । अत्र रूपकोपमाङइरष- 
पर्यायाणा सकर. । तत्र कषोस्थखीमिति रूपकम्‌ । कामीव चन्द्रविम्बविमलामिति 
चोपमा । वाप्पकामिनो साधारणविरोषणयोगाच्छलेपः 1 रइात्रवकश्च त्वया जिता इति 
तात्पयंत पर्यायसद्‌भाव इति । अत्र चालकारसकरे पूवंकविलक्ष्याणि भूरिशो द्यन्त 
इत्यत्र महानादर कायं ! तथा च--दिवाकराद्रक्षति यो गुहासु" इत्यादि । अत्रो्परक्षा- 


[बन्‌ 


थान्तरन्यासोपमानां सकर । यथा च- 


(रिणी गि ) ति रि, शि ५ ह श | रीर 


अन्य उदाहूरण-- 

है राजन ! आपको रानुस्त्रियों का आंस कामुक न्यक्तिषरी माति क्या-क्या 
नहीं करता ! पहले तो वह॒ उनके चन्द्रविभ्ब के समान निर्मल क्पोलों का चुम्बन 
करता है, फिर आगे बढता हुभा उनके स्थुल कुचो का ताडन करता है 1 तत्पश्चात्‌ 
उनके गल लगता है । इस प्रकार आनन्दातरुभव मे बाधा न डालते हए वहु उनके जघन 
आदि का स्पक्षं करता है ।२६। 

यहाँ विभिन्न अन्यक्त अगो मे रूपक, उपमा, ज्छेप, पर्याय आदि अर्क्रारेंका 
सकर दै । 

इसी प्रकार नमिसाधु-प्रस्तुत "रक्तस्त्वम्‌" " " '* ' पद्यमे इरेप ओर व्यत्तिरेक 
का सकर है- 

हे अशोक वृक्ष ! तुम अपने नवकिसल्यो से रक्त (अरुण) हो, गौर मै अपनी 


 श्रियाके प्रशंसनीय गुणोके कारण रक्त (अनुरक्त) हं! तुम्हारे ऊपर शिीमुस 


३३६ काव्याछङ्कार्‌. | कारिका २६ 


रक्तस्त्वं नवपल्लवे रहमपि दकाच्यै. प्रियाया गुणं-- 
स्त्वामायानिति क्षिलोमुखाः स्मरधनुमु क्ता सखे मामपि ¦ 
कान्तापादतलाहतिस्तच मुदे तदन्ममाप्यावयोः 
सर्व॒ तुल्यमशोक केवलमहं घन्ना सशोकः कृतः ॥ 
एतौ च्केपव्यत्िरेकौ । एवमन्यदपि वोद्न्यसिति । 


इति श्रीरद्रटछरृते काव्यालकारे नमिसाधुविरचितटिष्पणसमतो 
दगमोऽध्याय समाप्त । 


॥ य कणर 


(श्रमर) अति रहै ओर भूञ्परभी कामदेवके धनुपसे द्ृटे हए शिरीमुखत (बाण) 
अत्ति है (गिरते दै) 1 चुन्दर रमणीके चरणतख कां प्रहार तुम्हे प्रसन्नता (विकास) 
देनेवाला है ओौर इसी प्रकार मुक्षभी। हम दोनोकीड्नवातोमे तो समानतादहै 
अन्तर केवर इतन है किं तुम अगोक (गोकरहित) हो ओौर मुञ्जे विधाता ने सगोक 
(गोकयुक्त) वनाया है । 


इति 'अशुभ्रभा ऽऽख्य-हिन्वो-न्याख्यायां द्ञमोऽध्यायः समाप्तः । 


एकादशोऽध्यायः 


त्र्थस्यालङ्कारा च्रभिहिताः । संप्रति दोषाः कथ्यन्ते । नन्वर्थालङ्कारप्रति- 
परादनास्रागेवार्थदोषा परिहृता एव तकिमिति पुनस्ते कथ्यन्त इत्याह-- 
परिहूत एव प्रायो दोषोऽथंस्यान्यथो व्तिपरिहारात्‌ । 


ग्रयमुच्यते ततोऽन्यस्तत्कारणमन्यथोक्तौ च ॥१॥। 

परिहूत इति । सवं. स्व स्व रूपम" (७।७) इत्यादिना ग्रन्धेनार्थंस्य विपरीत- 
कथनलक्षणो यो महान्दोप सोऽस्माभिः तचन खलु बघ्नीयान्तिप्कारणमन्यथाति- 
रसात्‌" (७1७) इत्यनेनान्यथोक्तिपरिहारात्परिहूत एव । यस्तु ततोऽन्यथोक्तेरन्यः 
स्वल्पदोप सोऽयमघुनोच्यते ! तथा तस्या्थस्यान्यथोक्तौ यत्कारण तदप्युच्यते । परिहृत- 
मेव सर्वं दोषजातमन्यथोक्तिपरिहारदारेण । किचिदेव दुखक्ष्यमपरिहूतमस्तीति प्रायौ- 
ग्रहणेन सूच्यते ! यत्तु विद्यते तदधुना परिदह्यते ।। 

त्थ तानेव दोषानुदिश्ति- 

भ्रपहेतुरप्रतीतो निरागमो बाघधयन्नसंबद्धः । 


ग्राम्यो विरसस्तद्रानतिमात्रस्चेति दुष्टोऽथंः ।।२।। 
अपहेतुरिति । अपहेत्वादयो नवार्थंदोषा । इतिशब्दो हेत्वथं प्रत्ये कमभिसबध्यते 
यतोऽपहेतुरतो दुष्ट इत्यर्थ. 1 एवमन्यत्रापि योज्यम्‌ 1 


एकादश अध्याय 


इस भरन्थ के छठे अध्याय मेँ ७ पद-दोषो, ओर ४ वाक्य-दोर्पो का निरू- 
प॒ किया जा चुका हे | इसके अतिरिक्त दूप्तरे अभ्याय्‌ के व्वे छोकमे भी गुखो 
के वेपरत्य से सम्भव [पद्वाक्यगत] छः दोषों क्री चर्चा की गयी थी । अव इस 
अध्याय मे च्राचायं ने & अथंदोषों का निरूपण करने के उपरान्त £ उपमा-दोषों 
पर प्रकाश्च डाला है| 

अथं को अन्यथा [ विपरीत, अशुद्ध, अमान्य, चान्त, अपरुणं आदि] उक्तिका 
त्याग करना चाहिए" इसी कारण दोष प्रायः त्याज्य होते ह, [यह्‌ पहर इस श्रन्थ में 
दताया जा चुका है, अब | अम्य दोषों का निरयण किथा जाता है तथा उनकी अन्यया- 
, उक्तिकाकारण मी [तिदिष्ट क्याजाताहै।] \१ 
अपहेतु, अप्रतीत, निरागम, बाधयन्‌, असम्बद्ध, ग्राम्य, विरल, तद्वान मौर 
| , अतिमा्नरये [नौ] भर्थं-दोष है ।२ 


३२३८ काव्यालङ्कारः | कारिका ३.४ 


यथोहेशस्तथा लक्षणमिति कत्वा एवं मपहेत॒लक्षखमाह-- 

प्रपहेतुरसौ यस्मिन्केनचिददोन हैतुताम्थः | 

याति तथात्वे युक्त्या बलवत्या बाध्यते परया ॥३॥। 

अपहेतुरिति ! असावपहेतुर्दोपः, यत्र केनचिसकारेणा्थस्तथास्वे तद्धर्मताया 
हैत॒व्वं याति । स च हेतुता गत सन्नपरया वक्िष्टया युवत्या बाध्यते । थदा चा्थहेतुत्व- 
सद्‌भावस्तदान्यथोक्तिपरिहारेण न परिहूत" ॥ 

उदाहरणम्‌- 

तव दिग्विजयारम्भे बलधूलीबहलतोयजनितेषु । 

गगनस्थलेष॒ भानोश्चक्रमभूद्रथभराभिजम्‌ 1४1 


तवेति । गताथभेव । अत्र धूर्गेहलस्तरक्षणोऽ्थेः स्थलत्वे हैतुता याव्येव । किं 
तु स्थलस्य गगने निराधारत्वादवस्थान न सभवतीत्यनयोत्तरकालभाविन्या वेरवत्या 
युक्त्या बाध्यते ॥ 


४. अषहेतु । 

जिसमे अथं किसी अंश सै कारण वन जाताहि, फिर वैसा हे जाने पर अन्य 
बलवानु ुषति से बाधित हो जता ह, षहा अपहैवु होता ह ।३। 
उदाहुरण-- 

[हे राजन्‌] वुम्हारे दिग्विजय के आरस्भमे सेना की धुलि-समूह्‌ मौर जल 
फे भिश्रण [के उड़ने] से उत्पन्न आकाल्ञ-मार्गोसे सयका चक्र रथ के भारसे 
परिचित हो गया \४। 

धूकलि-समूह्‌ ओर जूके मिभ्रणसे स्थल वनजानैका कारणतो मान्यदहै 
किन्तु निरयाधार गगन मे इसकी स्थिति असम्भव होने से यहां भपहेतु दोप है । 

२. छ्प्रतीत 

जो अथं होता हुंमा सी वृद्धो (पूवं कवियों) दवारा प्रयुक्त नहीं होता वह्‌ 
(उसका प्रयोग करना) "अप्रतीतः [ दोष ] कहुलाता है ! 
उदाहरण- 

वहु सुकुमारो शरद्‌ जध्तु के सगानं शोभित होती है, क्योकि ये दोनों (निक्स- 
सपुलकोत्करा' है--सुकुमारी का पुरुक-(रोभांच-) समूह प्रसरित है, भीर शरद्‌ श्तु 
मे “पुलक नामक वक्षो के समूह्‌ पुष्पित होते है ।५। 

यह्‌ 'पुलक' शब्द वृक्ष के अथं मे अप्रतीत है । 


कारिका ५-७ | एकादगोऽध्यायः ३३६ 


त्रथाम्रतीतः 
भ्र्थोऽयमप्रतीतो यः सन्नपि न प्रयुज्यते वृद्धः । 


रारदिव विभाति तन्वी विकसत्पुलकोत्करेयमिति ।\५।। 

अथं इति । अयभप्रतीतोऽर्थो भण्यते यो विद्यमानोऽपि वृद्धं. पूवंकविभिनं 
प्रयुज्यते । उदाहरणम्‌--[शरदिति ।] प्रसरद्रोमाञ्चनिवहा तन्वी भाति। शरच्च 
पष्प्यत्पुरुकाख्य वृक्षविशेषनिवहा । अत्र पुरकशव्दो वृक्षविशेषवाचकोऽपि तद्ाचकत्वेन 
पूवंकविभिनं प्रत्युक्त इति न प्रयोज्य. ॥\ 

चरथ निरागमः- 

ग्रागमगम्यस्तमते य उच्यते्थो निरागमः स इति । 


सततं स राजसूयरीजे विप्रोऽश्वमेधंश्च ।६।॥। 

आगमेति 1 योऽथं आगमात्सिद्धान्ताद्गम्यते, अथ चागमनिरपेक्ष एवोच्यते, स 
इत्यनेन प्रकारेण निरागम. । उदाहुरणम्‌- सततमिति । अव्र विप्रस्य राजसूयाश्वमेधौ 
यागौ कथितौ । तौ च वेदगम्यौ । वेदे च तयोन्‌ पस्यैवाधिकारो न त्राह्यमणस्येत्युक्तम्‌ 1\\ 

प्रथ वाधयन्‌-- 

यः पूवंमन्यथोक्तं तद्रक्तूकमेव बाधयेदथंम्‌ । 

ग्रथंः स बाधयन्निति मृगाक्षि नेत्रे तवानुपमे ।७।। 


२. निरागम 

जो अथं आगम (सिद्धान्त) से ज्ञातव्य हो, किन्तु उसे इसके विना कहा जाए 
उसे निरागम कंहूते है । 
उदाह्रण-- 

वह्‌ ब्राह्यण राजसुय ओर अदवमेध यज्ञो हारा निरन्तर इष्टि करता है ।६। 

राजसूय भौर अदवमेधये दोनो यज्ञ वेदमे नृपके लिए अधिकृत हैन किं 
ब्राह्मण के किए 1 अत यहां निरागम' दोष है। 
४. वाधयन्‌ 

जो अथं उसो वक्ता वारा पुरे कहे गये विपरीत अथं का बाध करै वह्‌ 
अथ ाधयतु' [ दोष] कहाता है ! 
उदाहरण-- 

मृग के समान नेत्रो वाली 1 तुम्हारे नेत्र अनुपम हैँ 19! 

` जिस वक्ता द्वारा नायिकाके नेत्र मृगके नेत्रो के समान कहै गयेदहैखउसीके 

दारा उन्हे अनुपम कहना वाधयन्‌' दोष है, क्योकि इस “पूवं कथन का वाध होता है। 


३४० कानव्यालद्खुारः | कारिका 


य इति । योऽथ उत्तरकारु भण्यमानः समानववत्रक पूर्वं मन्यथोक्तमर्थं बाधयेत्स 
बाधयध्ित्ति भण्यते । यथा-मृगाक्षि नयने तवानुपमे, अत्र येनेव वक्वा प्रथमं मृगा- 
्षील्युक्त तेनेव पुनस्तव नयने अनुपमे इति पूवस्य बाधकमुक्तमु । इद चात्र निदशनम्‌। 
यथा- 

वयुरनुपमं नाभेरूष्वं विधाय मरगीदशो लजलितल्चितंरद्खन्यासंः पुरा रभसादिव ! 
तदनु सहसा चिन्नेनेव प्रजापतिना अं पृथुलपृथुल स्थुलस्थुला कृता जघनस्थली 1 
अत्र नाभेरूष्वेमनुपम वपुरित्यादुक्त्वा मृगीदृश इयुक्तम्‌ ॥ 

सथात्तवद्ध-- 

प्रक्रान्तानुपयोगी प्राप्तो यस्तत््रमादसंबद्धः । 

स॒ इति गता ते कीतिबेहुफेनं जलधिमुल्ल ज्य ।} ८1) 

प्रक्रान्तेति । योऽथः प्रक्रास्ता्थक्रमायातोऽपि प्रक्रान्तेऽथेऽनुपयोगी सोऽसवद्ध 
इत्युच्यते । उदाहरणम्‌ गता ते कीतिरित्यादि 1 अत्रं जलधौ सवद्धत्वात्पेनाना बहु- 
फेनत्व क्रमप्राप्तम्‌ । अथ च प्रस्तुतेऽ्थेऽनुपयोगि । यदि वहुफेनत्व जखषेर्दुस्तरत्वे 
हेतुरमवेत्तदा भवेदपारजरुधिरुघन कीतंरति्याय । न चंवमरित । तस्मा्रहुफेनमिस्ये- 
तदकिचित्करम्‌ ।। 


इसी प्रकार का एके अन्य उदाहरण नमिसाधु ने भी प्रस्तुत किया है-- 

प्रजापत्ति ने पहले तो जल्दी मे उस [नायिका] कौ नाभिसे उपरके शरीरको 
अति रमणीय अगो के निवेश हारा अनुपम बना दिया, बाद मे सहसा खिन्न-से होकर 
उस मृगनयनी के नितम्ब-माग को विराल-विशार सा एव स्थुल-स्थुल सा वना डाला । 


यहाँ भी नायिका कै उपरिभाग-स्थित शरीर को अनुपम कहकर कवि ने 
उसकेनेत्रोकोमृगके नेत्रो के समन कह दवियादहै। 
५. शअसस्वद्ध 

जो अथं क्रम से जाया हुमा भी प्रस्तुत अथं में अनुपयोगी भी हौ वह असम्बद्धं 
होता है । 
उदाहरण- 

[है राजन्‌] तेरी कीति बहुफेनयुक्त समुद्र को सी जंघकर चली गयी है-- 
समूद के पार मी फल गयी दहै)! 


समुद्र के प्रसग से वहुफेनः शब्द का प्रयोग समुचित होता हुआ भी प्रस्तुत | | 


अथे मे अनुपयोगी है, क्योकि यह कीति की रुघनीयता मे बाधक नही है । 


कारिका & |] एकादशोऽध्यायः ३४१ 


अथ भास्य- 
ग्राम्यत्वमनौचित्यं व्यवहाराकारवेषवचनानाम्‌ । 


देराकुलजातिविद्यावित्तवयःस्थानपा्रेषु | ६॥। 

ग्राम्यत्वमिति । यद्भ्यवहाराकारवेषवचनाना चतुर्णामपि प्रत्येकं देशकुल्जाति- 
विद्यावित्तवय.स्थानपात्रेष्वष्टसु विषयेष्वनौचित्य तद्श्राम्यत्व दोषः। तत्र व्यवहारश्चेष्टा । 
आकार स्वाभाविक रूपम्‌ । कृत्रिम तु वेष । वचन भाषा । तथा देशो मध्यदेशादि- 
रायनिायंभिच्नः । कुलं गोत्रमिक्ष्वाक्वादिः । देवदैत्यादिकमित्यन्ये। जातिः स्त्रीपुसा- 
दिका । ब्राह्मणत्वादिका वा । विद्या शास्वज्ञता ! वित्तं धनम्‌ । वयः डशवादिकम्‌ । 
स्थान पदमधिकार. । पात्राणि भरतोक्तान्युत्तममध्यमादीनि । तत्रायेदेशेष्वकरुणो 
व्यवहारः, भयकर आकारः, उद्धतो वेष. परुषवचनमनुचितम्‌ । म्कच्छेषु त्वेतदेवो- 
चितम्‌ 1 तथा ग्रामेषु यदुचितं तदेव नगरेषु प्राम्म्‌। एव कुलजेषु परिभवस- 
हत्वादिको व्यवहार", असौम्य आकारः, विकृतो वेष. वितथ वचनमनुचितानि । जातौ 
तु त्राह्यणादीना निजनिजजातिविहितव्यवहाराकारवेषवचनान्युचितानि तदन्यथा 
त्वनुचितानि । पुरूषेषु सूद्रवर्जैमन्नपाक्रादिको व्यवहार स्थुलस्तनश्मभू रहितं च 
रूपमाकार, कौसुम्भवस्त्र काचाद्याभरणं च वेष. समन्मथादिवचनेमनुचितम्‌ । स्वीषु 
तदेवोचितम्‌ । एवमन्येषामपि 1 तथा विद्याया पण्डितेषु शस्त्रग्रहणपुवंको व्यवहार, 
सव्याधिवपुराकार, उद्धटो वेषः, असस्ृतव चनमनुचितानि । मूखषु तान्येवोचितानि । 
वित्ते धनिना दानोपभोगरदितो व्यवहार", दुःस्पर्शादिराकार, मक्िनिवस्तरादिको वेषः, 
दीन वचनमनुचितानि ! द्रमकेषु (?) तान्येवोचितानि । वयसि वृद्धेषु सेवादिव्यवहार', 
इन्द्रियपाटवादिराकार., कुण्डरादिधारण वेषः, समन्मथं वचनमनुचितानि । तरुणेषु 
तान्येवोचितानि । स्थाने राज्ञां सक्रोधलोभादिको व्यवहार. निलक्षण आकारः, कुण्ड- 
रादिरहितो वेष. परुष दीन वेचनमनुचितानि 1 एव पात्रेषु यानि भीमसेने व्यवहारा- 

दीन्धुचितानि तान्येव युधिष्ठिरे प्राम्याणीत्यादि । एतत्तु भ्राम्यत्वमन्यथोक्तिपरिहारेण 

न परिहूतम्‌ ॥ 
१. ग्राम्य 

कुल, जाति, विद्या, वित्त, आयु, स्थान जौर पान्न इन [आलें विषयों] में 
व्यवहार, आकार, वेश ओर वचन का चित्य भ्राम्य कहाता है ।&। 

यहाँ नमिसाधु ने श्राम्यत्व (अनौचित्य) की एक लस्वी सूची प्रस्तुत की है। 
विज्ञ पाठको के लिएु वह्‌ मति सुबोध है । उदाहरणार्थ-- चिद्राच्‌ जनो के लिए शस्व- 
ग्रहण कूप व्यवहार, व्याधि (रोग, चाहे तो इसका अर्थं कुप्रकृत्ति", विषयवासना 
जादि भी ऊ सक्ते है) से युक्त देह रूप, आकार, भयकर वेप ओौर अपरिष्कृत वचन 
- अनुचित है, चिन्तु मूर्खो के चिए ये समी उचित है । इत्यादि । 


३४२ कान्यालद्धुारः [ कारिका १०-११ 


अथात्रैव दिक्छदशनाथमाह- 

प्रागलभ्यं कन्यानासव्याजो मुग्धता च वेद्यानाम्‌ । 

वैदग्ध्यं ग्रास्याणां कूलजानां धौत्यमित्यादि ।॥१०॥ 
प्रागट्सम्यमिति । कन्याङम्देन नवोढा लक्ष्यते । कन्यानां नवोढाङ्खनानां प्रागत्म्य 


वैयात्यम्‌ ! तथा वेश्याना पण्यस्त्रीणामन्याजक्रत्रिमं मौग्ध्यम्‌ 1 तथा ग्राम्याणा वंद 
र्यम्‌ । तथा कुलीनाना धूतंत्वमनुचितम्‌ ! अ्राम्यमित्यथंः 1! 
ततश्च किमित्याह- 
एतद्विजाय बुधः परिहृतंव्यं महीयसो यत्नात्‌ । 
तहि सम्यग्विजात्‌ रक्यमुदाहुरणसात्रेण ।११।। 
एतदिति 1 एतद्ग्राम्यत्व विशेपेण ज्ञात्वा महीयसो यत्नादादरेण परिहतन्यम्‌ । 
महाकवयो यत्र मुह्यन्तीत्यतो महीयसो यलनादित्युक्तम्‌ 1 तह्य दाहरणानि किमेतेषु 
नोच्यन्त इत्याह-नहीत्यादि 1 यस्मादुदाहुरणमात्रेण न यथावद्धिज्ञातु राक्यते । तत 
स्वधिया विज्ञाय यथा ्रास्यत्व न भवति तथा प्रयोज्यम्‌ । 
यथा-- 
व्याहृता प्रतिवचो न संदधे गन्तु्मच्छदवलम्बितांश्चुका । 
सेवते स्म यनं पराङ्मुखी सा तथापि रतये पिनाकिनः ॥ 


1 


कन्या्ओं की [ नबोडाओं की भी ] श्टता, वेर्याओं की जङ्कननिम भुग्धत, प्रासीणों 
की चतुरता, कुलीनो की धृतता--यह्‌ सव [वर्णन करना] प्राम्य दोष हं । १०) 

इस प्राम्यत्व को जानकर बुद्धिमानों को महानु प्रथाससे इस भ्राभ्यत्वं का 
परिहार करना चाहिए 1 केवल उर्दाहुस्ण-मान्न से यह अच्छी पकार से नहीं जानां जा 
सकता \१९१। 

इसी प्रसंग मे नमिसाधुने दो पद्य प्रस्तुत कयि रहै जिनमें ग्राम्यत्वं दोपकी 
स्वीकृति नही करनी चाहिपए-- 

(१) व्याहृता प्रतिवचो न“ वह्‌ पार्वती संभाषण करते पर उत्तर नही 
देती थी । दुपटरा पकडने पर [वहाँ से ] चरे जाना चाहती थी । शय्या पर मुंह फेर 
रती थी। फिर भी [इन विपरीत चेष्टाओों से] भगवान्‌ दिव को आनन्द ही 
मिलता था। 

(२) 'उपचारिताप्यतिमात्रम्‌ [इस पद्य मे किसी वेद्या का वणन प्रतीत 
होता है| वह प्रकेट-वध्रु भर्थात्‌ वेश्या [धन-राजि द्वारा] अत्यधिक उपचारितत (सेवित) 
की जाती हुई मी उस वैरिक की ओर, जिसकी सम्पत्ति अव क्षीणदहो चुकी दहै ओर 


[1 
:+ $ 


चर ऋ । ५ 


कारिका १२-१३ |] एकादसोऽध्याय. ३४३ 


तथा-- 
उप्चरिताप्यतिमान्रं भ्रकटवश्ुः क्षीणसंपदः पुंसः । 
पातयति हं व्रजतः स्पृहया परिधानमात्रेऽपि ॥ एवमादि ॥ 
प्रथ विरस्रः- 
म्रन्थस्य यः प्रसङ्धे रसस्य निपतेद्रसः क्रमापेतः । 
विरसोऽसौ स च शक्यः सम्यग््ञात्‌ प्रबन्धेभ्यः ।१२॥ 
अन्यस्येति । रसान्तरप्राप्तौ सत्या यो रस. श्युद्धारादि. निपतति स विरसो- 
ऽथेदोषः 1 ननु सर्वरसयुक्तत्वान्महाकान्यस्य रसान्तरापातोऽभ्युपगत एव । तत्कथमत्र 
विरसोऽथंदोष इत्याह--क्रमापेतः प्रसद्धविरद्ध. । यस्य रसस्य ॒तत्रानवसर. स दृष्ट 
इत्यथः । किमच्रोदाहूरणमित्याह -स चेत्यादि । चो हेतौ । यस्मात्स विरसोथंदीोष. 
प्रवन्वेभ्यो महाकाव्यादिभ्य. सम्यग्विजात्‌ शक्यते ! अत इह नोदाहूत इत्यथ. ॥ 
सूचीमात्रमाह- 
तव वनवासोऽनुचितः पित्रमरणशुचं विमुञ्च किं तपसा । 
सफलय योवनमेतत्सममनुरक्तेन सुतनु मया ।॥१३॥ 
जो [वाहर| जा रहा है, अपने दरवाजे को बन्द करते-हुए भी [इस] स्पृहा से हष्टि- 
पातत कर रही दहै [कि वहु पुनः धनराशि ङेकर आएगा] । 
इन दोनो उदाहूरणो मे परिस्थिति का अनुकूरु-चित्रण होने के कारण 
ग्राम्यत्वं दोष नही मानना चाहिए । 
७, विरस 
जो रस किसो अन्य रस के प्रसङ्कमें क्रम से हटा हुआ अर्थात विड खूप में 
आ पड़े वहं विरस [ दोष कहता] है, आर यह प्रबन्ध-का्यों द्वारा जाना जा सकता 
है ।१२। 
उदाहुरण- 
हयश्रीव का सुत नरकासुर को ऊने के लिए उसकी नगरी मे गया । वर्ह उसे 
ज्ञात्त हुभा कि विष्णू हारा नरकासुर का वध कर दिया गयाहै ओौर उसकी पुत्री 
अपने पिताक मृत्युके शोकसे आक्रुर होकर वनमे चखीगयी हैतो वहु उस 
भारवासन देने के छिए चला गया । किन्तु उस सुन्दरी को देखते ही वह कामपोडित 
होकर इस प्रकार कहने र्गा- 
चन में रहना तेरे लिए अनुचित है । पिता की मृत्यु के शोक को छोड ! तपस्या 


करने से क्या लान? सुक्रुमारि { भने प्रति सुक्ल अनुरक्त के साय जपने इस यौवन 
| - फो सफल वना 1१३ 


३४४ काव्यारद्धारः [ कारिका १४-१६ 


तवेति । हयग्रीवसुतो नरकायुरानयनाय तत्पुरी यतः, तत्र च हरिह्‌त नरका- 
सुरं जनेभ्यः श्रुत्वा तत्मुतां च पितृमरणदुःखेन वनगतां बुद्धवा समाश्वासनाय गत 
तत्र ष्ट्वा च ता सकाम. सन्नाह-तव वनवासं इत्यादि । पातनिकयव गतार्थम्‌ ।) 

प्रकरान्रयाह-- 

यः सावसरोऽपि रसो निरन्तरं नीयते प्रबन्धेषु 1 


ग्रतिमहतीं वृद्धिमसौ तयेव वेरस्यमायाति ।१४।। 
य इति । य. कान्यादौ क्तरापि प्रस्तुतो रसो नरन्तयंण महती बरद्धि नीयते स 
श्रोतृणा वरस्यमावहुतीति विरसो भवति । अत्र वेणीसंहारषष्ठोऽद्ो निद्गनम्‌ ॥ 
श्रथ तद्वान्‌- 
यो यस्याव्यभिचारी सगुणादिस्तद्िशेषणं क्रियते । 


परिपुरयितुं छन्दो यत्र स तद्वानिति जेयः ॥१५।। 

य इति । यो गुणादरिर्यस्य पदार्थस्यान्यभिचारी नि्यस्थः स॒ गुणादिस्तस्य 
विक्ञेषणतया यत्र क्रियते स दोषस्तद्वानिति जेयः । यद्यव्यभिचारी तहि किमर्थं क्रियत 
इत्याह-परिपुरयितु छन्द । तस्य हि छन्द पुरणमात्मेवा्थं इति ॥ 

उदाह्यय्-- 
क्व नु यास्यन्ति वराकास्तरुकुश्रुमरसेकलालसा मधुपाः । 


भस्मीकृतं वनं तहवदहुनेनातितीव्र ण ॥१६॥। 


यहां करुण रस के प्रसगमे विरोधी रस श्युगार रप्र का आपत्तन विरसं 
दोपहै। 
अन्य प्रकार- 

जो रस प्रसंगान्रुकूल होता हमा मो प्रनन्ध-कान्यों में निरन्तर [प्रयोग के 
कारण ] अतिक्चय वृद्धि को पहुंचा दिथा जाता है वहु मौ विरसता फो प्राप्त होता है । १४ 

नमिसाधु के अनुसार वेणीसहार' का छठा अंक इस प्रकार कौ विरसता का 
निदश्चंन है । 
८. तद्वान्‌ 

जो गुण आदि निस [पदाथ ] का अव्यभिचारी है, अर्थात्‌ उसके साथ नित्य 
रूपसे रहता है, उसे [गुण] को यदि छन्दः की पुत्तिके लिए उस [पदार्थं] का 
विशेषण बना दिया जाता है तो वहाँ तदवाच्‌ दोष होता है ।१५। 
उदाह्रण- 

यदि यह्‌ वन अत्ति तीत्र वनाग्ति से भस्म कर दिया रथातोये वेचरे श्रमर. 


जो एक मात्र वृक्षो के पुष्पोकेरसकी ही जालसा रखते कहाँ जाएगे । १६ 


म 


कारिका १७-१६ | एकादशोऽध्यायः ३४१५ 


क्वेति । अत्र दवदहनस्यातितीत्र णेति विशेषण छन्दःपूरणाथमेव । तव्राव्यभि- 
चारादिति 1 


द्थातिमात्रः- 
ग्रतिदूरमतिक्रान्तो मात्रां लोकेऽतिमात्र इत्यथः । 


तव विरहे हरिणाक्ष्याः प्लावयति जगन्ति नयनाम्बु 11१७ 
अतिदूरमित्ति। योऽ्यो लोकप्रसिद्धा मात्रां परिणाममतिदुरमत्य्थंमतिक्रान्त 
उल्लच्धित" सोऽत्तिमात्रीऽथंदोष । उदाहुरणमू-तवेत्याचुत्त रधम्‌ । अत्राश्नुखक्षणोऽर्थो मात्रा 
त्यक्तवान्‌ १ पर द्यश्रूणा चूयस्ता यद्वस्त्राद्रीकरणम्‌ । न ठ ब्रलयंजरुदनञज्जगत्स्लावनम्‌ ।। 
अथ यदूवं मुक्तम्‌ तत्कारखमन्यथोक्तौ च (618) इति तदाह-- 
ग्रत्यन्तमसंबद्धं परमतमभिधातुमन्यदरिलष्टम्‌ । 


संगतसित्ति यद्‌ त्रूयात्तत्रायुक्तिने दोषाय ।१८॥। 
अत्यन्तमिति । असंबद्धार्थता महान्दोषः । तस्यापवादोऽयम्‌ । यत्र परकीय मत- 
मत्तिशयेनासवद्ध प्रतिपादयितुमन्यदात्मीयमरदिरुष्टमसंबद्धमर्थं वक्ता वकित तत्रायुविततर- 
संगतता न दोषाय । अथ कथ तेनासबद्धेन परमतस्यासवेद्धता प्रतिपाचत इत्याह- 
सगतमित्ि ! इतिहुतौ । यतस्तस्यास्षबद्धस्यारिरृष्टमेव सगत सहशतया दशंयितुम्‌ ॥ 
113 
किमिदमस्रंगतमस्मिन्नादावन्यत्तथान्यदन्ते च । 
यत्नेनोप्ता माषाः स्फुटमेते कोद्रवा जाताः ।॥१९॥ 
यहां वनाग्नि का अति तीत्र' विशेषण पादपूत्यंथं प्रयुक्त है । वस्तुत. इस 
विशेषण का प्रयोग अनावर्यक है, क्योकि यह्‌ वनागिन के साथ नित्यरूप से रहता है । 
६. अतिमात्र 
जो अथं लोक-प्रसिद्ध मात्रा को अत्यधिक उल्लंघन कर जाता है बहु अत्ि- 
सात्र कहता है । 
उदाह्रण- 
तुम्हारे चिरहं में उस भृगनयनी के मभ्रु [ तीनों ] लोको को इवो रहे ह । १७। 
दस दोप का परिहार- 
जहां किसी इूसरे के अत्यन्त असभ्बद्ध तथा असुगटित मत को [उसकी 
मसमानता में अपने मत को | संगत [ बताने के जिए] कहा जाए वहीं यहु "जसंगतता' 
दोष्र नहीं होती । १८ 
उदाहरण-- 
यह्‌ च्या असंगत [बात कही] है [आपने कि] इसके आदि में कुछ भौर है 


३४६ काव्यालङ्खारः [ कारिका २०-२२ 


किमिदमिति । करिचदसंवद्धं परवचनं क्िपन्नाह्‌--अस्मिन्वस्तुनि किमिदमसंगत 
भवतोच्यते 1 कतः 1 आदी प्रारम्भेऽन्यत्तथान्ते च निगमे चान्यदिति । किमिवासंभव- 
मित्ति तत्सद्यमाह्--यथा माषा उप्ताः कोद्रवाइ्चोत्पनना इत्यसवद्धम्‌, एवं तवापि 
वचेनसित्यथंः ।। 

मृयो.ऽप्याह-- 

म्रभिघेयस्यातथ्यं तदनुपपन्नं निकाममुपपन्नम्‌ । 

यत्र॒ स्युवंक्तुणामून्मादो मौस्यमूत्कण्ठा ॥२०}] 

अभिषेयस्येति 1 यत्र वक्तुरन्मादो मौख्यमुत्कण्ठा च दोप स्यात्तत्रातथ्यम- 
यथा्थततानुपपन्नापि निकाममत्तिजयेनोपपन्ना युक्ता । स्वस्थस्य द्यन्यथावचन दोषाय । 
उन्मत्तादीनां तु तदेव भूषायं ॥ 
एतदुदाहर्खामि यथाक्रसमाह- 
भुक्ता हि मया गिरयः स्नातोऽह्‌ वदह्भिना पिबामि वियत्‌ । 
हरिहूरहिरण्यगर्भा मत्पूत्रास्तेन नृत्यामि ।२१॥ 


युक्ता इति । इप्युन्मादे ॥ 
कि मां ब्रवीषि मूखं पर्येदं चिरिरमेव ननु तिमिरम्‌! 
सुस्वादुरयं गन्धस्तमसा त्वेनं नत पश्यासि ।२२] 


तथा जन्त सें कु ओर । [यह्‌ तो रेते असम्बद्ध है जसे] यत्न से उडद बोये गये 
किन्तुं उत्पन्न हो गये कोद्रव (घान्य-तिेष) 1 १६। 
इसी प्रसंग मे कुछ ओौर भी कथनीय है-- 

जहां वक्ता का उन्माद, मूखंता भौर उत्कण्ठा दिखानी हो वहं अथं यदि 
तथ्यरहित तथा जसगत हो तो मी उसे नितान्त संगत समस्चना चाहिए ।२०। 
उदाहरण (उन्मादपूणं वचन )- 

मेने पहाडोकोखालियाहै, मै अग्निसे नहाया हु, मे हवा पीता हि । विश्णु, 
महादेव ओर हिरण्यगभं मेरे पुत्र हैँ ! अत. नाचता हं ।२१। 
उदाहरण (मूखंतापूणं वचन)-- 

क्था मुस मुखं कहते हो ! देखो यहं अन्धकार शीतल है । यह्‌ गन्ध अति 
स्वादिष्ट है, किन्तु इसे अन्धकार के कारण नहीं देखता हैं ।२२। । 


कारिका २३-२४ | एकादशोऽध्यायः ३४७ 


किमिति । इति मौल्यं ॥ 
हे हंस देहि कान्तां सामे भवता हृतेति कि मिथ्या । 


तनु गतिरियं तदीया वाणी संवेयमतिमधुरा ॥२३॥। 

हे इति 1 इत्युत्कण्ठायाम्‌ 1 भत्र गिरिभोजनं वद्िस्तानमाकाशपानमजादि- 
पुत्रत्व च, तथा तिमिरस्य शीतरत्वमू, गन्वस्य सुस्वादुत्वम्‌, तस्य चान्धकारेण दशनम्‌, 
तथा हसेन कान्ताहरण च सवं मेवासवदमुन्मत्तमूर्खोत्किंश्चोक्तत्वाच्चावेव ॥ 

एवं सर्वार्थालंक्ारसाधारखान्दोषानभिपधायेदानीं केव लोपमादोपानाह-- 

सामान्यशब्दभेदो वेषम्यमसंभवोऽप्रसिद्धिस्च । 


इत्येते चत्वारो दोषा नासस्यगुपमायाः ॥२४1। 

सामान्येति । गौपम्यभेदस्योपमाया इत्येते सामान्यकन्दभेदादयशहचत्वारो दोषा. । 
ते च नासम्यक्‌ । अपितु स्फुटाएव। अत्र च स्वरूपोपादाने सत्यपि चत्वार इति 
ग्रहणाद्न्मेधाविप्रभृतिभिरुक्त यथा--लिद्खवचनभेदौ हीनताधिक्यमसभवो विपर्यग्रो- 
ऽपाटृश्यमित्ि सप्तोपमादोपाः । तत्र लिद्खवचनभेदावन्योन्यमुपमानोपमेययो । यथा- 

मक्षिताः सक्तवो राजजञ्शुद्धाः कुलवधूरिव । 
परमातेव निःस्नेहाः शीतलाः परकायंवतु ॥ 
उपमेयादुपमानस्य यत्रोनानि विशेषणानि सा हीनता 1 यथा-- 
ख मार्ताकभ्पितपोतवासां बिश्रत्सलीलं शक्गिमासि शच्खम्‌ । 
यदुश्रनीरः प्रगृहीतन्नाद्ख : सेन्द्रायुधो मेव इवावमासे ॥ 

उदाहरण (उक्कण्ठापूणं वचन )-- 

हे दंस, मेरी श्रियाको मुक्ते वापस्षदेदो। उसेतूनेही चुरायाहै- क्या यह्‌ 
बात असत्य है ? यह्‌ तेरी गति उसीकीही दहै । यह तेरी अति मधुर वाणी भी उसी 
कौहीदहै \२३ 

सब अर्थांकारो के सामान्य दोषो को दिखाने कै उपरान्त अव शट्रट केवत 
उपमा अक्कार के दोपों का निदेश करते है- 
उपमा-दोप 

सामान्ध शब्दभेद, वंषभ्य, असस्मव ओर अप्रसिद्धि- ये चार उपमा के स्पष्ट 
दोषं ह ।२४। 

इस प्रसग मे यह उस्लेखनीय है कि उुद्रट से पूर्वं भामह, दण्डी भौर वाभन ने 
भी उपसा-अलंकार के दोषो का उत्छेख किया था) दण्डी ओर वामनते भामहसेदी 
सामग्रीदी है, किन्तु खट का विवेचन प्राय. स्वतन्वर है रद्र के उपरान्त आनन्द- 


„. वर्धन, भोजराज, मम्मटं गौर विर्वनाथ ते इस विषय प्र प्रकाश डालाहै। इन सव 


॥ 


३४८ कान्यालद्खुारः [ कारिका २४ 


एवं यत्रोपमेयादूपमानस्याधिकानि विरेषणानि तदाधिक्यम्‌ । यथा- 
स पीतवासाः प्रगृहीता मनोन्यमीमं (?) वपुराप कृष्णः । 
दतह्वदेन्द्ायुधवान्निन्ञायां संयुज्यमानः शरिनेव मेघः ॥। 
म्रोपमाने मेधे रकियोगोऽधिक । यत्र विनेव यय्यथंमसंभवद्विरेपणमुपमानं 
क्रियते सोऽसंभव 1 यथा-- 
निपेतुरास्यादिव तस्य दीप्ता. शरा धनुभण्डलमध्यभाजः 1 
जाज्वल्यमाना इव वारिधारा दिनाघयाजः परिषेषिणोऽर्कत्‌ 1 
नहि वारिधाराणामयदर्थं जाज्वल्यमानत्वं रविचिम्वाद्रा वारिधारापतन संभ- 
वति । यत्रोपमेयाद्धीनमृक्कृष्ट वोपमान क्रिवतेऽसौ विपयेयः । तत्र हीनं यथा- 
स्फुरन्ति निखिला नीके तारका गगने निरि । 
मास्कराभीश्चुसंस्पृष्टाः कृमयः कर्दमे यथा ॥। 


उच्करृष्ट यथा- 
अयं पद्यासनासीनश्चन्वाको विराजते । 


युगादौ भगवान्त्रह्या विनिर्मित्सुरिव प्रजाः ॥ 


की विपय-सासग्री का सक्िप्त विवरण इस प्रकार है- 

१. भामह ने अपने पूर्वेवर्तीं आचायं मेघावती के नाम से इनं सात उपमा- 
दोपो का उल्कछख किया है--हीनता, असम्भव, किग-भेद, वचन-भेद, विपयंय, उपमा- 
नाधिकता ओर असहशता । (काग्यालकार- भामह, २. ३६) 

२. दण्डीने इनमे से केवर चार उपमा-दोष माने है, ओर वह्‌ तभी जवते 
सहदयजनो के उद्वेमके कारण बने, अन्यथा नही। इसप्रकार दण्डीने दोषकी 
स्वीकृति अथवा अस्वीकृति मे प्रथम वार अनुद्धेगजनकता अर्थात ओौचित्यविघान की 
ओर सकेत किया- 

न †कगवचने भिन्ने न हीनाऽचिकताऽपि वा! 

उपमादूषणायालं यत्नोद्धेगो न धीमताम्‌ ॥ (का० द° २।५१) 

३ वामन ने उक्त सात दोषोमे से "विपर्ययः के अतिरिक्त शेष छ. दोणं 
को स्वीकार कियादहे। (का० सु° ब्रु० ४.२.८) 

उपमेय के विशेषणो की अपेक्षा उपमान के विक्ेषणो की हीनता अथवा अधि- 
कृता; उपमेय के छिग ओर वचन के अनुसार उपमान के छिगि अथवा वचन कान 


होना; गौरे असम्भव तथा असहक्ञ उपमान कौ स्यापना-यहु हुए छ दोष, जो भामह - 


ओर वामन को अभीष्टहै, इनमेसे चार दोषदण्डीको भी स्वीकृत दहै ओेष रहा 


भामह का विषयेय दोष-उपमान कौ अपेक्षा उपमेय मे हीनता मथवा अधिकता त्रो - 
वामन के शब्दो मे इसका अन्तर्भाव हीनता भौर मधिकता मे किया जा सकता , , 


॥ 


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4 [१० कि | 


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कारिका २४ | एकादशोऽध्यायः ३४९ 


यत्रोपमानोपमेययोः साम्य नास्ति तदसाहरयम्‌ । यथा-- 
वत्तेऽथं तस्मिन्वनिताविहारिणः प्रभिन्नदानाद्रकटा सतद्खजाः । 
विचि्नवर्हमरणाश्च बर्हिणो बभुदिवीवामलविग्रहा ग्रहाः \। । 
यत्र न किचिहन्तिना मयुराणा च ग्रहैः सारूप्यमस्तीति । तदेतन्निरस्तम्‌ 
यतरचत्वार एवामी सग्राहका भेदा 1 न त्वन्ये । तथाहि सामान्यशब्दभेद विना लिद्ख- 
वचनभेदमात्रं न दुष्टम्‌ । इह्‌ हि का दृष्टता । यथा-- 
अन्यदा भूषणं पुंसः क्षसा लज्जेव योषितः ! 
पराक्रमः परिभवे वंयात्य सुरतेष्विव ॥ 


है । जहाँ उपमान मे अधिकता होगी, व्हा उपमेय मे हीनना अवश्य होगी; भौर जहां 


उपमान मे हीनता होगी, वहां उपमेय मे अधिकता अवदय होगी । अत" 'विपयंय' का 
इन दोनो मे अन्तर्भाव होने के कारण उसे अरग दोष माननां उचित नही है: 

अनयोर्दोषयौचिपयेयाऽऽख्यस्य दोषस्याऽन्त्मचिान्न पृथगुपादानम्‌ । अतएवा- 
ऽस्माक सते षड दोषा इति । का० सु° ४।२।१९। 

४, सद्रट ने उपमा के चार दोप भिनाये है-सामान्य शनब्द-भेद, वैषम्य, 
असम्भव ओर अप्रसिद्ध । इनके मतमे यही चार दोषदही पर्याप्तिहै। रद्रट-प्रणीत 
'कान्यारुकार' के टीकाकार नमिसाधु ने भामह्-प्रस्तुत सात उपमा-दोषोमे सेः 
दोपो का इन्ही चार दोषो मे अन्तर्भाव दिखाया है। दोप-मर्म्ञता कीरष्टिसे यह्‌ 
विवेचन अवेक्षणीय है-- 

(क) उपमेय ओर उपमान का पारस्परिक ल्ग ओर वचन का भेद सामान्य- 
रान्दभेद के आधार पर ही सदोप होता है, अन्यथा नही । जसे "वनद्रकलेव सुगौरः" 
यहाँ छिगभेद, ओर कुवरयदलमिन दीर्घे तच नयने" यहाँ वचनभेद तो सदोष है, पर 
(अन्यदा भषण पुसा शमो छज्जेव योपित्त ' मे पुमान्‌ ओर योपित मे, शम, लज्जा 
ओर भूषणाम्‌ मे ल्िगिभेद होने पर भी कोई दोष नही है। (तुलनाथ--का०द० 
२।५२,५३,५५ : प्रभा टीका) इसके अतिरिक्त सामान्य शब्दभेद" मे न केवर उपमेय- 
उपमान मे लिगि, वचन का भेद सम्मिलति हैः अपितु कार, कारक ओर विभवति 
का भेदभी सम्मिक्ति है) 

(ख) उपमेय के विशेषणो की अपेश्ना उपमान के विशेषणो की हीनता भौर 
अधिकता नामक दोप साम्याभावे अथवा वैपम्य पर ही आश्रित है। 

(ग) उपमेय भौर उपमान की हीनता ओर अधिकता का विपर्ययः नामक दोष 


` अप्रसिद्धि के अन्त्गेतं आ जाताहै। ओौर फिर कभी-कभी निन्दया मथवा स्तुति की 


"इच्छा से जान-वृद्चकर भी तो उपमान को हीन अथवा अधिक वनाना पड़ता है, ज॑से- 
क निशि चण्डाल इवायं मारयति वियोगिनीश्चच्धः । 


३५० कान्यालद्खारः [ कारिका २४ 


कि च कछिद्धवचनभेदे दोषत्वेनाश्रीयमाणे काङकारकविभक्तिभेदा नाधिताः | 
साभान्यशब्दभेदे तु तेऽपि सग्रहीता. । तथा हीनताधिक्ये चौपमानोपमेयसाम्याभावादो- 
षत्वेनाध्रिते परेण । तत्र च वेषम्यमेवोभयदोपसग्राहुकेमेकमुक्तमस्माभिः । तथा योऽपि 
हीनताधिक्यविशिष्टो विपयंय उक्त. सोऽपि न तावन्मात्रेण दोपहैतु. अतिप्रसद्खात्‌ । 
अपि त्वप्रसिदित एव । अन्यथा हि निन्दास्तुती यत्र चिको्षिते भवतस्तत्रापि यथाक्रम 


आः = क ण = आदनो मिनन 


(घ) भामह का असाहस्य' दोष अमान्य है एेसा कौन है जो उपमा-लक्षण 
को जानता हुआ भी साहश्याभाव मे उपमा का उदाहरण प्रस्तुत करेगा, ओर फिर 
सदुश उपमान भी यदि अप्रसिद्धहो तो उसकी स्थापना अश्षास्त्रीय ही नही 
अवाछनीय भी है । 

(ड) शेप रहा भामह का असम्भवे दोष, तो वह्‌ शद्रट को स्वीकारदहै। 

५ ञआनन्दवद्धंन ने अलकार-दोषो का पृथग्‌ रूप से कही निदंश नही किया । 
उन्होने चाब्दालकारो ओर अर्थालंकारोके प्रयोग के विपय मं कुछ सीमाएं निर्धारित कौ 
है ।१ उदाह्रणतया--श्ुगार रस मे अनुप्रास अकार का प्रयोग रसं का अभिन्यजक 
नही है, श्फगार विरोषत विप्ररम्भ श्युगार मे यमक आदि का निवन्धन समुचित नही है । 
रूपकादि अर्थालकारों की अलकारता उनके रसानुकूल प्रयोग मे ही निहित है--उनकी 
विवक्षा सदा रसपरकहो, प्रधान रूपसे किसीभी दल्ामेन हो, उनका उचित 
समय पर ग्रहृण ओर च्याग होना चाहिए तथा आद्यन्त उनके निर्वाह की इच्छा नही 
करनी चाहिए 1 इन सीमाभो ओौर नियमो के उत्कघन को अरुकार-दोपो के अन्तगंत 
रखा जा सकता है 1 

६. भोजराज ने वाक्यगत ओौर वाक्यार्थंगत दोपों के अन्तर्गत प्राचीन आचार्यो 
दारा सम्मत छः उपमादोषो को भी स्थान दियाहै।२ इस प्रसग मे उनको अपनी 
कुछ भी मौलिकता रक्षित नही होती । 

७ आचायं मम्मट तक केवल उपमादोपोकाही निर्दे होता रहा, अन्य 
अलकार-दोपोकानही। अल्कारोमे उपमाका प्राधान्य ही इस एकाधिकार का 
सम्भव कारण है! मम्मट ने उपमा तथा अन्य अलकार-दोपों की चर्चा करते हए भी 
इन सवका अन्तभाव स्वसम्मत दोषों मे इस प्रकार दिखाया है- 

(क) अनुप्रास के तीन दोपो--प्रसिद्धचयभाव, वैफल्य ओर वृत्तिविरोध का 
क्रम प्रसिद्धिविर्ढता, अपृष्टार्थता ओर प्रतिङरूलवणंता मे 

(ख) यमक को यदि इ्छोक के तीन चरणोहीमे रखा जाएतो ईस दोष का 
"अप्रयुक्तः दोषमे, 

१. भ्वन्या० २।१४-१६। २ स० क०भ० १।२५; २६, ५१, ५२. 
३० कफा० प्र १०।१४२ तथा वृत्ति । ` | 


क ६. क्व 


कारिका २४ | एकादद्योऽध्यायः ३५१ 


निषृष्टस्योक्कृष्टस्य चोपमनस्य दुष्टत्व स्यात्‌ । यथा-- 
चतुरसखीजनवचनंरतिवाहितवासरा विनोदेन । 
निधि चण्डाल इवायं मारयति चिथोगिनीश्वन्ः॥। 
स्तुतौ यथा-- 
जित्वा सपत्नानुक्षायं षेन्वा सह विराजते । 
यथा क्षपितदत्येः भिया साक जनार्दनः 1! 


(ग) उपमा के प्रकरण मे जाति गौरं प्रमाण मे न्यूनता व॒ अधिकता होने पर 
उनका 'अनुचिता्थेता' मे, साधारण धमं मे न्यूनता अथवा अचिकता होने पर उनका 
क्रमश. हीनपदता मौर अयिकपदता मे, ¶लिगवचनभेद गौर कारपुरुषविधि जादि भेदो 
का प्रक्रमभगता' मे, असाहश्य ओर असम्भव का अनुचिता" मे; 

(घ) उत्पेक्षा जरूकार मे प्रूव, इव आदि वाचक शब्दो के स्थान पर्‌ यथा आदि 
दाब्दो का प्रयोग करना दोषयुक्त है। इस दोष का अवाचकत्व' मे; उत्प्र्ना अकार 
मे असम्भावित पदार्थं का समर्थन अर्थान्तरन्यास अरुकार से करना सदोष है, इस दोष 
का अनुचिताथंत्व' मे; 

(ड) समासोक्ति भौर अप्रस्तुतप्रशसा अलंकारोमे क्रमरा. उपमान मौर 
उपमेय का शव्द द्वारा कथन सदोप है, इन दोषो का अपृष्टा्थता अथवा पुनरुक्ति मे 
अन्तभवि वड़ी सरकुतासे किया जा सकता है। 

विश्वनाथ ने इसी विषय मे मम्मट काही अनुकरण कियाद 

एभ्यः धृययलकारद्ोषाणां नैव सम्मवः ॥ (सा० द० ७म परि° पृष्ठ ४०) 
इसी प्रसग मे नमिसाधु ने कतिपय उपमा-दोषो के उदाहरण प्रस्तुत कयि है 
१. चिद्खमभेद उपमा-दोप का उदाहरण-- 
"भक्षिता सक्तवो" ˆ" --हे राजन्‌ ! मैने कुलवधरु की तरह स्वच्छ, सौतेरी मात्ता 
के समान स्नेह-(चिकनाहट-) रहित ओर दुसरे के कायं की तरह शीतर सत्तू खाये । 
यहां कुक्वधु." (उपमान) भौर श्बुद्धाः' (उपमेय) मे लिद्भेदं है । (परमाता 
(उपमान) गौर “निस्स्नेहा." (उपमेय) मे तथा परकायं (उपमान) भौर शश्ीत्ता ' 
(उपमेय) मे जिद्ध-भेद गौर वचन-भेद है । 

जहां उपमेय की अपेक्षा उपमान मे भ्यून विशेषण हो वहां हीनोपमा दोप 
होता है, जहां अधिक विशेषण हो वहां जधिकोपमां दोष होता है । 
२ हीनोपमा दोप का उदाहूरण- 

'मार्तकम्पित पीतवासाः" * ""--वायु से कम्पित पीताम्बर को धारण करते हृए 
राज्ञ्‌ -[ घनुष- [घारी, चन्द्र के समान धवल श॒खे को टीका से ग्रहण चिये हुए, यदुवंशी 
श्रेष्ठ वीर श्रीकृष्ण इस प्रकार शोभित हो रहे थे, जसे इन्द्रधनुष से मेध शोभित होता है । 


२५२ काव्यालद्भुारः | कारिका २४ 


त चात्र काचिददुष्टता । यस्त्वर्थो यत्रोपमानत्वेन त प्रसिद्धः स साहश्ये सत्यपि 
न कतव्य । तथाहि सिहादधिकोऽपि शरभः शौयंणोपमान न केनचिन्तिवद्धः । असा- 
र्यस्य तु दोषलेऽप्युपमानलक्षणेनव निरस्तत्वादिहोपादानमनर्थंकम्‌ । को हि ज्ञातो- 
पमालक्षणः साहश्याभावे उपमा कुर्वीति । तस्मादेतन्नि रासाच्चत्वार एवामी दोषाः, न 

तु सप्तेति स्थितम्‌ । अत एव नासम्यगित्यृक्तम्‌ ।॥ ___ 
२. अधिकोपमा दोष का उदाहरण- 

स पीतवासा“ˆ--पीत्ताम्बरधारी, शाद्खं [धनुप] कौ ग्रहण करने वार 
श्रीकृष्ण का सुन्दर शारीर इस प्रकार शोभितहो रहाथा, जते रातमें इन्द्रधनुप, 
विद्युत्‌ एव चन्द्र से सम्पृक्तं मेध दोभादेता हे । 

यहो मेध (उपमान) मे चन्द्रमा कौ स्थिति श्रीकृष्ण (उपमेय) की अपेक्षा 
अधिकंसरूपमे वणित है । 

४ अपम्मव उपमा-दोप का उदाहरण-- 

निपेतुरास्यादिव'-"--धनुषो के मव्य मे स्थित उसके मुख से मानो प्रज्वक्ित 
वाण गिर रहैथे, जेभे दिन के मध्यमे स्थित मण्डङाकार सूयं से अत्युष्ण जल-धाराएं 
गिरती है। 

यहो न तो जक-धाराओ की जाज्वल्यमानता सम्भव है ओर न रवि-विम्बसे 
जखधाराओो का गिरना । 

उपमेय की अपेक्षा उपमान को हीन अथवा उत्कृष्ट दिखाना विपयय नामक 
उपमा-दोष है । 

५ हीन-विपयंय उपमा-दोष का उदाहरण- 

“स्फुरन्ति निखिलाः" ` ---नीले आका मे रा्निके समय समस्ततरासमूह्‌ इस 
प्रकार दीप्तिको धारण कर्‌ रहा था, ज॑से सूयं कौ क्रिरणों के स्पशं से कीचंड मे कीड़े] 

६. उत्कृष्ट विपर्यय उपमा-दोप का उदाहरण- 

अय पद्यासनासीन.-*--- यह्‌ कमल के आसन पर स्थित चकवा एेसे रोभित 
हो रहा है, जसे कत के आदि मे प्रजा के निर्माण को इन्छा से [कमलासन ब्रह्मा । 

यद्यपि एेसे स्थलो मे विपयंय दोष कै स्थान पर व्यत्तिरेक अककार की स्थिति 
स्वीकार की जानी चाहिए, किन्तु इन दोनो स्थरो मे व्यततिरेक-जन्य चमत्कार का 
उअभावदही इस दोषका कारणरहै। 

जहाँ उपमान ओर उपमेय मे साम्य न हो वहां अ्ताध्यं उपमा-दोष होता है । 
७ असाहर्य उपमा-दोष का उदाहूरण- । 


'वनेऽथ तस्मिन्‌" ----उस वन मे, वहते हुए मदजर से आद्र गण्डस्थल दाल , 


हाथी अपनी स्तियो के साथ, तथा विचित्र वणे के पंखो से भूषित मोर इस | प्रकार 


3८ 


॥ ॥ ॥ 
॥ 0 
[न ) । 


कारिका २५ एकादशोऽध्याय. ३५३ 


इदानीमेतेषामेव दोषारां लक्षणमाह- 

सामान्यश्ञब्दभेदः सोभ्य यत्रापरत्र शक्येत । 

योजयित नाभसनं तत्सामान्याभिधायिपदम्‌ ।।२५।। 
सामान्येति । सोऽय स्ामान्य्ब्दभेदाख्यो दोषः, यत्र तयोरुपमानोपमेययो 


सामान्यवाचिपद यावन्त भग्न तावदपरत्रोपमाने योजयतु वाचकीकतु न शाक्यते ॥ 


शोभित हो रहे ये, जसे आका मे स्वच्छ देहधारी ग्रह्‌ । 

हाथियो गौर मोरो की ब्रह के साथ कोई समानता नहीहै। 
८. नियत लिद्धोपमा दोषाभाव का उदाहुरण-- 

“अन्यदा भूषणं पु साम्‌*-*--किसी ओर ही समय पर क्षमा पुरूष का इस प्रकार 
भूषण होती है जिस प्रकार रज्ञा स्त्री का] अपमान होने पर पराक्रम [पुरुष का] इस 
प्रकार भुषण ह जिस प्रकार सुरतकाल मे निङज्जता [स्त्री का|। 

यहाँ क्षमा [उपमेय] गौर छज्जा [उपमान] मे तथा पराक्रम (उपमेय) ओौर 
वैयात्य (उपमान) मेँ लिद्ख-भेदं होने पर भी लिद्खोपमा दोष नही है, क्योकि इन 
राव्दो के लिङ्ख नियत है 
६. हीनोपमा दोषाभाव का उदाहरण- 

(वतुरसखी जनवचनः*-*- चतुर सखियो की [सरस | बातो से दिनि का समय 
विनोद मे विताने वाली वियोगिनी ल्कनाभो को रात्रि के समय चन्द्रमा चाण्डाल के 
समान मार डालता है। 

यहाँ यद्यपि चन्द्रमा को उपमा चाण्डालके साथदी गयीदहै ओर इस प्रकार 
चन्द्रमा की निन्दा व्यक्त की गयी है, किन्तु भार डालने के प्रसगमे एेसीउपमामे 
हीनोपमा दोष नही मानना चाहिए । 

१० अधिकोपमा दोषाभावे का उदाहरण-- 

[यह्‌ राजा] अपने रातच्रृओो काना करते हुए [उन्हे] जीतकर इस प्रकार 
रोभित हौ रहा है जसे विष्णु भगवान्‌ दंत्यराज को विनष्ट करने के उपरान्त छक्ष्मी 
के साथ [शोभित] होते है 1 

राजा कौ उपमा विष्णु भगवान्‌ से करना यद्यपि जधिकोपसा दोप का सूचक 
है, तथापि विजय के प्रसग मे एसा करना अनुचित नहीं है । 
¢. सामान्य शब्द भेद 

जहां [ उपमान जर उपमेय के | सामान्य वाचक शब्द को जब तक भगन न 
किया जाए तन तक बहु अपरन [उपमान के पक्ष में] योजित न किया नजा सके 1२५ 


#५ 
ध १ 


३५४ काव्यालङ्कारः [ कारिका २६-२७ 


त्थ सामान्याभिधायिपदमदे हेत॒माह-- 
तल्लिद्धकालकारकविभक्तिवचनान्यभावस्धावात्‌ । 


उभयोः समानयोरिति तस्यां भिद्येत किचित्तु ।॥२६॥ 

तदिति तत्सामान्याभिधायिपद रिङ्खादीनामन्यथात्वाद्धेतोस्तस्यामुपमायां 
भिद्यत । ननु तहि वंपम्यमेवेदं तत्किमस्य पृथक्पाठनेत्याहु-उभयोरपमानोपमेययो. । समान- 
योरिति । वंषम्ये पूनरुभे भप्यसमाने ते । तहि लिद्खादिभेद एव स्वरूपेण किं नोक्त 
इत्याह॒-- भिद्येत किचिनत्तु । तुरवधारणे ! तत्सामान्याभिधायिपद लि द्धा दिभेदेऽपि किचिदेव 
भिद्यते, न सर्वम्‌ । ततो यत्रैव तस्य भेदस्तत्र॑व दोषः, न स्वे 11 

एतदुदाहरखानि यथाक्रममाह-- 

चन्द्रकलेवे सुगौरो वात इव जगाम यः समृत्सुञ्य । 


दहतु शिखीव स कामं जीवयसि सुधेव सामालि ॥२७॥। 
चन्द्रककेति । काचिद्धिरहिणी सखी ब्र ते--भ्रालि सखि, यथा चन्द्रकला सुगौरी 
तथायं सुगौर. । इति लिद्ध॒ भेदे । यथा वातो गच्छति तथा मा समुत्सृज्य यो जगाम । 
इति काठभेदे । भूतकालो वततमानेन भरन. सन्नुपमाने योज्यते । दहतु शिखीव स 
कामम्‌ । इति कारकभेदे 1 विधिविरिष्टो हि कर्ता कतु मात्रेण शिखिनोपमितोऽत्र । 
जीवयसि सुघेव मामाक्लि । इति वि भक्रितिभेदे । मध्यमपुरुषो हि प्रथमयपुरूपेण विपरिण- 
म्योपमाने योज्यते 1 [का 

इन दोनों ससान पक्षो [उपमान ओर उपमेय ] में लिङ्ख, काल, कारकं, विमक्ति 
भौर वचन के अभाव ओर सद्भाव के कारण (अर्थात्‌ उपमानमें जो लिद्धि आदिहो 
वे उपमेयमें न हों) उस [उपमा के चमत्कार] मे कुं अन्तर पड़ जाता ह ।२६। 
उदाहरण - 

[कोई विरहिणी अपनी सखी से कहती है-- ] है सखि, बह चन्द्रमा की कला 
के समान गौरवणं है, चह मुञ्चे वाणु के समान छोडकर चला गयाहै। भलेही वह 
मुके अग्नि के समान जला दे, किन्तुतु सुद्धे असुत के समान जीवित रखती है ।२७। 

जैसे चन्द्रकला सुगौरी है, उसी प्रकार वह नायक सुगौरदै--इस प्रकार 
'सुगौर' इस सामान्य शन्द का भेद करने पर ही' यह्‌ उपमान पर धरित होतारहै गौर 
यह्‌ भेद ल्गिगत है- चन्द्रकला (स्वी०) सुगौरीहै तो नायक सुगौर (पु०) इसी 
प्रकार "जगाम" का अथं वायुकेपक्षमे 'जातादहै' संगतदहै भौरनायकके पक्षमे 
"गया" । यह्‌ काल्गत भेद है । अग्नि के समान वहु जलाए (दहतु) । यह्‌ कारक भ्रेद 
का उदाहरण है, क्योकि नायक विशिष्ट विधि करता है, अर्थात्‌ जलाने का कायं स्व्यं 
कर सकता है, किन्तु म्नि कतृं मात्र है अर्थातु उसका कर्त्व स्वाधीन नही है, उमे ` 


कारिका २८-२६ | एकादशोऽध्याय. ३५५ 


कृवलयदलमिव दीघं तव नयने इत्ययं तु सुव्यक्तः । 
युक्त्या तावहोषो विद्रद्धिरपि प्रयुक्तश्च ॥२८।। 


कूवल्येति ! कूवलयदकर्मिव दीघं तव नयने ! इति वचनभेदे । दीघं इति 
द्विवचनान्तं द्य कवचनान्तं कृत्वा योज्यते । नन्वेव लिद्खादिभेदे दोषीङरते सहाकवि- 
लक्ष्यम्‌ "ता इसमाला. शरदीव गगाम्‌' इत्यादिक कालादिभेदस्य विद्यमानत्वालप्रायशः 
सर्वमेव दृष्यत इत्याहू--इत्यय त्वित्यादि । तुरवधारणे । युक्त्या तावदय सृव्यक्त एव 
दीष ! ततोऽस्माभिरुक्तः 1 उक्त च पूर्वमेव काव्यालकारोऽय ग्रन्थ क्रियते यथायुक्ति 
(१।२) इति । विद्रद्धिरपि प्रयुक्तरचेत्यनेन दोषस्याप्यपरिहायंतामाह ॥ 


वेषम्यमाह-- 
प्रकृत विरोषणमेकं यत्स्यादुभयोस्तदन्यवेषम्यम्‌ । 
संभवति कल्पितायासुत्पाद्यायां च नान्यत्र ॥२९।। 


अकृतेति । उभयोरुपमानोपमेययोर्मध्यादेकमुपमानमुपमेय वा निविशेषण भवेत्त- 
दस्याङृतविनेपणस्य कृतविशेषणेन सह वैषम्यम्‌ । तच्च कल्पितायामूसखा्याया चोपमाया 
संभवति ॥। 


कुछ आ पड़ता है तो जल जाता है 1 अत. यह्‌ उपमा समुचित नही हं । 
तू मुञ्चे अमृत के समान जीचित रखती है। यहाँ नमिसाधु ने विभक्त्िभेद 
माना है । विभक्ति मे उनका तासयं पुरुष-भेद ते है 1 सुधा (उपमान) प्रथम पुरुष है 
ओर जीवयसि (इस क्रिया का कर्तां : उपमेय) मध्यम पुरूपमे है! अत यह्‌ प्रयोग 
सदोष है! 


तुम्हारे नेत्र कमल के पत्ते के समान दीघं है [इसमे वचन-मेद है--] इस 
यु्तित से यह तो स्पष्ट दोष है ही, जीर इसी प्रकार के दोष विद्वानों (सुकवियो ) हारा 
मो प्रयुक्त कथि गये है [जो कि स्थिति के अनुकूल दोष, दोषामाव अथवा गुण मानि 
जाने चाहिए | ।२८। 
र. वैषम्य 

[उपमान भौर उपमेय में से यदि] कोई एक विशशेषण-रहित [भस्तुत किया 
गथा] हो तो इसका सनिशेषण [ उपमेय अथवा उपमान ] के साध [ संयोजन ] वेषस्य 


| .. उयमा-दोष कहता है, जीर यहं दोष कल्पित मौर उत्पाद्य दो रूप सें होता है अन्यन्न 
नहीं होता ।२६। । 


३५६ कान्यालद्धारः [ कारिका ३०-३२ 


विपरीतरते सुतनोरायस्ताया विभाति मुखमस्याः 


श्रमवारिबिन्दुजालकलाच्छितमिव कमलमृत्पुल्लम्‌ ॥२३०।। 

विपरीतरत इति । इवशब्दो भिन्नक्रमे । कमलरस्योपमानस्य ने किचिदवदयाय- 
जलकणनिकु रम्बाञ्चितत्वादिकं कृतम्‌ 1 कत्पितोपमेयम्‌ । 

उत्पाद्यामाह- 

मुक्ताफलजालवितं यदीन्दूबिम्बं भवेत्ततस्तेन । 


विपरीतरते युतनोरुपमीयेताननं तस्याः ।३१।। 
मुक्ताफलेति । अत्रोपमानस्येन्दुचिम्बस्य मुक्ताफलजारुचितमिति विशेषणं कृतम्‌ 
न तु मुखस्योपमेयस्य श्रमवारिकणचितत्वादि ॥ 


अथाततंमवः- 
उपमानं यत्र स्यादसंभवत्तद्िशेषणं नियमात्‌ । 


संभूतमयद्य्थं विज्ञेयोऽसंभवः स इति ॥३२॥ 
उपमानमिति । स इत्यनेन प्रकारेणासंभवो नाम दोपः । यत्ोपमानमखभवत्त- 
दिशेपणमसंभाग्यविवक्षितधमकमपि नियमान्निद्चयेन संभूत तद्धिरेषणयुक्त स्यात्‌ | 
ननु तहि पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्यान्पुक्ताफलं वा स्फुटविद्रुमस्थमर' इत्याद्यपि दुष्टं 
स्यादिव्याह-अयद्यथंम्‌ । यच्यथंविकल यदि क्रियते । सयद्यर्थे तु न दोषः 1 


उदाहरण (कल्पित वंषम्य)- 

विपरीत सुरत मे इस थकी हुई सुकुमारी का भूख जो कि पसीनेकी वृंदोके 
समूह से चिद्ित है खिल हए कमले के समान शोभित हो रहा है ।३०। 

मुख का विक्ञेषण तो निर्दिष्ट किया गया है, किन्तु कमर का नही किया गया 
किं यह भीगोसकी वृंदोसे युक्त दहै, मौर यदिरएेसा क्रिया भी जातात्तो कमर-पक्ष 
मेश्रम का कोई कारण भी वताना पडतानजो कि सामान्यत सम्भवे नहीदहै। 
उदाहरण (उत्पाद्य वेषम्य) - 

यदि चन्द्रमा का विम्ब मोतियोंके समूह सेथुक्तहो तो विपरीत सुरत के 
उपरान्त इस सुकुमारी के मुख की उपमा इससे दी जा सक्ती है ।३१। 
२. असम्भव 

जहा एसा उपमान प्रयोग किया जाए जिसके विशेषण [ वद्यं" में सो सम्भव 
हो, किन्तु] यद्ययं के विना निश््चयपुवक भसम्भव हों वहां असम्भव उपमा-दोष होता 
है ।३२। (र 

'यद्यथं" का तात्य है--यदिपेसादहयोत्तो) 


कारिका ३३-३४ | एकादशोऽध्याय. ३५७ 


उदाहरमाह-- 
सूतनुरियं विमलाम्बरलक्ष्योरूमुणालमूललालित्या । 
ग्रजलगप्रकृतिरदूरस्थितसिन्रा  गगननलिनीव ॥३३॥ 


सुतनुरिति । अत्र विकेषणत्रयमपि तन्वीगगननलिन्योः समानम्‌ । पर यदि गगने 
नलिनी संभवेत्तदा तन्वीसदशी भवेत्‌ । गतो यदर्थं विना दुष्टता ॥ 


त्रथाप्रतिदिः-- 
उपमानतया लोके वाच्यस्य न तादृश प्रसिद्धं यत्‌ । 


क्रियते यत्र तदृत्कटसामान्यतयाप्रसिद्धिः सा ॥३४॥ 


उपमानतयेति 1 यत्किमपि वस्तु लोके वाच्यस्थोपमेया्थेस्योपमानतया न प्रसिद्ध- 
मथ च तथा क्रियते सा प्रिद्धिर्दोषि. 1 कदाचिद्ाच्येन सह्‌ विसहश स्यादथवा ताहश्च 
तुल्यमपि यदिन प्रसिद्ध कथं क्रियत इत्याह-उत्कटसामान्यतया । अतिसाहद्या- 
दित्यर्थः ॥ 


उदाहरण- 

यह्‌ सुकुमारी आकाशश सें स्थित कमलिनी के समन दहै, क्योकि यह स्वच्छ 
मम्बर (वस्त्र, पक्षे आकाक्ञ) से लक्षित उरू (जंघा) पी बितस्त-मूल से रकित प्रतीत 
होती है (पक्षे उरू--विश्ञाल) । [ स्थलस्थित होने के कारण यहु जल श्रकृति बाली नहीं 
है (उर गगनस्थित कमलिनी मी जल में स्थित नहीं होती ) \ इस्तका मिन (नायकः) 
पास ही उहृरा है (उधर गगननचिनी के पास ही मित्र अर्थात्‌ सयं का वास होता 
है \३३। 


यहां तीनों विशेपण सुकुमारी ओर गगन-नलिनी मे समान है । किन्तु यदि 
गगन में नक्िनी होती तो--इस प्रकारके [यर्थ के] अभाव मे यह पच सरोष दै, 
क्योकि गगन मे नचिनी' का होना सम्भव नही होता । जिन पयोमे यदं" का 
प्रयोग किया जाता है वरहा यह्‌ दोष नही होता । उदाहरणाथ--उपयुक्त पृष्पं प्रवा- 
लोपहित"*** के बाद अगल दो पाद इस प्रकार है-- 
तेनानुङकर्थाद्‌ विश्चदस्य तस्थास्तास्रोष्ठपयंस्तस्चः स्मितस्य । 


अर्थात्‌ यदि पृष्प को पत्ते पर रखा जाए, अथवा मोती को स्वच्छ नीलमणि 
पर रखा जाए तव वहं उस नायिकाकेतास्रके समन [अरुण] ओष्ठोके चारों ओर 
फी हुई मुस्कान की कान्ति का अनुकरण कर सक्ता है । 


३५८ काव्याक्द्कारः [ कारिका ३६ 


उदह्र्यमादह- 
पश्मासनसंनिदहितो भाति ब्रह्य व चक्रवाकोऽयम्‌ । 


दवपचइ्यामं वन्दे हरिमिन्दुसितो बकोऽयमिति ॥३५॥ 
पदमेति । इह ब्रह्यकेगवचन्द्राणा क्रमेण परद्मासनत्वेन श्यामत्वेन भ्वितत्वेन च 
चक्रवाकदेवपचवका. समाना अपि न तदुपमानत्वेन प्रसिद्धाः । यत्रतु प्रसिद्धिस्तत्र 


भवस्व । यथा- 
नमामि शकर कारासकश् जरिकेखरम्‌ 1 


नमो नुताय गीर्वाण रलिनीलाय विष्णवे । 
इत्यादि ¦ ननु कथम 
भवन्तमेर्ताहि मनसिवर्गाहिते विवतंमानं नरदेव वत्मनि । 
कथं न मन्युज्वंल्यत्युदी{रितः जमीतर श्ुष्कमिवाग्निरुच्दिलः ॥ 
इत्यादिप्वौपम्यम्‌ । अचर ह्यं कत्र विधिरपरत्र निषेवः । यथा शमीतरूमग्निदंहव्येवं चां 
मन्यु. केश न दहतीति । सत्यमु 1 प्रथममोपम्ये विहिते पदचादुपमेयप्रततिपेषे न 
क्रिचिदनुपपन्नम्‌ । केचित्तु ग्यतिरेकोऽयमित्याहु. 11 
चरथ स्वमेव शास्म कमुपतंहरन्नाह-- 
सब्दाथंयोरिति निरूप्य विभक्तरूपा- 
न्दोषान्गुणांदच निपुणो विसुजन्नसारम्‌ । 
सारं समाहितमनाः परमाददानः 
कुर्वीत काव्यमविनादि यशोऽधिगन्तुम्‌ ।।३६॥ 
£, प्रसिद्धि 
यदि कोई उपमान [किसी | उपमेय के अत्ति सह होने पर नी लोक मे [उस 
उपमेयके] उपमानके लख्पमें प्रतिद्धनदहोः फिरमी [उसे] उपमान श्पमें 
[र्बणित] किया जाए वरहा अध्रसिद्धि नामक उपमा-दोष होत्ता है ।३४। 
उदाह्रण-- 
यह्‌ चकवा न्या के समान शोनित होत्ता है, [ ब्ह्या पद्मासन पर स्थित होता 
है मौर] यह्‌ पद्म रूपी मासन पर स्थितदहै। मै विष्णु को नमच्कार करता जो 
चण्डाल के समान श्यामवर्णं है । यह बगला चन्द्रमा के समान षदेत-वणं है ।३५। 
यह ब्रह्मा को उपमा चक्वे से, विष्णु को चण्डारु से जीर वगर की चन््रमासे 
से यदयपिसकारणदहैतो भी ये स्रभी उपमान तथा उपमेय एक-दूसरे के प्रति अप्रसिढ ह! - 
# ४ प्रकार निपुण तथा सावधान मन वाला [कवि] छब्द ओर अर्थं के मखय- 


॥ 


कारिका ३६ 1] एकादशोऽध्यायः २५६ 


शब्दार्थयोरिति ! इति पू्वेक्तिन युक्तिमता प्रकारेण शन्दाथेयोर्दोषान्गुणाश्च 
निपुणः प्रवीण" कविनिरूप्य पर्यालोच्य । किभतान्‌ । विभक्तलूपान्वि भागेन स्थितरूपान्‌। 
शब्दस्य हि वक्रोदत्यादयः पञ्च गुणाः । दोषास्त्वसमर्थादयः षट्‌ । अथस्य पुनर्गुणा 
वास्तवादयडचत्वारः । दोषास्त्वपहेतुत्वादयो नव ! ततरशचासारं दोषान्विसजनच्‌ु, परमूत्छृष्टं 
सारमछकारानाददानो गृहन । किभूत. सनु । समाहित सावधान मनो यस्य स तथा- 
विध. 1 अनवधाने हि महाकवीनामपि स्वक्तिं भवति । किमथं पुनरेवं कुर्वतित्याह-- 
अविनाश्यविनशवरं यशः प्राप्तुमित्ति 1 अत्र च वास्तवादीना चतुर्णामपि ये सहोक्त्यादयः 
प्रभेदा उक्तास्ते वाहुल्यततो न पुनरेतावन्त एव 1 उक्तं च- न हुघटरं इताणञवही नयने 
दोत्तन्ति कहि पुणरु्ता । जेवि सनापिथ आणं सत्था वा सुकइवाणीए्‌ ॥ ततो यावन्तो 
हूदथावजेका अथंप्रकारास्तावन्तोऽकासाः । तेनेत्याद्यपि सिद्ध भवति यथा- 
क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषतः 
सोढा दुःसहकीतनाततपनक्लेया न तप्तं तपः । 
ध्यातं नित्तमहनिशं नियमितप्राणेनं शं मोः पदं 
तत्तत्कर्म कृतं परानतिपरेस्तैस्तेः फल वंन्चितमू ॥ 
इति श्रीरद्रटकृते काव्याकंकारे नमिसाधुविरचितटिप्पणसमेतो एकादसोऽध्यायः समाप्तः । 


अग रूपं सें स्थित दोषो भौर गुर्णो फा पयलिचन करके असार (दोषो) को चछोडता 


हज तथा छत्कृष्ट सार (गुणों, अलंकारो आदि) को ग्रहण करता हमा अनदवर यज्ञ 
को प्राप्त करने के लिए काव्य की रचना करे ।३६। 

दसी प्रसंग मे नमि साधु का कहना है किं रुद्रट-प्रस्तुत भककार ही अलम्‌ नही 
है, अपितु “जितने भी हद्यं को आकृष्ट करने वारु अथं-प्रकार है उतने ही भङ्कार 
बन सकते हैँ ।' उनका यह्‌ कथन दण्डी के इस कथन के ठीक अनुरूप है--अस्त्थनेको 
गिरं मागः । (काव्याद १।४०) नमिसाधु-प्रस्तुत एक पच का अथं लीजिए जिसमे 
हमारे विचार मे विरोषोक्ति मकार का चमत्कार द्रष्टव्य है-- 

क्षान्त न क्षमया `ˆ" --अर्थात्‌ हमने कष्ट तो सहे पर क्षमा-पूरवंक नहीं। 
[अपितु दूसरो पर कृतज्ञता कादते हुए] । हमने गृह से प्राप्त सुखो को छोडातोहै 
किन्तु सन्तोष-पूरवंक नही । हमने सहे तो है किन्तु कठिन शीत, वायु, ग्रीष्म के क्रेश 
नही सहे, तपातो है, पर तप नही तथा, प्राणो की बाजी ल्गा कर रात-दिन ध्यान 
तो कियाहै, परवनकान कि महादेव के चरणो का, दुमरो के अगि जषुकते हए हमने 


` करई प्रकार के कायं क्रिये ह पर उनके फर से वञ्चित रहै है । 


॥ 


इति "अंशुप्रभा' ऽऽष्य-हिन्दी-व्याख्यायामेकादयोऽष्यायः समाप्तः । 


द्रादशोऽध्यायः 


ननु काव्यकरररे कवेः पूर्वमे फलयुक्तम्‌, श्रोतृरां तु नं फलमित्याह्- 

ननु काव्येन क्रिय्ते सरसानामवगमश्चतु्वेगं । 

लघु मृदु च नीरसेभ्यस्तेहि त्रस्यन्ति रास्वरेभ्यः ॥१॥ 

नन्विति । ननुजब्दः पृष्टप्रतिवचने 1 कव्येन हेतुना चतुरवेगं वर्मथिकाममोक्ष- 
लक्षणेऽवगमोऽववोधः क्रियते । ननु तत्र वर्मादिश्ास्वाण्येव दतुरस्ति, कि काग्येनेत्याह- 
रघु मृदु चेति क्रियाविनेपणम्‌ । शीघ्र कोमरोपायं च यथा भवतीत्यथः। तथापि 
धर्मादिसारसंग्रहवास्व्रेम्यो छघु मृदु च भविष्यतीत्याह्--सरसानां शछंगारादिग्रियाणाम्‌ । 
धर्मादिलास्त्रेम्यस्तेपामपि कि न भवतीत्याह-नीरसेम्यः गास्तेभ्यो हि यस्मात्ते सर्सा- 
स्त्रस्यन्ति विभ्यति । 

ततः किमित्याह- 

तस्मात्तत्कतंव्यं यत्नेन महीयसा रसैर्युक्तम्‌ । 

उद्रजनमेतेषां शास्त्रवदेवान्यथा हि स्यात्‌ ॥२।। 


दादण अध्याय 

इत यन्थ के त्रथिम चार्‌ च्रध्यार्थो मे रत-निरूपण हे। हत ध्याय में 
सव प्रथम कान्य-प्रयोजन ्रसत क्या यया। प्रिर रप क्री अनिवार्यता पर 
संकेत किया गया हे । ये दोनों स्थल वस्ततः रस-प्रकत्छ क्री भूमिका हीहें। 
इप्तके वाद्‌ दस रसो का नाम-निर्दे्य हे। किर लौक्कि रस आर क्राव्य रमे 
ताम्यका संकेत भिया गथा ह| इतके उपयन्त श्र॑यार रक्षा अकरण धारम 
ह्ये जाता है, श्रौर्‌ दती के ही अनतत नायक्र-नायिक्रा-मेद्-ग्रतंग का भिस्त 
प्रतिपादन किया गया है| 
2. कान्य के प्रयोजन 

काव्यके द्वारा सरस जनों-रत्िकों का धमं, अर्थं, काम भीर मोक्ष रूप 
चतुर्वणं में ज्ञान कराया जाता है । इसते शीघ्र मौर सरलतापूर्वक ज्ञानदो जाता | 
ह । रसिक लोग नीरसन क्षास्तरों से उरते हु । १ । 
२, काय्य में रस क्री अनिवायेता 


इसके लिए काव्धयको महान्र भ्रयलन से रसयुक्त वनानां चाहिपएु । अन्यथा 
कास्त्र की नति इसते मी भय होगा ।२। 


कारिका२े | हादशोऽध्यायः ३६१ 


तस्मादिति । गतार्थम्‌ 1 नन्वेवं सति सरसार्थमेव काय्यं स्यान्न तु नीरसाथमिति 
नास्य सवंजनीनत्व स्यात्‌ 1 नष दोषः । सरसानां प्रवृत््युपाय एषोऽस्माभिर्क्त', न तु 
नी रसप्रवृत्तिनिषेध. कृत इति 1 तेऽपि प्रवर्तन्त एव । अथाककारमध्य एव रक्षा अपि 
कि नोक्ताः । उनच्यतते-- कान्यस्य हि शब्दार्थौ शरीरम्‌ । तस्य च वक्रोक्तिवास्तवादयः 
कटककुण्डलादय इव कृत्रिमा अककाराः। रसास्तु सौन्दर्यादय इव सहजा गुणाः इति भिन्न- 
स्तस्प्रकरणारम्भ. \1 


रसके प्रति इस प्रकार के समादर-पूरणं कथन रद्रट से पूवं भरत, भामह, दण्डी 
ओर उद्भट कै ग्रन्थो मे, भौर खद्रट के उपरान्त आनन्दवर्धन, कन्तक, अग्निपूुराण- 
कार, मम्मट भौर विश्वनाथ आदिके ग्रन्थो मे यत्न-तत्र उपर्न्ध होते है। वस्तुतः 
काव्यशास्त्रीय क्षेत्र मे जित्तना समादर रस-तत्त्व को मिला उतना किसी अन्य कान्य 
तत्तव को नही मि । इस समादर-भाव का सक्षिप्तं सर्वेक्षण प्रस्तुत है . 
भरत को रस-तत्त्व का प्रवर्तक समञ्ना जाता है । उन्होने इसे नाटक के अनि- 
वायं घर्मकेखूपमे स्वीकार किया,१ तथा कतिपय काव्य-तत्त्वो--अकार, गण, 
दोष के रस्-संश्रयत्व पर भी उन्होने प्रकाश डाला 1: अककारवादी आचार्यो- 
भामह, दण्डी गौर उद्भट ने यद्यपि रस, माव आदि को रसवद्‌ आदि अख्कार नाम 
से अभिहित किया, तथापि उन्होने अपने दृष्टिकोण से इसे समुचित समादर भी प्रदान 
किया 1 भामह गौर दण्डीने इसे महाकान्य के किए एक आवश्यक तत्त्व' के रूपमे 
स्वीकृत किया 1> भामह के अनुसार कटर भोषधि के समान कोई शास्त्र-चर्चाभी रस 
के संयोगसे मधुर बनं जतीरहै!* दण्डीका माधू्यं गण "रसवत्‌! हीह, तथा 
इसको यह रसवत्ता मधुपो के समान सहृदयो को प्रमत्त बना देती है ।* दण्डी के 
१ (क) एतद्‌ रसेषु भावेषु सर्वकर्मक्रियादु च । 
सर्वोपदेशजननं नाव्यमेतदरू सविष्यति ॥। ना०, शा० १।११० 
(ख) बहुरसकृतमागं सन्धिसन्धानयुक्तम्‌ । 
भवति जगति योग्यं नाटकं प्रक्षकाणाम्‌ ॥ वही, १७।१२३ 
२. एवमेते ह्यलंकाराः गुणाः दोषाक्च कीतिता \ 
प्रयोगमे्वां च पुनः वक्ष्यामि रससंश्यय्‌ 11 वही १७।१०८ 
२. (क) युक्तं लोकस्वमवेन रसेडच सकलः पृथक्‌ । का० अ० १।२१ 
(ख) अलंहृतमसंक्षिप्तं रसभावनिरन्तरम्‌ ॥ का० आ० १।१८ 
४. स्वादुकान्धरसोन्मिश्चं सास्जसप्युपय्‌ जते । 
प्रथमालीढमधवः पिबन्ति कटु भेषजम्‌ \ का० अण ५।३ 
४५. मधुरं रसवद्‌ वाचि वस्तुन्यपि रसस्थित्ति. ! 
येन माद्यन्ति धीमन्तो मधुनेव मधुत्रताः 1! का० आ० १।५१ 


३६२ काव्यालद्भुमरः [ कारिका २ 
माधुर्यः गुण का एक भेद वस्तुगन माधुयं कहाता है जिसका यपर नाम "अग्राम्यता 
दे । दण्डी के शब्दं मे यही अग्राम्यना कान्य मे रप्षमेचनके लिए स्व{धिक द्वित 
शान्टी अकार्‌ है ।9 
छनके उपरान्त प्रस्तुत ्रन्थ के प्रणेता शद्रट ने अनेक स्थो पर रस की मूक्त- 
कण्टसे प्रगसाकी। भामह भीर दण्डी के समनि उन्होनेभी सको महाकाग्य के 
न्िएु आवश्यक ततव माना ।> प्रयम वार इन्टोने दी वैदर्भी, पाचाखी नामक रीतियो 
ओर मरा, टलिता व्रृत्तियों के रत्तानुक्रुक प्रयोग का निर्देश्च किमा, ब्यृद्घारस्का 
प्राधान्य स्वीकार किया, (१४५।३७, ३८} भौर प्ररतुत पद्य (१२२) मे क्तिकोरस 
के दिए प्रयत्नभील रहने को अददेदा दिया । 
धककारयादी आचार्यो के उपरान्त व्वनिवादी आचार्यं आनन्दवर्दन मे ध्वनि 
को काव्वं की आस्मा तथारस्रको ध्वतिका एक मेद-अस्नग्क्ष्यक्रमन्यग्यव्धनि नाम 
मे स्वीकृत कग्ते हए भीरम्रकोष्वरनिका संवरक्छरष्ट षूप धोपित किया । कतिपय 
प्रमाण छीजिए : 
-- वाच्यार्थो की वहूविध रचना रत्न के आश्रय से युगोभित होती है 13 
--योतो व्यग्या्थं (व्वनि) के कई भेदर्हुः किन्नु रक्ष, भाव यादि [नामक 
भेद] उनकी अपेक्षा कटी [धिक | प्रयान दै ।* 
--रस के सग्पकंसे प्रचलित यर्थ उस प्रकार नूतन रूपमे बाभ।सित होने 
छगते & जित प्रकार वसन्त के सम्पकं से द्रम ।५ 
---रम, भाव आदि के विपयं से सम्बद्ध रहकर ही वाच्य ओर वाचक की 
ओचिव्यपूर्वक [योजना होती दै, भौर दमी] योजना करना महाकवि का मुख्य 
0. 
१, कामं सर्वेऽप्यंकारो रसमर्थे निषिञ्चतु ¦ 
तथाप्यग्राम्यतर्वेनं भारं ति भूयसा का० आा° १।६२ 
२. कान्यालंफार १६।१,५ 
३. अवस्थादिविभिन्नानां वाच्यानां चविन्िवन्धनम्‌ । 
मुम्नव ह्यते क्ये तत्त्‌ मात्ति रसाश्नयात्‌ ॥ घ्वन्या० ४५८ 
४. प्रतीयमानस्य चान्यन्नेददहनेऽपि रसभावमूुखेनंनोपेक्षणं प्राधान्यात्‌ । 
---ध्वन्या० १।५ वृत्ति 
५. टष्टपु्वां अपि दयर्थाः कन्ये रतस्परिप्रहात्‌ । 
सर्वं नवा इवामान्ति मधुमा इव दरुमाः ॥ ध्वन्या० ५४ 
६. वाच्यानां वाचकानां च यदौचित्येन योजनम्‌ । 
रसादिविष्येणंतत्‌ कमं मृख्यं महाकवेः ॥ व्वन्या० ३।३२ 


§ 


कारिकार२ 1 दादक्षोऽध्यायः ३६३ 


-- इस व्यरय-व्य जकभाव (अर्थात्‌ ध्वनितत्त्व) कै अनेक भेदो के होने परभी 
क्वि को केव रसादिमय घ्वनि-काग्य मे ही अवधानवान्‌ रहना चाहिए ।१ 

इसी प्रकार आनन्दवद्धंन के प्रख्यात अनुकर्ता मम्मटनेभीरसकोक्ष््यका 
सर्वोपरि प्रयोजनं निर्दिष्ट किया ।२ 

मआनन्दवद्धेन के उपरान्त वक्रोवि्तवांदी कुन्तकने वक्रोक्तिको काव्य का 
"जीवित" स्वीकार करते हुए भीरसको काव्य का अमृत एवं अन्तक््चवमत्कार का 
वितानक मानते हुए प्रकारान्तर से इसे सर्वप्रमूख काव्य-प्रयोजन के रूपमे घोषित 
किया 12 उन्होने उपसरगंमत्त ओौर निपातगत पदवक्रताके प्रसगमेरम की चर्चाकी,४ 
प्रकरण-वक्रता ओर प्रबन्ध-वक्रताके किए रसं की अनिवा्येताका अनेक कूपो मे 
निर्देश किया, ओर रसवत्‌ अक्कार को सब अरुकारो का जीवित" कहते हुए 
प्रकारान्तर से रस की उल्छृष्टता मुक्तकण्ठ से स्वीकृत की 1९ 

कन्तक के उपरान्त इस दिका मे अग्निपुराणकार ने काव्य मेरस की 
अनिवार्यता का सकेत करते हए कहा कि जिस प्रकार लक्ष्मी त्याग (दान) के चिना 
लोभित नही होती, उसी प्रकार वाणी भी रस के विना सोभित नही होती ।७ 

रमकै प्रति उक्त समादर-भाव अग्निपुराणकारके समय के आसपास ओर 
अधिक उच्च रूप ग्रहृण कर गया । अब रस को "आत्मा पद प्र आसीनं कर दिया 
गया---वाग्व दग्ध्यप्रधानेऽपि रस एवाऽत्र जीवितम्‌ ! अर्थात्‌ कान्य मे यद्यपि वाणी 
की विदग्वता की प्रधानता (अनिवायंता) रहती है किन्तु उसका जीवित (आत्मा) 
तोरसहीरहै। इसी प्रकार महिमभटु नेमी रस्को सवसम्मतिसेही काव्य की 


१. व्यंग्थग्यं जक मावेऽस्मिन्‌ विविधे सम्मवत्यपि । 
रसादिमय एकस्मिन्‌ कविः स्यादवधानवाच्‌ ॥ ध्वन्या० ४।५ 
२. सकलप्रयोजनमोलिभ्रुतं संमनस्तरमेव रसास्नावनसमुदुमूतं निगकित- 
वेया्तरम्‌ आनन्दम \ का०प्र° १मब्‌ उ° 
३. चतुर्वगं फएलास्वादमप्यतिक्रम्य तदविदाय्‌ । 
काव्याशरतरसेनाऽन्तञ्चमत्क्ञारो वित्तन्यते ।॥ व° जी° १।५ 
४. रसादिच्योतनं यस्यामूपस्गंनिपातयोः। 
वायकजीवितत्वेन साऽपरा पदवक्नता ।॥ वही, २।३३ 
५, व० जीण ४४, =, १०, १९ २१ 
६. यथा सं रसवन्नाम सर्वाकंकारजीवितम्‌ । 
फाव्यंकसारतां याति तथेदानीं विवेच्यते ॥ व° जी ० ३। १४ 
७. लक्ष्मीरिव विना त्यागान्न वाणी भाति नोरसा । अ० पु० ३३६।९ 


२६८ स्यत" [ मदि ३ 


दक तः ण्वः भाक न्द 2 ई 
| पि र गरत्‌ 1 ष (~~ 
1111110 41111791210.111111 ९ भूता 3 | 
न [कि जनक र्त्‌ प्न पवोन्कि कित भवि ३। क 
द्रः यान्तः प्रंयानिनि मन्तव्या न्याः तत्र 1३ 
ध्मा 1 मापन दमम्‌ | (नरव पाद्री प्रामुदन्पानः । इमि. 
६ 10111113, 
। भ 


रद गाल्थिगःाः 1 


" 


॥ 
कीः चण्ड च 
0 9 । 


नृद्रच(--- 
ग्निुधिदनं दोकटच क्ोयोन्यफ सभा) 
जुमृप्मापिस्मयदोमा, गवादिनाया रमाद्णः ॥ 
निपदरोध्ये तथा ब्दानिः शंफादुपाप्दभमाः 
प्रात्थ तरय रन्धं च (त्ता मो तपुत्तिषे निः ॥ 
प्रीश चपला हष सयो जद्ना नया 
यदा विषाद म्भच्छरुषयं निद्रापस्मार एय च) 
मन्न ध्रयोधोऽमपटचाप्ययशि्पत्तयोप्रता | 
_  _ मत्िर्व्राधिस्तयान्मारन्तया मरणमेत्र च ॥ 
लान्मा स्वीटन सरन का निद किमा---दय्पस्याल्मनि सनिति वि 4114. 
न फस्यचनिदू चिमतिः। (नाञ दमे १्न १०) 
एर्‌ टसी व्रीच शम्यपुरष्-ग्पकण भी धूणन, श्विर्‌ हो चत्न पा-जिनक 
वोज दण्टी मौर्‌ वामन कै गमये भिन्ना प्रारन्मनि ससय । 


दण्टी ने "काव्य-मनीर्‌' की दोर्‌ नकेन दिदाथानो कामन ने शद्यम्बाल्या' क 


1 


भो कषे केत ॥ + को बृह 


(क) श्ररीरं तावद्‌ एष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदायसो । दार दस १।१० 

(ख) रीतिदात्मा काव्यस्य । फार मुर व° १२६ 
राजशेसर गौर्‌ उनके उपरान्त विव्वनायने उसी पकः के अन्तत ग्च को काच्य 
की गत्माके स्प मे घोपिन किया, { करा० मी° प° १३-१८} ओर वित्वनाय 
ने तो सरवेभ्रयम अपना काव्यन्नक्षण भी उनी मान्यता कै जपारं षर प्रस्तुत किया-- 
वाक्वं रसात्मकं काव्यम्‌ । 
२. रसो कानान 

श्द्धार, वीर, फण, वीभत्स, मयानक, अदुभरुन, हत्य, रोपर, शान्त भौर 

` प्रेयान्‌ ये सव (दस्त) रस समक्षे चाहिएं 1३1 

प्रेयान्‌ रघ का सर्वप्रथम उत्केखद्द्रटने कियाद । चिद्रोप वित्ररण के किष 

देखिए १५।१७-१६ । 


कारिका४ | दशोऽध्यायः ३६१५ 


्रासश्चंव वितकंश्च चिज्ञेया व्यमिचारिणः। 
त्रयस्त्रिंशदिमे भावाः समाख्यातास्तु नामतः ॥। 
स्तम्मः स्वेदोऽथ रोमाञ्चः स्वरभेदोऽथ वेपथुः ¦ 
वेवण्यंमरुप्रल्य इत्यष्टौ सात्विकाः स्पृताः ॥ 
तत्र॒ श्यगारादिपु रत्यादयो यथासख्य भवन्ति । निवंदभयस्तम्भादयस्तु 
सर्वेष्वित्ति । 
चनु कथं तहिं निवे दादयो रसतां यान्तीत्याह- 
रसनाद्रसत्वमेषां मधुरादीनाभिवोक्तमाचारयः । 


निर्वेदादिष्वपि तन्निकाममस्तीति तेऽपि रसाः 11४1 
रसनामित्ति 1 आचामं रततादिमिरेषा स्थायिभावाना रसनादास्वादनाद्धेतो रस- 
त्वमुक्तम्‌ । केषामिव । मधुराम्लादीनामिव । मधुरादयो ह्यास्वा्माना. सन्तो रसत्ता 
यान्तीति ! उक्त च-- 
जनेक्रव्यसंयुक्तेव्यंज्जने बंहुमिद्चितम्‌ 
आस्वादयन्ति मुञ्जाना मवेतं मक्तभुजो थथा ॥ 
मावामिनयसंबद्धान्स्यायिमार्वास्तथा रसान । 
आस्वादयन्ति भनसा तस्माल्नाटये रसाः स्मृता. ॥। 
स्यादेतत्‌ । स्थायिभावानामेव रसन भविष्यतीत्याह- 
निवंदारिष्वपि तद्रसनं निकाममस्तीति हितोस्तेऽपि रसा ज्ञेयाः! यस्य तु 
परिपोष न गतास्तस्य भावा एव ते अयमाश्शयो प्रन्थकारस्य-- यदुत नास्तिसाकापि 


४. लोकिक्र रस : कान्यरस 

माचार्थो ने मधुर [ अम्ल, लवण ] आदि की तरह इनके आनन्द-दायक होने के 
कारण इनको रसं कहा है 1 यह्‌ आनन्द-प्राप्ति निवेद आदिसे मी होती है! अतः वे 
भी रस है 1४ 

रुद्रट का यहं पद ग्याख्यापेक्ष है--एषा रसनाद्‌ (इनके अनन्ददायक होने के 
कारण) मे "एषाम्‌" से तात्पयं किसका है । रद्रट के उक्त पद्यसे तो प्रतीत होता है 
कि "एषाम्‌" से उन्हे शबृद्धार, वीर आदि रस अभीष्ट है, किन्तु नमिसाधु की टीका 
मे "एषाम्‌" से अभिध्राय स्थायिभाव छिया गया है--जिस प्रकार [लोकसे] मधुर 
आदि ास्वाच्यमान होते हृए रसता को प्राप्त होतते है, उसी प्रकार [रत्यादि] स्थायि- 
भाव भी रसताको प्राप्त होतेहै। देखा जाएतो नमिसाधु का दृष्टिकोण शास्न- 
संगत नही है, क्योकि रति, शोकं आदि स्वायिभाव जव तक विभाव आदिसे पृष्ट 
हौ होते, तव तकं लौकिक कहते हँ भौर अपनी स्थिति के अनुक्रुक खौकिक सुख ओर 


३६६ कान्याखङ्भारः | कारिका ५-६ 


चित्तवृत्तिर्या परिपोष गता न रमीभवत्ति। भरतेन सहूदयावजकत्वप्राचर्यात्सनज्ञां 
चाश्ित्याष्टौ नव वा रसा उक्ता इति 


त्रथ श्र्नारलक्षख्‌ 

व्यवहारः पु नार्योरन्योन्यं रक्तयो रतिप्रकृतिः । 
श्युज्खारः स देषा संभोगो विप्रलम्भद्च ॥५। 
संभोगः संगतयोवियुक्तयोयेर्च विप्रलस्भोऽसौ । 


पुनरप्येष द्वेधा च्छन्तङ्च  प्रकारार्च ।1६॥। 

व्यवहार इति । सभोग इति गतार्थ न वरमु । मात्रसुतयोः पितृुदुहिन्ोश्रतिभ- 

गिन्यो. श्यु ज्खारनिवृ्यर्थं रक्तयोरिति पदम्‌ रति. कामानुविद्धा प्रकृतिः कारण यस्य । 
भथ श्बद्खारभेदन्याख्या सभोग इत्यादिका । पुनरप्येप इत्यादिना प्रभेदकथनम्‌ 1 

दुख दोनो प्रदान करते, वे,केवर आनन्ददायक नही होते । अस्तु 1 

इस पद्य मे रुद्रट-प्रस्तुत "निर्वेदादि' शब्द भी ग्याख्यापेक्ष है । "निर्वेद आदि 
से उनका अभिप्राय शायद चान्त भौर प्रेयान्‌ के स्थायिभावो निवेद गौर स्नेहं 
(देखिए : १५, १७1 से है कि जन्य गाठ [स्थाधिभावो ओर तत्सम्बद्ध ] रसो के भत्ि- 
रिक्त डनदोनो कोभी रस मानना चाहिए] चान्त का स्थायिभाव रद्रट ने "निर्वेदः 
न मानकर “सम्यग्‌ ज्ञान" माना है, अतः सम्भवत" निवेद आदि" से उक्त तात्पयंही 
ल्याजास्क्ताहै न कि निवंद आदि ३२ सचारी भावे कि इनके परिपौषको रस 
मान सकते है 1 अस्तु, इनका यहु पद्य अधिक रपष्ट नही है । 
५. श्रङ्गार रस करा लक्षख॒ च्रौर उघ्चके मेद-उपमेद्‌ 

दो परस्पर अनुरक्त स्न्ी-पुरुषों का रतिपरक व्यवहार श्णरद्धार कहल्पता है । 
यह्‌ श्युद्धार दो प्रकार का है-सभ्मोग ौर विप्रलम्भ ।५। 

दोनोंके एक साथ रहने को सम्भोग आर वियुक्त रहने को विभ्रलस्भ कहते 
है । श्णृद्धारके दो ओर भेद भी रहै प्रच्छन्न ओर प्रकारा ।६। 

इस प्रकार सम्मोग ओर विप्रलम्भ श्ृद्धार-दोनोके दो-दोभेद हृए- 
प्रच्छन्न गौर प्रकार । 
६. नायक-नायिका-मेद्‌ , 

यहा से श्यु्खार रस के आरुम्बनविभाव के अन्त्गेत रद्रट ते नायक -नायिका- 
भेद का निरूपण किया है 1 सस्कृत-साहित्यशास्त मे नायक-नायिका-भेद को नास्य- 
शास्त्र, कान्यशास्त्र ओर कामथास्व-सम्बन्धी ग्रन्थो मे स्थान मिला है-- 

(१) नास्यशास््र-सम्बन्धी चार ग्रन्थ सुलभ है-भरत का नार्यश्ञास्त्र, 
धनजय का दज्ञरूपक, सागरनन्दी का नाटकलक्षणरत्नकोष भौर रामचन्द्र-गुणचन््र का 


कारिका६ | हादशोऽध्यायः ३६७ 


नाध्यदपंण । इन सब मे नायक-नायिका-भेद का यथास्थान निरूपण हुआ है, पर 
भरतके ग्रन्थके अत्तिरिक्त देष ग्रन्थो मे अपने पूवेवर्ती कान्यसास््रकारो काही 
प्रायः अनुकरण-माच हे । 

(२) नायक-नायिका-भेद की दृष्टि से कान्यशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थोके दो 
वगं है-- 

(क) श्यृद्धार रस के अन्तरगत नायक-नायिका-मेद निरूपक ग्रन्थ--इन ग्रन्थो 
मेसेसुद्रट का काव्याककार', मोज का सरस्वतीकण्ठाभरण शौर शश्रद्धारप्रकाशः 
तथा विर्वनाथ का 'साहित्यदर्पण' विशेष उतल्कंखनीय है । इनके अतिरिक्त रुद्र भट, अग्ति- 
पुराणकार, श्रीङृप्ण कवि, वाग्भट प्रथम, हेमचन्द्र, शारदातनय, विद्यानाथ, शिगभरुपा 
वारभद् द्वितीय ओौर केदाव मिश्रके काग्यशास्चोमे भी नायक-नायिका-भेद-प्रकरण 
को स्थानमिलारहै, पर इन ग्रन्थो मे इस विपय-सम्बन्धी कोई उत्लेखनीय नवीनता 
उपलन्ध नही होती । 

(ख) केवर नायक-नायिका-भेद-निरूपक ग्रन्थ---इस वग मे दो ग्रन्थ अति 
प्रसिद्ध है--मानुमिश्च का ^रस्मजरी' ओर सूपगोस्वामी का "उज्ञ्वल्नीर्मणि' 1 
तीसरा ्रन्थ सन्त अकवरशाह "वड साहब का शश्यृद्धार-मजरी' प्रसिद्धि कीहष्टिसे 
न सही, पर विषय-व्यवस्था ओौर कतिपय मौलिक मान्यताओ की दृष्टि से अत्यन्त 
सम्मान के साथ उत्लेखनीय है । 

(३) कामशास्न-सम्बन्धी चार प्रख्यात ग्रन्थ सुलभ वात्स्यायन का 
"कामसूत्र; केक्कोक (कोका-पण्डित) का "रतिरहस्य', महाकवि कल्याण मल्ल का 
अनंगरग' ओर ज्योतिरीश्वर का पचसायक' । अन्तिम दो ग्रन्थो मे नायक-नायिका- 
भेद का निरूपण रति-रहस्य पर आधृत है तथा अति सक्षिप्त एव साधारण कोटि का 
भौर रगभग एक-सा है 1 अस्तु 

रुद्रट से पूवं भरत ने नाय्यश्चास् मे इस प्रसंग का विस्तृत प्रतिपादन किया है। 
सुद्रटके इस प्रकरण का सक्षिप्त परिचय इस प्रकराररै: 

(क) नायक तथा नायक-सहाय के मेद-- नायक के नायिका के प्रति प्रेम- 
व्यवहार के आधार पर रद्रट-निरूपित्त चार भेद ई-अनुक्ूर, दक्षिण, शठ ओर 
धृष्ट 1 भरत-सम्मत धीरोदात्तादि चार भेदो का उल्लेख रुद्रट ने सम्भवत जान-वृक्चकर 
नही करिया । वस्तुत. ये भेद शगार रसकेनायककेहभी नही । नायक के नर्मसचिव 
(गुप्त वातो मे सहायक) के तीन भेद है- पीठम, विट ओर विदूषक । भरत-सम्मत 
चेट को सम्भवत. हीन पात्रे समन्ञकर सद्रट ने अपने ्रन्थ मे स्थान नही दिया । 

(ख) नायिका-मेद--रुद्रट के अनुसार नायिका के (सामाजिक बन्धन के आधार 
पर) प्रमुख दीन भेद है--आत्मीया, परकीया ओर वेरया । 


३६८ काव्यालङ्कारः [ कारिका ६ 
आत्मीया के रति-विकासके आधार पर तीन भेद है-- मुग्धा, मध्या ओर 
प्रगल्भा 1 एक ओर मुग्धा जहा 'नवयौवनजनित-मन्मथोत्साहा" होती है, (मध्या 'मावि- 
भूत-मन्मथोत्साहा' ओर “करचिद्वृत्तसुरत-चातुर्या' होती है, वरहा प्रगल्भा रतिकम- 
पण्डिता" होती है, तथा नायक के अकमे द्वित होकर यह चिवेकखोबैत्ती हैकि 
यह्‌ कौनदहै, मे कौन हं गौर यह सव कुछ क्याहौ रहादहै। 
इनमे से मध्या भौर प्रगत्भाके [पति द्वारा प्राप्त प्रेम के आधार पर] पह 
दो-दो भेद है--ज्येष्ठा भौर कनिष्ठा, फिर इन दोनों के [मान-व्यवहार के आधार पर] 
तीन-तीन भेद र्है-घीरा, अधीरा गौर मध्या । इस प्रकारये वारह्‌ भेद, ओर मुग्धा 
का एक भेद भिककर आत्मीया के कुल तेरह भेद हुए । 
परकीयाके दो भेद है--कन्या ओर अस्योढा, तथा वेश्या काएक हीषरूप 
है1 इस प्रकार नायिका के कुल १६ भेद हुए । 
आत्मीया के सुद्रटते फिरदो भेद माने है- स्वाधीनपतिका ओर प्रोषितपत्तिका। 
किन्तु हमारे विचारमे ये दोनो भेद परकीया ओौर वेश्या के सम्भव नही है । 
आत्मीया, परकीया ओौर वेद्या के दो-दो अन्य भेद इन्टोने माने है-अभि- 
सारिका ओर खण्डिता । पर हमारे विचारमे इन दोनो भेदो की सगत्ति भी इन तीनो 
नायिकाओ के साथ घटित होना सम्भव नदी है 1 अभिसरण का क्षेत्र परकीया तकही 
सीमित दहै, न वेद्या को इसकी आवच्यकता है ओरन आत्मीया को । परिस्थिति 
कृभी इन्हे अभिसरण करनाभी पडे तो हमारे विचार मे काग्यदास्त्र दवारा तत्क्षण 
के लिए इन्हे (परकीया नामसे अभिहित करनेको आज्ञा मिल जानी चाहिए । 
'खण्डिता' का सम्बन्ध आत्मीया के साथै, परकीयाके साथ भी यह्‌ सगत हो 
सकता है, पर वेश्या के साथ यह तकंसम्मत प्रतीत नही होता- वैशिक से एक-वेष्यानु- 
रक्तता की आका रखना उसके किए दुराशामात्र है । किस-किक्ष वंशिक के लिए वह 
खण्डिता बनकर दुखडे रोती रहेगी । 
नायिका के भरत-सम्मत स्वाधीनपतिका आदि आर भेद तथा उत्तम, मध्यम 
ओर अधम तीन भेद काव्याककार मे भी परिगणित हुए है । उपर्युक्त १६ प्रकार की 
नायिकाभो के साथ उन भेदो का गुणनफल नायिकाभेद को (१६>८ ८>८३-) ३८४ 
की सख्या तके पहुंचा देता है । कान्यारुकार के टीकाकार नमिसाधुने इस स्थर को 
क्षेपक मानाहै। हम नमिसाधु से सहमत है, क्योकि एक तौ स्वाधीनपतिका भादि 
सभो भेदो का आल्मीया, परकीया ओर वेद्या के साथ सम्बन्ध स्थापित नही हो सकता, 
अर दूसरे, इन भेदो मे से उपर्युत चार मेदो-स्वाधीनपत्तिका, प्रोपितपतिका, अभि- - 
सारिका भौर खण्डिता-काएकही प्रसंगमे दो वार उत्छेख तकसम्मत गौर मन- 
स्तोपक भी नही दै। । 


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कारिका ६ | दादक्षोऽध्यायः 


तायिकाके मन करते का कारण केवकएक ही है- 
रति-सम्बन्ध, तथा दो सौत स्वकीया नायिकाओोमे से 
कनिष्ठा कहने का कारण बडी अयता छोटी अयुन 

ही अधिकता अथवा न्यूनता है। इसी प्रकार स्व्रार्ध 
नायकगत स्नेह ओर रति-सम्बन्य की प्राप्ति अथवा 
अवस्थाय को प्राप्त होतीरै। नायिकाके मुग्धा 


. नापक-नापिका के उत्तम अथप्रा उत्तमा आदि तीन 


पारस्परिक रति-भावदहीहै। 

निष्कषं यहु कि नायक-नायिका-भेद प्रसग श्यु 
देन भेदोपभेदो की एक ही कसौटी है--स्त्री-पुरुष का 
परजो भेदोपभेद खरे नही उत्तरते, हमारे विचारमे 
भिना चाहिए } मरत-सम्मत देवताशीला नादिर 
महदेवी आदि १७ प्रकार की नारियो का नाटुयज्ञार 
सम्बन्ध पर मुख्य रूप से प्रकाश नही डाकता । यही 
किक्षी भी आचायंनेडनभेदौ काउत्छंख नही कि 
तायक-नायिका के कथावस्तु प्र आधृत्त नायक्र, प्र 
प्रतिनायिका मादि भेद; मानव-प्रकरृति पर आधूत 
पूनभू नायिकाके यातायाता-तथा यायावरा मेः, 
ललक, पताका, अपताका भौर प्रकरी नामक भेद 
पे स्थान नही षा सके । 

इनके अतिरिक्त दो वर्गं ओर दहै, जो रति-स 
उतरते-तायक के धीरोदात्तादि चार भेद, तथा नार 
तीन भेद 1 धीरोदात्तादि भेद नायक की सामान्य प्रक्र? 
भेद म््यंलोक गौर चुरोक के स्व्री-पुरूषो मे विभाजकर 
है} स्पष्टतः इन वर्गो का रक्ष्य रति-सम्वन्ध-योत्तन 
नायिका-भेद मे स्थान पने योग्य नही है 


{दा 3४6. निद. भत नि तरण 


२७२ कान्याटद्भुारः { कारिका ९ 


परदारा के साथ बनुचित व्यव्रहारको रस्ामास्रका विपय मानाहै। (काण प्र° 
५।११६ वृत्ति भाग, सा० द० ३।२६२, २६३} जव विषय कै प्रकाण्ड आद्ोचको 
द्वारा पररकीयाके प्रति इतनी थेवहेदना प्रकटकी गयी तो वेद्या के प्रति इयते भी 
कही अधिक ववहेटना स्वतःसिद्ध हई) निस्पन्देह्‌ सामाजिक व्यवस्था के परिषाछन 
के ट्प ्रमृचित भी यही | स्वकीयाके ही समान परकीया भौरवेष्याका भी 
नायिकाकेष्ह्यमें चित्रण काव्यकोनिम्न स्तरपर्‌करे जाएगा-इमी भा्णंकासे 
सम्कृत-साहित्यके लक््य-प्र्थी म परकीव। भीर वेद्या को काक्च्रीय-स्वष्पानृसार 
काव्य का विपय नही वनाया गया । किन्तु फिर मी नायक-नायिका-मेद के अन्तरगत 
हन दोनों नायिकाथो गीर उपपति तथा वंदिक नायकोको वदटिष्कृत नही करना 
चाहिए, क्योकि एक तो नायक-नायिका-भद लोकव्यवहार तथा कामनास् के ग्रन्थी 
पर आावृन दटै,नकि खकय-ग्रन्वो पर, भीर्‌ दूसरे, दरमामासनः र्न की अपेक्ना हीन 
कोटि का कान्य होते हृए भी व्वनिकोग्पर काएक स्वल अग अवद्यः मौर गुणी- 
भूत व्यंग्य तथा चित्र-कान्य की अपेक्षा उत्छष्ट कोटि काकानव्य दहै । अतः नायिका 
भरदा म परकीया मौर वेष्या भी भपना महत्वपूर्णं स्थान रखती हं! 

उक्त तीम नायिकां के अतिरिवत सामाजिक व्यवहार पर आधृत इस वं 
के अन्तर्गत सस्छत के आचार्या ज भरत ने कृत्लीवा, भौर बगिनिपुराणकार तथा भोज 
ते पुनर्भू नायिकामोको भी सम्मिकिति किया है, पर इन दोनोंका अन्तर्भाव स्वकीया 
नायिक्रासे वदी सर्ख्ताके साय क्रियाजा सक्रतादै, न्ट अलग मानने की वाव 
दयकता नही । 

( २ \ 

स्वकीया नाथिक्रा के तीन उपर्रेद है--मृग्धा, मध्या भौर प्रगरभा । वयःतथा 
तत्प्भरूत छाज---इन दो आधारो पर मृग्या के कुट चार्‌ भद्द द--भन्नातयौवना भौर 
त्रातयीवना तथा (वविश्व्व-) नवोढा भीर्‌ विश्चव्यनवोढा । मन्तिम दो भेद स्वाभाविक 
वीर सम्भव रह पर्‌ प्रथमदौ भेदो पर हमे भापत्तिदहै। अन्नातयौवना मुग्धा भीर 
उपे पनिकरे वीच स्नेहन्यवहार-वर्णन उभयपक्षीयन होकर छगभग एकपक्षीय होने 
केः कारण कन्यका वद््ष्किरणीय विप्रय दै, तथा ठोनो मे रतिजन्य यौन-सम्त्रन्ध का 
वर्णन क्रूरता, प्रकृति -चिग्द्ता तथा अनाचार का मूचकं ह । भतः "वनात-यौवनाः 
भद्र प्रशस्त गीर चरीरविन्नान-सम्मत नदी है, ओर्‌ इस दृष्टि से उसके विोम ल्प 
मे परिगणित श्नातयौवना' मद की स्वीकृति भी भमुचित नही &। 

( ३ ) 

पर्कीयाकेदो उपशनदर्हु--परेढया यौर कन्या। ये दोनो नायक के परनि 

प्रच्छन्न स्पे सेट्‌ निभाती चरती है । इनमे से परोढा निश्पन्देह परकीया है । पर 


जन ना 
+^ ~ ७ ऋ १०८ 


कारिकाई६ | दशोऽध्यायः ३७३ 


"कन्या" को इस कारण परकीया कहना कि वेह पिता भादि के अधीन रहती है- 


"कन्यायाः पित्रा्यघीनतया परकीयता" (र० मं० पृष्ठ ५१) हमारे विचार में युवित्तसंगत 
नही है । नायके-नायिका-भेद मूखुतः रत्तिसम्बन्ध पर भवरुम्बित है परोढा ओौर 
उसके पत्ति कां पारस्परिक रत्ि-सम्बन्थ सामाजिक दष्टिसे ही सही, प्रत्यक्ष है, 
अत. वह परकीया कहाने योग्य है, किन्तु कन्या भौर उस्के पिताके बीच पोषक- 
पोष्य-सम्बन्ध के बर पर कन्या को परकीया कहना अवश्य खटकता है । अतः कन्या 
को परकीया का उपभेदं न मानकर स्वतन्त्र भेद मानना समुचित है । सस्कृत-आचार्यो 
मे वाग्भट ने यही किया है-'अनूढा च स्वकीया च परकीया पणागना ।' (वा० अ० 
पृष्ठ १०) हा, यह्‌ अख्ग प्रर्नहै कि वादमे उसी पुरुष से विवाहु-सम्बन्ध स्थापित 
हौ जाने पर वह्‌ स्वकीया, अथवा किसी अन्य पुरुष से विवाहु-सम्बन्ध स्थापित हो 
जाने पर भी उसी अथवा किसी अन्यके साथ गुप्त मिखन निभाते चके जाने की 
अवस्थामे वहु परकीया कहाए, पर वतमान परिस्थिति मे तो उसे परकीया नही कहा 
जा सकता 1 इक्न प्रकार सामाजिक व्यवहार के आधार परनायिकाके चार प्रमुख 
भेद होने चाहिएं--स्वकीया, परोढा (परकीया), कन्या गौर सामान्या, तथा इनके 
अनुरूप नायक के तीन भेद-पति, जार ओौर वैशिक । परोढा ओर केन्या से प्रच्छन्न 
रति-सम्बन्ध रखने वाके पुरुष को “उपपत्ति' नाम से अभिहित करना "पति शब्द का 
तिरस्कार है! अतत. उसे जार" की सज्ञा मिरी चाद्दिए 1 नायक के प्रमुख चार 
भेदो मे से अनुद्रु का सम्बन्ध केवर पति के साथ मानना चाहिए, ओर दक्षिण, धृष्ट 
भौर रठकाजार भौर वंशिकके साथ। भानुमिश्रनेये चार भेद पतिके गौर 
उपपति के स्वीकार विये रह, पर हमारे विचारमे ये नायक के सामान्यभेददहै। 
( ४ ) 
भोजराजने मुग्धा आदि तीन उपभेदो का सम्बन्ध परकीया (परोढा भौर कन्या) 
के साथ भी स्थापित कियाहै। हम इनके साथ आशिक रूप से सहमत है । मुग्धा 
नायिका का यथानिरूपित शास्त्रीय स्वरूप उसे परकीयात्व मे धकेलने से बचाए रखने 
मे सदा समर्थं है । केवल मध्या भौर प्रगल्मा अवस्थाओोमे पहुची हुई नारियां ही 
परकोयात्व कौ गोर फिर सकती हँ ! अत मानव-मन के ठेवय के आधार पर पर- 
कौयाके भी मध्या ओौर प्रगल्भा भेद सम्भव है, पर मुग्धा के नही । इसी सम्बन्ध मे एक 
वात गौर) भानुमिश्चरनेएकओरतोम्घ्या ओर प्रगल्भा नायिकाएं केव स्वकीयां 
के साथसम्बद्कीरहै, ओौरसाथही दूसरी ओर इन दोनो नायिकामोके मान के 
भाधार पर धीरादि तीन उपभेद स्वकीया के अत्तिरिक्त परकीया के साथ भी जोड है 
उनके ये कथन परस्पर-विरोधी अवश्य ह, पर पिके वर्गीकरण द्वारा प्रकारान्तर से 


३७४ काव्यालद्धुारः [ कारिका ६ 


हमारी उपयुक्त धारणाकी पुष्टिहोरहीदहै कि मध्या ओर प्रगल्भा भेद परकीया के 
भी सम्भवरहै ) 
( ५ ) 

नायक के व्यवहार से उद्भूत मवस्याके भायार पर नायिका के स्वाधीन 
पतिका आदि माठ भेद है । इनके शास्त्र-निरूपित स्वरूप से स्पष्ट है कि- 

(क) आो प्रकार की ये तायिकाएं अपने-मपने प्रियतमो कै प्रति सच्चा स्नेह 
रखती ह । कुलटाः परकीया कां इनमे कोई स्थान नही है| 

(ख) विप्ररुन्धा ओर खण्डिता नायिकाएं अपने-अपने नायको की प्रवचनाकी 
शिकार है, ओर शेष छ्हो को पूणं स्नेह सम्प्राप्त है । 

(ग) स्वाधीनपतिका भौर खण्डिता को छोडकर शेप सभी नायिकाभोके 
नायक इनसे दुर है, ओर ये उनसे सम्मिलिनि के लिए समुत्सुक है। 

(घ) स्वाधीनपत्तिका सर्वाधिक सौभाग्यवती है--उसका नारक सदा उसके 
पास है । भिलन-वेला समीप होने के कारण वासकसज्जा ओर अभिसारिका का सौभाग्य 
दुसरे दरजे पर है, गौर मिलन-आशा पर जीवित विरहोक्कण्ठिता ओर प्रोपिततभतृका 
का सौभाग्य तीसरे दरजे पर । 

(ड) विप्रलन्धा ओर खण्डिता दुर्भाग्यज्ञालिनी है--पहरी का नायक परनारी- 
सम्मोगके लिए चल दिया है, जर दूसरी का नायक सम्भोग के उपरान्त ढीठ बनकर 
उसके सामने भ! खडा है । सबसे दयनीय दला वेचारी कलहान्तरिता की है--चादु- 
कारिता करने वारेभी नायक को पहर तो इसने धरसे निकाल दियाहै भौर अवं 
वटी पछता रही है । 

६ ) 

पुरुष ओर नारी की मन.स्थित्ति कै एेक्य के कारण स्वाधीनपत्नीक आदि आठ 
मेद नायक के भी सम्भव र्है-इसी स्वाभाविक शंका को उठाकर भानुभिश्च ने उसका 
खण्डन स्वय कर दिया है! उनके मतानुसार नायकं के उत्क, लेण्डित, विप्रकन्ध आदिं 
भेद सम्भव नही है । वस्तुतः काव्य-परम्परा नायकके ही शरीर पर अन्य सम्भोगजन्य 
चिद्धो ओर उन चिह्लौ के आधार पर उसकी धूतंता पर आशकित होकर नायिका 
दवारा ही मान-प्रदशेनो का वणेन करती आई है। क्रिन्तु इसकी विपरीत स्थिति मे अर्थात्‌ 
नायिका के शरीर पर रतिचनिह्लो के प्रकट होने कौ स्थितिमे तो कान्य का यह्‌ विषय 

[्यृद्खार]| रसकीकोटिमेनं आकर [ब्णृद्धार] रसाभास्षकी कोटि मेअ जाएगा- 
"““ " "अन्यसम्भोगचिह्भंत्वं वा नायकानाम्‌ नतु ाथिकानाम्‌ । तान्‌ प्रति तदुद्‌ भावने रसा- 
भासापत्तिरिति।"' (र०म० पृष्ठ १८६) किन्तु देखा जाए तो सत्य इससे भी कही अधिक 
कटुहै। स्त्री भक ही पुरुष की धुतता को सहन कर छ; फिर मान-प्रद्॑न दवारा उसे 


कारिका ६ | दाददोऽध्याय ३७५ 


कुछ कालके लिएतड्पाङे, ओर इस प्रकार उसे ओर भी अधिक रत्यानस्द-प्रदान 


करते का कारण वेन जाए, पर पुरुष का पौरुष स्त्री के शरीर पर रतिचिह्लीं को देल- 
कर प्रतिकार के छिए उन्मत्त हौ रक्त की नदी बहाने के किए हकार कर उठेगा मौर 
तव यह्‌ काच्य-वर्णन श्ुद्धार रसाभास के स्थान पर रौद्र रसाभास के विषयमे परि- 
णत हो जाएगा} 
उक्त आठ अवस्थाओों मे से प्रोषितावस्था नायकपर भी घटित हो सकती है। 
परदेश मे गये पति, उपपति ओर वैशिक का अपनी प्रयसियो की विर्हाग्नि मे जलना 
उतना ही स्वाभाविक है, जितना किं प्रोषित्‌-पत्तिका, स्वकीया अथवा परकीया का। 
भानुमिश्र ने इसी कारण नायक के तीन अन्य भेद भी गिनाये है--प्रोषितपति, प्रोषितो- 
पपत्ति ओौर प्रोषितं शिक । 
( ७ ) 
भानुमिश्च ने नायिका के तीन अन्य भेदो-अन्यसम्भोगदुं विता, मानवती ` 
ओर गिता के भी लक्षणोदाहूरण प्रस्तुत कयि है। पर उनके विवेचन से इन भेदोके 
आधार के विषयमे कुछ भी ज्ञात नही होता। हमारे विचारमे यह्‌ आधार नायक- 
कृतापराध-जन्य प्रतिक्रिया है । प्रयमदो भेदो पर तो यह्‌ आधार निस्सन्देहं घटित हौ 
ही जातादहै। गविता पर भी, जिसके भानुभिश्र गौर सोमनाथ ने दो उपभेद-ह्प- 
गविता भौर प्रमगविता भिनाये है, कुछ सीमा तक धटित हौ सकता है । एेसी नायिकानों 
कीसख्यामे भीक्रमी कमी नही रह्‌ सकती, जो दु खिता ओर मानवती होकर परा- 
जित होने की अपेक्षा अपने रूप ओौरप्रेम के गवं पर अपराधो नायक को सुमागें पर 
साने का सुप्रयास करती है। फिर भी विता" नायिका का यह्‌ आवार इतना सुपुष्टं 
नही है । 
अव प्रन रहादइनभेदोको स्वकीया आदि भेदो के साथ सम्बद्ध करनेका। 
हमारे विचारमे वेद्या के साथ प्रथमदो भेदतो सम्ब नही कियि जा सकते । रूप- 
गतरिता' भेद भले ही वेश्या के साथ सम्बद्ध हो जाए, पर बाह्य रूप से राग दिखाने 
वारी वेश्या के साथ ्रेम-गविता' भेद को भी सम्बद्ध केरना वैशिक बेचारे को आत्म- 
प्रवचना का शिकार बनाना है। 
रोष रही स्वकया गौर परकीया नायिका । मूर्वा स्वकीया के किए उसका 
मौरघ्य वरदान के समान है, अत. पतिकृत अपराध से उत्पन्न प्रतिक्रिया के परिणाम- 
स्वरूप दु.ख, मान-क्छेश ओर गवं करने की पीड़ा से वह्‌ नितान्त बची रहती है । जेष 
रही मध्या गौर प्रगल्भा स्वकीयां । निस्सन्देह्‌ ये तीनो भेद इन दोनो से ही सम्बद्ध 
है, मुग्धा स्वकीया से नही । इनकी सुचेतावस्था इन्हे उक्त वेदनाओ को ्षेलने के क्तिए 
बाध्यकरदेतीहै। परकीयापरभीये तीनो भेद घटितदहो सक्तेहै। माना कि 


[) ^ 


३७६ कान्याल्द्धारः [ कारिका ६ 


कणि 


परकीया अपनी गौर अपने प्रिय की कम्पटता से भरी-भाति परिचित है, किन्तु नारी- 


सुलभ सौतिया-डाह वड उसे भी अपने प्रियका अवराव उतनादही उद्विन भौर विह्वल 
केरता है जितना स्वकीया को । 
( ८ 

संस्कत के भाचार्योमे रस्रटके समयसेही विभिन्न आधारो पर आधृत 
नायक-नायिका-भेदो को परस्पर गुणन-क्रिया हारा अधिकाविक संख्या तक पहुंचाने 
की प्रवृत्ति रहीदहै। निर्म्नांकित अंकोसे हमरे दष क्थनकीपुष्टिहो जाएगी । 
रुद्रटने नायक ४मानेर्हँ भौर नायिकाएे ३०४; भोजराजने १०४ गीर १४३; 
विक्वनाथने ४८ गौर ३४ भानुमिश्र ने १२ गौर ३५४) तथा सू्पगोस्वामी ने 
६६ ओर ३६० ! किन्तु वस्तुत. यह गुणन-क्रिया तकं ओर बुद्धि कौ कप्तौटी पर्‌ खरी 
नही उतरती । इस धारणा के किए वहु-प्रचलित विश्वनाथ-सम्मत नायक-भेदो मौर 
भानुमिश्र-सम्मत नायिका-भेदों पर विचार करना अपेक्षित है । 

विव्वनाथ नै ४८ नायक-भेदं माने है--वीरोदात्तादि ४.८ अनुक्कूलादि ४>८ 
उत्तमादि ३==४८ । प्रर यह्‌ सम्वन्व युक्तिंसगत नदी है । प्रथमतो धीरोद्रात्तादि भेद 
केवल श्यृद्धार रस की कथावस्तु से मम्बद्धन दोकर सभी रसो की कथावस्तु से सम्बद्ध 
है । अतः इनका परस्पर-सयोजन विरोधी रसोमे सम्पके-स्थापक होनेके कारण 
कान्यदास्त्र की दृष्टि से सदोषदहै। दूसरे, [राम जैसे] वीरोदात्ति नायक कों 
दक्षिण, धृष्ट भौर शठ नामोसे भौर [वत्सराज जसे] धीरलक्ति नायक कोक्रभी 
केवर "अनुकर" नामं से अभिहित करना परम्प सपुष्ट आख्यानो ओर मनोवित्तान 
दोनो को ज्ुठनाना हि । यही कारण है कि सस्कृत-भाचार्योमे वाग्भट द्वितीय ने केवल 
धीरखचित नायक के अभूदरुरादि चार भेद मानेर्हुः जेप तौन नायकोके नदी) किन्तु 
धीरख्ल्िति भी इन चारो भेदो के साथ सदा सम्बद्ध हो सके--यदह्‌ निरिचत नही है । इसी 
प्रकार विश्वनाथ-मतानुसार धीरोदात्त गौर अनृक्क को "उत्तमः के साथ-साथ मध्यम 
र अधम भी मानना तथा धृष्ट ओौर चठ को उत्तम भी कहना न्याय-संगत नही दहै । 

अव भानुमिश्र-सम्मत नाथिका-भेदो कोक उन्होने नायिका कै २८४ भेद 
मानै है--स्वकीया, परकीया गौर सामान्या के (१३-३ --१ =) १६ मेद >< स्वाघीन- 
पतिका आदि ५ भेद >< उत्तमादि ३ भेद ३८४ भेद । परन्तु गुणन-परक्रिया द्वारा 
उक्त पारस्परिक गठ-वन्धन मनोविजान कौ कसौटी पर खरा नही उतरता । स्वाधीन- 
पतिका आदि सभी नायिकां अपने-अपने प्रियतमो के प्रति सच्चा स्नेह रखती ई, 
अतः सामान्या नायिका अपने शास्त्रीय स्वल्प के आधार पर किसी भी अवस्यामे इन 
गाठभेदोमेसे किसी के साथ सम्बद्ध नहीकी जा सकती । स्वकीया गौर परकीया 
के साथमीये सभी नायिकां सम्वदढ नहीं हो सकती । स्वाधीनपतिका नायिका 


कारिका ६ | दादशोऽध्यायः २३७७ 


केवल स्वकीयादहीहो सकती है ओौर भिसारिका केवरं परकीयादही। शेष छहो 


नायिका का सम्बन्ध स्वकीया ओर परकीया दोनो के साथ है ।१ इसी प्रकार उत्तमा, 
मध्यमा ओर अधमा भेद स्वकीया तथा परकीयापर तो घरितदहो सकते है, पर 
सामान्या पर किसीभी स्पमें नरी उससे स्नेह्‌-पूणं हित को आरा रखना अथवा 
अहित की आशंका करना व्यथं है 1 केवर सख्याबृद्धि के विचार से गुणन-प्रक्रिया का 
आश्रय चिलवाड मात्र है, बुद्धि-सगत ओर तकं-परिपृष्ट नही है । 
(ग) नायक-नायिका-भेद आर पुरुष 
नायक -नायिका-भेद निरूपण मे पुरुष का स्वाथं पद-पद पर्‌ अकिति है । नारं 
उसके विङासमय उपभोग की सामग्रीके रूपमे चित्रितकी गहै । एकाधिकनारियो 
के साथ रतिप्रसग तो मानो पुरुष का जन्मसिद्ध अधिकार है। परकीया' नायिका पर 
भी यह्‌ छंछन क्गायाजा सक्तादहै कि वहु पर पुरुपसे प्रेम-सम्बन्व रखती है; पर 
शास्त्रीय आधार के अनुसार उसका परकीयात्व इसी मे है किं वहु अपने पति को स्नेह 
से वचित्त रखकर केवर एक ही पर-पुरुप की वासना-तृप्ति का साधन वने, भरे ही 
स्वय वह पुरुष अनेक स्वयो का उपभोक्ता क्यो न हो । एकाधिक पुरुषो के साथ रति- 
प्रसग करने पर काव्यनास्त्र नारीकोतो कुल्टा" नामसे कुख्यात कर देता दै, किन्तु 
परनारी-रत दक्षिण, धृष्ट ओर शठ नायको के प्रति शास्त्र ने कोई तिरस्कार-सुचक 
भाव प्रकट नही किया ) निस्पन्देह्‌ यह्‌ पुरुप के प्रति अनृचित पक्षपात है । 
तिरपराध भी सौत स्वकीया नाधिका पुरुप के स्वार्थे से विमुक्त नही हो सक्री। 
वह्‌ अपने समादर के किए पति के प्रम कीथिखारिणी है। श्येष्ठाः कटाने का अधि- 
कार उसे तभी.भिरेगा, जब उसे दूसरी सौतं की अपेक्षा पति का अधिक स्नेह प्राप्त 
दै, अन्यथा वह्‌ कनिष्ठा" ही वनी रहेगी--चहे वह्‌ आयुमे ज्येष्ठाभीक्योनदहो, 
ओर उसका विवाह्‌ पहर भी क्यो न सम्पन्नो चुका हो! 
पुरुष के स्वार्थं का एक ओौर नमूना है मुग्धा स्वकीयाः का 'अन्नात्त-यौवना' 
नामक उपभेद । “अज्ञात यौवना मुग्धा" तो नायक के विलास का साधन वनकर सरस 
काव्य का विपय वन सकती है, पर इघर 'साकेतिक चेष्टाजान शरन्य अनभिन्ञ' नायक 
१ सस्छृत के काव्यश्चास्तो में हेमचन्द्र के काव्यानुशासन (पृष्ठ ३७०) मे परकीया 
कौ केवर तीन अवस्थाएं मानी गई है-- विरहोत्कण्ठिता, विप्ररुव्धा तथा अभि- 
सारिका, मौर शारदातनय के मावप्रकान्च (पृष्ठ ९४, प० ११.१४) मे अन्या 
(वेश्या) कौ केवल तीन भवस्थाए-- विरहोत्कण्ठिता, अभिसारिका ओर विप्र 
चब्धा । पर इन आचार्यो की ये धारणाए्‌ भी तकं कौ कसौटी पर पुरी नहीं 
उतरतीं 1 परकीया को अन्य अवस्थाएं मी सम्मवरहै, मौर वैद्या की उपर्वाणित 
-अवस्थाओं मे से हमारे विचचार में एक मी जनस्था सम्मव नहीं है । 


३७८ कान्यालद्ुार [ कारिका ६ 


का वर्णेन्‌ कन्य मे रसाभास का विपय माना गया: मनभिनौ नायकौ नायकामास 


एव ।' (र०मं० पृष्ठ १८७) आखिर भन्नातयौवना कै यौवन के साय यह्‌ खिवाड क्यौ ? 
नारीकीदुर्दनाकाएक हव्य गौर) यहु पृरूपकादही साहयहो सकतादहैकि 
रात-भर पर-नारी के साथ उपभोगके उमरान्त प्रातःकाल होते ही रतजमये के कारण 
अखि म छलमा धीर नारी-नेच्र-चुम्बन कै कारण गष्टोमे काजक्की कालिमा 
तथा अन्य रति-चिह्लो के साथ स्वकीया के सम्मुख दीठ वनकरबा खडादो जाए, गौर 
तमा' नायिका को इतनाभी अधिकारनदटौ कि वहु उसके भनिष्टकीजरा भी 
कल्पना कर सके, बन्यथा वह्‌ 'मव्यमा' यथवा भवमा" कं निम्न स्तर परजा गिरेगी। 
आचार्योने एेमी पीडितः नारियो को मान करने का अधिकार अवदय दिया 
है । पर इसमे भी पुरुप कास्वा्थं छिपा हुमा है । रिरसा-पू्तिके किए पादस्पर्गन- 
पूर्वक नायिका को मनना नायक को भीर्‌ भी अधिक अनन्ददेतादहै। वीरा, मवीरा 
गौर धीयधीरा नायिकायो के मानमिध्रित विभिन्न कोप-प्रद्ननौ मे भी नायक विभिन्नं 
प्रकारके सुखो का अनुभव करता) वक्रोवितिगविता' भीर्‌ 'सीन्दर्यंगविता' नायि- 
काओ का गवं इन नायिकां को मानसिक दान्तिदे अथयवातदे, किन्तु नायक की 
वरानना को प्रदीप्त करने का साधन ववद्य वन जाता) इन मान-प्रदर्ननो मौर 
गर्वोचितयों से नायक की रिरंसा भौर भी अधिक वेगवती हो उघ्तीहै। 
मानवती नायिका चाहु जितनाभीतडपार, किन्तु शास्त्रीय इष्टिकोणसे 
यन्तम रमे मान की शान्ति अवच्य कर छेनी चाहिपु, अन्यथा काव्य का यह्‌ प्रसमं 
रसाभास गीर मनीचित्य का विषय वन जाएगा : अस्ताव्यस्त रसाभास्च. । (र० म० पृष्ठ 


. ८३) आवेगाविक्य के वगीभरूत दोकर यदि वह्‌ क्रोध मं भाकर नायक को कभी वाहर 


निकाल देतीदहै तो उक्षके चरु जनके वाद कलहन्तरिताके रूपम पद्चात्ताप 
करना भर संजखकानामीनायथिकाके ही (भाग्यःमे लिखा है । भटा चेचारे' नायक का 
यह "सौभाग्य" कहाँ कि वह्‌ पश्चाताप की अरिनिमे नरछसतता फिर । "खण्डिता ओर 
'अन्यस्तम्भोगदर जिता" वनना भीनायिकाके कछाटमे च्खिदहै, मौर 'कूर' नयिककी 
वासना का शिकार वनकर नखक्षत, दन्तक्षत वादि जन्य पीड़ा कास्द्यकरना भी । 

इसी प्रसंग के प्षम्बन्धमे एक वात भौर ! काव्यशशचास््रने पृरुपको तो चेत्ता- 
वनीदेदी टै कि अमुक नारियं सम्भोगके निए वर्ज्याः हु, पर पृष्पोकी एसी सूची 
प्रस्तूत न कर काव्याचार्योनेनारीकी कोम भावनाओं को ठं पहुचाने का बधि- 
कार वर्ज्यं गौर अवज्यं दोनो प्रकारके पुरूपोको प्रकारान्तरसेदेदिया रहै) पृरुषके 
हाथमे छेखनी हो गीर वह्‌ नायक्र-नायिका-भेद जसे निरूपण में अपनी स्वा्थ॑सिद्धिकी 
पर्ति के किए सिद्धान्त-निर्माणनकरे, पेपर भवस्तरते हाथयौ वैठनाभीतोकम 
दुभग्यि" का विपय न होता !, 


कारिका ७-६ | हादशोऽध्यायः २३७९ 


श्रज्वारश्च नायकाश्रय इति तस्य गुखनाह-- 
रत्युपचारे चतुरस्तुद्धकूलो शूपवानरुड्मानी । 
मरग्राम्योज्ञ्वलवेषो जअनुल्बणचेष्टः स्थिरप्रकृतिः 11७1 


सुभगः कलासु कशलस्तरुणस्त्यागी प्रियवदो दक्षः । 
गम्यासु च विस्रम्भो तत्र स्यान्नायकः ख्यातः ॥ठ ।।युग्मम्‌॥। 


= 2. & 


रद्युपचार इति । सुभग इति। सुगमम्‌ । एतेः पोडज्ञभिगु णंयुतो नायकः 
स्त्रीणामभिगम्यत्वाच्छृद्धाराश्रय इति । 
अथैव गुरस्यास्य मेदान्सलक्षानायाचतुएयेनाह-- 
एवं स चतुर्धा स्प्रादनुकूलो दक्षिणः शठो धुष्टः । 
तत्र प्रेम्णः स्थंर्यादनुक्‌लोऽनन्यरमणीकः 11 €॥ 
[ उपर्णुक्त सर्वेक्षण से यह्‌ एक वात तो स्पष्ट है कि सद्रटक्ता यह्‌ प्रकरण विषय- 
सामभ्रीकी रष्टि से बहुविध तथा प्रतिपादन की हष््टि से स्वच्छ एवे व्यवस्थित है । 
इनसेपुरवं यह प्रररण यद्यपि केवल भरत के नाटयश्चास्त्र में ही उपलन्ध है, तथापि इन 
दोना प्रकरणो को देखते हए यह अनुमान लगाना सहज है किं या तो किन्हीं अप्रख्यात 
अतएव विलुप्त ग्रन्थो में इस प्रकरण कौ चर्चा होती रही है, या फिर यह विहद्‌गोष्वियों 
का विषय बना रहा है । अस्तु [1] 
मार्थक 
रति-उपचार में चतुर, कुलीनः रूपवाच्‌, नीरोग, स्वासिमानी, सुन्दर ओर 
उज्ज्वल परिधान धारण करने वाला, सौम्य-चेष्टाभों से युक्त, स्थिर-प्रकृति, एेक्वयं- 
वाच्‌, कलाओं मे दक्ष, तरुण, त्यागी, मधुरमाषी, चतुर तथा गम्या नारियों का विद्वासं 
फरने वाला च्यवित श्णृज्खाररस का नायक होता है 1७-त। 
नायक केभेद्‌ 
नायक चार प्रकार के होते है - अनुकूल, दक्षिण, ३ठ ओौर धृष्ट । 
सद्रटसे पूवे भरत ने नायक-भेदो का उल्छेख किया है, किन्तु रद्रट-प्रस्तुत ये 
चार भेद उनमे परिगणित नही है । 
१. अनुद्ुल-- . 
प्रेम एवं स्थिरतासेएकही नायिकामें रमण करने वाला नायक अनुकल 
[कहता | है ।£। 


# १ 


२८० कान्यालुद्भूारः | कारिका १०-१४ 


खण्डयत्ति न पू्वेस्यां सद्भावं गौरवं भयं प्रेम । 
प्रभिजातोऽन्यमना श्रपि नार्या यो दक्षिणः सोऽयम्‌ ।१०॥ 
वविति प्रियमभ्यधिक यः कुर्ते विग्रियं तथा निभृतम्‌ । 
ग्राचरति निरपराधवदसरलचेष्टः शठः स इति ।११॥ 
कृतविप्रियोऽप्यजङ्को यः स्यान्निभं त्सितोऽपिन विलक्षः । 


प्रतिपादितेऽपि दोपे वक्ति च मिथ्परेत्यसौ धृष्टः ।१२॥ 
एवमिति । खण्डयतीति । वक्तीति । कृतेति । गताथम्‌ ॥ 

प्रथ तस्य नमसचिवः क्रीडास्ह्ययो मवति, तस्य चौ गुरा. । तानाह- 
भक्तः संवृतमस््रो नमंणि निपुणः शुचिः पट्र्वाग्मी । 


चित्तजन. प्रतिभाववांस्तस्य भवेन्नमंसचिवस्तु ॥ १३ 
भक्त इति 1 गतार्थर्या ॥ 

प्रथं तस्येव मेदानाह-- 

त्रिविधःस पीठमर्दः प्रथमोऽथ विटो विदषकस्तदनु । 
नायकगुणयुक्तोऽथ च तदनुचरः पीठमर्दोऽत्र ।१४।। 


क किणो 0 नोना जनी नाकच 


जो अन्य नायिकासे प्रेम आदि करने पर मी अपनी पहली नायिक्ना में सद्माव, 
गौरव, प्रेम एवं मय को खण्डित नहं करता वह्‌ दक्षिण नायक कहुलाता है 1 १०। 
३. लठ- 

अत्यविक श्रिय बोलता हुआ भी जो दिपकर अप्रिय करता है, कुटिल व्यवहार 
करता हज भी जो निरपराधवत्‌ आचरण करता है वह्‌ शठ नायक कहता है 1११ 
४, धृष्ट-- 

जो प्रिया का अप्रियं करके भी निःशङ्क होता है । अत्यधिक भत्संना के उप- 
रान्तभीनजो निलज्जहो) अपराध करनेकेवादमी जो मिथ्या नोल्ताहै वहु धृष्ट 
नायकं है ।१२। 


नम॑सचिव (नायक का सहायक्र) 
भवेत, शूढ मन््णा देनेवाला, क्रीड़ा में निपुण, पवित्र, चतुर, वाक-कुशल, चित्त 
को मापने वाला, प्रतिभावान्‌ (च्यर्वित) उसका नमं सत्तिव (क्रीडासहाय) होत्ता है \ १३ 
नमं सचिव तौन भकार का होता है-पीठमदे, विट ओर विडूषक । नायक 
का वह॒ अनुचर जो नायक के गुणों से युक्त हो पीठमर्द कहाता है 1 १४1 


कारिका १५-१६ | दादरोऽध्याय. २३८१ 


विट एकदेशविद्यो व्िदूषकः करोडनीयकप्रायः । 
निजगरुणयुक्तो मूर्खो हास्कराकारवेषवचाः | १५।। 
त्रिविध इति विट इति । गता्थमायद्रयम्‌ ॥ - 
अथ नायिकानां सरूपं मेदाग्रमभैदांश्च मेदप्रभेदस्वरूपं चाह- 
प्रात्मान्यसवेसक्तास्तिस्रो लज्जान्विता यथोक्तगुणः । 
सचिवगुणान्वितसख्यस्तस्य स्युनयिकाश्चेमाः ।1 १६। 
सुचिपौराचाररता चरित्रररणाजंवक्षमायुक्ता । 
प्रात्मीया तु त्रेधा मुग्धा मध्या प्रगल्भा च ।॥१७।। 
मुग्धा तत्र॒ नवोढा नवयौवनजनितमन्मथोत्साहा । 
रतिनपुणानभिनज्ञा साध्वसपिहितानुरागा च ॥1१८॥ 
तत्पे परिवृत्यास्ते सकम्पमालिङ्खनेऽद्ध मपहरति । 
वदनं च चुम्बने सा पृष्टा बहुरोऽस्फूटं वक्ति | १६॥। 


जिसने नायक के साथ ही एक स्थान पर शिक्षा पाई हो, उसे विट कहते ह । 
विदूषक वह होता है, जो [नायक का मनोरंजन परने फे कारण] उसका 
चिलौने-सद्श्च हो 1 उसमें अपने चिरिष्टणुण भीहों, जो मखं हो, मौर जिसका 
भकार, वेष गौर वचन हंसने वालाहो 1१५ 
नायिका 

उस नायक कीये तीन नायिकाएं होती है--मात्सीया, अन्या ओर सवं- 
सक्ता 1 ये सभी लज्जाक्ीला होती है । इनके गुण [इनके नासोंसेही] प्रकट है। 
इनकी सलियां होती है जो सचिव (मन्त्री) के गुणो से युक्त होतो है \१६। 
४. आत्मीया 

आत्मीया नायिका पविन्न, नागरिक आचारव्यवहार मे निपुण, सील, दया, 
सरलता, क्षमा आदि [गणो से] युक्त होती है ! यह्‌ तीन प्रकार की है--सुग्धा, मध्या 
भौर प्रगहमा \१७\ 
(क) मुग्धा-- 

मुरा नायिका नव-विवाहिता, नवयौनन में उत्पन्न कासचासना में उत्साह्‌- 
युक्ता, काम-कोड़ा को कानों से अनभि होती है । भय के कारण उसका अनुराग 
स्पष्टत्तया प्रकारित नहीं होता । 

शय्या पर जो घुमकर वंठती है, मालिङ्कन कै समय कापती है तथा अंगों फो 


२८२ कान्यालद्खुारः [ कारिका २०-२४ 


ग्रन्यां निषेवमाणे सा कुप्यति नायके ततस्तस्य | 
रोदिति केवलमग्रे मृदूनोपायेन तुष्यति च ।२०॥ 
प्रारूढयौवनमभरा मध्याविभू तमन्मथोत्साहा । 
उदिभिन्नप्रागंलभ्या किचिद्धृतसुरतचातुर्या ॥२१॥ 
व्याप्रियते सायस्ता सुरते विरतीव नायिकाङ्केषु | 
सुरतान्ते सानन्दा निमोलिताक्षी विसृुदह्यति च ॥२२॥। 
करुप्पति तत्र सदोषे वक्रोक्त्या प्रतिभिनत्ि तं धीरा । 
परुषवचोभिरधीरा मध्या साखंस्पालम्भेः ।॥२३।। 
लन्धायततिः प्रगल्भा रतिकसंणि पण्डिता विथुदेक्षा। 
ग्राक्रान्तनायकमना निन्य ढविलासविस्तारा ॥ २४ 


सिकोड ऊती है, मुख-चुस्बन के समय कख पुने पर प्रायः अस्पष्ट बोलती है 1 

नायक हारा क्रिस्ती अन्य [नारी का सेवन किए जने पर वहु कद्ध होती 
है। केवल उसीके आगे होतीहै तथा साधारण उपायों से प्रसन्न हो जाती 
है 1 १८-२० 1 
(ख) मध्या-- 

जो यौवन के उत्कषं पर आरूढ हो, जिसमें कामविषयक उत्साह का आवि- 
मविहो चुका हो तथा गम्मीरता भी उत्पन्न हो गई हो, निप्रमे कु-कुख र ति-नपुण्य 
मौ जा गया हो, आकलिगन मे आबद्ध होकर पीडित होना जिसे अधिक रुचिकर न कगे, 
जो सुरत-क्रौडाके समय नायकके अंगों प्रवि्ट-सी होती जाती है ओर चुरत फे 

स्त में आनन्द मेँ इी हुई आंखों को वन्द किये विमोहित-सी हो रही होती है, उसे 

सध्था नायिका कहते है \२१-२२) 
धी रा-अधीरा (मध्या)- 

जो मध्या नायिका नायक के अपराध करने पर वक्रोक्ति हारा उसे कोसती है 
वहु धीरा होती है, ओर जो जसु बहाकर, कठोर वचनां ओर उपालम्भो से [ कोसती 
है] बह अधीरा होती है ।२३। 
(ग) प्रगत्मा- ॥ 

जिसे [ रति-विषयक | निस्वृत ज्ञान हो चुका है ओर रति-कूमं में जो निपुण, 
समयं एवं दक्ष है 1 नायक के मन को अपने अघीन करने बालो तथा नाना रति- 
विक्तासो मे माग लेने वाली नायिका को श्रगत्मा' की संज्ञादवी गयी है ।२४। 


कारिका २५-२९ | , द्वादशोऽध्यायः ३८२ 


सुरते निराकुलासौ द्रवतामिव याति नायकस्याङ्के । 
नच तत्र विवेक्तुमलं कोऽयं काहु किमेतदिति ।॥२५॥ 
तत्र कुपितापराधिनि सवृत्याकारमधिकमाद्वियते | 
कोपमपहुनूत्यास्ते धीरा हि रहस्युदासीना ।२६।। 
मध्या तु साधुवचर्नस्तमी दृशं प्रतिसिनत्ति सोल्लुण्ठेः 
ताडयति मंक्ष्वधीरा कोपात्संतज्यं संतज्यं ।२७॥ 
ज्येष्ठकनिष्ठत्वेन तुपुनरपि मध्या हिधा प्रगल्भा च। 
मुग्धा त्वनन्यभेदा काव्येषु तथा प्रसिद्धत्वात्‌ ॥२८।। 
दाक्षिण्यप्रेमभ्यां व्यवहारो नायकस्य कायेषु | 


द्ष्टस्तयोरवध्यं सन्नपि न पुनभंवो भेदः ।२६९॥ 


वह्‌ युरत-करीडा में निराकुल (स्वस्थ) होती है, नायक के अद्धो मे फिसल्ती- 
सी, प्रविष्ट करती है ! वह्‌ थोडा मी विवेक नहीं कर पाती कि यह्‌ कौनदहै, मै कौन 
है, ओरक्पाहये रहा है 1२५ 
धीरा प्रगल्भा- 

धौरा [प्रगल्भा] नायिका श्रपराधी नायक के प्रति कुपित होकर भी अपने 
भाकार से वेसा प्रकट नहीं होने देती, प्रत्युत उसका अधिक आदर करती है । क्रोध 
को छिपाकर वेह एकान्त मे उदासीन रहती है ।२६। 

ठेसा प्रतीत होता है कि यहाँ मध्या" पाठ अश्युद्ध है, इसके स्थान पर धीरा 
पाठ होना चाहिए 1 
धीरा-अधीरा (प्रगल्भा)- 

धीरा [प्रगत्मा ] नायिका व्यद्धचपुणं [किन्तु] मृदु व्चनों्ेही उसे एेसा 
कोसती है, क्रिन्तु अधीरा नायिका क्रोध में उसे सिडक-क्षिंडककर पीरने मो ठ्ग 
जाती है 1२७। 
ज्येष्ठा-कनिष्ठा- 

ज्येष्ठा जर कनिष्ठा भेद से मध्या ओर प्रगट्मा दो-दो प्ररारकती होतीर्ह। 


; सुग्धा का कोई भेद नही है, जसा कि काव्यो में प्रसिद्ध है ।२८। 
` नायक-व्यवहार-- 


4 


कान्यो.मे नायक का व्यवहार दाक्षिण्य ओर प्रम [इनदोल्पोमे] देखने 


- भे आता) इस्त [दाक्षिण्य मौरप्रेम की] दृष्टिसे जन्यन्नेदहो सक्ते, किन्तु 


३८४ काव्यराखन्ुारः [ कारिका ३०-३४ 


परकीया तुद्रेधा कन्योढा चेतिते हि जयिते। 
गुरुमदनातं नायकमालोक्याकण्यं वा सम्यक्‌ |३०॥। 
साक्षाच्चित्रे स्वप्ने स्यादशेनमेवमिन्तरजाले वा | 
देशे कलि भद्लया साधु तदाक्णेनं च स्यात्‌ ।३१॥ 
द्रष्टुं न समुखीनं कन्या शक्नोति नायकं हृष्टा । 
ववेतु न च ब्रृवाणं वक्ति सखींतं सखी चासौ ।३२॥ 
पद्यत्यवीक्षमाणं मुस्निरधस्फारलोचना सततम्‌ ! 
दू रात्पदरयति तस्मिन्नालिगति वालमङ्धुगतम्‌ ।३३॥ 
श्रनिमित्तं च हसन्ती सादरसाभापते सखी किमपि । 
रम्यं वा निजमगं सन्यरपदेगं प्रकारायति।1३४।। 
काव्यो मे नहीं भते ।२६। 
९. परक्रीया 
परकीया से प्रकार की है--कन्या भीर विवाहिता । नायक को देखकर अथवा 
उसके विषय में सुनक्तर ये दोनो कासदेव से यति पीडति हो जात्ती ह 1३०। 
नायक-दर्गन के साव्रन-- 
[नायक का] दर्शन [इन चार रूपो में हेता है--] साक्षात चित्र मे, स्वप्न 
मे मीर इन्द्रजान अर्थात्‌ जादू फे बरं पर! उसके विषयमे भली प्रकार से श्रवण इन 


तीन रूपों में होता है--द्िसती स्यान विद्चेष मे, किसी विज्ञेप गवंस्तर पर भीर किसी 
चिक्ञेष भद्धी अर्थात्‌ उपाय से 1३१ 


कन्या -- 

[ नायक फे दश्चन से] हप्ति होकर भी कन्या अपने सम्भुख स्थित नायक कं 
देखने मे समथं नहीं होती ओर नही चहु उसकी चातो का प्रव्युत्तरदेपतीहै। वः 
अपनी वात सखी से कहती है मौर सखी उस [ नायक] से कहती है ¦ 

न देख रहै नायक को कपातार प्रेममरे स्फारित नयनों से देखती है । उस 
नायक के दूर से देखने पर अपनी मोदीमें स्थित [किसी] चालक को आलिद्धन 
करती है) 

निष्कारण हसती है, अपनी सखी से आदरयुरवंफ दुखं कहती है । किसी वहने 
से अपने रमण-योग्य अंगों को प्रकादित करती है । 


कारिका ३५-३६ | दादशोऽध्याय, ३८५ 


सख्या , पर्यस्तं वा रचयत्यलंकावतंसरशनादि । 
चेष्टां करोति विविधामनुल्बणेरगभगेर्वा ॥३५। 
भ्रन्योढापि तथेतत्सवं कूरुतेऽनुरागसापन्ना । 
लायकमभियुर्क्ते सा प्रगल्मभावेन पुरतश्च 1३६] 
उद्भूतानन्दभरा प्रस्तुतजघनस्थलाद्र वसना त । 
निःष्पन्दतारनयना भवति तदालोकनादेव ॥३७।। 
` कन्या पुनरभियुक्ते न स्वयमेनं गतापि दुरवस्थाम्‌ । 
सुस्तिग्धा तदवस्थां सखी तु तस्मं निवेदयति ॥३८॥ 
सर्वगना तु वेद्या सम्यगसौ लिप्सते धनं कामात्‌ । 
निग णगुणिनोस्तस्या न द्वेष्यो न प्रियः करिचत्‌ ॥३९॥ 


विखरे, अस्त-ग्यस्त श्रथवा शिथिल केश, कणंभुषणः रशना आदि को सचि 
हारा ठक कराती है, तथा अपने अगो की सौस्य भद्धियों हारा अनेक चेष्टाएं करती 
है 1३ २-३५॥ 
उढा-- 

[परकीया नाथिक्ता का] जन्य [मेदं है] अंडा अर्थात्‌ विवाहिता । [नायक 
के] प्रेम को प्राप्त होने पर थह [ उपयु क्त ] सब कुछ वसा ही करती है । बह प्रौढ़ 
भावसेही नायक फे सामने होकर उसमे सस्मिलन करती है। 

नायक के देखने मात्रसे ही यहु नायिका अत्यधिक आनन्द से मर जाती है) 
इसका जधनस्थल विलन्न हो जाता है, खेद के कारण वस्त्र गीलेहो जातेर्हँ ओर 
आंखे मपलक रह जाती है । 

हस प्रकार की बुरी अवस्थाको प्राप्त भी क्त्या स्वयं कभीभी नायक के 
पास नहीं जाती, अपितु उसको सखो ही उस नायक को उसकी यह्‌ सब दशा निवेदित 
करती ह 1३६-२३८॥ 

र, वेश्या 

सवेसाधारण की श्रिया स्त्री वेश्या फहाती है । वह एकमात्र धन ही चाहती 
है । अतः कोई गुणी व्यव्तिन तो उसे श्रिय होता है भौर न मूलं अग्रिय 1 

गम्थ (जिस पुरुष फे पासं धनं एवं यौवन को देखकर अपने प्रति गम्य 
मर्था रमण-योग्य समक्षती है उत्त) पुरुष फो देखकर बहु उसे अनुरक्ता की भांति 


३८६ काव्यालङ्धारः [ कारिका ४० 


गम्यं निहप्य सा स्फुटमनुरक्तेवाभियुज्य रञ्जयति । 
प्राङृष्टस॒कलसारं क्रमेण निष्कासयत्येनम्‌ ॥४०। 


आस्मेत्पाचार्यापञ्चविरदातिः सुगमा न वरम्‌ । आत्मीया परकीया वेश्या चेति 
मुरभेद्रयम्‌ । आत्मीया च, मुग्धा मध्या प्रगल्भा चेति पुनस्त्रेधा 1 पुनदच मध्याप्रगत्भ- 
योर्धीराधीरा मध्या चेत्ति प्रत्येकं भेद्यम्‌ 1 पुनरच ज्येष्ठाकनिष्ठात्वेन मध्याप्रगल्भयो- 
भेदद्टयम्‌ । मुग्धा त्वेकभेदेव ! काव्येषु तथा प्रसिद्धे. । अक्षतयोनित्वात्पुनविवाहिता 
पुनर्‌" 1 परकीया, कन्या परिणीता चेति द्िभेदा । वेद्या त्वेकरूपेवेति । तल्लक्षणं च 
स्वयं योजनीयमिति ॥ 

| ता एवाधीतपतिर्वासिकिसज्जाभिसारिकोत्का च । 


ग्रभिसंधिता प्रगल्भा प्रोपितपतिखण्डिते चाष्टौ ।१।। 
यस्याः सुरतविलासं राकृष्टमनाः पतिः स्थितः पाश्वे ! 
विविधक्रीडासक्ता साधौीनपतिभंवेत्तत्र ।२॥ 
निर्चित्तदयितागमना सज्जितनिजगेहदेहशयनीया । 
ज्ञेया वासकसज्जा प्रियप्रतीक्षेक्षितद्वारा ।३॥ 


प्रसन्न फरतौ है 1 उसके सम्पूणं सार (धन) को निचोड़कर उसे बाहर निकाल देती 
है ।३६-४०। 

इसके उपरान्त पद्यसख्या ४०-४१के वीच १४ पद्य प्रक्षिप्त माने गये ह :- 
अष्ट नायिकाए-- 

इन नायिकां ते से पत्येकं फिर आठ प्रकार की होती है--१-अधीन- 
पतिका, २- वाक्तकसज्जा, २--अभिसारिका, ४-- उत्का, ५. अभिसन्धिता ६- 
प्रगल्भा, ७- प्रोषितपतिका, ८- खण्डिता ।१। 
१, अघीनपतिका- 

जिसके सुरत आर हावभाव आदि विलासो से अष्ट होकर पति उसके पास 
रहे, नान! काम-क्रीड़ाजों मे आसक्त एेसौ नायिका फो अधीनपतिका कहते है 1२ 
२. वासकसज्जा-- - 

जो नायिका अपने प्रिय के गमन के विश्वास से अपने घर, श्षरीर आर 


शय्या को आाभूषित करके श्रिय कौ प्रतीक्षा में हारदेश को देखती रहती है, उस नायिका 
को वासकसज्जा कृते ह ।२। 


कारिका ४० | ढादश्ोऽध्यायः ३८७ 


ग्रभिसारिकेति सेयं लज्जाभयलाघवास्यनालोच्य | 
ग्रभिसरति प्राणेदं मदनेन मदेव चाकृष्टा ।}४]। 
नोपगतः प्राणेशो गुरुणा कार्येण विघ्नितागमनः। 
यस्याः कि तु स्यादित्याकूलवचित्तेत्यसावृत्का ।५॥ 


ग्रनुनयकोपं कृत्वा प्रसाद्यमानापि न प्रसन्नेति । 
यस्या रुषेव दयितो गच्छत्यभिसधिता सेयम्‌ ॥६॥। 


यस्या जीवितनाथः संकेतकमाव्मनेव दत्त्वापि । 
नायात्युपागतायां तस्यामिति विप्रलब्धेयम्‌ ।७॥ 


सेयं प्रोषितनाथा यस्या दयितः प्रयाति परदेशम्‌ । 


दत्तवावधिमागमने कालं कार्यावसानं वा ।८। 


३. अभिसारिका- 

जो नाथिक्रा ज्जा, भय ओर [ भानी ] अपमानादि कौ चिन्ता छोडकर काम 
ओर यौवन-मद फे अधीन होकर अपने प्राणवत्लम के पास अभिसरण करतो है- 
छिपकर जाती है, उसे अभिसारिका कहते है \४। 
४. उत्का- 

श्राणश्न नहीं जये, किसी आवश्यक कार्यसे नहीं जा स्केहोगि, स्या 
कारण हो सकता दहै इस प्रकार फी चिन्तां से व्याकुल नायिका को उत्का कहते 
ह \५। 
५. अभिसन्धिता-- 

वहं नायिका 'अभिसन्धिता' कहाती है, निसक्ता प्रिय उसे अनुनय हारा कोप- 
प्रदश्लन से मनाए, कन्तु फिरमभीनजोप्रसन्नन हो ओर उसका प्रिय मानो उसके रोष 
से घर छोडकर चला जाए ।६। 
६. विप्रक्न्वा- 

जिसका प्राणाधार स्वयं संकेतस्थान बताकर भी न आए उस संकेतस्थान पर 
माने वाली [निराश ] नायिकाको विप्रलन्धा कहते हँ 1७ 
७. प्रोषितपतिका- 

जिसका पति परदेश चला जाए ओर 'अपने वापस आने कौ अवि अथवा कार्यं 
को समाप्ति पर लौटने कौ बात कह जाए, उन्न प्रोषितपतिका कहते है !८। 


। "कु 


२३८८ काव्यालन्ुरः ` [ कारिका ४० 


कार्यान्तरकृतविघ्नो नागच्छत्येव वासकस्थायाः । 
तस्मिञ्जीवितनाथो यस्याः सा खण्डिता ज्ञेया ।|६£॥ 
पुनरन्यास्तास्तिललः स्न्त्युत्तममध्यमाधमाभेदात्‌ । 
इति सर्वा एवेताः शतत्रयं चतुररीतिश्च।१०।, 
प्रपराधे प्रमितं या कुप्यति मृश्चति च कारणात्कोपम्‌। 
स्निह्यति नितरां रमणे गुणकायत्सित्तमा नेया ॥११॥ 
प्रालोच्य दोपमत्पं कुप्यत्यधिक प्रसीदति चिरेण । 
स्निग्धापि कारणेन च महीयसा मध्यमा सेयम्‌ ॥१२॥ 


स्निह्यति विनापि हतुः कृप्यत्यपराधमन्तरेणंव 1 
स्वल्पादप्यपकारादहिरज्यते साधमा प्रोक्ता ।॥१३। 


| 


0 षो ाीणौरोिीपिरिीषपरीषीरकषेरीपीीीि = 


८, सण्डिता- 

घर मे पति फे लौटने फो प्रतीक्षा में स्थित जिस नायिका का पति फिसी काम 
केभाषडनेसे नहीं आ पाता, उसे खण्डिता फते ह ।&। 
अन्य भेद- 

ये नायिकां फिर तीन प्रकार की है--उत्तमा, मध्यमा भीर भधमा। हत 
प्रफार एनके समस्त भेदो फी संस्था ३८४ हो जती है ।१०। 

(देखिए पृष्ठ १७६-३७७) 

उत्तमा- 

जो नायिफो अपसध होने पर थोडा फूपित होती है, भीर फारण वतन पर 
क्रोध फा स्याग फर देती है, एवं (पति फे) गुणों के कारणं उसभ अत्यन्त प्रेम करती 
है, उसे उत्तमा नायिका जानना चाहिए ।१९। 
मध्यमा- 

वह्‌ नायिका मध्यमा कटूती है जो भोडी-सी त्रुटि देखफर अधिक क्रोध फरती 
ट! बहुत वेर से प्रसन्न होती टै भीर फिसी बडे कारणस ही प्रेम फरती ई।१२। 
भधमा-- 

वह्‌ नायिका अधमा होती है जो विना किसी कारण के प्रेम फरती है, गप- 
राधे विनाही क्रोध फरती है मौर थोडेसे अपराधसेही ₹ठ जाती है।१३) 


कारिका ४१.४३ | दादललोऽघ्याय' ३८६ 


सम्बन्धिस्तखिश्ोत्रियराजोत्तमवणंनिवंसितदाराः । 

भिन्नरहस्या व्यंगाः प्रत्रजितारचेत्यगस्याः स्युः ।॥१४॥ 
एतारचतुदंशार्या मूले प्रक्षिप्ता. ॥] 

थ स्वात्तामपि संविधानक्वशाद् दान्तरमाह-- 

देधाभिस्रारिकाखण्डितात्वयोगाद्धवन्ति तास्तापु 1 

स्वीया `स्वाधीनपत्तिः प्रोषितपतिका पुनद्रधा ।४१॥ 

[दरषेति] । ताः सर्वा अभिसारिकाः खण्डितारच भवन्ति । अथात्मीयाभेदान्तर- 
माहु-तासु स्वीया, स्वाधीनपतित्वप्रोषितपतिकात्वभेदतो देषा ॥ 
अभित्ारिकिया लक्षरमभिसरणक्रमं चाभिधातुमाह-- 
्रभिसारिकातुसाया दूत्या दूतेन वा सहका वा। 
ग्रभिसरति प्राणेशं कृतसंकेता यथास्थानम्‌ ।(४२। 
काञ्च्यादिरणत्कारं व्यक्तं लोके प्रयाति सवेस्त्री । 


तृष्टितमोज्योत्स्नादिच्छनं स्वीया परस्त्री च ।॥४३। 
इत्यार्याह्ियं सुगमम्‌ ॥ 


॥, 


अगम्या नारिर्था- 


निम्नलिखित स्त्रियां अगम्याः कही गयी है-- सम्बन्धी, भिन्न, वेदपाठी, राजा 
मोर .उत्तम वणं की रितरा, तथा जिन्हें निर्वासित कर दिया गया हो, जिनका इुश्चरित्र 
सरवे प्रकट हो, जिनके अंगों में वक्रता आदि दोष हयँ भौर संन्यासिनी ।१४। 
न्यमेद्‌ - 

ये सभी नाथिकाए्‌ खण्डिता ओर अभिसारिकाभेदसेदो प्रकारकी है । 
| इनमें से] स्वीया (स्वकोया) नायिका के दो भेद ह स्वाधोनपतिका आर प्रोषित. 
पतिका ।४१। 
जभिसारिका- 


अभिसारिका नायिका वह्‌ होती है जो इत श्रथवा इती के साथ अथवा अकेली 
संकेत-स्थल पर श्रपने श्रिय नायक को मिलने के किए गमन करतीदहै। वेष्यातो 
काञ्ची आदि भूषणो को छनछनाती हुई लोक मे सवके सामने हौ [ अपने वैशिक 
से भिलने के लिए] चली जाती है, किन्तु स्वकीया जौर परकीया नायिकाएु, वृष्टि मे, 
घनघोर अंधेरे में [काके वस्त पहनकर ] ओर चांदनी रात सें [इवेत वस्त्र पहनकर] 
चि-छिपे [अपने नायक को ] मिलने जाती हैँ !४२-४३ 


३६९९ कान्यालङ्ारः [ कारिका ४४-४५ 


खरिडतालक्षखमाह-- 
यस्याः प्रेम निरन्तरमन्यासंगेन खण्डयेत्कान्तः । 
सा खण्डितेति तस्याः कथाशरीराणि भूयांसि ।1४४।। 
सुगम न वरम्‌ । तस्याः कथाशरीराणि भूयासि । तेन विप्ररुब्धाकर्हान्तरिते 
अत्रान्तभूते । तल्लक्षण चेदम्‌ । यथा-- 
यस्या दतीं श्रियः प्रक्ष्य दत्त्वा संकेतमेव वा| 
नागतः कारणेनेह विग्रलन्धा तुसा स्पृता ॥ 
ईर्ण्याकलहनिष्क्रान्तो यस्या नागच्छति प्रियः । 
सामषवशसंतप्ता कलहान्तरिता मता ॥ 
एवनिधानि सविधानकवश्षाद्ध यास्ति कथादारीराणि तस्या भवन्ति । तत्व 
यदुक्तं भरतेन 1 यथा- 
तत्र॒ वातसतफसज्जा च विरहोक्कण्ठितापि च। 
स्वाधीनमनतृ का चापि कठहान्तरिता तथा।। 
खण्डिता विप्रलन्धा च तथा प्रोपितर्भचरका। 
तथाभिसारिका चेव इत्यष्टौ नायिकास्मरृताः ॥ 
तदत्रापि सगृहीतम्‌ ॥ 
साधीनपतिग्रो पितपतिकयोलक्षणमाह-- 
यस्याः पति रायत्तः क्रीडासु तया समं रतौ मुदितः, 


सा स्यास्स्वाधीनपत्ती रतिमण्डनलालसासक्ता ॥४५।। 


[ ~+ .-----* 1 ता 1 भ 


[क । रे 


खण्डिता- 

जिसके अनन्य प्रेम को नायके किसी अन्य स्त्री में आसक्त होकर खण्डित कर 
दे उसे खण्डिता नायिका कहते है । इस विषय मे बहुत-सी कथाएं उपलब्धं हे \४४। 

इसी प्रसग मे नमिसाधु ने विप्रकव्धा गौर कलहान्तरिता के लक्षण निम्नोक्त 
रूप मे प्रस्तुत किये है-- 

(१) जिसका प्रिय दतती को देखकर अथवा संकेत देकर भी [किसी] कारण 
से नही पहंच सका वह्‌ विप्ररुन्धा कहाती है । 

(२) जिसका प्रिय ईरप्ां अथवा कलह के कारण [घरसे] निकला हृभा 
[वापस] नही भा रहा, भौर जो क्रोध से सन्तप्तं है वह्‌ कलहान्तरिता कहाती है । 
स्ताघीनपतिका-- 

सुरतान्द की लालसा में आप्तक्त निस नायिका का पति उसी के साथ समन 
रूप से रति-क्रीड़। में प्रसन्न रहता है बहु स्वाधीनपतिका है ।४५। 


कारिका ४६-४७ | ढादशोऽध्यायः ३६१ 


सा स्यास्प्रोषितपत्तिका यस्या देचान्तरं पतिर्यातः । 
नियतानियतावधिको यास्यति यत्येत्युपेष्यति च ॥(४६॥ 
सुगमम्‌ ॥ 
प्रथाध्यायमुपसंहरम्नन्यथाकरण निषेधमाह- 
इति कथितमशेषं लक्षणं नायकाना- 
मनुगतसचिवानां हीनमध्योत्तमानाम्‌ । 
ग्रतिरसिकतयेदं नान्यथा जातु कूर्यात्‌ 
कविरविहतचेताः साधुकाव्यं विधित्सन्‌ ।।४७।। 
प्रकटाथंमेव ।। 


इति श्रीशद्रटङृते काव्यारुकारे नमिसाधुविरचितटिप्पणसमेतो 
हादशोऽध्यायः समाप्त. । 


"^ 90.22.423 


प्रोषितपत्तिका- 
जिसका पति निश्चित अथवा अनिक्षिित अवधि के जिए देशान्तर को चला 


गया है अथवा जाने वाल्ला है अथवा जा रहा है अथवा वापस अनि वाला है, चह 
नायिका प्रोषितपतिका कहलाती है ४६१ 


७. उपत्तंहयर्‌ 

इस प्रकार हीन, मध्यमं एवं उत्तम नायको तथा उनके अनुगतो एवं सचिवों 
के सम्पुणं लक्षण कह ध्रिये ह ! यह इसक्एि किया गया है कि कहीं साधुकान्य की 
रचना करने की इच्छा करने वाला कोई स्थिरचित्त कवि अत्यधिक रसिकता के कारण 
कदाचित्‌ कुच अन्यथा न कर बैठे 1४७ _ 


इति “अंदयुप्रभा'ऽऽखस्य-हिन्दीन्याख्यायां दादशोऽध्याय. 
समाप्तः । 


व्रयोदरोऽध्यायः 


संभोगः संगतयोरिति वचनात्संपके एव नायकयोः श्रद्वासे न त्ालोकनाद 
इत्याशङ्कयाह-- 
ग्रस्योन्यस्य सचित्तावनुभवतो नायकौ यदिद्धमुदौ । 


ग्रालोकनवचनादि स सवः संभोगश्पुगारः ।१॥ 
अन्योन्यस्येति । नायकौ दंपती सचित्तौ तुल्यमानस्ी यदालोकनवचनोद्यानविहार- 
पुष्पोच्चयजलक्रीडामधुपानताम्बरलसुरतादिकं परस्परसंवन्ध्यनुभवत. स सर्वः, न तु 
निधुवनमावरं सरं भोगशुद्धार इति । प्रवासविप्रखम्भस्य संभोगनु ङ्खारत्वनिपेधाथेमाह--इ- 
उमुदावित्ति । प्रमुदितावित्यथः । 
त्रथात्य सम्मोगशब्रारस्यानुमवमाह-- 
तत्र॒ भवन्ति स्त्रीणां दाल्लिण्यस्नेहसौकूमार्याणाम्‌ । 


प्रविरोधिन्यश्चेष्टा देशो काले च सर्वासाम्‌ ॥२॥ 


त्रयोदश अध्याय 


इत श्रभ्याय मे सम्भोग श्रह्गार के वरन के त्रन्गत सम्भोग शगार का 
स्थान निर्दिए किया गया है, नारियों की विभिन्न दशार्श्रो एव" चष्टश्नो का 
वणन किया गया है, नवोढार्श्रो का सरूप बताया गया है" नायके को कुश्चलता- 
पूवक श्राचरण॒ काने त्रोर श्रनतमें करवि्योक्रो प्राचीन कर्र्योकरा च्रनुकरण॒ 
करने का उपदेश दिया गया ह | 
£. सम्भोग यार का सेल्प 

तुल्य भन वाले, प्रमुदित नायक तथा नायिका जिस पारस्परिक आल्ोकन, 
सम्माषण आदि का अनुभव करते है वहं सव सम्भोग श्णृद्धार कहाता है 1९1 

नमिसाधु ने भादि" से तात्पयं लिया है--उचान-विहार, पुष्पचयन, जलक्रीडा, 
मधुपान, ताम्बूल, सुरत आदि । 

'इद्धमुदौ' (प्रमुदितौ) का प्रयोग करने का तात्पयं यहदहै कि सम्भोगश्यगार 
मे दोनो इस स्थिति मे होते है, किन्तु विप्रल्म्भग्युगारमे नही हौते। 
२. स्त्रियो की दशां एव चेष्टाएु 

चर्हा (सम्मोग श्यृद्धार में) चातुर्य, प्रेम एवं भरदूतासे युक्त समी स्तयं फी 
सभी स्थानों एवं समयो के अनृह्घरं चेष्टाए होती है ।९। । 


कारिका ३-६ 1 त्रयोदशोऽध्यायः ३६३ 


तत्रेति । सुगम त वरमू । दाक्षिण्यमनुवृत्तिः स्नेहः प्रेम 1 सौक्रुमाये मादेवम्‌ । 
देदो वनोद्यानादि" । कालो वसन्तसुरतादिः ॥। 
द्यितचेष्टानुकारे नाम लीला स्जीरां भवतीति द्थयितुमाह-- 
दयितस्य सखीमध्ये चेष्टां मधुरवंचोभिरुचितंस्ताः | 
ललितैरङ्कविकारैः क्रीडन्त्यो वानुकररवन्ति 11३1! 
दयितस्येत्ति । सुगमम्‌ ।। 
तत्रापि तदनुकार्य' यदनुकनु ' श॒शर्यते, न तूल्वरमपि । तदाह-- 
प्रनुकार्यन तु नार्यां यत्परेरणकमं तत्परोक्षं सा। 
ग्नुकूवैती विजह्यन्माधुयं सौकरुमायं च ।1४।) 
अनुकार्यमिति । सुगमं न वरमू 1 तुरवधारणे । नं वेत्यथंः ॥ 
चेष्टान्तरारयाह- 
ग्रपहारे वसनानां -कुचकलकशादिग्रहे रतान्ते च) 
मरन्ति हितानन्दा पुरुषेषु रुषेव वतन्ते ॥५॥ 
अपहार इति । सुगमम्‌ ॥ 
समकालं निन्दन्ति स्यन्ति हसन्त्यहेतु लज्जन्ति । 
प्रस्यन्त्यालिङ्खन्ति च दयितान्भूतेरिवाविष्टाः ।६॥ 
समकाऊमिति । सुगमम्‌ ॥ 
वे स्त्र्या सखियों के मध्य उचित एवं मधुर वचनो से अथवा सुच्दर अंग 
विकारो से कीड़ा करती हई नायक कौ चेष्टा का अन्रुकरण करती है 1३ 
ऋ नायिकाको नायकके साथ की हुई सुरतसे पुवंकी कामचे्टा्भोका 
[सियो फे मध्य सें] अनुकरण नहीं करना चाहिए्‌, षयोकि [ नायक की ] भनुपस्थिति 


मे इस प्रकारकी चेष्टाश्रोंका अनुकरण करने पर वह एक प्रकारसे मधुरता एवं 
सुकुमारता का त्याग कर नैठ्ती है \४। 


[यद्यपि नारियाँ पुरुषों हारा] अपने चस्त्रो के हटाने में तथा [ यहाँ तक कि | 
रतिकमं के अन्त में [मी ] कुच-रूप घट के ग्रहण में हाक आनन्द का अनुभव करती 
है तथापि उन पर [बाहर से] कड होती है ।५। 

[नारियं] भूतो के समान एक ही समय विना कारण निन्दा करतीर्है 


डरती है, हसती हँ, लज्जा करती है, सपने पियो को इर धकेलती है भौर उन्ह 
~ आश्लिगन करती ह ।६। 


३९४ कान्यारुद्ारः [ कारिका ७-११ 


एवमुक्तम्‌ भ्माम्यत्वमनौ चित्यं व्यवहाराकारवेषकचनानास्‌ः (९९1६) इति 
ततेववित्सध्वेवेति द॑यितुमाह-- 

समये त्वरावतीनामपदेषु विभूषणादिविन्यासः। 

भवति गणाय विभाविततत्पयस्मेरितादिरपि ॥७।! 

समय इति । सुगमम्‌ ॥ 

अननुकरूलाचरखं सवत्र दोषत्वेन प्रसिद्म्‌, तस्य विशोषयुरत्वमाह- 

कुर्वन्ति प्रतिकूलं रहसि च यद्यत्प्रियं प्रति प्रमदाः । 

तत्तद्गुणाय तासां भवति मनोभूप्रसादेन ॥८॥। 

कूवेन्तीति । सुगमम्‌ ॥ 

नवोढानां स्वरूपमाह- 

द्ष्ट्वा प्रियमायान्तं तन्मनसस्तेन संवदन्त्यो वा । 

मन्पथजनितस्तम्भाः प्रतिहूतचेष्टास्च जायन्ते ।!€।। 

किमपि भ्रियेण पृष्टास्तस्याथ ददत्यसस्तुतस्येव । 

साध्वससादितकण्ट्यः स्खलितपदंरूतरं वाक्यैः ॥१०।। 

यत्किमपि रहृस्यतमं कणं कथयेसत्प्ियः सखीमध्ये ! 

श्युण्वन्ति स्फारदुशस्तदुदितघनकण्टकस्वेदाः ।। १ १।। 


पेन करि 


आभूषण आदि धारण कर लना ओर विशेष अभिप्राय से सुस्कराना आदि [दोषन 
होकर] गरुण होता है \७1 

स्त्रियां एकान्त सें प्रिय के भ्रति जो-जो प्रतिकूल आचरण करती हैँ उनका यह्‌ 
[ प्रतिक्रल भआचरण | वहु सन काम्देव कौ कृपा से [दोषन होकर] गुण बन जाता , 
है \८1 
२. नवोढात्नां का स्वरूप 

प्रिय मे अनन्य सन वारी नवोढा स्तयां त्रिय को भाता हज (आया हृभा) 
देखकर उसके साथ संप करने मे कामजनित स्तन्धता के कारण चेष्टाहीन-सी हो 
जाती है ।£। 

त्रिय दारा शु पूछने पर वे नचोढाएं मय से रुचे कण्ठ से हुरे-पूटे वाक्यों में 
उत्तर देती है जंसे मानो किसी भपरिचित से बात कर रही हौ 1१०॥ 

यदि नायक सियो भे वीच में उसके कान मे कोई अति रहस्यपुणं बात कह 


कारिका १२-१५ 1 त्रयोदरोऽध्याय ३९५ 


मदनग्याकुलमनसः सकलं तस्याथंमनवग्येव । 
हकारं तदपि मुहुः कुवेन्त्यवधारयन्त्य इव ॥१२॥। 
हृष्टति । किमिति । यदिति । मदनेत्ि । सुगमम्‌ ॥ 

तवपरिणीता वध्वो यत्नादपनीय साध्वसं साम्ना । 
नीता श्रपि विल्म्भं रहः सुनिबेन्धिभी रमणेः।१३ 


प्रेयं॑प्रेय सखीभिर्नीयन्ते वास्वेदम दयितस्य । 

तत्संगमाभिलाषे भूयसि लज्जाहतप्रसरे ॥१४।। 
(युम्‌) 

नवेति । प्रयति सुगमम्‌ ।। 

ननु किमिति सखीभिः प्रार्थनया नीयन्ते नायकः कथं हठादेव न प्रवतय- 

तीव्याह- 

सुकूमाराः पुरुषाणामाराध्या योषितः सदा तत्पे । 

तदनिच्छया प्रवृत्तः श्युंगारं नाशयेन्मूखंः 11१५ 

सुकूमारा इति 1 


दे, तो वे आंखें विस्फारित करके उसे चुनती है, ओर उससे उनके शरीर मे रोमांच 
तथा स्वेद हो जाता है \११। 


कामदेव से पीडति मन वारे उस अपने प्रिय की सव बातों को न समक्षती 
हुईं भौ बार-बार रेते द्टंकार' करती है मानो सब समक्न रही हों । १२ 


अत्याग्रही पतियों हारा एकान्त मे बडे यत्न से तथा मधुर वचनी से [ नव- 
संगमजनित | भय हटाकर विवास दिये जने पर मी नवचिवाहित वधु सखियों 
दरा बार-बार प्र॑रित होकर प्रिय के निवासस्थान पर ऊ जाई जाती है, क्योकि ज्जा 
के कारण उन (वधुभओं) की समागम की उत्कट अभिलाषा दवी रहत है । १३-१४। 
£. नायक को शिक्षा 


पलंग पर सदा सु्मारी स्त्रियां पुरुषों की आराध्य होती है 1 उनकी इच्छा 
के विरुद्ध प्रवृत्त मुखं ्णृद्धार का नाकच कर देता है ।१५। 


३९६ कान्यालद्भारः [ कारिका १६.१७ 


तस्माकति कतन्यमित्याह- 
वाग्मी सासप्रवणदचाटुभिराराधयेन्नारीम्‌ | 
तत्कामिनां महीयो यस्माच्छ गारसवंस्वम्‌ । १६॥ 
वाग्मीति । सुगमम्‌ ॥ 
्भ्यायमुपसंहरन्कवेर्पदे शमाह- 
सुकविभिरभियुक्तेः सम्यगालोच्य तत्तवं 
त्रिजगति जनताया यत्स्वरूपं निबद्धम्‌ । 
तदिदमिति समस्तं वीक्ष्य काव्येषु कुर्यात्‌ 
कविरविरलकीतिप्राप्तये तद्वदेव 1 १७] 
सुकविभिरिति ! सुगमम्‌ 1 


इति श्री रुद्रटकृते कान्याङकारे नमिसाधुविरचितरिप्पणसमेतः 
त्रयोदशोऽध्यायः समाप्त. । 


+~) = च । {4 


[रेसी अवस्था मे] जो वाक्‌-पटु भौर फुसलाने में निपुण नायक अपनी 
चाहृक्तियों हारा नारी का प्रसादन फरतादहै बह श्युद्खार के वास्तनिक अनन्दका 
मोक्ता भौर सर्वश्रेष्ठ कामी कहाता हे ।१६। 

५. उपत्तंहार 

[ ूर्व॑बर्त ] मनीषी सुकवियों ने प्रत्येकः तत्व को मल्ली प्रकार परखकर इस 
न्निभुवन मेँ जनता के जिस स्वरूप को निबद्ध क्ियाहै कवि उन सबको देखकर 
अविरल कीर्ति को प्राप्त करने के किए कान्यों मे उसी प्रकार उनका वणेन करे 1१७1 


इति (अञुप्र भा'ऽऽख्य-हिन्दीन्याख्याया त्रयोदसरोऽध्यायः 
समाप्त. । 


चतुदंशोऽध्यायः 
श्रथ संभोगं व्यास्याय तिग्रलम्मश्रलारं व्याचिस्यातुयह- 
ग्रथ विप्रलस्भनामा श्युंगारोभयं चतुविधो भवति । 
प्रथमानुरागमानप्रवासकेरणात्मकत्वेन |} १।) 
अथेति ) अथशब्द भानन्तयं । सभोगानन्तरम्‌ । विप्ररम्भोऽय श द्धारदचतु- 
विधो भवतति ! कथ चतुविध इत्याह--प्रथमानुरागादय अत्मा स्वह्प यस्य तेद्धाव- 
स्तत्वं तेन हेतुना ! प्रकारमिद्शादेव चातुप्िध्ये ठव्धे चतुत्रिधग्रहण चतूविघस्याप्यस्य 
शुद्धारत्वनियमार्थम्‌ । चतुविघोऽपि श्चृज्गार एवायम्‌ । केचिद्धि करुणरस एव विध्र- 
छम्भभेद करुणमन्तर्भावयन्ति । तदषत्‌ । व॑ँलक्षण्यात्‌ । शुद्धे हि करुणे श्र द्खारस्पशं एव 
न विद्यते । करुणविप्रलम्भस्तु श्युद्धार एव । यथा कालिदिासस्य-- 
प्रतिपद मनोहरं वपुः पुनरप्यादिश तावदुत्थितः । 
रतिदूतिपदेषु कोकिलां मधुरालापनिसरगपण्डितामर्‌ 1 
श्रथेषामेव यथाक्रमं लक्षखमाह- 
ग्रालोकनादिमातरप्रह्दगुरुरागयोरसंप्राप्तो । 


नायक्योर्या चेष्टा स प्रथमो विप्रलम्भ इति 11२॥ 
भालोकनेति 1 सुगमम्‌ } 


चतुदश अध्यय 

इस च्ध्याय में विप्रलम्भ श्द्वार के चार मेदो-चअनुराग, मान, प्रवास 
तरो करण फा निरूपरा है । शतरनुरायः के ऋनतर्यत प्रेमियों की दत्त दशान, 
नायक के मयतन त्रो परदारा-ग्रसगोपेक्षा की चर्चा की गई है। “मानः के रन्त 
गति इत ग्रषंय की च्चा है । प्रपराध-प्रकार, तपदाध-बोधक चिह, कोप-म्कार, 
देश, काल, पात्र के तीन-तीन सूप, ्श्ंका-परिहासेपाय, कोप-परिलिम रौर 
कोपभ्रशोपाय | इसके उपशान्त प्रवास त्रौर कर्ण-विग्रलम्म का स्वरूप-निदश रिया 
गया ह । इस प्रकार श्द्नार रस के भेदोपेदां के अनन्तर श्र्राराम।स, श्न्वार 


परर रीतियो का सम्बन्ध तथा श्रह्नार्‌ रस की स्वोष्टता की चर्चा की गई है | 
2, विप्रलम्भ श्रज्गार के भेद 


यह विप्रलम्भ नामक श्डद्धर चार प्रकार का होता है--१. अन्रुराय, २. मान, 
३. प्रवास आर ४. करुणार्मक । १1 


(क) गनुराग-- 
केव आरोकन जदि से उत्पन्न महान प्रीति बाले, [किन्तु] परस्पर 


1 


३६९८ कान्याकड्धुारः | कारिका २३-६ 


ता एवे काश्िवच्चेष्टा आह-- 
हिमस्षलिलचन्द्रचच्दनमृणालकदलीदलादि तत्रेतौ । 


दुवरिस्मरतापौ सेवेते निन्दतः क्षिपतः ३ 
हिमेति 1 सुगमम्‌ । 
त्रथास्य सूचक्रानवस्थामेदानाह- 
ग्रादावभिलाषः स्याच्चिन्ता तदनन्तरं ततः स्मरणम्‌ ¦ 
तदनु च गुणसंकोतंनमूद्रेगोऽथ प्रलापड्च ॥४।। 
उन्मादस्तदन्‌ ततो व्याधिर्जंडता ततस्ततो मरणम्‌ । 
ट्त्थमसयुक्तानां रक्तानां दश दशा ज्ञेयाः ॥५।। 
(युगम्‌) 
। आदाविति । उन्माद इति । सुगमम्‌ । एताइ्च दक्षाः कादम्बरीकथाया प्रकटा. । 
मरण तु केचिन्तेच्छन्ति दक्षाम्‌ । मृत्तस्य हि कीदशः श्यृद्धारः । यैरुक्त ते तु मन्यन्ते । 
नवमी दशां प्राप्तस्य निरुयमस्य मरणमेव दशमी दगा स्यात्‌ । ततस्तामप्राप्तेन नायकेन 
तन्निपेधार्थं यतितव्यमिति दशनाथ दशमी दशरोकवता ।। 
पथ कस्तत्र म्रयत्न इतिं प्रयत्नक्रममाह- 
ग्रथ नायकोऽनुरक्तस्तस्यामजेयति परिजनं तस्याः । 
उटिश्य हेतुमन्यं सास्ना दानेन सानेन ।६॥ 


भिल्न को प्रप्तन किए हृए नायक-नायिकाकीनजोचेष्टा होती है बहु विप्रलम्म 
का प्रथम सेद 'अनुराग' कहाता है ।२ 
उस (विप्रलम्भ श्णृद्खार) मे अति काम से पीडितये दोनों (नायक ओर 
नायिका) शीतल जल, चन्र, चन्दन, कमलनाकल्, केके के पत्ते आदि का सेवन करते है, 
उनकी निन्दा करते ह मौर [भाववेद्य मे आकर | उन्हें [इर | फकते है 1२1 
दस दक्ञाए-- | 
सवसे पहले इच्छा [ उत्पन्न | होती है तत्पश्चात्‌ चिन्ता, तब स्मरण, उसके वादं 
गुण-संकीर्तन, उद्ेग ओर प्रजाप, फिर उन्माद, उसके बाद रोग ओर जडता, ओर अन्त 
मे मृत्यु 1 इस प्रकार असंयुक्त प्रेमियों को दस अवस्थाएं जाननी चाहिए ।४-५। 
नायके के प्रयत्त-- 
इसके वादि प्रेमी नायक क्रिसी अन्य कारण कफो बताकर साम, दान तथा मान 
से उस (नायिका) ओर उसके परिवार [सखी आदि [ को अजित करता है, अर्थात्‌ 
इनफी सहायत प्राप्त करता है 1६1 


कारिका ७-११ | चतुदशोऽध्यायः ३६९६ 


तस्य पुरतोऽथ कूवेन्गृही तवाक्यस्य नायिकाविषयाम्‌ । 
चिरमनुरागेण कथां स्वयमनुरागं प्रकाशयति ।७।। 


तदभावे प्रव्रजिता मालाकारादियोषितो वापि। 
उमयप्रत्ययितगिरः करमणि सम्यङ्‌ नियुङ्क्ते च 11८1 
तद्‌ हारेण निवेदितनिजभावो विदितनायिकाचित्तः । 
त्वरयति तामुपचारैः स्वावस्थासूचकंलेखंः ।\€॥ 


सिद्धां च तां विविक्ते दृष्ट्वाथ कलाभिरिन्द्रजालंर्वा । 

योगै रसक्ृत्रमरो विस्मापयति प्रसंगेषु 11१० 
गताथम्‌ ।। 

यदा तुसा कन्या नानेन क्रमेख॒ प्राप्यते तदा किमित्याह-- 

मन्येत यदा नेयं कथमपि लभ्येत तायिका नाथात्‌ । 


क्षीणसमस्तोपायः कन्यां स॒ तदंति साधयति ॥११।। 
मन्येतेति । सुगमं न वरमू । नाथाञ्जनकादिकात्‌ 11 


इसके बाद [नायक ] उस [परिजन | के सामने जिसने उसकी बात्त को ग्रहण 
किया [सुना] है, प्रेम से चिरकाल तक नायिका-विषयक बातों को करता है ओर 
- उसके भ्रति अपने अनुराग को प्रकट करता है ।७। 
इसके जमाव में वह्‌ दोनों के प्रति विश्वसनीय चचन बोचने वाजी संन्यासिनी 
जयवा मालो आदि कौ स्त्रियों को इस कायं में अच्छी प्रकार नियुक्त करता है ।८। 
उनके दारा अपने अभिप्राय को वताकर ओर नायिकाके मन को जानकर 
१ उपचारो से ओर अपनी अवस्था के सूचक केखो से शीघ्रता करने को कहता 
।९॥ ` | 
इसके बाद वशमे हो जाने पर उसको एकान्त में देखकर कलाभों से, इन््र- 
जालो से तथा योग फी क्रिया से सिन्न-सित्न अवसरों पर अनेक बार आशवर्यान्वित 
करता है ! १०। । । 
जव चह यहं समक्षे कि यह्‌ नायिका अपने [पिता आदि] रक्षक से किसी 
प्रकार प्राप्त नहीं होगी तन सव उपायो के समाप्त हयो जाने पर वहु कन्या के पास 
आता है गौर उसको वशे करता है 1११ 


स्पष्ट रद्रट का यह्‌ भसंग कामदयास््रीय धारणाभो से प्रभावित्त है 1, 


1 वि ^ 


४०० काव्यालङ्कारः [ कारिका १२-१५ 


ननु कन्यायाः स्वीकारक्रमोपदेशो न दुः, परदारा तु रिरूढ एव महा- 

पापलादित्यत आह- 

नहि कविना परदारा एष्टव्या नापि चोपदेष्टव्याः | 

कतंव्यतयान्येषां न च तदुपायोऽभिधातव्यः ॥ १२) 

कि तु तदीयं वृत्त काव्यांगतया सर केवलं वक्ति) 

ग्राराधयितु विदुषस्तेन न दोषः कवेरत्र ॥१३।। 
(युग्मम्‌) 

नेति । किमिति । सुगमम्‌ ॥ 
ननु पारदारिक्वृत्ताख्यानमपि न युक्तमित्याह- 
सवंत एवात्मानं गोपायेदिति युदारुणावस्थः | 


ग्रात्मानं रक्षिष्यन्प्रवर्तंते नायकोऽप्यत्र 11 १४ 
सवेत इति । यत्र रास्त्रे भृणितं परदारा न गन्तव्यास्तव्रैवोक्तं सर्वेत एवात्मानं 
गोपायेदित्यस्माद्चनान्नायकोऽप्यात्मरक्षाथमच्र परदारेषु न प्रवतत इति ॥ 


मथमानुराय उक्तः| अथ भानमाहट- 
मानः स नायके यं विक्ारमायाति नायिका सेर्ष्या | 


उटिश्य नायिकान्तरसंबन्धसमुद्रवं दोषम्‌ । १५।। 
मान इति । सुगमम्‌ ॥। 


परदारा-प्रस्षग उपेक्षणीय-- 

कवि को दूसरे की स्वरयो कौ इच्छा नही करनी चाहिए मीर न हौ कर्तेन्य 
केरूपमे [वक्ीकरण के] उपदेश् करने चाहिए ओर न ही उनका उपाय कहना 
चाहिए ।१२। 

परन्तु बह केवल उसके वृत्तं को विद्वानों को प्रसन्न करनेके किए का्ांग 
के रूप मे कहता है । अतः इसे कवि का कोई दोष नहीं है 1 १३। 

विषम मवस्था मे पड़ा हुआ नायक मी अपनी रक्षा करता हुभा [इस पर- 
दारा-विषयक प्रसंग से] अपने-अापको बचाए 1 १४1 
(ख) सान-- 

नायिका [जव नायक के सम्बन्ध में यह्‌ जान कतीह क्ति बहु किसी अन्य 
नारी कै प्रति आसक्तहै तो बहु उस नारीके प्रति] ईर्ष्यासे भरी हई नायकके 
भ्रति जो व्यवहार कर्ती है वह्‌ मान कहाता है । १५। 


कारिका १६-१६ | चतुदंशोऽध्यायः ४०१ 


दोषस्येव सारेतरविभागानाह-- 

गमनं ज्यायान्दोषः प्रतियोषिति मध्यमस्तथालापः । 
प्रालोकनं कनीयान्मध्यो ज्यायान्स्वयं दृष्टः ।। १६॥ 
गमनमिति । सुगमम्‌ ॥ 

दोपस्येव लि्रान्याह-- 

वसनादि नायकस्थं तदीयमाद्क्षतं च तस्या्खम्‌ । 
दोषस्य तथा गमकं गोत्रस्खलनं सखीवचनम्‌ 1 १७॥। 
चसनादीति । सुगमम्‌ । 

प्रथासो दोषो ज्ञातस्तस्याः कि कुरत इत्याह-- 

देदं कालं पात्रं प्रसद्मवगमकमेत्य सविशिष्टम्‌ । 
जनयति कोपमसाध्यं सुखसाध्यं दु.खसाध्यं वा ॥१८॥ 


देशमिति 1 सुगम न वरम्‌ । यदि ज्यायासो देरकालपात्रप्रस ह्वा भवन्त्यसाध्य- 
स्तदा कोपः स्यात्‌ । अथ मध्यास्तदा छृच्छसाध्य. । अथ कनीयांसस्तदा सुखंसाध्य इति ॥ 


श्रथ के एते देशादयो ज्यांस इत्वाह-- 
ज्वलदुज्ज्वलप्रदीपं कुसुमोत्करधूपसुरभि वासगृहम्‌ । 
सौधतलं च सचद्रिकमुद्यानं सुरभिकुसुमभरम्‌ ।१६॥ 


प्रतिद्रन्हिनी नारी अर्थात्‌ पर नारी के पास जाना सव्से बड़ा अपराधरहै, 
उसके साथ बातचीत करना सध्यम दोष है ओर देखना छोटा । ओर अपना देखा 
जाना {उक्त | बड़े [अपराध] की अपेक्षा मध्यं (कचित अत्प) है \१६। 
नायककृत जपराध-बोघक चिह्ु- 

नायक हारा पहने हुए वस्त्र आदि, ताज्ञे नखक्षत वाला उसका श्ररीर, गोत्र- 
स्ललन ओर सखी का चचन ये सन नायक दोष के ज्ञापक [ चिल्ल ] होते है 1 १७। 

गोत्र-स्खलन से तातयं है भूर से अन्य नारी का नाम मूख से निकल जाना । 
कोपं के तीन प्रकार-- 

देश, काल, पात्र -गौर प्रसंग [सम्बन्धौ ] विशेष ज्ञापको को प्राप्त कर 
[नायिका से] कोप उत्पन्न होता हैजो कि [इनके तारतम्य के अनुसार] तीन 
प्रकार का होता है- असाध्य, सुख-साध्य जौर दुःख-साध्य ।१८। 
देस, कार, पात्र ; तीन-तीन रूप-- 


जहां उज्ज्वल दीपक जक रहा है, पुष्प-समूह तथा धूप से सुगन्धित घासगृह, 


४०२ काव्यारद्धारः ` [ कारिका २०-२२ 


इति देशा ज्यायांसो मधुरजनी स्मरमहोदयः कालः । 
पात्रं तु नायकौ तौ ज्यायो मध्याधमावुक्तौ ।1२०॥ 


(युग्मम्‌) 
ज्वलदिति ! इतीति । सुगम न वरमू ) ताविति पूवेक्तिनायकौ } तचानुक्रुल- 
दक्षिणादिस्वतुर्धां नायकः । बात्मान्यसर्वंसक्तान्च नायिकाः । तच्रानुदरुखेन दक्षिणेन च 
नायकेन ज्यायस्या नायिकाया दोपः कृतोऽसाध्यः । घरन वृष्टेन च ज्यायस्याः कृच्टृसाघ्यः। 
दाठेन च ज्यायस्याः सुखन्नाध्य इव्यादि चिन्त्यम्‌ ॥ 
प्रसन्न व्यायासिमाह-- ` 
सकलसखीपरिवरतता रत्यभिमूखता च तत्प्रशंसा च । 


जायेत नायिकायां यत्र॒ ज्यायान्प्रसङ्खोऽसौ ।२१॥ 
सककति सुगमम्‌ । मध्याधमी तु प्रसद्धी स्वयमूनेयौ ॥ 

तत्र प्रलक्षदोपदश्ने परिहासे नास्ति, लिद्नगम्बे त्स्तीत्याह-- 
परिहारो वसनादावन्यस्मादागमोऽन्यदिदमितिवा। , 
परिहतु कृतमस्मिन्न लक्ष्यते नायिकां रमयेत्‌ ।।२२।। 


चन्द्रिकायुक्त महल, सुगन्धित फूलों से युक्त उखन--ये वड़े [उत्तम कोटिके] देश 
[कहते] ह 1 मधु रानि फामोत्पादक [उत्तम कोटि का] काल [कहता] है, भौर 
वे नायक सौर नायिका वड़े [उत्तम कोटि रे] पात्र है) इसी प्रकार मध्यम 
ओर अधम [कोटिक भीदे्न, काल ओर प्न] कहै गये हः अर्थात्‌ समक्षने 
चाहिए 1 १६-२०। 

उच्च कोटि का प्रसंग वहु माना जात्ता ह जव नायक को नायिका फी समो 
सिया घेर ऊती ई, उसके सम्पुल नायिकाके प्रेम की मभिमुखता वणित फी जाती 
है भौर उसकी प्रासा प्रस्तुत की जाती ह ।२१ 
गागका-परिहार्‌ के उपाय-- 

नायिका हारा नायकके अपराधको प्रव्यक्षलू्प सेव्ेखलनैपर तोक 
परिहार प्रस्तुत नदी किया जा सक्ता । ह, यदि उसका अपराव क्िन्ही चिह्लौसेही 
त्ाततव्य है तो उसका परिहार निम्न ख्पये किया जा सकता दै। 

[ अस्त-व्यस्त ] यह्‌ वस्त्र अन्य स्थान ये जाया हुमा है, अथवा यहु वस्र आर 
ही है, इच्यादि कहुफर यस्व अदि का परिहार करके [नायक] नायिका को प्रसन्नं 
फरे । यद्वि इस प्रकारसे परिहारन क्या जास्फेतो फिर [नायक्त] इसप्रकार से 
परिहार फर सकता है कि यह्‌ वस्र वरुग्हरे साथ पूत संगसेहीपएेसादहो गया है।२२) 


कारिका २३-२६ | चतुदंशोऽध्यायः ४०३ 


तदनु त्वत्कृतमिदमिति परिहारः पूवमेव वा सुरतम्‌ । 
राब्दान्तरनिष्पत्तिर्गत्रस्खलने तु केलि्वां ।२३॥ 


ग्रभियोज्यायां मयि वा कुपितेयमनेन हेतुना तेन । 
वचित सखी ते मिथ्या किलेति तहचस्ि परिहारः ।1२४।। 
परिहार इत्ति । तदन्विति । अभियोल्यायामिति । सुगमम्‌ ॥ 

प्रथ यतः कोपान्नायक्राय कुर्ते (2, तदाह-- 

ज्यायोभिः सह्‌ दोषो ज्यायाञ्जनयत्यसाध्यमतिकोपम्‌ । 
तस्मान्स्रियते सद्यो मनस्विनी त्यजति वा पुरुषम्‌ ।२५॥ 
ज्यायोभिरिति । सुगमम्‌ ॥ 

त्रथास्याः कोपस्य साध्यासाभ्यकिमिागः कथं ज्ञेय इत्याह-- 

दोषस्य सहायानामालोच्य बलाबलं समेतानाम्‌ । 
तुध्येत कोपमस्याः सुखसाध्यं कृच्छसाध्यं वा ।२६॥। 
दोपस्येति । सुगमम्‌ ॥ 


परनारौ कानामभुलसे मुखसे निकल जानि पर उस शब्द की व्युत्पत्ति 
अन्य [धातु] से वता देनी चाहिए अथवा [कहना चाहिए कि यहु नाम तो तुम्ह 
चिढ़ाने के लिए अथना ] विनोदार्थं [च्या गया है] ।२२ 


सखी के वचन के सम्बन्ध से इसं प्रकार परिहार करना चाहिए कि मेरे किए 
निगुदत [यह्‌ तुम्हारी ] सखीमेरे प्रति कुपित है--इ सीलिए उस हेतु से इसने [भेरे विषय 
म तुम्हे ] शूठ कहा है \२४। | 
कोप का परिणाम -- 


ड़ व्यक्तियों [ नृप, सचिव आदि व्यदितयों द्वारा किया अपराध वडा दोप 
कहाता हे, ओर असाध्य तया अधिक कोप को उत्प्न करता है ! मनस्विनी (मान- 
वै तच्छ 
शीला) नारी या त्तो तत्काल भर जाती है, या [रसे] पुरुष को छोड़ देती है ।२५। 
। [ नायक-छृत ] पराध के समन्वित साधनों कौ सर्ता एव निर्वलता को 
-जोचने के उपरान्त नाधिका के फोप को समन्नना चाहिए वहु सुख-साध्य हे अथवा 


` -कटठिनतापूवक साध्य !२६॥ 


४०४ कान्यालद्खारः  [ कारिका २७-३१ 
. चथ जाते कोपे उपायाः प्रयोक्तव्याः, क्व वा के प्रयोक्तव्याः, कथंवा 
प्रयोक्तन्या इत्येतदाह-- 
साम प्रदानभेदौ प्रणतिस्पेक्षा प्रसद्कविश्रशः। 
प्रत्ते षड्पाया दण्डस्त्विह हन्ति श्णृद्ारम्‌ 11२७1 
दासोऽस्मि पालनीयस्तवेव धीरा बह्मा त्वं च) 
ग्रहमेव दुजंनोऽस्मिन्नित्यादि स्तुतिवचः साम ।२८)] 
कालेऽलंकारादीन्दद्यादुदिश्य कारणं त्वन्यत्‌ । 
बन्धुमहादिकभिति यत्तहानं साधु लुन्धासु ॥>२६। 
तस्या गृहीतवाक्यं परिजनमाराध्य दानसम्मानंः । 
तेन सदोषः कोपे तां बोधयतीत्ययं भेदः 1३०, 
दैन्येन पादपतनं प्रणतिस्पेक्षावधीरणं तस्याः! 
सहसात्युत्सवयोगो भ्रः कोपप्रसङ्घस्य ।॥३१॥ 


कोप-भ्र श के छः उपाय-- 

साम, दान, भेद, नच्रता, उपेक्षा, प्रसंगश्रश् ये द्धः उपाय ह! दण्डतो 
ष्युः गार को नष्ट कर देता ३ 1९७1 

साय-मे दास ह, तुस्षसे पालनीय ह तु बहुत धीरज वाली है, बहुत क्षसा 
वारीहै।मैहीदुरजनहै, मै ही इष्ट हं इत्यादि स्तुति के वचन साम कहते है ।२८। 

दान-कोई इसरा फारण वताकर-जेसे कि आज मेरे किसी बन्धुका 
उत्सव-दिवस है आदि-अलकार आदि का देना दान कहूलताहै। यह्‌ उपाय 
धन-लोमी नारियों के लिए अच्छा [ प्रमाणित होता] है 1२६ 

मेद- नायिका के किसी परिजनको जो नायक कौ वात समक्ता भौर 
मानता है दान-सम्मान आदि दारा सस्सानित करके अपराधी नायक का उसके दारा 
नायिका को मनवाना भेद कहाता है ।*०। 
प्रणति, उपेक्षा, प्रसंग-विश्र श- 

दीनतापू्वंक पेरों मे पड़ना प्रणति (नन्ता) कटुलाती है । उसकी परवाह 


न फरना उपेक्षा कहुलाती है । अचानक किसी प्रसन्नता फा अवसर आ जाना कोप- 
प्रसंग का भग कहुलाता है ।३१। 


कारका ३२-३५ | चतुद शोऽध्यायः ४०१ 


मृदुरत्र यथा पूवं सवेषु यथोत्तरं तथा बलवत्‌ । 

साध्येत यो न मृदुना बलवांस्तत्र प्रयोक्तव्यः ।।३२] 
सुगमम्‌ ॥ 

अथ प्रतात्तमाह- 

यास्यति याति गतो यत्परदेदं नायकः प्रवासोऽसौ ¦ 


एष्यत्येत्यायातो यथत्वंवस्थोऽन्यथा च गृहान्‌ ॥३३।। 

यास्यतीति । सुगमं न वरम्‌ । यथरत्ववस्थ इत्ति ऋत्वनत्तिक्रमेणावस्था दशा 
्रत्यावृत्तिव्यवस्था वा यस्य स तथाभूतः । अन्यथा चेति ऋतुविवक्षामन्तरेणेत्यथः ॥ 

अरय कर्यमाह-- 

करुणः स विप्रलम्भो यत्रान्यतरो ्ियेत नायकयोः ! 


यदि घा मृतकत्पः स्यात्तत्रान्यस्तद्गतं प्रलपेत्‌ ॥३४।। 
केरुण इति । सुगम न वरम्‌ । नायको नियते नायिका वा, तथा नायको 
मृतकत्पो नायिका वा भवतीति चत्वारः प्रकाराः ॥ 


अथ यस्तत्रेको जीवति तस्य सदश्चचेटो जनो मवतीत्याह- 
सवेष्वेषु जनः स्यात्खस्तावयवो विचेतनो ग्लानः । 
्रच्छिन्ननयनचसलिलः सततं दीर्घोष्णनिःदरवासः ।३५।। 


इन उपायों मे से पूर्वं -पुवं उपाय मृड (सरल) कहाता है भौर उत्तरोत्तर 
उपाय बलवान ! जो कायं मृदु उपाय हारासिद्धनहो सके तो [परवर्ती] वलवानू 
उपाय का प्रयोग करना चाहिए ।३२। 
(ग) प्रवास-- 

नायक परदेश को जाएगा, जा रहा है या चला गया है अथवा फिर तु एवं 
सनस्था के अनुसार बह घरको आएगा, आस्हाहै या आ गया है--यह [सनं 
प्रकरण | प्रवास कहुलाता है ।३३। 
(घ) करण-विप्रम्भ-- 

जहां नायक-नाथिका में से एक मर जाए या मृतक-सद्श हो जाए ओर एक- 
दुसरे के किए प्रलाप करे बह | प्रसंग | करुण-विप्रलसम्म कहलाता है ।३४। 

नभिसाघु के अनुसार करुण-विप्रलम्भके नार भेद है--नायक की मृस्यु, 
नायिकाकी मृत्यु, नायक कौ मुतक-सद्‌श अवस्था, नायिका की मृतक-सदृश अवस्था । 

इन सन चारों करुण-प्रकारों में [ सम्बद्ध ] व्यदिति शिथिलं ग, चेतना-रहित भौर 
उदास हो जाता है । उसके नेत्रो से निरन्तर आपु बहते रहते है, ओर चहुं कपातार 
लम्बे ओर गरम निश्वास छोडता है ।३५। 


४०६ काव्यारुद्धुारः | कारिका ३६-३० 


सर्वेष्विति । सुगमं न वरम्‌ । सर्वेप्विति चतुष्वेपि करणप्रकारेप्वितिं रसो- 
त्पत्तिद्च विभावमावानुभाव्षयोगाद्‌ भवति । तच श्यद्धारे विभावः संभोगविप्ररम्मा- 
दिकः । भावस्तु स्थायी रतिः । इतरस्तु नि्वंदादिः । अनृभावस्तु "तत्र भवन्ति स्वीणामू' 
(१३।२) इत्यादिनोक्तः । एवं वीरादिप्वपि योज्यम्‌ ।। 
द्रन्योन्यानुरक्तपु नार्याः श्र्नातेऽन्यथापे तु श्रल्ारामाच इत्याह- 
श्य गाराभाकस्िः सतु यत्र विरक्तेऽपि जायते रक्तः । 
एकस्मिन्नपरोऽसौ नाभाष्येषु प्रयोक्तव्यः ।।३६॥ 
शृ द्धाराभाग्त इति । तुगम न वरम । भाभाष्येषुत्तमेष्वसी न प्रयोक्तम्य. ॥। 
अथात्र रीतीनामनुप्रासवृत्तीनां चावसरे विपयविमागमाह- 
इह वैदर्भी रीतिः पाञ्चाली वा विचायं र्चनीया | 
मधुराललिते कविना कायें वृत्ती तु श्युगारे ।1३७॥ 
. उदेति ! सुगमम्‌ ॥ 
त्रथाध्याययुपतंहरन्सवरसेम्यः श्र्ारस्य प्राधान्यं मचिकटविपराह- 
ग्रनुसरति रसानां रस्यतामस्य नान्यः 
सकलमिदमनेन व्याप्तमाबालनृद्धम्‌ । 
तदिति विर्चनीयः सम्यगेष प्रपत्ना- 
द्वति विरसमेवानेन हीनं हि कान्यम्‌ ।३८।। 
अनुसरतीति । सुगमम्‌ ॥ 
इति श्रीरुद्रटशरृते काव्याककारे नमिसाधुविरचितटिप्पणसमेतन्चतुदगोऽन्याय. समाप्तः । 
२. श्छगाराभास-- 
जर्हा [ क्रिसी] एक विरक्त के प्रति दूस अनुरक्त हौ जाता ह बहु श गारा- 
भास फषहलाता ३ ! उत्तम [पा] में इसका प्रयोग नहं करना चाहिए ।२६। 
३. शगार रस: रीत्ति- | 
इस श्टरगार रस्म कचिको वंदर्भी अथवा पांचाली रीत्तिष्टी रवना करनी 
चाहिए तथा मधुरया ओर ललिता बृत्ति का भ्रयोगं करना चाहिए 1३७1 
४. श्छ गार रतत : स्वक्छिष्ट-- 
सत्ररसोमे दस [श्युगार] के समान किसी ओर सरस की सरता न्हीदहो 
सकती 1 इतस सवर वालक तथा वृद्ध व्याप्त है । इसलिए इसकी रचना प्रयत्न-पुवंक 


क 


फरनी चाहिए 1 इममे रहिते कन्य नीरस होता ह 1२३5 


इति अंगुप्रभा'ऽऽख्य -हिन्दी-व्याख्यायां चतुर्दंगोऽव्यायः समाप्तः । 


पद्छदशोऽध्यायः 


श्ज्वारं व्यास्यायाधुना कीरादीनां विभावमावानुभावलक्षसं कारस॒त्रयं 
तथा नायिकानायकेगुखांश्च प्रत्येकं कमेखाह- 


उत्साहात्मा वीरः स वेधा युद्धधमंदानेषु | 
विषयेषु भवति तस्मिन्नक्षोभो नायकः स्यातः ।१॥ 


तयविनयबलपराक्रमगाम्भीयौ दायंशो्यंरौटीयः । 
धुक्तोऽनुरक्तलोको निन्य्‌ ढभरो महारम्भः ॥२॥ 


उत्साहेति 1 नयेति । गतार्थं न वरमु 1 उत्साहः स्थायिभावः) धर्म॑दानयुद्ध- 
लक्षण च चिषयत्रय विभावः ! नायकगुणा एवानुभावः । तेजो रणे च सामर्थ्यं नलम्‌ । 
रिपूणां बङादाक्रमणं पराक्रमः । गाम्भी्य॑मलन्धमध्यर्ता । 
ध दानमभ्थुपपत्तिश्च तथा चं प्रिथमाषणभू 1 
स्वजनेऽथ परे वापि तदौदार्य प्रचक्षते ॥। 
का समरेकत्वं शंम । सत्यपि त्यागकारणे योग्यकारयंस्यात्याग. शौटीयेमु 1 धये 
थः | 
व 


पञ्न्चदर अध्याय 


रेस अध्याय मं श्रद्वारेतर्‌ र्सो-कीर, करुण, वासत्स, भयानक, चदधत, 
हारय, रद्र, शान चौर प्रेयाद्‌ रसो का स्वरूप प्रतिपारित करिया गया है । चना 
म इन रसो म रीति-प्रयोय कौ चर्चा कने के उपरान्त रस-माहात्स्य निर्दि 
भिया गया है | 
7, वीर्‌ रस 

वीर रस उरेसाहधुकत होता है । युद्ध, धमं भौर दान [इन [ विष्यो में [इसका 
भोग होता] है, [मतः] यह्‌ तीन प्रकारकाहै! [शीघ्र] क्षुभित न होने वाला 
धीर तथा प्रसिद्ध ्यवितत उसका नायक होता ह ! वह नीति, विनय, तेज, पराक्रम, 
गम्भीरता, उदारता, वीरता जर्‌ धैयं [ भादि] गुणों से युक्त होता है । वह्‌ लोकब्रिय, 
कायमार का सम्यक्‌ निर्वाह फएरने वाला तथा बड़े-बड़े कायं निष्पादन करने बाला 
होता है १९-२। 


४०८ काव्याकुदुारः [ कारिका ३-७ 


श्रथ कररः- 
करुणः शोकप्रकृतिः शोकर्च भवेद्विपत्तितः प्राप्तेः । 
इष्टस्यानिष्टस्य च विधिविहूतो नायकस्तत्र ।२॥ 
म्च्छिन्ननयनसलिलप्रलापववण्यमोहनि्वेदाः 1 
क्षितिचेष्टनपरिदेवनविधिनिन्दास्चेति करुणे स्यु. 11४1 


करण इति । अच्छिन्तेति । सुगमं न वरम्‌ । शोकः स्थायिभावः । इष्टानिष्ट- 
विपत्तिप्राप्ती विभाव. 1 अच्छिन्ननयनाश्रप्रभृतिरनुभावः॥ 
प्रथ बीभत्स- 
भवति जुगप्साप्रकृतिर्बीभत्सः सा तु दरंनाच्छवणात्‌। 
सं कोतेनात्तथेद्धियविषयाणामत्यहूद्यानाम्‌ । ५।। 
हल्लेखननिष्ठी वनमुखक्‌णनसवंगाच्रसंहाराः । 
देगः सम्त्यर्मिनगाम्भीर्यान्नोत्तमानां तु ॥६॥ 
भवतीति । हृदिति । सुगमं न वरम्‌ । जुगुप्सा स्थाथिभावः 1 विभावस्त्वहुयदनं- 
नादिः । अनुभावो हुत्केखनादिः 1 हुल्लेखनं ह दयकम्पः ॥ 
मथ भयानकः 
संभवति भयप्रकृतिभंयानको भयमतीव घोरेभ्यः । . 
रान्दादिभ्यस्तस्य च नीचस्त्रीवालनायकता ।७।। 


९. कर्ण रत्र 

करुण रस की प्रकृति शोके है । प्रियजन की विपत्ति भैर अनिष्ट फी प्राप्ति 
से शोक [उत्पन्न] होता है । उसका नायक इरदव-पीडित होता है । अविरख अश्र 
जहार» प्राप, विवर्णता, मच्छ, निर्वेद, भमि पर लोटना, विक्ाप ओर भाग्य की 
निन्दा-ये सवं करुण रस में होते है 1२३-४। 
२, वीभत्स रस 

चीमत्स रस कौ प्रकृति जुगुप्सा है । यह जुगुप्सा अति असुन्दर (घुणित) पदार्थो 
के देखने, सुनने तथा वणंन करने से [उत्पन्न होती है 1] ह्य का कपना, धूकना, 
मुह्‌ बनाना सारे अंगों को सिकोडना गौर उद्विग्न होना--ये सन इस [रस] भें होते 
हं । किन्तु गम्भीर स्वभाव होने के कारण उत्तम नायको मे ये नहीं होते \५-६। 
&, भयानके एं 

भयानके सको प्रहृति यहि । अति घोर शब्द अदि सै भथ [उत्पन्न होता 


कारिका ५८-१२ |] पश्वदशोऽध्यायः ४०६ 


दिवप्रक्षणमुखसोषणवंवण्यंस्वेदगद्गदत्रासाः । 

करचरशणकम्पसंभ्रममोहार्च भयानके सन्ति ।८॥। 

सभवतीति । दिगिति । सुगमं न वरम्‌ । भय स्थायिभावः । घोरशन्दादिवि- 
भावः । दिक्प्रेक्षणादिरनुभावः ॥ 

त्रथाद्ुतः-- 

स्यादेष विस्मयात्मा रसोऽदभृतो विस्मयोऽप्यसंभाग्यात्‌ । 

स्वयमनुभूतादर्थादनूुभूयान्येन वा कथितात्‌ ॥€॥ 

नयनविकासो वाष्पः पुलकः स्वेदोऽनिमेषनयनत्वम्‌ । 

संश्रमगद्गदवाणी साधुवचांस्युत्तमे सन्ति ।1१०॥ 

स्यादिति । नयनेति । सुगमं न वरमू । विस्मयः स्थायिमावः । विमावर्चा- 
सभवि । अनुभावो नयनविकासादिः ॥ 

अथ हयस्यः- 

हास्यो हासप्रकृतिर्टसि विकृतांगवेषचेष्टाभ्यः । 

भवति परस्थाभ्यः सर च भूम्ना स्त्रीनीचबालगतः ॥११॥ 

नयनकपोलविकासी किचिल्लक्ष्यद्विजोऽप्यसौ महताम्‌ । 

मध्यानां विषृतास्यः सशब्दबाष्पद्व नीचानाम्‌ ॥ १२॥ 
वा 1 

है] । इसके नायक है- नीच व्यवित, स्त्री ओर बालक । दिश्नाओं को [चारों ओर 

देखना, मुल सुद्र जाना, विवर्णता, पसीना, गला रंध जाना, चास, हाथ-परो का 
कम्पन, चक्कर आना मौर मूर्च्छाये सब भयानक रस में होते है ।७-८। 
५. श्र्धुत एस 

अदभुत रस बिस्मययुक्त होता है । ' स्वयं अनुमव कौ हृदं अथवा अनुभव करके 
` हषरे ्यवित द्वारा कहौ हुई असम्भव [बात] से विस्मय [उत्पन्न होता ] है । खो 
का विस्फारित हौना, भभु, रोमांच, स्वेद, अपलक आंखें, घवराहट, गरदगद वचन 


भोर प्रशसा के वचन--ये सव उत्तम [ नायक] में होते है ।६-१०। 
१. हास्य रस 

हास्य रस की प्रकृति हास है । दूसरों ने स्थित विहत अंग, विकृत वेष तथा 
विहृत चेष्टामों से हास [ उत्पन्न होता है] 1 विज्ेष रूप से स्न, नीच व्यक्ति मौर 
चालक इसकरै नायक होते हैँ । इसमें खं आर गाल विकसित हौ जाते है। उत्तम 
„ नायकोके हास से दाति थोड-ते दीलते ह । मध्यम [ नायको ] के हास में परख धरौ 


४१० कान्यारद्खारः | कारिका १३-१६ 


हास्य इति । नयनेति 1 सुगमन वरमू । हास्यः स्थायिमावः। विभावस्तु 
चिङ्रृताङ्खवेषादिः । अनुभावो नयनकपोलविकासादिः 1 

श्रथ रौद्रः- 

रौद्रः करोधप्रकृतिः कोधोऽरिकृतात्पराभवा वति । 


तत्र॒ सुदारुणचेष्टः सामर्षो नायकोस्त्युभ्रः | १३ 


तत्र॒ निजांसस्फालनविषमभ्रुकूदीक्षणायुधोत्क्षेपाः । 


सन्ति स्वरक्तिरासाप्रतिपक्षाक्षेपदलनानि 11 १४॥। 
रौद्र इति 1 तत्रेति । सुगमं न वरम्‌ ! क्रोध. स्थायिभावः । विभावो रिपुङृत- 
पराभवादि । अनुभावो निजांसास्फाखनादिः 1 


अथ शान्तः-- 
सम्यग्न्ञानप्रकृतिः शान्तो विगतेच्छनायको भवति । 
सम्यग्ज्ञानं विषये तमसो रागस्य चापगमात्‌ ।१५।। 


जन्मजरामरणादित्रासो वैरस्यवासना विषये । 
सुखदुःखयोरनिच्छाद्वेबाविति तत्र॒ जायन्ते । १६ 
सम्यगिति । जन्मेति । सुगमं न वरम्‌ | सम्यमज्ञान स्थायिभावः) विभावस्तु 
तरह से खुल जाता है, मौर अधम [नायको | के हास में कहकह के साथ भूक गिरता 
है ।११-१२। 
७, रौद्र रत 
रौद्र रस की प्रति कोध है 1 शत्रु हारा करिये गये जपमान से क्रोध [उत्पल्न| 
होता है । इसका नायक अति दादण चेष्टाओंं े युर्त, क्रोधयुक्त भौर अति उग्र होता 
है । अपने कन्थे फड़कना, भृकुटि तनना, ओं तरेरना, शस्त्र उठाना, अपना 
पराक्रम वखानना भीर श्नु के आक्षेपो का सु हतोड जवाव देना--ये सव इस रसंमें 
होते है \ १३.१४१ 
८* शात र्त 
शान्त रस की प्रकृति [ सांसारिक्त विषयो क्षा] सम्यक्‌ ज्ञान है! इसका नायक 
वैराग्यपूणं व्यित होता है । तमोगुण भौर [सांसारिक] मोहसे इर्हो जानेस 
विषय का सम्यक्‌ ज्ञान [उत्पन्न] होता है । जन्म, बुदापा, भरण आदि से चास, 
[सांसारिक] विषयमे वैराग्य की भावना, चुख ओर इः की अनिच्छा अर्थात्‌ 
समभा मौर अद्रेष--ये सन इस रस में होते ह । १५-१६। 


र ॥- ++ 1 गद्यं 


कारिका १७-१९ | प्चदशोऽध्यायः ४११ 


„ शब्दादिविपयस्वरूपमू । अनुभावो जन्मादित्रासादयः । कैर्चिच्छान्तस्य रसत्व नेष्टम्‌ । 
तदयुक्तम्‌  भावादिकारणानामत्रापि विद्यमानत्वात्‌ 1 एवं प्रेयोरतेऽपि द्रष्टव्यमिति ॥ 

प्रथ प्ेयान्‌-- 
स्नेहप्रकृतिः प्रेयान्संगतरी लाथंनायको भवति । 
सनेहस्तु॒ साहच्यल्िकृते रप चारसंबन्धात्‌ । १७॥ 
निर्व्याज मनोउत्तिः सनर्मसद्धावपेरलालापाः । 
रन्योन्यं प्रति सृहृदोव्यवहा रोऽयं मतस्तत्र ।॥१८॥ 
प्रस्यन्दिप्रमदाश्रुः सुस्निश्धस्फारलोचनालोकः । 


ग्रादरन्तिःकरणतया स्नेहपदै भवति सर्वत्र ।॥१९।। 
सुगम न वरम्‌ । स्नेह. स्थायिभावः । विभावः साहचर्यादिः । अनुभाव. प्रस्य- 
न्दिप्रमदाभरप्रभृत्ति" ॥ 


भिवन 


६. प्रेयान्‌ रस 
प्रेयान्‌ रस की प्रङृति स्नेह है । इसका नायक संगतश्षीर अर्थात सौहाद- 
सम्पन्न तथा आयं अर्थात्‌ ुष्ट्र स्वभाव बाला व्यदित होता है । स्नेहं कहते है निदेछल 
मनोवृत्तिकोलजो प्रकृति के साहुचयं अर्थात्‌ स्वभाव की समानता के कारण तथा 
[पारस्परिक ] उपार अर्थात्‌ दिष्ट व्यवहार के कारण [उत्पन्न होती है । ] इस स्नेह 
माव नें एक-दूसरे के प्रति इस प्रकार कता व्यवहार होता है, जिसमें [ पारस्परिक | प्रेस 
एवं विश्वास, सदमाव तथा कोमल आलाप होता है । अन्त.करण के अद्र होने के 
फारण अत्याह्लादजनित अश्र-प्रवहूण होता है तथा पूणं एवं विकसित नेत्रो से परस्पर 
अवलोकन होता है ।१७-१६। 
| १। 
प्रेयान्‌ रस पर सर्वप्रथम श्रट ने प्रकाश डाला बौर इनके उपरान्त केवल 
भोजराजने । इस रस का स्वरूप उपस्थित करते के उपरान्त सद्रट ने अन्य रसोके 
ही समान इसका भी उदाहरण प्रस्तुत नही किया, अन्यथा “सनेह' नामक स्थायिभाव 
कै स्वरूप को समञ्नने मेँ ओर भी अधिक सहायता भिरुती 1 स्नेह" से इनका तात्पयं 
है- सुहदो का पारस्परिक निद्छकल एव प्रेमपू्णं सम्बन्ध । रद्रट-प्रयुक्त सुहृद शव्द 
को यदि भित्र का पर्यायवाची मान ल्या जाए तौ कानव्यश्ास्वमे प्रेयान्‌ रसकी 
परिकल्पना मौलिकं एवं मनोहारी समनी जानी चाहिए 1 खद्रट यदि एक एसा 
उदाहरण भी प्रस्तुत फर देते, जिसमे दो मित्रो की मिनोस्सुकता के समय आकुरुता 
` दिखायी जाती, अथवा मिरन-काकू मे कण्टकित भाव दिखाया जाता तो नि सन्देहं 


४१२ कान्यालद्धारः [ कारिका १६ 


प्रेयान्‌ रस के आलम्बनविभावं (नायक) की प्रधानं विनेपता दती उसका मित्र- 
प्रमी होना । उदाहरण के अभावमे हम यह निश्चय नही कर पात्ते कि स्नेह से उनका 
तात्पर्यं दो भि्ों के पारस्परिक स्नेह से है, अथवा नायक-नायिका के । परन्तु भगे 
चकर रुप्रट से परवर्ती भाचायं भोजराज द्वारा प्रस्तुत प्रेयान्‌ रसके उदाहरण एवं 
समन्वय से प्रतीत होतार कि भोजराज को इस रसमेदोमित्रोके नही भपितु नायक 
नायिकाके ही पारस्परिक स्नेह का वर्णन अभीष्ट है 1 भोज-प्रस्तुत उदाहरण है- 
यदेव रोचते मह्य तदेवं कुरते श्रिया । 
देति वेत्ति न जानाति तल्पियं यत्करोति सा ॥ 
[मेरीभ्रिया तो इतना जानती है कि वहु वही कु करती है जो मुञ्ने रुचिकर 
है, किन्तु वहं यह नही जानती कि वहजो कुछ भी फरती है वही मून भ्रियहै।| 
उक्त उदाहरण का समन्वय करते हृए वे केहते हं कि इस रस का स्थायिभाव 
स्नेह दै । इसका नायक वत्सल प्रकृति का होने के कारण धीरललित होता है। [वह्‌ 
भौर] इसकी प्रिया इस रस का आलम्बनविभावहं। इसरसका उदहीपनविभाव 
है--इन दोनी की एक-दूसरे के प्रति स्नेहु-विपयक सुकूुमारतापुणं प्रकृति । इसके 
व्यभिचारभाव दै--मोह्‌, धृति, स्मृति आदि, गौर इसके अनुभाव ह [उक्त प्रकारके 
नायक की] बाह्य चेष्टाए-- 
अच्र वत्सलघ्रङतेर्धीरतया कक्ितनायकस्य त्रियालस्बनविमावाडुत्पन्नः स्नेह्‌- 
स्थायिभावो त्िषयसीकुमार्यर्सप्रक्चत्यादिन्िररीपनविभावंरहीप्यसानः समुपजायमनं- 
मोहिषटतिस्परत्यादिभिन्यभिचारि मवं रुमा्व्॑च संसज्यमानो निष्पन्नः प्रेयानिति 
प्रतीयते । 
सोज ने इसी प्रसंग के अन्तगेत स्नेह का परिणाम दिखाते हए प्रकारान्तर से 
इसका स्वरूप भी निदिष्ट करदियादहै।! [किसी व्यवित के प्रति किया गया] जो 
निष्कारण पक्षपात होता है उसकी कोई प्रतिक्रिया नही होती, अर्थात्‌ विनिमय मे किसी 
प्रतिफल की कामना नही की जाती । यह्‌ एक एेसा स्नेहात्मक तन्तुहै जो [दूसरे 
व्यक्ति] के अन्त्म॑र्मोकोसीदेताहैः 
अहेतुः पक्षपातो यस्तस्य नास्ति प्रतिक्रिया । 
स हि सनेहात्मकस्तन्तुरन्तसर्माणि सीव्यति 11 उ० रा० च० 
--स० कृ० भ० ५।७५ (शलोक) 
इसी प्रसग मे भोज-सम्मत यह कथन भी उत्लंखनीय है- 
रतिग्रीत्योरपि चायमेव मूलगप्र कृतिरिष्यते । 
[स्नेह नामक स्थायिभाव रत्ति गौर प्रीति की भी मुख प्रकृति है । | 
इसका तात्पयं यह है कि स्नेह से रति अयवा प्रीति का जन्म होता है । दूसरे - । 


कारिका १६ ] पच्दशोऽध्यायः ˆ ४१३ 


शब्दों मे, स्नेह पूवेवर्तीं भाव है भौर रति अथवा प्रीति परवर्ती है । भोज के शब्दो मे 
मन के अनुकूल विषयों में सुख के अनुभव को रति कहते है- 
मनोऽनुङ्ुलष्व्थेषु सुखसंवेदनं रतिः 1 स० क ० भ० ५।१३८ 
प्रीति साभ्यासिकी' होती है, अर्थात्‌ मृगया आदि कर्मो (खेल-तमाशो) मे किया गया 
भभ्यास प्रीति कहाता है ओर वह शब्दादि से बहिभूत होती है, अर्थात्‌ यहु काव्य 
का विषय नही है-- 
शब्दादिभ्यो वहिभरुता या कर्माभ्याप्तलक्षणा। 
प्रीतिः साम्थासिकी ज्ञेया मरगयादिषु कर्मसु ॥ 
सण कण भण ५९७ 
शब्दादिभ्यो वहिभूता' से यहं तात्पयं छ सकते है कि जिस प्रकार रति का 
सम्बन्व श्णृगार रसके साथ दहै, स्नेह का सम्बन्ध प्रेयान्‌ रसके साथर, उसी प्रकार 
प्रीति का सम्बन्ध किसी रस-विशेष के साथ ही है, वस्तुतः यह एक भावमात्र है- 
जिसे हम गभिरुचि (शौक, मरागला, 0809 आदि ) का पर्याय मान सकते हँ 1 अस्तु ! 
भोज- प्रस्तुत प्रीति का उदाहरण है-- 
इति विस्मूतान्यकरणीयमात्मनः 
सचिवावलस्बित्तधुरं नराधिपम । 
परिवरद्ध रागमनुबद्धसेवया 
भृणया जहार चतुरेव कामिनी ॥ स० क० भ० ५।६७ (दलोक) 
[इस मृगया ने चतुर कामिनी के समान इस राजा का हरण कर लिया है, 
जिसने अपने कर्तव्य को भुला दिया है, जिसने अपना सम्पूणं कायं-भार सचिवो पर 
छोड़ रखा है गौर जिसका मृगया के प्रति राग (शौक) इसका अधिक अभ्यास करने 
के कारण बढ गया ह । 
भस्तु ¦ इद्रट मौर भोज द्वारा प्रतिपादित नेह" के सम्बन्ध मे निम्नोक्त 
निष्कपं प्रस्तुत किये जा सकते ह~ 
(१) खट के कथनानुसार स्नेह “निर््याज मनोवृत्ति" है भौर भोज के अनुसार 
यह अहेतु पक्षपात" है । वस्तुतः ये दोनो कथन एक-समान ही है । 
(२) शद्रटने स्नेह का सम्बन्ध सम्भवत दो मित्रके पारस्परिक सनेहके 
साथ स्थापित किया है मौर भोज ने नायक-नायिका कै । 
(३) भोजके मनृसार स्नेह नामक भाव रति भौर प्रीति की मूर प्रकृति है । 
| २ | 
` रट से पूवं प्रेयान्‌ रस का उनल्छेख 1 किसी चायं ने नही किया, 
किनतु भयः (प्रयस्वद्‌) अल्कार के लक्षण एवं उदाहरण से इस रस के सकेत अवद्य 


८१८ काव्यालद्धुारः [ कारिका १६ 


मिल जाते है । भामह्‌-प्रस्तुत प्रेयस्वदु शटंकार्‌ का स्वरूप दत्त प्रकार्‌ ई-- 
प्रेण गृहागतं एप्णमवादीद्‌ विदुस य्था ॥ 
सश थां मत गोविन्द जाता त्वयि गृहागते । 
छाटेनेणा भदेसरीतिस्तवंवायमनात्‌ पुनः ॥ करा० अण ५५ 
[विदृर्‌ने षर जायिदकरप्णकोनजो कृकषरा वह्‌ प्रयम्‌ धकार द। यथा- 
{ आज तुम्हारे घर वनेम मूत्र जो प्रीति (प्रसन्नता) मिदी हं वहु समय 
थाने पर्‌ तुम्हारे गमन पर फर्‌ होगी ।] 
आगे चकम्‌ दण्डीने भामदूकेदही उसी कथन का परिवद्धितत दप उपस्थित 
किया ह-- 
प्रेयः प्रियततराद्यानमर्‌ >८""/7** 2 **.*.* > । 
ञ्य या भम गोविन्द जाता च्म गृहागते) 
काठेनेा मवेत्‌ प्रीतिस्तवंवाऽयसनादू पुनः ॥ 
दत्याह्‌ शरुदतं विदुसो नान्यतरताहती शतिः । 
भप्ित्तमाच्रसमाराध्यः युप्रीतद्न ततो हरिः ॥। 
क1० आण २।२७५.२७५ 
[प्रिय्रतर्‌ कथन को प्रेय. यक्करार कटनेदै) >> (खदाहूरणाथ) है 
गोविद ! आपके मेरे छम घर्मे भान परमम जौ प्रीति वर्धान प्रसन्नता मिदी है, 
वह्‌ फिरभी किसी यन्य सरमय यामृकरे पून" यागमन परर मुत्रं मिकगी । 
यह्‌ कथन विदृर्‌ ने भगवान्‌ कृष्णक प्रति टीकदही कहा था कि उनको करिमी 
भी दूमरे मे उत्तना यं (यानन) न मिन्नत । तमी भगवरानुभीनजो कि भक्तिभाव 
ये भाराध्यहु वति प्रगन्न हिएु।| 
दमी प्रमगमे दण्डी नै निम्नोक्त एक अन्य उदाहरण भी प्र्तुन किया हु- 
सोमः पुर्या म्द भूनिर्व्येमि हानानलो जत्‌ । 
इति र्पाण्यतिक्रम्प त्वां द्रष्टु देवे के दयन्‌ ॥ 
इत्ति सराक्षार्छते देवे रान्नो यद्र रात्तवर्मणः। 
परीतिप्रह्ताद्रानं तन्व प्रेण दस्यवगम्यताम्‌ ॥ 
का० चाऽ २।२७८-५६ 
[सतवर्मा नामक नुष्नि का महदिव के प्रति वचन-टदेव ! भ्रोम, सूरय 
मर्द, शुमि, चाकार, यजमान, वनन भीर जकर मवद्परो करा घत्तिक्रमण करके तुमको 
देख मवनेमे समश्रह्म भाहि कीन? टस प्रकार रत्तवर्मा नायक्र राजा 
दारा महादवे के ठर्यन किये जानि पर जो दैव-तव्रिपयक्र प्रीति की भर्भिन्यवित हुईं द! 
ष्रो भी प्रेय. अ्टंकार्‌ समना चाहिगु | 


} 
7, 
1 


कारका १६ | प्चदसोऽध्यायः ४११५ 


भामह ओौर दण्डी के लगभग एक-समान उदाहरणो से स्पष्ट है कि विदुर का 

कृष्ण के प्रति समादरपूर्णं भाव जिसे भक्तिभाव भी कहं सकते है प्रेयस्वतु अर्कार 
का विषय है 1 दण्डि-प्रस्तुत दूसरे उदाहरण से तो यह मान्यता गौर भी अधिक स्पष्ट 
हो जाती है कि विशेषतः भक्तिभाव ही प्रेयस्वत्‌ का विषयं है। परन्तु भागे चक्कर 
उद्भट ते रत्यादि [स्थायी ] भाव, अनुभाव आदि के साथ इस अकार को सम्बद्ध 
कर दिया-- 

रत्यादिकानां मावानामनुभावादिसुचन. । 

यत्काव्यं बध्यते सद्धस्ततु प्रेयस्नद्‌ ऽदाहुतम्‌ ॥ 

। कृ० सा०स० ४२ 
अधिक सम्भावना यही है किं स्थायिभाव एव अनुभाव आर्दिके साथ इस अलकार 
को जोड़ना भामह भौर दण्डीकोभी अभीष्ट रहा होगा, किन्तु इसका स्पष्ट 
निदेशं सरव॑प्रथम उद्भट ने ही किया । इतस अलंकार के उदाहरण मे इन्दोने पुत्रवत्सला 
माता के वात्सल्य भाव को प्रस्तुत किया है-- 

इयं च सुतवात्सल्यान्निविशेषा स्प्हावती । 
उल्लापयितुमारब्धा त्वेयं कोड आत्मनः ॥ 
[पुत्र वात्सल्य क कारण अत्यधिक उत्सुक बनी हुई इस जननी ने अपनी गोद 
मे केकर इसे लोरी सुनाना भारम्भ कर दिया ।] 
। [ ३ 


भामह, दण्डी ओौर उद्भट के दन उदाहरणो को तिर्दिष्ट करनेसे हमारा 


अभिप्राय यह्‌ दिखाना है किं प्रेयस्वतु प्रेय } अलंकार समादरभाव एव भव्ितिमाव के 


मतिरिवत वात्सल्य का भी ज्ञापक रहा 1 इषरे दाब्दो मे, इन भावो को रति के अन्त- 
गेत स्वीकार न कर इनका पृथक्‌ अस्तित्व स्वीकार किया गया है, गौर यहं समवित 
ही हुमा । "रति, चायक-नायिका के प्रणय-सम्बन्ध की द्योतक है, जन्तु इषरये भाव 
प्रणयेतर सम्बन्धो कँ च्योतक है 1 इसका स्पष्ट कारण यह्‌ है कि रति प्रणय-सम्बन्ध की 
योत्तक है भौर ये भाव प्रणयेतर सम्बन्ध के द्योतक दै । केवल यही भाव ही क्यो, इसी 
भकार के अन्य कर्‌ भाव इसी अककार मे अन्तभूत किये जा सकते है । इधर, खट 
भोर भोजराज ने प्रेयान्‌ रस के निरूपण मे जिस सनेहभाव की चर्या की है हमारे 
विचार मे उसका मूर स्रोत इन उदाहरणो मे दृढा जा सकता है--स्पष्ट एव सन्ना 
' स्पस्ेन बही तोप्रकारान्तर एव गसाक्षावु रूप से सही 1 यहाँ यह निर्दिष्ट करना 
भावस्यक्‌ है कर बखकारवादी आाचार्यो- भामह, दण्डी एवं उद्भट ने रति [स्थाय . 
भाव को रसवत्‌ गरकार से सम्बद्ध किया है मौर रति घे भिरते-जुखते प्रणयेतर सभी 
भारो को प्रेथस्वत्‌ से । उ दाहरणार्थं, दो मित्रो के बीच पारस्परिकं स्नेहभाव को भी 


४१६ कान्यालद्खुारः [ कारिका १६ 


रति मे अन्तभरूत नही किया जा सकता। इतना ही क्यो नायक-नायिका का पारस्परिक 


स्नेहभाव (चाहे तो इसे आधुनिक शब्दावी मे "फ़ ण्डरिप' भी कह सकते है) रति 
कै अन्तगंत नहीं रखा जा सकता । भोजराज हारा प्रस्तुत उपयु क्त पद्य (यदेव- 
रोचते"*") को बड़ी सरर्ता के साथ अलंकारवादी आचार्योकी धारणा के अनृ्गुक 
भरेयस्वत्‌ भलकार का उदाहरण माना जा सकता है, जिसे आगे चलकर शुद्रट भौर भोजं 
ने श्रेयान्‌ रस" नाम दे दिया, भौर इसी आधार पर यदि प्रेयस्वत्‌ अलंकार को प्रेयान्‌ 
रस का मु स्रोत माने तो विशेप आपत्ति नहीं होनी चाहिए । ओौरयोंभी प्रेय 
स्वत्‌ ओर प्रेयान्‌" दोनों ्रेयस्‌' शव्द के ही रूप है- पहला प्रेयस्‌ का वतुप्‌-प्रत्ययान्त 
सूप है भौर दुसरा प्रेयस्‌ की प्रथमा विभवति का एकवचनान्त रूप । इसके अतिरिक्त 
अङंकारवादी आचाये जिसे भलकार कहते है, उरो परवर्ती रसवादी आचार्यो के अनु- 
रूप सद्रट द्वारा रस कहा जाना कोई असंगतभी तहं है, अपितु यह्‌ इस तथ्यका 
पोपक है जरि यह्‌ भाचायं एक ओर अलंकारवादी ओर दूसरी ओर रसवादी माचा 
के मध्य एक भनिवायं कंडी का कायं कर रहा है । अस्तु | 
[५] 
भन्ततः यह्‌ विचारणीय है कि क्या प्रेयान्‌ रस की स्वीकृति की जाए ? 
भगवाच्‌ कै प्रति अनुराग, देश के प्रति प्रेम, नुप एव किसी महापूरुष के प्रति 
समादर एव शद्धा, भिच्रके प्रति स्तह्‌, िशयुके प्रति वात्सत्य--ये सभी भाव 
निःसन्देह रति से सम्बद्ध तो है किन्तु स्वय रति नही है, "क्योकि रति कां सम्बन्ध केवल 
प्रणय-सम्बन्ध के साथ ही जोडा जाता रहयहै ओर समुचितं भी यहीदहै। यहा यहु 
उत्लेखनीय है कि रति का विभावादि से परिपुष्ट वणंन रसवादी आचार्यो के कथना- 
नुसार श्छगार रस का विपय है [भौर इसके अपरिपुष्ठ वर्णेन को रसवद्‌ भक्कार की 
संज्ञादी जतीहै ]। रति से सम्बद्ध उगत भावो की परिपुष्ट अभिग्यतित को “भावः 
कहा जाता है [भौर इन भावो की अपरिपुष्ट अभिन्यवित को प्रेयस्वद्‌ अङकार|। 
दसी आधार पर भवित एव वत्सर रसो को अनेक आचार्यं "रस" नाम से अभिहित 
नें केर 'भाव' नाम से अभिहित करने के पक्षमे रहे, चिन्तुवादमे भगवदनुराग एव 
वात्सतल्य-विपयक कान्य-चमत्कारपूणं पदयो को ठक्ष्यमे रखकर इन दो अन्य ^रसो' की 
कत्पना कर छी गयी । 
ठीक यही समस्या प्रयान्‌रसकीभीहि। स्नेहु-विषयक विभावादि-परिपुष्ट 
उदाहरणं मे स्नेह को [ नाह यह्‌ स्नेह दो मित्रो के वीच हो, अथवा नायक-नायिका के | 
सिद्धान्त की दुष्टिसे यपि रसकीसंज्ञाहीदीजा सकती है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि 
सेश्से भाव कोसंज्ञादहीदी जानी चाहिए क्योकि एकतो अभी इसके विभावादि 
परिपृष्ट उदाहरण उपलन्ध नहीं हुए है, भीर नजो उपर्न्धहैभी, वे सख्या मे नगण्य 


कारिका २०-२१ ] पचच्चदसोऽध्यायः ४१७ 


अथ करादि रीतिनियममाह-- 

वेदर्मीपाञ्चाल्यौ प्रेयसि करणे भयानक्ाद्भुतयोः । 

लाटोयागौडीये रद्र कुर्याद्‌ यथौचित्यम्‌ ।२०॥। 

वेदर्भीति । प्रेयःकरुणभयानकानद्धतेपु चतुषु रसेषु वंदर्मी पाञ्चाली चेति रीति- 
दयं कुर्यात्‌ । तथा रौद्र रसे लाटीया गौडीया च कतंव्या । शेषरसेषु न रीतिनियमः | 


सर्वा अपि कथं कार्या इत्याह-यथौचित्यमिति 1 गौचित्य रसस्वरूपपरिपोप । तदनति- 
क्रमेणेत्यर्थः । रस्ानामलकाराणां च लक्षणस्य मात्रयापि न्यूनत्वे तदाभासता वोद्धन्या ॥\ 


छध्यायमुपप्रहरस्वद्रचनाक्रसमाह- 

एते रसा रसवतो रमयन्ति पसः 
सम्यग्विभज्य रचितादचतुरेण चारु । 

यस्मादिमाननधिगम्य न सवंरम्यं 


काव्यं विधातुमलमत्र तदाद्वियेत ॥२१॥ 
एत इति । एते रसाः सम्यग्विभज्य चतुरेण कविना चारु यथा भवति तथा 
रचिताः सन्तो रसिकान्पुसो रमयन्ति यस्मात्‌ । तथेमाननधिगम्याविज्ञाय स्वेथा रम्यं 
कान्य विधातु कविर्नाल-न समर्थः । तत्तस्मादर््रैतेष्वाद्वियेतादर कुर्यात्‌ ॥ 


इति श्रीरद्रटक्ृते काव्यालंकारे नमिसराधुविरचित टिप्पणसमेतः 
पञ्चदरोऽघ्याय समाप्तः। 

दै । दूसरे, यदि इस प्रकारके भावो को रस नाम से भिहित करने रगे तो इसका , 
परिणाम यह्‌ होगा कि देशप्रेम आदि अन्य विपयोके किए भी कई रसो की कल्पना करनी 
दोगी, भौर दूसरा परिणाम यह्‌ कि "भाव" नामक काव्याङ्ख काव्यक्षत्र से वहिष्छृत हो 
नाएगा 1 अतः प्रेयान्‌ को रसन कटुकर "भाव" ही कहना चाहिए ¦ 
?०. श्रंगारेतर्‌ रस ; रीति 

प्रेयान्‌, करुण, भयानक ओौर अदभुत इन चार रसो में वेदर्भी भौर पाञ्चाली 
रोति का प्रयोग करना चाहिए ओर रौद्ररसं काटी भौर गौडी का।\२०। 

नमिसाधु के कथनानुसार शेष रसो मे रीति का कोई नियम नही । इन सव 
रोतियो का प्रयोग रस के स्वरूप के परिपोप को दृष्टि मे रखकर करना चाहिए । 
£. रस-महिमा 
प चतुर कवि हारा सुन्दरतापुरवंक ठीक विभाग करके रचितये रसं रस्सिकं 
.जन को आनन्दित कर देते हँ । वयोँकि इनको जाने बिना कवि सर्वथा रमणीय 
काव्य को करने में सभ्यं नहीं होत्ता 1 मतः इस पर विरेष ध्यान देना चाहिए ।२९। 


इति अंशुप्रभा"ऽऽख्य-हिन्दीन्याख्यायां पञ्चदशोऽध्यायः समाप्तः । 


षोडरोऽध्यायः 

“ननु काव्येन करियते सरसानामकगमश्चतुवर्ये' (र?।£) इत्युक्तम्‌, तत्र 
कृश्चतुवेगः कथं च तं रतैः सह निबभ्नीयादित्याह- 

जगति चतुवंगं इति स्यातिधंमधिकाममोक्नाणाम्‌ । 

सम्यक्तानभिदध्याद्रससंमिश्रा्प्रबन्धेषु । १ ॥ 
जगतीति । सुगमम्‌ ॥ 

प्रवन्धेष्ित्युक्तम्‌, श्रथ के ते प्रबन्धा. कियन्तो वेत्येतन्पुखेन महाकान्यादि- 
लक्षणं वक्तुमाह- 

सन्ति द्विधा प्रबन्धाः कान्यकथादख्यायिकादयः काव्ये | 

उत्पाद्यानुत्पाद्या महल्लघुत्वेन भूयोऽपि ॥ २॥ 

सन्तीति । द्विधा प्रबन्धाः सन्ति। प्रबध्यते नायकचरितमेतेष्विति कृत्वा । के . 


षोडश अध्याय 


हम ध्याय मे चतुवरौ-फलदायक प्रवन्ध-कान्यों क्री चर्चा कने के 
उपरान्त कान्य, कथा, आख्यायिका आदि मवन्ध-कार्व्यो के दो मेदो की चर्चा 
की गयी है--उत्याच शरीर च्रनुत्या् । ये दोनो दो-दो प्रकार के होते है- मह्यन्‌ 
त्रौर लधु । महान्‌ कान्य के श्रन्तयत महाकान्य, केथाचत्रोर आख्यायिका का 
सविस्तर निरूपण किया गया है। एर लघु कान्य पर संक्षिप्त प्रकाश डाला 
गया है । इसके उपरान्त कान्य-रूपो का नामोत्लेख करिया गया हे, फिर कान्य मेँ 
निषिद प्रतयो की चर्चा ग्रस्त हृ है, चोर अन्तिम पद्य में परावती, विष्णु च्रोर 
गरशच का जयगान मन्थ-समाप्तिका सूचक हू | 
¢, चतुवग-फलदायक काव्य कौ उपादेयता 

संसार भें धमं, अथं, काम ओर मोक्ष इनकी चतुवेगं नाम से प्रसिद्धि है । रस- 
संयुक्त भ्रवन्ध-कान्यो में इनका प्रयोग सम्यक्‌ सूप से करना चाहिए 1१1 

"चतवं गंफल' के सम्बन्ध मे देखिए प्रस्तुत न्थ पृष्ठ ८-११। 
२. म्रबन्ध-काव्य के मेद्‌ 

कान्य, कथा, आख्यायिका आदि प्रबन्ध-कान्य दो प्रकार के ह--उत्पाद्य ओर. 
मनुत्पा्य । फिर वे भो महानु गोर लघु--इन दो भेदो में विभक्त हँ ।२। 

मादि' से नमिसाधु ने कुलक भौर नाटक को भी गिनाया है । 


कारिका ३-५. | षोडशोऽध्यायः ४१९ 


च ते । काव्यकथाख्यायिकादय इति । आदिग्रहण कुरुकनाटका्यथं । क्व ते प्रबन्धाः । 
काव्ये कविकमेणि । कथम्‌ । द्विधा 1 उत्पाद्यानुत्पाद्यभेदात्‌ । तथा मह्छघुत्वेन 
- भूयोऽपि पुनरपि 1 उत्पाद्या महान्तो कुषवद्चानुत्पा्या महान्तो कघवश्चेत्यथंः । 
श्रथोत्ा्यलक्षणमाह- 

तत्रोत्पाद्या येषां शरी रमृत्पादयेत्कविः सकलम्‌ । 


कत्पितयुक्तोत्पत्ति नायकमपि कुत्रचित्कर्यात्‌ । ३ ॥ 

तत्रेति । तत्र कान्यादिषु मध्ये उत्पाद्यास्ते येपा शरीरमितिवृत्त सकर 
कविरुत्पादयेत्‌ । नायक प्रसिद्ध गृहीत्वा तदृन्यवहार. सवं एवापूर्वो यत्र निबध्यत इत्यथः । 
यथा माघकाव्ये । प्रकारान्तरमाह--कत्पिता युक्ता घटमानोत्पत्तियंस्य तमित्थभूतं नायक- 
मपि कुत्रचिक्र्यात्‌, आस्तामितिव्रत्तम्‌ ! अत्र च तिलकमञ्जरी बाणकथा वा निदशंनम्‌ ॥ 

अथानुलाचयलक्षखमाह- 

पञ्जरमितिहासादिप्रसिद्धमखिलं तदेकदेदा वा 


परिपूरयेत्स्ववाचा यत्र कविस्ते त्वनुत्पाद्याः । ४ ॥ 
पञ्जरमितिं । तेषु कान्यादिमध्ये तेऽनुत्पाद्या", येषा पञ्जर कथाशरीरमखिकल 
सवंमितिहासादिप्रसिद्ध रामायणादिकथाप्रसिद्ध कविः स्ववाचा परिपुरयेत्‌ । वदेदित्यर्थः । 
पथाजु नचरिते । अथवा तदेकदेश वा, इतिहासाधे कदेश वा स्ववाचा यत्र पूरयेत्तदप्यनु- 
पाद्यम्‌ 1 यथा किराताजु नीयं काव्यम्‌ | 
श्रथ महयन्त. 
तत्र महान्तो येषु च विततेष्वभिधीयते चतुवंगेः । 
सवं रसाः क्रियन्ते काव्यस्थानानि सर्वाणि ।। ५॥ 
उत्पाच-- 
उत्पाद्य काव्य वे कहलाते हँ जिनके सम्पूणं शरीर को कवि बनाताहै ओर 
कहीं नायक को भी अपनी कल्पना से बनाता है ।३। 
उदाहरणा्थं--धनपाक कवि-निर्भिता 'त्तिककमञ्जरीकथा', बाणकविनिमिता 
"कादम्बरी" । 
अनुत्पा्य- 
अनुत्पाद वे कहलाते है जहाँ कवि इतिहास-प्रसिद्ध सम्पुणं कथा्लरीर को था 
उसके एक साग को अपनी वाणी से पूणं करे ।४। 
उदाह्रणाथं--किराताजुं नीय कान्य । 
महान्‌- 
वे . [भ्रबन्ध-कान्य | महानु कंहाते हैँ जिनके विस्तृत आयाम मे [ उपर्युक्त ] 


४२० काव्याखद्धुारः [ कारिका ६-८ 
तत्रेति । सुगमं न वरस्‌ । कान्यस्थानानि पुष्पोच्चयजकर्क्रीडादीनि भण्यन्ते ॥ 
अथ लधवचः- 

ते लघवो विज्ञेया येष्वन्यतमो भवेच्चतुवेर्गात्‌ । 

भ्रसमभ्रानेकरसा यें च समग्रैकरसयुक्ताः।॥ ६ ॥ 

त इति । सुगमं न वरमू ! ते मेघदुतादयो रषव. महान्तस्तु रिरुपाङ्वधादेयः।1 
अथानुत्पाचेपु पूराणादिक्रमेणंवेतिश्रृत्तनिवन्धः, केवलं तत्र कविः स्ववाचा चतुवंगं- 
रसकाग्यस्थानवणेन नमस्कारपूर्वक करोतीति न तद्विषयनिबन्धोपदेलो जायते । ये 
पूनरुत्पाद्यास्तत् कथ निबन्ध इत्यनुपदिण्टं न ज्ञायत इति तन्तिवन्धक्रमोपदेशमाह-- 

तत्रोत्पाय पूर्वं सन्नगरीवणेनं महाकाव्ये । ` 

कुर्वत तदनु तस्यां नायकवंशप्रश्णसां च।७॥। 

तत्र त्रिव्गसक्तं समिद्धरावितत्रयं च सवेगणम्‌ । 

रक्तसमस्तप्रकृति विजिगीषुं नायक न्यस्येत्‌ | ठ८॥ 


चारों वर्गो का वर्णन रहता है, स रसो को तथा [ पुष्पोच्चयं, जलक्रोडा आदि | सभी 
काव्य [में वर्णन करने योग्य ] स्थानों को निरूपितं किया जाता है ।५। 

यया-शिश्युपाक्वध आदि । 
रघु- 

लघु [प्रबन्ध-कान्य] उनको जानना चाहिए जिनमें चतुवगं सें से कोई एक 
[ निरूपित] हौ, [भौर इनमें यदि | अनेक रस [होतो वे] उपूणं [से] हौ, अर्थात्‌ 
इनके सभी रूपों का प्रयोग न किया जाए, [ओर इनमे यदि कोई] एक रस [होतो 
वह्‌ ] पुणं [होना चाहिए] \६। 

यथा-मेषदूत आदि 1 
२. मह्यकाग्य 

उत्पा सहूाकाव्य से सनसे पहर किसी श्रेष्ठ नगरी का वर्णेन करना चाहिए 
उसके पचात उस नगरी में नायक के वंश्च की प्रशंसा करनी चाहिए 1७1 

इन काव्थों मे [ कवि] न्रिवगं-प्राप्ति मे सलग्त, शदितन्नरय से सम्पन्न, स्वगुण 
युक्त, सवं प्रजाश्रियः, विजय के इच्छकं नायक की स्थापना करे ।८। 

त्निवगं --धमं, अथं ओर काम; शव्तित्रय--तीन राजक्यां प्ुशगित 
अथवा प्रभावराकित, मन्वरशक्ति भौर उत्साहशित } 


कारिका ६-१५ |] पो डदोऽध्यायः ४२१ 


विधिवत्परिपालयतः सकलं राञ्यं च राजवृत्तं च । 

तस्य कदाचिदुपेतं शरदादि वर्णयेत्समयम्‌ ॥ ९ ॥ 
स्वथं पित्रा वा धर्मादि साधयिष्यतस्तस्य । 
कुल्या दिष्वस्यतमं प्रतिपक्षं व्णंयेद्‌ गुणिनम्‌ ॥ १०॥ 
स्वचरात्‌ तददूतादहा कुतोऽपि वा श्ृण्वतोऽरिकार्याणि । 

कुर्वीत सदसि रज्ञां क्षोभं करोषेढचित्तणिराम्‌ ॥ ११॥ 
संमनुत्य समं सचिवेनिर्चित्य च दण्डसाध्यतां शत्रोः । 

ते दापयेत्प्रयाणं दृतं वा प्रेषयेन्मुखरम्‌ । १२॥ 
ग्रथ नायकप्रयाणे नागरिकाक्षोभजनपदाद्रिनदीः। 
भ्रटवीकाननसरसीमरुजलधिद्रीपञुवनानि । १३ ॥ 
स्कन्धावारनिवेशं क्रीडां यूनां यथायथं तेषु । 
रव्यस्तमयं संध्यां संतमसमथोदयं सिनः । १४॥। 
रजनीं च तत्र यूनां समाजसंगीतपानश्प गारान्‌ । 

इति वणयेत्प्रसंगात्कथां च भूयो निबध्नीयात्‌ 1 १५॥। 
सम्पुणं राञ्य का विधिवत्‌ पालन करते हए यथावस्र उस्र [नायक द्वारा 

भप्त शरदादि चतुभो [के आनन्द ] का वर्णन फरना चाहिए 1&। 
जपने लिए या भिन्नङके च्िए धर्मादि का साधन करने वारे उस नायक के 


छस्णेन, [ पराक्रमी, दानी ] आदि | शत्रुओं] मंसे किसी एकशच्रु को गुणीरूपमें 
वणित करना चाहिए ।१०। 

॥ अपने गप्तचरसे या तसे या कहीं सेमी क्षत्र के कार्यो को सुनते हए समा 
मे ्रोध से प्रदीप्त मन ओौर वाणी वाते [अपने सहायक | राजां को घ्ुग्ध करे-- 
अर्थात नायक उन्हे श्रु के धिरुदध उत्तेजित करे ।१९। 

मन्नियों से सलाह करके तथा नरु फी दण्डसाध्यता का निद्चय करके उसके 
भति प्रयाण करवाए अथवा वाक्‌पद दूत भेजे ।१२। 

इसके उपरान्त नायक के प्रयाण से, अर्थात्‌ नाथन्-संगत कथा-रसंग से, कवि 
छ नागरिको का जमधर (समुदाय), जनपद, पव॑त, नदी, अटनी, कानन, सरोवर, सर- 

' भुमिः सथुद्रः दीप, भुवन, छावनी की स्थापना, यथावसर युवकों का खेल-कूद, सूयं 
| के क होने पर॒ अन्धकारमय सन्ध्या, चन्द्रमा का उदय, रात्रि भौर उसे युवकों 


४२२ कान्यालद्भारः [ कारिका १६-१६ 


प्रतिनायकमपि तद्रत्तदभिमुखममष्यमाणमायान्तम्‌ । 
ग्रभिदध्यात्‌ का्य॑वशान्नगरी रोधस्थितं वापि ॥१६॥ 
योद्धव्य प्रातरिति प्रबन्धमधुपीति निशि कलत्त्रेभ्यः । 
स्ववधं विशङ्कुमानान्‌ संदेशान्‌ दापयेत्‌ सुभटान्‌ ।। १७॥ 
संनह्य कृतव्थृहं सविस्मयं युध्यमानयोरभयोः । 


कृच्छण साधु कुर्यादभ्युदयं नायकस्यान्ते।।१८॥ 
गतार्थं न वरमू । कूल्यादिष्विति कुल्यो गोरजः । मादिकान्दात्कृतरिमादि. । तथा 
समन्त्य निर्दिचत्य चेत्यत्रान्तर्भूतः कारितार्थो द्रष्टव्यः । अन्यथा भिन्नकतृंकत्वात्क्त्वा 
न स्थात्‌ । नायकमूखेन कविरेव मन्त्रयते निरिघनोति चेतति केचित्‌ । तथा नः 
सरितः । अटवी निजनो देशः । काननमूद्यानवनम्‌ । सरस्यो महान्ति सरासि 1 मर- 
निर्जलो देशः । द्वीप जलमध्यस्थभूप्रदेशः 1 ग्रुवनानि लोकान्तराणि । तथा यूनां दपती- 
ना क्रीडा। साच वनेषु डा, नदीपु जलकेटिः, अटन्या विहार इत्यादिका । त्था 
यूना समाजः संगमः । सगीत गेयम्‌ 1 पानक सरकेमु । श्छगारः सुरतादि. । तथा 
कसत्रेभ्यः सुभटान्सदेशान्प्रदापयेत्‌ । कथ दापयेत्‌ । प्रवन्धेन मधुपीतिमंधुपान यत्र 
कमणि । मधुपानमपि कूत इत्याह-योद्धग्यं प्रातरिति । तथा नायकस्येति नायकस्थेवं 
विजयं कुर्यान्न विपक्षस्येति सूचनाम्‌ । 
प्रथ किमयं प्रवन्धोऽनवच्छेद्‌ एव कर्तव्यो नेत्याह-- 
सर्गाभिधानि चास्मिन्नवान्तरप्रकरणानि कुर्वीति । 
संधीनपि सरिलष्टांस्तेषामन्योन्यसंबन्धात्‌ ॥१६॥। 
[ एवं युवतियों ] हारा सामूहिक रूप में सगीत, [मद्य-] पान एवं श्वद्धार-चर्वाए-- 
इन सवका व्णंन फरे तथा इनके पभ्रसंग से फथा का नियोजन करे ! १३-१५। 

उप्ी प्रकार उसकी गोर असहूनक्णील होकर अति हृए अथवा नाक्रमण के 
उद्श्यसे नगरी का घेरा डालकर ठहर हुए प्रतिनायक का भी फथन करे ।१६। 

"कल प्रातः युद्ध पर जाना है, वहां कीं हमारी मृत्यु न हो जाए" इस प्रकार 
की आक्लंका करने वारु संनिको को [पूर्व-] रान्नि में सुन्दरियों हारा [आद्वासन, 
्रात्रु-ष्युह, स्वसंन्य-मुचना जादि विषयों पर] सन्देश्ष निजवाने चाहिए, तथा मघु- , 
पान फा प्रवन्ध भी फराना चाहिए 1 १७1 

सन्नद्ध होकर, व्यूह्‌ फी रचना करते हए मौर साक््चयंजनक रूप मे परस्पर युद्ध ` 
करते हुए [दोनो पक्षो मे से] नायक का ही फष्टपुर्वक विजयलाम दिलाना चाहिए 1१८1 

इस [महाकाव्य | मे तिमिन्न प्रकरणो का नाम सगं रखना चाहिए, भौर 


कारिका २०-२१ |] षोडरोऽध्यायः ४२३ 


सेति । सुगमं न वरम्‌ । सर्गाभिधानि सगंनामकानि । यत. 'सगेबन्धो महा- 
काव्यम्‌" इत्युक्तम्‌ । तथा सन्धीन्भुखभ्रतिमुखगभं विमरनिववेहणाख्यान्भरतोक्तान्सुदिल- 
ष्टान्युरचनान्करर्बीति । कथ तथा ते स्युरित्याह--अन्योन्यसबन्धादिति ॥। 
महाक्राग्यलक्षखमास्याय केथादक्षदसाह- 
दलोकं्महाकथायामिष्टान्‌ देवान्‌ गुरून्‌ नमस्कृत्य । 
संक्षेपेण निजं कूलमभिदध्यात्‌ स्वं च कतर तया ।२०॥ 
रलोकंरिति । सुगम न वरम्‌ । सक्षेपेण निज कुरुमभिदध्यात्‌ । न त्वाख्या- 


यिकायामिव विस्तरेण । स्वं चेति चका रोऽनुक्तसमुच्चये । तेन सुजनखलस्तुतिनिन्दा- 
दिक चाभिदध्यादिति सूच्यते ॥ 


तत्श्व-- 
सानुप्रासेन ततो भूयो लघ्वक्षरेण ग्न । 


रचयेत्‌ कथाशरीरं पुरेव पुरवणंकप्रभृतीन्‌ ।।२१॥ 
सानूप्रासेनेत्ि । सुगमं न वरम्‌ । भूयो रष्वक्षरेण ॥ 


सुरचनापूवंक संधि्यों का भी प्रयोग इस खूपमें करना चाहिए किव [प्रकरण 
एक-इूसरे से सम्बद्ध हों 1 १६। 

सन्धियो घे तात्पयं है पाच नाट्य-सन्धियां- मुख, प्रतिमुख, गभ, विमं 
मौर निर्वहण । इनका नाटक के अतिरिक्त प्रवन्ध-काव्य मे भी वणेन किया 
जाता है । | 

यहाँ यह निरिष्ट करना आवरयक है कि यद्यपि रद्रट ने महाकाव्य के स्वरूप- 
निर्देश मे भामह गौर दण्डीसे ही अधिकाश सामग्री ग्रहण की है, किन्तु व्यवस्थापुणं - 
प्रतिपादन इनका अपना है) इन्दीके ही इस प्रकरण का प्रभाव परवर्ती भाचार्यो 
परभी पड़ा] यह तक कि विशवनाथ-जैसे सुग्यवस्थापक आचार्यं का भी यह 
प्रकरण इन्दी से प्रभावित है! 
४ सहाकथा 

महाकथा उसे कहते है [जिसके प्रारभ्म मे ] कवि शलोको हारा इष्टदेव भीर 
गुरुभं को नमस्कार करके क रूप से (स्वयं ) अपना तथा अपने कुल का संक्षेप से 
वणेन करे 1२५ 


उसके बाद फिर भअनुप्रास-सहित तथा कष्वक्षर-युष्त गद्य के द्वारा पहले के 


- * समान नगर-वणन मादि करते हए कथा के क्ञरीर कौ रचना करे ।!२९१। 


४२४ कान्यालुद्धारः [ कारिका २२.२१ 


अपफारान्तरमाह- 
ग्रादो कथान्तरं वा तस्यां न्यस्येत प्रपञ्चितं सम्यक । 
लघुतावत्संधानं प्रक्रान्तकथावताराय २२ 


आदाविति । गतार्थं न वरम्‌ । रधुतावत्संधानं लाघवयुक्तं संधानं यत्र 
कथान्तरे । अयवादी तावक्रथान्तर न्यस्येत्‌ । ततो रघु शीघ्र प्रक्रान्तकथावताराय 
संधानभिति 1 यथा कादम्वर्याम्‌ । 

तथा-- 

कन्यालाभफलां वा सम्यग्विन्यस्तसकलभ्यु गाराम्‌ | 


इति संस्कृतेन कूर्यत्कथामगद्यन चान्येन ॥२३।॥। 
कन्येति । वाशब्दः पक्षान्तरसूचकः । तेन राज्यलाभादि फठमपि क्वचित्‌ । 
सम्यगविन्यस्तसकलग्पर्धारामित्यनेन श्य ङ्खारस्तत्र प्राधान्येन निवन्धनीय इत्युक्त भवति । 
इत्येवं संस्रेतेन कथा कुर्यात्‌ 1 अन्येन प्राकृतादिभाषात्तरेण त्वगद्येनं गाथाभि प्रभ्रूत 
कुर्यात्‌ । चकाराद्‌ गद्यमपि किचिदित्यर्थः । 
पख्यायिकरालक्षखमाह- । 
पूववदेव नमरुकृतदेवगुरर्नोत्सहेत्‌ स्थितेष्वेषु । 
काव्यं कंतु मिति कवीञ्शंसेदाख्यायिकायां तु २४ 
तदनु नपे वा भक्ति परगुणसंकौतंनेऽथवा व्यसनम्‌ । 
ग्रन्यद्टा. तत्करणे कारणमतिलिष्टमसिदध्यात्‌ । २५ 
पूववदिति । तदन्विति । सुगमम्‌ ॥ 
प्रारम्भे किती अन्तर-कु्था को रखना चहिए, निस्ते [मुख्य कथा| 
यच्छी प्रकारसे संकेतितषीगयीहो) इसकी रचना [इसरूपमे को्जाए्‌ कि 
इसमे ] प्रक्रान्त (मख्य) कथा शीघ्र ही प्रस्तुत हो जाए 1२२ 
यह्‌ कथा कन्याप्राप्ति-रूप [ मथवा राज्यादि प्राप्तिङ्प ] फल्वाली होनी 
चाहिए } दस्नमे श्डगार [रस] के समी रूपों का विन्यास सम्यक्‌ रीत्तिमे करना 
चाहिए । संसृत में [त्तो यह्‌ गय में लिली जानी चाहिए, किन्तु] संस्कृतेतर [प्राकृत ] 
सापा्मोमे इसे यगद्य (पद्य-गायः छन्द) मे [भोक्ता जा सकताहै] ।२३। 
५. श्रास्यायिक्रा 
लास्यायिका में [नी] कवि पहल फे समान गुर भीर देवता कौ नमस्कार 
फरे, जीर पत्ता फर ठेनै पर वह्‌ कानव्य-रचना प्रारम्भ न करे जव तक कि कवियों की 
_ -श्रगक्छन कर छे । इसके उपरान्त नुप मे भक्ति जीर इसरों के गुण-व्णेन मे प्रवृत्ति का 


कारिका २६-३० | षोडशोऽध्यायः ४२५ 


प्रास्यायिकाया एव लक्षखशेवमाह-- 
ग्रथ तेन कथैव यथा रचनीयाख्यायिकापि गद्य न । 
निजवंशं स्वं चास्यामभिदध्यान्न त्वगद्यन ।॥२६॥ 
अथेति ! एवोऽभिन्तक्रमे । ततश्चायमर्थः--अथ तेन कविना यथेव ॒कथाख्या- 
यिकापि तथैव गद्येन रचनीया । तुरवधारणे । ततो निजवशमात्मान च गयेर्नवास्याम- 


भिदध्यात्‌ । यथा हर्षचरिते ।। ओ 
त्रपि च- 


कुर्यादत्रोच्छवासान्सगेवदेषां मूलेष्वनाद्यानाम्‌ । 

दे दे चर्ये दिलष्टे सामान्यार्थे तदथाय ।1२७।। 
कुर्यादिति । सुगम न वरम्‌ । तदर्थाय प्रस्तुताथंसूचनाय ॥ 
संसयशंसावसरे भवतो मृतस्य वा परोक्षस्य । 
भ्रथेस्य भाविनस्तु प्रत्यक्षस्यापि निश्चितये ।२८॥ 
संशयितुः प्रत्यक्षं स्वावसरेणव पाठयेत्‌ कचित्‌ । 


ग्रन्योक्तिसमासोक्तिदलेषाणामेकमुभयं वा ॥\२६॥ 
तत्र॒ च्छन्दः कुर्यादार्यापरवक्त्रपुष्पिताग्राणाम्‌ । 
म्रन्यतमं वश्तुवश्ादथवान्यन्मालिनीप्रायम्‌ ॥३०॥। 


स 
तथा, यदि चाह तो, एसा करनेमें कारण का भी उल्केख सरल छप से कर दे 1२४-२१५। 
॥ इसके वाद उस [कवि] हारा कथा के समान आख्यायिका की रचना भी गद्य 
मे करनी चाहिए 1 इसे उते अपने वंशं का तथा अपना वर्णन भी गद्यमें ही करना 
चाहिए ।२६। 
इसमे सं के समान उच्छधासों को करना चाहिए, अर्थात सगं के स्थान पर 
उच्छ्वास नाम देना चाहिए ओौर पहले उच्छवास को छोडकर शेष उच्छवास के 
्रारम्म मे उस [प्रस्तुत ] अथं के भूचन के लिए सामान्य अथं का निरे करने वाल, 
रकष से युक्त दो दो आर्या छन्द प्रस्तुत करने चाहिए २७ 
कवि किसी संशय-प्रसंग के वर्णन के अवसर पर वतमान, सुत, भविष्यत्‌, परोक्ष 
तथा प्रत्यक्ष जयं को निद्िचत करने के लिए, संशयश्षील व्यक्ति के [ संशय को ] प्रत्यक्ष 
श्पसे [दुर करने के लिए], प्रसंग के अनुकूल अन्योकिति, समासोक्ति, इष अलंकार 
त पृक्त] किसी एक अथवा दो [पद्यौ] क्षा पाठ कराए 1२८, २६ ॑ 
. वहा कथा-वस्तु के आधार पर आर्था, अपरवक्तर, पुष्पिताग्रा मे से किसी एक 


४२६ कान्यालद्धुारः | कारिका ३१-३४ 


सशयेति । सशयितुरिति । तत्रेति । वततमानस्यातीतस्य च परोक्षस्य भाविनस्तु 
प्रत्यक्षस्यापि सदेहकथनावसरे सति निद्वयाय के चित्प्राणिनमवसरेणं वान्योवितसमासो- 
क्िश्कपाणां मध्यादेकमूभयं वाऽलकारं पाव्येत्‌ । तत्र चार्यादिच्छन्द. कुर्यात्‌ ॥ 
एवं काव्यादिित्रयस्य लक्षणान्याख्याय तच्छेषमाह- 
साभिप्रायं किचिद्धिषडमिव वस्तु सत्प्रसंगेन । 
भ्रन्तःकथार्च कुर्यात्‌ त्रिष्वप्येषु प्रबन्धेषु ।३१॥ 
सािप्रायमिति । सुगमन वरम्‌ । विरुद्धमिवन तु बिरुदम्‌ । त्रिष्वपीति 
काव्यकथास्यायिकास ॥ 


कू्यादभ्युदयान्तं राज्यश्र शादि नायकस्यापि ) 
प्रभिदध्यादेषु तथा मोक्ष च मूनिगप्रसगेन ।३२॥ 
सुगमम्‌ ॥ 

प्रथ लघूनां कान्यादौनां लक्षरमाह-- ` ` 

कूर्यात्कषुद्रे काव्ये खेण्डकथायां च नायकं सुखिनम्‌ । 
भ्रापद्गतं च भूयो द्विजसेवकसाथंवाहादिम्‌ ॥३३।। 
प्रत्र रसं करुणं वा कृर्यादथवा प्रवासश्ुगारम्‌ । 


प्रथमानुरागमथवा पुनरन्ते नायकाभ्युदयम्‌ ।1३४।। 
सुगमम्‌ ॥ 1 
चन्द का प्रयोग करना चाहिए, अथवा प्राय. मालिनी छन्द मे रचना करनी 
साहिए ।३०। 
8. तीन प्रवरन्धो मेँ सामान्य म्रतग 
इन तीनों प्रबन्धो (महाकाव्य, फथा मौर आख्यायिका) में एसी कथावस्तु को 
युम प्रसंगो के साथ जो अिप्रायपुणं हो त्तथा किञ्चिद्रु विद्द्र-सी [प्रतीत होती] हो । 
[ इसके मतिरिकत ] इन [ तीनों] मे भन्त'कथाभो का भमी समावेन्ञ करना चाहिए । 
नायक कै राज्यनाश्च से केकर अभ्युदय-(राज्यप्राप्ति-) परयंन्त वर्णन करना 
चाहिए तथा मूनिकषे प्रसंग स्ते इनमे मोक्ष का फथन करना चाहिए 1३१, ३२। 
७. लधुकराव्य <१ 
धद (लघु) काव्य तथा खण्डकथा में कवि नायक को [उसके सहायको--| ,. 
दविज, सेव साथवाह आदि के साय पहले मयस्ति-ग्रस्त दिखाए ओर अन्त में सुखी ! 
इसमे करुण रस अथवा प्रवासयत विप्रलम्म श्यृद्धार रस दिखाना चाहिए । , 
सवसे प्रयम अनुराग दिखाना चाहिए मीर फिर मन्त में नायक का उत्कषं 1३३३४ `, 


“ 


कारिका ३५-३६ |] षोडरोऽध्यायः ४२७ 


प्रथ करिमेतत्लक्षरं सर्वेषामपि काव्याद्नां सामान्यं स्यानेत्याह- 
नेतदनृत्पाद्यषु तु तत्र ह्यभिधीयते यथावृत्तम्‌ । 
ग्रत्पेषु महत्सु च वा तद्विषयो नायमुपदेः ॥३५॥ 
सुगमम्‌ ॥ 

रथ काव्यकथास्यायिकाद्य इत्यत्रादियहणसंदहीतं दथ॑यितुमाह-- 
म्रन्यद्रणंकमात्रं प्रशस्तिकृलकादिनाटकादयन्यत्‌ । 


काव्यं तद्वहुभाषं विचित्रमन्यत्र चाभिहितम्‌ ।३६॥ 
अन्यदिति । सुगम न वरम्‌ । तत्र यस्यामीश्वरकुख्व्णंन यशोर्थं क्रियते सा 
प्रशस्ति. । यत्र च पंचादीना चतुरदशान्तानां इलोकानां वाक्यार्थः परिसमाप्यते तत्छुरुकम्‌ । 
आदिग्रहणादेकरिमञ्छन्दसि वाक्यसमाप्तौ मुक्तकम्‌, द्यो. सदानित्रकम्‌, तरिषु विशेषकम्‌, 
चतुपुं कलापकम्‌ । तथा मुक्तकानामेव प्रघट्टकोपनिबन्ध. पर्याययोग. कोष. । तथा 
बहुना छन्दसामेकवाक्यत्वे तद्वाक्याना च समूहावस्थाने परिकथा । भरयोऽप्याह--नाटका- 
यन्यदिति ¡ अत्र भरताचभिहितम्‌ । नाटकादीत्यत्रादिशब्दान्नाटकप्रकरणेहामृगसम- 
वकारभाणव्यायोगडिमवीथीप्रहसनादिसग्रह. । तद्रहुभाष च बह्वीमि्भाषिाभिनिनबध्यते | 
विचित्र च ! नानासंधिसध्य ङ्गाभिनयादियुक्तत्वादिति ॥ 
८" अनुत्पाद प्रबन्धो सँ उक्त लक्षो का निषेध 
जनुत्पाद्य प्रबन्धो मे चाहे वे रघु हों अथवा महानु एसा नहीं होता । उनके 
विषय में यह्‌ निथम नहीं है 1 उनमें तो यथार्थं घटना का वणेन होता है ।३५। 
६. अन्य कान्य-मेद्‌ 
इसौ मध्याय की दूसरी कारिका मे काव्यकथाष्यायिकादयः' पद मे "भादयः' 
से क्या तात्पयं है इसे स्पष्ट करते हुए रुद्रट कहते दै कि कतिपय यन्य कान्य-प्रकार भी 
होते है । यथा-- 
एक अन्य | -710.:0.71 14 | वणंकसान्र है । अस्य | राजवंशादि | भ्र शस्त, 
ॐलक आदि होते हँ । अन्य नाटक आदि है 1 एक [अन्य काव्य-प्रकार एसा होता है 
1 भे] बहत. भावाओों का प्रयोग होता है, एक [अन्य कान्य ] "विचित्र कहाता 
।२६। 
| चणक मात्र" से सम्भवत तात्पयं है जिसमे प्रधानत वणं-सौन्दयं हो, जैसे 
स्टप-मघान, यमक-प्रधान, गनुप्रास-प्रधान, वक्तोक्ति-प्रधान काव्य आदि । श्रकस्ति- 
कान्य मे राजकुरु का यशोगान किया जाता है ! "कुकक-काव्य' मे पांच मौर चौदह 
स्छोको के बीच वप्यंविषय समाप्त कर दिया जाता है 1 "भादि" से तात्प है- 
मुक्तक (जिसमे एक ही पद्य होता है), सन्दानितक (जिसमे दो पद्य होते है), विशेषक - 


४२८ काव्यालद्भुारः [ कारिका ३७-३६ 


महाकन्यादिलक्षर्मभिधयेदानी काव्यगुराविशयविविक्षायां मा कशिद्‌- 
तंमपि वोचदिति तनिपेधाथंमाह- 


कलसलाम्बुनिधीनां न ब्रू याल्लद्ुनं मनुष्येण) 
ग्रात्मीययव शक्त्या सप्तद्टीपावनिक्रमणम्‌ ॥३७। ` 
कुरति । सुगमम्‌ 1 


ननु भरतहनूमत्प्रभृतीनां सतमेतच्छर.यते, ततश्च यथा तेपां तथान्यस्यापि 
भविप्यतीति को दोप इव्याह- 


येऽपि तु लद्कितवन्तो भरतप्राया कुलाचलाम्बुनिधीन्‌ । 


तेषां सुरादिमृख्यः संगादासन्‌ विमानानि ।३८1 

य इति । सुगमन वरम्‌ । सुरादिमुख्यैः सुरादिप्र वानः । आदिशन्दात्सिद्धवियाधर- 
किनरगन्धर्वादिसग्रहः ॥ 

ननु च सत्त्वचित्तादिहीनत्वान्मनुप्यारां कथं दुरादिभिः सह सज्लोऽपी- 
त्याह- 


श वितरच न जात्वेपामसुरादिवधेऽधिका सुरादिभ्यः। 
ग्रासीत्ते हि सहाया नीयन्ते स्मामरेः समिति ।३६।। 


(जिसमे तीन पद्य होते ह), कलापक (जिसमे चार पद्य होते है), कोप (जिसमे मुक्तक 
पद्यो मे शाब्दो के पर्याय दिये गये हो 1) परिकथा (जिसमे वहत से पदयो मे एक वाक्व 
हो तथा एेसे वाक्य-खण्डो" का समुदाय हो 1) 

"नाटकादि" से तात्पयं है - नाटक, प्रकरण, ईहाभृग, समवकारः, भाण, व्यायोग, 
डिम, वीथी, प्रहसन आदि! "विचित्र काम्यः नानां सन्धियो एव सन्घ्यद्धो तथा 
अभिनयो से युक्त होता है। 

०. केतिपय निषिद्ध प्रसंग 

मनुष्यो द्वारा दखपवंत एवं समुद्र का लंघन रवरणित नहीं करना चाहिए 1 
इसी प्रकार, अपनी शपित से सात हीषो तथा समस्त पृथ्वी का सरमण-कथन भी वाजित 
है (३७ 

जिन भरत, हनुमान्‌ आदि ने कुलपवंत, समुद्र आदि का ऊंघन कथा है, उन 
प्रमुख देवों {सिद्ध, "विद्याधर, किन्नर, गन्धवं आदि) के पास विमान ये ।३८। 

भतः यह्‌ कोई दोप नही है। 

अशुरादि के वध मे मनुष्यों की श््विति कमी मी देवताओं से अधिक नहीं थी ।` 
„_ किन्तु वे (मनुष्य) देवताओं के सहायक ये ओर देवता उन्हे युद्ध मे ऊ जते थे ।३९। 


कारका ४०-४२ | षोडशोऽध्यायः ४२६ 


शनितरिति । सुगमं न वरम्‌ । चशब्दो हेतौ ।) 

भुयोऽप्याह- | 
दारिद्रचव्याधिजरारीतोष्णाद््‌ इवानि दुखानि। 
बीभत्सं च विदध्यादन्यत्र न भारताटर्षात्‌ ।॥४०॥ 
दारिद्रयेति 1 सुगमं न वरम्‌ । भारत भरतक्षे्म्‌ । 

अन्यत्र विलादृत्तादौ ङतो न बिद्ध्यादित्याह- 
. वषेष्वन्येषु यतो मणिकनकमयी मही हितं सुलभम्‌ । 
विगताधिव्याधिजराषन््ा लक्षायुषो लोकाः ।४१। 
वषष्विति । सुगम न वरमू । न्दरानि शीतोष्णादीनि ।) 


¢6 =+ 


अथ शास््रपरिसमास्िमङ्गलार्थं' देवता संकीतंयन्नाह- 
-जयति जनमनिष्टादुद्धरन्ती भवानी ˆ - 
जयति निजविभूतिव्याप्तविदइवो मुरारिः । 
जयति च गजवक्त्रः सोऽत्र यस्य प्रसादा- 


दूपशमति समस्तो विघ्नवर्गोपसगंः ।४२॥ 
जयतीति । सुगमम्‌ ॥ 
एव॒ रद्रटकाग्यालकृतिरिप्पणकविरचनाद्पुण्यम्‌ । 
यदवापि मया तस्मान्मन- परोपकृतिरति भूयात्‌ ॥ 


मारतवषं से अन्यत्र (अन्य देशो कौ) निधनता, रोग, बुढापा, सर्दी, गर्मो 
आदि से उत्पन्न दुःख का वर्णन न करे, ओर वीभत्स रसको [मी] न दिखाए) 

पयोकि अन्य देशों मे मणि ओौर स्वणं से युक्त पुथवी होती है, कल्याण सुल 
होता है ओर छोग सानसिक चिन्ता, शारीरिक दुख, बुढापा तथा इन्र से रहितं एवं 
चक्ष वषं आयु वाङ होते हैँ । ४०-४१ । 
नन्थ-समापि-सूच्क स्तुति 

रोगों का अनिष्ट से उद्धार करने बाली पावती की जय हो । अपने रेक्वयं से 
विर्व में व्याप्त विष्णु सगवान्‌ कौ जय हो 1 जिसकी कृपा से सम्पुणं तिष्न तथा उत्पात 
शन्त हो जाते हैँ उस गजानन की जय हो ! ४२ । 

जन्त मे नमिसाधु प्रस्तुत ग्रन्थ की समाप्ति पर अपना परिचय प्रस्तुत करते 
इए कहते है कि-- 

दस भकार द्द्रट-प्रणीत कान्याल्कार पर टीका-निर्माण करनेसे मैनेजो . 


४३० कान्यालद्धुारः [ कारिका ४२ 


थारापद्रपुरीयगच्छतिरकः पाण्डित्यसीमाभवत्‌- 

सूरिभ रिगुणेकमन्दिरमिह्‌ श्वीजलाकलिभद्राभिधः। 
तत्पादाम्बूजषद्पदेने नभिना सक्षेपसंप्रक्षिणः 

पुसो सुरधधियोऽधिक्रत्य रचित सद्विप्पण रूष्वदः ॥। 
अज्ञानाद्‌ यद्ितथ विधृत किमपीह्‌ तन्महामतिभिः 1 
संशोधनीयमखिल रचिताञ्जक्तिरेष याचेऽहुम्‌ ॥ 
सहखत्रयमन्यूनं ग्रन्थोऽयं पिण्डितोऽखिलः । 
दानिशदक्षररखोकप्रमाणेन सुनिरिचतम्‌ । 
पञ्चविरतिसंयुक्तरेकादरासमाशतंः । 
विक्रमात्समतिक्रान्तेः प्रावृषीदं सम्थित्तम्‌ ॥ 


इति श्रीशद्रटकृते कान्याककारे नमिसाधुविरचितरिप्पणसमेतः 
षोडशोऽध्यायः समाप्तः । 


समाप्तोऽयं ग्रस्थः 1 
^) ५ क) (९ 9 0 


पुण्याम किया है उसके फलस्वरूप मेरा मन परोपकार मे अनुराग रखने वाराहो 


यही मेरी भभिलाषा है। 
अपार गुणो के आवास एव पाण्डित्य को सीमा श्री शाकिभद्र जी थारापद्र 


[नामक] पुरी के गच्छ (जेन साघु-सम्प्रदाय) के तिरुकस्वरूप थे, उनके चरणकमलो 
के भ्रमर इस नमिसाघु ने सक्षेपप्रिय, सुग्ध-वुद्धि पृरुपो (जिन्नासुओ) को लक्ष्य करके 
इस रधु टिपण की रचनाक है) 

यह सम्पूणं श्रन्थ [इस प्रकार के] प्राय तीन हजार श्छोकोसे सुबढदहै जो 
वत्तीस अक्षरों के प्रमाण वाला होतादहै। { वि्ेष विवरण के लिए देखिए भुमिका- 
भाग) । 

मैने अज्ञानवश जां कही आान्तिपुणं व्याख्या की हो, महामनीषी विद्वान्‌ उसका 
संशोधन कर क-म करबद्ध होकर उसने एेसी अभ्यथना करता हें 

विक्रमी-सवत्‌ ११२५ मे वर्षा-ऋतु मे इस "काव्यारंकार' की व्याख्या- समाप्त 
हुं । 


इति “अुप्रभाऽऽख्य-हिन्दी-व्याख्याया षोडकोऽध्यायः समाप्तः । 


0 | ५१.४० 1 


परिशिष्टम्‌ 


कारिकासूची 
उदाहरणसूची 
टीकान्तगेतोद्धरणाशाः . 


ग्रन्थान्तरेषूपङभ्यमाना समानपाठः 


६२८ 


अविधेपविरोव्ाधिक १०, २ 
मविधेपण्ठेपो १०,३ 
अममयवमप्रतीत्तं ६, २ 
मनमानगूणं यस्मिन €, २ 
अक्षमानविन्नैपणमपि ८, ७४ 
अस्य सजात्तोयानां €, ३१ 
अस्य दहि पीर्वापर्वं १३ 


बास्यातान्युपसर्गेः २, £ 
यागमगम्यम्तमूृते ११, ६ 
गालान्यसर्वस्गता १२, १६ 
आदावभिलापः स्यात्तु १४४८ 
यादौ कथान्तर वा १६.२२ 
यादौ मध्येऽन्ते वा ७, ६५ 
याय ्घान्पस्योन्यं २, २१ 
दाख्दयौवन १२, २९१ 
आाद्धोकनादिमात्र १४, > 
जात्र्तं प्रयमादो ३, ३० 


आध्रुनानि तु तन्मिनु ३, ८० ^ 


भात्रा स्म मद्य: १, १० 


श्त्ति कयमस्ेषं छण १२, ८७ 
नुति देया जयायान. १४, २२ 
षति यमतममयं ३, ५६ 

ए््थं वादन्योपाणा ६, य्य 

टमं स्थान्नु गर्मयो ५, ६ 
समं न्दिनशृयाग्यं ५, ३; 
-दमपस्मनमामस्यं ६, ५ 
शट्याम्‌ ३, ६; 
ड्मन्या समन्द =+ 5 


† ॥ ॐ ॥ १ ९५१ 
(+ <1 [41 38, {{ र. 4 ॥ 8. 


[4 


ॐ 


{14 ए. कच = == भग 
"+ & {4114711 १34 मू €, २ 
भने 


र श्व र कह त" ५ न 2 
तरनव ~+ ६ 


\ [न = ननयः शर् 8. [ ] 
ध (141. ४ * +र .#१ १ 


पाल्या 
& 


ञ्च, ५ [ परि 9 १ 


उदृभूतानन्दभरा {२, ३७ 
उन्मादस्तदनु ततो १४, ५ 
उपमानं यत्र स्याद्‌ १२, ३२ 
उपमानतया खोक १२, ३४ 
उपमानपदेन समं €, २९१ 
उपमानात्सामान्ये =; २३ 
उपमेयस्य क्रियते =, ५२ 
उपमेये सदसंभवि =, ६१ 
उपमोप्े्षाङ्पकम्‌ 5, २ 
उपसर्जनोपमेयम्‌ ८, ८० 
उभयन्यान्तश्नान्तिमद्‌ =, ३ 
उभयस्यावयवानाम्‌ ८, ४२ 
उभयोः समानमेकं ८, ४ 


एकट्िव्रान्तरितं २, १८ 
एकावनीति तेयं ७, १०६ 
एतदुदाहुरणाना 3, २२ 
एतद्िजाय दुव. ११, ११ 
एता प्रयत्नादधिगम्य २, २२ 
एतं रमा रसवतो १५, २१ 
पवमन चतुर्घा रयाद्‌ १२,६ 
एव स्वमिामपि ४, २२ 

एपा तु चतर्णानिपि १० २४ 


कट्ण नोतप्रवरति- १५.६३ 
करण. म विप्रलम्भो १४६ दे 
कन्या पनरनियुटूकत १२१ २८ 
दन्ान्दाभप्टावा १६. २३ 
च च्चूयाद्विरणन्कारं १२, ४३ 
करणमान्द्ा मेव ७, ८६ 
द्र्य उारयस्य च ६, ५४ 
स्व्नरदनदिच्ना १२ ४० 
+ 13 1 ‡ ८, 


4 । ~> 
नश धपयं ६, ५ 


। 
£, २६ 


परि० १ | 


किमपि प्रियेण पृष्टा १४, १० 
कियदेथवा वच्मि १, ११ 
कुप्यति तत्र सदोपे १२, २३ 
कुर्याच्‌ क्षुद्रे कोग्ये १६, ३३ 
कुर्यादव्रोच्छरूुवासान्‌ १६, २७ 
कुयदिमभ्युदयान्तं १६, ३२ 
कुर्वन्ति प्रतिर १३, ८ 
फुलर साम्बुनिधीनां १६, ३७ 
कृतविग्रियोऽप्यक द्धो १२, १२ 
क्रियततेऽथेयोस्तथा ८, २६ 


खण्डयति न पूर्वस्यां १२, १० 


गमनं ज्यायान्दोपः १४, १६ 
गम्य निरूप्य सा १२, ४० 
गम्येत प्रक्रान्ताद्‌ १०, १६ 
ग्राम्यत्वमनौचित्य ११, € 


छन्दोव्याकरणकला १.१८ 


जगति चतुवंगे इति १६, १ 
जन्मजरामरणादि १५, १६ 
जयति जनमनिष्टात्‌ १६, ४२ 
जातिक्रियागुणाना ७, २ 
नातिद्रन्यविरोधो ९, ३२ 
ज्यायोभिः सह्‌ दोषो १४, २५ 
ज्येष्ठकनिष्ठत्वेन तु १२, २८ 
ऽ्वखदुज्ज्वलप्रदीपं १४, १६ 
भ्जदुञ्ज्वलवाक्‌ १, ४ 


तन्वक्रलद्ध ५,२ 
तत्कारितसुरसदन १, ५ 
तत्र कुपितापराधिनि १२,२ ६ 
ततर चछन्द कुर्याद्‌ १६, ३० 
तत्र त्निवगसक्तं १६) ठ 


परिशिष्टम्‌ 


तत्र निजांसस्फालने १५, १४ 
तत्र भवन्ति स्त्रीणा १३,२ 
तत्र महान्तो येषु च १६, ५ 
तत्र यथाकति रणौ २, २१ 
तत्रासत्सधिपद ६, १५ 
तत्रोत्पाद्या येषां १६, ३ 
तत्रोत्पाचे पूर्वं १६, ७ 

तदनु त्वल्छरृतमिदम्‌ १४, २ 
तदनु नृपे वा भक्ति १६, २५ 
तदभावे प्रत्रजिता १४, प 
तदिति चतुर्धां विषम ७, ५१ 
तदिति पुरुषाथंसिद्धि १, १२ 
तद्द्वारेण निवेदित १४, & 
तद्वदुदाहरणानि ३, ५१ 
तद्विगुणं त्रिगुण वा ७, ३५ 
तन्मतमिति यत्रोक्त्वा ८, ६६ 
तन्मीलितमिति ७, १०६ 
तल्पे परिवृच्यास्ते १२, १९ 
तत्लिद्धकाकारक ११, २६ 
तस्मात्तक्कतेव्यं १२, २ 

तस्य पुरतोऽथ करर्वेन्‌ १४, ७ 
तस्य सहोवितसमु्चय ७, ११ 
तस्या भृहीतवाक्य १४, ३० 
तस्यासारनिरासात्‌ १, १४ 
ता एवाधीनपति १२, ४० 
तुस्यश्रुतिक्रमाणाम्‌ ३, १ 

ते रघवो विज्ञेयाः १६, ६ 
निविघः स पीठमदं- १२, १४ 


दयितस्य सखीमध्ये १३, ३ 
दाक्िण्यप्रेमभ्यां १२; २६ 
दारिद्रचव्याधिजरा १६; ४० 
दासोऽस्मि पालनीय १४, २८ 
दिकत्रक्षणमुखकश्लोषण १५, ८ 


दृष्ट्वा प्रयुज्यमानानेव ६, २६. 


४३५ 


परिशिष्टम्‌ १ 


काव्यालंकारस्य कारिकासू ची 


, अकृतविरेपणमेक ११, २६ 
भच्छिन्तनयनसचलिकलत १५४ 
मतिदूरमतिक्रान्तो ११, १७ 
यतिसाम्यादुपमेयं ८, ५७ 
अतिसारूप्याद्‌ ८, ३ 
अत्यन्तमसम्बद्धं ११, १८ 
अत्र रस करुणं वा १६, ३४ 
भथ तेन कथैव १६, २६ 

अथ नायकप्रमाणे १६, १३ 
भथ नायकोञ्नुरक्तः १४, ६ 
अथ विप्ररम्भनामा १४, १ 
अमधिगतसकलज्ञेयः १, २० 
अनिमित्त च हसन्ती १२, ३४ 
अनुकरणभावम्‌ ६, ४७ 
अनुकार्यनतु नार्याः १३, ४ 
अनुनयकोपं कृत्वा १२, ४० 
अनुपममेतद्‌ ८, १५ 
भनुलोमग्रतिलोमेर्‌ ५, ३ 
अनुसरति रसानां १४, ३८ 
अन्तादिकमिवे षोढा ३, ५० 
अन्त्यटवरगान्मुक्त्वा २, २५ 
अन्यद्णेकमान्च १६, ३६ 
अन्यनिमित्तवज्लात्‌, €, १४ 
अन्यस्य यः प्रसद्धः ११; १८ 
अन्या निषेवमाणे सा १२४ २० 
अन्याभिघेयमपि ६, ३६ 
अन्यूनाधिकवाचक २; ८ 

-“ अन्यैरप्रतिहतमपि €, ५२ 


अन्योढापि तथता १२, ३६ 
अन्योन्य निरपेक्षौ ७, १७ 
अन्योभ्य परिवमयोः ३, १० 
अन्योन्यस्य सचित्ता १३, १ 
अस्योपकारकरण १, ७ 


अपराषे प्रमित या कुप्यति १२, ४० 


अपहारे वसनाना १३. ५ 
अपहेतुरप्रतीतो ११, २ 
अपहेतुरसौ यस्मिन्‌ ११, ३ 
अभिधीयते सतो वा ७, ४६ 
अस्िचेयममिदघानं ७, ४० 
अभिषेयस्यातथ्य ११, २० 
लमियोज्याया मयि १४, २४ 
अभिसारिकातु साया १२, ४२ 
अभिसारिकेति सेय १२; ४० 
अमरसदनादिभ्यो १,२२ 
अर्थे. पुनरभिधावानू ७, १ - 
अर्थक्रियया यस्मिन्‌ ८, १०५ 
अर्थंमनर्थपशमं १, ८ 
अर्थंविकशेषं परयन्नव ८, & 
अर्थविशेषः पूर्वं छ, ६४ 
अर्थवि्चेषवशाद्ा ६, २३ 
अर्थस्यारुकारा ७, ६ 
अर्थानामौपम्ये ८, २७ 
अर्थान्तरमूत्कृष्टं ७, १०३ 
अर्थोऽयमप्रतीतो ११, ५ 
अर्ध पुनरावृत्तं ३, १६ 
अचिरलविगलत्‌ १, १ 


८ 


अविन्ेपविरोधायिक १०२ 
यविदोपष्केपौ १०,३ 
अमम्थंमप्रतीत्तं ९, २ 
जममाननुण यटिमनू €, २४ 
अममानविन्रैषणमपि ८; ७४ 
अस्प्र मजातीयानां &, २१ 
यस्य हि पौर्वापर्य १,३ 


मास्यातान्युपत्तर्गेः २, ९ 
लागमगम्यरतमृते ११, ६ 
आपान्यम्वस्तगता १२, १६ 
यादावभिन्धापं स्यान्‌ १४, ८ 
जादौ कषान्तरे वा १६, २२ 
आदौ मध्येञन्तेवा७, ६भ्‌ 
याय धान्यन्यात्यं ३, २१ 
आरूदयोवन १२, २१ 
वादोतनाद्विमाव्र १४, २ 
बावन प्रथमादौ ३, ३० 
व्रतानि त्तु तस्मिन्‌ ३, ८० ५ 
आमायन स्ममः १, १० 


क [ ॥ प 
स्य नस्तु गराया १, ६ 
पध्यं टिश्मरमाम्यि ४ ३३ 


„1 
4.411.111 नि | 
# ~+ 4 9 

॥ ॥ | ॥ 


॥ [7 क, 4 क 
ड £ ~ भ "ई ‰ र. ड 


काव्यालद्धुारः 


उद्भूतानन्दभरा १२, ३७ 
उन्मादस्तदनु ततो १४, ५ 
उपमानं यत्र स्याद्‌ १२, ३२ 
उपमानतया खोके १२, ३४ 
उपमानपदेन सम ६, २१ 
उपमानात्सामान्ये ८, २३ 
उपमेयस्य क्रियते ८, ५२ 
उपमेये सदस्नभवि ८, ६१ 
उपमोद्प्क्षाल्पकम्‌ ५, २ 
उपसर्गनोपमेयम्‌ ८, ४० 
उभयन्यासश्चान्तिमद्‌ ८, ३ 
उभयस्यावयवानाम्‌ =, ४२ 
उभयोः समानमेकं ८, ४ 


एकद्धिव्रान्तरित २, १८ 
एकावशलीति मैवं ७, १०६ 
एतदुदाहरणाना ३, २२ 
एतद्विजाय बुधः ११, ११ 
एता.प्रयत्नादयधिगम्य २, ३२. 
एते रसा रसवतो १५, २१ 
एवं म चतुर्धा स्याद्‌ १२, € 
एवे नर्वायामपि ५, २२ 

एपा तु चतुर्णामपि १०; २४ 


कनण" णीकेप्रदतिः १५, ३ 
कर्णे नं पिप्रग्मो १५४८, ३८ 
वन्या पुनर नियुदटुयनें १२, उत 
पन्गान्द्रभिपन्या चा १६, २३ 
गनस््यूमादिरपल्ार्‌ १२, ८२ 
स्रणायान्यर मवं ५, 


स्ार्वस्यं कृतरपन्य च ६, ५५ 


(पिविदयय्यायेष ६,५ 


[ परि० १ 


परि० १ | 


किमपि प्रियेण पृष्टा १४, ११ 
कियदथवा वच्मि १, ११ 
कुप्यति तत्र सदोपे १२, २३ 
कुर्यात्‌ क्षुद्रं काव्ये १६, ३३ 
कुर्यादत्रोच्रूवासान्‌ १६, २७ 
कुर्यादम्युदयान्तं १६, ३२ 
कू्वेन्ति प्रतिकलं १३, ८ 
कुलरोलाम्बुनिधीनां १६, ३७ 
कृतविग्रियोऽप्यश मो १२, १२ 
क्रियतेऽथयोस्तथा ८, २६ 


खण्डयति न पूवंस्यां १२, १० 


गमनं ज्यायान्दोषः १४, १६ 
गम्य तिख्प्य सा १२, ४० 
गम्येत प्रक्रान्ताद्‌ १०, १६ 
ग्राम्यत्वमनौचित्य ११, ६ 


छन्दोव्याकरणका १.१८ 


जगति चतुवंगं इति १६ १ 
जन्मजरामरणादि १५, १६ 
जयति जनमनिष्टात्‌ १६; ४२ 

जातिक्रियागुणाना ७, २ 
जातिद्रन्यविरोधो €, ३२ 
ज्यायोभिः सह दोषो १४, २५ 
ज्येष्ठकनिष्ठत्वेन तु १२, २८ 
उव्रखृदुज्ज्वलप्रदीप १४, १६ 
ज्वलदुज्ज्वरवाक्‌ १३ ४ 


तच्चक्रसद्घु ५,२ 
तत्कारितसुरसदन १, ५ 

तत्र कुपितापराधिनि १२, २९ 
तत्र च्छन्द कुर्याद्‌ १६, ३० 
तत्र चिवगंसक्तं १६ ८ 


परिक्जिष्टमु 


तत्र निजां सस्फाख्न १५, १४ 
तत्र भवन्ति स्त्रीणा १३२ 
तत्र महान्तो येषु च १६, ५ 
तत्न यथाशक्ति रणौ २, २१ 
ततच्ासत्सधिपद ६, १५ 
तन्नोत्पाच्या येषा १६५ ३ 
तत्रोलसादे पूवं १६, ७ 

तदनु त्व्रृतमिदम्‌ १४, ३ 
तदनु नपे वा भक्ति १६, २५ 
तदभावे प्रत्रजिता १४, ८ 
तदिति चतुर्धा विषम ७, ५१ 
तदिति पुरुषाथंसिद्धि १; १२ 
तद्द्वारेण निवेदित १४, ६ 
तद्टदुदाहरणानि ३, ५१ 
तद्धिगणं त्रिगुण वा ७, ३५ 
तन्मतमिति यच्रोक्त्वा ८, ६६ 
तन्मीलितमिति ७, १०६ 
तल्पे परिवृत्यास्ते १२, १६ 
तत्किद्खकारकारक ११, २६ 
तस्मात्तत्कतंव्य १२, २ 

तस्य पुरतोऽथ कुर्वन्‌ १४, ७ 
तस्य सहोकितिसमूच्चय ७, ११ 
तस्या गृहीतवाक्यं १४, २० 
तस्यासारनिरासात्‌ १, १४ 
ता एवाचीनपति १२, ४० 
तुल्यश्च तिक्रमाणाम्‌ ३, १ 

ते छघवौ विज्ञेयाः १६, ६ 
निविधः स पीठमदं. १२, १४ 


दयितस्य सखीमध्ये १३, ३ 
दाक्षिण्यप्रेसभ्या १२, २६ 
दारिद्रयव्याधिजरा १६, ४० 
दासोऽस्मि पानीय १४, २८ 
दिक्परक्षणमुखदोषण ९१५, ८ 
दृष्ट्वा प्रयुज्यमानानेव ६ २६ 


४२ 


परि० १ | 


प्राकृतसंस्करतमागध २, १२ 
प्रयं म्रेयं सखीभिः १३, १४ 


फलमिदमेव हि विदुषां १, १३ 


बरुवति विकारहेतौ €, ५४ 


भक्तः संत्रृतमन्त्रो नमंणि निपुणः १२, १३ 


भद्ध धन्तरकृततच्क्रम ५, १ 
भवति जुगुप्साप्रकृति १५, ५ 
भवति यथा रूपोऽथंः ७, १३ 
भाषाश्ेषविहीनः स्पुशति ४, ३१ 
भिन्नक्रियागुणेष्वपिः ७, ६ 
भेदेविभिद्यमानं ५, ४ 
मदनन्याकुरमनसः १३, १२ 
मधुरा प्रौढा परुषा २, १६ 
मध्या तु साधुवचनं. १२, २७ 
मधघ्यान्यर्घार्धानिं ३, ४४ 

मनसि सदा सुसमाधिनि १, १५ 
मन्येत यदा नेय १४, ११ 
मात्रा विन्दुच्यवनाद्‌ ५, २५ 
मात्रा बिन्दुच्युतके ५, २४ 
मानः स नायके १४, १५ 
मालोपमेति सेयं ८, २५ 
मुक्त्वावयव विवक्षां ८, ४६ 
मुग्वा तत्र नवोढा १२, १८ 
मृदुस्त्र युथा पूर्वं १४, ३२ 


यः पूरवेमन्यथोक्तं ११, ७ 

य. सावसरोऽपिरसो ११, १४ 
यच्च प्रतिपत्ता वानं ६, ३४ 
यत्किमपि रहस्यतमं कणे १३, ११ 
यत्पदमभिनयसहितत ६६, ८ 
यत्पदम्थेऽन्यस्मिन्‌ ६, ३२ 


परिकिष्टमू 


यत्र क्रियाचिपत्तनं ७, ५४ 
यत्र गुणानां साम्ये ठ, ८३ 
यत्र ज्ञातादन्यत्पृष्टः ८, ७२ 
यत्रे परस्परमेक. ७, ६१ 
यत्र प्रक्रतिप्रत्यय ४, २६ 
यत्र बलीयः कारण ७, ९ 
यत्र यथा समुदायाद्यथंकदेशं ७, ६६ 
यत्र विभर्वितप्रत्यय ४, ३ 
यत्र विरुद्धविद्ेषण १७, ५ 
यत्न विवक्षित्तमर्थं १०, १४ 
यत्र विष्टे वस्तुनि ८, ३९६ 
यत्रातितथाभूते €, ११ 
यत्रातिप्रनलतया &, ५० 
यत्रातिप्रबकतया £, ३ 
यत्राधारे सुमहत्याधेय €, २८ 
यत्नराधिकमारन्धाद्‌ १०, ७ 
यत्रानुकम्प्यते सम ठ, ७६ 
यत्रानेकवार्थं सदेहः ८, ६१५ 
यत्राच्यक्कुर्वाणो युगपद्‌ €, € 
यन्रान्योन्यविरुद्धं €, २६ 
यत्रायुक्तिमदर्था ७, € 
यत्रार्थघममनियमः &, १ 
यचार्थादन्यरस. १०, € 
यत्रावयवमुखं १०, १८ 
यत्रावरयंभावी ६, ३३ 
यत्रैककतरु का स्याद्‌ ८, १०१ 
यत्रैकच्नानेक ७, १६ 
यत्रकमनेकस्मिन्‌ ७, ४४ 
यत्रंकमनेकस्मिन्‌ €, ७ 
यत्रंकमनेकार्थे्वाक्यि १०, १ 
यत्रकमनेकेषा ७, ६४ 
यत्र॑कविधावर्थो ८, &७ 
यदनुचित यत्न पदं ६, १७ 
यन्ताम नाम यत्स्यात्‌ ५, + 
यमकाना गतिरेषा ३, ५६ 


४३८ कान्यालद्ुारः [ परि १ 


यस्मिद्न्यादीनां परकर ६, ३० टखय्थायतिः प्रगल्भा १२, २४ 
यस्मिन्ननेकम्थं ६, ३८ रकलितायां घथमग्सा २, २६९ 
यस्मिननिन्दास्तुतितो १०, ११ 
यस्मिन्तुच्नायेन्ते ४, १० ववेत्ता त्रिधा प्रक्रुरया ६, १८ 
यस्मिन्नेकशुणानाम्‌ ६, २२ वनता हषभयादिभि. ६, २६ 
यस्मिन्वाकयेन १०, २० यवित प्रियमम्यधिकं १२, ११ 
यस्मिन्विभवितियोगः ४, ५ वक्तुं समर्थमथं ४, १ 
यस्य प्रविशेदन्तववियं ६, ४३ वपतुमुपमेयमूत्तम =, ६२ 
यस्य यथात्व खोक ६, २० यवना तदन्यभोक्तं २, १४ 
यस्य विकारः प्रभवन्‌ ७, ३८ व॑क्रोक्तिरनुप्रागो २, १३ 
यस्या तथा विकारः ६, १८ वर्णपदलिद्धुभाषा ५, २ 
यस्याः प्रम निरन्तरम्‌ १२, ४४ य्णप्वन्येषुं मतो १६, ४१ 
यस्याः सुरतविलासं" १२, ४० वस्षनादि नायकरथं १४, १७ 
यस्या जीवितनाश्रः १२, ४० वद्तुनि य्व॑कस्मिन्‌ ८, ५६९ 
यस्यादिपदेन ६, १४ वरतु परोक्षे यरिमन्‌ ७, ५६ 
यस्या पति सायत्तः १२, ८५ वस्तु प्रमिद्धमित्ति ८, ८६ 
यस्याथः सामर्ध्यातु ६, ४५ वस्तु विवक्षितवम्तु ७, ५२ 
यास्यति यात्ति गतो १४, ३३ वर्तुविदोपं दृष्ट्वा ८, १०६ 
यास्यन्ति यथा तरुण ७, ६२ ब्रस्तवन्तरमस्त्यनयो. ८, & 
युवत्या वतरत तमर्थं ६, ११ वाक्य तत्राभिमतं २, ७ 
युगपदानादाने अन्योन्यं ७, ७७ वाक्य भवतति तु दृष्टं &, ४० 
येऽपि तु ठद्धितवन्तो १६, ३८ वायं भवति दधार, ११ 
यो गुण उपमाने वा ७, ८६ वाक्येन यस्य साकं ६, ४१ 
यो गुण उपमेये तस्या ७, ८६ वाक्ये यत्रकस्मिन्‌ ४, १६ 
योद्धग्यं प्रातरिति ७, ८६ वाकयोपमात्र पोढा =, ५ 
यो यस्या व्यभिचारी ११, १५ वारमी सामप्रचण १४, १६ 
योवा येन क्रियते तथेव ७, १५ वास्तविति तज्जेय ७, १० 
विट एकेदेशविधो १२, ११५ 
रचनाचारुत्वे खलू २, १० विधिवद्परिपाख्यतः १६, € 
र्चयेत्तमेवं शब्दं २, विपम इत्ति प्रथितो ७, ४७ 
रजनी च तत्र यूना १६, १५ विस्तरतस्तु किम्‌ १, १६ 
रत्युपचारे चतुर १२, ७ विस्पष्टं क्रियमाणाद्‌ २, १६ 
रसनाद्रसत्वमेपा १२, ४ विस्पष्टे समकारं ६, ४८ 


रौद्रः क्रोप्रकृति. १५, १३ वँदर्भी पाञ्चाल्यौ प्रेयसि १५, २० 
व्यधिकरणे वा यस्मिन ७, २७ 


परि० १ | 


व्यवहारः पुनार्योरन्योन्यं १२; ‰ 
व्याप्रियते सायस्ता १२, २२ 


'शक्तिरच न जात्वेषा १६, ३६ 
शब्दप्रवृत्तिहेतौ सत्यप्य ६, ६ 
शन्दानामत्र सदानेका ६, ९ 
रशन्दानुशासनमशेष ४, ३५ 
 शब्दाथेयोरिति १२, ३६ 

शु चिपौराचाररतां १२, १७ 
रुद्धमिद सामाखा ठ, ४७ 
श्ृगारवोरकरुणा १२, ३ 
श्युगाराभासः सतु यत्र १४, ३६ 
रोकं मंहाकथायाम्‌ १६, २० 


सनह्य कृतव्यूहं सविस्मय १६ १८ 
सबन्धिक्लिश्रोत्रिय १२, ४० 
सभवति भयप्रकृति १५, ७ 
संभोग. संगतयोः १२, ६ 
संमन्य समं सविव: १६, १२ 
सयशसावसरे १६, २८ 
सशयितु. प्रत्यक्षं १६, २९ 
सस्थानावस्थान ७, ३० 

स एति विरोधाभासो १०, २२ 
सकलजगदेकशरणं १, २ 
सकङ्सलीपरिवृतता १४, २१ 
सकलसमानविशेष ८, ६७ 
सख्या पयंस्त वा १२, ३१५ 
सन्ति द्विषा प्रबन्धाः १६..२ 
समकाल निन्दन्ति १३, ६ 
समये त्वरावती १३, ७ 

` सम्यक्‌ प्रतिपादयितु ८, १ 
सम्यग््ञानप्रकृतिः १५, १५ 
सगाभिधानि चास्मिन्‌ १६. १९ 
सवं स्वस्वरूप ७, ७ 

सवेत एवात्मानं १४, १४ 


परिशिष्टम्‌ ३६ 


सर्वाकार यस्मिन्‌ ८, १०७ 
सर्वाद्खिना तु वेद्या १२, ३६ 
सवष्वेव जनः १४) ३५ 
सर्वर्परि सकारः २, २६ 

सा कति्पितोपमास्यायं ८, १३ 
साक्षाच्चितरे स्वप्ने १२, २३१ 
साघारणमपरेष्वपि ६, १२ 
सानुप्रासेन ततो १६, २१ 
सान्येत्युपमेयगत ८, ३ 
साभिप्राय किचिद्‌ १६ ३१ 
साभिभ्राये. सम्यग्‌ ७, ७२ 
सामप्रदानयभेदौ प्रणति १४, २७ 
सामान्यपदेन सम ठ, १७ 
सामान्य दान्दभेदः ११, २५ 
सामान्यशब्दभेदौ ११, २४ 
सामान्यावप्यर्थौ ८, ८५ 
सारूप्य यत्र सुपा ४, रण 
सावयवं निरवयवं ८, ४१ 

सा स्यादनन्वयाद्या ८, ११ 
सा स्यासप्रोषितपतिक्रा १३, ४६ 
सा हि सहोक्तियंस्या ८, ६६९ 
सिद्धयति यत्रानन्य. ४, २४ 
सिद्धा चता विविक्ते १४ १०. 
सुकविपरम्परया ७, ८ 
सुकविभिरभियुक्तं. १३० १७ 
सुकूमारा- पुरुषाणाम्‌ ९३ १५ 
सुभगः कलासु कुशकः ९२० ८ 
सुमतिरिमानि त्रीण्यपि ३, ४६ 
सुरते निराकुला १२ २५ 

सेय प्रोषितनाथा १२; ४० 

सेय विभावनाख्या €, १६ 
सोऽयं समुच्चय. स्यात्‌ ८” १०३ 
स्कन्धावारनिवेशं १६ १४ 
स्वरीपुनपुंसकाना ४, ८ 
स्थानाभिधान ३, ५२. 


१४४० काव्यालद्धुारः [ परि° १ 


स्निह्यति विनापि १२, ४० स्वा्थं मित्रार्थ १६, १० 
स्नेहप्रकृतिः १५, १७ । 

स्फारस्फुरत्‌ १, २१ हास्यो हासप्रहृति १५, ११ 
स्फटमर्थाखकारा ४, ३२ हिमसजिलचन् १४, ३ 

स्यादेष विस्मयात्मा १५, € हुत्केखननिष्टीवन १५,६ 
स्वचरात्तद्‌ ताद्रा १६, ११ हेतुः कारणमाला व्यत्तिरेको ७, १२ 
स्वस्यासौ संस्कारे १, १७ हेतुमता सह्‌ हेतोः ७, ८२ 


प्रमादतोऽननुदितस्य श्लोकस्याऽनुवादः 


इस प्रकार उपरिर्वाणत चि्रकान्य की शंखी को सुनकर (परिश्नीलन करके) 
मौर सहाकविथों द्वारा प्रस्तुत उदाहरणों का भनुक्षीलन करे शब्द मौर भथं के ममन 
सुकचि को चित्र अलंकार कै विभिन्न रूपों का पर्याखोचन करने के उपरान्त इसको 
विचित्र रचना मे प्रवृत्त होना चाहिए । ५.३३ 


परिशिष्टम्‌ २ 


काव्यालंकारस्य उदाह्रखसूची 


अकलद्धुकरुल ४, २३ 
भतिघनक्‌कुम ८, ३७ 
भत्यन्तमसहना ७, ७६ 
अत्रनद्रनीकभित्तिषु €, ३४ 
अधरदलं ते तरुणा ४, २० 
मनणुरणन्मणि २, २३ 
अन्यैव यौवनश्री. ७, १८१ 
अभियुज्य रोक १०, २६ 
अभिसर रमणं ८, १०६ 
भभिसारिकाभि ८, ८३ 
भरिकरिकूम्म ९, ४६ 
जकिकूलकुन्तल ८, ४५ 
अलिवलयैरलकैरिव ८, ३० 
अविरककमछू ७, ८३ 
अविरर्विगलन्‌ १, १ 
अविररविखोरु ७, ६० 
अविवेकितया स्थानं €, ४१ 
असतामदहितो युधि ३, ५५ 
मह्णिव कमल ५, ३२ 


आक्रम्य मध्यदेदां १०, १० 
आच्छिद्य रिपौ ७, ४६ 

आदो च्रुम्बति चन्द्र १०, २६ 
भादौ पयति बुद्धि ७, ६€ 
आनन्दममन्दमिमं €, ४७ 
आनन्दसुन्दरमिदं ८, १२ 
आपाण्ड्गण्डपाली ८, ३५ 
आयामो दानवतां ४, २६ 


आर्योऽसि तरोमाल्यः ४, ३० 
भाकिद्धिताः करीरः ७, २५ 
आलोकनं भवत्या १०, २८ 


इतीक्षिता सुरश्चक्रे ५, १४ 
इद च येनस्वयमा २, € 
इन्द्रस्त्व तव वाहु ८ ५१५ 


उचितपरिणामरम्य ७, ७३ 
उत्कटकरिकरतटस्फुट २, ३१ 
उत्कण्ठापरितापो ७, ५५ 
उत्तृद्धमातद्धकुराकुर २, ११ 
उद्यन्दिवसकरोऽसौ ५, ३१ 


एकस्यामेव तनौ बिभर्ति €, ३७ 
एकाकिनी यदवा ७, ४१ 
एतत्कि शशितिम्बं ८, ६२ 


कः पूरयेददोषान्‌ ८, ४८ 
कञ्जरदहधिमकनके ७, ३६ 
कथमिव वैरिगजाना ६, २५ 
कृमनेकृतमादान ४, १३ 
कमरदररधरररिव =, २३१ 
कृमखुमिव चार ८, ६ 
कमर्वनेषु ७, २६ 
कमक्िनीमलिनी ३, ५७ 
कमिनी सरसा ३, ५८ 
कमपु विकासो ७, ४५ 


णे 


४४२ 


कलावतः सभृत १०, १५ 
केष्टं सखे क्व यामः ७, १४ 
कानि निकृत्तानि ५, २६ 
कान्ता ददाति मदनं ७, ६६ 
कार्याकायं मनायें २, २५ 
कार्येषु विष्नतेच्छ ७, ७६ 
काल जलदकुल ८; ६८ 

कि गौरिमां प्रतिरुपार, १५ 
कि चिन्तयसि सखे ६+ ३५ 
कि पुनरिदं भवेदित्ति =, ७३ 
कि मरणं दारिद्रय =, ७३ 
किमांत्रवीषि मूख ११, २२ 
कि सुखमपारतर्त्यं ७, ८० 
कि स्वर्गादधिकसुख ७, ६५ 
किमय हरिः कंथ त, ६४ 
किमिति न पर्यसि ६; ४२ 
किमिदं रीनालिकुल ८, ६० 
किभिदमसगत ११, १९ 
किसर्यकरंकंताना ८, ५० 
कुल्जकमारापि ६, २५ 
कूमुददरुदीधितीना =, १९६ 
कुमुदः सह संप्रति ७, १८ 
करका लिखाव ४, १२ 
कुवरयदरभिव दीघं ११, २८ 
कुसुमभरः सुतरुणाम्‌ ६, ३६ 
कुसूमायुधपरमास्वं ८, ४६ 
कौटिल्य कचनिचये ७, ८१ 
क्रीडन्ति प्रसरन्ति ४, २१ 


क्वनु यास्यन्ति वराका ११, १६ 


क्षीणः क्षीणोऽपि ७, & ° 


गृजरक्तरक्तकेसरभारः ६, ३३ 
गमनमधीतं हसेस्त्वत्त. ८; ६६ 
 गवंमसवाह्यमिम ८, ७८ 


~. श्रामंतरूणं तरुण्या ७, ३६ 


0 
॥ 1 
५ 
[ 


श = 


क(ग्याकङ्खगरः 


ग्रीष्मेण महिमनीतो ३, २६ 


घनसमयसलिलधौते £, १२ 
धनाधनाभिनीखा ३, ४१ 
घनाध नायं न नभा ३, ५४ 


चक्र दहुतारं चक्रन्द ३, ४ 
चन्द्रकरेव सुगौरो ११, २७ 

चेम्पककल्िका ४, १६ 

चम्पकतरुशिखर ८, ३३ 


जगद्विनाकरे हदि €, २६ 
जनमसुभमभिरूप ६,४ 
जनयति संतापमस्रौ ८,६० 
जय जय वंरिविद्धारण ६, ३१ 
जाताते सचि €, १६ 

जालेन सरसि मीना ८,१०४ 


तत्र भवन्भगवन्‌ €, १६ 
तदिदमरण्य यस्मिन ७, १०४ 
तरर ऊोचनयुगलं ७, ८८ 
तरलत्वसमालिन्यं ७, २२ 

तव गणयामि गुणान्‌ ८; &€१ 
तव दक्षिणोऽपि वामो १०, २३ 
तव दिग्विजियारम्भे ११, ४ 
तव भवने पश्यन्त. ८, ११० 
तव वनवासोऽनुचितः ११, १३ 
तापनभाज पावन ४, २७ 
तारण्यमाद्चु मदन ७, ६६ 
तियेक्‌ प्रक्षणतरके ७, १०७ 
तुङ्कानामपि मेघाः ८, ८९ 
तेजस्विना गृहीतं ६, ३८ 

तोदी सदिगगन मदो ४, १४ 
त्वं तावदास्स्व दुरे ७, ५३ 
त्वदुमुत्यावयवानपि ७, ५२ 


[ परि०र 


परि०२ | 


त्वया मदर्थे समुपेत्य १०, १२ 
त्वयि दुष्ट एव ८, ९५ 


दत्त्वा दशंनमेते ७, ७८ । 
दिवमप्युपयातानाम्‌ £, ६ 
दिष्ट्या न मृतोऽर्मि ७, ६१ 
दीना दूनविषादीना ३०४६ 
दुगधोदधिकषौङस्थो ७, ३७ 

दर्ग त्रिक्रुटं परिखा ७, २५ 
दुरादुत्कण्ठन्ते ७, ७१ 

देवी महीकुमारी ४,& 
दैवादहमच्र तया ७, २६ 


धी रागच्छदुमे ४, १५ 
धलीधूस्रितनवो ७, ३२ 


ननाम लोको विद ३, १७ 
नभ इव विमर सकल ८, २८ 
न मृदुन कट्िण €, ४२ 

नयने हि तरलतारे १० २१ 
नवधौतधवक €, २३ 
नवविसकिसकय ठ, ५८ 
नवयोवनमगेषु ७, ६८ 
नवयौवनेन सुतनो &, ४६ 
नवरोमराजि ४, ७ 
नवविकसित ८, २२ 
नस्त्रीन चाय €, ४४ 
नाकुसुमस्तरु ७, १११ 
नारीणामलस ३, २४ 
नासीरोद्धतधरुरी & ३७ 
नास्ते न याति हस्त. ९, ४३ 
निद्रपहरति जागर ७» ६६ 
नियतमगम्यमद्‌दयं ५, २८ 
निहतातुरुत्तिमिर €, ९७ 

नो भीत परखोकतो १०, १३ [0 


जकृन्कष्ये 
ह र, | 


तरै 


परिरिष्टम्‌ 


४४३ 


पद्मायते मुल ते ८ २४ 
पद्मासनसनि हितो ११, ३५ 
परहूदयविदसुरहित ४, २५ 
परिहूतमभ्ुजग सगः १०, १७ 
पल्छवितं चन्द्रकरं. £ १३ 
परयन्ति पथिकाः ३, २५ 
पारयति त्वयि वसुधा ८ ठप 
पिबतो वारि ५; ३० 
पष्यन्विकासं नारीणा ३, २६ 
्रस्पुरयन्नघरोष्ठ ७, २३ 
प्रागल्भ्यं कल्यानाम्‌ ११, १० 
प्रियतमवियोगजनिता € ५९ 
म्णा निधाय सू्धनि १०८ 


फठमविकलमरुधीयो ८, ६८ 


बालमृगलोचनाया ९, ३९६ 


भणं तरुणि रमण २, २२ 

भरण मानमन्यथा ७, &४ 
भवदपरार्घ, साधं ७, १६ 
भीतामीता सन्नासन्ना २५४३ 
भुक्ता हि मया गिरयः ११० २९ 
भजयुगङे बरमद्र॒ १०४ ९€ 


मञ्जीरादिषु रणित & २५ 
मदिरामदमरपाटल ८, ७० 
मदिरामदमरषाटक ७, १०८ 
मधूपानोद्धतमधुकर ८ १०० 
मन्येऽहमिन्दुरेष. ८, ७१ 

मल्यानिरुक्खनो २, ३० (व 
मातद्खानद्धविधिना ५ १३ _ 
माता नताना सदुः ५, ७ ˆ“ ` - 
माननापरुषं खोक ५, १० ` ^ „~“ 
मामभीदाशरण्या ५, & ~^ 


४८८ 


मा मपो राजस ५, ११ 
मायाचिनं मदाहा ५८ 
मरारारियिक्ररामेभ ५, 
माहिपास्ये रणडन्या ५, १२ 
मुक्ताफल जानचितं १२, ३१ 
मुक्त्वा सलीलदुप्न ८, ७५ 
मुखमपूणकपालत €, १४ 
गुखमिन्युचुन्दर ८, १८ 
मुर्वति वारि पयोदो €, २७ 
मूदारताडी समराजि ३, ६ 
मृदार्तासौ रमणी ३, १४ 
मृद्ा सनामुढा ३, ३७ 
मृग मृगाद्रः ८, १०८ 


यत्त्वया घाच्रवं ३, २ 

यत्र मृरतप्रदीपाः &, ५३ 
नैक पयोधि ५, ३३ 

यद्विततव तया ८, ६३ 

या पात्यपायपतिता ५, २१ 

भा मानीतानीतायाम ३, 

यान्ता चिन मानो 3३ 

यान्यन्ति यवातुणं ७, ६२ 

मे चानापोना ५, १६ 

योन्मो सस्ये पुच्र. ६, ८४ 

पो सर्‌य नैवे ७, ४८ 

यो रज्यमामाय २,८ 


सप्मनार्‌ समगार्‌ ३, ३६ 

त गार्ग्याः मार्‌ ५, २ 

1 दमि टि £ 

“द. र शा $+ ६. + 
(7, ध ८१० 3 ५ 


४३ धुरम ५. भ 


काव्याखद्भुारः [ परि० २ 


लक्ष्मीस्त्वं मुखमिन्दुः ८, ५३ 
ललनाः सरोरूहिण्यः ८, ४३ 

चिचितं वालमृगक्ष्या €, १० 
लिप्नून्तवन्सि २, २७ 

खोक लोकितकिसक्य ८, ९६ 


वचनमुपचारगर्भं ७, ५८ 
वदनमिदं सममिन्दोः ०, ७७ 
वद्र वद जितःस ६, ३० 
वरतनु विरुद्धमेतत्‌ €, ४० 
वसुधामहित सुराजित ४, ३४ 
वहति यथां मख्य ७, ६३ 
वारयति रखी तस्या ६, २२ 
विकर्नितताराकमुदे ८, ४ 
विदकितसकलारिकुकं ७, २८ 
विनयेन भवति गुणवान्‌ ७, ८५ 
विनायमेनो नयता ३, १५ 
विपरीत्तरते सुतनो ११, ३० 
वेदापन्ते स गवे ५, १७ 


दारदिन्दुनुन्दरद्चं १०, ४ 
गरदिन्दुसुन्दरमुखी =, २० 
यत्यमपि स्वनदन्तः २, १४ 
द यिमण्टछमिववदनं =, = 
धिमण्डकमिवं विम ८, ११ 
यिदुमुगधयुवनि ७, ३१ 

यख शनन्तुशंवा ८, १८ 
ष्पामानछतेव तन्वी 5,२ 


मर्याप्रत्तविवितधाधिक १०, ९ 
मफन्दस्यन जरेने ७, ८५ 
1111111. 11154: 4 

गकनम्यिद सुखदुः 4, ८१ 
सस्नुनमतिन् नमानिय <) ८५ 
ग्य द्यमय गग्न्टो ६, ३५ 


परि०२ | 


सत्वां विभति हदये ८, १०२ 
सत्त्वारम्भरतो ३, १६ 

स॒ त्वारम्भरतोऽवद्य ३, १८ 
सन्तोऽवत वत प्राणा ३, ४५ 
सन्नारीभरणो भवानपि ३, ५ 
सन्नारीभरणोमा १०, २७ 
सभाजनं समानीय ३, ३१ 

` सभाजनेनो ६, १२ 
समरणमहि ५, २२ 

समरे भीमारम्भं ४, १७ 
समस्तभ्रुतन ३ २८ 

सरणे सरणेन नृपो ३, ५३ 
सरमणहि्मि ५, २३ 

सरला वहरारम्भ ५, १६ 
सरसबल स हि ४, ११ 
सरसायारि ५, १८ 

सरसि समुल्लस &, १५ 
सलिरं विकासि ७, ११० 
ससार साकं दपण ३, ३५ 
सा कोमलापि दलयति €, ३९ 


परिशिष्टम्‌ 


५४१ 


साक्षादेव भवान्‌ ८; ३६ 
साधौ विधा ४,४ 

सामोदे मधुकुभुमे ७, २४ 
सावज्ञमागमिष्य ७, ५७ 
सा सिप्रानामनदी ७, १०५ 
सा सुन्दर तव विरहे ६, १० 
सुखभिदमेतावत्‌ ७, २१ 
सूतनुरिय विमला १२, ३१ 
सुतनु सरो गगन ८, ५४ 
सुरतरु तखालसं ४, ६ 
सेना लीरीखीना ५, १५ 
स्फुटमपर निद्रायाः €, २१ 
स्मरशवरचापयष्टि ८, ५१ 
संसयति गात्रम्‌ ७, ७० 


हरति सुचिरं ७, ३३ 

हृदय सदेव येषाम्‌ ७, १०२ 
हृदये चक्षुषि वाचि & ८ 
हृदयेन निवृ तानां त, ८४ 
हे हस देहि कान्ता ११, २३ 


परिशिष्टम्‌ ३ 
नमि्ाधुकतटीकानर्गतानि उदरनि श्चभिधानानि च 


१. उद्धरणानि 


अतिशयकागिविद्ेपण ठ, ६४ 
यनेकद्रव्यसयुकतंः १२, ४ 
अन्यदा श्रूपणं पुनः ११, २४ 
अम्य्णवतति दाद्यम्‌ ७, ८६ 
अमृतस्येव कुण्डानि ८, १ 
अयं पद्मासनासीनः ११, २४ 
भरण्यरुदितं कृतम्‌ ८, ३७ (भर्तृहरि) 
अलम्यशोकाभिभवा ७, ५० 
अवजानासि माम्‌ २, ६ (रघुवण) 
यहो रूपमहो ख्पम्‌ ३, १ 


आयु तम्‌ नदी पुण्यं ७,८३ 

भआरिसवयणे सिद्धम्‌ २, १२ 

आवजिता किंचिदिव ८, ३७ 
(कमार संभव) 

आपादी कातिकी २, ७ 

पादी कातिकी ६, ३८ 


इति व्याहृत्य विवुधान्‌ ६, ४८६ 
(कुमारसंभव) 

इहं दुरधिगमं १, २० (किरातार्जुनीय) 

इट्‌ हि भ्रुवनान्यन्ये ९, ६ (भतहरि) 


 ष्यीकरुहनिप्कान्त. १३, ४४ 


 उक्छरत्योच्छृच्य कृत्तिम्‌ ७, ३३ (मारती- 
'माधव) . 


उत्छाय दपृचरितेन ७, ३३ 
उद्भटस्तु सवत्राव्र पुनरत ६, ३३ 
उपचरिताप्यतिमात्रम्‌ ११, ११ 
उपमेयमयपन्ु.त्य ८, ६४ 
उमा वधूर्भवान्‌ दात्ता ७, २० 

(कुमारस्भव) 


एततुपुतनचक्र ७, ३० (मालतीमाधव) 
एत्ता हसन्ति च ०, १ (मृच्छकटिक) 


कर्त ्य॒तच्छछानामू ७, ७३ 
करतुरपमानयोग. ८, ३७ 

कशं नागमटाय ५, १५ 

कान्ते इन्दुलिरोरते ६, १५ 

कान माषं सस्ये ६, ४७ 

किं तावत्सरसि ८, ६४ (शिश्युपालवय) 
कृतसकटजगद्‌ १, २० (शियुपारवध ) 
कुञ्चः काणः खंजः ७, ७६ 
कोपादेकतरखाघात ६, £ 

क्रमादमुं नारद २, ६ (शिब्युपार्वध) 
क्लीवो विरूपो मूखंदच ७, २० 

क्षान्तं न क्षमया ११, ३६ 


खण्डिता विप्रख्न्धा च १३, ४४ (भरत) 
खमिव जलं जकभिव ८, १० 


गजो नगः कुथा ८, ४३ 
गणयन्ति नापदाब्दम्‌ ७, ७ 


परि०३े | 


गतेऽ्धरात्रे २, ६ (पाताङविजय, पाणिनि) 
गवित्ययमाह २, ६ 

गाण्डीवी कनकरिला २, ६ (किरातार्जुनीय) 
गायन्ति किनरगणाः ०, २५ 

गोरपत्यं वी वदं: ७, १० 

गौ रीक्षणं भूधरजा ६, ४० 


चतुरसखीजनवच्त. ११, २४ 
चन्द्रायते शुक्लरुचा ८, २८ 


जित्वा सपत्नानृक्षायम्‌ ११, २४ 


त वदन्तमिति ठ, ३२ (कुमारसंभव) 
तत्र वासकसज्जा च १२, ४४ (भरत) 
तत प्रतस्थे कौवेरीम्‌, ८, ५ (रघुवंश) 
ततो मुख तेन ८, १६ 

तत्सहोक्त्युपमा १०, २ 

तदल्पमपि नोपक्ष्यम्‌ १, १४ (दण्डी) 
तस्यारिजातम्‌ ४, ४ 

ता हसमाला शरदीव ११, २८ 

ता किपि किपिं ६, ३३ 

तुर ङ्ख कान्तामूख ६, १३ (लिशुपारुवध) 
नासद्च॑व वितकंड्च, १२, ३ 


न्तान्निदलयत्‌ ७, १० 

दशंनादेव नटवद्‌ ८, १ 

दानमम्युपपत्तिशच १५, २ 

दिने दिने सा परिवधेमाना ८, ५ 
(कूमारसभव) 

दिवाकराद्रक्षति १०, २६ (कूमारसभव) 

दिव्यस्त्रीणा संचरण ६, ४५ (काकिदास) 

देवदत्त गामभ्याज ६, ४६ 

देत्यस्वीगण्डकेखानाम्‌ ६, २४ 
(कालिदास) 

द्विषतां मुलमुच्चेत्त॒म्‌ ४, ४ 


परिशिष्टम्‌ 


धात्वर्थ बाधते कदिचत्‌ २, ६ 
घृतचिसवल्ये ६, २४ 


नदीषु गंगा नगरीषु ७, ६६ 

नमामि शकर काश्च ११, ३५ 

तवद्यामाल्ता ८, २६ 

नष्टं वर्षवरः ७, ३३ (माक्तीमाधव) 

तन स शब्दो न तद्वाच्यम्‌ १, १६९ 

न हुषट्ु इत्यण अवही ११, ३६ 

नादेन यस्य सुरशन्रु २, ६ 

निपेतुरास्यादिव ११, २४ (काकिदास) 

निरकंदादिष्वपि तद्रसनम्‌ १२, ४ 

निर्वेदोऽथ तथा श्लानि" १२, ३ 

निसर्गचित्रोज्ज्वकल १, २०, (शिशुपारवध) 

निसगंदुर्बोधमवोध ७, ४८ 
(किराताजुनीय) 

नीचोऽपि मन्दमत्ति ८, ४ 

नस्गिकी च प्रतिभा १, १४ (काव्याद) 

न्यस्ताक्षरा धातुरसेन ७, ७२ 

(कमारसभव) 


पद्मचारमुखी ८, ३१ 

परिप्रतिगता्थौ ३, १२ 

पातु वो गिरिजा२,६, २,५ 

पुष्प प्रवालोपदहितम्‌ ११, ३२ (कालिदास) 
पृथिव्या इव मानदण्ड. ८, ३७ 

प्रतिपद्य मनोहर वपुः १४, १ (कालिदास) 
प्रत्यग्राहितचित्र ८, ६४ 
प्रसाधिकालम्बित ७, ३३, (रघुवर) 
प्रहुरकमपनीय स्व ७, ३० 

प्राकृतं सस्छत चतत्‌ २, ११ 

भ्रापयासुरथं वीर ४,.४ 

प्रियेण संम्रथ्य विपक्ष ठ, ८ 


+} 


क ॥ 


भक्षिताः सक्तवो राजन्‌ १ १, र 


४४८ “ कान्यारुङ्खारः [ परि०३ 


भवन्तमेर्ताहि मनरिवग्ह्िति ११, ३५ किगवचनभेदौ ११, २४ 
(किरातार्जुनीय) 

भावामिनय संवदधान्‌ १२, ४ वचनमधु नयनमधुकरम्‌ ८, ४३ 

भरुजतुर्िततुद्ध भूभृत्‌ ८, ६४ वदन्त्यपर्णामिति २, ६ (कुमारसंभव) 

श्र मेदो गुणित्तदिचर ६, ४६ चमेऽथ तस्मिन वनित्ता ११, २८ 


वपुरनुपम नाभेख्व्वम्‌ ११, ७ 
मणिमयूखचयां शुक ६,४५ (किरातार्जुनीय) वत्कीवल्कपिनद्ध ७, ३० 
महीभृतः पुत्रवतोऽपि ६, € (कमारसंभव) वाक्यं ववित्त न ववत्रम्‌ ८, ६४ 
महुरं परुसं कोमलम्‌, २, १६९ (भतृहरि) चिजृभ्मितोदामरमेन ३,१ 


मानिनीजनचिलोचन ६, ३३ विपममिद वनम ७, ५४ 
मुखेन पद्मकल्पेन ८, ३१ वृक्षमभिविदयोतते विद्युत्‌ २,२ 
भृणालसूव्रामलमन्तरेण ८, १५ (शिण्वि०) वेगदहेतुरगाणामू ४४ 
मृणालिकाकोमल ८, २१ व्यास्यानमनेकर्विवम्‌ ५, २३ 
व्याहता प्रतिवचो न ११, ११ 
यतः क्षणच्वसिनि १, २२ (कूमारमभव) 
यत्रोप्तेऽपि निवत्त ५८, ६४ व्रीडा चपर्ता हर्षः १२, ३ 
यमकनुलोम ३, ५६ 
यद्च निम्बं २,८ दातानन्दापरास्येन ५, १४ 
यदचाप्सरोवि भ्रम =, ३७ (कुमारसंभव) यरत्चन्द्रायरे मूती ८, २६ 
यस्या वीजमहुेति ८, ४३ दारतप्रसन्नेन्दुमुकान्ति ८, २८ 
य करोति वधोदर्का ठ, ३७ गुव शुक्रदा ४, ४ 
(कुमारसंभव) त्रिय: कुरूणामविपस्य ६, ४६ 
यस्या दूती प्रिय. प्रेध्य १३, ४३ (किरातार्जुनीय) 
यो गोपीजनवत्कभ. ठ, ६४ 
सन्ध्यावघू २, ६ 

रजिता नु विविधाः ८, ६६ (किरात्त०) (पातारुविजय, पाणिनि) 
रक्तस्त्वं नवपर्कवंः १०, २६ स दक्षिणापाद्खुनिविष्ट ७, ३० 
रतिर्हासस्च शोकश्च १२, ३ (कुमारसंभव) 
रहितरत्नचयान्न ६, ४५ (कालिदास) स पीतवासाः प्रगृहीत ११, २४ 
राज्यभ्न शो चने वासः ७, २३ स॒ मार्ताकभ्पित्तपीत्तवासा ११, २४ 
रावणानग्रहुक्छान्तम्‌ ८, ५६ (रधुवश) (शिशुपारुवध) 
क ५ सवः पायात्‌ २८ 

४ ---- य क्रान्त ६, ७ स्वकारकनिर्व्॑था ७, ५ 

 छतायसेऽतिते्वी =, ३१ सा भूधराणामधिपेन ८, ५ 


‡ क्ावण्यसिश्धुरपंर्व २, ६ (कुमारसंभव) 


> & ५ 


~ 


प्रि०° ३ | 


सिहः प्रसेनमवधीतु ७, ९१ 
सीसपडक्छिय २, ८ 

सप्तं प्रबोधोऽमर्ष्च १२, ३ 
सुत्त पुक्ताफर ८, १६ 
सषदो जलतरग २, ८ 


परिशिष्ट 


स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमां चः, १२, ३ 
स्पष्टाक्षरमिदम्‌ ७, ५६ 
स्फारष्वानाम्बुदारी २, ८ 
स्फुरन्ति निखिला नीरे ११, २४ 
स्वदन्नेव तदात्वेऽपि ७, ८€ 


हेषतिरश्वेषु भणतिः पुरुषेषु ६, २६ 


श्रशुप्रमा"ऽऽख्यहिन्दी-व्याख्यायां म्रयुन्तोद्धरखशाः 


उद्धरणांशाः पृष्ठांकाठच ` 
सकार्यमित्रम्‌ १६५ 
सत्रिखोचन १६२ 
अधिश्रयणाध. १८६ 
अनयोदोषिधो- ३४६ 
अन्वितानामेव ३० 
अपुथग्यत्न ५२ 

अप्रतीत यत्केवरे १६२ 
अत्र वत्सरष्रक्ेतेः ४१२ 
अलकृतमसकिप्तम्‌ ३६१ 
अवस्थादिभिन्नानां ३६२ 
असमर्थं यत्तदर्थं १५०८ 
मस्य ग्रन्थस्य कानव्याद्खतया ४ 
अहेतु. पक्षपातो ४१२ 

अहो रूपमहो ५३ 
असाटदयनि बन्धना ३६ 
आस्यायते प्रचान १६० ` 
आस्यात साऽव्यय २७ 
आख्यात सविरेषणम्‌ २७ 
इति दोषविष १५३ 

इति विस्मृतानि ४१३ 

इयं च सुतवात्सल्यात्‌ ४९५ 
इष्ठ. प्रयोगो ८५ 

इह दोपगुण ३६ 


उद्धरणांलाः पृष्ठाकाहच 
इहाऽगृहीत १८४ 


` उच्चावचेषु २२ 


उन्नता लोकदयिताः ३१९६ 
उपकुर्वन्ति त ५९१ 
उपमानेन यत्तत्वम्‌ ८५ 
उपेयुषमपि दिव १६ 
एकतिड. २७ 

एक शब्दः एकां १८४ 
एतद्‌ रसेषु भावेषु ३६१ ~ 
एम्यः पृथम्‌ ३५१ 
एवमेते दयरकाराः ३६१ 
कमरुभमिव ११७, २३२१ 
करन कलित है ३११ 
कामे कृतामोदानां ६६ 
कामं सर्वोऽपि ३६२ 
कान्यं यशसे ११ 

काव्य सद्‌ हष्टं ९ 
कान्यशब्दोऽयं १९ 
काव्यस्यात्मनि ३६४ 
कान्यस्य शब्दाथौ १६ 
कुञ्ज हन्ति १५८ 
कूरराछिराव ६५ 
गतोऽस्तमकः ३८ 


ढ४९ 


परिशिष्टम्‌ ४ 


[ 


काव्यशास्वीयग्रन्थान्तरेषु उपरभ्यमानाः समानपाठः 


काव्यालंकारः ग्रस्थान्तराणि 
अघरदलं ते तरुणा ४-२० काव्यानु्ासन २८० पृष्ठ 
उनेणुरणन्मणि २-२३ काव्यानुशासन २२१ + 
काव्यप्रकाद् १०-५८२ 
वक्रोक्तिजीवित १-१० - 
अलिकुककून्तक ०-४१्‌ कान्यानुलासन ३०२ पृष्ठ 
अक्वियं ८-३० कान्यानुशासन २६६ +, 
उविरलकमक ७-८३ काव्यानुजासन (टी°) ३४७ पृष्ठ 
काव्यप्रकाश १०-५२६ 
सविररविलोक ७-६० अरूकारसर्वस्व ४१ पुण 
सहिणव ५-३२ कान्यानुदासन १६६ 
आनन्दममन्द ६-४७ काव्यानुल्ासन ३२५ 


साहित्यदपेण १०-७० 
कन्यका १५.५४० 


दनदरस्त्वम्‌ ८-५५ कान्यानुशासन ३०१ पृष्ठ 

उत्कण्ठापरितापो ७-५१५ कान्यानुशासन ३४१ ,, 

एकस्यामेव तनौ &-३७ काव्यानुगासन ३२३ + 

एकाकिनीं यदवला ७-४१ अरकारस्वेस्व &७ ,, 

-केज्जलदहिम ७-३९ अक्कारस्वंस्व ८५ + 

| कान्यालकारसार ४६ + 

, कमनेकतमा `४-१३ कान्यानुशासन (टी०) २७४ पृष्ठः 
,, कमलदररधररिव ८-३१ काव्यानुशासन २६६ पृष्ठं 

कि गौरि मां भ्रति २-१५ काव्यानुासन २८१ + 

किमिति न पद्यसि ६-४२ काव्यप्रकाश ७-२३९ 


~. "किञ्ञसयकरलतानां =-५० काव्यप्रकाश १०-४२६ 


परि०४ | 


कुललालिकाव ४-१२ 
कौटिल्यं कचनिचये ७-८१ 


 । 


क्रोडन्ति प्रसरन्ति ४-२१ 
क्षीणःक्षीणोऽपि ७-६० 


गवंमसंवाह्य ८-७य 


ग्रामतरुणं ७-३९ 
धनाघध नाय ३-५४ 
चक्र दहूतारं ३-४ 

तत्र भवन्मगवन्‌ ६-१६ 


तदल्पमपि नोपेक्ष्यम्‌ १-१४ 


तदिदमरण्यम्‌ ७-१०४ 


दत्त्वा दशन्‌ ७-७८ 
दिवमप्युपयातानां ६-६ 


दैवादहमद्य ७-२६ 
नारीणामलस नाभि ३-२४ 
नालमृगरोचनाया १-३६ 
भणतरुणि रमण २-२२ 


परिहिष्ट 


कान्यानुलासन (टी ०) २७४ पृष्ठं 
काव्यानुशासन ३४४ पृष्ठ 
अलकारसववंस्व ८७ + 
कान्यप्रकादा १०-५२३ 
कान्यानुरासन २८० पृष्ठ 
काव्यप्रंकार १०-४६२ 
अकूकारसवंस्व ४८ पृष्ठ 
साहित्यदपंण १०-५३ 
कान्यानुश्चासन ३३२ पृष्ठ 
कान्यानुलासन ३२२ 
कान्यप्रकाड १०-५५५ 
कान्यप्रकाश १-३ 

काव्यानुशासन (टी०) २५६ पृष्ठ 
कान्यानुल्लासन २५२ पृष्ठ 
कान्यानुशासन १५० „+, 
अककारदेखर १४ पृष्ठ 
कान्याददं १-७ 
कान्यानुक्ञासन ३५३ पृष्ठ 
भरकारसवंस्व १०३ पुष्ठ 
काव्यप्रकाज्ञ १०-५०६ 
अल्कारस्वंस्व ८६ पृष्ठ 
अलकारस्वंस्व ७६ , 
साहित्यदपंण १०-७४ 
काव्यानुशासन ३२० पृष्ठ 
अलकाररत्नाकर ६३-३४१ 
कान्यप्रकाश १०५-५६ 
काव्यप्रकाश ४-२६ 


हरे 


काव्यानुशासन (टी ०) २५५ पृष्ठ ^ : 


कान्याचुशासन ३२४ प्रष्ठ 
कान्यानुशासन २२१ ,;, 
वक्रोक्तिजीवितं १-६ 

काव्यप्रकाश १०-५८१ 


४५ 


४१० 


गमितं तत्र १७६ 
गुणक्रियायहच्छा १६२ 
चतुवंगंफलास्वाद ३६३ 
चतुष्टयी शब्दाना १८५ 
वन्द्र॒ मुञ्च १७८ 
छायावन्तो गतन्यालाः १०६, ३१६ 
ज्यों रहीम गति ११६, ३२१ 
ततो ह्यते &७ 

तत्तु नैकान्त ५२ 

त्न शन्दालकारा. ३६ 
तददोषौ दान्दाथौ १९ 
तदल्पमपि १५३ 

तदा प्रभृति १७३ 

तद्‌ यत्रोभे १६० 

ते चाऽद्यापि १६६ 
तेनानुकुर्याद्‌ ३५७ 
दुष्करत्वात्‌ १२० 

दृष्टपूर्वा अपि ३६२ 


` द्रन्यराब्दाः १८७ 


धीरा गच्छतु ६८ 
ष्वन्यात्मभूत ५१, ५२ 
घर्माथकामं € 

धम्यं यडस्यम्‌ € 

न कथममीषां १५५ 

न च किचित्‌ १५४ 

ननु शब्दाथौ १८ 
नसगिकी च प्रतिभा १४ 
न हि गौः १६२ 

न छिगवचने भिन्ते ३४८ 
नामपदवाच्यायं २१ 
निपातमन्यय. २२ 
निमित्ततो वचो ३७ 


` . निहंतुता तु १६६ 


` निधि चाण्डाल इव २४६ 
नीतानामाकरुखी ११५, ३१८ 


कान्यालकार 


| पररि 


नेदं नभोमण्डलम्‌ २७१ 
पदानि असत्यानि २७ 

पदे न वर्णाः २६ 
पदसमूहो २५ 
परोपकारनिरतं. १७६ 
पुन सक्तवदाभासर १७३ 
पूर्वापरीभूतावथव १८९ 
पु्वपिरीभ्रूत माव १९० 
प्रतीयमानस्य चान्य ३६२ 
प्रायदो यमके १२० 

प्रयो गहागत ४१४ 

प्रेयः प्रियतराख्यानम्‌ ४१४ 


. बहुरसकृतमार्ग ३६१ 


भावप्रधानम्‌ २१, १६० 
भाषारकेष ३२१ 
मनोऽनुङकरुषु ४१३ 

मुखर मनोहर ३१५ 
मधुरं रसवद्‌ ३६१ 
यत्पुनरनरुकारं १५३ 

यत्र वाक्यान्तरस्य १७० 
यथापदे२७. 
यत्सत्त्वे यत्सत्त्वमू २३११ 
यथा स रसवन्नाम ३६३ 
यदेव रोचते मह्यम ४१२. 
यमके च प्रबन्धेन ५२ . 
यद्चायमुपमा १६६ 
यस्मिद्च राजनि ११५ ३१९ 
यस्यागमाद्‌ २२ 

यस्य न सविधे ५३ 

युक्तं लोकस्वभावेन ३६१ 
युक्त वक्त्र ३८ 

येन घ्वस्तमनो ११४, ३१८ 
रतिप्रीत्योरपि ४१२ 
रत्नवत्त्वाद्‌ ३१६ 
रत्यादिकानाम्‌ ४१५ 


'परि०३ ] परिशिष्ट ४५१ 


रमणीयाथेप्रतिपादकेः २० रारीर तावद्‌ इष्टाथं २०, ३६४ 
-रसादिद्योतन ३६३ रिरुष्टमिष्ट ८५ 

रसभावचादि ५१ श्कषादेवाऽथं ३१५ 

रीतिरात्मा कान्यस्य ३६४ रषः सर्वासु ३६, ११७, ३२१ 
रुणद्धि रोदसी चास्य १६ सकेखकरू ११६, ३२० 

रचि सौ ऊँचे ३११ सकप्रयोजन, ३६३ 

कक्ष्मीरिव विना ३६३ सक्रियाविरेषणं २७ 

-लक्ष्यज्ञत्वमु १४ | सतु रोभान्तर ५२ 

रोको विद्या प्रकीर्णं १४ सत्त्वप्रधानानि २१ 
किगसख्ययोरत्रे २१, १६४ सन्निहितबार ११५, ३१६ 
वक्त्रस्यन्दि २४१ समसवेगुणौ २० 

वर्णनामथ ११६ समुदायाभिधान ३८ 
व्यंग्यव्यजकभावे ३६३ संकेतितश्चतुभदः १६२ 

वाक्यं त्वाकंक्षा २५ सम्यग्ज्ञाने १६२ 

-वाक्यं रसात्मक २० साक्षात्सकेतित १८४ 

वाक्य ह्याख्यातं १६० स्फटम्थालकारौ ३२० 

चक्यं स्याद्‌ २५ स्वादुकाग्यरसोन्मिश्च ३६१ 
वाच्यानां वाचकानाम्‌ ३६२ -स्वाथंबोधै ३० 

-विजृभ्ित्त ५३ सोम" सूर्या ४१४ 
वृक्षमभिविद्योतते २२ हे पूतनामारण मे ११४, २१७ - 
राक्तिनिपुणता १५ सुरचितव राह ३२१ 
` राब्दाथौ सहितौ १८ संषा सर्वंत्र वक्रोवित ३७ 
चब्दादिस्यो बहिर्भूता ४१३ स्तोकेनोन्नतिम्‌ ११७, ३१३, ३२२ 
शाब्दाथंयोः ५३ सादृश्यात्‌ ३६ 

शब्दे. स्वभावाद्‌ ११७, ३२१ साहित्यमनयोः २० 

शशारशबर ६४ सिद्धं शन्दाथं ˆ - 


सुरचितवराह्‌ ११७ 


परिशिष्टम्‌ £ 


[न 


काव्यशास्त्रीयग्रन्थान्तरेषु उपकस्यमानाः समानपाठाः 


ाव्याछक्ारः 


डअधरदकतं ते तरुणा ४-२० 
अनणुरणन्मणि २-२१ 


मलिकूलकृन्तक ८-४१५ 
अलिवरयेः ८-३ ० 
अविररकमक ७-८३ 


सविरखविलोल ७-६० 
अहिणव ५.३२ 
गानन्दममन्द €-~४७ 


दन्द्रस्त्वम्‌ =८-रन्‌ 
उत्कण्ठापरितापो ७-५५ 
एकस्यामेव तनौ €-३७ 
एकाकिनी यदवा ७-४१ 
कज्जरहिम ७-३६ 


` कृमनेकतमा ४-१३ 
कमखदररधररिव ८-३ १ 
` ¶कि गौरि मां प्रति २-१५ 
. किमिति ने पश्यसि ६-४२ 
^ , किच्चरुयकरलंतानां =-५० 


#) ~+ 


| [र 
१५ # „2? 


ग्रस्थत्तयणि 


काव्यानुशासनं २८० पुष्ठ 
काव्यानुशासन २२१ \ 
काव्यप्रकाश १०-५८२ 
वक्रोवितिजीवित १-१० - 
काव्यानुशासन ३०२ पृष्ठ 
कान्यानुशासन २६६ + 
काव्यानुलासनं (टी ०) ३४७ पृष्ठ 
कान्यप्रकाश १०-५२६ 
अलकारसवंस्व ४१ पु 
कान्यानुचासन १६९ 
कान्यानुशासन ३२५ 
साहित्यदपंण १०-७० 
कान्यप्रका्ञ १०-५४० 
कान्यानुशासन ३०१ पृष्ठ 
काव्यानुशासन ३४१ , 
कान्यानुदासन ३२३ , 
अककारसर्वंस्व &७ ,, 
अकंकारसर्वंस्व ८५ ,, 
काव्यालकारसार ४६ ,, 
काव्यानुशासन (टी०) २७४ पृष्ठ. 
काव्यानुदासनं २६६ पृष्ठ 
काव्यानुलासन २८१ +; 
कान्यप्रकादा ७-२३६ 

काव्यप्रकाश १०-४२६ 


परि० ४ ] 


कुरुलाल्लाव ४-१२ 
कौरित्यं कचनिचये ७-८१ 


, 


क्रोडन्ति प्रसरन्ति ४-२१ 
क्षीण.‡क्षीणोऽपि ७-६० 


गवमसवाह्य ८-७ण 


ग्रामतरुणं ७-३६ 

घनाघ नायं ३-५६ 

चक्र दहतार ३-४ 

तत्र भवन्मगवन्‌ ६-१६ 
तदल्पमपि नोपेक्ष्यम्‌ १-१४ 


तदिदमरण्यम्‌ ७-१०४ 


दत्त्वा दशन ७-७८ 
दिवमप्युपयातानां &-& 


दैवादहमद्य ७-२६ 
नारीणामलस नाभि ३-२४ 
वालमृगलोचनाया १-३६ 
भणतरुणि रमण २.२२ 


परिदिष्ट 


कान्यानुशासन (टी०) २७४ पृष्ठ 
काव्यानुशासन ३४४ पृष्ठ 
अलकारसर्वेस्वं ८७ + 
कान्यप्रकाङ १०-५२३ 
काव्यानुशासन २८० पृष्ठ 
काव्यप्रकाश १०-४६२ 
अलकारसरवेस्व ४८ पृष्ठ 
साहित्यदपंण १०-५३ 
कान्यानुकशासन ३२२ पृष्ठ 
कान्यायुद्ासन ३२२ +; 
कान्यप्रकाश १०-५५५ 
कान्यप्रकादा १-३ 

कान्यानुशासनं (टी०) २५६ पृष्ठ 
कान्याचुशासन २५२ प्रष्ठ 
कान्यानुलासन १५० + 
अलकारदेखर १४ पृष्ठ 
कान्यादशं १-७ 

कान्यानुशासन ३५३ पृष्ठ 
अलकारसवंस्व १०३ पृष्ठ 
क(न्यप्रकार १०-५०६ 
अलकारसवंस्व ८६ पृष्ठ 
अरुकारसवेस्व ७९ ,, 
साहित्यदपंण १०-७४ 
काव्यानुशासन ३२० पृष्ठ 
अलकाररत्नाकर ६३-२३४१ 
काव्यप्रकाश १०५-५९ 
कान्यपरकाश ४-२६ । 
काव्याचुलासन (दी०) २५५ पृष्ठ 
काव्यानुशासन २२४ पृष्ठ 
कान्यानुशासन २२१ , ~+“! 
वक्रोक्तिजीवितं १-६ क 
काव्यप्रकाश १०-५८ १ । 


4. 


४१५४ कान्यालंकार [ परि०४ 


भक्ता हि मया गिरयः ११-२१ दगरूपक (वृत्ति) ३-१६ 


संजीरार्दिषु रणित ६-२५ 
माता नतानां संघटूः ५-७ 


माननापिरूप ५-१० 
मारारिदाक्र ५-६ 


योग्यो यस्ते पुत्रः ६-४४ 
रसां साररसा सार ५-२० 
राज्ये सारं वसुधा ७-६७ 


रुलना. सरोरुहिण्यः ८-४३ 
वद वंद जितः ६-३० 
विदल्ितसकखारि ७-२८ 


-विनायमेनौो ३-१५ 
रारदिन्दुसुन्दरमुखी ८-२० 
सततमनिवर तमानस ७-७१५ 
सत्त्वार्म्भरतो ३-१८ 


सत्यं त्वमेव सरलः ६-३५ 
-सन्नारीभरणोमायं ३-५ 
सरला बहुलारम्भ ५-१६ 
, ^“. ससार साकं दपण ३-३५ 


ठेना, खीलीरी ५-१५ 
दये चक्षुषि €-5 


। 
भ ` ग ४ 
ह ट ह + ॥॥ = - भ ॥ि [र 


काव्यानुनगासन १६६ पृष्ठ 
काव्यप्रकाश ६-३८५ 
काव्यानुगासन २६३ पृष्ठ 
कान्यानुश्ासन {टी०) २५५ पृष्ठ 
कान्यानुशासन २६३ पष्ठ 
कान्यप्रकाद् ९-२८४ 
अलंकारदोखर १७ पृष्ठ 
कान्यप्रकाड &-र२े८ण 
काव्यानुनासन २४५ पृष्ठ 
काव्यप्रकादरा १०.५३२ 
अलकाररत्वाकर ९३-५०८ 
सारित्यदपंण १०-७६ 
कान्यानुनगासन ३०२ पृष्ठ 
कान्यप्रकाडा ७-३ १३ 
काव्यप्रकाश १०-५१० 
अकारस्वंस्व ६० पृ 
अरकाररत्नाकर ८६-४६१५ 
काव्यानूनासन ३४३ पृष्ठ 
कान्यप्रकाड ६-३६१ 
कान्यानुञ्ासन २६१ पृष्ठ 
दङरूपक १५७ प° 
कान्यानुश्ासन २५३ पृष्ठ 
कान्यप्रकाश्च €-३६२, ३६३ 
कान्यानुक्ासन ३२३ पृष्ठ 
कान्यप्रकाड €-३६० 
कन्यप्रकाक् ६-३८६ 
कान्यग्रकाद ६-३६७ 


 काव्यानुक्षासन (टी०) २५६ पृष्ठ 


काव्यानुक्लासन (टी०) २६२ „+ 
काव्यानुशासन २२० धृष्ठ 


धरि० ४ | 


नमिसाधुप्रणीतटीका 
भयं पद्मासनासीनः ११-२४ 
उक्कृत्योत्कृत्य कृत्ति ७-३१ 

(माक्तीमाधव ५-१६) 


कर्ता चूतच्छकानाम्‌ ७-७३ 
(वेणीसहार ५-२६) 


कान्ते इन्दुरिरोरतने ६-१५ 
कि तावतु सरसि (क्ि° व० ८-२६) पद 
खमिव जरम्‌ ८-१० 


परिशिष्ट 


ग्रन्थान्तराणि 
कान्यालकार (भामह) २-५५ 
दश्चरूपक (वृत्ति) ४।७३ 
अलकारद्ेखर ८१ पृष्ठ 
साहित्यदपेण ३-२४२ 
नाट्‌यदपंण १-४१ सूत्र 
दशरूपक (वुत्ति) ३-१६ 
साहित्यदपंण ६-२५८ 
काव्याककार (भामह) ४-२८ 
साहित्यदपंण १०-३६ 
अकंकारस्वंस्व २२ पृष्ठ 
व्यक्तितिवेक २९७ प° 


गाण्डीवी केनकरशिखा (किराता० १७-६३) २-८ साहित्यदपंण ७-५ 


चन्द्रायते शुक्छर्चां ८-२८ 

दिने दिने सा(कू० सण १-२५) ८-५ 
दिवाकराद्रक्षति (कु° सं० १-१२) १०-२६ 
नष्ट वर्षवर. ७-३३ 


निपेतुरास्याद्विव ११-२४ 
नेसगिकी च प्रतिभा-१-१४ 
पुष्प प्रवारोपहित -११-३२ 
(कु० स० १ -४४) 
भ्रसाधिकारम्बित (रघु ° ७-७) ७-३३ 
प्रहरकमपनीय ७-३० 
प्रियेण सम्रथ्य विपक्ष उ-ठर्थं 
महीभृत.. पुत्रवतो (कूु० सं° १-२७) ६-€ 
रजिता नु विविधा (किराता० ९-१५) ८-६६ 


रावणावग्रहक्छान्त (रघु ०, १०-४८ ) ८-५९ 
लावण्यसिन्धुरपरेव २-६ ` 
वनेऽथ तस्मिन्‌ १ १-२४ 


साहित्यदपण (वृत्ति) १०-२५ 
व्यक्तिविवेक ३४७ पु9 
साहित्यदपंण ७-१६ 

दशरूपक २-५६ 

साहित्यदर्पण ३-४४ वृत्ति 
कान्यालकार (भामह) ४-२७ 
अककारदोखर ५ पृष्ठ 
अरकारसवंस्व ४० पृष्ठ 


साहित्यदपंण ३-१०.६. 
दङरूपक (वृत्ति) ४-२३ 
कान्यालकारसूत्रवृत्ति ४-३-२१ 
व्यक्तिविवेक २९५ पु 
साहित्यदर्पण १०-४६ 
अकंकारसवंस्व ३० पु० 
साहित्प्रदपण (वृत्ति) १०-३१ ` 
कव्यालकारसूत्रवृत्ति ४-३-४ 
काव्यारुकार (भामह) २-६३ 


व्याहृता प्रतिवचो (कू° सं ° ०८-२) ११-११ दशरूपक (वृत्ति) ४.५४, ` 


[1 
# 0 1 


४१ 


४५६ 


र पीतवासा ११.२४ 
स मारुताकम्मपित ११-२४ 
स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमांचः १२-३ 


अप्पय्यदीकषित 
अभिनवगुप्त 
गानन्दवद्धन 
उद्भट 
कुन्तक 
जगन्ताथ 
जयदेव 
दण्डी 
धनञ्जय 
भरत 
भामह 
भोजराज 
ॐ 
मम्मट 
राजशेखर 
रामचन्द्र-गुणचन्द्र 
स्द्रट 
` वामन 
, > „~ विक्वनाय 
` सर 


\ 6 


` सेना रीरीटी ५-\ 
\,. -इृदये चक्षुषि €-८ 


[1 
1 । 
दः 


ए ससार ९ न 


कान्यालकार 


[ परि० ४ 


कान्याकंकार (भामह) २-५८ 
कान्यारुकार (भामह) २-४१ 
अरकारन्नेखर ७५ पृण 


परमुख-सहायकग्रन्थ-सुची 


कूवर्यानन्दं 
अभिनवभारती 
ध्वन्यालोक 
कान्यालकारसारसग्रह्‌ 
वक्रोक्तिजीवित 
रसगगाधर 
चन्द्राखोक 
काव्यादशं 

दशरूपक 
नास्यक्ास् 
कान्याखकार 
सरस्वतीकण्ठाभरण 
श्युगारप्रकाड 
कान्यप्रकारं 
काव्यमीमांसा 
नाखयदपंण 
काव्याककार 
काव्याङंकारसूत्रवृत्ति 


नि० सा० प्रं 
आ० विदवेदवर 
9१ 

व० सण०्प्रा० सींऽ 
आ० विदवेन्वर 
नि० सा०प्रं° 
चौ°सण० सीण 
नी°ओ० आर० आई० 
नि°सा० प्रे 
चौ० सं० सी० 

‰ 
नि° सा० प्रे 
डों° वी° राघवन 
ञमरुकीकर 
प० केदारनाथ सारस्वत 
आ० विदवेदवर 
नि०सा० प्र 
आ० विदवेदवर 


साहित्यदपुण ^. 2.5३.८ पं ० शालग्राम 1